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सन्देश यह जानकर परम प्रसन्नता हुई कि आप सबआचार्य श्रीमद् यतीन्द्रसूरि दीक्षाशताब्दी स्मारक ग्रंथ के प्रकाश की योजना कार्यान्वित करने जा रहे हैं। इस पुनीत संकल्प की जितनी प्रशंसा की जाए स्वस्थ है। श्रीमद् यतीन्द्रसूरि जैन साधु थे। जो जिन है- जयनशाली है-कासाय पर विजय पा लिया है-वह जिन है और सच्चे अर्थों में वही जैन हैं। साध्नोति परकार्यमिति साधु : जो परहित साधनरत हो-नही साधु है। इस प्रकार आचार्य श्री की जैन साधुता अन्वर्थ है। आचार्य श्री की जीवन चर्चा स्वाध्याय और गुरु सेवा में निरंतर पगी रही। परिणाम सामने हैं। भारतीय परंपरा की पहचान है- गुरुसेवा और स्वाध्याय। महाराज श्री ने अपनी जीवन चर्चा से इस पहचान को पूर्ण प्रतिष्ठा दी है।
__महान क्षमताएं स्वाध्याय, बोध, आचरण और प्रचारक के सोमानों पर क्रमशः आरुढ़ होकर जीवनयात्रा को सार्थक बनाते हैं और ऊर्ध्वारोहण करते हैं। आपने स्वाध्याय को बोध में परिणित किया। बोध केवल अधीन की समझ तक ही नहीं होता- उसे समझ के साथ पचाना और पचाकर उसमें कुछ जोड़ना भी होता है। बोध तभी सार्थक है जब वह आचरण में उत्तर जाय। महाराज श्री ने उसे आचरण में उतारा है। ज्ञानं भारः क्रियाणीक ही कहा है। पर वह आचरणशाली आचार्य घूम-घूकर उसका प्रकरण भी करता है ताकि लोक का मंगल हो- संसार सही रास्ते पर संसरण करे। इस मार्ग से चलकर गंतव्य तक पहुंचने-पहुंचाने वाले आचार्य श्री की दीक्षा शताब्दी मनाना श्रद्धालुजन का कर्त्तव्य है। निश्चय ही ऐसा सुनीत कर्त्तव्य करने वाले आदरणीय है।
भवदीय
राममूर्ति त्रिपाठी प्रति, ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रधान सम्पादक
श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX (9) XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
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