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________________ -- तीन्द्रसूरि स्मारकाव्य - जैन आगम एक साहित्य - स्थान पर “हवइ" शब्द रूप का प्रयोग यह बताता है कि इसकी रचना होते हुए भी महाराष्ट्री रूप "खेयन्न" बनाये रखना उचित नहीं होगा। अर्द्धमागधी से महाराष्ट्री के संक्रमणकाल के बीच की है और यह अंश जहाँ तक अर्द्धमागधी आगम-ग्रन्थों का प्रश्न है उन पर परवर्तीकाल नमस्कार-मंत्र में बाद में जोड़ा गया है। इसमें शौरसेनी रूप "होदि" में जो शौरसेनी या महाराष्ट्री प्राकृतों का प्रभाव आ गया है, उसे दूर या "हवदि" के स्थान पर महाराष्ट्री शब्द रूप "हवई" है जो यह करने का प्रयत्न किसी सीमा तक उचित माना जा सकता है, किन्तु बताता है कि यह अंश मूलत: महाराष्ट्री में निर्मित हुआ था और वहीं इस प्रयत्न में भी निम्न सावधानियाँ अपेक्षित हैंसे शौरसेनी में लिया गया है। १. प्रथम तो यह कि यदि मूल हस्तप्रतियों में कहीं भी वह शब्द इसी प्रकार शौरसेनी आगमों में भी इसके "हवई" शब्द रूप रूप नहीं मिलता है, तो उस शब्द रूप को किसी भी स्थिति में परिवर्तित की उपस्थिति भी यही सूचित करती है कि उन्होंने इस अंश को परवर्ती न किया जाये। किन्तु प्राचीन अर्द्धमागधी शब्द-रूप जो किसी भी महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थों से ही ग्रहण किया है। अन्यथा वहाँ मूल मूल हस्तप्रति में एक-दो स्थानों पर भी उपलब्ध होता है, उसे अन्यत्र शौरसेनी का "हवदि” या “होदि" रूप ही होना था। आज यदि किसी परिवर्तित किया जा सकता है। यदि किसी अर्द्धमागधी के प्राचीन ग्रन्थ को शौरसेनी का अधिक आग्रह हो, तो क्या वे नमस्कार-मंत्र के इस में “लोग' एवं “लोय" दोनों रूप मिलते हो तो वहाँ अर्वाचीन रूप "हवई" शब्द को “हवदि" या "होदि" रूप में परिवर्तित कर देंगे? “लोय' को प्राचीन रूप "लोग' में रूपान्तरित किया जा सकता है जबकि तीसरी-चौथी शती से आज तक कहीं भी “हवइ" के अतिरिक्त किन्तु इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि एक पूरा अन्य कोई शब्द-रूप उपलब्ध नहीं है। का पूरा गद्यांश या पद्यांश महाराष्ट्री में है और उसमें प्रयुक्त शब्दों प्राकृत के भाषिक स्वरूप के सम्बन्ध में दूसरी कठिनाई यह है के वैकल्पिक अर्द्धमागधी रूप किसी एक भी आदर्श प्रति में नहीं मिलते कि प्राकृत का मूल आधार क्षेत्रीय बोलियाँ होने से उसके एक ही हैं तो उन अंशों को परिवर्तित न किया जाये, क्योंकि सम्भावना यह काल में विभिन्न रूप रहे हैं। प्राकृत-व्याकरण में जो “बहुलं' शब्द हो सकती है कि वह अंश परवर्ती काल में प्रक्षिप्त हुआ हो। अत: है वह स्वयं इस बात का सूचक है कि चाहे शब्द-रूप हो, चाहे धातु- उस अंश के प्रक्षिप्त होने का आधार जो उसका भाषिक स्वरूप है, रूप हो, या उपसर्ग आदि हो, उनकी बहुविधता को अस्वीकार नहीं उसको बदलने से आगमिक शोध में बाधा उत्पन्न होगी। उदाहरण के किया जा सकता। एक बार हम मान भी लें कि एक क्षेत्रीय बोली रूप में आचारांग के प्रारम्भ में "सुयं मे आउसंतेण भगवया एयं में एक ही रूप रहा होगा, किन्तु चाहे वह शौरसेनी, अर्द्धमागधी या अक्खायं" के अंश को ही लें, जो सामान्यतया सभी प्रतियों में इसी महाराष्ट्री प्राकृत हो, साहित्यिक भाषा के रूप में