Book Title: Gyansara
Author(s): Yashovijay Upadhyay, Bhadraguptasuri
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायाचार्य न्यायविशारद उपाध्यायश्री यशोविजयजी-विरचित ज्ञानसार विवेचनकार । पंन्यासप्रवर श्री भद्रगुप्तविजयजी गणीवर sonal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयुत संपतराज विश्वकल्याण ह श्रावण शुक्ला १२ वि. सं. १९८९ के दिन पुदगाम-मेहसाणा (गुजरात) में मणीभाई एवं हीराबहन के कुलदीपक के रुप में जन्मे हुए मुलचन्दभाई, जूही की कली की भाति खिलती-खुलती जवानी में १८ बरस की उम्र में वि. सं... २००७, महावद ५ के दिन राणपुर (सौराष्ट्र) में अपने परम श्रद्धेय सुप्रसिद्ध जैनाचार्य भगवंत श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा के करकमलों द्वारा दीक्षित होकर पू. भानुविजयजी (वर्तमान में आ. विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी) के शिष्य बनते हैं। मुनिश्री भद्रगुप्तविजयजी के रूप में दीक्षा-जीवन के प्रारंभ से ही अध्ययन-अध्यापन की सुदीर्घ यात्रा प्रारंभ हो चुकी थी। ४५ आगमों के सटीक अध्ययनोपरांत दार्शनिक, भारतीय एवं पाश्चात्य तत्वज्ञान, काव्य-साहित्य वगैरह के 'मीलस्टोन' - पास करती हुई वह यात्रा 'सर्जनात्मक क्षितिज की तरफ मुड़ गई। • 'महापंथ नो यात्री से २० साल की उम्र में शुरू हुई लेखनयात्रा आज भी अथक एवं अनवरत चल रही है। तरह तरह का मौलिक साहित्य, तत्वज्ञान विवेचना, दीर्घकथाएं, लघु कथाएं, काव्य गीत पत्रों के जरिये स्वच्छ व स्वस्थ मार्गदर्शन, यों साहित्य सर्जन का सफर दिन ब दिन भरापूरा बन रहा है। प्रेमभरा हंसमुख स्वभाव, प्रसन्न व मृदु आंतर-बाहय व्यक्तित्व एवं बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय वैसी प्रवृत्तियां उनके जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। संघ-शासन विशेष करके युवा पीढ़ी. तरुण पीढ़ी एवं शिशु-संसार के जीवन-निर्माण की प्रक्रिया उन्हें रुचि है..संतुष्टि है। प्रवचन, वार्तालाप, संस्कार-शिबिर, जाप-ध्यान अनुष्ठान एवं परमात्म भक्ति के विशिष्ट आयोजनों के माध्यम से उनका सहिष्ण व्यक्तित्व भी उतना ही उन्नत एवं उज्वल बना है। मनिश्री जानने योग्य व्यक्तित्व एवं महसूसने लायक अस्तित्व से सराबोर है। Fof Private R Personal use only a Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचंद महेता निर्मित काशन ट्रस्ट भवन, JUIT Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायाचार्य न्यायविशारद महोपाध्याय श्री यशोविजयजी-विरचित शौनसार मल श्लोक, श्लोकार्थ और विवेचन सहित शिनद्रा कल्याणमक श्री विश्व विवेचनकार पंन्यासप्रवर श्री भद्रगुप्तविजयजी गणिवर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवादक रंजन परमार [पूना] प्रेसकापी साध्वी भाग्यपूर्णाश्रीजी कु. चन्द्रकान्ता संघवी [बेंगलोर] प्रकाशक श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट कंबोईनगर के पास मेहसाना-384002 वि. सं. २०४२, आसोज प्रथम आवृत्ति, प्रति : ३००० * * * मूल्य : ३०/-रु. आवरण : हर्षा प्रिन्टरी, बम्बई सुरेख प्रिन्टर्स मेहसाना-384002 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य वर्धमान तपोनिधि आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय भुवनभानु सूरीश्वरजी महाराज Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण वर्धमान तपोनिधि न्यायविशारद पूज्यपाद गुरुदेवश्री आचार्यदेवश्री विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजा के कर कमलों में सादर समर्पित शिशु भद्रगुप्त विजय Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकृत में सहयोगी 'ज्ञानसार' की इस हिन्दी-आवृत्ति में श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर टेंपल ट्रस्ट चिकपेट : बेंगलोर के ज्ञानखाते में से, श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट, मेहसाना को रु. ४० हजार का दान प्राप्त हुआ है। हम श्री संघ के कार्यकर्ताओं की श्रुतभक्ति की अनुमोदना करते हैं और हार्दिक धन्यवाद प्रदान करते हैं । ट्रस्टीमडल भाद्रपद शुक्ला वि. सं. २०४२ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति के आद्य स्थापक प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ भगवान आदिनाथ जैन मंदिर : चिकपेठ : बेंगलोर ) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम अष्टक: विषय __ * पूर्णता मग्नता स्थिरता अमोह ज्ञान शम इन्द्रियजय त्याग क्रिया तृप्ति निर्लेपता निःस्पृहता मौन ; اس و ل १३१ १४७ विद्या १८१ १६८ २१४ २३२ , विवेक मध्यस्थता निर्भयता अनात्मशंसा तत्त्वदृष्टि सर्वसमृद्धि कर्मविपाक-चिंतन भवोद्वेग लोकसंज्ञात्याग २६३ २७६ २६४ ३१३ ३२६ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ V our v. 2 w ३८७ ४०६ शास्त्र परिग्रहत्याग अनुभव योग नियाग भावपूजा ध्यान तप सर्वनयाश्रय विषयक्रम निर्देश उपसंहार ४२४ ४३६ n ४८२ ४६१ ४६८ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार-परिशिष्ट or or or or or or or or or orrrrrrrrrrrr mm कृष्णपक्ष-शुक्लपक्ष ग्रन्थिभेद अध्यात्मादि योग चतुर्विध सदनुष्ठान ध्यान धर्मसंन्यास-योगसंन्यास समाधि पांच आचार आयोजिकाकरण, समुद्घात, योगनिरोध १४ गुणस्थानक नयविचार ज्ञपरिज्ञा-प्रत्याख्यानपरिज्ञा पंचास्तिकाय कर्मस्वरुप जिनकल्प-स्थविर कल्प उपसर्ग-परिसह पांच शरीर बीस स्थानक तप उपशम श्रेणी चौदह पूर्व पुद्गल परावर्त काल कारणवाद चौदह राजलोक यतिधर्म सामाचारी गोचरी के ४२ दोष चार निक्षेप चार अनुयोग ब्रह्म अध्ययन पैंतालीस आगम तेजोलेश्या Maxom MGMKWM GANGximoon womMWMKuw Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा मनोमंथन साहित्य दो प्रकार का होता है । एक प्रकार होता है मनुष्य की वासनाओं को उत्तेजित करनेवाले साहित्य का और दूसरा प्रकार होता है, मनुष्य को उद्दीप्त वासनाओं को उपशान्त करनेवाले साहित्य का । भीतर की दुष्ट....पापी वृत्तिओं को उत्तेजित करनेवाला साहित्य पढ़ते समय तो मनुष्य को बहुत मीठा....मधुर लगता है, परंतु पढ़ने के पश्चात् मनुष्य अशान्ति और उद्वेग से भर जाता है। उत्तेजित वासनाओं की पूर्ति करने हेतु वह दुनिया को अंधकारपूर्ण गलियों में भटक जाता है । जब उसकी वासनायें तृप्त नहीं होती है, उसकी इच्छायें संतुष्ट नहीं होती हैं तब उसका दुःख निःसीम हो जाता है, असह्य बन जाता है । कभी वासना संतुष्ट भी हो जाती है, फिर भी अतृप्ति की आग सुलगती ही रहती है । वर्तमान में मनुष्य बहुत पढ़ता है, बहुत देखता है और बहुत सुनता है । परंतु चितन-मनन का मार्ग भूल गया है । ऐसा कुत्सित दर्शन, श्रवण और अध्ययन हो रहा है कि जिसके फलस्वरुप मन चंचल, अस्थिर और उत्तेजित बन गया है । मनुष्य दिशाशून्य बन, अन्यमनस्क हो भटक रहा है। कैसी करूण स्थिति बन गई है मनुष्य की ? ऐसे मनुष्यों का उद्धार करने का उच्चतम भाव करुणावंत ज्ञानी पुरुषों के हृदय में जगता है और करुणामय हृदय में से ऐसा उत्तम साहित्य आविर्भूत होता है कि जो साहित्य मनुष्य की उन्मत्त वासनाओं को शान्त कर सकता है, और सही जीवनपथ का दर्शन कराता है । 'ज्ञानसार' ऐसी ही एक आध्यात्मिक साहित्य की असाधारण रचना है । महोपाध्याय श्री यशोविजयजी की यह श्रेष्ठ कृति है । 'ज्ञानसार' का एक एक श्लोक, मनुष्य के जलते हुए हृदय को शान्त करनेवाला शीतल पानी है, गोशोर्ष चंदन है । यह मात्र प्रशंसा करने की दृष्टि से नहीं लिख रहा हूं, परंतु मैंने स्वयं मेरे जीवन में अनुभव किया है । मैंने मेरे ही अशान्त हृदय को इस 'ज्ञानसार' के अध्ययनमनन और चितन से शान्त किया है, शीतल बनाया है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार के असंख्य पापों से मुक्त जीवन जीनेवाले मोक्षमार्ग के आराधक भी जब व्यवहारमूढ़ बनते हैं, मात्र बाह्य धर्मक्रियाओं में ही इति-कर्तव्यता मानते हैं तब उनका मन आर्तध्यान का आर्तनाद करता रहता है । 'इतनी सारी धर्मक्रियायें करने पर भी मन में शान्ति, समता और समाधि नहीं आती है, कभी आती है तो टिकती नहीं है, यह शिकायत गृहस्थों में और साधुपुरुषों में भी, व्यापक बनती जा रही है । पवित्र धर्मक्रियायें करने पर भी अशान्ति दूर नहीं होती है और समता-समाधि मिलती नहीं है। इस रोग का मूल कारण खोजना चाहिये और उपचार करने चाहिये । यह रोग केन्सर जैसा भयानक रोग है । रोग का निदान और उपचार, दोनों इस 'ज्ञानसार' ग्रंथ में से मिल जाते हैं । तदुपरांत, निश्चयनय' एवं 'व्यवहारनय' की समतुला भो जो इस ग्रंथ में है, शायद ही दूसरे ग्रंथों में हो ! दोनों नयों से अध्यात्म का कितना विशद एवं हृदयग्राही प्रतिपादन किया गया है ! ऐसी मार्मिक बातें कही गई हैं कि यदि शान्त मन से अध्ययन किया जाय तो न रहे क्लेश, न रहे संताप और न रहे उद्वेग । ग्रंथकार महात्मा ने अपना शास्त्रज्ञान और अनुभवज्ञान भर दिया है इस ग्रंथ में । आत्मकल्याण साधने की तमन्ना से मार्ग खोजते हुए मुमुक्षु आत्मा को जव 'आचारांग सूत्र' अथवा 'सुयगडांग सूत्र' का शुद्ध मोक्षमार्ग अति कठिन और आदर्शमात्र प्रतीत होता है और 'बहत्कल्पसूत्र' तथा 'व्यवहारसूत्र' वगैरह 'छेद' ग्रंथों का व्यवहारमार्ग, वर्तमान में अटापद तीर्थ की भांति अदृश्य हुआ लगता है तब वह तीव्र मानसिक तनाव महसूस करता है । उस तनाव से मुमुक्षु को यह 'ज्ञानसार' ग्रंथ मुक्ति दिलाता है । मैंने तनाव अनुभव किया है और मुक्ति का आनन्द भी पाया है । यह उपकार है इस 'ज्ञानसार' ग्रन्थ का । वे परम उपकारी गुरुदेव हैं उपाध्याय श्री यशोविजय जी । 'ज्ञानसार' के उपर मैंने यह विवेचन, मात्र लिखने की दृष्टि से नहीं लिखा है....परंतु सहजता से लिखा गया है ! लिखते लिखते मैंने जो आन्तरिक आनन्द अनुभव किया है, वह शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता हूं । ऐसा अपूर्व आनन्द दूसरी आत्मायें भी अनुभव करें, इस भावना से यह विवेचन प्रकाशित किया गया है । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वप्रथम हिन्दी भाषा में यह विवेचन वि. सं. २०२५ में, दो भाग में प्रकाशित किया गया था । दो भागों के अनुवादक अलगअलग थे, इसलिये भाषा की दृष्टि से यह ग्रन्थ रसपूरणे नहीं बना था। दूसरी ओर, उसकी सारी प्रतियां भी समाप्त हो गई थीं। मैं यह चाहता था कि इस ग्रन्थ का आद्योपांत अनुवाद एक ही लब्धप्रतिष्ठ सिद्धहस्त विद्वान् से हो । और ऐसे विद्वान, पूना के मेरे पूर्वपरिचित श्री रंजन परमार मिल गये । हिन्दी अनुवाद के वे सिद्धहस्त लेखक हैं । अनेक किताबों के हिन्दी अनुवाद उन्होंने किये हैं। परंतु ऐसे तत्त्वज्ञान के ग्रंथ का अनुवाद करना, उनके लिये भी पहला अवसर था । उन्होंने पूरी लगन से अनुवाद किया...मैंने संमार्जन.... संशोधन किया और बेंगलोर में साध्वी भाग्यपूर्णाश्री एवं कु० चन्द्रकान्ता संघवी ने प्रेस कापी तैयार की । मेहसाना के सुरेख प्रिन्टर्स ने एवं भावना प्रिन्टरी ने इस ग्रंथ को मुद्रित किया और आज यह ग्रंथ प्रकाशित होने जा रहा है । जो कोई आत्मार्थी साधक मनुष्य इस ग्रंथ का स्वाध्याय करेगा, पुनःपुनः अध्ययन करेगा, उसको अवश्य मन की शांति, चित्त की प्रसन्नता और आत्मा की पवित्रता प्राप्त होगी । सभी आत्मायें इस तरह शांति, प्रसन्नता और पवित्रता प्राप्त करें, यही मेरी निरंतर भावना रहती है। इस विवेचन-ग्रंथ में प्रमाद से या क्षयोपशम की मंदता से कुछ भी जिनाज्ञाविरुद्ध लिखा गया हो...उसका 'मिच्छामि दुक्कडं ।' - भद्रगुप्तविजय आसोज शुक्ला-१ वि. सं. २०४२ कोइम्बतूर [तमिलनाडु] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ज्ञानसार' ग्रंथ के रचयिता न्यायाचार्य न्यायविशारद उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी भारतीय संस्कृति सदैव धर्मप्रधान रही हुई है। चकि धर्म से ही जीवमात्र का कल्याण हो सकता है और धर्म से ही जीवन में सच्ची शान्ति एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है । जीवों की भिन्न-भिन्न योग्यतायें देखते हुए ज्ञानीपुरुषों ने धर्म का पालन करने के अनेक प्रकार बताये हैं । __ जीवों की पात्रता के अनुसार धर्ममार्ग बताने का एवं उस धर्ममार्ग पर चलने की प्रेरणा देने का पवित्र कार्य, करूणावंत साधुपुरुष प्राचीनकाल से करते आ रहे हैं और आज....वर्तमानकाल में भी कर रहे हैं । निष्पाप जीवन जीना, आत्मसाधना में जाग्रत रहना और करूणा से प्रेरित हो, विश्व का कल्याण करने हेतू धर्मोपदेश देना, सुन्दर धर्मग्रन्थों का निर्माण करना-यही है साधुजीवन की प्रमुख प्रवृत्ति, और यही है उनकी विश्वसेवा । विश्ववत्सल भगवान् महावीर स्वामी के धर्मशासन में ऐसे धर्मप्रभावक अनेक महान् आचार्य एवं साधुपुरुष हो गये हैं और अभी इस समय तक होते रहे हैं । परन्तु उन सभी महापुरूषों में अपनी असाधारण प्रतिभा से, विशिष्ट शासनप्रभावना की दृष्टि से और विपुल साहित्यसर्जन की दृष्टि से अपना विशिष्ट स्थान बनानेवाले श्री भद्रबाहुस्वामी, श्री सिद्धसेन दिवाकर, श्री हरिभद्रसूरि, श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, श्री हेमचन्द्रसूरि जैसे समर्थ आचार्यों की पंक्ति में जिनका शुभ नाम आदरभाव से लिया जाता है वे हैं न्यायाचार्य न्यायविशारद उपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी ! जो इस ग्रन्थरत्न-'ज्ञानसार' के रचयिता हैं । विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में यह महापुरूष हो गये । इनके जीवन के विषय में अनेक दंतकथायें एवं किंवदन्तियां प्रचलित हैं। परन्तु सत्रहवीं शताब्दी में जिसकी रचना हुई है उस 'सुजसवेली भास' नाम की छोटी सी कृति में उपाध्यायजी का यथार्थ जीवनवृत्तान्त संक्षेप में प्राप्त होता है । उपाध्यायजी के जीवन के विषय में यही कृति प्रमाणभूत मान सकते हैं । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त जोवनपरिचय : उत्तर गुजरात में पाटन शहर के पास 'कनोड़ा' गाँव आज भी मौजूद है। उस गांव में नारायण नाम के श्रेष्ठ रहते थे । उनकी पत्नी का नाम था सौभाग्यदेवी । पति-पत्नी सदाचारी एवं धर्मनिष्ठ थे। उनके दो पुत्र थे : जशवंत और पद्मसिंह । जशवंत बचपन से बुद्धिमान् था । बचपन में भी उसकी समझदारी बहुत अच्छी थी । और उसमें अनेक गुण दृष्टिगोचर होते थे । उस समय के प्रखर विद्वान् मुनिराज श्री नयविजयजी विहार करते करते वि. सं. १६८८ में कनोड़ा पधारे । कनोड़ा की जनता श्री नयविजयजी की ज्ञान-वैराग्य भरपूर देशना सुनकर मुग्ध हो गई । श्रेष्ठि नारायण भी परिवारसहित गुरूदेव का उपदेश सुनने गये । उपदेश तो सभी ने सुना, परन्तु बालक जशवंत के मन पर उपदेश का गहरा प्रभाव पड़ा । जशवंत की आत्मा में पड़े हुए त्याग-वैराग्य के संस्कार जाग्रत हो गये । संसार का त्याग कर चारित्रधर्म अंगीकार करने की भावना माता-पिता के सामने व्यक्त की। गुरुदेवश्री नयविजयजी ने भी जशवंत की बुद्धिप्रतिभा एवं संस्कारिता देख, नारायण श्रेष्ठि एवं सौभाग्यदेवी को कहा : 'भाग्यशाली, तुम्हारा महान् भाग्य है कि ऐसे पुत्ररत्न की तुम्हें प्राप्ति हुई है । भले ही उम्र में जशवंत छोटा हो, उसकी आत्मा छोटी नहीं है। उसकी आत्मा महान् है । यदि तुम पुत्र-मोह को मिटा सको और जशवंत को चारित्रधर्म स्वीकार करने की अनुमति दे दो, तो यह लड़का भविष्य में भारत की भव्य विभूति बन सकता है । लाखों लोगों का उद्धारक बन सकता है । ऐसा मेरा अन्तःकरण कहता है ।' गुरुदेव की बात सुनकर नारायण और सौभाग्यदेवी की आंखें चूने लगी। वे आंसू हर्ष के थे और शोक के भी । 'हमारा पुत्र महान् साधु बन, अनेक जीवों का कल्याण करेगा....श्रमण भगवान् महावीरस्वामी के धर्मशासन को उज्ज्वल करेगा' यह कल्पना उनको हर्षविभोर बनाती है तो 'ऐसा विनीत, बुद्धिमान और प्रसन्नमुख पुत्र गृहत्याग कर, माता-पिता एवं स्नेही-स्वजनादि को छोड़कर चला जायेगा क्या ?' यह विचार उनको उदास भी बना देता है । उनका मन द्विधा में पड़ गया । गुरुदेव श्री नयविजयजी वहां से विहार कर पाटण पधारे । चातुर्मास पाटण में किया । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कनोड़ा में जशवंत बेचैन था । गुरुदेव की सौम्य और वात्सल्यमयी मुखमुद्रा उसकी दृष्टि में तैरती रहती है । उसका मन गुरुदेव का सान्निध्य पाने को तरसता है । खाने-पीने में और खेलने-कूदने में उसकी कोई रुचि नहीं रही । उसका मन उदास हो गया । बारबार उसकी आँखें भर आती थी । अपने प्यारे पुत्र की उत्कट धर्मभावना देख माता-पिता के हृदय में भी परिवर्तन आया । जशवंत को लेकर वे पाटण गये । गुरुदेव श्री नयविजयजी के चरणों में जशवंत को समर्पित कर दिया । शुभ मुहूर्त में जशवंत की दीक्षा हुई । जशवंत 'मुनि जशविजय' बन गया । बाद में जशविजयजी 'यशोविजयजी' नाम से प्रसिद्ध हुए । छोटा भाई पद्मसिंह भी संसार त्याग कर श्रमण बना । उनका नाम पद्मविजय रखा गया । यशोविजय और पद्मविजय की जोडी श्रमण संघ में शोभायमान बनी रही । जैसे राम और लक्ष्मण ! साधु बनकर दोनों भाई गुरुसेवा में और ज्ञानाभ्यास में लीन हो गये । दिन-रात उनका साधनायज्ञ चलता रहा । वि. सं. १६९९ में वे अहमदाबाद पधारे । वहां उन्होंने गुरुआज्ञा से अपनी अपूर्व स्मृतिशक्ति का परिचय देनेवाले 'अवधान प्रयोग' कर दिखाये । यशोविजयजी की तेजस्वी प्रतिभा देख कर, श्रेष्ठिरत्न धनजी सूरा अत्यंत प्रभावित हुए । उन्होंने गुरुदेव श्री नयविजयजी के पास आकर विनंती की : 'गुरुदेव, श्री यशोविजयजी सुयोग्य पात्र हैं । बुद्धिमान् हैं और गुणवान हैं । ये दूसरे हेमचन्द्रसूरि बन सकते हैं । आप उनको काशी भेजें और षड्दर्शन का अध्ययन करायें ।' गुरुदेव ने कहा : 'महानुभाव, आपकी बात सही है । मैं भी चाहता हूं कि यशोविजयजी, विद्याधाम काशी में जाकर अध्ययन करें, परंतु वहां के पंडित पैसे लिये बिना अध्ययन नहीं कराते हैं ।' धनजी सूरा ने कहा : 'गुरुदेव, आप उसकी जरा भी चिंता नहीं करें । यशोविजयजी के अध्ययन में जितना भी खर्च करना पड़ेगा, वह मैं करूंगा । मेरी संपत्ति का सदुपयोग होगा । ऐसा पुण्यलाभ मेरे भाग्य में कहां ? ' एक दिन यशोविजयजी और विनयविजयजी ने, गुरुदेव के आशीर्वाद ले कर, काशी की ओर प्रयाण कर दिया । काशी पहुंचकर, षड्दर्शन के प्रकांड विद्वान् भट्टाचार्य के पास अध्ययन प्रारम्भ कर दिया । भट्टाचार्य के पास दूसरे ७०० छात्र विविध दर्शनों का एवं धर्मशास्त्रों का अध्ययन करते थे । तेजस्वी Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धिप्रतिभा के धनी श्री यशोविजयजी ने शीघ्र गति से न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदांत और बौद्धदर्शन आदि का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया । 'न्यायचिंतामणी' जैसे न्यायदर्शन के महान् ग्रंथ का भी अवगाहन किया । जैन दर्शन के सिद्धांतों का परिशीलन तो चल ही रहा था। स्याद्वाद-दृष्टि से सभी दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भी वे करते रहे । काशी के श्रेष्ठ विद्वानों में उनकी ख्याति फैलने लगी। वह जमाना था वाद-विवाद का । एक बार एक विद्वान् संन्यासी ने बड़े आडंबर के साथ काशी में आकर विद्वानों के सामने शास्त्रवाद करने का एलान कर दिया । उस संन्यासी के साथ शास्त्रवाद करने के लिये जब कोई भी पंडित या विद्वान् तैयार नहीं हुए तब श्री यशोविजयजी तैयार हुए । वाद-विवाद में उन्होंने उस संन्यासी को पराजित कर दिया । विद्वत्सभा विस्मित हो गई। काशी के विद्वानों ने और जनता ने मिलकर विजययात्रा निकाली । बाद में यशोविजयजी को सन्मान के साथ 'न्यायविशारद' की गौरवपूर्ण उपाधि प्रदान की। काशी के विद्वानों ने जैन मुनि का सन्मान किया हो, ऐसा यह पहला ही प्रसंग था । काशी में तीन वर्ष रहकर, यशोविजयजी आग्रा पधारे । वहां एक समर्थ विद्वान् के पास चार वर्ष रहकर विविध शास्त्रों का एवं दर्शनों का विशेष गहराई से अध्ययन किया । बाद में विहार कर वे गुजरात पधारे । उन की उज्ज्वल यशोगाथा सर्वत्र फैलने लगी । अनेक विद्वान, पंडित, जिज्ञासु, वादी, भोजक....याचक....उनके पास आने लगे । यशोविजयजी के दर्शन कर, उनका सत्संग कर वे अपने आप को धन्य मानने लगे। अहमदाबाद में नागोरी धर्मशाला में जब वे पधारे तो धर्मशाला जीवंत तीर्थधाम बन गयी ! गुजरात का मुगल सूबा महोब्बतखान भी, यशोविजयजी की प्रशंसा सुन कर उनके दर्शन करने गया । खान की प्रार्थना से यशोविजयजी ने १८ अद्भुत अवधान-प्रयोग कर दिखाये । खान बहुत ही प्रसन्न और प्रभावित हुआ । जिनशासन का प्रभाव विस्तृत हुआ । । उस समय जिनशासन के अधिनायक थे आचार्यदेव श्री विजयदेवसूरिजी । श्री जैन संघ ने आचार्य श्री को विनंती की : 'गुरुदेव, ज्ञान के सागर और महान् धर्मप्रभावक श्री यशोविजयजी को उपाध्याय पद पर स्थापित करें, ऐसी संघ की भावना है ।' ____ आचार्यश्री ने अपनी अनुमति प्रदान की। श्री यशोविजयजी ने ज्ञान-ध्यान के साथ साथ २० स्थानक तप की भी आराधना की । संयमशुद्धि और आत्म Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशुद्धि के मार्ग पर वे विशेष रुप से अग्रसर हुए । वि. सं. १७१८ में वे महापुरुष उपाध्याय पद से अलंकृत हुए । अनेक वर्षों की अखंड ज्ञानसाधना एवं जीवन के विविध अनुभवों के परिपाक स्वरुप अनेक ग्रंथरत्नों का सर्जन वे करते रहे । उन ग्रंथरत्नों का प्रकाश अनेक जिज्ञासुओं के हृदय को प्रकाशित करने लगा । अनेक मुमुक्षुओं को स्पष्ट मार्गदर्शन देता रहा । अखंड ज्ञानोपासना और विपुल साहित्य सर्जन के कारण उपाध्याय श्री यशोविजयजी, विद्वानों में 'लघुहरिभद्र' के नाम से प्रसिद्ध हुए । जीवनपर्यंत लोककल्याण का और साहित्यसर्जन का कार्य चलता ही रहा । करीबन् २५ वर्ष तक उपाध्यायपद को शोभायमान करते हुए जिनशासन की अपूर्व सेवा करते रहे । वि. सं. १७४३ का चातुर्मास उन्होंने डभोई [ गुजरात ] में किया और वहां अनशन कर वे समाधिमृत्यु को प्राप्त हुए । स्वर्गवास - भूमि पर स्तूप [ समाधिमंदिर ] बनाया गया । आज भी वह स्तूप विद्यमान है । ऐसा कहा जाता है कि स्वर्गवास के दिन वहां स्तूप में से न्याय का ध्वनि निकलता है और लोगों को सुनाई देता है कभी कभी । श्रीमद् यशोविजयजी के साहित्य का परिचय उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने चार भाषाओं में साहित्यरचना की है : १. संस्कृत, २. प्राकृत, ३. गुजराती. ४. राजस्थानी । विषय की दृष्टि से देखा जाय तो उन्होंने काव्य, कथा, चरित्र, आचार, तत्त्वज्ञान, न्याय - तर्क, दर्शनशास्त्र, योग, अध्यात्म, वैराग्य आदि अनेक विषयों पर विस्तार से एवं गहराई से लिखा है । उन्होंने जिस प्रकार विद्वानों को चमत्कृत करनेवाले गहन और गंभीर ग्रंथ लिखे हैं वैसे सामान्य मनुष्य भी सरलता से समझ सके वैसा लोकभोग्य साहित्य भी लिखा है । उन्होंने जैसे गद्य लिखा है वैसे पद्यात्मक रचनायें भी लिखी हैं । उन्होंने जिस प्रकार मौलिक ग्रन्थों की रचना की है वैसे प्राचीन आचार्यों के महत्वपूर्ण संस्कृत - प्राकृत भाषा के ग्रंथों पर विवेचन एवं टीकायें भी लिखी हैं । वे महापुरुष जैसे जैनधर्म-दर्शन के पारंगत विद्वान् थे वैसे अन्य धर्म एवं दर्शनों के भी तलस्पर्शी ज्ञाता थे । उनके साहित्य में उनकी व्यापक विद्वत्ता एवं समन्वयात्मक उदार दृष्टि का सुभग दर्शन होता है । वे प्रखर तार्किक होने से, स्वसंप्रदाय में या पर संप्रदाय में जहां जहां भी तर्कहीनता और सिद्धान्तों Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विसंवाद दिखायी दिया वहां उन्होंने निर्भयता से स्पष्ट शब्दों में आलोचना की है । ऐसे आलोचनात्मक ग्रंथ निम्न प्रकार हैं - अध्यात्ममतपरीक्षा, देवधर्मपरीक्षा, दिक्पट ८४ बोल, प्रतिमाशतक, महावीर जिन स्तवन वगैरह । उनके लिखे हुए जैनतर्कभाषा, स्याद्वादकल्पलता, ज्ञानबिंदु, नयप्रदीप, नयरहस्य, नयामृततरंगिणी, नयोपदेश, न्यायालोक, खंडनखाद्यखंड, अष्टसहस्त्री वगैरह अनेक दार्शनिक ग्रंथ उनकी विलक्षण प्रतिभा का सुन्दर परिचय देते हैं । नव्यन्याय की तर्कप्रचुर शैली में जैन तत्त्वज्ञान को प्रतिपादित करने का भगीरथ कार्य सर्वप्रथम उन्होंने ही सफलतापूर्वक संपन्न किया है । गुजराती भाषा में उन्होंने लिखे हए सवासौ गाथा का स्तवन, देढसौ गाथा का स्तवन, साढे तीन सौ गाथा का स्तवन, योगदृष्टि की आठ सज्झायें, द्रव्य-गुण-पर्याय का रास....जैसी गंभीर रचनायें भी पुनः पुनः मनन करने जैसी हैं । और, उनकी समग्र साहित्य साधना के शिखर पर स्वर्ण कलश सदृश शोभते हैं योग और अध्यात्म के उनके अनुभवपूर्ण श्रेष्ट ग्रन्थ ज्ञानसार, अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, पातंजलयोगसूत्रवृत्ति, योगविशिकावृत्ति, और द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका वगैरह । उपाध्यायजी की निर्मल प्रज्ञा और आंतर वैभव का आह्लादक परिचय पाने के लिए उनके इन ग्रन्थरत्नों का अवगाहन अवश्य करना चाहिये । उन के प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध ग्रन्थों की सूची बहुत बड़ी है । विशेष जानकारी पाने की जिज्ञासा वालों को 'श्री यशोविजय स्मृतिग्रन्थ' और “यशोदोहन" वगैरह ग्रन्थ देखने चाहिये । ऐसे महान् ज्ञानी, उच्च कोटि के आत्मसाधक, संतपुरुष प्रतिभासंपन्न उपाध्याय श्री यशोविजयजी की, उनके समकालीन विद्वानों ने 'कलिकाल केवली' के रुप में प्रशंसा की है । अपन भी उन महान् श्रुतधर महर्षि को भावपूर्ण हृदय से वंदना कर, उन की बहायी हुई ज्ञानगंगा में स्नान कर निर्मल बनें और जीवन सफल बनायें। - भद्रगुप्तविजय . Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायाचार्य न्यायविशारद उपाध्यायश्री यशोविजयजी - विरचित ज्ञानसार * विवेचनकार : पंन्यासश्री भद्रगुप्तविजयजी गणिवर Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. पूर्णता जीव अपूर्ण है, शिव पूर्ण है । अतः अपूर्णता के घोर अंधकार मेंसे पूर्णता के उज्ज्वल प्रकाश की ओर जाने का उपक्रम करें। क्योंकि समग्र धर्मपुरुषार्थ का ध्येय पूर्णता की प्राप्ति है । यही अंतिम ध्येय है, आखिरी मंजिल है।। फलस्वरुप, आत्मा की ऐसी परिपूर्णता प्राप्त कर लें कि कभी अपूर्ण होने का अवसर ही न आये। अपूर्णता का प्रादुर्भाव होने की संभावना ही न रहे ! युग-युगांतर से मोह और अज्ञान की गहरी खाई में दबी चेतना को, पूर्णता की प्रकाश-किरण आकर्षित करती रहती है। अपूर्णः पूर्णतामेति = अपूर्ण पूर्णता पाये ! ग्रंथकार महात्माने कैसी गहनगंभीर फिर भी मृदु बात का सूत्रपात किया है ! एक ही पंक्ति में, गागर में सागर भर दिया है । आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने हेतु कर्मजन्य पदार्थों से रिक्त हो जाएँ! Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार ऐन्द्रश्रीसुखमग्नेन, लोलालग्नमिवाखिलम् । सच्चिदानन्दपूर्णन, पूर्ण जगदवेक्ष्यते ॥१॥ अर्थ : स्वर्गीय सुख एवं ऐश्वर्य में निमग्न देवेन्द्र जिा तरह पूरे विश्व को सुखी और ऐश्वयंशाली देखता है, ठीक उसी तरह सत्-चित्-आनन्द से परिपूर्ण योगी पुरुष विश्व को ज्ञान-दर्शन-चारित्र से युक्त, परिपूर्ण देखता है। विवेचन : जिस तरह सुखो प्राणो अपनी ही तरह अन्य प्राणियों को भी सुखी मानता है, ठीक उसी तरह जो पूर्णात्मा है, वह अन्यों को स्वयं की तरह पूर्ण समझती है और उसी भाँति सत-चित्-प्रानन्द से परिपूर्ण आत्मा निखिल विश्व की जीवात्माओं में सत्-चित्-आनन्दयुक्त पूर्णता का दर्शन करती है। यह शाश्वत् सत्य, पूर्ण सुख की परिशोध-अन्वेषण करने हेतु कार्यरत आत्मा को दो महत्त्वपूर्ण बातों को निर्देश देता है : १. समग्र चेतन-सृष्टि में सत-चित-प्रानन्द की परिपूर्णता का अनुभव करने के लिये दृष्टा पुरूष के लिए सत्-चित-आनन्द युक्त पूर्णता की प्राप्ति आवश्यक है । २. यदि समग्र चेतन-सृष्टि में से राग-द्वेषादि कषायों को जडमूल से उखाड फेंकना हो तो उसमें पूर्णता का अनुभव करने हेतु पुरुषार्थ [प्रयत्न) करना शुरु कर देना चाहिये । जब तक जीवात्मा अपूर्ण है, परिपूर्ण नहीं है, तब तक वह निखिल विश्व की चेतन-सृष्टि में पूर्णता के दर्शन करने में सर्वथा असमर्थ है । लेकिन इसके लिये वह प्रयत्न अवश्य कर सकता है । मतलब यह कि वह अपने प्रयत्न-बल से पूर्णता का अल्पांश में ही क्यों न हो, दर्शन अवश्य कर सकता है। पूर्णता के अंश के दर्शन का ही अर्थ है-गुणदर्शन । हर प्राणी में थोडे-बहुत प्रमाण में ही भले क्यों न हों, लेकिन गुण अवश्य होते हैं । जैसे-जैसे हमारी गुण-दृष्टि अन्तर्मुख होती जाएगी वैसे-वैसे हमें उसमें गुणों के दर्शन होते जायेंगे । जहाँ गुण-दृष्टि नहीं, वहाँ गुण-दर्शन नहीं । क्योंकि यह कहावत है कि "जैसी दृष्टि वैसो सष्टि' । स्वर्ग के ऐश्वर्य में आकंठ डूबा देवेन्द्र जिस तरह समस्त Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णता सृष्टि को ही सुखमय, ऐश्वर्यमय मानता है, उसी तरह गुणदृष्टि-युक्त महापुरुष (आत्मा) सकल विश्व को गुणमय ही समझता है । प्राणी में रही गुण-दृष्टि का जिस गति से विकास होता जाता है, उसी प्रमाण में उसमें रही राग-द्वेषादि दृष्टि का लोप होता रहता है । फलत : जीवन में रही अशान्ति, असुख, क्लेश, संतापादि नष्ट होते जाते हैं और उसके स्थान पर परम शान्ति, मन:स्वस्थता, स्थिरता और परमानंद का आविर्भाव होता है । पूर्णता या परोपाधेः सा याचितकमण्डनम् । या तु स्वाभाविकी सैव, जात्यरत्नविभानिभा ॥२॥ अर्थ : परायी वस्तु के निमित्त से प्राप्त पूर्णता, किसी से उधार मांगकर लाये गये आभूषण के समान है, जबकि वास्तविक पूर्णता अमूल्य रन की चकाचौंध कर देने वाली अलौकिक कान्ति के समान है। विवेचन : मान लो तुम्हारे यहां शादी-विवाह का प्रसंग है, लेकिन तुम्हारे पास आवश्यक प्राभूषण-अलंकारों का अभाव है। उसे पूरा करने के लिये तुम अपने किसी मित्र अथवा रिश्तेदार से आभूषणादि मूल्यवान वस्तुएँ माँग लाये । परिणामतः बड़ी सजधज व धमधाम से शादी का प्रसंग पूरा हो गया। लोगों में बड़ी वाह-वाह हुई तुम्हारे ऐश्वर्य और बड़प्पन की। जहाँ देखो वहाँ, तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की प्रशंसा हुई । तुम्हारी मनोकामना पूरी हुई । तुम पूर्ण रूप से संतुष्ट हो गये । लेकिन वास्तविकता क्या है ? क्या तुम इस घटना से सचमुच संतुष्ट हुए, आनंदित हुए ? जो शोभा हुई और बडप्पन मिला, वह सही है ? जिन प्राभूषणों के दिखावे से लोगों में नाम हुमा, क्या वे अपने हैं ? तुम और तुम्हारा मन इस तथ्य से भली-भाँति परिचित है कि अलंकार पराये-उधार लाये हुए हैं और सारा दिखावा झूठा है । प्रसंग पूरा होते ही लोगों की अमानत (आभूषणादि वस्तुएँ) लौटांनी है । अतः हम बाह्य रुप में भले ही प्रसन्न हों; लेकिन प्रान्तरमन से तो दुःखो होते हैं, व्यथित ही होते हैं । ठीक उसी तरह पूर्व भव के कर्मोदय से मानव-भव में प्राप्त सौन्दर्य, कला, विद्या, शान्ति और सुखादि ऋद्धि-सिद्धि भी पराये गहनों Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार की तरह अल्प काल के लिये रहने वाली अस्थायी है । यह सब तो पुण्य-कर्म से उधार में पाया हआ है । अतः समय के रहते इस उधार की पूंजी को वापिस लौटा दो तो बेहतर है। इसी में तुम्हारी इज्जत और बड़प्पन है । फिर भी तुम सचेत नहीं हुए. खुद ही स्वेच्छा से इसका त्याग नहीं किया तो समय आने पर कर्मरुपी खलपुरूष इसे तुमसे छीनते देर नहीं करेगा । और तब परिस्थिति बड़ी दुर्भर और भयंकर होगी । कर्म को जरा भी शर्म नहीं पाएगी अपनी अमानत वसूल करने में, जगत में तुम्हें नंगा करने में । वह कदापि यह नहीं सोचेगा कि 'इस समय इसे (तुम्हें) धनधान्यादि की अत्यन्त आवश्यकता है, अतः छोड़ दिया जाए, किसी अन्य प्रसंग पर देखेंगे....।' वह तो निर्धारित समय पर अपनी वस्तु लेकर ही रहेगा। फिर भले ही तुम लाख अपना सर पीटो, चिल्लायो, चिखो अथवा आक्रन्दन करो । अतः कर्मोदय से प्राप्त ऋद्धि-सिद्धि, ख-समृद्धि को ही पूर्णता न मानो, यथार्थ न समझो । उसके प्रति आसक्त न रहो कि बाद में पश्चात्ताप के प्रांसू बहाने पड़े। आत्मा की जो अपनी समृद्धि है, वही सही पूर्णता है, वही वास्तविक है । उसे कोई माँगने वाला नहीं है । माणेक-मुक्तादि रत्नों की चमककांति का कभी लोप नहीं होता । उसे कोई ले नहीं सकता, छीन नहीं सकता और ना ही चुरा सकता है । यह निविवाद तथ्य है कि आत्मा की वास्तविक संपत्ति-समृद्धि है :- ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभिता, परम शान्ति आदि । उसे प्राप्त करने हेतु और प्राप्त संपत्ति-समृद्धि को सुरक्षित रखने के लिये हमें भगीरथ पुरुषार्थ करना है । अवास्तवी विकल्पैः स्यात्, पूर्णताब्धेरिवोमिभिः । पूरानन्दस्तु भगवान्, स्तिमितोदधिसन्निभ: ॥३॥ अर्थ : तरंगित लहरों के कारण जैसे समुद की पूर्णता मानी जाती है, ठीक उसी तरह विकल्पों के कारण आत्मा की पूर्णता मानी जाती है । लेकिन वह अवास्तविक है । जब कि पूर्णानन्दस्वरुप भगवान स्वयं में अथाह समुद्र सदृश स्थिर-निश्चल है । विवेचन : अथाह समुद्र की पूर्णता उसकी लहरों से मानी जाती है, ठीक उसी भाँति आत्मा की पूर्णता उसके विकल्पों की वजह से मानी Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णता जाती है । लेकिन दोनों की पूर्णता अवास्तविक है, क्षणभंगुर, अस्थायी अल्पकालीन है, जो समय के साथ अपूर्णता में परिणत होने वाली है । धन, बल, प्रतिष्ठा, उच्च कुल और सौन्दर्य के बल पर जो यह समझता है कि 'मैं धनवान हूं, कुलवान हूं, बलवान हूं और अनुपम सौन्दर्य का धनी हूं ।' यह सरासर गलत है । यही नहीं, बल्कि वह इसी को परिपूर्णता मान भ्रम जाल में उलझ गया है, वह सर्वथा मतिमंद बन गया है । उसे यह ज्ञान ही कहां है कि धन, सौन्दर्य, शक्ति, संपत्ति और प्रतिष्ठा आदि अनेक विकल्प नीरी लहरें हैं, तरंगे हैं, जो अल्पजीवी हैं। साथ ही क्षणभंगुर भी । थोडे समय के लिये उछलती हैं, ऊपर उठती हैं, अपनी लीला से दर्शक को खुश करती हैं और देखते ही देखते समुद्र के गर्भ में खो जाती हैं, विलीन हो जाती हैं ! ७ समुद्र की लहरों को आपने निरन्तर खलबलाते देखा है ? तूफान और आंधी को आपने लंबे समय तक चलते पाया है ? लहर का मतलब ही है - रुपजीवी । जब लहरें उठती हैं, उछलती हैं, तब समुद्र अवश्य तूफानी रूप धारण कर लेता है और उसमें भारी खलबली मच जाती है । उसका पानी मटमैला बन जाता है । धन-धान्यादि से परिपूर्ण बनने की चाह रखने वाले मनुष्यों की स्थिति इससे अलग नहीं है, बल्कि एक ही है । वे इष्ट - प्राप्ति हेतु भागते नज़र आते हैं, तो कभी थकावट से चूर, सुस्त ! लेकिन चुप बैठना तो उन्होंने सीखा ही कहाँ है ? जरा सी भनक पड़ी नहीं कान में स्वार्थ सिद्धि की, दुबारा दुगुनी ताकत से, उत्साह से, उछलते, भागते नजर आते हैं । प्रयत्नों की पराकाष्ठा से जब थक जाते हैं, तब पल दो पल के लिए ठिठक जाते हैं-रुक जाते हैं और बाद में फिर शुरु हो जाते हैं | मनुष्य के मन में जब बाह्य वस्तु ( सुख, शान्ति, संपत्ति आदि) की प्राप्ति और प्राप्त वस्तु संजोये रखने के विचार - विकल्प पैदा होते हैं, तब उसकी आत्मा क्षुब्ध हो उठती है, और अशान्ति, क्लेश, संताप, व्यथा और वेदना का वह मूर्तिमान स्वरूप धारण कर लेती है । जब कि पूर्णानंदी आत्मा प्रशांत, स्थिर - महोदधि सदृश स्थितप्रज्ञ और स्थिर होती है । उसमें न कहीं विकल्प के दर्शन होते हैं और न ही अशान्ति का नामो-निशान । ना क्लेश होता है और ना ही किसी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार प्रकार का संताप ! न वहाँ अनीति-अन्याय के लिये कोई स्थान है, ना ही दुराचार, चोरी अथवा राग-द्वेष का स्थान । पूर्णानन्दी आत्मा के अथाह समुद्र में अनन्य, अमूल्य, ज्ञानादि गुरगरत्नों के भंडार, अक्षय कोष भरे पड़े हैं । उसीमें वह स्वयं की पूर्णता समझता है । गुरण-गरिमा उसके अंग-अंग से प्रस्फुटित होती है, दृष्टिगोचर होती है । जागति ज्ञानदृष्टिश्चेत, तृष्णा - कृष्णाहिजाङ गुली। पर्णानन्दस्य तत कि स्याद, दैन्यश्चिकवेदना? ॥४॥ अर्थ : यदि तृष्णा रूप कृष्णसर्प के विष को नष्ट करने वाली गारुडी मंत्र के समान ज्ञानदृष्टि खुलती है, तब दीनतारूप बिच्छु की पीड़ा कैसे हो सकती है ? विवेचन : तुम्हारे पास अपार संपत्ति, बहुमूल्य आभूषण, कीमती वस्त्र, अनुपम रूप-सौन्दर्य, सर्वोच्च सत्ता और ऋद्धि-सिद्धि के भंडार नहीं, अतः तुम विलाप करते हो, दर-दर भटकते हो । हर दरवाजे पर अपना रोना रोकर प्रदर्शन करते हो । दीन-हीन बनकर चीत्कार करते हो । सौन्दर्यमयी पत्नी जीवन सहचरी न होने के कारण व्यग्न बनकर गली-गली फिरते हो। यह दीनता, व्यथा, चीत्कार, रुदन, लाचारी और निराशा भला क्यों ? आखिर इससे क्या मिलने वाला है ? दीन न बनो, निराशा को झटक दो और लाचार-वृत्ति छोड़ दो । इच्छित पाने के लिये, इच्छित पदार्थ व वस्तुओं को हस्तगत करने के लिये स्पृहा अभिलाषा)-तृष्णा रखते हुए, उसकी प्राप्ति के लिये लोगों के सामने हाथ फैलाते हो... भीख माँगते हो.....खुशामदें करते हो, यह सब छोड दो । उस पदार्थ की ओर तो तनिक देखो । अपनी दृष्टि तो डालो ! क्या तुम समझते हो कि उनकी प्राप्ति से तुम्हें शान्ति मिलेगी ? संतोष होगा ? तुम्हारा समाधान होगा? बल्कि इससे जोवन में अशान्ति, अप्रसन्नता, परेशानी का ही प्रादुर्भाव होने वाला है । ठीक उसी तरह प्राप्त वस्तुएँ, जैसे तुम चाहते हो, वैसे तुम्हारे पास स्थायी रूप से रहने वाली नहीं हैं, इसमें तुम्हें वास्तविक पूर्णता के दर्शन नहीं होंगे, आशातीत पूर्णता नहीं मिलेगी। __इसके बजाय अपने अन्तर्मन के पट खोलो, ज्ञान-चक्ष खोलो, और सोचो : "जगत की बाह्य जड़ वस्तुओं से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है । जो भी मिलेगा, मुझे अपने कर्म से मिलेगा, उससे मुझे पूर्णत्व की प्राप्ति Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह पूर्णता होने वाली नहीं है । मैं अपनी प्रात्मिक क्षमा, विनम्रता, ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुणों से ही पूर्ण हूँ । इन्ही गुरणों की प्राप्ति से मेरी पूर्णता है । " हमारी यही दृष्टि होनी चाहिए । यदि इसमें कोई बाधा अवरोध पैदा होते हों, तो उन्हें पूरी शक्ति से दूर करने की चेष्टा करो | जिस तरह हमारी आँख झपक जाए, फिर भी हम उसे खोलने का बारबार प्रयास करते हैं, ठीक उसी भाँति यहाँ भी सचेष्ट और जागृत रहना आवश्यक है | परिणाम यह होगा कि स्पृहा तृष्णा के कारण उत्पन्न होने वाली वेदना, संताप और व्यथा तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं कर सकेगी । कारण कि तब तुम ज्ञान दृष्टि का महामंत्र पा जाओगे और वह महामंत्र कृतान्तकाल सदृश विषधर सर्प को भी नियंत्रित करने का रामबाण उपाय है । उसमें परम चमत्कारी शक्ति है । इसकी तुलना में भला बिच्छु के डंक के विष की क्या बिसात ? "मैं अपने में रहे हुए गुरग-रत्नों से परिपूर्ण हूँ", यह विचारधारा ऐसी स्फोटक और अमोघ शक्ति है कि आनन- फानन में तृष्णा - अभिलाषा के मेरुपर्वत को चकनाचूर कर देगी । उसका नामोनिशान मिटा देगी । चक्रवर्तियों की तृष्णा को धूल में मिलाने वाली अपूर्व शक्तिशाली ज्ञानदृष्टि, पलक झपकते न झपकते सामान्य जनों की तृष्णा नष्ट करने की शक्ति रखती है । 7 पूर्यन्ते येन कृपणास्तदुपेक्षैव पूर्णता । पूर्णानन्दसुधा स्निग्धा दृष्टिरेषा मनीषिणाम् ||५|| अथ : जिससे ( धन-धान्यादि परिग्रहों से ) लोभी- लालची जीव पूर्ण होते हैं, उसकी उपेक्षा करना ही स्वाभाविक पूर्णता है । तत्त्वज्ञानियों की यही तत्त्वज्ञान के पूर्णानन्दरूप अमृत से गीली दृष्टि है । विवेचन : जब तुम्हारा ध्यान संसार के पौद्गलिक सुखों से विरक्त होकर आत्मा के अनन्त गुणों के कारण आनन्द अनुभव करने लगे, तभी तुम्हारे जीवन - व्यवहार में औौर-प्रचार- विचार में आमूल परिवर्तन आ जाएगा । तुम्हें एक नयी दुनिया के दर्शन होंगे । लेकिन इसके लिये तुम्हें अपने अन्तरात्मा के गुरणों के प्रानन्द की अनुभूति करनी होगी । इसके बिना कोई चारा नहीं । और यह तभी Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार संभव है जब तुम दूसरों के आत्मगुणों को निहारकर प्रसन्नता का अनुभव करोगे, आनन्दित होंगे। इसके लिये तुम्हें सामने वाले में रहे हए सिर्फ गुरणों को ही देखना है, परखना है, न कि उसकी त्रुटियों को अथवा दोषों को । मतलब, आत्म-संयम किये बिना यह संभव नहीं है । __जब भी तुम्हारी दृष्टि दूसरे जीव के प्रति आकर्षित हो, तुम्हें उसमें रहे अनंत गुणों को ही ग्रहण करना है। उसके गुणों को आत्मसात कर ज्यों-ज्यों तुम आनंदित बनोगे, अपूर्व आनंद का अनुभव करोगे, त्यों-त्यों उसके गुण तुम्हारी आत्मा में भी प्रकट होते जायेंगे । परिणाम यह होगा कि इन गुरणा की पूर्णता का जो स्वर्गीय आनंद तुम्हें मिलेगा, ऐसे आनंद की अनुभूति इसके पहले तुमने कभी नहीं की होगी । तुम्हारा मन इस प्रकार के आनंदामृत में आकंठ डूब जाएगा और तब तुम्हें अपने जीवन के आचार-विचार तथा व्यवहार में एक प्रकार के अद्भुत परिवर्तन का साक्षात्कार होगा। ___ मसलन, जगत में रहे अनन्त जीव जिन सांसारिक सुखों को पाने के लिये रात-दिन मेहनत करते हैं, लाखों की संपत्ति लुटाते हैं, असंख्य पाप करते हैं, उनके प्रति तुम्हारे मन में कोई चाह, कोई इच्छा नहीं रहेगी । तुम उन्हें पाने के लिये तनिक भी प्रयत्न नहीं करोगे, ना ही पाप भी करोगे । इस तरह तुममें इन सुखों के प्रति पूर्ण रूप से उदासीनता आ जायेगी । फल यह होगा कि फिर पाप करने का सवाल ही पैदा नहीं होगा । तुम इन सुखों की प्राप्ति से कोसों दूर निकल गये होंगे। इनके प्रति विराग की भावना तुममें पैदा हो जाएगी। क्योंकि यही सांसारिक सुख तुम्हारे गुणानन्द में बाधारूप जो है । जब तक इस प्रकार का परिवर्तन जीवन में नहीं आये, तब तक तुम्हें चुप नहीं बैठना है, हाथ पर हाथ धरे निष्क्रिय नहीं रहना है । बल्कि अपनी गुणदृष्टि को अधिक से अधिक मात्रा में विकसित-विकस्वर बनाते रहना हैं । अपूर्ण: पूर्णतामेति, पूर्यमारणस्तु हीयते ।। पूरानन्दस्वभावोऽयं, जगदभुतदायक: ।।६।। अर्थ : अपूर्ण पूर्णता प्राप्त करता है और पूर्ण अपूर्णता को पाता है । समस्त सृष्टि के लिये आश्चर्यकारक आनन्द से परिपूर्ण यह प्रात्मा का स्वभाव है । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णता विवेचन : 'बाह्य धन-धान्यादि की संगत करें, उसमें परिपूर्ण बनने के लिये, पूर्णता प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ करें और साथ ही साथ आन्तरिक प्रात्म-गुणों से भी युक्त बनें, यह विचार अनुपयुक्त, अनुचित नहीं तो क्या है ? क्या परस्पर विरोधी दो विचारधाराएँ एक स्थान पर होना संभव है ? विभावदशा और स्वभावदशा-दोनों स्थितियों में आनन्दोपभोग करना कितना विचित्र और आश्चर्यकारक है ? एक तरफ एक सौ चार डिग्री ज्वर में उफनता हो और दूसरी ओर मिष्टान्न-स्वाद का गुदगुदाने वाला अनुभव होना जिस तरह संभव नहीं है, ठीक उसी तरह जब तक बाह्य (पौद्गलिक) सुख लूटने की क्रिया सतत शुरू हो, तृष्णा और लालसा की भूख मिटी न हो, तब तक पूर्णानन्द का अनुभव भी पूर्णतया असंभव है, असमीचीन है, साथ ही अनुचित है । जैसे-जैसे हमारी इन्द्रियजन्य सूखों की स्पृहा नष्ट होती जाएगी, उपभोग की भावना कम होती जाएगी, वैसे-वैसे आत्मगुरणों का आनन्द द्विगुणित होता हुआ निरन्तर बढ़ता जाएगा। मतलब, इन्द्रियजन्य सुखों की अपूर्णता ही प्रात्मगुरणों की पूर्णता का प्रमुख कारण है । बिना कारण कोई बात नहीं बनती। यदि हमें आत्मगुरगों में पूर्णानन्द का अनुभव करना हो तो अपनी तृष्णा, स्पृहा और इन्द्रियजन्य सुखों की लालसा का त्याग किये बिना कोई चारा नहीं है । मिठाई के स्वाद का मजा लूटना हो तो विषम ज्वर से मुक्ति पानी ही होगी । बीमारी के कारण मुह में एक प्रकार की जो कडवाहट आ गयी है, उसे खत्म करना ही होगा। आत्मगुरण के पूर्णानंद का यह मूलभूत स्वभाव है कि वह इन्द्रियजन्य सुखों के साथ रह नहीं सकता । ठीक उसी प्रकार इन्द्रियजन्य सुख का भी स्वभाव है कि वह आत्म गुरण के पूर्णानंद की संगति नहीं कर सकता । न जाने यह कैसा परस्पर विरोधी स्वभाव है ? बाह्न सुखों का परित्याग कर जब आत्मा निज गुणों के पूर्णानंद में खो जाती है, तब सष्टि दिग्मूढ बन जाती है। जिन सुखों के बिना प्राणीमात्र का जीवन अपूर्ण है, असंभव है, ऐसे सुख का त्याग कर अपूर्व आनंद में आकंठ डूबा पूर्णानंदी जीव, विश्व के लिये अद्भुत, महान् बन जाता है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार परस्वत्वकृतोन्माथा, भूनाथा न्यूनतेक्षिरणः । स्वस्वत्वसुखपूर्णस्य, न्यूनता न हरेरपि ॥७॥ अर्थ : जिन्होंने परवस्तु में अपनत्व की बुद्धि से व्याकुलता प्राप्त की है, वैसे राजा अल्पता का अनुभव करने वाले हैं, जब कि आत्मा में ही अपनत्व के सुख से पूर्ण प्रात्मा को, इन्द्र से भी न्यूनता नहीं है। विवेचन : बाह्य विषय तुम्हें लाख मिल जायेंगे, लेकिन इससे तुम्हें संतोष नहीं होगा । तुम्हें तृप्ति नहीं मिलेगी । वे तुम्हें प्रायः कम ही लगेंगे । जो पदार्थ तुम्हारे नहीं हैं, ना ही तुम्हारी आत्मा से उपजे हैं, बल्कि पराये हैं, दूसरों से उधार लिये हुए हैं, कर्मोदय के कारण मिले हैं, तिस पर भी मनुष्य जब उसके मोह में बावरा बन : "ये मेरे हैं। यह परिवार मेरा है । धन-धान्यादि संपत्ति मेरी है। मैं ही इसका एकमात्र मालिक हूँ।" कहते हुए सदैव लालायित, ललचाया रहता है, तब उसमें एक प्रकार की अधीरता, विह्वलता आ जाती है और यही विह्वलता उसमें विपर्यास की भावना पैदा करती है । 'सावन के अधे को सर्वत्र हरा ही हरा नजर आता है, इस कहावत के अनुसार विपर्यस्तदृष्टि मनुष्य में मोह के बीज बोती है। फल यह होता है कि उसके पास जो कुछ होता है, वह कम नजर आता है और अधिक पाने की तृष्णावश वह नानाविध हरकतें करता रहता है । रहने के लिये एक घर है, लेकिन कम लगेगा और दूसरा पाने की स्पृहा जगेगी । धन-धान्यादि संपत्ति भरपूर होने पर भी उससे अधिक पाने का ममत्व पैदा होगा । मसलन, जो उसके पास है, उससे संतोष नहीं, शान्ति नहीं, सुख नहीं और समाधान भी नहीं। नित नया पाने की विह्वलता आग की तरह बढ़ती ही जाएगी । फलतः उसका सारा जीवन शोक-संताप और अतृप्ति की चिन्ता में ही नष्ट हो जाएगा। परिणाम यह होगा कि लाखों शुभ कर्म और पुण्योदय से प्राप्त मानव जीवन तीव्र लालसा में, स्पृहा में मटियामेट हो जाएगा । जो प्रात्मा का है, यानी हमारा अपना है, उसी के प्रति ममत्वभाव पैदा कर हमें प्रात्म-निरीक्षण करना चाहिए । 'यह ज्ञान, बुद्धि मेरी है। मेरा चारित्र है। मेरी अपनी श्रद्धा है । क्षमा, विनय, विवेक, नम्रता एवं सरलता आदि सब मेरे अपने हैं । मैं इसका एक मात्र मालिक हूँ।' ऐसी भावना का प्रादुर्भाव होते ही तुम्हारा मन अलौकिक पूर्णानन्द से Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्णता सराबोर होकर एक नये दृष्टिकोण/नवसर्जन की राह खोल देगा। तब तुम्हारे में न्युनता का अंशभी नहीं रहेगा । तुम किसी बात की कमी महसूस नहीं करोगे । यदि तुम्हारे पास बाह्य पदार्थों का अभाव होगा, फिर भी तुम न्युनता का अनुभव नहीं करोगे । ऐसी परिस्थिति में अगर तुम्हारे सामने एकाध राजा-महाराजा अथवा सकल ऋद्धि-सिद्ध से युक्त स्वयं देवेन्द्र पा जायें, तो भी तुम्हें किसी वात का गम-दुःख नहीं होगा। हाँ, तब तुम्हारे पूर्णानन्दस्वरूप का अनुमान कर वह, रवयं में ही शून्यता का अनुभव करे तो अलग बात है ! कृष्णे पक्षे परिक्षीणे, शुक्ले च समुदञ्चति । द्योतन्ते सकलाध्यक्षाः पूर्णानन्दविधो: कलाः ॥८॥ अर्थ : कृष्ण पक्ष के क्षय होने पर जव शुक्ल पक्ष का उदय होता है तब पूर्णानन्द रुपी चन्द्र की कला विकसित होती है। खिलती है और सारी सृष्टि प्रकाशमय बना देती है । विवेचन : यह शाश्वत् सत्य है कि कृष्ण पक्ष के क्षय होते ही शुक्ल पक्ष का प्रारंभ होता है, उदय होता है । फलतः चन्द्रकला दिन-ब-दिन अधिक और अधिक प्रकाशित हो, विकसित होती जाती है और सारा संसार उससे आलोकित हो उठता है । चन्द्र की पूर्णकला का दर्शन कर एक प्रकार के रोमांचकारी आनंद व अपूर्व शान्ति का अनुभव करता है। ठीक इसी तरह जब आत्मा शुक्ल पक्ष में प्रवेश करती है, तब पूणानिन्द की कला सोलह सिंगार कर उठती है । दिन-ब-दिन उसमें परिपूर्णता पाती रहती है । फलतः जैसे-जैसे वह पूर्ण रूप से विकसित हो उठती है, वैसे-वैसे मिथ्यात्व के दुष्ट जाल का, राहु की शैतानी शक्ति का लोप होता रहता है। काल-चक्र की दृष्टि से यहाँ 'शुक्ल पक्ष' और 'कृष्ण पक्ष' की कल्पना की गयी है और अनंत पुद्गल परावर्तकाल से संसार में भटकते जोव को कृष्ण पक्ष के चन्द्र को उपमा दी गयो है । जबकि आवागमन के फेरे लगाता, जन्म-मरण के चक्र में डबता-इतराता जीव संसार परिभ्रमण के अर्ध पुद्गल परावर्तकाल से भी कम समय बाकी रखता है, उसे शुक्ल पक्ष के चन्द्र की संज्ञा दी गयी है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ज्ञानसार आत्मा की चैतन्य अवस्था पूर्णानन्द की कला से जब सशोभित होती है, तब वह शुक्ल पक्ष में प्रवेश करता है । हमारी मात्मा ने शुक्ल पक्ष में प्रवेश किया है या नहीं इसे जानने के लिये महापुरुषों ने पाँच प्रकार की कसौटी बतायी है : १. श्रद्धा, २. अनुकंपा, ३. निर्वेद (जन्म से अनासक्ति), ४. संवेग (मोक्ष-प्रीति), ५. प्रशम । उपर्युक्त पाँच लक्षण कम या अधिक मात्रा में जीवात्मा में पाये जाने पर समझ लेना चाहिए कि उसने शुक्ल पक्ष में प्रवेश कर लिया है । श्री दशाश्रुतस्कन्ध चणि में संसार-परिभ्ररण का एक पुद्गल परावर्त काल शेष रह जाए, तब से शुक्ल पक्ष बताया गया है । किरियावादी णियमा भव्वओ, नियमा सुक्कपक्खिओ, अंतो पुग्गलपरियडस्स नियमा सिझिहिति, सम्मविट्ठा वा मिच्छविट्ठा वा होज्ज ।' इसके अनुसार सम्यक्त्व न हो, फिर भी आत्मव दी है, तो वह शुक्ल पक्ष में कहलाता है और एक पुदगल परावर्तकाल में ही वह मोक्षप्राप्ति का अधिकारी बनता है । मतलब, मोक्षगामी बनता है। जीवात्मा के अस्तित्व पर अट श्रद्धा रखे बिना प्रात्मगुणों की पूर्णता का रोमांचक आनंद और अपूर्व शान्ति का अनुभव हो ही नहीं सकता । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. मग्नता मग्नता ! तम्मयता ! समग्रतया लीनता, तल्लीनता ! और उस में भी ज्ञान-मग्नता ! मतलब, ज्ञानार्जन, ज्ञान- चर्चा, ज्ञानप्रबोधन में अपने आपको / स्वयं को पूर्ण रूप से लीन कर देना । पूर्णता के शिखर पर पहुँचने का एकमेव साधन / प्रथम सोपान है - ज्ञान मग्नता । आज तक विषयवासना, मोह-लोभ और परिग्रह... ... सब कुछ प्राप्त करने की ललक में सदा-सर्वदा खोये रहे । लेकिन क्या मिला ? अपार अशान्ति, संताप, क्लेश और कलह... साथ में उद्वेग और उदासीनता ! फलत: हमें दुबारा सोचना होगा, चिन्तन व मनन करना होगा कि जिसके काररण परमानन्द का 'पिन पोइंट' प्राप्त हो जाये, अक्षय प्रसन्नता और अपूर्व शान्ति के द्वार खुल जाएँ, दिव्य चितन की पगडंडी मिल जाय और मोक्षभार्ग स्पष्ट रूप से नजर आने लगे । ऐसी मग्नता / तल्लीनता पाने के लिए हमें भगीरथ प्रयत्न करने होंगे। साथ ही इन प्रयत्नों के आधारभूत प्रस्तुत प्रष्टक का बारबार, निरन्तर परिशीलन करना होगा । अतः एक बार तो पठन-मनन कर देखें । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार प्रत्याहृत्येन्द्रियव्यहं समाधाय मनो निजम् । दधच्चिन्मात्रविधांतिर्मग्न इत्यभिधीयते ॥१॥६॥ अर्थ : जो आत्मा इन्द्रियसमूह को विषयों से निवृत्त कर, अपने मन को आत्म-द्रव्य में एकाग/लीन बना, चतन्य स्वरुप प्रात्मा में विश्राम करती है, वह मग्न कहलाती है। विवेचन : पूर्णता के मेरुशिखर पर चढ़ने से पूर्व ज्ञानानंद की तलहटी में जरा रुक जाम्रो। अपनी आँखें बन्द करो। अपनो चैतन्यावस्था का जायका लो। बाह्य पदार्थों में रमण करने वाली अपनी इन्द्रियों को निग्रहित-संयमित कर, उनमें रही शक्तियों को चतन्य दर्शन के महत कार्य में लगा दो । उसकी ओर प्रवृत्त कर दो । परभाव में भटकते मन की गति को रोक दो और उसे स्व भाव में रमण करने का लीन होने का निर्देश दो। . चिन्मात्र में विश्रान्ति ! मतलब ज्ञानानन्दमय विश्रांति ! कैसा प्रशस्त, अद्भुत और श्रेष्ठ विश्राम गृह ! अनंतकालीन भव-परिभ्रमरण के दौरान ऐसा अनोखा विश्रामगृह कहीं देखने को नहीं मिला ! बल्कि वहां तो ऐसे विश्रामगह मिले कि उनको विश्रामगृह कहने के बजाय अशान्तिगह अथवा उत्पातगृह की संज्ञा दें, तो भी अतिशयोक्ति न होगी ! साथ ही वहां कलह, अराजकता, संताप और शोक के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं । आज तक जीवात्मा ने परभाव को, संसार के पौदगलिक विषयों को ही विश्रामगह का लुभावना नाम देकर वहाँ आश्रय लिया है। अपने बाह्य रूप-रंग से आकर्षक बने ये विश्रामगृह सृष्टि के प्राणी मात्र पर अनोखा जादू कर गये हैं । अपनी रूप-सज्जा के बल पर इन्होंने सबको अपनी मुट्ठी में कर लिया है । फलतः आनन्द की परिकल्पना करते हुए जो जीव उसमें प्रवेश करते हैं, वे चीखते-चिल्लाते, आन्दन करते बाहर आते नजर पाते हैं । वहाँ सर्वस्व लट लिया जाता है और धकियाते हुए उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है । ज्ञानानंद का विश्रांतिगृह अपूर्व ही नहीं, अपितु अनुपम है। हालांकि उसमें प्रवेश पाने के लिये जीवात्मा को प्रयत्नों की पराकाष्ठा करनी पड़ती है। भगीरथ प्रयत्न करने होते हैं । उसके लिये पौद्गलिक विषयों Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग्नता ७ से युक्त विश्रांतिगृहों का क्षणभंगुर सुख-ऐश्वर्य और आनंद भूल जाना पड़ता है। एक बार प्रवेश मिल जाए, फिर तो श्रानंद ही आनंद ! सर्वत्र परमानन्द की शीतल छाया ही मिलेगी । असीम शान्ति की अनुभूति होगी। एक बार प्रवेश करने के पश्चाद् बाहर आने की भावना नहीं होगी और यदि निकलना भी पड़े तो शीघ्रातिशीघ्र दुबारा प्रवेश करने की आन्तरिक लगन जग पडेगी । जहाँ ज्ञानानन्द में ही पूर्ण विश्राम प्रतीत होता है और पुदगलानन्द नीरी वेठ-मजदूरी की तरह वेतुका लगता है, वही तो ज्ञानमग्नता, ज्ञानतल्लीनता है। यस्य ज्ञानसूधासिन्धौ, परब्रहरिण मग्नता । विषयान्तरसंचारस्तस्य हालाहलोपमः ॥२॥१०।। अर्थ : ज्ञान रूपी अमृत के अनंत, अथाह समुद्र ऐसे परमात्मा में जो लीन है, उसे अन्य विषयों में प्रवृत्त होना हलाहल जहर लगता है। विवेचन : जलक्रीडा करने के लिये तुमने कभी तूफानी दरिये में छलाँग लगायी है ? तैरने के इरादे से किसी जलप्रवाह/नदी में कूदे हो ? स्वीमींग बाथ (Swimming bath) में प्रवेश किया है ? तैरने के शौकोन अथवा जलक्रीडा के रसिये को समुद्र, सरोवर, नदी या स्वीमोंग बाथ में नहाने का आनंद लुटते समय यदि कोई आकर बीच में ही रोक दे अथवा उसकी क्रिया में बाधा डाल दे, तब जैसे उसे ज़हर-सा लगता है, ठीक उसी भाँति जब जीवात्मा अपने स्वाभाविक ज्ञानानन्द में सराबोर हो, पूर्ण रूप से लीन बनकर आनंद में आकंठ डूबा अठखेलियां करता हो, ऐसे प्रसंग पर यदि बीच में ही पौद्गलिक विषय घुसपैठ कर लें, तब उसे वे विषय जहर से लगते हैं । क्योंकि ज्ञानानन्द की तुलना में उसके (जीवात्मा के) लिये पौद्गलिक आकर्षण, सुख-समृद्धि आदि विषय कोई बिसात नहीं रखते । पौद्गगलिक सुख उसे मोहपाश में बाँध नहीं सकते । उसका रस भीना व्यवहार जीवात्मा के लिये नीरस और बेतुका होता है। पुदगल का मृदु स्पर्श उसमें रोमांच को लहर पैदा नहीं कर सकता । उसके मोहक सूर उसे हर्ष विह्वल करने में पूर्णतया असमर्थ होते हैं । मतलब, पौद्गलिक शब्द रूप, रस, गंध और स्पर्श के टपक पड़ने पर, टकराने से वह कंपित हो उठता Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार है । जिस तरह की स्थिति विषधर साप को घर में आते देखकर होती है । इस तरह स्वाभाविक आनन्द में तल्लीन आत्मा, भला क्यों कर खुद ही माया के बाजार में पौद्गलिक विषयों की प्राप्ति हेतु जाएगी? क्यों विषयसुख के अभाव में दीन बनाभटकती फिरेगी? क्यों शोक-विह्वल होगी ? और वैषयिक सुख मिलने पर संतुष्ट भी क्यों होगी ? हमें समझ लेना चाहिये कि यदि हम पौदगलिक सुख की टोह में घूम रहे हैं, उसे पाने के भ्रम में संसार में भटक रहे हैं और उसके न मिलने पर मायूस बन जाते हैं, हताश हो जाते हैं, प्राक्रन्दन कर उठते हैं, जब कि पाने पर आनंदविभोर बन नाच उठते हैं, तो निःसन्देह हम अपनी स्वाभाविक ज्ञानानन्द-वृत्ति के साथ तादात्म्य साधने में असमर्थ रहे हैं । और परब्रह्म का आनंद अनुभव नहीं कर पाये हैं । अवश्य हमारे में कोई कमी, त्रुटि रह गयी है । स्वभावसुखमग्नस्य, जगत्तत्वावलोकिनः । कर्तृत्वं नान्यभावानां, साक्षित्वमवशिष्यते ॥३॥११॥ अर्थ : स्वाभाविक आनंद में तल्लीन हुए और स्याद्वाद के माध्यम से जगत तत्त्व का परीक्षण कर अवलोकन करने वाले जीवात्मा को अन्य प्रवृत्तियों [भावों का कर्तृत्व नहीं होता है, परन्तु साक्षीभाव शेष रहता है। विवेचन : किसी भले सज्जन मनुष्य को दुष्टों की टोली ने अपने जाल में फंसा दिया । उसे पूरी तरह से अपने खाके में ढाल दिया। उसमें और उसकी प्रवृत्तियों में आमूल परिवर्तन कर दिया । अपने मनपसंद सभी कुकर्म उससे करा दिये । वर्षों बोत गये इस घटना को । एक बार जाने-अनजाने वह एक परमोपकारी महापुरुष के हाथ लग गया। उन्होंने उसे दुष्ट लोगों का रहस्य बताया। उनके चंगुल से उसे आज़ाद करा दिया और अच्छे सज्जन लोगों के हाथ सौंप दिया । तब वह पीछे मुडकर अपने भूतकाल को देखता है । वेदना और पश्चात्ताप से भर जाता है । वह मन ही मन सोचता है :" सच में तो इन दुष्कार्यों का मैं कर्ता नहीं हूँ ! मैं भला सज्जन होकर ऐसे अघोरी कृत्य क्या कर सकता हूँ ? यह सर्वथा असंभव है, बल्कि ये दुष्कार्य तो उन्हीं Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग्नता दुष्टों के ही हैं । मैं तो सिर्फ उसका निमित्त बना हूँ।" वह भूलकर भी अपने भूतकालीन कार्यों को लेकर अभिमान नहीं करेगा, बड़ी-बड़ी बातें नहीं करेगा। __ इसी तरह जीवात्मा भी युग-युगान्तर से बुरे कर्मों के चंगुल में फंसा हआ है। दुष्कर्मों ने उसमें आमूल परिवर्तन कर दिया है। स्वभाव को छोडकर विभाव में जाने के लिये उकसाया है । साथ ही उसके हाथों नानाविध गैर काम करवाये हैं । इतना ही नहीं, बल्कि उन गैर-कामों के संबन्ध में उसमें मिथ्या अभिमान की भावना भी कूट-कूट कर भर दी है । जैसे 'यह इमारत मैंने बनवायी है.... सारी दौलत मैंने कमायी है... यह ग्रंथ मैंने तैयार किया है... मेरे ही बलबूते पर सबकी ज़िन्दगी गुलजार है....।' इत्यादि । ___लेकिन परमोपकारी विश्वोद्धारक तीर्थकर भगवंत के कारण आज उसे (जीवात्मा को) बुरे कर्मों की सही परख हो गयी है। उन्होंने हमारी प्रात्मा को चविध संघ के हाथ सौंप दिया है । फलतः जीवात्मा को गुरुदेवों की अपूर्व कृपा से स्वभावदशा-ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय प्रात्मस्वरूप की प्रतीति हो गयी । उसमें रहे असीम प्रानन्द की अनुभूति हुई । परमात्मा तीर्थंकर देवों के द्वारा निर्दिष्ट जगद्-व्यवस्था और रचना समझ में आ गयी । अब भला, वह विभावदशा में किये गये कार्यों को किस दृष्टि से देखेगा ? वर्तमान में भी कई बार उसे विभावदशा के वशीभूत होकर कार्य करने पड़ते हैं । लेकिन यह करने में वह क्या अपना कर्तृत्व समझेगा ? नहीं, कभी नहीं । बल्कि वह हमेशा यह सोचेगा, 'मैं तो अपने शुद्ध गुरणपर्याय का कर्ता हूँ, ना कि परपुद्गल के गुणपर्याय का । उसमें तो मैं सिर्फ निमित्त मात्र हूँ, ज्ञाता और दृष्टा हूँ । परब्रह्मणि मग्नस्य, श्लथा पौद्गलिकी कथा । क्वामी चामीकरोन्मादाः, स्फारा दारादरा: क्व च ॥४॥१२॥ अर्थ : परमात्मस्वरुप में लीन मनुष्य को पुद्गल-संबंधी बात नीरस लगती है, तब भला उसे धन का उन्माद और परम सुन्दरी के मदहोश कर देने वाले आलिंगनादिरुप आकर्षण क्यों होगा ? विवेचनः परम आत्मस्वरूप में लीन जीवात्मा की दशा मायावी संसार के प्राकृत जीवों से-प्राणियों से बिल्कुल अलग होती है। वह प्राय: आत्मा के Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ज्ञानसार अनंत गुण-प्रदेश पर विचरण करने में, उस अदभत/अनोखे प्रदेश के संबंध में सही जानकारी प्राप्त करने में, उसकी अजीबोगरीब दास्तां सुनने और उसके अनादिकाल से चले आ रहे इतिहास को प्रात्मसात् करने में मग्न रहता है । पार्थिव असार संसार में आज तक उसने न देखा हो, न सुना हो और न जाना हो, ऐसा आश्चर्यकारक खेलतमाशा निहारने में निकट से देखने में वह इस कदर खो जाता है कि बाह्य जड पुद्गलों का शोरगुल और कोलाहल उसे आकुल-व्याकुल कर देता है । संगीत के मधुर स्वर और सरोद उसके लिये सिर्फ हर्ष-विषाद का कोलाहल बनकर रह जाता है। नवयौवनाओं के अंग-प्रत्यंग का निखार उसके लिए धधकता ज्वालामुखी बनकर रह जाता है । मनोहारी पुष्प और इत्र आदि की सुगंधित सौरभ में उसे सड़े-गले श्वान-फलेवर की बदबू का आभास होता है । बत्तीस व्यंजनों से युक्त भोज्य-पदार्थ उसके लिये 'रिफाईन' की गयी विष्टा से अधिक कुछ नहीं होते । रूपसुन्दरियों के दिल गुदगुदाने वाले मोहक स्पर्श और जंगली भालू के खुरदरे स्पर्श में उसे कोई अन्तर नज़र नहीं आता। ऐसी जीवात्मा भूलकर भी कभी शब्द, सौन्दर्य, संगीत, रस और गंध की क्या प्रशंसा करेगी ? हर्गिज नहीं करेगी, ना ही कभी सुनेगी । उसके लिए दोनों नीरस जो हैं । । तब भला वह सोने-चांदी के ढेर को देखकर मुग्ध हो जाएगा क्या ? अरे ! सोने-चांदी की चमक तो उसे आकर्षित कर सकती है, जो शब्द, सौंदर्य, संगीत, रस और गन्ध का रसिया हो, लालची और लम्पट हो । ऐसी स्थिति में पूर्ण यौवना नारी को अपने बाहुपाश में लेकर आलिंगन बद्ध करने की चेष्टा करना तो दूर रहा, ऐसी कल्पना करना भी उसके लिए असंभव है। कंचन और कामिनी के प्रति नीरसता/उपेक्षाभाव, यह ब्रह्ममग्न आत्मा का लक्षण है और यही ब्रह्ममस्ती का मूल कारण है। तेजोलेश्या-विवृद्धिर्या साधो: पर्यायवृद्धितः । भाषिता भगवत्यादौ, सेत्थंभूतस्य युज्यते ॥५॥१३॥ अर्थ : 'भगवती सूत्रादि' ग्रन्थों में साधु/श्रमण संबंधित निस तेजोलेश्या की वृद्धि का उल्लेख, मासादि चारित्र-पर्याय की वृद्धि को लेकर किया गया है, वह ऐसे ही स्वनामधन्य ज्ञानमग्न नीवात्मा में संभव है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग्नता २१ विवेचन : ज्ञानमूलक वैराग्य से प्रेरित होकर जो जीवात्मा संसार का त्याग कर साधु-जीवन/श्रमण-जीवन अंगीकार करती है, जिसने ज्ञान-दर्शन चारित्रमय जीवन जीने का संकल्प कर लिया है, उसे उसी समय से, जबसे वह साधु बना है, ज्ञान-दर्शन-चारित्र के क्षेत्र में अपूर्व आनद का अनुभव करने का मौका मीलता है । जब कि दूसरे दिन उसमें और वृद्धि होती है। इस तरह तीसरे दिन, चौथे दिन और एक माह तक उसमें निरन्तर अधिक से अधिकतर वृद्धि होती रहती है। यहाँ तक कि वह प्रायः दैवी सुखों में आकंठ डूबे व्यंतर देव-देवियों की प्रानंद-परिधि को भी लांघकर आगे बढ़ जाता है । ऐसी हालत में, उसका मन मृत्युलोक के गंदे और क्षणभंगुर सुख और समृद्धि की और आकर्षित होने का सवाल ही नहीं उठता । इस तरह दिन-प्रतिदिन ज्ञान-दर्शन-चारित्र में पूर्णता के आनन्द में साधक इतना तो लीन/तल्लीन हो जाता है कि बारह माह अर्थात् एक वर्ष में अनुत्तर देव के सुख भी उसके लिये कोई कीमत नहीं रखते । मतलब, वह पूर्ण रूप से ज्ञान-दर्शन-चारित्र के आनंद में सराबोर हो उठता है । चित्तसुख को तेजोलेश्या कहा जाता है । यही चित्तसुख एक वर्ष के बाद असीम/अमर्यादित बन जाता है । 'श्री भगवती सत्र' में कहा गया है कि आत्मानंद पूर्णानन्द की ऐसी क्रमशः वृद्धि केवल श्रमण ही करने में समर्थ हो सकता है । लेकिन इस तरह की पूर्णानन्द की क्रमशः वृद्धि करने के लिये श्रमण को कैसी साधना करनी पड़ती है, इसका मार्गदर्शन परम आराध्य उपाध्यायजी महाराज ने किया है : ० इन्द्रिय और मन, ज्ञान-दर्शन-चारित्र के विश्रांति गृह में है ? ७ पौद्गलिक विषयों के दर्शन मात्र से अथवा आसक्ति के समय ऐसा अनुभव हुआ जैसे कि विष-पान कर लिया हो ? ७ परभाव संबंधित कर्तृत्व का मिथ्याभिमान नष्ट हुआ ? ० धनधान्यादि संपत्ति का उन्माद और रूपसुन्दरियों के प्रति मोह की भावना खत्म हो गयी ? जो साधक इन चार प्रश्नों का उत्तर 'हाँ' में देता है, यही प्रानंद को क्रमशः वृद्धि करने में पूर्णतया समर्थ है। इन चार बातों को पूरी Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ । ज्ञानसार करने के लिये जीवात्मा को निरन्तर प्रयास करना चाहिए । एक बार तुम्हें सफलता मिल गयी तो समझ लो कि पूर्णानन्द में निरन्तर वृद्धि होते देर नहीं लगेगी। ज्ञानमग्नस्य यच्छर्म, तद्वक्त नैव शक्यते । नोपमेयं प्रियाश्लेषैर्नापि तच्चन्दनद्रवः ॥६॥१४॥ अर्थ : ज्ञान-सरोवर में आकंठ डूबी जीवात्मा को जो अपूर्व सुख और असीम शान्ति मिलती है, उसका वर्णन शब्दों में अथवा लिखकर नहीं किया जा सकता। ठीक इसी तरह उसकी तुलना नारी के आलिंगन से प्राप्त सुख के साथ अथवा चन्दन-विलेपन के साथ नहीं कर सकते । विवेचन : आकाश की भी कोई उपमा हो सकती है क्या ? अथाह समुद्र को भला कोई उपमा दी जा सकती है क्या ? समस्त सृष्टि और समष्टि में जो एकमेव, अद्वितीय है, उसे महाकवि, मनीषी भी कोई उपमा देने में सर्वथा असमर्थ होते हैं । ज्ञान-मग्नता से उपजा सुख भी ऐसा ही एकमेव और अद्वितीय है । यदि तुम यह प्रश्न करो की, "ज्ञान-मग्न जीवात्मा को भला कैसा सुख मिलता है ?" तो इसका हम सही शब्दों में उत्तर नहीं दे सकेंगे, ना ही कोई निश्चित उपमा दे पायेंगे ! - "क्या यह सुख रूपयौवना के मादक आलिंगन से प्राप्त सुख जैसा है ?" "नहीं, कदापि नहीं ।" ----- "क्या यह चन्दन-विलेपन से मिलते सुख जैसा है ?" "वह भी नहीं !" - "तब भला कैसा है ?" उसको समझाने के लिए संसार में कोई उपमा नहीं मिलती ! बल्कि उसे समझाने के लिये, सिवाय उसका खुद अनुभव किये, दूसरा कोई उपाय नहीं है । बाह्य पदार्थों से प्राप्त समस्त सुखों में अद्वितीय, एकदम विलक्षण, जिसका जिंदगी में कभी कहीं कोई अनुभव नहीं किया हो, ऐसे ज्ञान-मग्नता के अपूर्व सुख का यदि एक बार भी स्वाद चख लिया, तब निःसन्देह बार-बार उसका अनुभव करने/'टेस्ट' करने के लिए स्वभाव दशा, गुणसष्टि और आत्मस्वरूप की और दौड़े चले आओगे। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग्नता अनादिकाल से प्राणी मात्र का यह स्वभाव रहा है कि यदि वह एक बार किसी चीज का उपभोग करेगा, स्वाद चखेगा और वह उसे 'अपूर्व रस से भरपूर/तरबतर लग जायेगा तो उसका स्वाद लेने/ उपभोग करने के पीछे पागल बन जाएगा। हालांकि जगत के भौतिक सुख प्राप्त करना जीवात्मा के हाथ की बात नहीं है । वे उसके लिये सर्वथा अप्राप्य सदृश ही हैं । अतः उसको पाने के लिये अधीर/अातुर/ आकुल-व्याकुल होने के उपरान्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है । जबकि ज्ञान मग्नता का सुख अपने हाथ की बात है । जब इसे पाने की इच्छा मन में पैदा हो जाए, तब आसानी से पा सकते हैं । सभी बातों का सार यह है कि ज्ञान-मग्नता का सुख, शाब्दिक वर्णन पढ़कर/सुनकर अनुभव नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिये स्वयं को अनुभव करना पड़ता है । शमशंत्यपुषो यस्य, विषोऽपि महाकथा । कि स्तुमो ज्ञानपीयुषे, तत्र सर्वाङ्गमग्नता? ॥७॥१५॥ अर्थ : ज्ञानामृत के एक बिन्दु की भी उपशमरुपी शीतलता को पुष्ट करने वाली अनेकानेक कथायें मिलती हैं, तब ज्ञानामृत में सर्वांग मग्नता/ न अवस्था की स्तुति भला किन शब्दों में की जाए? विवेचन: केवल एक बूद ! ज्ञान-पीयष की एक बंद ! लेकिन उसके असर की/प्रभाव की न जाने कितनी कथाएँ कहें ! किन शब्दों में उसका वर्णन करें ! एक-एक बंद के पीछे चित्त को/मन को उपशम (इन्द्रिय-निग्रह) रस में सराबोर कर देने वाले अगणित आख्यान और महाकाव्यों की रचना की गयी है । ज्ञानामृत की सिर्फ एक अकेली बूंद में मोह, मान, क्रोध, माया और लोभ के धधकते ज्वालामुखी को शान्त करने की असीम शक्ति निहित है । आहार, भय, मैथुन और परिग्रह को बाढ को वह लोटा सकता है। पाप के प्रलय को मिटा सकती है। सौन्दर्य और यौवन की प्रतिमूर्ति सी नृत्यांगना कोशा की चित्रशाला में निवास कर आर्य स्थूलिभद्र ने कामविजेता बनकर सारे संसार को आश्चर्य चकित कर दिया। भला उसके पीछे कौन सी शक्ति/तत्त्व काम कर रहा था ? सिर्फ ज्ञानामृत की एक बूंद । पूर्णानन्द की एकमात्र Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ज्ञानसार निर्दोष-निष्पाप मदनब्रह्म मुनिराज को पकडकर और गड्डे में फेंक कर क्रूर राजा ने ठंडे कलेजे से उनका शिरच्छेद कर धरती को खून से रंग दिया । लेकिन धीर-गंभीर मुनिराज ने क्रोध पर विजय पाकर आत्मस्वरूप को पूर्णता पाप्त कर ली। उसके पीछे कौन सा परम रहस्य काम कर रहा था ? वही ज्ञानामृत को एक बूद ! पूर्णानन्द की एकमात्र बूद ! • राजसी ऋद्धि-सिद्धियों का त्याग कर राजकूमार से मुनिराज बने ललितांग के आहार पात्र में चार तपस्वी मुनिराजों ने थूक दिया । फिर भी करुणावतार, दयासागर ललितांग मुनि के हृदय-मंदिर में उपशम रस की बांसुरी बजती ही रही । फलतः वे शिवपुरी के स्वामी बने । सोचो, जरा उस उपशम-रसभीनी बांसुरी के मधुर सूर छोडनेवाला कौन था ? वही ज्ञानामृत की एक बूद ! पूर्णानन्द की एकमात्र बंद । . _ ऐसी अगणित आख्यायिकाओं का सर्जन कर ज्ञान-बिंदुओं ने अनादि काल से इस धरती पर उपशमरस का झरना निरन्तर प्रवाहित रखा है और उसमें प्लावित होकर असंख्य आत्मानों ने अपनी संतप्त अन्तरात्माअओं को प्रशान्त किया है । ज्ञानामृत में सर्वाग/संपूर्ण स्नान करने वाले महापुरुषों की स्तुति भला किन शब्दों में की जाए ? यह सब शब्द से परे है । बल्कि इन्हें आँखे मूंदकर अन्तर्मन से देखते ही रहें । सिर्फ देखकर अनुभव करने से विशेष हम कुछ नहीं कर सकते ।। यस्य दृष्टिः कृपावृष्टिगिरः शमसूधाकिरः । तस्मै नमः शुभज्ञानध्यानमग्नाय योगिने ॥८॥१६॥ अर्थ : जिनकी दृष्टि कृपा की दृष्टि है और जिन की वागी उपशम रुपी अमृत का छिड़काव करने वाली है, उन प्रशस्त-ज्ञान ध्यान में सदा सर्वदा लीन रहने वाले महान योगीश्वर को नमस्कार हो। विवेचन: एक नजर देखो तो, उनकी दृष्टि से करुणा की धारा बह रही है ! सिर्फ करुणा....सदैव करुणा! समस्त भूमंडल पर करुणा की वर्षा हो रही है । 'समस्त जीवात्माओं के दुःख दूर हों, सभी जीवों के कर्मक्लेश मिट जाएँ ।' Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग्नता जानते हो यह वर्षा किस बादल में से हो रही है ? यह ज्ञान-ध्यान की मग्नता का बादल है । इसमें से करुणा की अविरत धारा बह रही है । कैसा यह पूर्व बादल और कैसी अनुपम वर्षा ! जो कोई इसमें स्नान करेगा, नहायेगा, क्षणार्ध में उसके तन मन के सारे संताप, क्लेश और दर्द दूर हो जाएंगे। मन का मैल और तन का ताप मिट जाएगा । २५ उनकी वाणी कैसी मधुर, मंजुल और मीठी है ? मानो अमृत ! जो कोई इसका श्रवण-मनन करेगा, उसके क्रोध, मान, माया और लोभ के उन्माद / विक्षिप्तता आनन-फानन में मिट जाएगी और उपशम रस का स्रोत फूट पडेगा । उनकी वाणी से रोष, कोप और मोह का लावारस नहीं बहेगा, ना ही कभी सांसारिक सुखों की लालसा के प्रलाप / बकवास सुनायी देंगे । जब भी सुनोगे, आत्महित की चर्चा ही कानों से टकराएगी और वह भी शहद-सी स्वादिष्ट एकदम मीठी । ऐसे महान धुरंधर योगीराज को हम तन-मन से नमस्कार करें । भक्ति भावपूर्वक उनके चरणों में वन्दन करें । इसके लिये उनके सन्मुख खड़े रहें | उनकी असीम कृपा के पात्र बनें ! उनकी वाणी श्रवण करने के अधिकारी बनें । साधक जीवात्मा को यहाँ पर महत्त्वपूर्ण दो बातों का साक्षात्कार होता है । जैसे-जैसे ज्ञान-ध्यानादि प्रक्रिया में उसकी मग्नता / लीन अवस्था में वृद्धि होती रहती है, उसी अनुपात में उसकी दृष्टि और वारणी में यथोचित परिवर्तन होना परमावश्यक है । करुणा-दृष्टि से विश्व का अवलोकन करना चाहिए और प्राणिमात्र के साथ उपशमरस-भरपूर वाणी से व्यवहार करना चाहिए । इसके लिये जगत के प्राणियों के प्रति जो दोषदृष्टि है, उसके बजाय गुरण दृष्टि का आविष्कार करना आवश्यक है। क्योंकि ज्ञान-ध्यानादि की मग्नता / लीनता में से ही गुरणदृष्टि प्रगट होती है और गुण-दृष्टि के कारण ही समस्त जोवों के साथ के संबन्ध प्रशस्त और मधुर बनते हैं । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. स्थिरता सदैव स्थिर रहो। निरन्तर...सदासर्वदा ! स्थिरता मानव का स्थायी भाव होना चाहिए। - ज्ञानमग्न बनने के लिए मानसिक स्थिरता | मन की स्थिरता होना आवश्यक है । उस में चंचलता, अस्थिरता और विक्षिप्तता के लिए कोई स्थान नहीं है। - "मैं स्थिर नहीं रह सकता"-कहने से कोई लाभ नहीं है। बार-बार यही शिकायत करते रहोगे कि इसका हल खोजना है? शिकायत को दूर करने का कोई मार्ग निकालना है ? यदि हल खोजना है, मार्ग निकालना है तो इस अष्टक में बताये/निर्दिष्ट उपायों का आधार लेना जरुरी है। योजना को कार्यान्वित करना परमावश्यक है। यदि अपने आप में आत्मविश्वास जगाओगे कि 'स्थिर रह सकते हैं', तब स्थिर बनने के उपाय खोज निकालोगे-उसे अमल में लाओगे । स्थिरता के रत्न-दीपक के शीतल प्रकाश में आध्यात्मिक मार्ग का अनुसरण . जारी रखो, पूर्णता की। मंजिल अवश्य मिलेगी और तुम अपने उद्देश्यों में सफल बनोगे । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिरता २७ वत्स ! किं चंचलस्वान्तो भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा विषीदसि ? निषि स्वसन्निधावेव स्थिरता दर्शयिष्यति ॥१॥१७॥ अथ : हे वत्स ! तू चंचल प्रवृत्ति के बन के भटक-भटक कर क्यों विषाद करता है ? तेरे पास रहे हुए निधान को स्थिरता बतायेगी। विवेचन : तुम्हारा तन और मन क्या चंचल बन गया है ? तुम अपने आप में क्या अगणित चिताओं और सोच-विचारों में फंस गये हो ? तब भला क्यों इधर-उधर भटक रहे हो ? गाँव-गाँव और दर-दर क्यों फिर रहे हो ? पर्वत गुफायें और घने जंगलों की नाक क्यों छान रहे हो ? निष्प्रयोजन भटकाव अच्छा नहीं । उससे तुम्हें कौन सा गडा खजाना मिल जाने वाला है ? वह आज तक किसी को मिला नहीं और भविष्य में भी मिलने वाला नहीं है । यह शाश्वत् सत्य है । यदि तुम्हें विश्वास न हो ता तुम्हारे साथ निरन्तर भटकती तुम जैसो अन्य आत्माओं को पूछ देखो ! वे भी तुम्हारी तरह ही संतप्त और प्रशान्त हैं । अपने आप से पूछो कि इस कदर भटकने से कहीं खजाना मिला है सो मिल जाएगा ? और फिर तुम जिसे खजाना समझ बैठे हो, वह खजाना नहीं, असीम सुख और परम शान्ति देने वाली अपूर्व सांपदा नहीं, बल्कि एक छलावा है, मृगजल है ! हम तुम्हें रोक नहीं रहे हैं, साथ ही यह भी नहीं कहते कि तुम खजाने की खोज न करो । उसे पाने के लिए प्रयत्नशील न बनो । अपितु हम यह कहना चाहते हैं कि वहाँ खोजो, जहाँ सचमुच खजाना है । उसके होने की पूरी संभावना है । नाहक चिन्ता न करो, शोक से विह्वल न बनो, हताश न हो । हम तुम्हें खजाना बताते हैं । तुम एकाग्र मन से उसे खोजने का प्रयत्न करो । अधीर और अस्थिर होने से काम नहीं चलेगा, बल्कि पूर्ण मनोयोग से प्रयास करो । खजाना मिलते देर नहीं लगेगी और वह भी ऐसा मिलेगा कि जिससे तुम्हारा तन-मन प्रानन्द से थिरक उठेगा । तुम्हारे सारे संताप और दु:ख क्षरण भर में खत्म हो जाएंगे। फलतः तुम्हें परम शान्ति का अनुभव होगा। और इसके लिए एक ही उपाय है, 'स्थिर बनो'! आत्म-निग्रही बनो ! मतलब, अपने मन में रही पौद्गलिक पदार्थों की स्पृहा को नष्ट करना/बाहर निकाल फेंकना और जीवात्मा के ज्ञानादि गुणों Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ज्ञानसार की तरफ गतिशील होना । बाह्य धन-धान्यादि-संपत्ति और कीति हासिल करने के लिए लगातार दौडधूप करने के बावजूद जीवात्मा के हाथ हताशा, खेद और क्लेश के सिवाय कुछ नहीं पाता । वह प्राकुलव्याकुल और बावरा बन जाता है । मन की व्याकुलता जीवमात्र को ज्ञान में/परब्रह्म में लीन नहीं होने देती। फलत: वह पूर्णानन्द के मेरुशिखर की ओर गतिशील नहीं बन सकता और यदि गतिशील बन भी जाए तो आधे रास्ते में रुक जाता है, ठिठक जाता है, बापिस लौट प्राता है । अतः स्थिर बनना अत्यंत आवश्यक है। यही स्थिरता तुम्हें खजाने की ओर ले जाएगी और दिलाएगी भी ! इसीलिए ज्ञानी पुरुषों का कहना है कि बाह्य पौद्गलिक पदार्थों के पीछे पागल बने मन को रोको । मन के रुकते ही वारणी और काया को रुकते देर नहीं लगेगी। मन को अपने आप में केन्द्रित करने के लिए उसे आत्मा की सर्वोत्तम, अक्षय, अनन्त समृद्धि का दर्शन करायो। ज्ञानदुग्धं विनश्येत, लोभविक्षोभकुर्चकैः ।। अम्लद्रव्यादिवास्थैर्यादिति मत्वा स्थिरो भव ॥२॥१८॥ अर्थ : ज्ञान रुपी दूध अस्थिरता रुपी सट्टे पदार्थ से लोभ के विकारों से बिगड़ जाता है । ऐसा जानकर स्थिर बन । विवेचन : कई सरल प्रकृति के लोग यह कहते पाये जाते हैं कि हम आत्मज्ञान प्राप्त करें और बाह्य पौद्गलिक पदार्थों की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ भी करें । ऐसे पथ-भ्रष्ट सरल चित्त वाले लोगों को परम श्रद्धेय यशोविजयजी महाराज उनके मार्ग में रहे अवरोध, बाधाएँ और बुराईयों के प्रति सजग कर सावधान करते हैं । यदि दूध से छलछलाते बर्तन में खट्टा पदार्थ डाल दिया जाए, तो उसे फटते देर नहीं लगेगी। वह विगड जाएगा और उसका मूल स्वरूप कायम नहीं रहेगा । फलतः उसको पीने वाला नाक-मौं सिकोडेगा । पीने के लिये तैयार नहीं होगा और पी भी जाए, तो उसे किसी प्रकार का संतोष, बल और समाधान नहीं मिलेगा । बल्कि रोग का भोग बन बीमार हो जाएगा, नानाविध व्याधियों का शिकार हो जाएगा । यही दशा ज्ञानामृत से छलछलाते प्रात्मभाजन में पौद्गलिक सुखों की स्पृहा के मिल जाने से होती है। परिणाम यह होता है कि Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिरता २६ वह ज्ञान स्वरूप में न रहकर उसमें विकार की भर पड जाती है और तब वह आत्मोन्नति, अथवा आत्म-विशुद्धि नहीं कर सकता, अपितु अपने क्रिया-कर्मों से आत्मा को विमोहित कर पतन के गहरे गड्ढे में धकेल देता है । बर्तन दूध से भरा हुआ हो और उसमें थोड़ी सी खट्टाई भी मिला दी जाए, तब भी वह बिगड जाता है । मनुष्य के किसी काम का नहीं रहता । जब कि हमारे पास तो दूध कम है और खट्टाई का प्रमाण अधिक है । फिर तो दूध विगडते भला कौन सी देर लगेगी ? ठीक इसी तरह हमारे पास ज्ञान की मात्रा अल्प है और पौद्गलिक सुखों की स्पृहा अधिक है । उसका कोई पारावार नहीं है । तब भला वह ज्ञान, ज्ञानरूप में रह सकता है क्या ? इसीलिये यदि ज्ञानामृत को अपने आत्मज्ञान को सुरक्षित रखना हो, अन्त तक उसे उसके मूल स्वरूप में कायम रखना हो तो निःसन्देह हमें पोद्गलिक आकर्षण / आसक्ति का त्याग करना ही होगा । हमें चंचलता, विक्षिप्तता प्रौर अस्थिरता को तिलांजलि देनी ही होगी। क्योंकि वह खट्टे पदार्थ जैसी घातक, मारक और बाधक है । मथुरा के प्राचार्य मंगु के पास ज्ञानामृत से भरा कुंभ था । लेकिन उसमें रसनेन्द्रिय से तरबतर विषयों की स्पृहा की खट्टाई मिल गयी । परिणामत: उसमें अस्थिरता और चंचलता की भर पड़ गयी । ज्ञान, विष में परिवर्तित हो गया और आचार्यश्री को मोक्ष प्राप्ति के बजाय दुर्गति की राह में भटकना पड़ा । यदि तुम्हें इस मार्ग में नहीं जाना है तो 'स्थिर बनो, दृढ़ बनो ।' अर्थ अस्थिरे हृदये चित्रा, वाङ नेत्राकारगोपना । पुंश्चल्या व कल्याणकारिणी न प्रकीर्तिता ॥ ३ ॥ १६ ॥ : यदि चित्त सर्वत्र भटकता है, तो विचित्र वाणी, नेत्र, प्रकृति और वेषादि का गोपन करने रूप क्रिया [ धर्मक्रियायें ] कुटनी स्त्री की तरह कल्याणकारिणी नहीं कहीं गयी हैं । विवेचन: जिस नारी के मन में पराये पुरुष के लिए प्रेम हो, स्नेहभाव भरा पड़ा हो और ऊपरी तौर पर वह पतिव्रता होने की डींग मारती है, पति-भक्ति प्रदर्शित करती है, दिल को लुभाने वाली बातें करती है Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार और पति-सेवा का मिथ्या प्रदर्शन करती है, उसे कुलटा/छिनाल नारी कहा जाता है । परिणाम स्वरूप उसकी मीठी वाणी, सेवा-भाव और भक्ति, उसका कल्याण नहीं कर सकती, ना ही जीवन सफल बनाती है। ठीक उसी भाँति जब तक जीवात्मा में परपुद्गल बाह्य पदार्थों के प्रति अनन्य आकर्षण और आसक्ति (लगन) विद्यमान है, इहलौकिक और पारलौकिक पौद्गलिक सुखों की स्पृहा है, तब तक वह (मनुष्य) तन-मन से कितनी भी धर्मक्रियायें क्यों न करे, वे क्रियायें उसे कतई लाभ नहीं पहुंचाती, उसका कल्याण नहीं करतीं । मन में सांसारिक विषयों को लालसा वासना) और आचरण में धर्म है, ऐसा मनुष्य कुलटा नारी के समान ही है । वह नानाविध धार्मिक क्रियाओं के माध्यम से हमेशा अपनी पौद्गलिक सुखों की अभिलाषा पूरी करने की आशा रखता है । फलतः उसकी मौनावस्था अथवा काया का योग-ध्यानादि सब कुछ आत्मविशुद्धि को सहज-सुलभ बनाने के बजाय अवरोध ही पैदा करता है। उसकी मानसिक अशान्ति, संताप और क्लेशों में निरन्तर वृद्धि होती रहती है । हम परमात्मा को पूजा-अची करते हैं, प्रतिक्रमण-सामायिकादि अनुष्ठान करते हैं, नियमित रूप से तप-जप करते हैं, धर्मध्यान करते हैं; फिर भी हमें मानसिक शान्ति क्यों नहीं मिलती? हमारी अशान्ति दूर क्यों नहीं होती ?" ऐसे असंख्य प्रश्न, धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति में और लोगों में आम चर्चा के विषय बने हुए हैं। इसका मूल कारण यह है कि हृदय पौद्गलिक सुखों के पीछे पागल हो गया है । अस्थिर, चंचल और विक्षिप्त बन गया है। हम धर्माचरण अवश्य करना चाहते हैं, लेकिन हमारी पौद्गलिक सुखों की लालसा/आसक्ति कम करना नहीं चाहते । ऐसी विषम परिस्थिति में हमारी धर्मक्रियायें भला कल्याणकारी कैसे बन सकती हैं ? किस तरह शुभ और शुद्ध अध्यवसाय पैदा कर सकती है ? अर्थात् यह सब असंभव....एकदम असंभव है। ___ याद रखो, जब तक हमारा मन विभावदशा में अनुरक्त रहेगा, तब तक उत्तमोत्तम धर्मक्रियाओं के माध्यम से भी आत्मकल्याण/ आत्मसिद्धि होना सर्वथा मुश्किल है । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिरता अन्तगतं महाशल्यमस्थयं यदि नोख तम । क्रियौषधस्य को दोषस्तदा गुणमयच्छतः ॥४॥२०॥ अर्थ : यदि मन में रही महाशल्य रुपी अस्थिरता दूर नहीं की है, [उसे जड़मूल से उखाड़ नहीं फेंका है] तो फिर गुण नहीं करने वाली क्रियारूप औषधि का क्या दोष ? विवेचन : यह तथ्य किसी से छिपा हुआ नहीं है कि जब तक हमारे पेट में मल जम गया है, तब तक देवलोक से साक्षात् धन्वंतरी भी उतर कर क्यों न आ जाए, ज्वर उतरने का नाम नहीं लेगा। इसमें भला वैद्य की दवा का क्या दोष है ? क्योंकि पेट में जमे हुए मल को जब तक साफ नहीं करेंगे, तब तक दवा अपना काम नहीं कर पाएगी। जिनेश्वर देव द्वारा प्रतिपादित श्रावकधर्म और साधुधर्म की अनेकविध क्रियायें अनमोल प्रौषधियाँ हैं । इनके सेवन से असंख्य प्रात्मानों ने सर्वोत्तम आरोग्य और मानसिक स्वस्थता प्राप्त की है। लेकिन जिन्होंने इसे (आरोग्य-आत्म विशुद्धि) प्राप्त किया है, वे सब सांसारिक, भौतिक, पौद्गलिक सुखों की स्पृहा को पहले ही तिलांजलि दे चुके थे। तभी वे आत्मविशुद्धि और अक्षय आरोग्य के धनी बने थे । पौद्गलिक सुखों की स्पृहा, अनादिकाल से आत्मा में जमा मल है । यह निरन्तर चुभने वाला शल्य नहीं तो और क्या है ? तब सहसा एक प्रश्न मन में कौंध उठता है : "वीतराग देव द्वारा प्रतिपादित धर्मक्रिया रुपी औषधि, क्या पौद्गलिक सुखों की स्पृहा को नष्ट नहीं कर सकती ?" __ अवश्य कर सकती है। एक बार नहीं, सौ बार नष्ट कर सकती है । लेकिन यह तभी संभव है, जब जीवात्मा का अपना दृढ़ संकल्प हो कि 'मुझे पौद्गलिक सुखों की स्पृहा का नाश करना है।' ऐसी स्थिति में जो धर्मक्रिया की जाए, वह भी सिर्फ वाणी और काया से नहीं, बल्कि अन्तर्मन से की जानी चाहिए । तब पौद्गलिक सूखों की स्पृहा अवश्य दूर होगी और क्रियारुपी औषधि प्रात्मग्रारोग्य के संवर्धन में गति प्रदान करेगी । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ज्ञानसार इस तरह एक अोर धर्मक्रियाओं को अंजाम देने के साथ-साथ इस बात की भी पूरी सावधानी बरतनी होगी कि 'मेरी बाह्य पौद्गलिक सुखों की स्पृहा में क्या प्राणातीत कमी हुई है ?' साथ ही पूरा ध्यान रखा जाए कि इस कालावधि में बाह्य सुखों का खयाल तक मन में उठने न पाए । वर्ना 'नमाज पढ़ते, रोजे गले पडे !' वाली कहावत चरितार्थ होते देर नहीं लगेगी । एक तरफ मल नष्ट करने की औषधि का सेवन और उसमें वृद्धि करने बालो पौषधि का सेवन ! फिर तो जो होना होगा, सो होकर ही रहेगा । लेकिन इससे बड़ी मूर्खता और कौन सी हो सकती है ? अपने मन को स्थिर किये बिना अथवा करने की इच्छा नहीं रखने के उपरान्त सिर्फ धर्मक्रिया करते रहने से अगर अात्मसुख का लाभ न मिले तो इसमें क्रिया का दोष मत निकालो। यदि दोष निकालना है तो अपनी वैषयिक सुखों की अनन्त लालसाओं का, स्पृहा का और अपनी मानसिक अस्थिरता का निकालें । स्थिरता वाङमन:कार्ययंषामनागितां गता । योगिनः समशीलास्ते ग्रामेऽरण्ये दिवा निशि ॥५:२१।। जिस महापुरूष को स्थिरता, वाणी, मन एवं काया से एकात्मभाव को प्राप्त हुई है, ऐसे महायोगी ग्राम, नगर और अरण्य में, रात-दिन सम स्वभाव वाले होते हैं । विवेचन : जो व्यक्ति मनोहर नगर में निवास करते हों अथवा घने जंगल में, साथ ही जिन्हें नगर के प्रति प्रासक्ति-लगन नहीं और अरण्य के प्रति उद्वेग/अरुचि नहीं, उन्हें आंखों को चकाचौंध करनेवाला दिन का प्रकाश हो अथवा अमावस की गहरी अंधियारी रात हो, वे सदासर्वदा ऐसी दशा में निलिप्त भाव से युक्त होते हैं । दिन का उजाला उन्हें हर्षविह्वल करने में असमर्थ होता है और रात का अन्धकार शोकातुर बनाने में ! कारण उनके वारणी-व्यवहार और तन-मन में स्थिरता समरस जो हो गयी है। उनके मन में अात्मस्वरूप की.... पूर्णानन्द की... ज्ञानामृत की रमणता, वाणी में पूर्णानन्द की सरिता और काया में पूर्णानन्द की प्रभा प्रगट होती है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिरता बाह्य जगत से संबन्धविच्छेद किये बिना और प्रान्तर जगत के साथ, अन्तर्मन से संबंध जोडे बिना मन, वचन और काया में स्थिरता का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। जो मनुष्य अपने परिवार में ही खोया रहता है, संबन्ध बढाता है और स्नेहभाव का आदान-प्रदान करता है, उसे परिवार में से हो प्रेम, सुख, स्नेह और आनन्द की प्राप्ति होती है । उसे सुख-शान्ति और आनन्द की खोज हेतु बाहरी जगत में दूसरे लोगों के पीछे भटकना नहीं पड़ता । अपनी खुशी-नाखुशी के लिए उसे दूसरों की कृपा/मेहरबानी पर अबलंबित नहीं रहना पडता । फलत: उसे बाह्य जगत की तनिक भी परवाह नहीं होती। मालवनरेश मदनवर्मा एक ऐसा ही व्यक्ति था, जिसे बाह्य जगत की कोई परवाह नहीं थी। वह अपने अन्त:पुर में ही प्राप्त ऋद्धि-सिद्धियों में पूर्ण रूप से खो गया था, एक रूप हो गया था । उसने किसी से युद्ध नहीं किया और ना ही किसी के साथ लडाई ! इसी तरह काकंदी के धन्यकुमार ने बत्तीस करोड़ सुवर्ण मुद्रा और बत्तीस नव यौवनाओं का मोह त्याग कर आन्तर जगत से नाता जोडा और स्व-आत्मस्वरूप में लीन होकर स्वर्गीय सुख प्राप्त किया। उनका तन-मन और वाणी-व्यवहार पूर्णानन्द में सराबोर हो गया । रूखा-सूखा आहार और वैभारगिरि के निर्जन वन का उन पर तिल मात्र भी असर नहीं हुआ । स्थिरता के कारण उन्होंने अक्षय सुख, असीम शान्ति और अपूर्व आनंद का खजाना सहजता से पा लिया । तब भला उन्हें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से झगडने की, लडाई मोल लेने की जरूरत ही क्या थी ? धन्य है ऐसे त्यागी साधु-श्रमणों को। स्थैर्यरत्नप्रदीपश्चेद् दीप्रः संकल्पदीपजैः । तद्विकल्परलं धूमैरलं धूमैस्तथाऽऽधवैः ॥६॥२२॥ अर्थ : यदि स्थिरता रूपी रसदीर सदा-सर्वदा देदीप्यमान हो तो भला संकल्प रूपी दीपशिखा से उत्पन्न विकल्प के धूम्रवलय का क्या काम ? ठीक वैसे ही अत्यन्त मलीन ऐसे प्रागातिपातादिक आश्रवों की भी क्या जरूरत है ? विवेचन : "मैं धनवान बनू । ऋद्धि-सिद्धियाँ मेरे पाँव छए....!' यह है संकल्प दीप ! मिट्टी का दीया ! मिट्टी से बना हुप्रा ! Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ज्ञानसार और नानाविध विचारव्यापार से पैदा हुए : "अमुक मार्केट / बाजार में जाऊं, आलीशान दुकान बनाऊं, धूम-धडल्ले से व्यापार करूँ ! किसी बड़े प्रभावशाली धनी व्यक्ति को व्यापार में साझेदार बनाऊं ! अक्लमंदी और चातुर्य से व्यापार करूँ ! ढेर सारी संपत्ति बटोर लुँ । भव्य बंगला और अट्टालिका बना लूँ ! एम्पाला कार खरीद लूँ और दुनिया में इठलाता फिरु !" आदि हैं विकल्प के धूम्रवलय ! संकल्प दीप में से प्रायः विकल्प का धुआँ फैलता ही रहता है । जब कि संकल्प-दीप की ज्योति क्षणभंगुर है । वह प्रज्वलित होता है और बुझ भी जाता है । लेकिन पीछे छोड़ जाता है धुएँ की पर्ते ! एक नहीं अनेक ! श्रौर उससे मनगृह मटमैला, धुमिल बन जाता है । धनी बनने की एक भावना अपने पीछे हिंसादि अनेकानेक प्राश्रवों के विचारों की कतार लगा देती है । लेकिन इससे भला क्या लाभ ? सिवाय थकावट, क्लेश, खेद और अनदिखे आन्तरिक दर्दों की परंपरा, नीरा कर्मबन्धन ! धनिकता की भावना पैदा होती है और पानी के बुलबुले की तरह क्षणार्ध में लुप्त हो जाती है । लेकिन मनुष्य इसके व्यामोह में पागल बन नानाविध विकल्पों की भखना कर अपने मन को आर्तध्यान, रौद्रध्यान में पिरोकर विगाड देता है और उसी तरह विकल्पों के धुएँ में बुरी तरह फँसकर घुटन अनुभव करने लगता है, बबरा उठता है और परिणाम यह होता है कि हिंसादि आश्रवों का सेवन कर अन्त में मृत्यु का शिकार बन, दुर्गति को पाता है । धनी बनने की तीव्र लालसा की तरह कीर्ति की लालसा पैदा होना भी भयंकर बात है । " मैं मंत्री बनुं अथवा राष्ट्र का गरिमामय सर्वोच्च पद मुझे मिल जाए ! " संकल्प जगते ही विकल्पों की फौज बिना कहे पीछे पड़ जाएगी । विकल्प भी कैसे... कैसे ?' 'चुनाव लडु, पैसों का पानी करु.... अन्य दल के उम्मीदवार को पराजित करने के लिए विविध दाँवपेंच लडाने की योजना बनाऊँ....' आदि विकल्पों की पूर्ति हेतु हिंसा, असत्यादि आश्रवों/पापों का आधार लेते जरा भी नहीं हिचकिचाता । लेकिन यह सब करने के बावजूद भी वह मंत्री अथवा सर्वोच्चपद पर आसीन हो ही जाता है, सो बात नहीं । बल्कि पागल अवश्य बन जाता है ! नानाविध पापों का भाजन जरूर हो जाता है । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिरता जबकि स्थिरता वह रत्नदीप है। जहाँ धुम्रवलय का कहीं नामोनिशान तक नहीं है । 'मैं सदैव अपने आत्मगुरणों में तल्लीन रहँ....!' निमग्न रहुँ....!' यह भावना है रत्नदीप ! ____'अतः इसके लिये मैं पर पदार्थों की आसक्ति से कोसों दूर रहुँ । बाह्य जगत को देखना, सुनना और भोगना.... जैसी क्रियाओं को पूरी तरह से त्याग दूं। देव, गुरु और धर्माचरण में अपने आप को लीन कर दूँ । तन-मन से धर्मश्रवण और धर्मोपासना में खो जाऊँ....।' यह रत्नदीप की प्रखर ज्योति है । इससे मनोमंदिर देदीप्यमान हो उठता है और विकल्प-प्राश्रवादि का अंधियारा छिन्न-भिन्न हो जाता है । उदीरयिष्यसि स्वान्तावस्थेयं पवनं यदि । समाधधर्ममेघस्य घटा विधटयिष्यसि ॥७॥२३॥ अर्थ : यदि अंतःकरण से अस्थिरता रूपी अांधी पैदा करोगे, तो निःसदेह धर्म मेष-समाधि की श्रेणी को बिखेर दोगे । विवेचन : जिस तरह सनसनाती हवा के झोंके और आकाश में उठी भयंकर अांधी मेघघटाओं को छिन्न-भिन्न कर देती है, बिखेर देती है, ठीक उसी तरह मानसिक अस्थिरता/चंचलता भी समाधि-रूपी धर्ममेघ की घटाओं को बिखेर देती है । प्रकट होनेवाले केवलज्ञान को तितर-बितर कर देती है। 'धर्ममेघ' समाधि (योग) प्रात्मा की ऐसी श्रेष्ठ-सर्वोच्च दशा-अवस्था को कहा जाता है, जहाँ चित्त की सभी भावनाएँ, वत्तियाँ शान्त बन जाती हैं । तब वहाँ किसी शुभ विचार अथवा अशुभ विचार के लिए कोई स्थान नहीं होता । साथ ही ऐसी कोई चंचलता और अस्थिरता पैदा ही नहीं होती कि जिसके कारण केवलज्ञान प्रकट न हो सके । यह तो तुम भली भांति जानते ही हो कि मन के पौद्गलिक पदार्थों में फंसने मात्र से ही प्रात्मस्वरूप संबंधित शुभ विचार पैदा होने से रहे ! दान, शील, परमार्थ, परोपकारादि आत्मकल्याणकारक शुभ विचार भी टिक नहीं सकते । इससे एक कदम आगे चलकर यदि हम यह विधान करें तो अतिशयोक्ति न होगी कि, 'जहाँ कोई शुभ विचार काम कर रहा हो, वहाँ पौद्गलिक सुख की स्पृहा अगर बीच में आ जाए तो सब कुछ मटियामेट हो जाता है। जीवात्मा का पतन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार होते देर नहीं लगेगी । इस जगत में जो भी शुभ विचार एवं शुद्ध आचरण से च्युत हुआ है, उसके पीछे इसी पौद्गलिक सुख की स्पृहा से पैदा हुई अस्थिरता का ही हाथ रहा है। इसके मूल में पौद्गलिक सुखों की स्पृहा ही रही है। एक समय की बात है । युवक मुनि अरणिक पाहार-ग्रहण हेतु बाहर निकले । मध्याह्न का सूर्य तप रहा था । मारे गर्मी के लोगबाग व्याकुल हो रहे थे । युवक मुनि भी प्रखर ताप से बच नहीं पाये । उनका मन उद्विग्न और उदास था । तभी सामने रही प्रशस्त अट्टालिका के गवाक्ष में खड़ी षोडशी पर उनकी नजर पड़ी । युवती की बाँकी चितवन और दृष्टिक्षेप से वे घायल हो गये । उनके संयम जीवन में विक्षेप पड़ गया । वर्षों की साधना खाक में मिल गयी । संयम-साधना को शुभ विचारमाला छिन्न-भिन्न हो गयी । अस्थिरता ने अपना रंग दिखाया । पुडरिक नरेश की पौषधशाला में औषधोपचार हेतु ठहरे कंडरिक मुनि के चित्त प्रदेश पर विषयवासना की प्रांधी क्या उठी ? उनका त्यागी जीवन रसातल में चला गया । शिवपुरी का साधक दुर्गति के द्वार पर भिक्षुक बन भटक गया । ___क्या तुम्हें ऐसा अनुभव नहीं हुआ अब तक ? परमपिता परमात्मा की आराधना में तुम आकंठ डूबे हुए हो? तुम्हारा तन-मन और रोमरोम प्रभुभक्ति में अोतप्रोत हो उठा हो, वहीं किसी नवयौवना नारी पर अचानक तुम्हारी नज़र पड जाए.... वह तुम्हारे रोम-रोम में बस जाए...। तब क्या होता है ? अस्थिरता का उद्गम और प्रभु-भक्ति में बिक्षेप ! रंग में भग ! शुभविचारधारा चूर्ण-विचूर्ण ! चारित्रं स्थिरतारुपमत: सिद्धष्वपीध्यते ॥ • यतन्तां यतयोऽवश्यमस्या एव प्रसिद्धये ॥८॥२४॥ अर्थ : योग की स्थिरता ही चारित्र है और इसी हेतु से सिद्धि के बारे में भी कहा गया है। अतः हे यतिजनों, योगियों ! इसी स्थिरता की परिपूर्ण सिद्धि के लिये समुचित प्रयत्न करें। [ सदा प्रयत्नशील रहें] विवेचन : अख्य आत्मप्रदेशों की स्थिरता....सूक्ष्म स्पन्दन भी नहीं....! मही सिद्ध भगवंतों का चारित्र है । सिद्धों में क्रियात्मक चारित्र का Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थिरता ३७ पूर्णतया अभाव होता है । क्योंकि क्रियात्मक चारित्र में आत्मप्रदेश अस्थिर होते हैं । जब कि सिद्ध भगवंतों का एक भी प्रात्मप्रदेश अस्थिर नहीं, अपितु पूर्ण रूप से स्थिर होता है । जिस आत्मा का अन्तिम लक्ष्य 'सिद्ध' बनना है, उसे अपनी समग्र साधना का केन्द्रस्थान 'स्थिरता' को, 'स्थिर वृत्ति' को ही बनाना होगा। उसकी पूर्व तयारी के लिए तीन योगों को स्थिर करने का भरसक प्रयास करना पडेगा । उसमें भी सर्व प्रथम काया, वाणी और मन को पाप-प्रवृत्तियों से मुक्त कर और उसकी अस्थिरता को दूर कर उन्हें पुण्य प्रवत्तियों की ओर गतिशील बनाना होगा। अलबत्ता, पुण्यप्रवृत्ति में भी स्वाभाविक आत्मस्वरूप की रमणता रूपी स्थिरता का अभाव ही है । यहाँ भी इसे पाने के लिये काया के माध्यम से, पुण्यकर्मोपार्जन करने के लिये दौडधूप, वारणी के माध्यम से उपदेशदान और मन से पुण्यप्रवृत्तियों के मनोरथ और योजनायें जारी रखनी पड़ती हैं। इसके बावजूद भी आत्मप्रदेश सदा अस्थिर होते हैं । फिर भी यह सब अनिवार्य है । पापक्रियाओं से मुक्ति पाने हेतु पुण्यक्रियायें आवश्यक हैं । 'पुण्यप्रवृत्ति में भी अस्थिरता का भाव कायम है, बाह्य भाव का समावेश है । अतः वह त्याज्य है।' यदि इस विचार को मन में बनाये रखोगे तो अनादि काल से पापप्रवृत्ति में सराबोर बनी आत्मा क्या चुटकी बजाते ही पापप्रवृत्ति को त्याग देगी ? क्या वह आत्मस्वरूप की रमणता में अहर्निशे खो जाएगी ? उससे तादात्म्य साध लेगी ? इसका परिणाम कल्पना से विपरीत ही यह पाएगा कि 'पुण्य प्रवृत्ति में भी अस्थिरता है।' अतः वह पुण्यप्रवृत्ति से मुंह मोड लेगा । दुबारा उसकी ओर भूलकर भी नहीं देखेगा और सिर्फ पापप्रवृत्तियों में आकंठ डूब जाएगा! ___अतः साधक को चाहिए कि वह पाप-प्रवृत्तियों से मुक्त होकर अपने मन को सदा पुण्य-प्रवृत्तियों में पिरोये रख, विशुद्ध आत्मस्वरूप में रमणता रुपो स्थिरता को अपना अंतिम ध्येय-बिन्दु मानकर अपना जीवन व्यतीत करें। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. अमोह तन और मन स्थिर बन, आत्मभाव में पूर्णरूप से लयलीन बन गये तो समझ लो मोह का नाश...मोह की मृत्यु निःसंदिग्ध है। __मन-वचन और काया को स्थिरता में से अ-मोह (निर्मोही-वृत्ति) सहज पैदा होता है ! अतः मोह के मायावी आक्रमणों की तिलमात्र भी चिता न करो ! प्रस्तुत अष्टक में से तुम्हें निर्मोही बनने का अद्भुत उपाय मिलेगा और तुम्हारी प्रसन्नता की अवधि न रहेगी। तुम्हारा दिल मारे खुशी के बाग-बाग हो उठेगा। इसमें तुम्हें अमूढ बन, सिर्फ ज्ञाता और द्रष्टा बनकर, जिदगी बसर करने का, अपूर्व आनंद प्राप्त करने का एक नया अद्भुत मार्ग दिखायी देगा ! Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोह अहं-ममेति मन्त्रोऽयं मोहस्थ जगदाध्यकृत् । अयमेव ही नपूर्वः प्रतिमन्त्रोऽपि मोह जित् ॥१॥२५॥ अर्थ : मोह राजा का मूलमंत्र हैं : मैं और मेरा। जो सारे जगत को अन्धा अज्ञानी बनानेवाला है । जब कि इसका प्रतिरोधक मंत्र भी है, जो मोह पर विजय हासिल करानेवाला है ! विवेचन : जो अंधा है, उसे पथभ्रष्ट होते-भटकते देर नहीं लगती । उसमें जो बाह्यरूपसे अंधा है वह अभ्यास के बल पर प्रयत्न करने पर सीधी राह चलता है, बिना किसी रोक-टोक के गन्तव्य-स्थान पर पहुंच जाता है। लेकिन जिस के प्रान्तर-चक्षों पर अंधेपन की पत जम गयी हैं, वह लाख कोशिश के बावजूद भी सन्मार्ग पर चल नहीं सकता ! जैसे सांप हमेशा टेढ़ा-मेढ़ा ही चलता है । सीधा चलना उसके स्वभाव में ही नहीं होता। ___ जीवात्मा के प्रान्तर-चक्षु यों ही बंद नहीं हैं, बल्कि उस पर मंत्र प्रयोग किया हुआ है । प्रात्मा स्वयं अपने पर ही इसप्रकार का मंत्र प्रयोग करता है, जो उसे मोहदेवता से विरासत में मिला हुआ है। मंत्रदान करते समय मोहदेवता ने उसे भली-भांति समझा दिया है कि : 'जब तक तुम इस मंत्र का प्रयोग करते रहोगे तब तक निर्वाध रुप से स्वर्गसुख का आनन्द लूटते रहोगे ! नानाविध रिद्धि-सिद्धियां तुम्हारे कदमों में आलोडन करती रहेंगी।' और बाह्य पौद्गलिक सुख सुविधाओं के लालची जीव को यह बात भा गयी, अंतर की गहराइयों में उतर गयी ! फलतः उसने अविलम्ब मंत्र को ग्रहण कर लिया : 'अहं-मम' ! और आज वह वन-नगर, घर-बाहर, मस्जिद-मंदिर, दूकानउपाश्रय-सर्वत्र इसी महामंत्र का जाप करता भटक रहा है। आज से नहीं अनादि काल से भटक रहा है। मोह के कारण उसकी दिव्यदृष्टि के द्वार बिल्कुल बंध हैं। वह मोक्ष-मार्ग देख नहीं पाता । इसी तरह भटकता हुमा वह चारित्ररूपी महाराजा के द्वार पहुँच जाता है । विनीत भावसे उनकी शरण ग्रहण कर अपने तन-मन के कष्ट, दुःख दूर करने का अनुनय करता है। "यदि तुम्हें अपने तन-मन के समस्त दुःख, यातनाओं से मुक्ति पानी हो तो एक काम करना होगा !" - भुप्र"कहिए !" Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह द्वारा प्रदत्त मंत्र 'अहं मम' - मैं और मेरा को सदा के लिए तजना होगा, भूला देना पड़ेगा । ज्ञानसार "लेकिन यह भला कैसे संभव है ? अनादि काल से अहर्निश मैं इस मंत्र का जाप करता आया हूँ, वह मेरे रोम-रोम में समाया हुआ है । इसे भूलना मेरे बलबूते की बात नहीं है । लाख चाहने पर भी मैं भूल नहीं सकता ।" "कोई बात नहीं । लो यह दूसरा मंत्र । आज से हमेशा इस का जाप करते रहो " । और चारित्र - महाराज ने उसे दूसरा मंत्र दिया : " नाहं न मम ( मैं नहीं.... मेरा नहीं ) 'शुद्धात्मद्रव्यमेवाहं' 'शुद्धज्ञानं' गुणो मम' | अर्थ : 'नान्योऽहं न ममान्ये' चेत्यहो मोहास्त्रमुल्बणम् ||२||२६|| मोह का हनन करनेवाला एक ही अमोध शस्त्र है और वह है : 'मैं शुद्ध आत्म- द्रव्य हूं । केवलज्ञान मेरा स्थायी गुरण है । मैं उससे अलग नहीं और अन्य पदार्थ मेरे नहीं हैं ।' ऐसा चिंतन करना । विवेचन : "मैं धनवान नहीं, सौन्दर्यवान नहीं, पिता नहीं, माता नहीं, मनुष्य नहीं, गुरू नहीं, लघु नहीं, शरीरी नहीं, शक्तिशाली नहीं, सत्ताधारी नहीं, वकील नहीं, डॉक्टर नहीं, अभिनेता नहीं ! तो फिर मैं कोन हूँ ? ' मै सिर्फ एक शुद्ध आत्मद्रव्य हूं ।' संसारके धन-धान्यादि मेरे नहीं, माता-पिता मेरे नहीं, पुत्र-पुत्रियाँ मेरे नहीं, सत्ता मेरी नही, शक्ति मेरी नहीं, स्वजन मेरे नहीं, रिद्धि-सिद्धियाँ मेरी नहीं ।' तो फिर मेरा क्या है ! 'शुद्ध ज्ञान केवलज्ञान मेरा है । में उससे अलग नहीं, बल्कि सभी दृष्टि से अभिन्न हूं ।' यह भावना / विचार मोहपाश को छिन्न-भिन्न करने वाला अमोघ शस्त्र है, अणुबम है । मतलब यह है, कि शुद्ध आत्म-द्रव्य का प्रीतिभाव, आत्म-द्रव्य से अलग पुद्गलास्तिकाय के प्रीतिभाव को तहस-नहस करने में सर्वशक्तिमान है | सभी तरह से समर्थ है। जीवन का उद्देश्य होना चाहिए आत्म-तत्त्व से प्रेम करना और पुद्गल तत्त्व से कोसों दूर रहना । इसका परिणाम यह होगा कि जीबात्मा में जैसे-जैसे श्रात्म-तत्त्व का प्रीतिभाव बढता जायेगा उस अनुपात से पुद्गल प्रीति के बंधन टूटते Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ अमोह जायेंगे । लेकिन उस बात की पूरी तरह से सावधानी बरतनी होगी कि प्रात्म-तत्त्व से प्रेमभाव बढाते हुए कहीं पुद्गल अथवा उसके गुण के प्रति हमारे मन में प्रीति को भावना रुढ न हो जाएं ! हमें आत्मद्रव्य के साथ प्रेम करना है। अत: सबसे पहले हमारा ध्यान शुद्ध आत्म-द्रव्य पर ही केन्द्रित करना होगा। इस के लिए हमें 'मै शुद्ध आत्म-द्रव्य हूं,' की भावना से तरबतर होकर परपर्यायों में निहित 'अहंमैं' के भाव को सदा के लिए मिटा देना होगा। साथ ही शरीर के अंग-उपांग के रुप-रंग से आकर्षित हो मंत्रमुग्ध होने की वृत्ति को हमेशा के लिए तिलांजलि देनी होगी। मोह को पराजित करने के लिए परमाराध्य उपाध्यायजी महाराज हमें शस्त्र और मंत्र-दो शक्तियां प्रदान कर रहे हैं। हमें इन दोनों महास्यक्तियों को ग्रहण कर मोह पर टूट पडना है, आक्रमण करना है। उसके साथ युद्ध के लिए सजग, सन्नद्ध होना है। और जब युद्ध ही करना है तो शत्रु के वार भी झेलने होंगे । बल्कि उनके प्रहारों का, आघातों का डटकर सामना करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में शरणामतिके लिए कोई स्थान नहीं । उसका एक प्रहार तो हमारे दस प्रहार ! युद्ध में एक ही संकल्प हो, भावना हो : 'अन्तिम विजय हमारा है।' ____ मनुष्य की जिंदगी ही युद्ध का मेदान है । इस में कई नरवीर युद्ध खेलकर मोहविजेता बने हैं । तब भला, हम क्यों न बनेंगे ? जब कि हमारे पास तो पूज्य-उपाध्यायजी द्वारा प्रसादम्प मिले शस्त्र और मंत्र जैसे दो वरदान हैं । यो न मुह्यति लग्नेषु भावेष्वौदयिकादिषु । प्राकाशमिव पङ्कन, नाऽसौ पापेन लिप्यते ॥३॥२७॥ प्रर्थ : जो जीव लगे हुए प्रौदायिकादि भावों में मोहमढ नहीं होता है वह जीव जिस तरह कीचड़ से आकाश पोता नहीं जा सकता, ठीक वैसे ही वह पापों से लिप्त नही होता है । विवेचन : मोह की माया का कोई पार नहीं है । जिसे मोह के साथ युद्ध में उतरना है उसे उस की मायाजाल से भी बचकर रहना होगा। जो उस के मायाजाल को पूरी तरह समझ गया है, जान गया है, वह भूलकर भी उस में नहीं फंसेगा । शत्रु की मायाजाल एकवार समझ लेने पर भला, उसके प्रति मोह कैसा ? मोहित होने का सवाल ही कहां पैदा होता है ? Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार मोहराजा ने औदायिकभाव की मायाजाल समस्त विश्व पर सावधानी के साथ फैला दी है। अज्ञान, असंयम, प्रसिद्धता, छह लेश्याएँ, चार कषाय, तीन वेद, चार गति और मिथ्यात्व, इत्यादि औदयिक भाव के इक्कीस प्रधान अंग हैं। इस तरह क्षायोपशमिक-भाव के सभी अंग जोवात्मा को फंदे में डालने वाले, वशीभूत करने वाले नहीं हैं। लेकिन यदि वह अपने आप में अचेत बेसुध रहे तो वहां भी उसके लिए फंदा तैयार ही है ! अत: दान, लाभ, भोगोपभोग, वीर्य की लब्धियाँ, मतिअज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंगज्ञानादि में बंधते देर नहीं लगती, वह क्षणार्ध में फंस जाता है । जो आत्मा अशुभ-भाव के बंधन के वशीभूत नहीं होता, मोहराजा उसे अशुभ-भाव में फंसाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, देशविरति, सर्वविरति, उपशम-समकित, चारित्रादि में गतिशील होने के उपरांत भी यदि जीवात्मा ने प्रासक्ति की, राग-द्वेष किया तो समझिए मोह-जाल उसका शिकार करके ही रहेगी ! उस जाल को छिन्न-भिन्न, नेस्तनाबूद करने के लिए सूक्ष्म मति और युद्ध-कौशल्य की पूर्णरुप से आवश्यकता है। तभी उस का सर्वष्टि से उच्चाटन हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मोहराजा भले अनेकविध बाह्यअभ्यन्तर आकर्षण पैदा करे, अपनी जाल फैलाये, जीवात्मा को उसको वशीभूत नहीं होना चाहिए, बल्कि उससे दूर रहना चाहिए। तब मोह का कुछ नहीं चलेगा । बार-बार प्रयत्न कर हार जायेगा। जिस तरह कोई व्यक्ति आकाश को मलिन करने के लिये कीचड उछाले तो आकाश मलोन नहीं होता, ठीक उसी तरह मोह द्वारा उछाले गये कीचड से आत्मा मलोन नहीं होगी, ना ही पाप को अधीन बनेगी ! कहा गया है कि अराग-अद्वेष के कवच को मोह के तीक्ष्ण तीर भी भेदने में पूर्णतया असमर्थ हैं ! पश्यन्नेव परद्रव्य-नाटकं प्रतिपाटकम् । भवचक्रपुरस्थोऽपि, नाऽमूढः परिखिधते ॥४॥२८॥ अर्थ : अनादि अनंत कर्म-परिणामरुप राजा की राजधानी-स्वरुप भवचक्र • नामक नगर में वास करते हुए भी एकेन्द्रियादि नगर की गली-गली में नित्य खेले जानेवाले परद्रव्य के जन्म-जरा और मृत्युरूपी नाटक को देखती हुई मोहविमुक्त प्रात्मा दुःली नहीं होती ! Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममोह विवेचन : मोहराजा ने भव-नगर की गली-गली में और राजमार्गों पर अपनी प्रौदयिक भाव की मजबूत जाल फैला रखा है और गली-गली में वास करती अनन्त-अनन्त जीवात्माएँ उसके सुहाने जाल में फंसकर निरन्तर विविध चेष्टाएँ करती रहती हैं । कारण, वे सब मोहराजा के माया-जाल को कतई समझ नहीं पाये हैं। वे इस स्थिति से बिल्कुल बेखबर जो हैं । जन्म, यौवन, जरा और मृत्यु में शोक-हर्ष करती हुई आत्माएँ तीव्र दुःख और क्लेष का अनुभव करती चटपटा रही हैं। लेकिन भवचक्र नगर में अवस्थित जीवात्मा, जो मूढता से मुक्त बन गयी है, औदयिकभाव जिसे अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकते' फिर भी मोह की नाटयभूमि पर उसे नि:सहाय, दीन बन कर अब भी रहना पडा है, लेकिन स्व-और पर के जीवन में घटित विविध घटनाओं को देखने की प्रवृत्ति में आमूल परिवर्तन आ जाने के कारण, वह उसे सिर्फ 'मोहप्रेरित मोहक नाटक' समझ, उसके प्रति अनासक्त, उदासीन हो गयी है । उसे यह देखकर न खेद है ना कोई अानन्द ! वह स्थितप्रज्ञ जो बन गयी है ! समग्र सृष्टि को यहां एक नगर की संज्ञा दी गई है और नरकगति, मनुष्य गति, तिर्यंच गति और देवगति उसके प्रधान राजमार्ग हैं। इन्हीं राज-मार्गों के भागरुप अवान्तर-गलियों के रुप में चार गतियों के प्रवान्तर भेद हैं । इन गलियों में और राजमार्ग पर रहे असंरव्य, अनंत जीव इस नाटक के विभिन्न पात्र हैं, जिनकी विविध चेष्टाएँ नाटक का अभिनय है ! जब की समस्त नाटय-भूमि-रंगभूमि का सूत्र-संचालन , दिग्दर्शन स्वयं मोहराजा करता रहता है ! जिस तरह रंगभूमि पर जन्म का दृश्य हूबहू खडा कर दिया जाता है, मृत्यु का साक्षात् अभिनय किया जाता है, लेकिन वह वास्तविक नहीं होता ! केवल पात्रों के अभिनय-कौशल्य का कमाल होता है । दृष्टा स्वयं इस तथ्य को भलिभांति जानते हैं, समझते हैं ! अत: जन्म होने पर प्रसन्न नहीं होते और मृत्यु को लेकर शोक-विह्वल नहीं बनते ! ठीक उसी तरह सृष्टि की रंगभूमि पर जन्म, जरा और मृत्यु के प्रसंग उपस्थित होने पर, ज्ञानीपुरुष कतइ विचलित नहीं होते । क्यों कि वे इस तथ्य से अवगत हैं कि आत्मा कभी जन्म नहीं लेती, Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार नही मृत्यु पाती है । वह सहज ही जन्म-मरण का अभिनय करती है । अतः व्यर्थ ही शोक करने से क्या लाभ ? । विकल्पचपरात्मा, पीतमोहाऽऽसयो ह्ययम् । भवोच्चतालमत्ताल-प्रपञ्चमधितष्ठति ॥५॥२६॥ अर्थ : विकल्प रुपी मदिरा-पात्रों से सदा मोह-मदिरा का पान करनेवाला जीवात्मा, सचमुच जहां हाथ ऊंचे कर, तालियां बजाने की चेष्टा की जाती है वैसे संसार रुपी मदिरालय का प्राश्रय लेता है । विवेचन : संसार यह एक मदिरालय है । सुभग, सुन्दर और सुखद मोह-मादक मदिरा है । विकल्प मदिरा--पान का पात्र है ! अनादिकाल से जीवात्मा संसार की गलियों की खाक छान रहा है ! पौद्गलिकसुख और मोह-माया के विकल्पों में आकंठ डूब मदोन्मत्त बन गया है, नशे में धुत्त है । वह क्षणार्ध में तालियां बजाता नाचने लगता है तो पलक झपकते न झपकते करतल-ध्वनि करता सुध-बुध खो देता है ! क्षणार्ध में खुशी से पागल हो उठता है तो क्षणार्ध में शोक-मग्न बन क्रंदन करने लगता है ! क्षणार्ध में कीमती वस्त्र परिधान कर बाजार घूमता नजर आता है तो क्षणार्ध में वस्त्र-विहीन नंग-घडंग बन धुल चाटता दिखायी देता है ! अभी कुछ समय पहले 'पिता-पिता' कहते उनका गला भर आता है तो कुछ समय के बाद हाथ में डंडा ले, उस पर टूट पडता है ! एकदो क्षण पहले जो माता 'मेरा पुत्र मेरा पुत्र'....कहते हुए वात्सल्य से प्रोत-प्रोत हो जाती है, तो क्षण में ही शेरनी बन उसकी बोटी-बोटी नोचने के लिए पागल हो जाती है ! सुबह में 'मेरे प्राणप्रिय हृदयमंदिर के देवता,' कहनेवाली नारी शाम ढलते न ढलते 'दुष्ट, चांडाल' शब्दोच्चारण करती एक अजीब हंगामा करते देर नहीं करती ! मोह-मदिरा का नशा....वैषयिक सुखों की तमन्ना ! उस में अटका जीव न जाने कैसा उन्मत्त, पागल बन मटरगस्ती करता नजर आता है ? जबतक मोह-मदिरा के चंगुल से आजाद न हुआ जाए, विकल्प के मदिरा-पात्र फेंक न दिये जाए तब तक निर्विकार ज्ञानानन्द में स्थिर-भाव असंभव है ! जब तक ज्ञानानन्द में स्थिर न हो तब तक Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह ४५ परम ब्रह्म में मग्न होना तो दूर रहा, उसका स्पर्श तक कठिन है । जबकी परम ब्रह्म में मग्नता साधे बिना पूर्णता, आत्म-स्वरुप की परिपूर्णता और अनंत गुरणों की समृद्धि पाना असंभव है ! स्थिरता के पात्र से ज्ञानामृत का पान करनेवाली जीवात्मा ही विवेका, विशुद्ध व्यवहारी बन सकती है । अर्थ : निर्मलं स्फटिकस्येव सहज रुपमात्मनः 1 अध्यस्तोपाधिसम्बन्धो जडस्तत्र विमुह्यति || ६ ||३०|| श्रात्मा का वास्तविक सिद्ध स्वरुप स्फटिक की तरह विमल, निर्मल और विशुद्ध है । उसमें उपाधि का संबन्ध प्रारोपित कर अविवेकी जीव आकुल-व्याकुल होता है ! विवेचनः यदि स्फटिक रत्न के पीछे लाल कागज लगा हुआ है, तो वह स्फटिक लाल दिखायी देता है, तब अगर कोई तुम्हें पूछे: "स्फटिक कैसा है ? " तुम क्या जवाब दोगे ? 'स्फटिक लाल है !' यूँ कहोगे अथवा 'स्फटिक लाल दिखायी देता है ! आखिर जवाब क्या दोगे ? क्योंकि लालिमा तो उसकी उपाधि है, वह मूल रूप में तो लाल है ही नहीं ! ठीक उसी तरह हम आत्मा को लें। क्या वह मूल रूप में एकेन्द्रिय है ? द्वि-इंद्रिय है ? या पंचेन्द्रिय है ? उसका मूल रंग क्या श्याम, पीत, लाल अथवा गोरा है ? मोटापा, पतलापन, छरहरापन, ऊँचाई, चौडाई उस का वास्तविक रूप है ? क्या वह स्वाभाविक रूप में शोक, हर्ष, विषाद, राग द्वेष इत्यादि से युक्त है ? इन सब का उत्तर इन्कार में ही आएगा ! स्फटिक की श्यामलता, लालिमा, और गौरता को परिलक्षित कर उसे लाल पीला अथवा गोरा कहनेवाला मनुष्य मूर्ख है- एक नम्बर का शेखचिल्लो है । उसी भाँति जीवात्मा के एकेंद्रिय, द्वि-इंद्रिय, पंचेन्द्रिय स्वरूप को देखकर उसे एकेन्द्रिय, द्वि-इंद्रिय अथवा पंचेंद्रिय माननेवाला भी नीरा मतिमंद और अज्ञानी है । उसकी श्यामलता, गौरता और पीतता को निरख, उसे श्याम, पीत, और गौर समझनेवाला भी निपट मूर्ख के अलावा भला, क्या है ? आत्मा का श्याम स्वरुप, उसकी बदसूरती, उसके टेढे चक्र अंगोपांग को देखकर मनमें नफरत पैदा होती है, ठीक वैसे ही उसकी नौरता, Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ज्ञानसार सुघडता सौन्दर्य के दर्शन कर प्रीति-भाव उत्पन्न होता है । वह एक प्रकार की जडता नहीं तो और क्या है ? क्यों कि वह जरा भी नहीं सोचता कि यह तो आत्मा के शरीर का बाह्य रंग रूप, गुण मात्र है । वास्तव में तो आत्मा स्फटिक-रत्न की तरह निर्मल, विमल और विशुद्ध है । न तो उसका स्वरूप काला अथवा गोरा है, ना ही उसकी प्राकृति सुन्दर अथवा बेडोल है । यह सब कर्मों का खेल है । आत्मा कर्म की छाया से ढकी हुई है। और ये सब उसके विभिन्न प्रतिबिंब हैं। मोहदृष्टि को चूर-चूर करनेवाला यह चिंतन, विशुद्ध आत्मस्वरूप का चितन- मनन, कितना तो अलौकिक और प्रभावशाली है? शकितसम्पन्न है ? इसकी प्रतीति तभी हो सकती है जब इसका सही रूप में प्रयोग किया जाए। कोरी बातें करने से काम नहीं बनेगा । पूर्णता पाने के लिए हमें तन-मन से प्रवृत्त होकर इसका अमल करना होगा । तभी पराये को अपना मानने की जडता दूर होगी और अंत:चक्षु के द्वार खुल जाएंगे। अनारोपसुखं मोहत्यागावनुभवन्नपि । मारोपप्रियलोकेषु वस्तुमाश्चर्यवान् भवेत् ॥७॥३१॥ अर्थ : योगी, मोह-त्याग से [क्षयोपशम से आरोपरहित स्वाभाविक-सुल अनुभव करते हुए भी रात-दिन असत्याचरण में खोये मिथ्यात्वी जीवों को, अपना अनुभव कहने में प्राश्चर्य करता है । विवेचनः वीतराग सर्वज्ञ भगवत द्वारा प्रतिपादित योगमार्ग पर निरंतर गतिशील योगी पूरूष, देवाधिदेव की अनन्य कृपा से जब मोहका क्षय-उपशम करनेवाला बनता है और उस पर छाये मोहादि-प्रावरण के प्रभाव को नहीवत् बना देता है, तब आत्मा के स्वाभाविक [कर्मोदय से अमिश्रित] सुखों का अनुभव करता है । ऐसे नैसर्गिक प्रात्मीय सुख के अनुभवी महात्मा के समक्ष जब सामान्यजनों की भीड उभर आए, जिस पर मोहनीय कर्म का अनन्य प्रभाव हो, तब उन्हें क्या उपदेश दिया जाए, यह एक यक्ष-प्रश्न होता है। ना तो वे अपने स्वाभाविक सुख के अनुभव की बात कह सकते हैं. नहीं जिस को वह सुख मान रहे हैं, उसे 'सुख' की संज्ञा दे सकते हैं । तब बे असमंजस में पड़ जाते हैं । अजीब कशमकश में फंस जाते हैं कि, "इस प्रजा को क्या कहा जाए ?' Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमोह जो जीवात्माएँ निरंतर बाह्य पौद्गलिक सुख में ही ओत-प्रोत हैं, निमग्न हैं, उनके समक्ष स्वाभाविक सुख के अनुभव की बात हास्यास्पद बन जाती है । ऐसे समय आत्मिक सुख की अनुभवी आत्मा, पौद्गलिक सुख को 'वास्तविक सुख' के रूपमें उस का वर्णन करने में असमर्थ होता है । क्योंकि ज्ञानीपुरूष की दृष्टि में पौद्गलिक सुख, कर्मोदय से उत्पन्न रिद्धि-सिद्धि और सुख-संपदा मात्र दु:ख ही दुःख, अनंत पीडाओंका केन्द्रस्थान जो हैं । तब कुछ महत्वपूर्ण बातों का पता लगता है, जो जीवात्मा के लिए महत्वपूर्ण मार्गदर्शन हैं : * मोहनीय कर्म का क्षयोपशम किये बिना आत्मा के स्वाभाविक सुख का अनुभव मिलना असंभव है। * ऐसे स्वाभाविक सुख का अनुभवी वैभाविक सुख में भी दुःख का ही दर्शन करता है, उसे वह 'सुख' नहीं लगता। * बाह्य जगत के सुख में सरोबार जीव आत्मसुख की बात समझने से इन्कार करे, तब भी उस पर गुस्सा करने के बजाय मनमें करूणा भाव ही रखें । * आत्मसुख को अनुभवी जीवात्मा का संबंध बाह्य सुखों में खोये जीव के साथ कदापि टिक नहीं सकता । यश्चिद्दर्पणविन्यस्त-समस्ताऽऽचारचारुधीः । क्व नाम स परद्रव्ये-ऽनुपयोगिनि मुह्यति ? ॥८॥३२॥ अर्थ : जो ज्ञानरुपी दर्पण में प्रतिबिंबित समस्त ज्ञानादि पांच आचार से युक्त सुन्दर बुद्धिमान है-ऐसा योगी, भला, अनुपयोगी ऐसे परद्रव्य में क्यों मोहमूढ़ बनेगा ? विवेचन: दर्पणमें अपने समस्त अवयवों की सुन्दरता को निहार मनुष्य अपने आपमें आनन्दित होकर झूम उठता है और उसे अधिक सुन्दर एवं आकर्षक बनाने के लिए सदा प्रवृत्तिमय रहता है । उसका सुख लटने, सुन्दरता में अधिकाधिक वृद्धि करने हेतु बाजार में जाता है, बाह्य जगत में बावरा बन प्राय: भटकता रहता है और समय समय मोहित हो उठता है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार जब कि जो आत्मा अपने समस्त अभ्यंतर अवयवों को ज्ञान के दर्पण में निरख निज सुन्दरता को आत्मसात करता है, उसका कृत्रिम प्रदर्शन करने, बाह्य दिखावे के लिए उसे बाहरी दुनिया में कभी भटकना नहीं पडता । क्यों कि यह सौन्दर्य, बाह्यसापेक्ष जो नहीं है । इसके सुखों का अनुभव करने के लिए दुनिया के बाजार की खाक नहीं छ।ननी पड़ती । तब भला, वह बाह्य पदार्थों के प्रति मोहित क्यों होगी ? उसके दिल में उनके प्रति आसक्ति क्यों कर पैदा होगी ? ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार, ये पांच प्राचार आत्मा के अभ्यंतर रमणीय अवयव हैं ! दर्पण में देखे बिना वह अपनी सुन्दरता और रमणीयता का वास्तविक दर्शन नहीं कर सकती। ज्ञान-आत्मस्वरूप यह दर्पण है : इसमें जब ज्ञानाचारादि पांच प्राचारों के अनुपम सौन्दर्य का दर्शन होता है तब जीवात्मा झम उठती है, परम आनन्द का अनुभव करती है । उस में आकंठ डूब जाती है, उन्मत्त हो गोते लगाने लगती है । वह एक प्रकार के अनिर्वचनीय सुखानुभूति में खो जाती है । परिणामस्वरूप उसे बाह्य पदार्थ, परद्रव्य नीरस निस्तेज और आकर्षणविहीन लगते हैं । और फिर जो पदार्थ नीरस स्वादहीन, फीका और अनाकर्षक लगे, उसके प्रति भला, क्या मोहभावना पैदा हो सकती है ? यह असंभव है ! परद्रव्य तब तक ही मन को मलिन, मोहित करने में समर्थ होता है जब तक शीशे के दर्पण में मनुष्य अपना सौन्दर्य और व्यक्तित्व को देखने का प्रयत्न करता है । वह जैसे जैसे प्रात्मस्वरूप के दर्पण में अपने व्यक्तित्व को (ज्ञान....दर्शन....चारित्र आदि) सुन्दरता को गौरसे देखने का प्रयत्न करता है, वैसे वैसे पर द्रव्यों के प्रति रही आसक्ति, प्रीति-भाव कम होने लगता है। कहने का तात्पर्य यह है कि ज्यों-ज्यों ज्ञानाचारादि पांच आचारों के पालन की गति बढती जाएगी त्यों-त्यों प्रात्म-स्वरूप की सुन्दरता में बढोतरी होने से पर-द्रव्य के सम्बंध में जीवात्मा की प्रासक्ति कम होने लगती है । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ज्ञान अमोही बनना मतलब ज्ञानी बनना। . आत्मा पर से मोह का आवरण दूर होते ही ज्ञान का प्रकाश देदीप्यमान हो उठता है । ज्ञानज्योति प्रज्वलित हो उठती है। अ-मोही का ज्ञान भले ही एक शास्त्र, एक श्लोक अथवा एक शब्द को क्यों न हो, वह जीवात्मा को निर्वाणपद की ओर बढाने में और प्राप्ति में पूर्णतया शक्तिमान होता है। जिस ज्ञान के माध्यम से प्रात्मस्वभाव का बोध होता है, उसी को ही वास्तविक ज्ञान कहा गया है । वाद-विवाद और विसंवाद निर्माण करनेवाला ज्ञान, ज्ञान नहीं है। अ-मोही आत्मा प्रायः वादविवाद और विसंवाद से परे रहता है। ध्यान में रखिये ! थोड़ा भी अमोही बन, इस अष्टक का अध्ययन-मनन और चिन्तन करना। तभी ज्ञान के वास्तविक रहस्य को पाप आत्मसात् कर सकेंगे। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० शानसार मजस्यश: किलाशाने, विष्टायामिव शकरः । ज्ञानी निमज्जति ज्ञाने, मराल इव मानसे ॥१॥३३॥ अर्थ : जैसे सूबर हमेशा विष्टा में मग्न होता है, वैसे ही प्रज्ञानी सदा अज्ञान में ही मग्न रहता है। जैसे राजहंस मानसरोवर में निमग्न होता है, ठीक उसी तरह ज्ञानी पुरुष ज्ञान में निमग्न होता है । विवेचन : मनुष्य बार-बार कहाँ जाता है, पुनः पुनः उसे क्या याद आता है, वह किसकी संगत में अपना अधिकाधिक समय व्यतीत करता है, क्या सुनना उसको प्रिय है, क्या जानना वह पसन्द करता है ? यदि इसका सावधानी के साथ सूक्ष्मावलोकन किया जाय, तो जीवात्मा की प्रान्तरिक भावना की थाह पायी जा सकती है। उसकी सही रुचि, अनुराग का पता लग सकता है । जहाँ सिर्फ भौतिक और वैषयिक सुख-दुःख की चर्चा होती हो, पुद्गलानंदी जीवों का सहवास ही प्रिय हो, कूपदार्थों की चर्चा चलती हो, मिथ्यात्वी किस्से-कहानियाँ कही जाती हों और इन्द्रियों को तृप्त करने वाली बातें सुनना ही प्रिय हो, इससे उसकी परख होती है कि उसका सही आकर्षण भौतिक, वैषयिक पदार्थों की ओर है । उसका अनुराग काम-वासनादि सुखों के प्रति ही है । हालांकि यह सब पाकर्षण, अनुराग, चाह, भावनादि वृत्तियाँ जीवात्मा की अज्ञानता है, मोहान्धता है और उसकी अवस्था मल-मूत्र से भरे गंदे नाले में गोता लगाते एकाध सूअर जैसी है । जबकि जो ज्ञानी हैं, वास्तवदर्शी-सत्यदर्शी हैं, उनका ध्यान सदैव जहाँ प्रात्मोन्नति व आत्मकल्याण की चर्चा होती हो, उस तरफ ही जाएगा । उसे प्रात्मज्ञानी-जनों का सतत समागम ही पसन्द आएगा । उसके हृदय में आत्मस्वरूप और उससे तादात्म्य साधने की भावना ही बनी रहेगी । उसके मुंह से प्रात्मा, महात्मा एवं परमात्मा की कथायें ही सुनने को मिलेंगी । और इन्हीं कथाओं के पठन-पाठन में वह सदा खोया दिखायी देगा । जिस तरह राजहंस मानसरोवर में मुक्त मन से क्रीडा करता दृष्टिगोचर होता है । उसकी वह स्थिति सभी दृष्टि से प्रगतिपरक और उन्नतिशील होती है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक आत्मा का फज़ है कि वह अपना प्रात्म-निरीक्षण करते समय सदैव यह प्रश्न उठाये कि "मैं ज्ञानी हूँ अथवा अज्ञानी ?" और इसका निराकरण भी अपने पाप अन्तर्मन की गहराईयों में जाकर करें। सत्य किसीसे छिपा नहीं रहेगा । यदि उसे अपनी स्थिति अज्ञानता से परिपूर्ण लगे, तो फौरन उसे ज्ञानक्षेत्र को विस्तृत और विकसित करने में जुट जाना चाहिए । यह प्रक्रिया जब तक केवलज्ञान की प्राप्ति न हो, तब तक अबाध रूप से, निरन्तर चलनी चाहिए । निर्वाणपदमप्येकं, भाव्यते यन्मुहुमुहुः । तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं, निर्बन्धो नास्ति भूयसा ॥२॥३४॥ अथ : एक भी निर्वाणसाधक पद जो कि बार-बार आत्मा के साथ भावित किया जाता है, वही श्रेष्ठ ज्ञान है । ज्यादा ज्ञान-प्राप्ति यानी ज्यादा पढ़ाई का प्राग्रह नहीं है। विवेचन : हमारा यह कतई आग्रह नहीं है कि तुम अनेकविध ग्रंथों को पढ़ो, उनका पठन-पाठन और अवगाहन करो । ना ही यह आग्रह है कि विस्तृत जानकारी का अच्छा-खासा भंडार खड़ा कर दो। बल्कि हमारा सिर्फ इतना ही आग्रह है कि निर्वारगसाधक पद, ग्रंथ अथवा श्लोक का सूक्ष्म अभ्यास कर लें। उसमें एकरूप हो जायें, सतत उसका ही रटन और चिन्तन-मनन करते रहें, तो बेडा पार लगते देर नहीं लगेगी। मोक्ष की मंजिल की तरफ गतिशील करने वाला एकाध चिन्तन भी तुम्हें आलोडित, प्लावित कर गया, तो वह सच्चा ज्ञान है। ज्ञान को उत्कृष्ट बनाने के लिये निम्नांकित चार सूत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं :* हाथ में रहा ग्रंथ बन्द कर देने के बाद भी ग्रंयोक्त विचारों का चिन्तन-परिशीलन सतत चलते रहना चाहिये । जैसे-जैसे ग्रंथोक्त विचारों के परिशीलन में वृद्धि होती जाए, वैसे-वैसे तत्त्वोपदेशक परम कृपालु वीतराग भगवंत के प्रति प्रीति-भावना और गुरुजनों के प्रति श्रद्धा-भावना, कृतज्ञ-भाव, तत्वमार्ग के प्रति उत्कट आकर्षण आदि हमारे हृदयप्रदेश में पैदा होने चाहिए। ॐ तत्त्व का विवेचन हमेशा शास्त्रोक्त पद्धति और युक्तियों के माध्यम से करना चाहिए। आगमोक्त शैली के अनुसार होना Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार चाहिए । मतलब, हमारे द्वारा किया गया विवेचन शास्त्रपद्धति के अनुसार होना चाहिए। आगमविरोधी भावना से युक्त नहीं होना चाहिए । - जिस तरह तत्त्वचिन्तन की गति बढ़ती जाएगी, उसी तरह कषायों का उन्माद शान्त होता जाएगा । संज्ञाओं की बुरी आदतें कम होती जायेंगी और गारवों [ रस-ऋद्धि-शाना] का उन्माद मन्द होता जाएगा। एक बार गुरुदेव ने अपने शिष्य 'माषतुष मुनि' को निर्माणसाधक ऐसा एक पद दिया : ‘मा रुष... मा तुष ।' अर्थात 'न कभी द्वेप करो, न कभी राग करो' । लगातार बारह वर्ष तक महामुनि ने इसी पद का सतत चिन्तन-मनन किया, उसका सूक्ष्मता से परिशीलन किया । फल यह हुआ कि बारह वर्ष की अवधि के बाद वे मोक्ष-पद के अधिकारी बने । सिर्फ एक ही पद के चिन्तन-मनन से उन्हें सिद्धि मिली : 'मा रुष, मा तुष' । क्योंकि उनके लिए यह पद एक प्रकार का उत्कृष्ट ज्ञान बन गया और उन्हें मुक्ति-पद की प्राप्ति हुई । . तत्त्वचिन्तन में अपने आप को विलीन कर देना, लयलीन कर देना ही उच्च कोटि का ज्ञान है ।। स्वभावलाभसंस्कारकारणं ज्ञानमिष्यते । ध्यान्ध्यमात्रमतस्त्वन्यत्, तथा चोक्तं महात्मना ।।