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________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारअधिक साम्यता रखता है। आचार्य शंकर ने अपने गीताभाष्य में भी उनकी यथार्थता पर श्रद्धा करना, यह विस्ताररुचि सम्यक्त्व है। सम्यग्दर्शन के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “सम्यग्दर्शननिष्ठ (८) क्रियारुचि सम्यक्त्व- प्रारम्भिक रूप से साधक-जीवन पुरुष संसार के बीज रूप अविद्या आदि दोषों का उन्मूलन नहीं कर सके की विभिन्न क्रियाओं के आचरण में रुचि हो और उस साधनात्मक ऐसा कदापि सम्भव नहीं हो सकता अर्थात् सम्यग्दर्शनयुक्त पुरुष निश्चितरूप अनुष्ठान के फलस्वरूप यथार्थता का बोध हो, वह क्रियारुचि से निर्वाण-लाभ करता है।"४७ आचार्य शंकर के अनुसार जब तक सम्यक्त्व है। सम्यक्दर्शन नहीं होता तब तक राग (विषयासक्ति) का उच्छेद नहीं होता (९) संक्षेपरुचि सम्यक्त्व- जो वस्तुतत्त्व का यथार्थ स्वरूप और जब तक राग का उच्छेद नहीं होता, मुक्ति सम्भव नही होती। नहीं जानता है और जो आर्हत् प्रवचन (ज्ञान) में प्रवीण भी नहीं है सम्यग्दर्शन आध्यात्मिक जीवन का प्राण है। जिस प्रकार लेकिन जिसने अयथार्थ (मिथ्यादृष्टिकोण) को अंगीकृत भी नहीं किया, चेतना से रहित शरीर शव है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति जिसमें यथार्थ ज्ञान की अल्पता होते हुए भी मिथ्या (असत्य) धारणा चलता-फिरता शव है। जिस प्रकार शव लोक में त्याज्य होता है वैसे ही नहीं है ऐसा सम्यक्त्व संक्षेपरुचि कहा जाता है। आध्यात्मिक-जगत में यह चल-शव त्याज्य होता है।४८ वस्तुत: सम्यग्दर्शन (१०) धर्मरुचि सम्यक्त्व- तीर्थंकरदेव-प्रणीत धर्म में बताए एक जीवन-दृष्टि है। बिना जीवन-दृष्टि के जीवन का कोई अर्थ नहीं रह गए द्रव्य-स्वरूप, आगम-साहित्य एवं नैतिक नियम (चारित्र) पर जाता। व्यक्ति की जीवन-दृष्टि जैसी होती है उसी रूप में उसके चरित्र का आस्तिक्य भाव रखना, उन्हें यथार्थ मानना यह धर्मरुचि सम्यक्त्व है।५१ निर्माण हो जाता है। गीता में कहा गया है कि व्यक्ति श्रद्धामय है, जैसो श्रद्धा होती है वैसा ही वह बन जाता है।४९ असम्यग्जीवनदृष्टि पतन की सम्यक्त्व का त्रिविधि वर्गीकरण५२ ओर और सम्यग्जीवन-दृष्टि उत्थान की ओर ले जाती है इसलिए यथार्थ अपेक्षाभेद से सम्यक्त्व का त्रिविध वर्गीकरण भी जैनाचार्यों ने जीवनदृष्टि का निर्माण जिसे भरतीय परम्परा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्दृष्टि किया है इस वर्गीकरण के अनुसार सम्यक्त्व के कारक, रोचक और या श्रद्धा कहा गया है, आवश्यक है। दीपक ऐसे तीन भेद किय गये : यथार्थ जीवनदृष्टि क्या है? यदि इस प्रश्न पर हम गम्भीरतापूर्वक जिस यथार्थ दृाष्टकोण (सम्यक्त्व) के होने पर व्यक्ति सदाचरण विचार करें तो हम पाते हैं कि समालोच्य सभी आचार-दर्शनों में या सम्यक्-चारित्र की साधना में अग्रसर होता है, वह 'कारक-सम्यक्त्व' अनासक्त एवं वीतराग जीवनदृष्टि को ही यथार्थ जीवनदृष्टि माना गया है। है। कारक