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• यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व
राग से वैराग्य की ओर
धौलपुर निवासी श्रीमान् ब्रजलाल जी एवं उनकी पतिपरायणा धर्मपत्नी चम्पाबाई के पुत्र रामरत्न अपनी माता के स्वर्गवास के पश्चात् अपने पिताश्री के साथ भोपाल आ गये। भोपाल में पिताजी के निधन के पश्चात् मामा ठाकुरदास के पास रहना पड़ा। अपने मामा के एक दिन के व्यवहार से क्षुब्ध होकर रामरत्न अपने एक परिचित के साथ भोपाल से उज्जैन आये। उज्जैन में मक्सी पार्श्वनाथ तीर्थ के दर्शन कर रामरत्न महिदपुर जिला उज्जैन पहुँचे। यहाँ संयोग इस समय जैन धर्म-प्रभावक अपने युग के एक महान् जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर जी म.सा. महिदपुर में अपने शिष्यों के साथ विराजमान थे। पूज्य गुरुदेव के शिष्यों में मुनि श्री लक्ष्मी विजयजी म. ये एवं मुनिश्री दीप विजय जी म. दो बालमुनि रामरत्न के पूर्व परिचित थे। परिणामस्वरूप रामरत्न को पूज्य गुरुदेव के दर्शन करने और चर्चा करने का अवसर सुलभ हो गया। बातचीत में पूज्य गुरुदेव ने अनुमान लगा लिया कि बालक होनहार है और भविष्य में अपने कुल का नाम उज्ज्वल करेगा। उधर रामरत्न को भी गुरुदेव के साथ हुई बातचीत से न केवल संतोष हुआ वरन् उनकी मानसिक व्यग्रता समाप्त होती प्रतीत हुई। उन्होंने शांति का भी अनुभव किया।
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महत्तरिका गुरुणीजी श्री ललित श्रीजी की शिष्या साध्वी श्री मणिप्रभा श्रीजी.....
रामरत्न ने कुछ जैन शास्त्रों का अध्ययन तो पहले से ही कर रखा था, उसे जैन धर्म का प्रारंभिक से कुछ अधिक ही ज्ञान था । पूज्य गुरुदेव की सेवा में आने और उनके नित्य दर्शन करने तथा प्रवचनपीयूष का पान करने से रामरत्न के हृदय की रही-सही बैचेनी भी समाप्त हो गयी और उसने अपने आपको पूर्ण संतुष्ट पाया । रामरत्न को अब लगने लगा कि उसकी अभिलाषा की पूर्ति यहीं हो सकती है। रामरत्न पूज्य गुरुदेव के प्रवचन का नियमित रूप से पूर्ण सावधानी के साथ श्रवण करते थे। श्रीमद् के प्रवचन अत्यन्त मार्मिक एवं सारगर्भित होते थे। प्रवचन मूल रूप से मानवजीवन, मानव का अन्य प्राणियों से सम्बन्ध, दुर्लभ मानवदेह की प्राप्ति, संसार की असारता तथा जीवन, यौवन, मान, वित्त पद आयु, वैभव की महामेघ के मध्य में स्थित एक क्षुद्र एवं चंचल और अस्थिर जलबिंदु के समान क्षणभंगुरता आदि विषयों पर केंद्रित होते थे । पुज्य गुरुदेव के प्रवचनों को सुनकर रामरत्न का हृदय गद्गद् हो जाया करता था। प्रवचनों के उपरान्त रामरत्न इन विषयों पर गहराई से चिंतन भी किया करते। ऐसा करने से उन्हें अद्भुत शांति मिलती और आनन्दभूति भी होती । इस प्रकार इन पर प्रवचनों का अमिट प्रभाव पड़ने लगा। पंडित पिता की सुशिक्षाएँ, विदुषी एवं धर्मपरायणा माता के द्वारा डाले गये सुसंस्कार और फिर स्मरण आता माता-पिता का स्वर्गवास और मामा का व्यवहार । जब वे सभी परिस्थितियों पर चिंतन करते तो पिताजी की सुशिक्षाएँ और माता के संस्कारों के परिणामस्वरूप उनके मन में विरिक्त के भाव उत्पन्न होने लगते। वैराग्य-भावना जाग्रत होती दिखायी देने लगी। वैराग्य का अंकुर फूटने लगा।
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