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________________ अर्धमागधी आगम-साहित्य : एक विमर्श भारतीय संस्कृति में अति प्राचीनकाल से ही दो समानान्तर धाराओं श्रमण-परम्परा के साहित्य का प्रश्न है दुर्भाग्य से वह आज हमें उपलब्ध की उपस्थिति पाई जाती है- श्रमणधारा और वैदिकधारा। जैन-धर्म नहीं है, किन्तु वेदों में उस प्रकार की जीवन-दृष्टि की उपस्थिति के और संस्कृति इसी श्रमणधारा का अङ्ग है। जहाँ श्रमणधारा निवृत्तिपरक सङ्केत यह अवश्य सूचित करते हैं कि उनका अपना कोई साहित्य रही, वहाँ वैदिकधारा प्रवृत्तिपरक। जहाँ श्रमणधारा में संन्यास का प्रत्यय भी रहा होगा, जो कालक्रम में लुप्त हो गया। आज आत्मसाधना-प्रधान प्रमुख बना, वहाँ वैदिकधारा में गृहस्थजीवन का। श्रमणधारा ने सांसारिक निवृत्तिमूलक श्रमणधारा के साहित्य का सबसे प्राचीन अंश यदि कहीं जीवन की दु:खमयता को अधिक अभिव्यक्ति दी और यह माना कि उपलब्ध है, तो वह औपनिषदिक साहित्य में है। प्राचीन उपनिषदों शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दु:खों का सागर, अत: उसने में न केवल वैदिक कर्म-काण्डों और भौतिकवादी जीवन-दृष्टि की शरीर और संसार दोनों से ही मुक्ति को अपनी साधना का लक्ष्य माना। आलोचना की गई है, अपितु आध्यात्मिक मूल्यों की जो प्रतिष्ठा हुई उसकी दृष्टि में जैविक एवं सामाजिक मूल्य गौण रहे और अनासक्ति, है, वह स्पष्टतया इस तथ्य का प्रमाण है कि वे मूलतः श्रमण जीवन-दृष्टि वैराग्य और आत्मानुभूति के रूप में मोक्ष या निर्वाण को ही सर्वोच्च के प्रस्तोता हैं। मूल्य माना गया। इसके विपरीत वैदिकधारा ने सांसारिक जीवन को यह सत्य है कि उपनिषदों में वैदिकधारा के भी कुछ सङ्केत उपलब्ध वरेण्य मानकर जैविक एवं सामाजिक मूल्यों अर्थात् जीवन के रक्षण है किन्तु यह नहीं भूलना चाहिये कि उपनिषदों की मूलभूत जीवन-दृष्टि एवं पोषण के प्रयत्नों के साथ-साथ पारस्परिक सहयोग या सामाजिकता वैदिक नहीं, श्रमण है। वे उस युग की रचनायें हैं, जब वैदिकों द्वारा को प्रधानता दी। फलत: वेदों में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं श्रमण-संस्कृति के जीवन मूल्यों को स्वीकृत किया जा रहा था। वे पारस्परिक सहयोग हेतु प्रार्थनाओं के स्वर अधिक मुखर हुए हैं, यथा- वैदिक संस्कृति और श्रमण-संस्कृति के समन्वय की कहानी कहते हैं। हम सौ वर्ष जीयें, हमारी सन्तान बलिष्ठ हो, हमारी गायें अधिक दूध ईशावास्योपनिषद् में समन्वय का यह प्रयत्न स्पष्ट रूप से परिलक्षित दें, वनस्पति एवं अन्न प्रचुर मात्रा में उत्पन्न हों, हममें परस्पर सहयोग होता है। उसमें त्याग और भोग, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, कर्म और हो आदि। ज्ञातव्य है कि वेदों में वैराग्य एवं मोक्ष की अवधारणा कर्म-संन्यास, व्यक्ति और समष्टि, अविद्या (भौतिक ज्ञान) और विद्या अनुपस्थित है, जबकि वह श्रमणधारा का केन्द्रीय तत्त्व है। इस प्रकार (आध्यात्मिक ज्ञान) के मध्य एक सुन्दर समन्वय स्थापित किया ये दोनों