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• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास.
का उल्लेख करती है। कल्पसूत्र में गणों और शाखाओं की उत्पत्ति बताई गई है, वे एक ओर आर्य भद्रबाहु के शिष्य काश्यपगोत्री गौदास से एवं दूसरी ओर स्थूलिभद्र के शिष्यप्रशिष्यों से प्रारम्भ होती हैं। गोदास से गोदासगण की उत्पत्ति हुई। और उसकी चार शाखाएँ ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, पौण्ड्रवर्द्धनिका और दासीकर्पाटिका निकली हैं। इसके पश्चात् भद्रबाहु की परम्परा कैसे आगे बढ़ी इस सम्बन्ध में कल्पसूत्र की स्थविरावलि में कोई निर्देश नहीं है। इन शाखाओं के नामों से भी ऐसा लगता है कि भद्रबाहु की शिष्य परम्परा बंगाल और उड़ीसा से दक्षिण की ओर चली गई होगी। दक्षिण में गोदासगण का एक अभिलेख भी मिला है। अतः यह मान्यता समुचित ही है। कि भद्रबाहु की परम्परा से ही आगे चलकर दक्षिण की अचेलक निर्ग्रन्थ-परंपरा का विकास हुआ।
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श्वेताम्बरपरम्परा पाटलिपुत्र की वाचना के समय भद्रबाहु के नेपाल में होने का उल्लेख करती है, जबकि दिगम्बरपरम्परा चंद्रगुप्त मौर्य को दीक्षित करके उनके दक्षिण जाने का उल्लेख करती है। सम्भव है कि वे अपने जीवन के अंतिम चरण में उत्तर से दक्षिण चले गये हों। उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ की परम्परा सम्भूतिविजय के प्रशिस्य एवं स्थूलिभद्र के शिष्यों से आगे बढ़ी। कल्पसूत्र में वर्णित गोदासगण और उसकी उपर्युक्त चार शाखाओं को छोड़कर शेष सभी गणों, कुलों और शाखाओं का सम्बन्ध स्थूलभद्र की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से ही है। इसी प्रकार दक्षिण का अचेल निर्ग्रन्थ संघ भद्रबाहु की परम्परा से और उत्तर का सचेल निर्ग्रन्थ संघ स्थूलिभद्र की परम्परा से विकसित हुआ । इस संघ में उत्तर बलिस्सहगण, उद्धेहगण, कोटिकगण, चारणगण, मानवगण, वेसवाडिवगण, उड्डवाडियगण आदि प्रमुख गण थे। इन गणों की अनेक शाखाएँ एवं कुल थे। कल्पसूत्र की स्थविरावलि इन सबका उल्लेख तो करती है, किन्तु इसके अन्तिम भाग में मात्र कोटिकगण की वज्र शाखा की आचार्य परम्परा दी गई है, जो देवर्द्धिक्षमाश्रमण (वीर निर्माण सं. ९८०) तक जाती है। स्थूलभद्र के शिष्यप्रशिष्यों की परम्परा में उद्भूत जिन विभिन्न गणों, शाखाओं एवं कुलों की सूचना हमें कल्पसूत्र की स्थविरावलि से मिलती है उसकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती है, जो कल्पसूत्र की स्थविरावलि की प्रामाणिकता को सिद्ध करते हैं। दिगम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण से लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् तक की जो पट्टावली
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उपलब्ध है, एक तो वह पर्याप्त परवर्ती है। दूसरे भद्रबाहु के नाम के अतिरिक्त उसकी पुष्टि का प्राचीन साहित्यिक और अभिलेखीय कोई साक्ष्य नहीं है । भद्रबाहु के सम्बन्ध में भी जो साक्ष्य है, वह पर्याप्त परवर्ती है। अतः ऐतिहासिक दृष्टि से उसकी प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लगाए जा सकते हैं। महावीर के निर्वाण में ईसा की प्रथम एवं द्वितीय शताब्दी तक के जो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में हुए, उन्हें समझने के लिए अर्द्धमागधी आगमों के अतिरिक्त मथुरा के शिल्प एवं अभिलेख हमारी बहुत अधिक मदद करते हैं। मथुरा शिल्प की विशेषता यह है कि तीर्थंकर प्रतिमाएँ नग्न हैं, मुनि नग्न होकर भी वस्त्र खण्ड से अपनी नग्नता छिपाए हुए हैं। वस्त्र के अतिरिक्त पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन भी मुनि के उपकरणों में समाहित है। मुनियों के नाम, गण, शाखा, कुल आदि श्वेताम्बर परम्परा के कल्पसूत्र की स्थविरावलि से मिलते हैं। इस तरह ये श्वेताम्बर परम्परा की पूर्व स्थिति के सूचक हैं। जैन धर्म में तीर्थंकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त स्तूप के निर्माण की परंपरा भी थी, यह भी मथुरा के शिल्प से सिद्ध हो जाता है। यापनीय या बोटिक संघ का उद्भव :
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ईसा की द्वितीय शती में महावीर के निर्वाण के छह सौ नौ वर्ष पश्चात् उत्तर भारत निर्ग्रन्थ-संघ में विभाजन की एक अन्य घटना घटित हुई, फलतः उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ सचेल एवं अचेल ऐसे दो भागों में बँट गया। पार्श्वापत्यों के प्रभाव से आपवादिक रूप में एवं शीतादि के निवारणार्थ गृहीत हुए वस्त्र, पात्र आदि जब मुनि की अपरिहार्य उपाधि बनने लगे, तो परिग्रह की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के प्रश्न पर आर्य कृष्ण और आर्य शिवभूति में मतभेद हो गया। आर्य कृष्ण जिनकल्प का उच्छेद बताकर गृहीत वस्त्र - पात्र को मुनिचर्या का अपरिहार्य अंग मानने लगे, जबकि आर्य शिवभूति ने इनके त्याग और जिनकल्प के आचरण पर बल दिया। उनका कहना था कि समर्थ के जिनकल्प का निषेध नहीं मानना चाहिए। वस्त्र, पात्र का ग्रहण अपवाद - मार्ग है, उत्सर्ग-मार्ग तो अचेलता ही है। आर्य शिवभूति की उत्तर भारत की इस अचेल - परम्परा को श्वेताम्बरों ने बोटिक (भ्रष्ट) कहा। किंतु आगे चलकर यह परम्परा यापनीय के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हुई । गोपाञ्चाल में विकसित होने के कारण यह गोप्यसंघ नाम से भी जानी जाती थी ।
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