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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - समाज एवं संस्कृति - जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी- चरित्र का विकृत पक्ष युक्त महाजंगल की भाँति दुर्गम्य, कुल, स्वजन और मित्रों से विग्रह जैनाचार्यों ने नारी-चरित्र का गम्भीर विश्लेषण किया है। कराने वाली, परदोष-प्रकाशिका, कृतघ्ना, वीर्यनाशिका, शूकरवत् जिस नारी-स्वभाव का चित्रण करते हुए सर्वप्रथम जैनागमग्रन्थ तन्दुलवैचारिक प्रकार शूकर खाद्य-पदार्थ को एकान्त में ले जाकर खाता है उसी प्रकार प्रकीर्णक में नारी की स्वभावगत निम्न ९४ विशेषताएं वर्णित हैं - भोग हेतु पुरुष को एकान्त में ले जाने वाली, अस्थिर स्वभाव वाली, नारी स्वभाव से विषम, मधुर वचन की वल्लरी, कपट-प्रेम जिस प्रकार अग्निपात्र का मुख आरम्भ में रक्त हो जाता है किन्तु रूपी पर्वत, सहस्रों अपराधों का घर, शोक-उद्गमस्थली, पुरुष के बल अन्ततोगत्वा काला हो जाता है उसी प्रकार नारी आरम्भ में राग उत्पन्न के विनाश का कारण, पुरुषों की वधस्थली अर्थात् उनकी हत्या का करती है परन्तु अन्ततः उससे विरक्ति ही उत्पन्न होती है, पुरुषों के मैत्री कारण, लज्जा-नाशिका, अशिष्टता का पुज, कपट का घर, शत्रुता की विनाशादि की जड़, बिना रस्सी की पाग, काष्ठरहित वन की भाँति पाप खान, शोक की ढेर, मर्यादा की नाशिका, कामराग की आश्रय-स्थली, करके पाश्चाताप में जलती नहीं है, कुत्सित कार्य में सदैव तत्पर, दुराचरणों का आवास, सम्मोह की जननी, ज्ञान का स्खलन करने वाली, अधार्मिक कृत्यों की वैतरणी, असाध्य व्याधि, वियोग पर तोत्र दुःखी शील को विचलित करने वाली, धर्मयाग में बाधा रूप, मोक्षपथ साधकों न होने वाली, रोगरहित उपसर्ग या पीड़ा, रतिमान के लिए मनोभ्रम की शत्रु, ब्रह्मचर्यादि आचार-मार्ग का अनुसरण करने वालों के लिए कारण, शरीर-व्यापी दाह का कारण, बिना बादल बिजली के समान, दूषण रूप, काम को वाटिका, मोक्षपथ की अर्गला, दरिद्रता का घर, बिना जल के प्रवाहमान और समुद्रवेग की भाँति नियन्त्रण से परे कही विषधर सर्प की भाँति कुपित होने वाली, मदमत्त हाथी की भाँति गई है । तन्दुलवैचारिक की वृत्ति में इनमें से अधिकांश गुणों के सम्बन्ध • कामविह्वला, व्याघ्री की भाँति दुष्ट हृदय वाली, ढंके हुए कूप की भाँति में एक-एक कथा भी दी गई है। अप्रकाशित हृदय वाली, मायावी की भाँति मधुर वचन बोलकर स्वपाश - उत्तराध्ययनचूर्णिी में भी स्त्री को समुद्र की तरंग के समान में आबद्ध करने वाली, आचार्य की वाणी के समान अनेक पुरुषों द्वारा चपल स्वभाव वाली, सन्ध्याकालीन आभा के समान क्षणिक प्रेम वाली एक साथ ग्राह्य, शुष्क कण्डे की अग्नि की भाँति पुरुषों के अन्त: करण और अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर पुरुष का परित्याग कर देने वाली में ज्वाला प्रज्जलित करने वाली, विषम पर्वतमार्ग की भाँति असमतल कहा गया है । आवश्यक भाष्य और निशीथचूर्णि में भी नारी के चपल अन्त:-करण वाली, अन्तर्दूषित घाव की भाँति दुर्गन्धित हृदय वाली, स्वभाव और शिथिल चरित्र का उल्लेख हुआ है। निशीथचूर्णि में यह कृष्ण सर्प की तरह