धाराएँ दो भिन्न जीवन-दृष्टियों को लेकर प्रवाहित हुई है। गया है। परिणामस्वरूप इनके साहित्य में भी इन्हीं भिन्न-भिन्न जीवन-दृष्टियों उपनिषदों का पूर्ववर्ती एवं समसामयिक श्रमण-परम्परा का जो का प्रतिपादन पाया जाता है। अधिकांश साहित्य था, वह श्रमण-परम्परा की अन्य धाराओं के जीवित श्रमण-परम्परा के साहित्य में संसार की दुःखमयता को प्रदर्शित न रह पाने या उनके बृहद् हिन्दू-परम्परा में समाहित हो जाने के कारण कर त्याग और वैराग्यमय जीवन-शैली का विकास किया गया, जबकि या तो विलुप्त हो गया था या फिर दूसरी जीवित श्रमण परम्पराओं वैदिक साहित्य में ऐहिक जीवन को अधिक सुखी और समृद्ध बनाने अथवा बृहद् हिन्दू-परम्परा के द्वारा आत्मसात् कर लिया गया। किन्तु हेतु प्रार्थनाओं की और सामाजिक-व्यवस्था (वर्ण-व्यवस्था) और भौतिक । उसके अस्तित्व के सङ्केत एवं अवशेष आज भी औपनिषदिक साहित्य, उपलब्धियों हेतु विविध कर्मकाण्डों की सर्जना हुई। प्रारम्भिक वैदिक पालित्रिपिटक और जैनागमों में सुरक्षित है। प्राचीन आरण्यकों, साहित्य, जिसमें मुख्यत: वेद और ब्राह्मण ग्रन्थ समाहित हैं, में लौकिक उपनिषदों, आचाराङ्ग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने वाली प्रार्थनाओं और कर्मकाण्डों इसिभासियाई, थेरगाथा, सुत्तनिपात और महाभारत में इन विलुप्त या का ही प्राधान्य है। इसके विपरीत श्रमण-परम्परा के प्रारम्भिक साहित्य समाहित श्रमण-परम्पराओं के अनेक ऋषियों के उपदेश आज भी पाये में संसार की दुःखमयता और क्षणभङ्गरता को प्रदर्शित कर उससे वैराग्य जाते हैं। इसिभासियाई, सूत्रकृताङ्ग और उत्तराध्ययन में उल्लिखित और विमुक्ति को ही प्रधानता दी गई है। संक्षेप में श्रमणपरम्परा का याज्ञवल्क्य, नारद, असितदेवल, कपिल, पाराशर, आरुणि, उद्दालक, साहित्य वैराग्य-प्रधान है। नमि, बाहुक, रामपुत्त आदि ऋषि वे ही हैं, जिनमें से अनेक के उपदेश श्रमणधारा और उसकी ध्यान और योग-साधना की परम्परा के एवं आख्यान उपनिषदों एवं महाभारत में भी सुरक्षित हैं। जैन-परम्परा अस्तित्व के सङ्केत हमें मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की संस्कृति के काल में ऋषिभाषित में इन्हें अर्हत् ऋषि एवं सूत्रकृताङ्ग में सिद्धि को प्राप्त से ही मिलने लगते हैं। यह माना जाता है कि हड़प्पा-संस्कृति वैदिक तपोधन महापुरुष कहा गया है और उन्हें अपनी पूर्व परम्परा से सम्बद्ध संस्कृति से भी पूर्ववर्ती रही है। ऋग्वेद जैसे प्राचीनतम ग्रन्थ में व्रात्यों बताया गया है। पालित्रिपिटक दीघनिकाय के सामञफलसुत्त में भी और वातरशना मुनियों के उल्लेख भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं बुद्ध के समकालीन छह तीर्थङ्करों- अजितकेशकम्बल, प्रकुधकात्यायन, कि उस युग में श्रमणधारा का अस्तित्व था। जहाँ तक इस प्राचीन पूर्णकश्यप, सञ्जयवेलट्ठिपुत्त, मङ्खलिगोशालक एवं निग्गंठनातपुत्त की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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