________________
चैत्रगच्छ का संक्षिप्त इतिहास
मध्ययुगीन श्वेताम्बर- गच्छों में चैत्रगच्छ भी एक था। चैत्रपुर
से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है । इस गच्छ के कई नाम मिलते हैं, यथा चित्रवालगच्छ, चैत्रवालगच्छ, चित्रपल्लीयगच्छ, चित्रगच्छ आदि। धनेश्वरसूरि इस गच्छ के आदिम आचार्य थे। इनके पट्टधर भुवनचन्द्रसूरि हुए जिनके प्रशिष्य और देवभद्रसूरि के शिष्य जगच्चन्द्रसूरि से वि.सं. १२८५ ई. सन् १२२९ में तपागच्छ का प्रादुर्भाव हुआ। देवभद्रसूरि के अन्य शिष्यों से चैत्रगच्छ की अविच्छिन्न परंपरा जारी रही ।
चैत्रगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिए साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध है। साहित्यिक साक्ष्यों के अंतर्गत इस गच्छ से संबद्ध केवल तीन प्रशस्तियाँ मिलती हैं। इस गच्छ की कोई पट्टावली नहीं मिलती, किन्तु तपागच्छीय आचार्यों की प्राचीन कृतियों की प्रशस्तियों एवं इस गच्छ की विभिन्न पट्टावलियों में चैत्रगच्छ के प्रारम्भिक चार आचार्यों का उल्लेख मिलता है । अलबत्ता इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित अनेक जिनप्रतिमाएँ उपलब्ध हुई इन पर उत्कीर्ण लेखों से ज्ञात होता है कि ये वि.सं. १२६५ / ई. सन् १२०९ से वि.सं. १५९१ / ई. सन् १५३५ के मध्य प्रतिष्ठापित की गई थीं। अभिलेखीय और साहित्यिक साक्ष्यों द्वारा इस गच्छ की विभिन्न शाखाओं जैसे भर्तृपुरीय शाखा, धारणपद्रीय (थारापद्रीय ) शाखा, चतुर्दशीपक्ष शाखा, चन्द्रसामीय शाखा, सलषणपुरा शाखा, कम्बोइया और अष्टापद शाखा, शार्दूल शाखा आदि का भी पता चलता है।
अध्ययन की सुविधा के लिए सर्वप्रथम साहित्यिक साक्ष्यों और तत्पश्चात् अभिलेखीय साक्ष्यों का विवरण प्रस्तुत है-सम्यक्त्वकौमुदी -- चैत्रगच्छीय आचार्य गुणाकरसूरि ने वि.सं. १५०४ / ई. सन् १४४८ में उक्त ग्रंथ की रचना की। इसकी प्रशस्ति में यद्यपि उन्होंने अपनी गुरुपरंपरा के किसी आचार्य का नामोल्लेख नहीं किया है, किन्तु चैत्रगच्छ से संबद्ध सबसे प्राचीन प्रशस्ति होने से यह महत्त्वपूर्ण है।
Jain Education International
डॉ. शिवप्रसाद...
गुणाकरसूरि की दूसरी कृति है वि.सं. १५२४ ई. सन् १४६८ में रचित भक्तामरस्तवव्याख्या । इसकी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि चैत्रगच्छीय आचार्य धनेश्वरसूरि की मूल परंपरा में गुणाकरसूरि हुए, जिन्होंने उक्त कृति की रचना की । वि.सं. १५५४ / ई. सन् १४९८ में लिपिबद्ध की गई भक्तामरस्तव व्याख्या की एक प्रति मुनि पुण्यविजय जी के संग्रह में उपलब्ध है, जिसकी दाताप्रशस्ति में चैत्रगच्छीय मुनि चारुचन्द्र का उल्लेख है।
दशवैकालिकसूत्र की वि.सं. १७६८ / ई. सन् १७१२ लिखी गई एक प्रति की दाताप्रशस्ति' में चैत्रगच्छ की देवशाखा का उल्लेख है। यह प्रति उक्त शाखा के आचार्य रत्नदेवसूरि के पट्टधर सौभाग्यदेवसूरि की परंपरा के मुनि बेलजी के पठनार्थ लिखी गई थी । चैत्रगच्छ से संबद्ध यही साहित्यिक साक्ष्य प्राप्त
हैं। जैसा कि पूर्व में कहा गया है तपागच्छ से संबद्ध प्राचीन प्रशस्तियों एवं पट्टावलियों में चैत्रगच्छ के प्राचीन आचार्यों का विवरण प्राप्त होता है। जो इस प्रकार है-
जगच्चन्द्रसूरि
(वि.सं. २८५ /ई. सन् १२२९ में तपागच्छ के प्रवर्तक) चैत्रगच्छ से संबद्ध दो लेख चित्तौड़ से प्राप्त हुए हैं। इनमें से एक लेख चैत्रगच्छ की मूलशाखा और दूसरा भर्तृपुरीयशाखा से संबद्ध है। त्रिपुटी महाराज ने प्रथम लेख की वाचना इस प्रकार दी है-
40
. कार्तिक सुदि १४ चैत्रगच्छे रोहणाचल चिंतामणि .. सा मणिभद्र सा. नेमिभ्याम् सह वंडाजितायाः सं. राजन श्रीभवनचन्द्रसूरिशिष्यस्य विद्वत्तया सहृत्तया च रंजितं श्रीगुर्जरराज श्रीमेदपाटप्रभुप्रभृतिक्षितिपतिमानितस्य श्री ( ३ ) x x x लघुपुत्र देदासहितेन स्वपितुरामित्य प्रथमपुत्रस्य वर्मनसिंहस्य पूर्वप्रतिष्ठित
धनेश्वरसूरि
भुवनचन्द्रसूरि
देवभद्रसूरि
३२ 66666
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org