३॥३५॥ अर्थ ऐसे ज्ञान की इच्छा करते हैं, जो आत्म-स्वरूप की प्राप्ति का कारण "हो । इससे अधिक सीखना/अभ्यास करना, बुद्धि का अन्धापन है । इसी प्रकार महात्मा पतंजलि ने भी कहा है ।। विवेचन : ज्ञान वही है, जो आत्मस्वरूप की प्राप्ति हेतु जीवात्मा को निरन्तर बढावा देता रहता है | आत्मस्वरूप को जानने की मन में वासना जगाता है । वासना वह है, जो किसी विषय को गहराई से जानने की प्रवृत्ति मन में पैदा करती है । उसे पाने के लिये अथक परिश्रम करने की प्रेरणा देती है, उसके पीछे हाथ धोकर पड़ने के लिये उकसाती रहती है। जैसे, यदि किसी को किसी युवती के प्रति वासना जगी, मसलन वह उसे वशीभूत करने के लिये सतत कार्यशील रहेगा । उसके मन में सोते-जागते, उठते-बैठते, घूमते-घामते केवल एक Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान ५३ ही विचार रहेगा : 'उस युवती को कैसे प्राप्त किया जाय ? और उसकी हर प्रवृत्ति उसे पाने की रहेगी। यह वासना पैदा किसने की? उसके पीछे कौन-सी शक्ति काम कर रही है ? यह वासना युवती के मनोहर दर्शन से पैदा हुई । मतलब, युवती-विषयक ज्ञान के कारण ही वासना उसके मन में जगी । यही शाश्वत् सत्य है, जो यहाँ भी लागु पडता है । प्रात्मस्वरूप का ज्ञान होते ही वह ज्ञान जीवात्मा को अविरत रूप से प्रात्मस्वरूप के विचारों में ही मग्न कर देता है और उसकी प्राप्ति के लिये आवश्यक पुरुषार्थ/प्रवृत्तियाँ करने के लिये उत्तेजित करता रहता है । और, ऐसे ही ज्ञान की हमें अावश्यकता है । हमें ऐसे ज्ञान की कतइ गरज नहीं, जिससे जैसे-जैसे ग्रंथाभ्यास बढ़ता जाए, अध्ययन की प्रवृत्ति बढ़ती जाए, वैसे-वैसे पुद्गल-विषयक आसक्ति/चाह की गति में भी बढोतरी होती जाए। इससे तो रागवृद्धि और द्वेषवृद्धि के अलावा और कुछ नहीं होगा । फलत: मन में असत् ऐसी रस-ऋद्धि और शाता की लोलुपता निर्वाध गति से बढती जाएगी । भगवान सुधर्मास्वामी ने जंबुकुमार को प्रतिबोध/ज्ञान-दान दिया और वे संसार-सागर से तिर गये/पार लग गये । खंध कसूरिजी ने अपने पाँच सौ शिष्यों को ज्ञान (प्रतिबोध) दिया । पाँच सौ शिष्यों में इसी ज्ञान के बल से आत्मस्वरूप प्राप्ति की वासना जगी । फलस्वरूप, इसे हासिल करने के लिये उन्होंने कोल्हू में पीस जाना बेहतर समभा । अरे, वासना के खातिर मनुष्य क्या-क्या नहीं करता ? एक बार वासना पैदा होनी चाहिये । फिर कोल्हू में पीस जाना दुष्कर नहीं है, ना ही अग्नि में जल जाना कठिन है । उसके लिए पर्वत से छलांग लगाना, भूख और प्यास से अस्थि पिंजर बनना, बोटी-बोटी कटवाना....आदि बातें असाध्य नहीं बल्कि साध्य हैं । हाँ, ऐसी तीव्र वासना जीवात्मा में पैदा होनी चाहिये । वासना को तीव्र बनाने वाली, बढ़ावा देने वाली, उसे उत्तेजित करने वाली एक ही शक्ति है और वह है ज्ञान हमें ऐसे ही ज्ञान की जरूरत है । यही ज्ञान उपादेय है । इसके अलावा जो ज्ञान होगा, वह तो सिर्फ छलावा है। महात्मा पतंजलि ने यही कहा है और यह बात सर्वसम्मत है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार बावारच प्रतिवादाश्च वदन्तोऽनिश्चितांस्तथा । तस्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीलकवद् गतौ ॥४॥४६।। अर्थ : निरर्थक वाद (पूर्वपक्ष) और प्रतिबाद (उत्तरपक्ष) में फंसे जीव कोल्हू के बल की तरह तत्त्व का पार पाने में पूर्णतया असमर्थ होते हैं। विवेचन : जिस शास्त्र-ज्ञान से अन्तर्शत्रुओं पर विजय पाना है, बाह्य पार्थिव जगत से अन्तःचेतना की ओर गतिमान होना है, अरे जीव ! उसी शास्त्र के सहारे तू निरर्थक वाद-विवाद में उलझकर रह गया ? जो इष्ट है, उसे छोड़ दिया और जो अनिष्ट है, उसके पीछे लग गया ? राग और द्वेष का शरणागत हो गया और अपने आप को, अपने प्रात्मस्वरूप को भूल-भालकर संसार के यश-अपयश में आकंठ डूब गया ! यह सब करने के पहले भले आदमी, इतना तो सोच कि तेरे पास जो शास्त्र हैं, ग्रंथ हैं और ज्ञान की अपूर्व निधि है, उसे अच्छी तरह जान पाया है क्या ? उसका सही अर्थ-निर्णय कर सका है क्या ? आज इस जगत में केवलज्ञानी परम पुरुषों का वास नहीं है, ना ही मनःपर्यवज्ञानी अथवा अवधिज्ञान के अधिकारी महात्मा यहाँ विद्यमान हैं । तब भला, अनंतज्ञान के स्वामी परम मनीषियों द्वारा रचित और प्रतिपादित शास्त्रों को तू अल्पमति से समझने का, आत्मसात् करने का दावा करता है ? यह कैसी विडंबना है ? और फिर तेरे द्वारा लगाया गया अर्थ ही सही है; सरे-आम कहने की धृष्टता करता है ? दूसरों के अर्थ-निर्णय को बेबुनियाद करार देकर वाद-विवाद करने की नाहक चेष्टा करता है ? तू भली-भांति समझ ले कि तेरी मति अल्प है, श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम अति मन्द है । ऐसी स्थिति में तेरे पास जो शास्त्रज्ञान है, वह अनिश्चित अर्थ से युक्त है। इसके बलबूते पर तू वर्षों तक वाद-विवाद करता रहेगा, फिर भी उसका पार नहीं पा सकेगा । उसके वास्तविक अर्थ को समझने में असफल सिद्ध होगा। ज्ञान के परमानंद का मुक्त मन से उपभोग नहीं कर सकेगा । संभव है कि वाद-विवाद और वितंडावाद में तू विजयी होगा और उसका आनन्द तेरे रोम-रोम को पुलकित कर देगा । लेकिन यह न भूलो कि बह आनंद क्षणिक है, क्षणभंगुर है और वैभाविक है । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाद-विवाद कर तत्त्व के साक्षात्कार की अपेक्षा रखना, दिन में तारे देखने का दावा करने जैसी बात है । जिस तरह कोल्हू का बैल लगातार बारह घंटे तक अविश्राम श्रम करने के बावजूद अपनी जगह से एक कदम भी, तिलमात्र भी आगे नहीं बढता । अत: हे प्रात्मन् ! तू अपनी प्रांखों पर यश-प्राप्ति, कीर्ति-प्राप्ति, संपत्ति और संपदा पाने की पट्टी बांधकर अंधी दौड तो लगा रहा है, लेकिन क्षणार्ध के लिये ठहर कर, अपनी आँख की पट्टी हटाकर तो जरा देख कि तू आत्मस्वरूप की मंजिल तक पहुँचा भी है ? कर्मराजा ने अपने माया-जाल में फंसाकर तेरी आँख पर पट्टी बाँध दी है । और तू है कि भ्रमित बन, उसी कर्म-निर्धारित भव-चक्र के फेरे लगा रहा है, चक्कर काट रहा है । ___ मतलब यह कि वाद-विवाद से अलिप्त रहकर शास्त्रज्ञान के माध्यम से आत्मस्वरूप की ओर गतिशील होना ही हितावह है । स्वद्रव्यगुण-पर्यायचर्या वर्या पराऽन्यथा । इति दत्तात्मतुष्टिमुष्ठिज्ञानस्थितिमुनेः ॥५॥३७॥ अर्थ : अपने द्रव्य, गुण और पर्याय में परिणति श्रेष्ठ है। पर द्रव्य, गुण और पर्याय में परिणति ठीक नहीं।' इस तरह जिसने प्रात्मा को संतुष्ट किया है, ऐसा संक्षिप्त रहस्यज्ञान, मुनिजन की मर्यादा मानी गयी है। विवेचनः हे मुनिवर्य ! तुमने अपने लिए समस्त ज्ञान का कौन सा रहस्य पा लिया है ? क्या उक्त रहस्यज्ञान से तुम अपने आप को संतुष्ट कर पाये हो ? ‘पर द्रव्य, परगुरण और पर पर्याय में परिम्रमण कर, तुम परिश्रान्त बन गये हो, थक गये हो । अनादि काल से 'पर' में परिभ्रमण कर तुम संतुष्ट नहीं हो, बल्कि उत्तरोत्तर तुम्हारे असंतोष में वद्धि ही होती रही है । अब उसे संतुष्ट करना जरूरी है । साथ ही यह कदापि न भूलो कि परद्रव्य, गुण और पर्याय में अभी वर्षों भटकने के बावजूद आत्मा को संतोष नहीं होगा, बल्कि उसके असंतोष में बढोतरी ही होने वाली है। __'हे प्रात्मन् ! तुम अपने में ही परिणति करो। तुम स्वयं विशुद्ध आत्मद्रव्य हो। अत: उसमें रमण करो । तू अपने में निहित ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुणों में तन्मय हो जा । तू अपनी वर्तमान तीनों अवस्था Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ का दृष्टा बन । तेरे त्रैकालिक पर्याय विशुद्ध हैं । अतः उन विशुद्ध पर्यायों में परिणति कर ले । क्योंकि यही परिणति सर्वश्रेष्ठ है ।' 'हे श्रात्मन्, परद्रव्य-गुण- पर्याय के प्रति आसक्ति रखना मिथ्या है, गलत है । अत: उसका तन-मन से त्याग कर दो । फलत: अपने शरीर, भवन, धन-धान्यादि संपदा, रस-रूप, गंध, स्पर्श, शब्द आदि का मोह न कर, ना ही शरीर, संपत्ति, रूप- रसादि पर-पदार्थों की परिवर्तनशील अवस्थाओं में भी राग-द्वेष को जीवन में स्थान दे । इस तरह प्रत्येक मुनि का कर्तव्य होता है कि वह अपने आप को, अपनी आत्मा को संतुष्ट करे.... करते रहना चाहिए और यही उसका रहस्यज्ञान है । अर्थात् यह मान कर कि मुनि का दर्शन - ज्ञान - चारित्र से भिन्न अस्तित्व ही नहीं । उसे सदैव ज्ञान, - दर्शन चारित्रमय आत्मा में खो जाना चाहिए और यही उसका परम कर्तव्य है | अतः इसके लिये उपयुक्त भावना का सदा-सर्वदा अपने मन में चिन्तन-मनन करते रहना अत्यन्त आवश्यक है । साथ ही, जहाँ कहीं उसके चित्त की परपुद्गल के प्रति आसक्त होने की संभावना पैदा हो, उसे इस संक्षिप्त रहस्यज्ञान का आधार ले, खुश कर, तुरन्त रोक लेना चाहिए । मोह को उखाड़ फेंकने के लिये 'रहस्यज्ञान' एक अमोघ शस्त्र है । अथ ज्ञानसार प्रस्ति चेद् ग्रंथिभिज्ज्ञान, किं चित्रैस्तंत्रयंत्रणः । प्रदीपाः क्वोपयुज्यन्ते, तमोघ्नी दृष्टिरेव चेत् || ६ || ३ || : ग्रन्थिभेद से मिला ज्ञान जब तुम्हारे पास है, तब भला, अनेकविध शास्त्रों के बन्धनों की आवश्यकता ही क्या है ? यदि ग्रन्थकार का उच्छेदन करनेवाली आँख तुम्हारे पास है, तो दीपमाला तुम्हारे किस उपयोग में श्रायेगी ? विवेचन: जिस मनुष्य की आँखों में ही इतनी तेजस्विता है कि जो घने अंधेरे को छिन्न-भिन्न करने में शक्तिमान है, तब उसे दीपशिखा की क्या गरज ? ठीक उसी तरह जिस श्रात्मा ने मोह-माया की ग्रंथियों को विदीर्ण कर लिया है और आत्मस्वरूप का साक्षात्कार हो गया है, उसके लिये भला अनेकविध शास्त्रों का ज्ञान किस काम का ? प्रबल राग-द्वेष की परिणतिमय ग्रंथि के भेदने से श्रात्मा में सम्यक्त्व का प्रादुर्भाव होता है, उसका प्रखर प्रकाश श्रात्मा में फैल जाता है । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान ૭ लेकिन ग्रंथिभेद की भी कुछ शर्तें हैं । १. संसार - परिभ्रमण की अवधि सिफ 'अर्ध पुद्गल परावर्त' बाकी हो । २. आत्मा भव्य हो और ३. आत्मा पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय हो । तब वह ग्रंथिभेद करने के लिये शक्तिमान है । ग्रंथिभेद के पश्चात् सम्यक्त्व की भूमिका पर अवस्थित आत्मा में प्रतिभास ज्ञान टिक नहीं सकता । अर्थात् इहलोक - परलोक के भौतिक पदार्थों के प्रति जब-जब वह प्राकर्षित होता है, तब उन्हें तात्त्विक दृष्टि से देखता है, ज्ञानी जनों की नज़र से देखता है। मतलब, क्या श्रात्मा को हितकारी है और क्या अहितकारी है, इसका उसे पूरा आभास होता है । जब तक आत्मा को इहलोक - परलोक में वास्तविक हित-अहित का प्रतिभास / सही ज्ञान नहीं होता, तब तक यह समझना चाहिए कि उसका ग्रंथिभेद नहीं हुआ है, बल्कि वह मिथ्यात्व की भूमिका पर हि स्थित है । संसार में रहे किसी रूप, रस, गंध, स्पर्श अथवा शब्द का साक्षात्कार होने पर 'यह मेरी आत्मा के लिये हितकारी है अथवा अहितकारी ?" समझने की कला यदि हमें हस्तगत हो जाए, तब नि:संदेह हमारे भाव चारित्र और तत्त्व-परिणति की मंजिल दूर नहीं है । आत्म-परिणति के अविरत अभ्यास, चिन्तन-मनन से तत्त्व-परिणति युक्त ज्ञानोपार्जन होता है । अगर हमें आत्म-परिणति युक्त ज्ञान (ग्रंथिभेद से उत्पन्न ) प्राप्त हो गया है, तो फिर विविध शास्त्रों के बन्धनों का प्रयोजन ही क्या है ? शास्त्राभ्यास और पठन, चिन्तन ग्रंथिभेद के लिये ही किया जाता है । अतः ग्रंथिभेद के होते ही आत्मा में से ज्ञानप्रकाश प्रकट होता है । ज्ञानदम्भोलिशोभितः । निर्भय: शक्रवद् योगी, नन्दत्यानन्दनन्दने ||७||३६|| मिथ्यात्वशैलपक्षच्छिद् अर्थ : मिथ्यात्व रुपी पर्वत की चोटियों को छेदने वाले और ज्ञानरुपी वज्र से सुशोभित सर्वशक्तिमान इन्द्र की तरह निर्भय योगी सदैव प्रानंद रुपी नन्दनवन में केलि-क्रीड़ा करता है, सुखों का अनुभव करता है । विवेचन: देवराज इन्द्र को भला भय कैसा ? जिसके पास असीम आकाश की क्षितिजों को पार करने वाला, उत्तुंग पर्वत शिखरों को चूर-चूर करने में शक्तितशाली वज्र जैसा सर्वोच्च शस्त्र है, उसे भला किस बात का डर ? वह तो सदा सर्वदा स्वर्गीय आनन्द के नन्दन-वन में केलि करता रहता है । उसका चित्त प्रायः निर्भय और अभ्रान्त होता है । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ इसी भाँति बोगीराज को भय कैसा ? जिसके पास मिथ्यात्व के हिम शिखरों को प्रानन-फानन में छेदने वाला एकमेव शस्त्र 'ज्ञान' बो है । ज्ञान वज्र के समान अपने आप में सर्वशक्तिमान है । उसे डर किस बात का ? वह तो सुहाने आत्मप्रदेश के स्वर्ग में.... प्रात्मानंद के नन्दनवन में निर्भय बन हमेशा रमरण करता अपूर्व सुख का उपभोग करता है । यहाँ मुनिजनों को देवराज इन्द्र की उपमा दी गयी है । जैसे क्षणार्ध के लिये भी इन्द्र वज्र को अपने से दूर नहीं करता, ठीक उसी तरह मुनिजनों को भी सदैव आत्म-परिणति रूप ज्ञान को अपने पास बनाये रखना चाहिए | तभी वे निर्भय / निर्भ्रान्त रह सकते हैं और प्रात्मसुख का वास्तविक प्रानन्द पा सकते हैं । भगवान महावीर ने गौतम से एक बार कहा था : समयं गोयम ! मा वमायए ।' इस वचन का रहस्य -स्फोट यहाँ होता है । उन्होंने कहा था : " हे गौतम! तुम्हारे पास रहे ज्ञान वज्र को क्षणार्ध के लिए भी अपने से दूर रखने की भूल मत करना ।" इस सूक्ति के माध्यम से देवाधिदेव महावीर प्रभु ने सभी साधु-मुनिराजों को आत्मपरिणतिरूप ज्ञान को सदा-सर्वदा अपने पास संजोये रखने का उपदेश दिया है । जहाँ श्रात्म-परिरणतिरूप ज्ञान का विछोह हुआ नहीं कि तत्क्षरण राग-द्वेषादि असुरों का प्रबल आक्रमण तुम पर हुप्रा नहीं । ये सुर मुनिजनों को आत्मानन्द के स्वर्ग से धकियाते हुए बाहर निकाल पुद्गलानन्द के नरकागार में आसानी से धकेल देंगे । फलत: मुनिजन अपनी 'मुनि प्रवृत्ति' से भ्रष्ट हो जाते हैं और चारों ओर भय, प्रशान्ति, क्लेशादि अरियों से घिर जाते हैं । जब तक मुनि श्रात्मपरिणति में स्थित रहता है, तब तक राग-द्वेष, मोह-मायादि दुर्गुण उसके पास भटकने का नाम नहीं लेते और वह किसी भी प्रकार के बाह्य व्यवधान से निर्भय बन, आत्मानन्द का अनुभव करता रहता है । अर्थ शाबसार पीयूषमसमुद्रोत्थं, रसायनमनोवधम् । अनन्यापेक्षमैश्वर्य, ज्ञानमाहुर्मनीषिणः ||८ ॥४०॥ : पंडितों ने ऐसा कहा है कि ज्ञान अमृत होते हुए भी समुद्र में से पैदा नहीं हुआ है, रसायन होते हुए भी औषधि नहीं है और ऐश्वर्य होते हुए भी हाथी-घोडे- प्रादि की अपेक्षा से रहित है । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान विवेचन : लोग कहते हैं कि प्रमृत समुद्र मंथन से पैदा हुआ है । रसायनशास्त्रियों का मत है कि रसायन औषधिजनित होता है । राजा-महाराजाधों की मान्यता है कि ऐश्वयं हाथी-घोडे और सोना-चांदी आदि संपदा में समाया हुआ है । ५६ जबकि ज्ञानी पुरुषों का कहना है कि, "ज्ञान 'अमृत' होते हुए भी समुद्र मंथन से नहीं निकला, रसायन होते हुए भी औषधि जन्य नहीं और ऐश्वर्य होते हुए भी हाथी-घोडे प्रथवा सोने-चांदी की अपेक्षा नहीं रखता ।” समुद्र मंथन से प्रकट श्रमृत, मानव को मृत्यु से बचा नहीं सकता । लेकिन ज्ञानामृत उसे अजरामर बनाता है । श्रौषधिजन्य रसायन उसे शारीरिक व्याधियों तथा वृद्धावस्था से सुरक्षित रखने में असमर्थ है, जबकि ज्ञान रसायन से वह अनंत यौवन का अधिपति बनता है । सोने चांदी और हाथी-घोडे वाला ऐश्वर्य, जीवात्मा को निर्भय / निर्भ्रान्त बनाने की शक्ति नहीं रखता, लेकिन ज्ञान का ऐश्वयं उसके जीवन में सदैव अक्षय शान्ति, परम श्रानन्द और असीम निर्भयता भर देता है । तब भला क्यों भौतिक अमृत, रसायन एवं ऐश्वर्य की स्पृहा करें ? नाहक उसके पीछे दीवाने बन, तन-मन-धन की शक्तियाँ क्यों नष्ट करें ? व्यर्थ में ही क्यों ईर्ष्या, मोह, रोष, मत्सर, मूर्च्छादि पापों का प्रर्जन करें ? क्या कारण है कि उसके खातिर अन्य जीवों से शत्रुता मोल लें ? अमूल्य ऐसे मानव जीवन को क्यों नेस्तनाबुद करें ? क्योंकि यह जीवन ज्ञानामृत, ज्ञान रसायण और ज्ञान-ऐश्वर्य की प्राप्ति से उन्नत बनाने के लिए है । हमें सदा सर्वदा इसकी ही स्पृहा करनी चाहिए । इसे प्राप्त करने हेतु तन-मन-धन की समस्त शक्तियों का उपयोग करना चाहिये । इस तरह का भावनाज्ञान आत्मा में से प्रकट होता है और उसे प्रकट करने के साधन हैं-देव, गुरु और धर्म की आराधना । देव- गुरु-धर्म की उपासना से ही प्रात्मा में से ज्ञान अमृत ज्ञान रसायण और ज्ञान-ऐश्वर्य की ज्योति प्रज्वलित होती है । फलतः जीवात्मा को परम तृप्ति का अद्भुत श्रानन्द मिलता है । वह उत्तम आरोग्य की अधिकारी बनती है और परम शोभा को धारण करती है । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. शम ज्ञानीजनों को शान्ति ही होती है । निर्मोही मोही ऐसी आत्मा को नहीं होते हैं विषय विकार और नहीं होते है विकल्प | उसे इन से कोई मतलब नहीं होता । ज्यादा समय आत्मा की स्वभावदशा में तल्लीन रहनेवाले जीवात्मा को ज्ञान का सही फल मिल जाता है । कर्मजन्य विषमता ज्ञानीजनों के ध्यान में कभी नहीं आती है। उन्हें समस्त जीवसृष्टि प्राय: ब्रह्मरुप में ही दिखती है । ऐसी सभी आत्माएं निरन्तर शमरस का अमृतपान कर कृतार्थ होती हैं । आइए, शम और प्रशम के वास्तविक मूल्यांकन और उसके प्रभाव से परिचित हो जायें। यकीन कीजिए, इससे जीवनमार्ग को एक नयी दिशा मिलेगी, अपने आप को जानने की और उसके प्रभाव को समझने की ! Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकल्पविषयोतीणः, स्वभावालम्बनः सदा । ज्ञानस्य परिपाको यः, स शमः परिकीतितः ॥१॥४१॥ अथ : विषय-विकल्प से रहित और निरन्तर शुद्ध स्वभावदशा का प्रालंबन लेने वाली आत्मा का ज्ञानपरिणाम ही स्वभाव है । विवेचन : कोई विकल्प नहीं ! जैसे कि अशुभ विकल्प नहीं-'मैं धनवान बनु, मैं सर्वोच्च सत्ता का स्वामी बनु, सर्वशक्तिमान बन....।' ठीक उसी तरह 'मैं दान दु, तपस्या करूँ, मन्दिर-उपाश्रयों का निर्माण कराऊँ, आदि विकल्प भी नहीं । सिर्फ एक ध्येय ! वह है प्रात्मा के अनन्त, असीम सौन्दर्य में ही अहर्निश रत रहने का, आकंठ डबे रहने का ।। ज्ञान का यही परिपाक है, आत्मपरिणति-स्वरुप ज्ञान का परिपाक ! यही आत्मा के विशुद्ध, अनन्त गुणों से युक्त स्वरूप का परिणाम है। यही शम है; मतलब समतायोग है । जीवात्मा शम-समता की भूमिका पर तभी पहुँच सकता है, जब वह अध्यात्म-योग, भावना-योग और ध्यान-योग की आराधना से पार उतरता है । अर्थात् वह उचित वृत्तिवाला व्रतधारी बन गया हो । उसने मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भाव से प्रोत-प्रोत बन तत्त्वचिन्तन किया हो, परिश्रमपूर्वक शास्त्र-परिशीलन किया हो और प्रतिदिन स्व-वृत्तियों का निरोध करते हुए अध्यात्म का निरन्तर अभ्यास कर, किसी एक प्रशस्त विषय में तन्मय हो गया हो । स्थीर दीपक की तरह निश्चल एवं उत्पात, व्यय और ध्रौव्यविषयक सूक्ष्म उपयोग वाला चित्त बना सका हो । तभी वह समतायोग की प्राप्ति का अधिकारी बन सकता है । समतायोगी शुभ विषय के प्रति इष्ट वुद्धि नहीं रखता, ना ही अशुभ विषय के प्रति अनिष्ट बुद्धि । बल्कि उसकी दृष्टि में तो शुभ और अशुभ दोनों विषय समान ही होते हैं। उसके मन में 'यह मुझे इष्ट है और यह अनिष्ट है, जैसा कोई विकल्प नहीं होता । ठीक उसी तरह 'यह पदार्थ मेरे लिये हितकारी है और वह पदार्थ अहितकारी', ऐसे विचार भी नहीं होते । वह तो सदा-सर्वदा अात्मा के परम शुद्ध स्वरुप में ही डूबा रहता है । समतायोगी/शमपरायण जीवात्मा 'आमषिधि' वगैरह का इस्तेमाल नहीं करता। केवलज्ञानावरण प्रादि कर्मों का क्षय करता है। वह Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ না अपेक्षा तंतुओं का विच्छेद-करता है। मतलब, बाह्य पदाथ की उसे कभी अपेक्षा नहीं रहती। क्योंकि बाह्य पदार्थ की अपेक्षा ही बन्धन का मूल कारण है। अनिच्छन् कमवैषम्ब, ब्रह्मांशेन सनं जगत् । आत्मामेवेन यः पश्येबसौ मोक्षंगमी शमी ॥