SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यतीन्द्रसूविस्मारक ग्रंथ : सन्देश - वन्दन - कोटि कोटि वन्दना रे... जीकिक वे निर्भिक निडर निष्पक्ष थे बाल ब्रह्मचारी व्याख्यान वाचस्पति परम श्रद्धेय आचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरिश्वरजी म.सा. का समग्र व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावशाली था। उनके जीवन पर दृष्टिपात करे तो पाते हैं कि अपने बाल्यकाल में भी प्रभावी एवं निर्भिक थे। बचपन से ही माता-पिता की छत्रछाया से वंचित हो गए थे। मामा में संरक्षण में भोपाल में रहे यहां वे दिन रात कठोर परिश्रम करते थे। एक रात्रि में एक चोर को पकड़वाने में आपकी भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण रही थी। यही आपकी निर्भिकता का प्रमाण है। इतना ही नहीं जब मामा ने आपको कुछ चुभती बात कही तो आप भोपाल को छोड़कर चल दिए। बचपन में उन दिनों ऐसा साहस कौन दिखा सकता था। इधर-उधर घूमते फिरते आप महिदपुर पहुंच गए उस समय वहां परम योगीराज प्रातः स्मरणीय विश्व पूज्य गुरुदेव आचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सरिश्वरजी म.सा. विराजमान थे। आप उनकी सेवा में पहुंच गए। वैसे आप दिगम्ब जैनथे किन्त बाल्यावस्था में आपको मिली धार्मिक शिक्षा एवं संस्कार के कारण आप वंदन नमस्का आदि से परिचित ये आपने विधिवत वंदन किया पूज्य गुरुदेव से वार्तालाप भी हुई। आप पूज्य गुरुदेव से इतने प्रभावित हुए कि आपने उनकी सेवा में दीक्षावृत्त अंगीकार करने की अपनी बात सहज ही निर्भिक होकर कर दी। वैसे पारखी गुरुदेव ने भी इनकी प्रतिभा को पहचान लिया था पूज्य गुरुदेव ने इन्हें रामरत्न अपने पास रख लिया और फिर खाचरौद जिला-उज्जैन में इन्हें दीक्षा वृत्त प्रदान कर मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. के रूप में अपना ही शिष्य घोषित किया। निर्भिकता का आपका यह स्वभाव जीवन पर्यन्त बना रहा। ऐसे गुरुदेव की स्मृति में प्रकाशित होने वाले स्मारक ग्रंथ के लिए मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए पूज्य गुरुदेव के चरणों में वंदना अर्पित करता हूं। जाया प्रति, अनोखीलाल मोदी ज्योतिषाचार्य मुनि श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' श्री मोहनखेड़ा तीर्थ अध्यक्ष - श्री राजेन्द्रसूरि आराधना भवन प्रधान सम्पादक श्री यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी स्मारक ग्रंथ 9888888888888888888888888888888888888882 (20)888888RUNBRBRBRBABRBRBRBRBSeweeeeee पेटलावद (झाबुआ) म. प्र. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy