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से प्रसिद्ध थे। जैसलमेरनरेश गणदेव, जैत्रसिंह, समियाणा के राजा समरसिंह और शीतलदेव आप ही के परम भक्त थे। दिल्ली सम्राट् कुतुबुद्दीन को आपने अपने सद्गुणों द्वारा चमत्कृत किया था। आपने अपने जीवन में शासन - प्रभावना के अनेक कार्य दीक्षा, प्रतिष्ठा, संघयात्रा, पदवी प्रदान आदि अपने शासन
-काल में किए थे। जिसके लिए युगप्रधानाचार्य - गुर्वावली देखनी चाहिए। सं. १३४३ वैशाख सुदि १० के दिन जावालिपुर में सूरि
स्वर्ण और रजताक्षर युक्त चित्रश्रेणि से विराजित शुद्धसूत्रार्थ पद प्राप्त किया और सं. १३७६ मिती आषाढ़ सुदि ९ को संयुक्त यह पुस्तक जयवंत हो।
कोसवाणा में स्वर्गवासी हुए। प्रकटप्रभावी दादाश्री जिनकुशलसूरि
पुण्यवृद्धयै समृद्ध्यैच वाच्यमानं सदाभवेत् मंत्रीशराजसिंहस्य श्रीकल्पागमपुस्तकम्।। ४७ ।।
• यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ इतिहास
श्रीमद्विक्रमतोषट्वेदेषु ( ) शशि संख्यया । वत्सरेआश्विने मासे लिखापितमिदं महत् ।। ४५ ।।
श्री विक्रमादित्य के संवत् १५४६ में आश्विन मास में यह महान् (कल्पसूत्र) लिखवाया।
सौवर्णे (र) जतश्चापिऽक्षरैर्युक्तं चित्रश्रेणिविराजितम् । शुद्धसूत्रार्थसंयुक्तं पुस्तकं जयतादिदम् ।। ४६ ।।
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कलिकालकेवली श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर उनके भतीजे कुशलकीर्ति जो मंत्रीश्वर जेसल ( जिल्हागर) की पत्नी जयश्री के पुत्र थे, विराजमान हुए। इनकी दीक्षा सं. १३४६ / ७ में तथा सूरिपद सं. १३७७ में पाटण में श्री राजेन्द्रचन्द्राचार्य द्वारा मंत्री कर्मचन्द्र के पूर्वज तेजपाल रुद्रपाल द्वारा पट्ट महोत्सव सम्पन्न
जहाँ तक पृथ्वी, श्रेष्ठ मेरु पर्वत व चन्द्र सूर्य और ध्रुव हैं, हुआ। आपके द्वारा दीक्षा, प्रतिष्ठा, संघयात्रादि बड़े-बड़े कार्य यह कल्पसूत्र ग्रन्थ बांचा जाता हुआ आनंद दे। प्रचुर परिणाम में सम्पन्न हुए। शत्रुञ्जय की प्राचीन खरतरवसही का अद्वितीय कलापूर्ण जिनालय आपके द्वारा प्रतिष्ठित है। सिंध प्रांत में विचर कर धर्मप्रभावना करते हुए सं. १३८९ मिती फाल्गुन बदि ५ या १५ को देरावर में स्वर्गवास हुआ। आप तीसरे दादा साहब नाम से प्रकट प्रभावी हैं। सारे भारत में आपके चरण व मूर्तियाँ सैकड़ों दादावाड़ियों और जिनालयों में प्रतिष्ठित हैं। आप छोटे दादाजी के नाम से प्रसिद्ध हैं और भक्तजनों का मनोवांछित पूर्ण करने में कल्पवृक्ष के तुल्य प्रकटप्रभावी हैं। सैकड़ों स्तवन - स्तोत्र व पूजाएँ अहर्निश गीयमान हैं। श्री जिनपद्मसूरि
मंत्रीश्वर राजसिंह से लिखाया गया, सदा वाच्य मान यह कल्पागम ग्रन्थ पुण्यवृद्धिकारक एवं समृद्धिकारक हो । यावद्वरा वरो मेरुश्चन्द्रसूर्यौ ध्रुवस्तथा श्रीकल्पपुस्तकं तावद्वाच्यमानं तु नंदतात् । । ४८ ।।
।। इति कल्पपुस्तकप्रशस्तिः । । शुभंभवतु ।। श्री छहः । । संवत् १५४७ वर्षे आसो सुदि १० दिनवा. क्षमामूर्ति गणि उद्यमेन लिखितं जो. बडूआकेन । मं. राजसिंह कल्पपुस्तकं । शुभं भवतु ।
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(यह १०० पत्रमय ६० के लगभग चित्रों वाला कल्पसूत्र श्री विशालसेन सूरिजी ने मद्रास में चालीस हजार में प्राप्त किया था। प्रशस्ति के चार पत्र दो वर्ष बाद ग्यारह हजार में लिए । ) छाजहड़ गोत्र के दीक्षित आचार्य कलिकाल - केवली श्री जिनचन्द्रसूरि
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ये छाजहड़गोत्रीय अम्बदेव के पुत्र थे। सं. १३८४ माघ सुदि ५ को दादा श्री जिनकुशलसूरि द्वारा दीक्षित हुए, पद्ममूर्ति नाम प्रसिद्ध हुआ। ये बाल्यकाल में ही सरस्वती की कृपा से बड़े विद्वान् हो गए। तृशृंगम नरेश रामदेव की सभा में अपनी प्रतिभा से सभी विद्वानों को चमत्कृत किया। सं. १३९३ तक की तीर्थयात्रा, दीक्षा आदि के वृतान्त गुर्वावली में हैं। सं. १४०० में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पट्ट पर आषाढ़ बदि १ को श्री जिनलब्धिसूरि विराजित हुए ।
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खरतरगच्छ में श्री जिनप्रबोधसूरि के पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरि जी महाराज गढ़ सीवाणा (समियाणा) के मंत्री देवराज के पुत्र थे। आपकी माता का नाम कोमल देवी था। आपका जन्म सं. १३२४ मिती मार्गशीर्ष सुदि ४ को हुआ। सं. १३३२ मिती जेठ सुदि ३ को श्री जिनप्रबोधसूरि से दीक्षित हुए। आपका नाम क्षेमकीर्ति रखा गया। आपका जन्मनाम खेमराय था। आप बड़े विद्वान् और प्रभावक आचार्य थे। आप कलिकाल - केवली विरुद्
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