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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - तरह मिलते-गलते हैं। भट्ट अकलंकदेव ने परमाणु को पुद्गल माने गए हैं। परमाणु पुद्गल द्रव्य का अन्तिम भाग है, इसलिए द्रव्य सिद्ध करते हुए कहा है कि गुणों की अपेक्षा परमाणु में इसमें एक रस (अम्ल, मधुर, कटु, कषाय और तिक्त में से पुद्गलपन की सिद्धि होती है। परमाणु रूप, रस, गन्ध और स्पर्श कोई एक) एक वर्ण, (कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत में से से युक्त होते हैं। उनमें एक, दो, तीन, चार, संख्येय, असंख्येय कोई एक) एक गन्ध (सुगन्ध और दुर्गन्ध में कोई एक विरोधी) और अनन्त गुणरूप हानि-वृद्धि होती रहती है। अतः उनमें भी दो स्पर्श, (शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरु, मृदु और कठोर पूरणगलन व्यवहार मानने में कोई विरोध नहीं है। में से कोई दो) इस प्रकार परमाणु में पाँच गुण पाये जाते हैं। ये पुदगल द्रव्य की दूसरी परिभाषा की जाती है कि पुरुष गुण परमाणुओं के कार्य में स्पष्ट दिखलाई पड़ते हैं। यहाँ ध्यातव्य अर्थात् जीव, शरीर, असहार, विषयदइंद्रिय उपकरण के रूप में है कि जैन दर्शन में द्रव्य और गुण वैशेषिकों की तरह भिन्न न निगलते हैं गहण करते हैं वे पदाल कहलाते हैं। परमाणओं को होकर अभिन्न माने गए हैं। इसलिए परमाणु का जो प्रदेश है. वही भी जीव स्कन्ध दशा में निगलते हैं। अतः परमाणु पुद्गल द्रव्य । स्पर्श का और वही वर्ण का है। इसलिए वैशेषिकों का यह हैं। देवसेन ने अणु को ही वास्तव में पुद्गल द्रव्य कहा है। कहना युक्तिसंगत नहीं है कि पृथ्वी के परमाणु में सर्वाधिक चारों गुण; जल के परमाणुओं में रूप, रस और स्पर्श; अग्नि के ___ जैन दर्शन की तरह वैशेषिक और ग्रीक दर्शन में भी परमाणु परमाणुओं के रूप और स्पर्श और वायु के परमाणुओं में स्पर्श भौतिक द्रव्य माना गया है। गुण होता है। वैशेषिकों का उपर्युक्त कथन इसलिए ठीक नहीं (२) परमाणु अविभाज्य है - जैन दर्शन में परमाणु को है, क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर गुण से अभिन्न अप्रदेशी परमाणु अविभागी कहा गया है। जैन आचार्यों ने बताया है कि पुद्गल ही नष्ट हो जाएगा। जैनदर्शन में किन्हीं भी गुणों की न्यूनाधिकता द्रव्य का विभाजन करते-करते एक अवस्था ऐसी अवश्य आती नहीं मानी गई है। पृथ्वी आदि चारों धातुओं में परमाणु के है जब उसका विभाजन नहीं हो सकता है। यह अविभागी अंश उपर्युक्त चारों गण मुख्य और गौण रूप से रहते हैं--पृथ्वी में परमाणु कहलाता है। स्पर्श आदि चारों गुण मुख्य रूप से जल में गंध गुण गौण रूप से ग्रीक और वैशेषिक दार्शनिकों ने भी परमाणु को जैन शेष मुख्य रूप से, अग्नि में गंध और रस की गौणता और शेष दार्शनिकों की तरह अविभाज्य माना है। की मुख्यता और वायु में स्पर्श गुण की मुख्यता और शेष तीन की गौणता रहती है। (३) परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म है - जैन दार्शनिकों ने बतलाया है कि पदगल द्रव्य के छह प्रकार के भेदों में परमाण सक्ष्म-सक्ष्म (६) परमाणु नित्य है - जैन, वैशेषिक एवं ग्रीक दर्शन में अर्थात् अत्यंत सूक्ष्म होता है।इससे सूक्ष्म दूसरा कोई द्रव्य नहीं है। परमाणु नित्य माना गया है। लेकिन जैन-परमाणुवाद की यह विशेषता ___ अन्य परमाणुवादियों ने भी परमाणु को अत्यन्त सूक्ष्म है कि परमाणु की उत्पत्ति और विनाश होता है, जबकि ग्रीक और वैशेषिक दार्शनिक परमाणु को उत्पत्ति विनाश-रहित मानते हैं। माना है। जैन-परमाणुवाद के अनुसार द्रव्यदृष्टि से परमाण नित्य हैं, (४) परमाणु अप्रत्यक्ष है - परमाणु अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों के द्वारा अग्राह्य होता है। ग्रीक और वैशेषिक लेकिन पर्याय की अपेक्षा वे अनित्य हैं। दार्शनिक भी जैनों की उपर्युक्त बात से सहमत हैं। लेकिन जैनों । परमाणु एक ही प्रकार के हैं - ने परमाणु को केवल ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष माना है। वैशेषिक दर्शन में भी परमाणु योगियों द्वारा प्रत्यक्ष माना गया है। ग्रीक जैन दर्शन के अनुसार परमाणु एक ही जाति के हैं उनमें दर्शन में इस प्रकार के प्रत्यक्ष की कल्पना नहीं की गई है। गुणभेद नहीं है। ग्रीक दार्शनिक भी यह मानते हैं कि सभी परमाणु एक ही जड़ तत्त्व से बने हैं। लेकिन वैशेषिक परमाणवाद (५) परमाण सगुण है - जैन दर्शन और वैशेषिक दर्शन में के अनसार चार प्रकार के हैं--पृथ्वी के परमाण जल के परमाण. परमाण सगुण माना गया , इसके विपरीत ग्रीक दार्शनिकों ने वाय के परमाण और अग्नि के परमाण। जैन परमाणवाद के परमाणु को निर्गुण माना है। जैन दर्शन में परमाण के बीस गण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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