SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 633
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यतीन्द्रसर स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म हित और कल्याण के लिए प्रयत्नशील होते हैं, गणधर कहे जाते अद्दालअ ३६. तारायण ३७. सिरिगिरिमाहणपरिव्वाय ३८. हैं। समूहहित या गणकल्याण ही उनके (गणधर के) जीवन का सातिपुत्तबुद्ध ३९. संजए ४०. दीवायणं ४१. इंदनाग ४२. सोम आदर्श होता है।१६ ४३. जम ४४. वरुण ४५. वेसमण। सामान्य केवली - जो साधक आत्म-कल्याण को ही जैन-परम्परा के अनुसार वे साधक जो कैवल्य या वीतराग अपना लक्ष्य बनाता है और इसी आधार पर साधना करते हुए दशा की उपलब्धि के लिए न तो अन्य किसी के उपदेश की आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करता है, वह सामान्य केवली अपेक्षा रखते हैं और न संघीय जीवन में रहकर साधना करते हैं कहा जाता है। जैनों की पारिभाषिक शब्दावली में उसे 'मुण्डकेवली' वे प्रत्येकबुद्ध कहलाते हैं। प्रत्येकबुद्ध किसी निमित्त को पाकर भी कहते हैं।७ स्वयं ही बोध को प्राप्त होता है तथा अकेला ही प्रव्रजित होकर यद्यपि आध्यात्मिक पूर्णता और सर्वज्ञता की दृष्टि से तीर्थंकर साधना करता है। वीतराग अवस्था और केवल्य प्राप्त करके गणधर और सामान्य केवली समान ही होते हैं किन्तु लोकहित भी एकाकी ही रहता है। ऐसा एकाकी आत्मनिष्ठ साधक प्रत्येकबुद्ध के उद्देश्य को लेकर इन तीनों में भिन्नता होती है। तीर्थंकर, कहा जाता है। प्रत्येकबुद्ध और तीर्थंकर दोनों को ही अपने लोकहित के महान् उद्देश्य से प्रेरित होता है, जबकि गणधर का अन्तिम भव में किसी अन्य से बोध प्राप्त करने की आवश्यकता परहित-क्षेत्र सीमित होता है और सामान्य केवली का उद्देश्य तो नहीं होती, वे स्वयं ही सम्बुद्ध होते हैं। यद्यपि जैनाचार्यों के मात्र आत्मकल्याण होता है। अनुसार जहाँ तीर्थंकर को बोध हेतु किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं होती, वहाँ प्रत्येकबुद्ध को बाह्य निमित्त की आवश्यकता ६. सामान्य केवली और प्रत्येकबुद्ध होती है। यद्यपि जैन-कथा-साहित्य में ऐसे भी उल्लेख हैं, जहाँ कैवल्य को प्राप्त करने की विधि की भिन्नता के आधार तीर्थंकरों को भी बाह्य निमित्त से प्रेरित होकर विरक्त होते दिखाया पर सामान्य केवली वर्ग के भी दो विभाग किये गए हैं - गया है, यथा- ऋषभ का नीलाञ्जना नामक नर्तकी की मृत्यु से विरक्त होना। प्रत्येकबुद्ध किसी भी सामान्य घटना से बोध १. प्रत्येकबुद्ध को प्राप्त कर प्रव्रजित हो जाता है। जैन-परम्परा में उत्तराध्ययन २. बुद्धबोधित और ऋषिभाषित में प्रत्येकबुद्धों के उपदेश संकलित हैं किन्तु प्रत्येकबद्ध - जैनागमों में समवायांग १८ में प्रत्येकबद्ध इन ग्रंथों में प्रत्येकबुद्ध शब्द नहीं मिलता है। प्रत्येकबुद्ध शब्द का शब्द का प्रयोग मिलता है। उत्तराध्ययन में वर्णित करकण्डू, सर्वप्रथम उल्लेख स्थानांग, समवायांग और भगवती में मिलता दुर्मुख, नमि और नग्गति को प्रत्येकबुद्ध कहा गया है।१९ इसी । है। यद्यपि तीनों ही आगम ग्रन्थ परवर्तीकाल के ही माने जाते हैं। प्रकार इसिभासियाई के निम्न ४५ ऋषियों को भी प्रत्येकबुद्ध ऐसा लगता है कि जैन और बौद्ध परम्पराओं में प्रत्येकबुद्धों की कहा गया है२० - अवधारणा का विकास परवर्तीकाल में ही हुआ है। वस्तुत: उन विचारकों और आध्यात्मिक साधकों को जो इन परम्पराओं से १. देवनारद २. वज्जियपुत्त ३. असितदेवल ४. अंगिरस सीधे रूप में जुड़े हुए नहीं थे किन्तु उन्हें स्वीकार कर लिया गया भारद्वाज ५. पुष्फसालपुत्त ६. वागलचीरी ७. कुम्मापुत्त ८. केतलीपुत्त ९. महाकासव १०. तेत्तलिपुत्त ११. मंखलीपुत्त १२. था, प्रत्येकबुद्ध कहा गया। जण्णवक्क (याज्ञवल्क्य) १३. भयाली मेतेज्ज १४. बाहुक १५. बुद्धबाधित- बुद्धबाधित व साधक ह, जा अपन आन्तम मधुरायण १६. सोरियायण १७. विदुर १८. वरिसव कण्ह जन्म में भी किसी अन्य से उपदेश या बोध को प्राप्त कर (वारिषेणकृष्ण) १९. आरियायण २०. उक्कल २१. गाहावतिपुत्त प्रव्रजित होते हैं और साधना करते हैं। सामान्य साधक बुद्धबोधित प्रव्राजत हात ह तरुण २२. दगभाल २३. रामपुत्त २४. हरिगिरि २५. अंबड, २६. होते हैं। मातंग २७. वारत्तए २८. अद्दएण २९. वद्धमाण ३०. वायु ३१. जैनधर्म में तीर्थंकर को गणधर, प्रत्येकबुद्ध और पास ३२. पिंग ३३. महासालपुत्तअरुण ३४. इसिगिरिमाहण ३५. सामान्यकेवली से पृथक करके एक अलौकिक पुरुष के रूप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy