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- चतीन्द्रसूरि रमारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - दुर्भाग्य यह है कि प्रकाशित होते हुए भी विद्वानों को इस ग्रन्थ की था। किन्तु जब परवर्ती आचार्यों ने इसका दुरुपयोग होते देखा होगा जानकारी नहीं है। यह जैन निमित्तशास्त्र का प्राचीन एवं प्रमुख ग्रन्थ है। और मुनिवर्ग को साधना से विरत होकर इन्हीं नैमित्तिक विद्याओं की __ग्रन्थ की भाषा को देखकर सामान्यतया यह अनुमान किया जा उपासना में रत देखा होगा तो उन्होंने यह नैमित्तिक विद्याओं से युक्त सकता है कि यह ईसवी सन् की चौथी-पाँचवी शताब्दी की हो सकती विवरण उससे अलग कर उसमें पांच आस्रवद्वार और पांच संवरद्वार है। ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त पायड या पाहुड शब्द से भी यह फलित वाला विवरण रख दिया। प्रश्नव्याकरण के टीकाकार अभयदेव एवं होता है कि यह ग्रन्थ लगभग पाँचवी शताब्दी के आसपास की रचना ज्ञानविमल ने भी विषय-परिवर्तन के लिए यही तर्क स्वीकार होना चाहिए, क्योंकि कसायपाहुड एवं कुन्दकुन्द के पाहुड ग्रन्थ इसी किया है। २२ । कालावधि के कुछ पूर्व की रचनाएँ हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति में भी विषयों का प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु कब उससे अलग कर दी वर्गीकरण पाहुडों के रूप में हुआ है। अत: यह सम्भावना हो सकती गई और उसके स्थान पर पाँच आश्रवद्वार और पाँच संवरद्वार रूप है कि जयपायड प्रश्नव्याकरण के द्वितीय संस्करण का कोई रूप हो, नवीन विषयवस्तु रख दी गई, यह प्रश्न भी विचारणीय है। अभयदेवसूरी यद्यपि इस सम्बन्ध में अन्तिमरूप से तभी कुछ कहा जा सकता है ने अपनी स्थानांग और समवायांग की टीका में भी यह स्पष्ट निर्देश जब प्रश्नव्याकरण के नाम से मिलने वाली सभी रचनाएँ हमारे समक्ष किया है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरण में इनमें सूचित विषयवस्तु उपलब्ध उपस्थित हों और इनका प्रामाणिक रूप से अध्ययन किया जाये। नहीं है।२४ मात्र यही नहीं, उन्होंने पाँच आश्रवद्वार और पाँच संवरद्वार
वाले वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण पर ही टीका लिखी है। अतः विषय-सामग्री में परिवर्तन क्यों?
वर्तमान संस्करण की निम्नतम सीमा अभयदेव के काल अर्थात् ईसवी यद्यपि यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविकरूप से उठता है कि प्रथम सन् १०८० से पूर्ववर्ती होना चाहिए। पुन: अभयदेव ने प्रश्नव्याकरण ऋषिभाषित, आचार्यभाषित, महावीरभाषित आदि भाग को हटाकर उसमें में एक श्रुतस्कन्ध है या दो श्रुतस्कन्ध है इस समस्या को उठाते हुए निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण रखना और फिर निमित्तशास्त्र सम्बन्धी अपनी वृत्ति की पूर्वपीठिका में अपने से पूर्ववर्ती आचार्य का मत उद्धृत विवरण हटाकर आस्रवद्वार और संवरद्वार सम्बन्धी विवरण रखना- यह किया है- 'दो सुयसंघा पण्णत्ता आसवदारा य संवरदारा य-।' अभयदेव सब क्यों हुआ? सर्वप्रथम ऋषिभाषित आदि भाग क्यों हटाया गया? ने पूर्वाचार्य की मान्यता को अस्वीकार भी किया है और यह भी कहा मेरी दृष्टि में इसका कारण यह है कि ऋषिभाषित में अधिकांशत: अजैन- है कि यह दो श्रुतस्कन्धों की मान्यता रूढ़ नहीं है। सम्भवतः उन्होंने परम्परा के (ऋषियों कोउपदेश एवं विचार संकलित थे- इसके पठन- अपना एक श्रुतस्कन्ध