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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
का मूल सूत्रों में कोई विशेष निर्देश नहीं है। किन्तु निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि आदि में स्थान-स्थान पर विस्तृत वर्णन है। जब एक बार यह स्वीकार कर लिया जाता है कि आचार के नियमों की व्यवस्था के सन्दर्भ में विचारणा को अवकाश है तब परिस्थिति को देखकर मूलसूत्रों के विधानों में अपवादों की सृष्टि करना गीतार्थ आचार्यों के लिए सहज हो जाता है। उत्सर्ग और अपवाद के बलाबल के सम्बन्ध में विचार करते हुए पं० जी पुनः लिखते हैं कि "संयमी पुरुष के लिए जितने भी निषिद्ध कार्य न करने योग्य कहे गये है, वे सभी "प्रतिषेध" के अन्तर्गत आते हैं और जब परिस्थितिविशेष में उन्हीं निषिद्ध कार्यों को करने की "अनुशा" दी जाती है, तब वे ही निषिद्धं कर्म "विधि" बन जाते हैं। परिस्थिति विशेष में अकर्तव्य भी कर्तव्य बन जाता है, किन्तु प्रतिषेध को विधि में परिणत कर देने वाली परिस्थिति का औचित्य और परीक्षण करना, साधारण साधक के लिए सम्भव नहीं है। अतएव ये "अपवाद", "अनुज्ञा" या "विधि" सब किसी को नहीं बताये जाते। यही कारण है कि "अपवाद" का दूसरा नाम "रहस्य" (नि००गा०४९५) पड़ा है। इससे यह भी फलित हो जाता है कि जिस प्रकार "प्रतिषेध" का पालन करने से आचरण विशुद्ध माना जाता है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात् अपवाद - मार्ग पर चलने पर भी आचरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए (देखें निशीय एक अध्ययन, पृ० ५४) प्रशमरति में उमास्वाति स्पष्ट रूप से कहते हैं कि परिस्थितिविशेष में जो भोजन, शय्या, वस्त्र, पात्र एवं औषधि आदि ग्राह्य होती है वही परिस्थिति विशेष में अग्राह्म हो जाती है और जो अग्राहा होती है वही पाह्य हो जाती है, निशांध भाष्य में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि समर्थ साधक के लिए उत्सर्ग स्थिति में जो द्रव्यादि निषिद्ध माने जाते हैं वे असमर्थ साधक के लिए आपवादिक स्थिति में ग्राह्य हो जाते हैं। सत्य यह है कि देश, काल, रोग आदि के कारण कभी-कभी जो अकार्य होता है वह कार्य बन जाता है और जो कार्य होता है वह अकार्य बन जाता है। उदाहरण के रूप में सामान्यतया ज्वर की स्थिति में भोजन निषिद्ध माना जाता है किन्तु वात, श्रम, क्रोध, शोक और कामादि से उत्पन्न ज्वर में लंघन हानिकारक माना जाता है।
उत्सर्ग और अपवाद की इस चर्चा में स्पष्ट रूप से एक बात सबसे महत्त्वपूर्ण है वह यह कि दोनों ही परिस्थिति- सापेक्ष हैं और इसलिए दोनों ही मार्ग हैं, उन्मार्ग कोई भी नहीं है। यद्यपि यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि यह कैसे निर्णय किया जाये कि किस व्यक्ति को उत्सर्ग मार्ग पर चलना चाहिए और किसको अपवाद मार्ग पर इस सम्बन्ध में जैनाचार्यों की दृष्टि यह रही है कि साधक को सामान्य स्थिति में उत्सर्ग का अवलम्बन करना चाहिए, किन्तु यदि वह किसी विशिष्ट परिस्थिति में फँस गया है जहाँ उसके उत्सर्ग के आलम्बन से स्वयं उसका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है तो उसे अपवादमार्ग का सेवन करना चाहिए फिर भी यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि अपवाद का आलम्बन किसी परिस्थितिविशेष में ही किया जाता है और उस परिस्थितिविशेष की समाप्ति पर साधक को पुनः उत्सर्ग
