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- तान्दरि स्मारक पदय - इतिहासइसको नाहट (नामक राजा) ने बनवाया था ऐसा निम्न प्राकृत था और वि.सं. १६८१, १६८३ तथा १६८६ में अलग-अलग पद्म से ध्वनित होता है।
तीन बार महामहोत्सवपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठाएँ करवा कर सैकड़ों नवनवइ लक्खधणवड़ अलद्धवासे सुवण्णगिरि सिहरे।
जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाई थीं। साँचोर (राजस्थान) में भी नाहडनिवकारवियं थुणि वीरं जक्खवसहीए।।१।।
जयमलजी की बनवाई प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं। इस समय वे ही
प्रतिमाएँ प्रायः किले के सब चैत्यों में विराजमान है। यानी यहाँ ९९ लक्ष रुपयों की संपत्ति वाले श्रेष्ठियों को भी रहने को स्थान नहीं मिलता था, किले पर सब करोड़पति ही
बाद में इन सब मंदिरों में राजकीय कर्मचारियों ने राजकीय निवास करते थे। ऐसे सुवर्णगिरि के शिखर पर नाहड (राजा) युद्ध सामना
युद्ध सामग्री आदि भर कर इनके चारों ओर काँटे लगा दिए थे। द्वारा निर्मित यक्षवसति में श्रीमहावीरदेव की स्तुति करो।
विहारानुक्रम से महान् ज्योतिर्धर आगमरहस्यवेदी प्रभु
श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का वि.सं. १९३२ के उत्तरार्ध कुमारविहार जिनालय को सं. १२२१ के लगभग परमार्हत्
में जालोर पधारना हुआ। आप से जिनालयों की उक्त दशा देखी महाराजाधिहाज कुमारपाल भूपाल ने कलिकाससर्वज्ञ श्रीमद्
न गई। आपने तत्काल राजकर्मचारियों से मंदिरों की माँग की हेमचन्द्रसूरीन्द्र के उपदेश से कुमारविहार के गुणनिष्पन्न
और उनको अनेक प्रकार से समझाया, परंतु जब वे किसी नामाभिधान से विख्यात यह चैत्य बनवाया था। पहले यह ७२
प्रकार नहीं माने तो गुरुदेव ने जनता से दृढ़तापूर्वक घोषणा की जिनालय था। परंतु सं. १३३८ के लगग अलाउद्दीन ने धर्मान्धता से प्रेरित हो जालोर (जाबालीपुर) पर चढ़ाई की थी, तब उस
कि जब तक स्वर्णगिरि के तीनों जिनालयों को राजकीय शासन नराधम के पापी हाथों से इस गिरि एवं आबू के सुप्रसिद्ध मंदिरों
से मुक्त नहीं करवाऊँगा, तब तक मैं नित्य एक ही बार आहार से स्पर्धा करने वाले नगर के मनोहर एवं दिव्य मंदिरों का नाश
लूँगा और द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी और
अमावस्या तथा पूर्णिमा को उपवास करूँगा। आपने इसी कार्य हुआ था। उन मंदिरों की याद दिलाने वाली तोपखाना मस्जिद जो खण्डित मंदिरों के पत्थरों से धर्मान्ध यवनों ने बनवाई थी
को सम्पन्न करने के हेतु सं. १९३३ का वर्षावास जालोर में ही वह मस्जिद आज भी विद्यमान है। इस तोपखाने में लगे अधिकांश
किया। यथासमय आपने योग्य व्यक्तियों की एक समिति पत्थर खण्डित मंदिरों के हैं और अखण्डित भाग तो जैनपद्धति
बनाई और उन्हें वास्तविक न्याय की प्राप्ति हेतु जोधपुर-नरेश के अनुसार है। इस में स्थान-स्थान पर स्तम्भों और शिलाओं
यशवंतसिंहजी के पास भेजा। पर लेख हैं। जिनमें कितने ही लेख सं. ११९४, १२३९, १२६८, कार्यवाही के अंत में राजा यशवंतसिंहजी ने अपना न्याय १३२० आदि के हैं।
इस प्रकार घोषित किया 'जालोरगढ़ (स्वर्णगिरि) के मंदिर जैनों उक्त दो चैत्यों के सिवाय चौमख अष्टापदावतार चैत्य भी के हैं, इसलिए उनका मन न दुखाते हुए शीघ्र ही मंदिर उन्हें सौंप प्राचीन है। यह चैत्य कब किसने बनवाया यह अज्ञात है। दिए जाएँ और इस निमित्त उनके गुरु श्री राजेन्द्रसूरिजी जो अभी
विक्रम संवत् १०८० में यहीं (जालोर में) रहकर श्रीश्री तक आठ महीनों से तपस्या कर रहे हैं. उन्हें जल्दी से पारणा बुद्धिसागरसूरिवर ने सात हजार श्लोक परिमित श्री बद्धिसागर करवाकर दो दिन में मुझे सूचना दी जाए।' व्याकरण बनाई थी, उसकी प्रशस्ति में लिखा है --
इस प्रकार गुरुदेव अपने साधनामय संकल्प को पूरा कर श्रीविक्रमादित्यनरेन्द्रकालात् साशीतिके याति समासहस्त्रे। विजयी हुए। सश्रीकजाबालीपुरे तदाद्यं दृब्धं मया सप्तसहस्त्रकल्पम्।।११।.
गुरुदेव की आज्ञा से मंदिरों का जीर्णोद्धार प्रारंभ हुआ और बहुत वर्षों तक स्वर्णगिरि के ये ध्वस्त मंदिर जीर्णावस्था वि.सं. १९३३ के माघ सु. १ रविवार को महामहोत्सवपूर्वक में ही रहे। विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में जोधपुर-निवासी और प्रतिष्ठाकार्य करवाकर गुरुदेव ने नौ (९) उपवास की पारणा जालोर के सर्वाधिकारी मंत्री श्री जयमल मुहणोत ने यहाँ के करके अन्यत्र विहार किया। इस प्रतिष्ठा का परिचायक लेख श्री सब ध्वस्त जिनालयों का निजोपार्जित लक्ष्मी से पुनरुद्धार करवाया अष्टापदावतार चौमुख मंदिर में लगा हुआ है--
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