सम्बन्धी मत समवायांग और नन्दी के आधार पाठन से एक उदार दृष्टिकोण का विकास तो होता था, किन्तु जैनधर्म- पर बनाया हो। इसका अर्थ यह भी है कि अभयदेव के पूर्व भी संघ के प्रति अटूट श्रद्धा खण्डित होती थी तथा परिणामस्वरूप संघीय प्रश्नव्याकरण के वर्तमान संस्करण पर प्राकृत भाषा में ही कोई व्याख्या व्यवस्था के लिए अपेक्षित धार्मिक कट्टरता और आस्था टिक नहीं लिखी गई थी, जिसमें दो श्रुतस्कन्ध की मान्यता को पुष्ट किया गया पाती थी। इससे धर्मसंघ को खतरा था। पुन: यह युग चमत्कारों द्वारा था। उसका काल अभयदेव से २-३ शताब्दी पूर्व अर्थात् ईसा की लोगों को अपने धर्मसंघ के प्रति आकर्षित करने और उनकी धार्मिक ८ वीं शताब्दी के लगभग अवश्य रहा होगा। पुन: आचार्य जिनदासगणि श्रद्धा को दृढ़ करने का था- चूंकि तत्कालीन जैन-परम्परा के साहित्य महत्तर ने नन्दीसूत्र पर शक संवत् ५९८ अर्थात् ईसवी सन् ६७६ में इसका अभाव था, अत: उसे जोड़ना जरूरी था। समवायांग में ई० में अपनी चूर्णि समाप्त की थी।२५ उस चूर्णि में उन्होंने प्रश्नव्याकरण प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी जो विवरण उपलब्ध हैं उससे भी इस तथ्य । में पंचसंवरादि की व्याख्या होने का स्पष्ट निर्देश किया है।२६ इससे की पुष्टि होती है- उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि लोगों को ___ भी यह सिद्ध हो जाता है कि ईसवी सन् ६७६ के पूर्व प्रश्नव्याकरण जिनप्रवचन में स्थित करने के लिए, उनकी मति को विस्मित करने का पंचसंवरद्वारों से युक्त संस्करण प्रसार में आ गया था, अर्थात् आगमों के लिए सर्वज्ञ के वचनों में विश्वास उत्पन्न करने के लिए इसमें- के लेखनकाल के पश्चात् लगभग सौ वर्ष की अवधि में वर्तमान महाप्रश्नविद्या, मनःप्रश्नविद्या, देवप्रयाग आदि का उल्लेख किया गया प्रश्नव्याकरण अस्तित्व में अवश्य आ गया था। प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण है। यद्यपि यह आश्चर्यजनक है कि एक ओर निमित्तशास्त्र को पापसूत्र । की प्रथम गाथा, जिसमें 'वोच्छामि' कहकर ग्रन्थ के कथन का निश्चय कहा गया, किन्तु संघहित के लिए दूसरी ओर उसे अंग-आगम में सूचित किया गया है, की रचना शेष सभी अंग-आगमों के प्रारम्भिक सम्मिलित कर लिया गया, क्योंकि जब तक उसे अंग-साहित्य का कथन से बिलकुल भिन्न है। यह ५वीं-६ठी शताब्दी में रचित ग्रन्थों भाग बनाकर जिनप्रणीत नहीं कहा जाता तब तक लोगों की आस्था की प्रथम प्राक्कथन-गाथा के समान ही है। अत: प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण उस पर टिक नहीं पाती और जिनप्रवचन की अतिशयता प्रकट नहीं रचनाकाल ईसा की छठी शताब्दी माना जा सकता है। होती। अत: प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु में परिवर्तन करने का दोहरा इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वह प्रश्नव्याकरण जिसमें उसकी लाभ था एक ओर अन्यतीर्थिक ऋषियों के वचनों को उससे अलग विषयवस्तु ऋषिभाषित की विषयवस्तु के समरूप थी, प्राचीनतम किया जा सकता था और दूसरी ओर उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी नई संस्करण है जो लगभग ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की रचना होगी। सामग्री जोड़कर उसकी प्रामाणिकता को भी सिद्ध किया जा सकता फिर ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी
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