________________
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
पंचास्तिकाय और षड्द्रव्य लोकव्यवस्था के आधार हैं। विविध गुणों और पर्यायों सहित जिनमें अस्ति स्वभाव है, वे अस्तिकाय कहलाते हैं। वे ही अस्तिकाय त्रैकालिक भावरूप में परिणमित होते हैं तथा नित्य हैं और परिवर्तन लिंग से युक्त काल सहित द्रव्यभाव को प्राप्त होते हैं । इन्हीं से त्रैलोक्य निष्पन्न है | नियमसार में तत्त्वार्थ के रूप में द्रव्यों का व्याख्यान इस तथ्य की ओर संकेत है कि प्राचीन परंपरा में पंचास्तिकाय औरषद्रव्य को तत्त्वार्थ कहा जाता है। इसलिए नियमसार में इन्हीं का श्रद्धान सम्यक्त्व कहा गया है। पंचास्तिकाय संग्रह से भी इस तथ्य का समर्थन होता है।
तत्त्व या पदार्थ बंध-मोक्ष के आधार हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के समय तक इन तत्त्वों, पदार्थों की मान्यता विकसित हो चुकी थी। इसलिए उन्होंने समयसार में विस्तृत रूप से तत्त्वों या पदार्थों का व्याख्यान किया। पंचास्तिकाय संग्रह के उत्तरार्द्ध में भी नौ पदार्थों का कथन किया है। इससे यह सिद्ध है कि कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में प्राचीन और समकालीन दोनों ही परंपराओं को अपनाया है।
आत्मत्रय
आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मस्वरूप को व्यक्त करते हुए आत्मा के परमात्मा, अंतरात्मा और बहिरात्मा ये तीन भेद किए हैं | नियमसार में सम्यग्दर्शन के प्रसंग में कहा गया है कि क्षुधा, तृषा आदि समस्त दोषों से रहित और केवल ज्ञान, केवल दर्शन, केवल वीर्य और केवल सुखरूप अनन्त चतुष्टय से युक्त आत्मा ही परमात्मा कहलाता है, इससे विपरीत परमात्मा नहीं हो सकता । अरिहंत और सिद्ध परमेष्ठी परमात्मा कहलाते हैं। चार घातिया कर्मों से रहित, केवल ज्ञानादि विशेष गुणों और चौतीस अतिशयों से युक्त, अरिहंत होते हैं तथा चार घातिया और चार अघातिया ऐसे आठ कर्मों का नाश करने के कारण आठ महागुणों से युक्त परम, नित्य, लोकाग्र अर्थात् सिद्धशिला पर स्थित रहने वाले, सिद्धपरमात्मा है।
जो श्रमण आवश्यकों से युक्त, अंतः और बाह्य जल्पों से रहित, धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान में संलग्न होता है, वह अंतरात्मा कहा गया है। आवश्यकों से हीन, अंततः और बाह्य जल्पों में प्रवृत्त तथा ध्यान से रहित श्रमण, बहिरात्मा है" । मोक्खपाहुड में
Jain Education International
भी इनका स्वरूप कहा गया है। इनमें से बहिरात्मा को हेय और अंतरात्मा एवं परमात्मा को उपादेय बताया गया है। उत्तरवर्ती कुमार कार्तिकेय पूज्यपाद, योगीन्दु प्रभृत्ति अनेक आचार्यों ने कुन्दकुन्द का अनुकरण किया है।
स्वभाव-विभाव पर्याय -
द्रव्यों का परिणमन पर्याय रूप में होता है। आचार्य कुन्दकुन्द सर्वप्रथम पर्याय के स्वभाव और विभावरूप परिणमन का कथन किया है, जिसे पश्चात्कालीन अधिकांश दार्शनिकों ने अपनाया है। कुन्दकुन्द कहते हैं कि कर्मजन्य उपाधियों से रहित जीव की जो निरपेक्ष शुद्ध पर्याय है, वह स्वभाव पर्याय है और कर्मफल के कारण जीव की जो नर नारक, तिर्यंच और देव रूप पर्याय होती है, वह विभाव पर्याय है। अन्य निरपेक्ष परमाणु पुद्गल की स्वभाव पर्याय है और पुद्गल का स्कन्ध रूप परिणमन विभाव पर्याय है ४ । जीव और पुद्गल को छोड़कर शेष धर्मादि चार द्रव्यों की केवल स्वभाव पर्याय होती है, क्योंकि उनका विभाव परिणमन नहीं होता है १५ ।
पुद्गल परमाणु
पुद्गल द्रव्य के प्रसंग में कुंदकुंद ने परमाणु का स्वरूप इस प्रकार कहा है-
अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदिए गेज्झ । अविभागी जं दव्वं परमाणु तं विआणाहि । । नियमसार २६
अर्थात् स्वयं परमाणु ही जिसका आदि, मध्य और अंत है, जो इंद्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है तथा जो अविभागी द्रव्य है। उसे परमाणु जानो ।
उन्होंने परमाणु के दो भेद किए हैं-- १. कारण परमाणु और २. कार्य परमाणु" । जो पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चारों धातुओं का कारण है, वह कारण परमाणु है। इन धातुओं का निर्माण अनेक परमाणुओं के मेल से होता है, इसलिए ये स्कन्धरूप हैं। इन स्कन्धों के निर्माण में जो परमाणु कारण होता है, उसे कारण परमाणु कहा गया है। स्निग्ध और रूक्ष गुणों के कारण परमाणुओं का बन्ध होता है, उनके इस गुण का ह्रास होने के कारण स्कन्धों में विघटन होता है। इस विघटन क्रिया से
mbambambino parmaram
For Private Personal Use Only
more
www.jainelibrary.org