इनके विकास के रूप में मिलता है। यदि हम इसे अर्द्धमागधी में रूपान्तरित करके "सुतं मूल में विविध बोलियाँ रही हैं। अत: भाषिक एकरूपता का प्रयत्न । मे आउसन्तेणं भगवता एवं अक्खाता" कर देगें तो इसके प्रक्षिप्त प्राकृत की अपनी मूल प्रकृति की दृष्टि से कितना समीचीन होगा, होने की जो सम्भावना है वह समाप्त हो जायेगी। अत: प्राचीनस्तर यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। के आगमों में किस अंश के भाषिक स्वरूप को बदला जा सकता पुनः चाहे हम एक बार यह मान भी ले कि प्राचीन अर्द्धमागधी है और किसको नहीं, इस पर गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है। का जो भी साहित्यिक रूप रहा वह बहुविध नहीं था और उसमें व्यंजनों इसी सन्दर्भ में ऋषिभाषित के एक अन्य उदाहरण पर भी विचार के लोप, उनके स्थान पर "अ" या "य" की उपस्थिति अथवा "न" कर सकते हैं। इसमें प्रत्येक ऋषि के कथन को प्रस्तुत करते हुए के स्थान पर “ण” की प्रवृत्ति नहीं रही होगी और इस आधार पर सामान्यतया यह गद्यांश मिलता है- 'अरहता इसिणा बुइन्तं, किन्तु आचारांग आदि की भाषा का अर्द्धमागधी स्वरूप स्थिर करने का हम देखते हैं कि इसके ४५ अध्यायों में से ३७ में “बुइन्तं” पाठ प्रयत्न उचित भी मान लिया जाये, किन्तु यह भी सत्य है कि जैन- है, जबकि ७ में “बुइयं' पाठ है। ऐसी स्थिति में यदि इस "बुइयं" परम्परा में शौरसेनी का आगम-तुल्य साहित्य मूलत: अर्द्धमागधी पाठ वाले अंश के आस-पास अन्य शब्दों के प्राचीन अर्द्धमागधी रूप आगम-साहित्य के आधार पर और उससे ही विकसित हुआ, अत: मिलते हो तो “बुइय" को बुइन्तं में बदला जा सकता है। किन्तु यदि उसमें जो अर्द्धमागधी या महाराष्ट्री का प्रभाव देखा जाता है, उसे पूर्णतः किसी शब्द रूप के आगे-पीछे के शब्द-रूप भी महाराष्ट्री प्रभाव वाले निकाल देना क्या उचित होगा? यदि हमने यह दुःसाहस किया भी हों, तो फिर उसे बदलने के लिए हमें एक बार सोचना होगा। तो उससे ग्रन्थों के काल-निर्धारण आदि में और उनकी पारस्परिक कुछ स्थितियों में यह भी होता है कि ग्रन्थ की एक ही आदर्श प्रभावकता को समझने में, आज जो सुगमता है, वह नष्ट हो जायेगी। प्रति उपलब्ध हो, ऐसी स्थिति में जब तक उनकी प्रतियाँ उपलब्ध ___यही स्थिति महाराष्ट्री प्राकृत की भी है। उसका आधार भी न हों, तब तक उनके साथ छेड़-छाड़ करना उचित नहीं होगा। अत: अर्द्धमागधी और अंशत: शौरसेनी आगम रहे हैं। यदि उनके प्रभाव अर्द्धमागधी या शौरसेनी के भाषिक रूपों को परिवर्तित करने के किसी को निकालने का प्रयत्न किया गया तो वह भी उचित नहीं होगा। निर्णय से पूर्व सावधानी और बौद्धिक ईमानदारी की आवश्यकता है। 'खेयण्ण' का प्राचीन रूप'खेतन' है। महाराष्ट्री प्राकृत के ग्रन्थ में एक इस सन्दर्भ में अन्तिम रूप से एक बात और निवेदन करना आवश्यक बार 'खेत्तन्त्र' रूप प्राप्त होता है तो उसे हम प्राचीन शब्द रूप मानकर है, वह यह कि यदि मूलपाठ में किसी प्रकार का परिवर्तन किया भी रख सकते हैं, किन्तु अर्द्धमागधी के ग्रन्थ में "खेतन" रूप उपलब्ध जाता है, तो भी इतना तो अवश्य ही करणीय होगा कि पाठान्तरो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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