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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म जिनेश्वर, स्याद्वादि, अभयद, सार्व, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, केवली, क्षय करके सम्पूर्णरूपेण मुक्तात्मा हैं। उनके आठ गुण इस देवाधिदेव, बोधिद, पुरुषोत्तम, वीतराग और आप्त।
प्रकार हैं - ऐसे परम महिमावन्त श्री अरिहंत भगवान की महिमा का नाणं च दसणं चिय अव्वाराह तहेव सम्मतं। गान करते हुए जैनाचार्यवर्य श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज अक्खय ठिइ अरुवी अगुरुलहुवीरियं हवइ ।। ने श्री सिद्धचक्र-पूजा में लिखा है -
१. अनन्तज्ञान : - ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय तित्थयरं नाम पसिद्धिजायं, णरामरहिं पणयं हि पायं। होने पर आत्मा को केवल ज्ञान प्राप्त होता है, जिससे वह संसार संपुण्णनाणं पयडं विसुद्धं, नमामि सोहं अरिहन्तबुद्धं ।।१।। के समस्त चराचर पदार्थों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जान सकता (तीर्थकरनाम्ना प्रसिद्धि प्राप्तं नरामरैः यस्य प्रणतं हि पादम। है। जो अप्रतिपातिज्ञान भी कहलाता है। सम्पूर्णज्ञानयुक्तं विशुद्धं नमामि सोऽहमरिहन्तं बुद्धम्।।)
२. अनन्तदर्शन - पाँचों प्रकतियों सहित दर्शनावरणीय तीर्थंकर इस नाम से जो प्रसिद्ध को प्राप्त हुए हैं, जिनके कर्म का क्षय होने पर आत्मा को केवल दर्शन प्राप्त होता है. चरणकमलों को मनुष्य और देवता प्रणाम करते हैं। जो सम्पूर्ण जिससे वह लोक के समस्त पदार्थों को देख सकता है। ज्ञानी हैं, स्वयं विशुद्ध हैं, वे ही अरिहंत बुद्ध हैं। उन्हीं को मैं
३. अनन्त अव्याबाध सख - वेदनीय कर्म का सर्वथैव नमस्कार करता हूँ।
प्रकारेण क्षय होने से आत्मा अनिर्वचनीय अनन्त सुख प्राप्त सिद्ध : -
करती है। उसे अनन्त अव्याबाध सुख कहा जाता है। यानी जो
सुख पौद्गलि संयोग से मिलता है, उसको सांयोगिक सुख कहा घ्यातं सितं येन पुराणकर्म यो वा गतो निवृत्तिसौधमूनि
जाता है। इसमें किसी न किसी प्रकार की विघ्न-परम्परा का ख्यातोनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमंगलो मे ।। आना हो सकता है, किन्तु जो सुख पौद्गलिक संयोग के बिना
जिसने बहुत भवों के परिभ्रमण से बाँधे हुए पुराने कर्म प्राप्त हुआ है, उसमें कदापि किसी प्रकार के विघ्नों का आना भस्मीभूत किए हैं, जो मुक्ति रूप महल के उच्च भाग पर जा सम्भव ही नहीं होने से वह अनन्त अव्याबाध सुख कहा जाता है। चुके हैं या जो प्रख्यात हैं, शास्ता हैं, कृतकृत्य हैं, वे सिद्ध मुझे ४.अनन्त चारित्र - दर्शन-मोहनीय और चारित्र-मोहनीय मंगलकारी हों।
(जो कि आत्मा के तत्त्वश्रद्धान गुण और वीतरागत्व-प्राप्ति में जिन्होंने संसार-भ्रमण-मूलक समस्त कर्म पराजित कर विघ्न रूप हैं) के क्षय होने पर आत्मा अनन्त चारित्र को प्राप्त दिए हैं। जो मोक्ष को प्राप्त हो गए हैं, जिनका पुनर्जन्म नहीं होता, करती है। उसको अनन्त चारित्र कहते हैं। वे सिद्ध कहे गए हैं। ऐसे सिद्ध भगवान नमस्कार मंत्र के द्वितीय
५. अक्षय स्थिति - आयुष्य-कर्म की स्थिति का पूर्ण पद पर विराजित हैं। श्रीआवश्यकनियुक्ति में ग्यारह प्रकार के रूप से क्षय होने पर सिद्ध जीवों का जन्म एवं मरण नहीं होने से सिद्ध इस प्रकार गिनाए गये हैं -
वे सदा स्वस्थिति में ही रहते हैं। उसे अक्षय स्थिति कहते हैं। कम्म सिप्पे य विज्जाए, मन्ते जोगे य आगमे।
६. अगुरुलघुत्व - गोत्रकर्म का अंत होने पर आत्मा में अत्थ जत्ता अभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय ।। न गुरुत्व और न लघुत्व ही रहता है। इसलिए उसे अगुरुलघ
१. कर्मसिद्ध, २. शिल्पसिद्ध, ३. विद्यासिद्ध, ४. मंत्र- कहते हैं। सिद्ध, ५. योगसिद्ध, ६. आगमसिद्ध, ७. अर्थसिद्ध, ८. यात्रा -
७. अरूपित्व - नामकर्म का अंत होने पर आत्मा सब सिद्ध, ९. अभिप्रायसिद्ध, १०. तपसिद्ध और ११ कर्मक्षय- पका के स्थल और सभापों से मस्त टोका अमो सिद्ध। इन सब सिद्धों में से यहाँ कर्मक्षयसिद्ध ही लिये गये हैं। जाती है। अपिल
करती है। अरूपित्व अतीन्द्रिय यानी इन्द्रियाँ जिसे ग्रहण करने न कि कर्मसिद्धादि अन्य। सिद्ध भगवान ज्ञानावरणीयादि चार में असमर्थ रहती हैं ऐसी अग्राह्य वस्त को अरूपी कहते हैं। घनघाति और आयु आदि चार अघनघाति कर्मों का सर्वथा
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