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________________ आचार्य कुन्दकुन्द का मौलिक चिन्तन डॉ. ऋषभचन्द्र जैन 'फौजदार' व्याख्याता, प्राकृत एवं जैन शास्त्र प्राकृत, जैनशाला और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली-८४४१२८ (बिहार)... आचार्य कुन्दकुन्द का जैन श्रमण परंपरा में महत्त्वपूर्ण और व्यवहारनय को माध्यम बनाया गया है। सम्यग्ज्ञान, स्थान है। श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों ही परंपराओं में उन्हें समान सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को व्यवहारनय से नियत अर्थात् आदर प्राप्त है। दिगम्बर परंपरा में तो तीर्थंकर महावीर और मोक्षमार्ग कहा है। निश्चयनय से नियम को परिभाषित करते हुए गौतम गणधर के साथ उनका स्मरण किया जाता है। वे इतने कुन्दकुन्द कहते हैं-- यशस्वी थे कि उनके नाम पर कुन्दकुन्दान्वय ही प्रसिद्ध हो। सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा। गया। आज भी दिगम्बर परंपरा के जैन श्रमण स्वयं को अप्पाणं जो झायादि तस्सदुणियमं हवे णियमा।। नियम-१२० कुन्दकुन्दान्वयी कहने में गौरव का अनुभव करते हैं। अर्थात् शुभ और अशुभ वचनों की रचना तथा रागादिभावों कहा जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने ८४ पाहुडों - ग्रंथों का निवारण करके आत्मा का ध्यान करना. नियम से नियम हे की रचना की थी, किन्तु अभी तक उनके समयापाहुड,प्रवचनसार, अर्थात निश्चनय से नियम है। पंचास्तिकाय संग्रह, नियमसार, अष्टपाहड, रयणसार, बारस उक्त गाथा की संस्कृत टीका में पद्मप्रभमलधारिदेव ने अणुवेक्खा और प्राकृत भक्तियां ग्रन्थ ही खोजे जा सके हैं। उनके ग्रन्थों में केवलियों और श्रुतकेवलियों द्वारा कथित विषय भी कहा है-- वस्तु प्रस्तुत हुई है। ऐसा वे स्वयं ही नियमसार की मंगल गाथा वचनरचनां त्यक्त्वा भव्यः शुभाशुभलक्षणां, में कहते हैं। उनके ग्रन्थों में अध्यात्म और दर्शन संबंधी अनेक सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्पुटम्। मौलिक विचार प्रस्तुत हुए हैं। यहाँ उन पर संक्षेप में विचार परमयमिनस्तस्य ज्ञानात्मनो नियमादयं, किया जा रहा है -- भवति नियमः शुद्धो मुक्त्यंगनासुखकारणम्। नियम-टीका,श्लोक-१९१ नियम -- अर्थात् जो भव्य जीव शुभ-अशुभरूप वचनरचना को 'नियमसार' ग्रंथ में नियमसार नाम की सार्थकता बताते हुए छोड़कर नित्य ही स्फुटरूप से सहज परमात्मा का सम्यक् प्रकार कहा गया है कि जो नियम से करने योग्य कार्य है, वह नियम है। से अनुभव करता है, उस ज्ञानस्वरूप परम संयमी के नियम से यह वह नियम ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। इनसे विपरीत मिथ्यादर्शन, नियम होता है, जो मुक्तिसुंदरी (मोक्ष) के सुख का कारण है। मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का निषेध करने के लिए 'सार' पद अर्धमागधी एवं शौसेनी आगमों, प्राकृत के अन्य पारंपरिक कहा गया है। यह कथन करने वाली मूल गाथा इस प्रकार है-- ग्रन्थों तथा संस्कत ग्रन्थों में कहीं भी रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के लिए णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं। नियम शब्द का प्रयोग उपलब्ध नहीं होता है। इससे स्पष्ट है कि विवरीय परिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं।। नियम-३ आचार्य कुन्दकुन्द ने नियम शब्द का विशेष अर्थ में प्रयोग किया है। कुन्दकुन्द ने यहाँ नियम शब्द से सम्यक्ज्ञान, सम्यग्दर्शन कुन्दकुन्द ने दंसणपाहुड में कहा है कि ज्ञान, दर्शन, चरित्र और सम्यकचारित्र रूप मोक्षमार्ग का ग्रहण किया है। ग्रन्थकार और तप इन चारों का समागम होने पर मोक्ष होता है। सम्यक्त्व का उद्देश्य भी नियमरूप मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करना है, सहित इन चारों के समागम से ही जीव सिद्ध हुए हैं, इसमें संदेह जिसका फल निवाण है। उक्त मार्ग का कथन करने में निश्चयनय नहीं है। इससे जात होता है कि कन्दकन्द के काल तक चतर्विध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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