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यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व एक सकल्प-एक स्वप्न
काकाकाना आ
आनन्दीलालजी संघवी, कामना कियामागाट गाजावरा...
संवत् १९५४ में बालक रामरत्नराज गुरुदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. के करकमलों से दीक्षित होकर खाचरौद से जावरा की ओर विहार करने आ रहे थे। जावरा नगर की सीमा में प्रवेश करते हुए भगतजी की बावड़ी के पास आकर साथ के वरिष्ठ मुनिवृन्द नवदीक्षीत मुनि यतीन्द्र विजयजी को एक वृक्ष की ओर इशारा करते हुए बताते हैं 'यही वह पुण्य धरा है, जहाँ आचार्यश्री ने आषाढ़ वदी १० संवत् १९२५ को क्रियोद्धार किया था। और साध्वाचार में आए हुए शिथिलाचार के विरुद्ध शंखनाद किया था।" बालमुनि यतीन्द्र विजयजी मन ही मन उस धारा को नमन करते हैं और अन्तर्मन में प्रार्थना करते हुए संकल्प करते हैं कि हे गुरुदेव मुझे शक्ति दो, सामर्थ्य दो और आशीर्वाद दो कि मैं अपने जीवन में आपसे जुड़ी हुई इस पावन धरा को जन-जन की आस्था का केन्द्र बना सकूँ और यहाँ की पवित्र रज को अपने माथे पर लगाकर आपका हर अनुयायी धन्य हो सके।
निरंतर अध्ययन, विहार और साहित्य साधना के बीच भी इस पावन भूमि पर लिया गया संकल्प सदैव याद आता रहता और मुनि यतीन्द्र विजयजी इसके लिए कुछ चिंतन करते ही रहते।
संवत् १९६३ में गुरुदेव के देवलोक गमन के पश्चात् आपका दायित्व कुछ बढ़ा। अभिधान राजेन्द्र कोश के प्रकाशन और सम्पादन का गुरुतर भार मुनिश्री के कंधों पर आ गया, जिसे आपने अपनी सम्पूर्ण योग्यता और क्षमता से वहन किया तथा गुरुदेव की इस अमूल्य धरोहर को प्रकाशित करवा कर विश्व के विद्वत् समुदाय में अपने गुरु की साख को स्थापित किया।
समय वर्ष प्रतिवर्ष बीतता गया। संकल्प की स्मृति का प्रकाश मन के अंदर ही अंदर आलोकित होता रहा और आया संवत् २०१३-श्री मोहनखेड़ा तीर्थ में गुरुदेव के निर्वाण का अर्द्ध-शताब्दी महोत्सव का भव्य आयोजन। आपने मन में एक विचार, एक संकल्प और किया कि 'गुरुदेव ! आपकी इस निर्वाण भूमि को मैं भारत के जैन तीर्थों के नक्शे पर स्वर्णाक्षरों में उतारूँगा।' और तभी से जावरा और श्री मोहनखेड़ा दोनों ही स्थानों के विकास के स्वप्न सँजोए जाने लगे। समाज इतने समय में आपसे इतना प्रभावित हो गया था कि आपके एक आदेश पर सब कुछ करने को तैयार था। और आया संवत् २०१५ का वह स्वर्णिम वर्ष, आचार्य श्री के रूप में यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. का जावरा में चातुर्मास। जावरा श्रीसंघ के श्रद्धावान् वरिष्ठ श्री हीरालाल लोढ़ा, बालचन्द्र मेहता, श्री सोभागमल बरमेचा, श्री हुकमीचन्द ललवानी, श्री प्रेमचन्द लोढा, श्री कुन्दनमल जी चोरड़िया, श्री माँगीलाल चपड़ौद, श्री लालचन्द मेहता, जेठमल रुणवाल, फतेहलाल नाहटा आदि श्रावकों की उपस्थिति में श्री हीरालालजी लोढ़ा ने अपनी बात रखते हुए आचार्यश्री के समक्ष जावरा में गुरुतीर्थ निर्माण का प्रस्ताव रखा।
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