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________________ -- यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्थ - आधुनिक सन्दर्भ में जैनधर्म - तिना अधिक समीप रक्षा-युक्तियों के महत्त्वपूर्ण कार्य-- होता है, वह उससे उतना ही अधिक दूर रहना चाहता है। यहाँ सामान्य व्यक्ति के जीवन में समायोजन की दृष्टि से रक्षा मकरंद-पुत्र जिनपालित को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। उसके समक्ष मृत्यु के भय के रूप में निषेधात्मक " युक्तियों का विशेष योगदान माना जाता है। इस संबंध में इसके त्त्वपूर्ण कार्य निम्नलिखित हैं-- लक्ष्य था- पीछे मुड़कर नहीं देखना। उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा और अपने प्राणों की रक्षा की। जबकि वह नित्य भोग (१) रक्षायुक्तियों से व्यक्ति की समायोजन संबंधी आवश्यकता विलासों में रत्नदेवी के साथ लिप्त रहा था, लेकिन यह भोग की सरलता पूर्वक संतुष्टि होती है। विलास भी अंततः उसकी मृत्यु का कारण बनता। इसलिए वह (२) इनसे व्यक्ति में कंठाजनित तनाव, निराशा व असफलता इनसे बचना चाहा तथा रत्नदेवी के लाख प्रलोभनों का भी उस की प्रबलता तथा कटुता में विशेष रूप से कमी आती पर प्रभाव नहीं पड़ा। क्योंकि उसके समक्ष मृत्यु के रूप में अत्यंत बलशाली निषेधात्मक लक्ष्य था, जिससे उसे बचना था। (३) इनसे व्यक्ति के विघटन की प्रक्रिया की कारगर रूप से (iii) मल्लिनाथ के उदाहरण में तृतीय निष्कर्ष को समझाया रोकथाम होती है। जा सकता है। स्वर्णमूर्ति के अंदर सड़े हुए अन्न की दुर्गंध एवं (४) इनसे व्यक्ति में दुश्चिन्ता की मात्रा कम होती है। बिना दुर्गंध के स्वर्णमूर्ति का छहों राजाओं द्वारा जो अवलोकन किया गया, वह वस्तुतः विधेयात्मक उद्दीपक की तलना में (५) इनसे एक प्रकार से व्यक्ति के आत्म सम्मान की रक्षा निषेधात्मक उद्दीपक से दूर होने की मनुष्य की प्रवृत्ति का होती है, तथा साथ ही साथ व्यक्ति के अहम की संरचना सूचक है। प्रायः दुर्गंध से मनुष्य दूर भागता है, जबकि मनोरम की भी पर्याप्त सुरक्षा रहती है। एवं आकर्षक वस्तुएँ मनुष्य को लुभाती है और वह इनके पास (६) इनसे व्यक्ति में द्वन्द्वों के प्रति सहनशीलता की शक्ति में आना चाहता है। वृद्धि होती है, क्योंकि रक्षा-युक्तियाँ, व्यक्ति तथा उसके द्वन्द्व के निवारण - व्यक्ति को जीवन में अनेक प्रबल कुण्ठाओं, द्वन्द्वों के मध्य में बफर का काम करती है तथा इस प्रकार द्वन्द्वों तथा विभिन्न प्रतिबल स्थितियों का मुख्य रूप से सामना व्यक्ति को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचने पाती है। करना पड़ता है, तथा इनके प्रति यथासंभव समायोजन खोजने (७) इनकी समायोजी प्रक्रिया अप्रत्यक्षतः तथा अचेतन रूप का भी प्रयास करना पड़ता है। व्यक्ति अपने तर्क व विवेक के से निर्धारित होती है, अतः व्यक्ति के लिए ऐसी क्रियाएँ आधार पर अपने द्वन्द्वों से उत्पन्न निराशाओं, विफलताओं व एक प्रकार के प्रयास रहित रूप से स्वतः ही सम्पन्न होती हीनताओं के दुष्प्रभाव को कम करने का चेतन रूप से भरसक रहती हैं। प्रयास करता है, परंतु जब व्यक्ति इस प्रक्रम में असफल हो जाता है, तब व्यक्ति का अचेतन अति कुशलता के साथ उसके . (८) इनसे व्यक्तित्व की एकता व्यावहारिकता अखंडित अथवा द्वन्द्वों के तनावों के दुष्प्रभावों तथा कटु अनुभवों का निवारण समाकलित रहती है, तथा इनके कारण व्यक्तित्व की प्रायः विभिन्न मानसिक रचनाओं के माध्यम से सम्पन्न करता है। स्थाई संरचना के विघटित होने की आशंका प्रायः नहीं इन मानसिक रचनाओं का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति में द्वन्द्वों से उत्पन्न रहती। आंतरिक संवेगात्मक तनावों के प्रति विभिन्न युक्तियों के द्वारा (९) इनसे व्यक्ति के आत्म-सम्प्रत्यय पर भी प्रायः प्रतिकूल व्यक्ति के आत्म-सम्मान तथा उसके अहम् की रक्षा करना प्रभाव नहीं पड़ने पाता। होता है। इसी कारण मनोरचनाओं को रक्षायुक्तियों की संज्ञा दी १०) इनके प्रभाव के कारण अधिकांशतः व्यक्तित्व के जाती है। वस्तुतः व्यक्ति के समायोजन-प्रक्रम तथा उसके व्यक्तित्व के विकास में रक्षा-युक्तियों की अति महत्त्वपूर्ण तथा समायोजन तथा विकास की प्रक्रिया विशेष सीमाओं के अंतर्गत सहज रूप से ही सम्पन्न होती रहती है। प्रभावी भूमिका रहती है। Jain Education International : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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