अविश्वसनीय, संसार (भैरव) के समान मायावी, भी कहा गया है कि स्त्रियाँ थोड़े से उपहारों से ही वशीभूत की जा सन्ध्या की लालिमा की भाँति क्षणिक प्रेम वाली, समुद्र की लहरों की सकती हैं और पुरुषों को विचलित करने में सक्षम होती हैं । भाँति चंचल स्वभाव वाली, मछलियों की भाँति दुष्परिवर्तनीय स्वभाव आचारांगचूर्णि एवं वृत्ति में उसे शीतपरिषह कहा गया है अर्थात् अनुकूल वाली, बन्दरों के समान चपल स्वभाव वाली, मृत्यु की भाँति निर्विरोध लगते हुए भी त्रासदायी होती है । १२ काल के समान दयाहीन, वरुण के समान पाशुयक्त अर्थात् पुरुषों को सूत्रकृतांग में कहा गया है कि स्त्रियाँ पापकर्म नहीं करने का कामपाश में बाँधने वाली, जल के समान अधोगामिनी, कृपण के समान वचन देकर भी पुन: अपकार्य में लग जाती हैं । १३ इसकी टीका में रिक्त हस्त वाली, नरक के समान दारुणत्रासदायिका, गर्दभ के सदृश टीकाकार ने कामशास्त्र का उदाहरण देकर कहा है कि जैसे दर्पण पर दुष्टाचार वाली, कुलक्षणयुक्त घोड़े के समान लज्जारहित व्यवहार पड़ी हुई छाया दुह्यि होती है वैसे ही स्त्रियों के हृदय दुर्ग्राह्य होते हैं। वाली, बाल-स्वभाव के समान चंचल अनुराग वाली, अन्धकारवत् पर्वत के दुर्गम मार्ग के समान ही उनके हृदय का भाव सहसा ज्ञात नहीं दुषवेश्य, विष-बेल की भाँति संसर्ग-वर्जित, भयंकर मकर आदि से होता। सूत्रकृतांग-वृत्ति में नारी-चरित्र के विषय में कहा गया है कि अच्छी युक्त वापी के समान दुष्प्रवेश, साधुजनों की प्रशंसा के अयोग्य, विष- तरह जीती हुई, प्रसन्न की हुई और अच्छी तरह परिचित अटवी और स्वी वृक्ष के फल की तरह प्रारम्भ में मधुर किन्तु दारुण अन्तवाली, खाली का विश्वास नहीं करना चाहिए । क्या इस समस्त जीवलोक में कोई मुट्ठी से जिस प्रकार बालकों को लुभाया जाता है उसी प्रकार पुरुषों को अंगुलि उठाकर कह सकता है, जिसने स्त्री की कामना करके दुःख न लुभाने वाली, जिस प्रकार एक पक्षी के द्वारा मांस-खण्ड ग्रहण करने पाया हो ? उसके स्वभाव के सम्बन्ध में यही कहा गया है कि स्त्रियाँ पर अन्य पक्षी उसे विविध कष्ट देते हैं उसी प्रकार के दारुण कष्ट स्त्री मन से कुछ सोचती हैं, वचन से कुछ और कहती हैं तथा कर्म से कुछ को ग्रहण करने पर पुरुषों को होते हैं, प्रदीप्त तृणराशि की भाँति ज्वलन और करती हैं ।।५।। स्वभाव को न छोड़ने वाली, घोर पाप के समान दुर्लघ्य, कूट कार्षापण की भाँति अकालचारिणी, तीव्र क्रोध की भाँति दुर्रक्ष्य, दारुण दुखदायिका, स्त्रियों का पुरुषों के प्रति व्यवहार घृणा की पात्र, दुष्टोपचारा, चपला, अविश्वसनीया, एक पुरुष से बैंधकर स्त्रियाँ पुरुषों को अपने जाल में फँसाकर फिर किस प्रकार न रहने वाली, यौवनावस्था में कष्ट से रक्षणीय, बाल्यावस्था में दुःख उसकी दुर्गति करती हैं उसका सुन्दर एवं सजीव चित्रण सूत्रकृतांग और से पाल्य, उद्वेगशीला, कर्कशा, दारुण वैर का कारण, रूप-स्वभाव उसकी वृत्ति में उपलब्ध होता है । उस चित्रण का संभिप्त रूप निम्न गर्विता, भुजंग के समान कुटिल गति वाली, दुष्ट घोड़े के पद-चिह्न से है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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