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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व . वि.सं. २००० में जब त्रिस्तुतिक सम्प्रदाय के मुनिश्री कल्याण विजयजी का चातुर्मास मन्दसौर में था, भाद्रपद मास में सहसा मेरा उनसे परिचय होने के पश्चात् उन्होंने मुझे अध्यापन कार्य के हेतु तत्कालीन जोधपुर राज्यान्तर्गत आहोर नामक ग्राम में भेजने का निश्चय करते हुए अपने विचार व्यक्त किए। इस आकस्मिक योग से अत्यधिक प्रभावित हो, मैंने उसी क्षण मालवा से अति सुदूर मारवाड़ तक जाने की अपनी स्वीकृति दे दी। जिस दिन इस चर्चा ने निश्चयात्मक रूप धारण किया। मैंने उसी दिन परिवारिकजनों के मना करने पर भी मालवमही की वंदना करते हुए मारवाड़ की ओर प्रस्थान कर दिया।
मार्ग में मैं इसी विषय पर गंभीरतापूर्वक सोच रहा था कि कहाँ तो शैवमतावलम्बी ब्राह्मण और कहाँ जैन मत के प्रचारक जैनमुनि। दोनों का अकस्मात् संयोग, फलस्वरूप मेरा मारवाड़ की ओर जैन - जगत् में जीवन-यापन करने के हेतु प्रस्थान। ये सब ऐसी घटनायें थीं, जिन पर अनन्यमनस्क होकर विचार करने के साथ ही तन्मयता के सागर में इतना डूब रहा था कि मैं यह नहीं जान पाया कि कब मारवाड़ जंक्शन और कब एरनपुरा रोड आया।
जब मैं आहोर पहुंचा उन दिनों वहाँ स्व. उपाध्याय श्री गुलाबविजयजी म. शांत एवं परमहंस मुनि हंसविजयजी के साथ चातुर्मासिक आवास में विराजमान थे और उन्हीं के नेतृत्व में कतिपय साध्वजी भी वहीं चातुर्मास व्यतीत कर रही थीं। साध्वीसमुदाय की साध्वियों को पढ़ाने का मुझे आदेश हुआ और मैंने उन्हीं के द्वारा निर्धारित शुभ दिन के शुभ मुहूर्त में अध्यापन कार्य करना प्रारम्भ कर दिया।
जैन साध्वी के अध्यापन, जैन साधुओं के सम्पर्क एवं जैन जगत् के वैयक्तिक तथा सामाजिक अनुभवों के आधार पर अल्पावधि में ही मैं त्रिस्तुतिक सम्प्रदाय से पूर्णतया परिचित हो गया था। परिचय की इस पावन वेला में साधु-साध्वी समुदाय, जैन-जनता एवं जैन-साहित्य के द्वारा जिनके शुभ नाम, आदर्श वर्चस्वसम्पन्न व्यक्तित्व, प्रगाढ़ दुष्य, सरस साहित्यिकता, प्रभावोत्पादिनी तेजस्विता और प्रकांड पांडित्ययुत पवित्रशालीनता का परोक्ष परिचयाभास प्राप्त हुआ। उन प्रकांड पंडित सुप्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता व्याख्यानवाचस्पति आगमोदधिपारङ्गत आचार्यश्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के पुण्य दर्शनों के लिए अत्यधिक अधीर हो, समुत्सुक रहने लगा। वेगशील हो आन्तरिक अभिलाषा की । वह अभिलाषा भी जिसके द्वारा आचार्यश्री के पुण्य-दर्शन हों, उत्तरोत्तर वृद्धिङ्गत होने लगी।
अत्यधिक प्रतीक्षा के पश्चात् अन्ततोगत्वा जीवन के सर्वथा विशुभ्र एवं निर्मल आकाश में सहसा एक ऐसे अद्वितीय अनुपम और चिरस्मरणीय सुखकर शुभ संयोग का स्वर्णिम सूर्योदय हुआ जिस की प्रतिभा के पावन प्रकाश में ग्यांकित रेखायें प्रदीप्त हो उठीं एवं आचार्यश्री केपुण्य दर्शनों का स्वर्णावसर प्राप्त हुआ।
जिन दिनों मैं आहोर में था, उन दिनों वहाँ जैन-जनता ने अपने यहाँ के सुप्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक विशाल गोड़ी पाश्वर्नाथ मंदिर पर ध्वज-कलशारोहण एवं प्रतिष्ठाअञ्चनशलाका का भव्य समारोह श्रद्धेय आचार्य के करकमलों द्वारा सम्पन्न कराने का निश्चय किया। फलतः समाज के प्रतिष्ठित नागरिक आचार्य श्री के चातुर्मासिक आवास स्थल गये एवं आचार्यश्री से उक्त कार्य सम्पन्न कराने हेतु अग्रिम संवत् २००१ का चातुर्मास आहोर में ही करने की प्रार्थना की। संयोग एवं जनता के सौभाग्यवश आचार्यजी ने इसे स्वीकृत कर समाज को उक्त कार्य के हेतु समुचित निर्देशन भी दिया।
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