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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन परिभाषा अनुमान की संपूर्ण पृष्ठभूमि पर प्रकाश नहीं डालती है। अभ्रान्त होता है यानी उसमें किसी प्रकार की भ्रान्ति या आशंका यह सिर्फ इतना बताती है कि आगमन-पद्धति को अपनाकर हम नहीं रहती है। इसीलिए अनुमान को साध्य-निश्चायक भी कहते अनुमान कैसे कर सकते हैं। हैं। न्यायावतार के हिन्दी अनुवादक पं. विजयमूर्तिजी ने लिखा है अनुमान की परिभाषा में 'साध्याविनाभु' अर्थात् सांध्य के जैन परंपरा बिना न होने वाले विशेषण को लाकर आचार्य ने दूसरे वादियों अनुमान का प्राचीन रूप - जैन विद्वानों ने ऐसा माना है के द्वारा प्रणीत लिङ्ग के लक्षणों का निराकरण किया है। कि अनुमान का प्रारंभिक रूप अभिनिबोध ज्ञान में मिलता है। अकलंक - जैन न्याय के प्रतीक अकलंक ने अनुमान को तत्त्वार्थ सूत्र में यद्यपि उमास्वाति ने अनुमान की चर्चा नहीं की परिभाषित करते हुए कहा है२०- साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम्...। है फिर भी उनके द्वारा प्रतिपादित अभिनिबोध से अनुमान का अर्थात् साधन से साध्य के विषय में जो ज्ञान होता है उसे संकेत मिलता है। अकलंक, विद्यानंद, श्रुतसागर आदि जैनाचार्यों अनुमान कहते हैं। यह ज्ञान लिड्ग ग्रहण और व्याप्तिस्मरण के के मत में इस धारणा को समर्थन प्राप्त है। अकलंक की उक्ति बाद होता है। चूँकि यह ज्ञान अविशद होता है इसलिए परोक्ष है - चिंता अभिनिबोधस्य अनुमानादेः। इससे इसकी पुष्टि होती माना जाता है। किन्तु अपने विषय में यह अविसंवादी है तथा है कि प्राचीनकाल में अनुमान अभिनिबोधरूप में ही था। संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि समारोपों का निराकरण अनुमान का प्रचलित रूप - अनेक जैनाचार्यों ने अपनी- करने में समर्थ होता है, इसलिए इसे प्रमाण की कोटि में स्थान अपनी रचनाओं में स्पष्ट अथवा अस्पष्ट रूप से अनुमान के प्राप्त होता है। लघीयस्त्रय में अकलंक ने कहा है-- विवेचन किये हैं जिन्हें विस्तारपूर्वक यहाँ प्रस्तुत करना संभव लिङ्गात्साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षणात् नहीं है, किन्तु प्रमुख चिंतकों के विचार को जानना-समझना तो लिङ्गधीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः। सर्वथा आवश्यक है। साध्य का वह ज्ञान जो साध्य-अविनाभूत लिङ्ग के द्वारा समन्तभद्र - आप्तमीमांसा समन्तभद्र की प्रसिद्ध रचना प्राप्त होता है उसे अभिनिबोध या अनुमान कहते हैं और हान है। उसमें यद्यपि उनके द्वारा दी गई अनमान की कोई परिभाषा तो - आदि ज्ञान उसके फल होते हैं। यहाँ भी अनुमान के प्राचीन नाम उपलब्ध तो नहीं है फिर भी उनकी बहुत सी सूक्तियाँ मिलती हैं पर प्रकाश पड़ता है। जिनमें किसी न किसी रूप में अनुमान की झलक मिलती है। उनके संबंध में डा. कोठिया ने स्पष्टत: लिखा है--जिन उपादानों से अनुमान विद्यानन्द - प्रमाण संबंधी अपनी प्रसिद्ध रचना प्रमाणनिष्पन्न एवं संपूर्ण होता है उन उपादानों का उल्लेख भी उनके द्वारा परीक्षा में अनुमान को परिभाषित करते हुए विद्यानन्द ने कहा है२२ - इसमें किया गया है। उदाहरणार्थ - हेतु, साध्य, प्रतिज्ञा, सधर्मा, साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम्। अविनाभाव, सपक्ष साधर्म्य, वैधर्म्य, दृष्टान्त जैसे अनुमानोपकरणों इस परिभाषा में मात्र अकलंक के द्वारा दी गई अनुमान का निर्देश इसमें (आप्तमीमांसा में) किया गया है। की परिभाषा की पुनरावृत्ति है। किन्तु अकलंक के विचार को सिद्धसेन दिवाकर - जैन-न्याय में अनुमान की स्पष्ट ही वे तत्त्वश्लोकवार्तिक में प्रस्तुत करते हैं तो उनके कथन से परिभाषा सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर की रचना में मिलती है। अकलंक के मत का पिष्ट-पेषण ही नहीं होता है बल्कि उसमें उन्होंने अनुमान को इन शब्दों में प्रतिपादित किया है उनके अपने भी विचार व्यक्त होते हैं२३-- साध्याविनाभुवों लिङ्गात्साध्यनिश्चायकं स्मृतम्। साध्यभावासम्भवनियम लक्षणात् साधनादेव शक्याभिप्रेता अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवत्।। प्रसिद्धत्वलक्षणस्य साध्यस्यैव यद्विज्ञानं तदनुमानम् आचार्या विदुः। अर्थात् साध्य के बिना न होने वाले लिङ्ग से साध्य के आचार्य का कथन है कि उस साधन से जो साध्य के संबंध में निश्चित जानकारी देने वाला जो ज्ञान है उसे ही अनमान अभाव में संभव नहीं है, के द्वारा होने वाला शक्य, अभिप्रेत कहते हैं। वह अनुमान प्रमाण होने के कारण प्रत्यक्ष की तरह तथा अप्रसिद्ध साध्य का विज्ञान ही अनुमान है। ये आचार्य यानी aroorionitorionidmoonsansarbadroomidnirala-G४१]iwarirdivorrowroorbordNGrGorbandrod6d6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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