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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - इतिहासप्रशस्ति का संक्षिप्त सार
का उद्यापन आचार्य श्री सागरचंद्रसूरि के उपदेश से किया। सं.
१४७३ में इसी महादुर्ग जैसलमेर उत्सवादि के आयोजन में धन उपकेशवंश की श्रेष्ठि-रांका शाखा/गोत्र के यक्षदेव के पुत्र सफल किया। संघपति सेठ धनराज ने अपने पुत्र जगपाल आदि झांबट के पुत्र धांधल हुए। उनके पुत्र गजू और भीमसिंह थे। गजू के के साथ नाना देश निवासी संघ को आमंत्रित कर प्रतिमाओं की पत्र गणदेव और मोक्षदेव थे। गणदेव के मेघा, जेसल, मोहन और प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रकार प्रतिदिन धार्मिक कार्य करते हुए रसाल हुए। जेसल की भार्या पूरी के तीन पुत्र प्रसिद्ध गुणवान, श्राक्क पृथ्वी पर चिरकाल जय विजयी हो। धनवान और तीन लोक में मण्डनस्वरूप थ। उनके नाम आबा, इसके पश्चात भगवान महावीर के शासन में गणधर सधर्मा जीदा और मलराज थे। आबरज की भायो बहुरी के दो पुत्र शिवराज स्वामी की परंपरा में चंद्रकल के उद्योतन सरि से श्री जिनराजसरि और महीराज तथा राणी और श्याणी दो पुत्रियाँ थीं, मूलराज की
पर्यंत पट्टधरों की नामावली देने के पश्चात् ३६वें श्लोक में स्वबंधु प्रिया माल्हण दे तथा पुत्र सहस्त्रराज देवगुरु भक्त था।
जिंदा, मूलराज सहित आंबराज ने यह ग्रंथ माता पूंजी और अपने मोहन की भार्या पूंजी के चार पुत्र ऋषभदत्त, धामा, कान्हा पुण्यार्थ लिखाने का उल्लेख किया है। और जगमाल थे। पासदत्त के सरस्वती और कौतिग देवी दो
"संवत् १४९७ वर्षे अश्वयुजिमासिश्रीवलक्षपक्षे १० स्त्रियाँ थी। सरस्वती के वील्हा और विमल दो पुत्र थे। कौतिगदेवी
विजयदशम्यां सोमे अद्येह श्रीजेसलमेरुमहादुर्गे श्रीवैरिसिंह भूमृति के पुत्र कर्मण, हेमा और ठकुरा थे। धन्ना संघपति की वल्लभा
राज्यं प्रति पालयति सतिश्रीतरहागच्छगगनदिननाथायमान आल्ही थी, जिसमें पुत्री हस्तू, चंद्रावली मनोहर थी। नायकदे श्राविका ने गुरुवर श्री जिनभद्रसरिजी के वचनों से संदेहविषौषधि
श्रीजिनराजसूरिपट्टसारसहकारवनवसंतायमानश्रीमन्श्री
जिनभद्रसूरीश्वरविजयराज्ये श्रीकल्पपुस्तक प्रशस्तिः समर्थिता। ग्रंथ लिखवाया।
शिवमस्तु सर्वजगतः।।श्री।।श्री।।" आंबा ने सं. १४२५ में श्री जिनेश्वरसूरि गुरु के उपदेश से
(श्री जेसलमेरनगरस्य बृहत्खरतटगच्छोपाश्रये पंचायती भंडारेप्रति।) देरावर दादा तीर्थ यात्रोत्सव किया। उच्चा नगरी जो यवना कुल थी, उसमें से १४२७ में श्री जिनोदयसूरिजी से प्राण-प्रतिष्ठा करवाई
करवाई किले के वर्तमान मंदिरों में सर्वप्राचीन श्री पार्श्वनाथ जिनालय तथा लाख मनुष्य..घोड़े, हजारों गाड़ों के साथ महाजनों ने मिलकर
है, जिसका नाम लक्ष्मणबिहार तत्कालीन महारावल लक्ष्मणजी प्रयाण किया। याचकजनों की आशा पूर्ण की। भाद्रव मास की
के नाम से यह खरजरप्रासादचूडामणि प्रसिद्ध किया। सं. १४५९ भांति धन की दानवृष्टि की।
में निर्माण प्रारंभ होकर सं. १४७३ में १४ वर्षों में पूर्णाहति हुई। सं. १४३६ में श्री जिनराजसरि महाराज की चरण-वंदना
श्री पार्श्वनाथ मंदिर निर्माताओं द्वारा दो प्रशस्तियाँ सुशोभित संघ सहित की। शत्रंजय गिरनार तीर्थों की यात्रा करके आंबराज हैं जो नाहरजी के लेखांक २११२ और २०१३ में प्रकाशित हैं। आदि ने संघपति पद प्राप्त किया। सेठ कीहट, धन्ना आदि ने जिनके आधार पर उपरिलिखित वंशवृक्ष दिया गया है, जो माता पंजी सहित शत्रंजय, तारंगा. आरासण आदि तीर्थों की प्रकाश्यमान इस कल्पसूत्र प्रशस्ति जो सं. १४९७ में लिखी गई. यात्रा की। फिर बहत से धनाढ्य लोगों के साथ संघ सहित से समर्थित है। यह २२ और २४ पंक्तियों में शिलोत्कीर्णित है। सुसज्जित मनोहर गाड़ियों में तीर्थयात्रा करते हुए स्वधर्मवात्सल्य ।
पर्युक्त वंशवृक्ष में कल्पसूत्रप्रशस्ति में प्राप्त पत्नियों और पुत्रियों एवं दान-पुण्य करने में सतत संलग्न रहकर श्री जिनराजसरिजी के नाम भी जोड़ दिए गए हैं। गणदेव के पुत्रों में मोहन के बाद महाराज से संघपति पद प्राप्त किया।
वेडूर के स्थान पर कल्पसूत्रप्रशस्ति में रसाल नाम लिखा है।
कुछ नाम अन्य लेखों से भी समर्थित होते हैं। सं. १४४९ में सेठ कीहट आदि ने माता पंजी तथा बंधु बांधवों सहित शत्रुजय, गिरनार यात्रा कर श्री जिनराजसूरिजी के
- पूज्य श्री जिनधरणेन्द्रसूरिजी महाराज के दफ्तर में इस सान्निध्य में मालारोपण महोत्सव मनाया एवं यति भावसंदर का रांका सेठ परिवार से संबंधित जो कवित्त मिला है. उसे यहाँ दीक्षोत्सव संपन्न हुआ। सं. १४५४ में धन्ना, धामा द्वारा पंचमी तप उद्धृत किया जा रहा है।
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