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________________ चीन्द्रसरिस्मारकालय - जैन आगम साहित। ... मान्यताओं का निर्देश हुआ है, फिर चाहे उन्हें विकृत रूप में ही प्रस्तुत ५८) में कहा गया है “यह जो द्वादश-अङ्ग या गणिपिटक है वह क्यों न किया गया हो। इसी प्रकार थेरगाथा, सुत्तनिपात आदि के अनेक ऐसा नहीं है कि यह कभी नहीं था, कभी नहीं रहेगा और न कभी थेर (स्थविर) भी प्राचीन श्रमण-परम्पराओं से सम्बन्धित रहे हैं। इस होगा। यह सदैव था, सदैव है और सदैव रहेगा। यह ध्रुव, नित्य सबसे भारत में श्रमणधारा के प्राचीनकाल में अस्तित्व की सूचना मिल शाश्वत, अक्षय, अवस्थित और नित्य है।'' इस प्रकार जैन-चिन्तक जाती है। पद्मभूषण पं० दलसुखभाई मालवणिया ने पालित्रिपिटक में एक ओर प्रत्येक तीर्थङ्कर के उपदेश के आधार पर उनके प्रमुख शिष्यों अजित, अरक और अरनेमि नामक तीर्थङ्करों के उल्लेख को भी खोज के द्वारा शब्द-रूप में आगमों की रचना होने की अवधारणा को स्वीकार निकाला है। ज्ञातव्य है कि उसमें इन्हें “तित्थकरो कामेसु वीतरागो” करते हैं तो दूसरी ओर अर्थ या कथ्य की दृष्टि से समरूपता के आधार कहा गया है- चाहे हम यह माने या न मानें कि इनकी सङ्गति जैन पर यह भी स्वीकार करते हैं कि अर्थ-रूप से जिनवाणी सदैव थी परम्परा के अजित, अर और अरिष्टनेमि नामक तीर्थङ्करों से हो सकती और सदैव रहेगी। वह कभी भी नष्ट नहीं होती है। विचार की अपेक्षा है- किन्तु इतना तो मानना ही होगा कि ये सभी उल्लेख श्रमणधारा से आगमों की शाश्वतता और नित्यता मान्य करते हुए भी जैन-परम्परा के अतिप्राचीन अस्तित्व को ही सूचित करते हैं। उन्हें शब्द-रूप से सृष्ट और विच्छिन्न होने वाला भी मानती है। अनेकान्त की भाषा में कहें तो तीर्थङ्कर की अनवरत परम्परा की दृष्टि से आगम वैदिक साहित्य और जैनागम शाश्वत और नित्य हैं, जबकि तीर्थङ्कर-विशेष के शासन की अपेक्षा वैदिक साहित्य में वेद प्राचीनतम हैं। वेदों के सन्दर्भ में भारतीय से वे सृष्ट एवं अनित्य हैं। दर्शनों में दो प्रकार की मान्यताएँ उल्लिखित हैं। मीमांसकदर्शन के वैदिक साहित्य और जैनागमों में दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर यह अनुसार वेद अपौरुषेय हैं अर्थात् किसी व्यक्ति विशेष द्वारा निर्मित है कि वेदों के अध्ययन में सदैव ही शब्द-रूप को महत्त्व दिया गया नहीं हैं। उनके अनुसार वेद अनादि-निधन हैं, शाश्वत हैं, न तो उनका और यह माना गया कि शब्द-रूप में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए, कोई रचयिता है और नहीं रचनाकाल। नैयायिकों की मान्यता इससे उसका अर्थ स्पष्ट हो या न हो। इसके विपरीत जैन-परम्परा में तीर्थङ्करों भिन्न है, वे वेद-वचनों को ईश्वर-सृष्ट मानते हैं। उनके अनुसार वेद । को अर्थ का प्रवक्ता माना गया और इसलिए इस बात पर बल दिया अपौरुषेय नहीं, अपितु ईश्वरकृत हैं। ईश्वरकृत होते हुए भी ईश्वर के गया कि चाहे आगमों में शब्द-रूप में भिन्नता हो जाय किन्तु उनमें अनादि-निधन होने से वेद भी अनादि-निधन माने जा सकते हैं, किन्तु अर्थ-भेद नहीं होना चाहिए। यही कारण था कि शब्द-रूप की इस जब उन्हें ईश्वरसृष्ट मान लिया गया है, तो फिर अनादि कहना उचित उपेक्षा के कारण परवर्तीकाल