SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - रामरत्न की परिवर्तित मानसिकता का आभास दोनों बाल मुनियों को होने लगा। पू. गुरुदेव के कर्णकुहरों तक भी यह चर्चा पहँच चुकी थी। रामरत्न ने अपनी दिन चर्या प्रायः निश्चित ही कर ली थी। वे प्रातः प्रवचन पीयूष का पान करते दिन में मुनि भगवन्तों के सत्संग का लाभ प्राप्त करने और फिर जो समय अवशिष्ट रहता उसमें श्वेताम्बर धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते। उनकी इस दिनचर्या के कारण उन्हें पूज्य गुरुदेव प्रातः स्मरणीय जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर जी म. को काफी निकट से देखने का अवसर मिला। रामरत्न के सुसंस्कारी हृदय पर गुरुदेव के क्रियाकाण्ड, उनकी दैनिक जीवनचर्या तथा कठोर समयपालन का अद्भुत एवं अमिट प्रभाव पड़ा। उन्होंने गुरुदेव की निर्लिप्तता को भी देख और मन ही मन कह उठे- धन्य हैं ऐसे मुनिजी जो महापंडित होते हुए भी कीर्ति की अभिलाषा नहीं रखते हैं। जैन एवं जनसमुदाय की भक्ति श्रद्धा के केंद्र होते हुए भी डगर-डगर, उबड़खाबड़ एवं विषम मार्गों से क्षुधा, प्यास एवं विविध शारीरिक कष्ट एवं यातनाएँ सहते हुए अपने भक्तों और अनुयायियों का ही नहीं, वरन् समस्त मानव और प्राणी समाज का ग्राम-ग्राम, नगर-नगर में जाकर कल्याण करते हैं, उन्हें धर्मोपदेश देते हैं, उनके दोषों को दूर करते हैं, जिनसे उनके दुःख समाप्त होते हैं। अस्थिरता दूर होती है। विभ्रम की स्थिति समाप्त होती है वे शांति का अनुभव करते है। आप स्वयं कष्ट सहन करते हैं पर अन्यों को सुख पहुँचाते है। पूज्य गुरुदेव की दिनचर्या तथा उनके कल्याणकारी कार्यों को देखकर रामरत्न उनके प्रति श्रद्धावनत हो गये। उन्होंने निश्चित करलिया कि यही मार्ग कल्याणकारी है। यदि आत्मकल्याण का कोई मार्ग है तो यही है। इस मार्ग का अनुसरण करने में ही हित है। चिंतन दिन प्रतिदिन बढ़ता गया और एक दिन उन्होंने संकल्प कर लिया कि वे भी इस आत्म-कल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करेंगे। अब रामरत्न पर वैराग्य का रंग चढ़ गया था, जिसने धीरे-धीरे मजीठे का रूप धारण कर लिया। शास्त्रीय दृष्टि से हम वैराग्य के कारणों पर विचार करें तो वैराग्य के अनेक कारण गिनाये गये हैं, यद्यपि उन सबका विवरण यहाँ देना प्रासंगिक प्रतीत नहीं होता तथापि इतना बताना उचित प्रतीत होता है कि रामरत्न जिस वैराग्य के रंग में सराबोर हो रहे थे वह वैराग्य ज्ञानगर्भित वैराग्य है। ज्ञानगर्भित वैराग्य को स्थायी माना गया है। कारण इस स्थिति में काफी चिंतन हो चुका होता है और उस चिंतन के परिणामस्वरूप ही वैराग्य अंकुरित होता है। इसमें वैरागी के हृदय में से स्नेह, मोह, माया, ममता, राग, द्वेष, काम,क्रोध, जैसे विकारों का अंत हो जाता है। इनके स्थान पर उसके हृदय में ज्ञान का जागरण होता है। मास्तिष्क में शुभ विचारों एवं भावों का प्रादुर्भाव होता है। वह व्यक्ति संयम-मार्ग अंगीकार करने के लिए व्याकुल सा रहता है। रामरत्न की स्थिति भी अब लगभग ऐसी ही हो गयी थी। यह शीघ्रातिशीघ्र दीक्षाव्रत अंगीकार करना चाहता था। प्रश्न यह था कि अपने मनोभावों को गुरुदेव के समक्ष किस प्रकार प्रकट किया जाये। रामरत्न की चिन्तनशीलता और व्यग्रता छिप नहीं पायी। मुनिमंडल भी इसका रहस्य समझ चुका था। किन्तु संयम-मार्ग पर चलना कितना कठिन है, इस तथ्य से वे पूर्ण परिचित थे, उस पर पूज्य गुरुदेव का अनुशासन। इस कारण सब कुछ जानते हुए भी किसी ने गुरुदेव के समक्ष कुछ नहीं कहा। स्वयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy