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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
(२) 'कल्याणमंदिरस्तोत्र' ४४ श्लोकों में है। यह भगवान् पार्श्वनाथ का स्तोत्र है। इसकी कविता में प्रसाद गुण कम और कृत्रिमता एवं श्लेष की अधिक भरमार है। परन्तु प्रतिभा की कमी नहीं है।
(३) वर्धमान शत्रिंशिधास्तोत्र ३२ श्लोकों में भगवान् महावीर की स्तुति है। इसमें कृत्रिमता एवं श्लेष नहीं है। प्रसादगुण
अधिक है । ६
इन दोनों स्तोत्रोंमें सिद्धसेन दिवाकर की काव्यकला उच्च श्रेणी की पाई जाती है।
(४) तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका बड़े बड़े जैनाचार्यों ने की है। इसके रचनाकार को दिगम्बर सम्प्रदाय वाले 'उमा स्वामि' और श्वेताम्बर सम्प्रदाय वाले 'उमास्वाति' बतलाते हैं। इस ग्रंथ की टीका सिद्धसेन दिवाकर ने बड़ी विद्वत्ता के साथ लिखी है । " जिनसेन - ये पुन्नाट सम्प्रदाय की आचार्य परम्परा में हुए । ये आदिपुराण के कर्त्ता श्रावक धर्म के अनुयायी एवं पंचस्तूपान्वय के जिनसेन से भिन्न हैं। ये कीर्तिषेण के शिष्य थे।
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जिनसेन का 'हरिवंश' इतिहासप्रधान चरितकाव्य श्रेणी का ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की रचना वर्धमानपुर वर्तमान बदनावर जिला धार में की गई थी। दिगम्बरीय सम्प्रदाय के कथासंग्रहों में इसका स्थान तीसरा है।
६. हरिषेण: पुन्नाट संघ के अनुयायियों में एक दूसरे आचार्य हरिषेण हुए। इनकी गुरुपरम्परा मौनी भट्टारक श्री हरिषेण, भरतसेन, हरिषेण इस प्रकार बनती है। अपने कथाकोश की रचना इन्होंने वर्धमानपुर या बढवाण बदनावर में विनायकपाल राजा के शासनकाल में की थी । विनायकपाल प्रतिहार वंश का राजा था। जिसकी राजधानी कन्नौज थी। इसका एक ९८८ वि. सं. का दानपत्र मिला है। इसके एक वर्ष पश्चात् अर्थात् वि.क्र. ९८९, शक संवत् ८५३ में कथाकोश साढ़े बारह हजार श्लोक परिमाण का वृहद् ग्रन्थ है। यह संस्कृतपद्यों में रचा गया है और उपलब्ध समस्त कथाकोशों में प्राचीनतम सिद्ध होता है । इसमें १५७ कथायें हैं। जिनमें चाणक्य, शकराज, भद्रबाहु वररुचि, स्वामी कार्तिकेय आदि ऐतिहासिक पुरुषों के चरित्र भी हैं। इस कथाकोश के अनुसार भद्रबाहु उज्जयिनी के समीप भाद्रपद में ही रह रहे थे और उनके दीक्षित शिष्य राजा चन्द्रगुप्त,
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अपरनाम विशाखाचार्य, संघ सहित दक्षिण के पुन्नाट देश को गये थे। कथाओं में कुछ नाम व शब्द जैसे मेदज्ज (मेतार्य), विज्जदाड़ (विद्युदंष्ट्र) प्राकृत रूप में प्रयुक्त हुए हैं जिससे अनुमान होता है कि रचयिता कथाओं को किसी प्राकृत-कृति के आधार पर लिख रहा है। उन्होंने स्वयं अपने कथाकोश को आराधनोधृत कहा है, जिससे अनुमानतः भगवताआराधना का अनुमान होता है । ११ ७. मानतुंग : इनके जीवन के सम्बन्ध में अनेक विरोधी विचार धाराएँ हैं। इनका समय सातवीं या आठवीं शताब्दी के लगभग माना जाता है।
रचनायें - इन्होंने मयूर और बाण के समान स्तोत्रकाव्य का प्रणयन किया। इनके भक्ताभरस्तोत्र का श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायवाले समान रूप से आदर करते हैं । कवि की यह रचना इतनी लोकप्रिय रही कि इसके प्रत्येक अन्तिम चरण को लेकर समस्यापूर्त्यात्मक स्तोत्रकाव्य लिखे जाते रहे। इस स्तोत्र की कई समस्यापूर्तियाँ उपलब्ध है (८) आचार्य देवसेन :- मार्गशीर्ष शुक्ला १० वि. सं. ९९० को धारा में निवास करते हुए पार्श्वनाथ के मंदिर में इन्होंने अपना ग्रन्थ 'दर्शनसार' समाप्त किया । १३ इन्होंने 'आराधनासार' और 'तत्त्वसार' नामक ग्रन्थ भी लिखे हैं । 'आलापपद्धति' और 'नयचक्र' आदि रचनायें आपने धारा में ही लिखीं अथवा अन्यत्र यह रचनाओं से ज्ञात नहीं होता। स्याद्वाद और नयवाद का स्वरूप समझने के लिए देवसेन की रचनायें बहुत उपयोगी हैं । १४ (९) आचार्य महासेन ये लाड़बागड़ संघ के पूर्णचन्द्र थे । आचार्य जयसेन के प्रशिष्य और गुणाकरसेनसूरि के शिष्य थे। इन्होंने 'प्रद्युम्नचरित' की रचना ११ वीं शताब्दी के मध्य भाग में की ये मुंज के दरबार में थे तथा मुंज द्वारा पूजित थे। न तो इनकी कृति में ही रचनाकाल दिया हुआ है और न ही अन्य रचनाओं की जानकारी मिलती है।
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(१०) अमितगति :- आचार्य अमितगति द्वितीय माथुरसंघ के आचार्य थे जो माधवनसेनसूरि के शिष्य और नेमिषेण के प्रशिष्य थे। अमितगति वाक्यतिराज मुंज की सभा के रत्न थे।
बहुश्रुत विद्वान थे। इनकी रचनाएँ विविध विषयों पर उपलब्ध हैं । इनकी रचनाओं में एक पंचसंग्रह वि.सं. २०७३ में मसूतिकापूर वर्तमान मसूद बिलोदा, जो धार के समीप है, बनाया गया था।
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