सम्यक्त्व ऐसा यथार्थ दृष्टिकोण है जिसमें व्यक्ति आदर्श की उपलब्धि के हेतु सक्रिय एवं प्रयासशील बन जाता है। नैतिक दृष्टि से सम्यग्दर्शन का वर्गीकरण कहें तो 'कारक-सम्यक्त्व' शुभाशुभ विवेक की वह अवस्था है जिसमें उत्तराध्ययनसूत्र में सम्यग्दर्शन के, उसकी उत्पत्ति के आधार व्यक्ति जिस शुभ का निश्चय करता है, उसका आचरण भी करता है। यहाँ पर, दस भेद किये गये हैं, जो निम्नानुसार है ज्ञान और क्रिया में अभेद होता है। सुकरात का यह वचन कि 'ज्ञान ही (१) निसर्ग (स्वभाव) रुचि सम्यक्त्व- जो यथार्थ दृष्टिकोण व्यक्ति सद्गुण है' इस अवस्था में लागू होता है। में स्वत: ही उत्पन्न हो जाता है, वह निसर्गरुचि सम्यक्त्व कहा जाता है। २. रोचक सम्यक्त्व सत्यबोध की वह अवस्था है जिसमें (२) उपदेशरुचि सम्यक्त्व-दूसरे व्यक्ति से सुनकर जो यथार्थ व्यक्ति शुभ को शुभ और अशुभ को अशुभ के रूप में जानता है और दृष्टिकोण या तत्त्वश्रद्धान् होता है, वह उपदेशरुचि सम्यक्त्व है। शुभ की प्राप्ति की इच्छा भी करता है, लेकिन उसके लिए प्रयास नहीं (३) आज्ञारुचि सम्यक्त्व- वीतराग महापुरुषों के नैतिक आदेशों करता। सत्यासत्यविवेक होने पर भी सत्य का आचरण नहीं कर पाना, को मानकर जो यथार्थ दृष्टिकोण उत्पन्न होता है अथवा जो तत्त्वश्रद्धा यह रोचक सम्यक्त्व है। जैसे कोई रोगी अपनी रुग्णावस्था को भी होती है, उसे आज्ञारुचि सम्यक्त्व कहा जाता है। जानता है, रोग की औषधि भी जानता है और रोग से मुक्त होना भी (४) सूत्ररुचि सम्यक्त्व- अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य ग्रन्थों के चाहता है लेकिन फिर भी औषधि को ग्रहण नहीं कर पाता वैसे ही रोचक अध्ययन के आधार पर जो यथार्थ दृष्टिकोण या तत्त्वश्रद्धान् होता है, वह सम्यक्त्व वाला व्यक्ति संसार के दुःखमय यथार्थ स्वरूप को जानता है, सूत्ररुचि सम्यक्त्व कहा जाता है। उससे मुक्त होना भी चाहता है, उसे मोक्ष-मार्ग का भी ज्ञान होता है फिर (५) बीजरुचि सम्यक्त्व- यथार्थता के स्वल्पबोध को स्वचिन्तन वह सम्यक्-चारित्र-पालन (चारित्रमोहकर्म के उदय के कारण) नहीं कर के द्वारा विकसित करना, बीजरुचि सम्यक्त्व है। पाता है। इस अवस्था को महाभारत के उस वचन के समकक्ष माना जा (६) अभिगमरुचि सम्यक्त्व- अंगसाहित्य एवं अन्य ग्रन्थों का सकता है, जिसमें कहा गया है कि धर्म को जानते हुए भी उसमें प्रवृत्ति अर्थ एवं विवेचना सहित अध्ययन करने से जो तत्त्व-बोध एवं तत्व- नहीं होती ओर अधर्म को जानते हुए भी उससे निवृत्ति नहीं होती है।५३ श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह अभिगमरुचि सम्यक्त्व है। (७) विस्ताररुचि सम्यक्त्व- वस्तुतत्त्व (षट् द्रव्यों) के अनेक ३. दीपकसम्यक्त्व पक्षों का विभिन्न अपेक्षाओं (दृष्टिकोणों) एवं प्रमाणों से अवबोध कर वह अवस्था जिसमें व्यक्ति अपने उपदेश से दूसरों में तत्त्वजिज्ञासा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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