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- यतीन्द्रसूरि मारrict - जैन दर्शन - उमास्वाति ने इन सारे प्रमाणों का अन्तर्भाव जैन दर्शन के प्रत्यक्ष व रहित केवल आत्मा के प्रति जो नियत है या जो ज्ञान बाह्य परोक्ष इन दो प्रमाणों में ही माना है।
इन्द्रियादि की अपेक्षा न होकर केवल क्षयोपशमवाले या परोक्ष- आचार्य उमास्वाति ने मति श्रत अवधि मनःपर्याय और आवरणरहित आत्मा से होता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। केवल इन पाँच ज्ञानों में 'आद्ये परोक्षम्'३३ कहकर आदि के
'अक्षं प्रतिनियतिमिति परापेक्षा निवृत्तिः' अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष प्रमाण माना है। इनको परोक्ष न को पोशासन
पर
पर की अपेक्षा नहीं होती। प्रमाण क्यों कहते हैं? इसके उत्तर में उनका कहना है कि ये दोनों ही आचार्य उमास्वाति ने इसी आधार पर आत्मसापेक्ष और ज्ञान निमित्त की अपेक्षा रखते हैं, इसलिए ये परोक्ष हैं। परोक्ष ज्ञान में इन्द्रियादि की अपेक्षा के बिना होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा इन्द्रिय और मन इन दोनों को निमित्त माना गया है।
है। तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य में उन्होंने इन्द्रिय और मन के निमित्त प्रत्यक्ष - प्रत्यक्षशब्द की व्युत्पत्ति दो शब्दों से मिलकर हुई है -
से होने वाले ज्ञान को परोक्ष कहा है और मतिज्ञान और श्रुत ज्ञान प्रति + अक्ष = प्रत्यक्ष। अक्ष शब्द की व्युत्पत्ति अश् धातु से ।
को छोड़कर अवधि, मनःपर्याय और केवल को प्रत्यक्ष कहा होती है जिसका अर्थ व्याप्त होना है।
है।९। बाद के सभी जैनाचार्यों ने उमास्वाति की इसी परिभाषा को
आधार बनाकर प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण का विवेचन किया है। इस प्रकार 'अश्नुते व्याप्नोति विष यान् स्ववृत्त्या संयोगेन वा अक्ष स' पद प्राप्त होता है जिसका अर्थ है जो ज्ञान रूप से
न्यायवतारकर्ता ने अपरोक्ष रूप से ग्रहण किए जाने वाले सभी वस्तओं में व्याप्त या विद्यमान होता है अर्थात जीव। ज्ञान का प्रत्यक्ष कहा ह अश् धातु से भी अक्ष शब्द की उत्पत्ति संभव है। अश् का
अपरोक्षतयाऽर्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशम्। अर्थ है भोजन करना। चूँकि जीव सभी पदार्थों का भोक्ता है,
प्रत्यक्षमितिरज्ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेक्षया।४० इसलिए व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ के अनुसार भी अक्ष का अर्थ आत्मा परोक्ष क्या है, असाक्षादर्थग्राहकं ज्ञानं परोक्षमिति १ अर्थात् ही हुआ।
असाक्षात् अर्थ का ग्राहक परोक्ष है, एवं जो अपरोक्ष अर्थात् अक्ष शब्द का अर्थ इन्द्रिय भी किया जाता है। न्यायदर्शन साक्षात् अर्थ का ग्राहक है वह प्रत्यक्ष है। में प्रत्यक्ष की जो परिभाषा दी गई है, उसमें प्रयुक्त अक्ष शब्द भट्ट अकलंक के अनुसार 'इन्द्रिय और मन की अपेक्षा के इन्द्रिय अर्थ का ही द्योतक है- 'अक्षस्याऽक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः बिना जो व्यभिचार रहित साकार ग्रहण होता है, उसे प्रत्यक्ष प्रत्यक्षम्।' यहां अक्ष शब्द का अर्थ इन्द्रिय और वृत्ति का अर्थ कहते हैं' ४२, न्यायविनिश्चय में उन्होंने 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं है सन्निकर्ष अर्थात् इन्द्रिय का अर्थ के साथ संबंध होने पर उत्पन्न साकारमञ्जसा'४३ कहकर प्रत्यक्ष को परिभाषित किया है, अर्थात् ज्ञान प्रत्यक्ष है, ऐसा न्यायदर्शन३५ का मत है।
जो ज्ञान स्पष्ट है वही प्रत्यक्ष है। इस परिभाषा में उपर्युक्त परिभाषा - जैन परंपरा अक्ष शब्द का अर्थ जीव या आत्मा करती में आए साकार पद के साथ अञ्जसा पद भी आया है। है और तदनुसार इन्द्रिय निरपेक्ष और केवल आत्मपरोक्ष ज्ञान ।
साकार का अर्थ है सविकल्पकंज्ञान क्योंकि निर्विकल्पकज्ञान को ही प्रत्यक्ष मानती है और इंद्रियाश्रित ज्ञान को परोक्ष। कहीं
को जैन दर्शन में प्रमाण नहीं माना गया है। अजसा पद कहीं अक्ष शब्द का इन्द्रिय अर्थ लेकर भी व्युत्पत्ति का आश्रयण ।
पारमार्थिक दृष्टि का सूचक है। प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए यह आवश्यक किया गया है, पर वह दर्शनान्तर प्रसिद्ध परंपरा तथा लोक
है कि वह परमार्थ में भी विशद हो। वैशद्य का लक्षण करते हुए व्यवहार के संग्रह की दृष्टि से। पूज्यपाद अक्ष शब्द की व्याख्या '
लघीयत्रय में उन्होंने कहा है कि--- करते हुए लिखते हैं कि 'अक्ष्णोति व्याप्नोति जानतीत्यक्ष आत्मा'३७। अनुमानाद्यति रेकेण विशेषप्रतिभासनम। अक्ष, व्याप और ज्ञा ये धातुएँ एकार्थक हैं, इसलिए अक्ष का अर्थ
तद्वैशद्यं मतं बुद्धेरवैशद्यमत: परम्।।" आत्मा होता है और 'तमेवप्राप्तवृक्षयोपशमं प्रक्षीणावरणं वा
अर्थात् अनुमानादि से अधिक नियत देश, काल और प्रतिनियतं वा प्रत्यक्षम३८' अर्थात् क्षमोपशम वाले या आवरण ,
__ आकार रूप में प्रचुरतर विशेषों के प्रतिभासन को वैशद्य कहते
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