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- तान्द्रसूरि माइ कोडगन्लुर के जैनमंदिर द्राविड शैली के हैं, ग्रेनाइट पाषाण इस प्रकार पिछले लगभग दो हजार वर्षों से तमिलनाडु में के हैं। पर आज वे वैष्णवों के हाथ में हैं। इसी तरह कहा जाता है जैनसंस्कृति अस्तित्व में बनी रही है। अस्तित्व में ही नहीं बल्कि कि वहाँ की मस्जिद वस्तुतः प्राचीन जैनमंदिर है। इरिजालकुडा वहाँ के साहित्य और संस्कृति को भी प्रभावित किया है। प्रारंभिक का कूडल माणिक्यं नामक विशाल जैनमंदिर भी उल्लेखनीय है, तमिल-साहित्य मूलत: जैनों का अधिक रहा है। वह वीरशैवों और जहाँ भरत की मूर्ति है और लेख भी।
वैदिकों द्वारा नष्ट किए जाने के बावजूद अपना योगदान बनाए त्रिचूर में बडक्कन्नाथ है. जो शायद मल रूप में जैनमंदिर रखे रहा। अब अधिकांश मंदिरों पर वैदिकों का अधिकार है। रहा होगा। कोडिक्कोड में तुक्कोविल नामक एक श्वेताम्बरमंदिर पल्लव महेन्द्रवर्मन और पांड्यराजा कुनपाड्यन जैन थे है, जिसका निर्माण लगभग ५०० वर्ष पहले हुआ था। बंगर पर वे बाद में शैव अप्पार और ज्ञान संबन्धर द्वारा बाह्मणधर्म में मंजेश्वर में एक चतुर्मुखी मंदिर है, जिसे सर्वतोभद्र कहा जाता है। प्रविष्ट कर लिए गए। यह प्रक्रिया होयसल राज्यकाल तक चलती वायनाड में मानदवाड़ी में एक आदीश्वर मंदिर है, जो प्राचीन रही। होयसल सम
रही। होयसल सम्राट विट्ठीगा जैन था पर रामानुज ने उसे वैष्णव मंदिर को ध्वस्तकर खड़ा किया गया है। फिर भी कहीं-कहीं न
या है। फिर भा कहा-कहा बना लिया। प्राचीनता के निशान बचे रह गए। सुल्तान बत्तारी का जैनमंदिर भी आज खण्डहर के रूप में पड़ा हुआ है। ऐसे ही प्राचीन जैन -
. दक्षिण जैन-स्थापत्य-कला की यह विशेषता रही है कि मंदिरों में पालक्काड और नागरकोविल के तथा गोदपर अलातर. यहाँ के जैनमंदिर और गुफाएँ जैन-साधुओं के निवास स्थान थे, मंडर किण्णालर आदि स्थानों के जैन - मंदिर भी उल्लेखनीय जिन्हें इतनी उत्कृष्टता से ग्रेनाइट के विशाल पत्थरों पर चिकनाई हैं। उनमें अलातूर मंदिर विशेष उल्लेखनीय है जो कांगदेश से सहित तराशा गया है कि हमें मौर्यकालीन बलुआ पत्थरों को संबद्ध है। यह कांगदेश और उसके राजगण जैन धर्म के संरक्षक चमकाने की दक्षता का स्मरण हो आता है। चट्टान काटकर रहे हैं। यहाँ प्राप्त लेखों में जैन-मंदिरों को दान देने के उल्लेख मंदिर निर्माण किए जाने की प्रथा जैनों में लगभग सातवीं शती हैं। ये लेख ११०२ ई. के हैं।
तक रही है। त्रिचिरापल्लै जिले के पुगलुर गाँव के आसपास पाई गई यहाँ हम कुछ और विशेषस्थानों का उल्लेख कर रहे है जो गुफाएँ और अरुनत्तुर की पहाडियाँ तथा कोयम्बतूर जिले की पुरातत्त्व की दृष्टि से और भी महत्त्वपूर्ण हैं। चेंगलपट्ट जिले के अरच्चलूर (नागमलै) की पहाड़ियाँ भी जैन-संस्कृति की दृष्टि मगरल में एक अजैन मंदिर में दो जैन मूर्तियां रखी हुई हैं। इसी से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। दक्षिण उत्तर अर्काट जिले के विदुर, तरह आरपाक्क विषार, विल्लिवाक्कम, पेरुनगर आदि स्थानों पोत्रुर तिरुनलंगोंडई, चित्तमुर, तोण्डईमंडल आदि नगरों में प्राप्त पर जैनमूर्तियाँ और स्थापत्य असुरक्षित सा पड़ा हुआ है। उत्तर जैन- मंदिर, मूर्तियाँ और गुफाएँ भी अनेक कालों की कला को अर्काड जिले के कच्चूर,नंवाक्क, कावनूरु, कुट्टैनवल्लूर, तिरुमणि, समाहित किए हुए हैं। यहां प्राप्त जैन शिलालेख दिगम्बर जैन सेवूर, अनन्तपुर, आरणि, पुनताकै, तिरुवोत्तूर, तिरुप्पननूर, करन्दै, संप्रदाय के इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मद्रास पूण्डि, पोन्नर, पोन्नरमलै, तिरुक्कोनि वेणुकुन्ट जैसे कुछ ऐसे जैन का तिरुवल्लुवर मंदिर वह है, जहाँ तिरुवकुरल काव्य लिखा गया स्थल है, जहाँ जैन मूर्तियाँ और मंदिर हैं पर अच्छी स्थिति में नहीं था। तिरुमलै और मैलापोट तथा पुदुक्कोट्टई, तेनिमलै, नस्तमलै, है। नंवाक्क, पुनताक्कै, तिरुवोत्तूर, वल्लिमलै, मयिलापुर आदि अनुरुत्तुमलै, बोम्मईमलै, मलयक्कोइल, पुत्तम्बर, छेत्तिपत्ति, कयम्पत्ति, ऐसे स्थान है, जहाँ के जैनमंदिरों को वैदिक मंदिरों में परिवर्तित अन्नवसल, कनगुडि, छित्तिर सेम पचुर आदि स्थान भी जैन इतिहास कर दिया गया है। और संस्कृति की दृष्टि से विशेष दृष्टव्य हैं। पुझल कोटलं, जिंगिरि,
दक्षिण आर्काड जिले में कीलकुप्प स्थान से एक सुंदर मेलचित्तमुर, पोलुन्नुरमलै मुनिगिरि, मन्नरगुडी, विजयमंगलं आदि
जैन-मूर्ति जमीन से निकली थी, कुछ समय पहले। तिरुमदिक सैकड़ों ऐसे स्थल है, जहाँ ईसा पूर्व से लेकर १५वी शताब्दी तक और तिरुप्पापलियर में गणधरवीच्चर जैसे अनेक शैव मंदिर ऐसे का समृद्ध जैन-पुरातत्त्व मिलता है। तमिलनाडु वस्तुत: जैन-पुरातत्त्व हैं जो मलतः जैनमंदिर थे। यहाँ धर्मसेन ने किसी कारणवश की दृष्टि से बहुत ही समृद्ध है।
शैव बनकर जैनधर्म पर बडा अत्याचार किया। toroorkarianitoriandarmanoramoniamorowokarina १२८dmiriamirrorionidmoonindianarmadardarodar
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