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मार्ग का निर्धारण कर लेना चाहिए। परिस्थितिविशेष उत्पन्न होने पर जो अपवाद मार्ग का अनुसरण नहीं करता उसे जैन आचार्यों ने प्रायश्चित का भागी बताया है किन्तु जिस परिस्थिति में अपवाद का अवलम्बन लिया गया था उसके समाप्त हो जाने पर भी यदि कोई साधक उस उपवाद मार्ग का परित्याग नहीं करता है तो वह भी प्रायश्चित का भागी होता है। कब उत्सर्ग का आचरण किया जाये और कब अपवाद का ? इसका निर्णय देश-कालगत परिस्थितियों अथवा व्यक्ति के शरीर-सामर्थ्य पर निर्भर होता है। एक बीमार साधक के लिए अकल्प्य आहार एषणीय माना जा सकता है किन्तु उसके स्वस्थ हो जाने पर वही आहार उसके लिए अनैषणीय हो जाता है।
यहाँ यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि साधक कब अपवाद मार्ग का अवलम्बन करे? और इसका निश्चय कौन करे? जैनाचार्यों ने इस सन्दर्भ में गीतार्थ की आवश्यकता अनुभव की और कहा कि गीतार्थ को ही यह अधिकार होता है कि वह साधक को उत्सर्ग या अपवाद किसका अवलम्बन लेना है, निर्णय दे। जैन-परम्परा में गीतार्थ उस आचार्य को कहा जाता है जो देश, काल और परिस्थिति को सम्यक् रूप से जानता हो और जिसने निशीथ, व्यवहार, कल्प आदि छेदसूत्रों का सम्यक् अध्ययन किया हो । साधक को उत्सर्ग और अपवाद में किसका अनुसरण करना है? इसके निर्देश का अधिकार गीतार्थ को ही है। जहाँ तक उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों में कौन श्रेय है और कौन अश्रेय अथवा कौन सबल है और कौन निर्बल है? इस समस्या के समाधान का प्रश्न है, जैनाचार्यों के अनुसार दोनों ही अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार श्रेय व सबल हैं। आपवादिक परिस्थिति में अपवाद को श्रेय और सबल माना गया है किन्तु सामान्य परिस्थिति में उत्सर्ग को श्रेय एवं सबल कहा गया है। बृहत्कल्पभाष्य' के अनुसार ये दोनों (उत्सर्ग और अपवाद) अपने-अपने स्थानों में श्रेय व सबल होते हैं। इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए बृहत्कल्पभाष्य' की पीठिका में कहा गया है कि जो साधक स्वस्थ एवं समर्थ है उसके लिए उत्सर्ग स्वस्थान है और अपवाद परस्थान है। जो अस्वस्थ एवं असमर्थ है उसके लिए अपवाद स्वस्थान है और उत्सर्ग परस्थान है। वस्तुतः जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं। यह सब व्यक्ति की सामर्थ्य एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि कब आचरणीय अनावरणीय एवं अनावरणीय आचरणीय हो जाता है। कभी उत्सर्ग का पालन उचित होता है तो कभी अपवाद का । वस्तुतः उत्सर्ग और अपवाद की इस समस्या का समाधान उन परिस्थितियों में कार्य करने वाले व्यक्ति के स्वभाव का विश्लेषण कर किये गये निर्णय में निहित है। वैसे तो उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में भी कोई सीमा रेखा निश्चित कर पाना कठिन है, फिर भी जैनाचायों ने कुछ आपवादिक परिस्थितियों का उल्लेख कर यह बताया है कि उनमें किस प्रकार का आचरण किया जाये।
सामान्यतया अहिंसा को जैन साधना का प्राण कहा जा सकता है। साधक के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्म हिंसा भी वर्जित मानी गई है। किन्तु जब कोई विरोधी व्यक्ति आचार्य या संघ के वध के लिए तत्पर
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