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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य
अतः इतना निश्चित है कि प्रलंबसूरि वि.सं. १३३४ के पहले हुए हैं। हो सकता है कि ये चूर्णिकार सिद्धसेन के समकालीन हों अथवा उनसे भी पहले हुए हों ।
दशवैकालिक चूर्णिकार अगस्त्यसिंह कोटिगणीय वज्रस्वामी की शाखा के एक स्थविर हैं । इनके गुरु का नाम ऋषिगुप्त है। इनके समय आदि के विषय में प्रकाश डालने वाली कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इनकी चूर्णि अन्य चूर्णियों से विशेष प्राचीन नहीं है। इसमें तत्त्वार्थ सूत्र आदि के संस्कृत-उद्धरण भी हैं। चूर्णि के प्रारंभ में ही सम्यग्दर्शनज्ञान (तत्त्वा. अ. १, सू. १) सूत्र उद्धृत किया गया है। शैली आदि की दृष्टि से चूर्णि सरल है।
आगे हम कुछ महत्त्वपूर्ण चूर्णियों के संबंध में प्रकाश डालेंगे। नन्दी चूर्णि
यही चूर्णि५ मूल सूत्रानुसारी है तथा मुख्यतया प्राकृत में लिखी गई है। इसमें यत्र-तत्र संस्कृत का प्रयोग है अवश्य किन्तु वह नहीं के बराबर है। इसकी व्याख्यानशैली संक्षिप्त एवं सारग्राही है। इसमें सर्वप्रथम जिन और वीरस्तुति की व्याख्या की गई है, तदन्तर संघस्तुति की। मूल गाथाओं का अनुसरण करते हुए आचार्य ने तीर्थंकरों, गणधरों और स्थविरों की नामावली भी दी है। इसके बाद तीन प्रकार की पर्षद् की ओर संकेत करते हुए ज्ञानचर्चा प्रारंभ की है। जैनागमों में प्रसिद्ध आभिनिबोधिक (मति), श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन पांच प्रकार के ज्ञानों का स्वरूप - वर्णन करने के बाद आचार्य ने प्रत्यक्ष-परोक्ष की स्वरूप-चर्चा की है। केवलज्ञान की चर्चा करते हुए चूर्णिकार
पंद्रह प्रकार के सिद्धों का भी वर्णन किया है- १. तीर्थसिद्ध, २. अतीर्थसिद्ध, ३. तीर्थंकरसिद्ध, ४ अतीर्थंकरसिद्ध, ५. स्वयंबुद्धसिद्ध, ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध, ७ बुद्धबोधितसिद्ध, ८. स्त्रीलिंगसिद्ध, ९. पुरुषलिंगसिद्ध, १०. नपुंसकलिंगसिद्ध, ११. स्वलिंगसिद्ध, १२. अन्यलिंगसिद्ध, १३. गृहलिंग सिद्ध, १४. एकसिद्ध, १५. अनेकसिद्ध। ये अनन्तसिद्ध केवलज्ञान के भेद हैं। इसी प्रकार केवलज्ञान के परम्परसिद्ध केवलज्ञान आदि अनेक भेदोपभेद हैं। इन सबका मूल सूत्रकार ने स्वयं ही निर्देश किया है।
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केवलज्ञान और केवलदर्शन के संबंध की चर्चा करते हुए आचार्य ने तीन मत उद्धृत किए हैं- १. केवलज्ञान और केवलदर्शन का यौगपद्य, २. केवलज्ञान और केवलदर्शन का क्रमिकत्व, ३. केवल ज्ञान और केवलदर्शन का अभेद । एतद्विषयक गाथाएँ इस प्रकार हैं-
ई भांति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा । अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुकवदेसेणं ।।1।। अण्णे ण चेव वीसुं दंसणमिच्छंति जिणवरिंदस्स । जं चिय केवलणाणं तं चिय से दंसणं बेंति ॥ 2 ॥
इन तीनों मतों के समर्थन के रूप में भी कुछ गाथाएँ दी गई हैं। आचार्य ने केवलज्ञान और केवलदर्शन के क्रमभावित्व का समर्थन किया है। एतद्विषयक विस्तृत चर्चा विशेषावश्यक भाष्य में देखनी चाहिए । १६
श्रुतनिश्रित, अश्रुतनिश्रित आदि भेदों के साथ आभिनिबोधिक्ज्ञान का सविस्तर विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने श्रुतज्ञान का अति विस्तृत व्याख्यान किया है। इस व्याख्यान में संज्ञीश्रुत, असंज्ञीश्रुत, सम्यक् श्रुत, मिथ्याश्रुत, सादिश्रुत, अनादिश्रुत, गमिकश्रुत, अगमिक श्रुत, अंगप्रविष्टश्रुत, अंगबाह्य श्रुत, उत्कालिक श्रुत, कालिकश्रुत आदि श्रुत के विविध भेदों का समावेश किया गया है। द्वादशांग की आराधना के फल की ओर संकेत करते हुए आचार्य ने निम्न गाथा में अपना परिचय देकर ग्रन्थ समाप्त किया है-
णिरेणगगमत्तणहसदा जिया, पसुपतिसंखगजट्ठिताकुला। कमट्ठिता धीमतचिंतियक्खरा, फुडं कहेयंतभिघाणकत्तुणो ॥ 1 ॥ नन्दी चूर्णि (प्रा.टे.सो.) पृ. ८३
अनुयोगद्वारचूर्णि
प्राकृत
यह चूर्णि १७ मूल सूत्र का अनुसरण करते हुए मुख्यतया 'में लिखी गई है। इसमें संस्कृत का बहुत कम प्रयोग हुआ है। प्रारंभ में मंगल के प्रसंग से भावनंदी का स्वरूप बताते हुए 'णाणं पंचविधं पण्णत्तं' इस प्रकार का सूत्र उद्धृत किया गया है और कहा गया है कि इस सूत्र का जिस प्रकार नंदीचूर्णि में व्याख्यान किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी व्याख्यान कर लेना चाहिए। इस कथन से स्पष्ट है कि नंदीचूर्णि अनुयोगद्वारचूर्णि से पहले लिखी गई है। प्रस्तुत चूर्णि में आवश्यक, तंदुलवैचारिक
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