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देखकर शब्द संकेत करना ।
(घ) रूपानुपात - हाथ, मुँह, सिर आदि से संकेत करना । (ङ) पुद्गलप्रक्षेप - बाहर खड़े हुए व्यक्ति को अपना अभिप्राय जताने के लिए कंकड़ आदि फेंकना ।
४. अतिथि- संविभाग - अपने निमित्त बनाई हुई अपने अधिकार की वस्तु का अतिथि के लिए समुचित विभाग करना अतिथिसंविभाग है। अन्य व्रतों की भाँति इसके भी पाँच अतिचार हैं । ४५ जिनसे साधकों को बचना चाहिए
यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ- जैन-साधना एवं आचार
(क) सचित्त निक्षेप - सचित्त पदार्थों से आहारादि को ढकना ताकि श्रमण आदि उसे ग्रहण न कर सकें।
(ग) कालातिक्रम
बनाना।
(ख) सचित्त पिधान - आहारादि वस्तु को सचित्त वस्तु के ऊपर रख देना।
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भिक्षा का समय बीत जाने पर भोजन
(घ) परव्यपदेश - न देने की भावना से अपनी वस्तु को दूसरों की बताना ।
(ङ) मात्सर्य - ईर्ष्यापूर्वक दान देना मात्सर्य है।
ग्यारह प्रतिमाएँ - प्रतिमाएँ आत्म-विकास के क्रमिक सोपान हैं, जिनके सहारे श्रावक अपनी शक्ति के अनुरूप मुनिदीक्षा ग्रहण करने की स्थिति में पहुँचता है। प्रतिमा का अर्थ होता है - प्रतिज्ञा विशेष, व्रत विशेष, तप विशेष अथवा अभिग्रह विशेष । ४६ जैनागमों में प्रतिमाओं की संख्या ग्यारह मानी गई है । परन्तु श्वेताम्बर और दिगम्बर- परम्पराओं में प्रतिमा के विषय में अंतर देखने को मिलता है। श्वेताम्बर - परम्परा में प्रतिमाओं के नाम इस प्रकार मिलते हैं- दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, नियम, ब्रह्मचर्य, सचित्त-त्याग, आरंभ-त्याग, प्रेष्य- परित्याग, उद्दिष्ट त्याग एवं श्रमणभूत। जबकि दिगम्बर परम्परा में दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त-त्याग, रात्रि भुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभ-त्याग, परिग्रह- त्याग, अनुमति-त्याग एवं उदिदष्ट-त्याग का वर्णन मिलता है । ४१ दोनों परम्पराओं में प्रतिमा के प्रकारों को देखने से ऐसा लगता है कि दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं है।
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दर्शनप्रतिमा - अध्यात्म मार्ग की यथार्थता के संबंध में दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा का होना दर्शनप्रतिमा है। व्रत- प्रतिमा गृहस्थ जीवन के पाँच अणुव्रतों, तीन व्रतों का निर्दोष रूप से पालन करना व्रत - प्रतिमा है। सामायिक प्रतिमा - समत्व के लिए किया जाने वाला प्रयास सामायिक कहलाता है। श्रावक साधक को नियमित रूप से तीनों संध्याओं में मन, वचन और कर्म से निर्दोष रूप में समत्व
की आराधना करनी होती है।
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प्रोषधोपवास- प्रतिमा प्रत्येक माह की अष्टमी और चतुर्दशी को गृहस्थी के समस्त क्रिया-कलापों से अवकाश पाकर उपवास सहित शुद्ध भावना के साथ आत्मसाधना में रत रहना प्रोषधोपवास प्रतिमा है।
नियम - प्रतिमा- इसमें पूर्वाक्त प्रतिमाओं का पालन करते हुए पाँच विशेष नियमों के व्रत लिए जाते हैं - स्नान नहीं करना, रात्रि भोजन नहीं करना, धोती की एक लाँग नहीं बांधना, दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करना तथा रात्रि में मैथुन की मर्यादा निश्चित करना और अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व के दिन रात्रि पर्यन्त देहासक्ति त्यागकर कायोत्सर्ग करना ।
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ब्रह्मचर्य - प्रतिमा- इसमें श्रावक दिन की भाँति रात्रि में भी ब्रह्मचर्य का पालन करता है।
सचित्त आहारवर्जन प्रतिमा श्रावक साधक सभी प्रकार के सचित्त आहार का त्याग कर देता है, लेकिन आरंभी हिंसा का त्याग नहीं करता है ।
आरंभत्यागप्रतिमा काम से कृषि सेवा, व्यापार कर देता है किन्तु दूसरों से
करता ।
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श्रावक साधक मन, वचन एवं आदि को आरंभ करने का त्याग आरंभ करवाने का त्याग नहीं
परिग्रह त्याग - प्रतिमा श्रावक उस सम्पत्ति पर से भी अपना अधिकार हटा लेता है तथा निवृत्ति की दिशा में एक कदम आगे बढ़कर परिग्रह विरत हो जाता है।
अनुमति - विरत- प्रतिमा - गृहस्थ साधक ऐसे आदेशों और उपदेशों से दूर रहता है, जिनके कारण किसी भी प्रकार की स्थावर या त्रस हिंसा की संभावना होती है।
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