में आगमों में अनेक भाषिक परिवर्तन नहीं है, क्योंकि ईश्वर की अपेक्षा से तो वे सादि ही होंगे। हुए और आगम पाठो की एकरूपता नहीं रह सकी। यद्यपि विभिन्न जहाँ तक जैनागमों का प्रश्न है उन्हें अर्थ-रूप में अर्थात् सङ्गीतियों के माध्यम से एकरूपता बनाने का प्रयास हुआ, लेकिन कथ्य-विषय-वस्तु की अपेक्षा से तीर्थङ्करों के द्वारा उपदिष्ट माना जाता उसमें पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी। यद्यपि वह शब्द-रूप परिवर्तन है। इस दृष्टि से वे अपौरुषेय नहीं हैं। वे अर्थ-रूप में तीर्थङ्करों द्वारा भी आगे निर्बाध रूप से न चले, इसलिए एक ओर उन्हें लिपिबद्ध उपदिष्ट और शब्द-रूप में गणधरों द्वारा रचित माने जाते हैं, किन्तु करने का प्रयास हुआ तो दूसरी ओर आगमों में पद, अक्षर, अनुस्वार यह बात भी केवल अङ्ग आगमों के सन्दर्भ में है। अङ्गबाह्य आगम आदि में परिवर्तन करना भी महापाप बताया गया। इस प्रकार यद्यपि ग्रन्थ तो विभिन्न स्थविरों और पूर्वधर-आचार्यों की कृति माने ही जाते आगमों के भाषागत स्वरूप को स्थिरता तो प्रदान की गयी, फिर भी हैं। इस प्रकार जैन-आगम पौरुषेय (पुरुषकृत) हैं और काल विशेष शब्द की अपेक्षा अर्थ पर अधिक बल दिये जाने के कारण जैनागमों में निर्मित हैं। का स्वरूप पूर्णतया अपरिवर्तित नहीं रह सका, जबकि वेद शब्द-रूप किन्तु जैन आचार्यों ने एक अन्य अपेक्षा से विचार करते हुए। में अपरिवर्तित रहे। आज भी उनमें ऐसी अनेक ऋचायें है- जिनका अङ्ग-आगमों को शाश्वत भी कहा है। उनके इस कथन का आधार । कोई अर्थ नहीं निकलता है (अनर्थका: हि वेद-मन्त्राः)। इस प्रकार यह है कि तीर्थङ्करों की परम्परा तो अनादिकाल से चली आ रही है वेद शब्द-प्रधान है जबकि जैन-आगम अर्थ-प्रधान है। और अनन्तकाल तक चलेगी, कोई भी काल ऐसा नहीं, जिसमें तीर्थङ्कर वेद और जैनागमों में तीसरी भिन्नता उनकी विषय-वस्तु की अपेक्षा नहीं होते हैं। अत: इस दृष्टि से जैन-आगम भी अनादि-अनन्त सिद्ध से भी है। वेदों में भौतिक उपलब्धियों हेतु प्राकृतिक शक्तियों के प्रति होते हैं। जैन मान्यता के अनुसार तीर्थङ्कर भिन्न-भिन्न आत्माएँ होती प्रार्थनाएँ ही प्रधान रूप से देखी जाती हैं साथ ही कुछ खगोल-भूगोल . हैं, किन्तु उनके उपदेशों में समानता होती है और उनके समान उपदेशों सम्बन्धी विवरण और कथाएँ भी हैं। जबकि जैन अर्धमागधी-आगम के आधार पर रचित ग्रन्थ भी समान ही होते हैं। इसी अपेक्षा से नन्दीसूत्र साहित्य में आध्यात्मिक एवं वैराग्यपरक उपदेशों के द्वारा मन, इन्द्रिय में आगमों को अनादि-निधन भी कहा गया है। तीर्थङ्करों के कथन और वासनाओं पर विजय पाने के निर्देश दिये गये हैं। इसके साथ-साथ में चाहे शब्द-रूप में भिन्नता हो, किन्तु अर्थ-रूप में भिन्नता नहीं होती उसमें मुनि एवं गृहस्थ के आचार सम्बन्धी विधि-निषेध प्रमुखता से है। अत: अर्थ या कथ्य की दृष्टि से यह एकरूपता ही जैनागमों को वर्णित हैं तथा तप-साधना और कर्म-फल विषयक कुछ कथाएँ भी प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त सिद्ध करती है। नन्दीसूत्र (सूत्र हैं। खगोल-भूगोल सम्बन्धी चर्चा भी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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