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________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ ध्यान के उत्तम आसन माने गये हैं। ध्यान के आसनों के संबंध में जैन आचार्यों की मूलदृष्टि यह है कि जिन आसनों से शरीर और मन पर तनाव नहीं पड़ता हो ऐसे सुखासन ही ध्यान के योग्य आसन माने जा सकते हैं। जिन आसनों का अभ्यास साधक ने कर रखा हो और जिन आसनों में वह अधिक समय पर सुखपूर्वक बैठ सकता हो तथा जिनके कारण उसका शरीर स्वेद को प्राप्त नहीं होता हो, वे ही आसन ध्यान के लिए श्रेष्ठ आसन हैं। ४६ सामान्यतया जैन परम्परा में पद्मासन और खड्गासन ही ध्यान के अधिक प्रचलित आसन रहे हैं। ४७ किन्तु महावीर के द्वारा गोदुहासन में ध्यान करके केवलज्ञान प्राप्त करने के भी उल्लेख हैं। ४८ समाधिमरण या शारीरिक अशक्ति की स्थिति में लेटे-लेटे भी ध्यान किया जा सकता है। ध्यान का काल सामान्यतया सभी कालों में शुभ भाव संभव होने से ध्यानसाधना का कोई विशिष्ट काल नहीं कहा गया है । किन्तु जहाँ तक मुनि समाचारी का प्रश्न है, उत्तराध्ययन में सामान्य रूप से मध्याह्न और मध्यरात्रि को ध्यान के लिए उपयुक्त समय बताया गया है । ४९ उपासकदशांग में सकडाल पुत्र के द्वारा मध्याह्न में ध्यान करने का निर्देश है । ५० कहीं-कहीं प्रातः काल और सन्ध्याकाल में भी ध्यान करने का विधान मिलता है। ध्यान की समयावधि जैन आचार्यों ने इस प्रश्न पर भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया है कि किसी व्यक्ति की चित्त वृत्ति अधिकतम कितने समय तक एक विषय पर स्थिर रह सकती है। इस संबंध में उनका निष्कर्ष यह है कि किसी एक विषय पर अखण्डित रूप से चित्तवृत्ति अन्तर्मुहूर्त से अधिक स्थिर नहीं रह सकती। अन्तर्मुहूर्त से उनका तात्पर्य एक क्षण से कुछ अधिक तथा ४८ मिनट से कुछ कम है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ध्यान अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय तक नहीं किया जा सकता है। यह सत्य है कि इतने काल के पश्चात् ध्यान खण्डित होता है, किन्तु चित्तवृत्ति को पुनः नियोजित करके ध्यान को एक प्रहर या रात्रिपर्यंत भी किया जा सकता है। ध्यान और शरीर रचना जैन आचार्यों ने ध्यान का संबंध शरीर से भी जोड़ा है। यह अनुभूत तथ्य है कि सबल, स्वस्थ और सुगठित शरीर ही ध्यान के लिए अधिक योग्य होता है। यदि शरीर निर्बल है, सुगठित नहीं है तो शारीरिक गतिविधियों को अधिक समय तक नियन्त्रित नहीं किया जा सकता और यदि शारीरिक गतिविधियाँ नियंत्रित नहीं रहेंगी तो चित्त भी नियन्त्रित नहीं रहेगा। शरीर और चित्तवृत्तियों में एक गहरा संबंध है। शारीरिक विकलताएँ चित को विकल बना देती है और चैतसिक विकलताएँ शरीर को । अतः यह माना गया है कि ध्यान के लिए सबल, Jain Education International जैन साधना एवं आचार नीरोग और सुगठित शरीर आवश्यक है। तत्त्वार्थसूत्र में तो ध्यान की परिभाषा देते हुए स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि उत्तमसंहनन वाले का एक विषय में अंतःकरण की वृत्ति का नियोजन ध्यान है। जैन आचार्य यह मानते हैं कि छः प्रकार की शारीरिक संरचना में से वज्रऋषभनाराच, अर्धवज्रऋषभनाराच, नाराच और अर्धनाराच- ये चार शारीरिक संरचनाएँ ही (संहनन) ध्यान के योग्य होती है। ५२ यद्यपि हमें यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि शारीरिक संरचना का सह-संबंध मुख्य रूप से प्रशस्त ध्यानों से ही है, अप्रशस्त ध्यानों से नहीं। यह सत्य है कि शरीर चित्तवृत्ति की अस्थिरता का मुख्य कारण होता है। अतः ध्यान की वे स्थितियाँ जिनका विषय प्रशस्त होता है और जिनके लिए चित्तवृत्ति की अधिक समय तक स्थिरता आवश्यक होती है. वे केवल सबल शरीर में ही सम्भव होती हैं। किन्तु अप्रशस्त आतं रौद्र आदि ध्यान तो निर्बल शरीरवालों को ही अधिक होते हैं। अशक्त या दुर्बल व्यक्ति ही अधिक चिन्तित एवं चिड़चिड़ा होता है। ध्यान किसका? ध्यान के संदर्भ में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि ध्यान किसका किया जाये ? दूसरे शब्दों में ध्येय या ध्यान का आलम्बन क्या है ? सामान्य दृष्टि से विचार करने पर तो किसी भी वस्तु या विषय को ध्येय / ध्यान के आलम्बन के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, क्योंकि सभी वस्तुओं या विषयों में कमोवेश ध्यानकर्षण की क्षमता तो होती ही है चाहे संसार के सभी विषय ध्यान के आलम्बन होने की पात्रता रखते हों, किन्तु उन सभी को ध्यान का आलम्बन नहीं बनाया जा सकता है। व्यक्ति के प्रयोजन के आधार पर ही उनमें से कोई एक विषय ही ध्यान का आलम्बन बनता है। अतः ध्यान के आलम्बन का निर्धारण करते समय यह विचार करना आवश्यक होता है कि ध्यान का उद्देश्य या प्रयोजन क्या है? दूसरे शब्दों में ध्यान हम किसलिए करना चाहते हैं ? इसका निर्धारण सर्वप्रथम आवश्यक होता है। वैसे तो संसार के सभी विषय चित्त को केन्द्रित करने का सामर्थ्य रखते हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि बिना किसी पूर्व विचार के उन्हें ध्यान का आलम्बन अथवा ध्येय बनाया जाये। किसी स्त्री का सुन्दर शरीर ध्यानाकर्षण या ध्यान का आलम्बन होने की योग्यता तो रखता है, किन्तु जो साधक ध्यान के माध्यम से विक्षोभ या तनावमुक्त होना चाहता है, उसके लिए यह उचित नहीं होगा कि वह स्त्री के सुन्दर शरीर को अपने ध्यान का विषय बनाये, क्योंकि उसे ध्यान का विषय बनाने से उसके मन में उसके प्रति रागात्मकता उत्पन्न होगी, वासना जागेगी और पाने की आकांक्षा या भोग की आकांक्षा से घिस में विक्षोभ पैदा होगा। अतः किसी भी वस्तु को ध्यान का आलम्बन बनाने के पूर्व यह विचार करना आवश्यक होता है कि हमारे ध्यान का प्रयोजन या उद्देश्य क्या है ? जो व्यक्ति अपनी वासनाओं का पोषण चाहता है, वही स्त्री-शरीर के सौन्दर्य को अपने ध्यान का आलम्बन बनाता है और उसके माध्यम से आर्तध्यान का भागीदार बनता है। किन्तु जो भोग के स्थान पर त्याग और वैराग्य को १५ For Private & Personal Use Only Svoris www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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