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________________ -यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारपर्युषण (संवत्सरी) के आवश्यक कर्तव्य श्रमण, श्रमणी, श्रावक एवं श्राविका सभी के लिए यह आवश्यक है। १. तप/संयम निशीथ के अनुसार पर्युषण के दिन कणमात्र भी आहार करना ३. कषायों का उपशमन/क्षमायाचना वर्जित था।" निशीथभाष्य में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो जैन-साधना निर्ग्रन्थ भाव की साधना है, जीवन से काम-क्रोध साधु पक्खी को उपवास, चौमासी को बेला और पज्जोसवण (संवत्सरी) की गाँठों का विसर्जन है, राग-द्वेष से ऊपर उठना है। चाहे श्रावकत्व को तेला नहीं करता है, उसे क्रमश: मासगुरु, चतुर्लघु और चतुर्गुरु हो या श्रमणत्व इसी बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति की क्रोध, का प्रायश्चित्त आता है। यद्यपि चूर्णि में यह मान लिया गया है कि अहङ्कार, कपट और लोभ की वृत्तियाँ शिथिल हों। मन तृष्णा एवं किसी परिस्थति विशेष के कारण पर्युषण में आहार करता हुआ भी आसक्ति के तनावों से मुक्त हो। पर्युषण इन्हीं की साधना का पर्व शुद्ध है।८ साधु-साध्वी वर्ग के साथ ही श्रावकवर्ग में पर्युषण (संवत्सरी) है। कल्पसूत्र में कहा गया है- यदि क्लेश उत्पन हुआ हो तो साधु में उपवास करने की परम्परा थी। निशीथचूर्णि में चण्डप्रद्योत और क्षमायाचना कर ले। क्षमायाचना करना, क्षमा प्रदान करना, उपशम उदयन की कथा से यह बात सिद्ध होती है (निशीथचूर्णि, भाग-३, धारण करना और करवाना साधु का आवश्यक कर्तव्य है, क्योकि पृ० १४७)। इस प्रकार पर्युषण पर्व में तप-साधना एक आवश्यक जो उपशम (शान्ति) धारण करता है, वह (भगवान् की आज्ञा का) कर्तव्य है। तप का मूल उद्देश्य अपनी इन्द्रियों पर संयम रखना है आराधक होता है, जो ऐसा नहीं करता है, वह विराधक होता है, और पर्युषण संयम-साधना' का पर्व है। । । क्योंकि उपशमन ही श्रमण-जीवन का सार है (उवसम सारं खु सामण्णं)।१९ निशीथचूर्णि में कहा गया है कि यदि अन्य समय में २. सांवत्सरिक प्रतिक्रमण/वार्षिक प्रायश्चित हुए क्लेश-कटुता की उस समय क्षमायाचना न की गई हो तो पर्युषण पर्युषण का दूसरा महत्त्वपूर्ण कर्तव्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमण। में अवश्य कर लेंवे। वार्षिक प्रायश्चित है। विगत वर्ष में हुए व्रतभंग, दोषसेवन, अनाचार इस प्रकार पर्युषण तप, संयम की साधना के साथ कषायों के या दुराचारों का अन्तर्निरीक्षण कर, उनकी आलोचना कर, उनके लिए उपशमन का पर्व है। क्षमायाचना एक ऐसा उपाय है, जो कटुता के प्रायश्चित्त ग्रहण करना यह पर्युषण का दूसरा आवश्यक कर्तव्य है। मल को धोकर हृदय को निर्मल बना देता है। १. आचेलकुद्देसिय सिज्जायर रायपिंड कितिकम्मे । ...१०. निशीथचूर्णि, जिणदासगणि, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, वत जेट्ठ पडिक्कमणे मासं पज्जोसवण कप्पे ।। १९५७, ३२१७। - बृहत्कल्पभाष्य, संपा० - पुण्यविजयजी, प्रका०-आत्मानंद जैन ११. जीवाभिगम-नन्दीश्वर द्वीप-वर्णन। सभा, भावनगर, वि०सं० १९९८, ६३६४। १२. निशीथचूर्णि, संपा०- जिणदासगणि, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, २. मूलाचार, वट्टकेराचार्य, प्रका०. जैनमन्दिर शक्कर बाजार, इन्दौर आगरा, १९५७, ३१५३।। की पत्रकार प्रति, समयसाराधिकार, १८। १३. वही, ३१५३ (कथा विस्तारपूर्वक वर्णित है) ३. भगवती-आराधना, शिवकोट्याचार्य, प्रका०- सखाराम नेमिचन्द्र १४. वही। दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर, १९३५,४२३ १५. दशलाक्षणिक व्रते भाद्रपद मासे शुक्ले श्री पंचमीदिने प्रोषध: कार्यः। दशाश्रुतस्कन्ध (आयारदशा), संपा०- मुनि कन्हैयालाल, प्रका.-अ.भा. - व्रततिथिनिर्णय, आचार्य सिंहनन्दी, प्रका० भारतीय ज्ञानपीठ, श्वे.स्था. जैनशास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, १९६०, अध्याय ८ । काशी, १९५०, पृ०२४। जे भिक्खु पज्जोसवणाए इत्तिरियं पि आहारं आहारेति अहारेंते वा १६. पर्युषण पर्व प्रवचन, संपा०- श्रीचन्द सुराना, प्रका०- मुनि श्री सात्तिज्जति। -निशीथसूत्रम, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, ब्यावर, १९७६, पृ० ३७-३८।। आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, १९७८, १०/४५। १७. जे भिक्खू पज्जोसवणाए इत्तिरियं पि आहारं आहारेति आहारेन्तं वा जे भिक्खू अपज्जोसवणाए पज्जोसवइ पज्जोसवंतं वा साइज्जइ। सातिज्जति। -निशीथसूत्रम, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन -निशीथसूत्रम्, संपा० मधुकर मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन समिति, स्थावर, १९७८, १०/४३। समिति, ब्यावर, १९७८, १०/४५।। जे भिक्खू वासावासं पज्जोसवियसि गामाणुगामं दुइज्जइ दुइज्जत वा १८. पंज्जोसवणाए जइ अट्ठमं न करेइ तो चउगुरुं, कारणे हिं साइज्जइ-निशीथसूत्रम, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम पज्जोसवणाए आहारेंतो सुद्धो। प्रकाशन समिति, स्थावर, १९७८, १०/४१। -निशीथचूर्णि, संपा०- जिनदासगणि, प्रका० - सन्मति ज्ञानपीठ, परि-सामस्त्येन उषणं-वसनं पर्युषणा-- कल्पसूत्र, सुबोधिनी-टीका, आगरा, १९७५, ३२१७। विनयविजयोपाध्याय, प्रका० हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९३९, १९. कल्पसूत्र, २८६। पृ० १७२। २०. कसाय कडताए न खामितं तो-पज्जोसवणा सु अवस्सं विओसवेयव्वं। ९. निशीथसूत्रम्, संपा०,- मधुकर, मुनि, प्रका० श्री आगम प्रकाशन -निशीथचूर्णि, जिनदासगणी, प्रका०- सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, समिति, ब्यावर, १९७८,१०/४६।। १९५७, ३१७९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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