२॥४२॥ अर्थ : कर्मकृत विविध भेदों को नहीं चाहता हा और ब्रह्मांश के द्वारा एक स्वरूप वाले जगत को प्रात्मा से प्रभिन देखता हुआ, ऐसा उपसम वाला जीवात्मा मोक्षगामी होता है। विवेचन : 'यह ब्राह्मण है,....यह शुद्र है,....यह जैन है,....यह विद्वान है,....यह प्रशिक्षित है,....यह बदसूरत है'....आदि भेद शमरस में प्रोतप्रोत योगी अनुभव नहीं करता । वह तो निखिल ब्रह्मांड को ब्रह्मस्वरुप मानता है । चित् स्वरुप आत्मा में अभेद माव से देखता है । शमरस में लीन योगी चर्मचक्ष से संसार का अवलोकन नहीं करता । उसे उसका (संसार का) अवलोकन करने की आवश्यकता भी नहीं होती। वह तो दर्शन प्रात्मा के शुद्ध स्वरुप का ही करता है। आत्मा के अलावा विश्व को वह जानता ही नहीं । ब्रह्म के दो अंश माने जाते हैं : द्रव्य और पर्याय । योगी ब्रह्म के द्रव्यांश को परिलक्षित कर तत्त्वस्वरुप समस्त जगत का अवलोकन करता है। प्रात्मा की विभिन्न सांसारिक अवस्थायें पर्यायांश हैं। मानवता, पशुता, देवत्व, नरक, स्वर्ग, धनाढयता, गरीबी आदि सब प्रात्मा के पर्याय हैं। पर्यायांश में भेद है, जब कि द्रव्यांश में प्रभेद है। इस तरह द्रव्यास्तिक नय से किये गये दर्शन में राग का कोई स्थान नहीं हैं, ना ही द्वेष, ईर्ष्या-मत्सरादि वृत्तियों का/राग-द्वेष की कंटीली परिधियों से उपर उठकर शमरस-सरोवर में गोते लगाता योगी, अल्पावधि में ही मोक्ष पाता है। श्री 'भगवद् गीता' में कहा है कि : . विद्याविवेकसंपन्ने, ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । .... शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समशिनः ।।प्र.५. श्लोक १८।। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समदर्शी योगीजन विद्या-विवेकसंपन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चांडाल में कोई भेद नहीं करते । बल्कि वे इन सब में समान रुप में स्थित आत्मद्रव्य को ही परिलक्षित करते हैं। उनके मन में न तो किसी ब्राह्मण के प्रति प्रीतिभाव होता है, ना ही किसी चांडाल के प्रति घणा। ना ही गाय के प्रति दया भाव होता है, ना ही कुत्ते के लिये द्वष-भाव । जीवात्मा के दृष्टिकोण में जहाँ 'पर्याय' प्रधान बन जाता है, वहां विषमता दबे पाँव आ ही जाती है । और फिर वह अकेली नहीं आती, बल्कि अपने साथ राग-द्वेष, मत्सरादि को भी ले पाती है । पाहरुक्ष निर्योग, श्रयेद् बाह्यक्रियामपि । बोगारुढः शमादेव, शुध्यत्यन्तर्गतक्रियः ॥३।।४३।। अर्थ : समाधि लगाने का इच्छुक साधु बाह्याचार का भी सेवन करे, अभ्यन्तर क्रियाओं से युक्त योगारुढ योगी समभाव से शुद्ध होता है। विवेचन : जिस आत्मा के अन्तर में समाधियोग ग्रहण करने की भावना पैदा हुई हो, वह प्रीति अनुष्ठान, भक्ति अनुष्ठान और वचनानुष्ठान द्वारा अपने में रहे अशुभ संकल्प-विकल्पों को दूर कर, शुभ संकल्पमय आराधक-भाव से सिद्धि प्राप्त करता है । परमात्म-भक्ति, प्रतिक्रमण, शास्त्र-पठन, प्रतिलेखन आदि परमात्मदर्शित नानाविध क्रिया-कलापों में जीवात्मा को न जाने कैसा स्वर्गीय प्रानन्द मिलता है ! हिमालय की उत्तुंग पर्वत-श्रेणियों पर विजय पाने का पर्वतारोहकों में रहा अदम्य उत्साह, 'एवरेस्ट' प्रारोहण की सूक्ष्मतापूर्वक की गयी भारी तैयारियाँ, पारोहण के लिये आवश्यक साज-सामान इकट्ठा करने की सावधानी ! इन सबमें महत्त्वपूर्ण है एक मात्र, 'एवरेस्ट'प्रारोहण की प्रवृत्ति ! मन में जगी तीव्र लालसा ! इसमें हमें कौन सी बात के दर्शन होते हैं ? कौनसी प्रवृत्ति देखने को नहीं मिलती ? ठीक यही बात यहाँ भी है। समाधियोग के उत्तग शिखर पर आरोहण करने उत्तेजित साधक आत्मा का उल्लास, अनुष्ठानों के प्रति परम प्रीति, उत्कट भक्ति एवं पौगलिक क्रीडा को तजकर सिर्फ 'समाधियोग' के शिखर पर चढ़ने की तीव्र प्रवत्ति आदि होना सहज है। साथ ही धर्मग्रन्थों में दिग्दर्शित मार्ग का अनुसरण करने के उसके सारे प्रयत्न भी स्वाभाविक ही हैं । परम आराध्य तार्किक शिरोमणि उपाध्यायजी महाराज ने भी 'योगबिशिका' में 'वचनानुष्ठान' की व्याख्या इस तरह की . Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार है, 'शास्त्रार्थ-प्रतिसंधानपूर्वा साधोः सर्वत्रोचितप्रवृत्ति :।' क्या एवरेस्टप्रारोहक, प्रारोहण-गाइड का शत प्रतिशत अनुसरण नहीं करते ? अपनी प्रवृत्ति में क्रियाशील नहीं रहते ? प्रवृत्ति करते हुए आनंदित नहीं होते ? माईड (मार्गदर्शक) के प्रति उनके मन में प्रीतिभाव और भक्ति नहीं होती ? यही बात समाधि-शिखर के प्रारोहक के लिये भी अत्यन्त आवश्यक है । - समाधि शिखर के विजेता बनते ही मुनिजन/योगी महापुरुष अन्तरंग क्रियायुक्त बनता है। वह उपशम द्वारा ही विशुद्ध बनता है। तब उसे 'असंग अनुष्ठान' की भूमिका प्राप्त होती है। जिसे सांख्य दर्शन में प्रशांत वाहिता, बौद्ध दर्शन में 'विसभागपरिक्षय'शैवदर्शन में 'शिववर्म' और जैनदर्शन में 'असंग अनुष्ठान' की संज्ञा दी गयी है। इसे संपन्न करने के लिये शास्त्र के आधार की आवश्यकता नहीं होती। वल्कि जिस तरह चन्दन में सौरभ मिली है, उसी तरह उनमें (मुनि योगी में) अनुष्ठान आत्मसात् होता है और यह अनुष्ठान जिनकल्पी महात्मा वगैरह में सदा-सर्वदा होता है । ध्यानवृष्टेर्दयानद्याः शमपूरे प्रसर्पति । विकारतीरवृक्षाणां, मूलादुन्मूलनं भवेत् ॥५॥४। अथ : ध्यान रुपी सतत वृष्टि से दया रूपी सरिता में जब उपशम रूपी उत्ताल तरंग उछलने लगती हैं, तब तट पर रहे विकार-वृक्ष जड़-मूल सी उखड जाते हैं विवेचन : गंगा-यमुना अथवा ब्रह्मपुत्रा नदो में आयो प्रलयंकारी बाढ को देखने का कभी मौका मिला है ? तट पर लहराते-इठलाते उन्नत वक्षों को क्षणार्ध में बाढ़ का भोग वन, धराशायी होते देखा है ? दयाकरूणा की सिंधु सदृश सरयु में जव शमजल की प्रलयंकारी बाढ़ आती है. तब अनादि काल से तट पर रहे फलते-फूलते मौतिक पौदगलिक विषयवामना के गवोन्नत वृक्ष, गगनभेदी आवाज के साथ ढहते देर नहीं लगती। लेकिन किसी सरिता में बाढ़ कब आती है ? जब निरन्तर मूसलाधार बारिश होती है ! ठीक उसी भाँति आत्मप्रदेश पर दया की नदी मंथर गति से बहती हो और तिस पर अविरत रूप से धर्म-ध्यान की Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम वृष्टि भी होती हो, तब शमरस की बाढ आते देर नहीं लगती। और बाढ़ के प्रबल प्रवाह में वासना के वृक्ष उखड़ते विलंब नहीं लगता। जब करुणा को/जीवदया की नदी में शमरस रूपी बाढ़ आती है, तब सर्व प्रथम जीवात्मा के मन में प्राणी मात्र के लिये 'सव्वे जीवा न हंतवा'- 'संसार के सभी जीवों की हत्या नहीं करनी चाहिये, किसी तरह की पीडा नहीं पहँचानी चाहिये', ऐसी करूणा प्रकट होनी चाहिये। करूणा के साथ-साथ ध्यान-धारा का प्रवाहित होना भी जरूरी है। मतलब, तीसरा ध्यान-योग है, जिसका अनुसरण जीवात्मा के लिये अत्यन्त जरुरी है । 'ध्यानं स्थिरोऽध्यबसाय :' 'श्री ध्यान विचार' ग्रंथ में, स्थिर अध्यवसाय को 'ध्यान' कहा गया है । आर्त-रौद्र यह द्रव्यध्यान है, जब कि आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विचय और संस्थान विचय रुपी धर्मध्यान भावध्यान है । 'पृथक्त्त्व वितर्क सविचार' रूपी शुक्लध्यान का पहला भेद 'परमध्यान' है । परम अादरणीय श्री मलयगिरि महाराज ने श्री आवश्यक सूत्र में धर्मध्यानी के निम्नांकित लक्षणों का वर्णन किया है : सुविदियजगस्सभावो निस्संगो निभओ निरासो अ । वेरग्गभाबियमणो झारणम्मि सुनिच्चलो होइ ।। _ 'जो जगत-स्वभाव से परिचित है, निर्लिप्त है, निर्भय है, स्पृहारहित है और वैराग्य भावना से अोतप्रोत है, वही ग्रात्मा ध्यान में निश्चल/तल्लीन रह सकती है ।' ऐसी महान ग्रात्मा जिस वेग से धर्मध्यान की ओर अग्रसर होती जाती है, उसी अनुपात से उसके हृदयवारिधि में उपशम-तरंगें उठती जाती हैं, शमरस की प्रलयंकारी बाढ पाती है । और विकार-वासना के वृक्ष प्रानन फानन में धराशायी हो जाते हैं । ज्ञान-ध्यान-तपःशील-सम्यक्त्वसहितोऽप्यहो । त नाप्नोति गुणं साधुर्यमाप्नोति शमान्वितः ।।५।।४५।। अर्थ : जो गुण, ज्ञान-ध्यान तप शील मौर समकितधारी साधु भी प्राप्त नहीं कर सकता, वह गुण शमयुक्त साधु आसानी से प्राप्त कर लेता है। विवेचन :- भले ही नौ तत्वों का बोध हो, किसी एक प्रशस्त विषय में सजातीय परिणाम की धारा प्रवाहित हो, अनादिकालीन अप्रशस्त Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार विषय-वासनाओं के निरोध स्वरुप उग्र तपश्चर्या हो, नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन हो, जिन-प्रणीत वचन और सिद्धान्तों के प्रति अटूट श्रद्धा हो, फिर भी यदि जीवात्मा के जीवन में 'शम' के लिये स्थान नहीं है, उस में समता नामक वस्तु का नामोनिशान नहीं है, समस्त विश्व को द्रव्यास्तिक नय से राग-द्वेषरहित पूर्ण चैतन्यस्वरुप समझने की कला का अभाव है, दृष्टि नहीं है, तो सब व्यर्थ है। इससे आत्मा का विशुद्ध अनन्त असीम ज्ञानमय स्वरुप प्रकट नहीं होता। उसे समग्र दृष्टि से पूर्णत्व प्राप्त नहीं होता । भगवान उमास्वाति ने श्री 'प्रशमरति' में कहा है-.... सम्यग्दृष्टिनिी विरतितपोबलयुतोऽप्यनुपशान्तः । तन लभते गुणं यं प्रशमगरणमुपाश्रितो लभते ॥२४३।।। जो स्वयं समकितधारी होते हुए भी अन्यों को मिथ्यात्वी समझता है, खुद ज्ञानी होते हुए भी दूसरों को मूर्ख समझता है, स्वयं श्रावक या श्रमरण होते हुए दूसरों को मोहान्ध मानता है, तपस्वी होते हुए दूसरों को तपस्वी नहीं समझता और उनके प्रति धिक्कार की दृष्टि से देखता है, ऐसे मनुष्य का चित्त क्रोध, मान, माया और स्पृहा से आकंठ भरा होता है । वह केवलज्ञान से कोसों दूर होता है । _चार-चार माह के निर्जल-निराहरा उपवास की घोर तपश्चर्या के वावजुद चार मुनियों ने संवत्सरी के दिन खाने वाले 'कुरगडु-मुनि' के प्रति घृणा-भाव प्रकट किया, अनुपशान्त बने....परिणाम यह हुआ कि केवलज्ञान की मंजिल उनसे दूर होती चली गयी । जब कि उपशमरुपो शान्त जलाशय में गोते लगाते 'कुरगडु मुनि' केवलज्ञान के अधिकारी बन गये । "लगातार अविश्रान्त तपश्चर्या करनेवाले और बीहड जंगल में नानाविध कष्ट-अनिष्टों का समतापूर्वक सामना करने वाले बाहुबली में किस ज्ञान की कमी थी ? क्या धर्मध्यान नहीं था ? क्या वे तप अथवा शील से युक्त न थे ? उनमें सब कुछ था । न थी तो सिर्फ उपशमवृत्ति । उपशमरस का उनमें अभाव था । फलतः केवलज्ञान की ज्योति प्रज्वलित न हुई । लेकिन उपशम-वृत्ति का प्रादुर्भाव होते ही केवलज्ञान-प्रद्योत प्रकट होते विलंब न लगा । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयंभूरमणस्पर्धि वर्धिष्णुसमतारसः । मुनियनोपमीयेत, कोऽपि नासौ चराचरे ॥६॥४६।। अर्थ : स्वयंभूरमा समुद्र की स्पर्धा करने वाला और जो निरन्तर वृद्धिंगत होती समता से युक्त हैं, ऐसे मुनिश्रेष्ठ की तुलना इस चराचर जगत में किसी के साथ नहीं की जाती है । विवेचन :- चराचर सृष्टि में ऐसा कोई जड-चेतन पदार्थ नहीं है, जिसकी तुलना समता-योगी के साथ की जा सके । समता-योगी के आत्मप्रदेश पर समतारस का जो महोदधि हिलोरे ले रहा है, वह 'स्वयंभूरमण' नामक विराट, अथाह वारिधि के साथ निरंतर स्पर्धा करता रहता है । समता-महोदधि का विस्तार अनन्त अपार है, जब कि उसकी गहराई भी असीम अथाह ! तब भला स्वयंभूरमण समुद्र उसकी तुलना में कैसा होगा ? साथ ही, समता-महोदधि अविरत रुप से वृद्धिगत होता रहता है। इसी तरह ज्यों-ज्यों समतारस में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, त्योंत्यों मुनि अगम-अगोचर सुखप्रदायी कैवल्यश्री के सन्निकट गतिशील होता जाता है । वह इस पार्थिव विश्व में रहते हुए स्वच्छन्दतापूर्वक मोक्ष-सुख का आस्वाद लेता रहता है । जो निजानन्द में आकंठ डब गया, परवृत्तान्त के लिये अन्धा, बहरा और गुगा हो गया, मद-मदन-मोह-मत्सर-रोष-लोभ और विषाद का जो विजेता बन गया, एक मात्र अव्याबाध-अनन्त सुख का अभिलाषी बन गया, ऐसे जीवात्मा को भला, इस दुनिया में क्या उपमा दी जाय ? ऐसे मुनिश्रेष्ठ के लिये यहां ही मोक्ष है । श्री 'प्रशमरति' में ठीक ही कहा है : निजित मदमदनानां, वाक्कायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्ष: सुविदितानाम् ।।२३८॥ ___ 'जो जीवात्मा मद-मदन से अजेय है, न-वचन-काया के विकारों से रहित है और पर की आशा से विनिवृत्त है, उसके लिये इस सृष्टि पर ही मोक्ष है।' तात्पर्य यह है कि समतारस के स्रोत में प्लावित हो, स्वर्गीय आनन्द के आस्वाद का अनुभव करने और मद-मदनविजेता बनने के लिये घोर पुरूषार्थ करना चाहिये। मन-वचन-काया के समस्त अशुभ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार विकारों को तिलांजलि देनी चाहिये । साथ ही, पर-पदार्थ की स्पृहा से पूर्णरूपेण निवृत्त होना चाहिये । परिणामस्वरुप, मानव इसी जीवन में मोक्ष-सुख का अधिकारी बन सकता है ! शमसूक्तसुवासिक्त येषां नक्त दिन मनः । कदाऽपि ते न दह्यन्ते, रागोरगविषोमिभि: ७॥४७।। अर्थ : शम के सुभाषित रूपी अमृत से जिसका मन रात-दिन सिंचित है, बह राग-रूपी सर्प की विषली फुत्कार से दग्ध नहीं होते। [ नहीं जलते ] विवेचन :- शमरस से युक्त विविध शास्त्र-ग्रन्थ, धर्मकथा और सुभाषितों से जिसकी आत्मा सिंचित है, उसमें भूलकर भी कभी रागफरिणधर की विषेली लहर फैल नहीं सकती। जो नित्य प्रति उपशम से भरपूर ऐसे ग्रन्थों का अध्ययन-मनन करता हो, उसके मन में पार्थिव | भौतिक विषयों के प्रति आसक्ति, रति और स्नेह की विहवलता उभर नहीं सकती । महमुनि स्थूलिभद्रजी के समक्ष एक ही कक्ष और एकान्त में नगरवधु कोशा सोलह सिंगार सज, नृत्य करती रही । अपने नयन-बारण और कमनीय काया की भाव-भंगिमा से रिझाती रही । लेकिन स्थलिभद्रमी क्षणार्ध के लिये भी विचलित नहीं हुए, बल्कि अन्त तक ध्यान-योग में अटल-अचल-अडिग रहे । यह भला कैसे संभव हुना ? केवल उपशमरस से युक्त शास्त्र-परिशीलन में उनकी तत्लीनता के कारण ! महीनों तक षड्रसयुक्त भोजन ग्रहण करने के उपरान्त भी उन्हें मद-मदन का एक भी बाण भेद नहीं सका। भला किस कारण ? वह इसलिए कि उनके हाथ और मुंह खाने का काम कर रहे थे, लेकिन मन-मस्तिष्क समता-योग के सागर में गोते जो लगा रहा था ! __ इन्द्रियाँ जब अपने-अपने विषयों में व्यापृत रहती हैं, तब उसमें मन नहीं जुड़े और उपशमरस की परिभावना में लीन रहे, तो सब काम सुलभ बन जाएगा । राग-द्वेष तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकेंगे। अतः हमें सर्वप्रथम अपने मन को, उपशमपोषक धर्मग्रंथो के अध्ययन-मनन और बार-बार उसके परिशीलन में जोड़ना चाहिए । ठीक इस बीच, इन्द्रियों को अतिप्रिय हो ऐसे विषय-विकारों से उसका सम्पर्क तोड देना चाहिए । भले फिर जोर-जबरदस्ती क्यों न करनी पड़े ! क्योंकि पीछेहट Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शम ६६ करना विनिपात को न्यौता देना होगा । जब आत्मा अलिप्त बन जाती है, तब हर बात संभव और सुगम होती है । इस तरह संसर्ग के टूट जाने से और उपशमपोषक ग्रंथों के निरन्तर पठन-पाठन से उपशमरस की बाढ़ आते देर नहीं लगेगी और जीवात्मा उसमें गोते लगायेगी । तत्पश्चात् आवश्यकतानुसार जो विषय-संपर्क रखेंगे, उसमें राग-द्वेष का कुछ नहीं चलेगा, बल्कि उत्तरोत्तर उसका क्षय होता जाएगा । राग के खेल में भी समता का आभास मिलता है, लेकिन देखना कि उसके जाल में कहीं फँस न जाओ! क्योंकि वह समता नहीं है, बल्कि सिर्फ समताभास है । आमतौर पर बाह्य पदार्थों की अनुकुलता में मानव शान्ति और समता समझ लेने की गंभीर भूल कर बैठता है । जबकि वह समता कृत्रिम होती है, उसे भंग होते देर नहीं लगती । गर्जज्ञानगजोत्तुंगरंगद्धयानतुरंगमाः । जयन्ति मुनिराजस्य, शमसाम्राज्यसंपदः ॥८॥४८।। अर्थ : जहाँ गर्जन करते ज्ञान रूपी गजराज और इठलाते इतराते ध्यान रूपी अश्वों की भरमार है, ऐसे मुनिरूप नरेश के शमरुप साम्राज्य में सदा-सर्वदा सुख-शान्ति और संपदा की जयपताका निरन्तर फहराती रहती है। विवेचन : 'मुनिराजा' ! कैसा सुन्दर नाम है ! कर्णप्रिय और परम मनोहर । उनके विशाल साम्राज्य का कभी अवलोकन/दर्शन किया है ? अरे, शम....उपशम....समता ही तो उनका नयनरम्य, परम मनोहर विशाल साम्राज्य है ! वे बड़ी सावधानी से उसका संचालन और संरक्षण करते हैं । उसकी सीमा पर ऐसी तो कड़ी सुरक्षा-व्यवस्था है कि राग-द्वेष जैसे महाविकराल शत्रु लाख प्रयत्नों के बावजूद भी उसे भंग नहीं कर सकते । ऐसी इनकी जबरदस्त घाक और बड़ा दबदबा है । जैसा उनके नाम का प्रभाव है वैसा उनका शस्त्रभंडार और सेनायें भी जबरदस्त अतुल बलशाली हैं। उनके पास दो प्रकार की सेनायें हैं : हयदल और अश्वदल । इन पर वे पूर्ण रूप से आश्रित हैं और मुस्ताक भी । ज्ञान उनका हयदल है और ध्यान उनका अश्वदल । ज्ञान रुपी हयदल की दिगंत-व्यापी गर्जना और ध्यान रुपी अश्वदल की हिनहिनाहट के बल पर उनके संपूर्ण साम्राज्य में परम शान्ति, सुख Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार समृद्धि और संपदा की रेलपेल है । शम-साम्राज्य की विजयपताका आकाश में उन्नत हो सदैव लहराती रहती है । मुनिजीवन का न जाने कैसा सुरम्य, सुन्दर चित्र परम श्रद्धेय उपाध्यायजी महाराज ने हमारे सामने प्रस्तुत किया है कि बरबस मन मुग्ध हो उठता है । मुनि का उन्होंने राजसिंहासन पर अभिषेक कर 'मुनिराजा का साम्राज्य सदा-सर्वदा विजयवंत हो !' की ललकार लगायी है । तब स्नेहस्निग्ध भाव से दबे स्वर में उन्हें अजरामर संदेश दिया है : "मुनिराज ! अब तुम राजा बन गये हो ! अपने उपशम-साम्राज्य के एकमेव बलशाली, शक्तिशाली सम्राट! सावधानी के साथ इसका संचालन और संरक्षण करना, इसमें जरा भी भूल न हो जाए।" और जब मुनिराज को परेशान, उद्विग्न-मन, घबराते देखते हैं, तब अपने मुख पर मधुर मुस्कान लाकर कहते हैं : "मेरे राजा ! इस तरह घबराने से, परेशान होने से काम नहीं चलेगा । तुम्हारे पास सर्व शक्तिशाली सेनायें और अक्षय शस्त्रभंडार है। फिर भय और उद्विग्नता किस बात की ? तुम हयदल और अश्वदल/ज्ञान और ध्यान के एकमात्र अधिपति हो, शक्तिमान संचालक ! हयदल की गगनभेदी चिंघाड से समस्त शत्रुओं के....राग-द्वेष के छक्के छूट जायेंगे और तब अभेद्य मोर्चाबन्दी को भेदकर वे एक कदम भी आगे बढ़ नहीं पायेंगे-फलत : अश्वदल के उत्तुग अश्वों पर प्रारुढ हो, निश्चिन्त बन क्रीडा करते रहना ।" समतायोग की रक्षा मुनिश्रेष्ठ ज्ञान-ध्यान के बल पर सरलता से कर सकते हैं और ज्ञान-ध्यान के माध्यम से ही योगीजन समतायोग की भूमिका निभा सकते हैं । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. इन्द्रिय-जय यह एक ऐसा भयस्थान है, जहाँ जीवात्मा के लिये सदैव सावधान सचेत रहना आवश्यक है। जहां निर्मोही-भाव शिथिल बन जाता है और क्षणार्ध के लिये शम-सरोवर में से जीवात्मा बाहर निकल आता है, वहाँ इन्द्रियाँ बरबस अपने प्रिय विषय के प्रति आकर्षित हो जाती हैं । जीव पर मोह और अज्ञान अपना मायावी जाल बिछाने लगता है। सावधान ! जब तक तुम शरीरधारी हो, तब तक तुम्हारी इन्द्रियाँ विषयवासनादि विकारों के संपर्क में प्राती रहेंगी। ऐसी दुर्भर स्थिति में क्या तुम निर्मोही और ज्ञानी बने रह सकोगे ? शभ की संपत्ति को सम्हाल सकोगे ? उसकी रक्षा कर सकोगे ? ऊसके लिये तुम्हें इस अष्टक के एकएक श्लोक पर निरंतर चिन्तन-मनन करना चाहिये । इस से तुम्हें इन्द्रिय-विजय की अमोघ शक्ति और समुचित मार्गदर्शन मिलेगा। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानसार विमेधि यदि संसारान्मोक्षप्राप्ति च काक्षसि । तदेन्द्रियजयं कतु, स्फोरय स्फारपौरुषम् ॥१॥४६॥ अर्थ : यदि तू संसार से भयभीत है और मोक्ष-प्राप्ति चाहता है, तो अपनी इन्द्रियों पर विजय पाने के लिये प्रखर पराक्रम का विकास कर । विवेचन : वाकई तुम संसार से भयक्रान्त हो, भयभीत हो? चार गति में होती जीव मात्र की घोर विडंबनाओं से त्रस्त हो, परेशान हो ? संसार के नानाविध मोहबंध करके अजीब घुटन महसूस हो रही है ? विषयविवशता और कषाय पराधीनता में तुम्हें अपना विनिपात नजर आ रहा है ? तुम ऐसे भयावने संसार से मुक्त होना चाहते हो? लेकिन यों मुक्त होने की नीरी भावना से क्या होगा ? तुम्हारे में उसकी वासना पैदा होनी चाहिये । तब काम बनेगा । पिजडे में बन्द सिंह की, उससे मुक्त होने की वासना तुमने देखी होगी और साथ ही उसकी तडप और प्रयत्नों की पराकाष्ठा भी ? । संसार के बंधनों से मुक्त होकर तुम मोक्ष जाना चाहते हो ? मोक्ष की अन्तहीन स्वतंत्रता चाहते हो ? उसकी अनंत गुण-समृद्धि के अधिकारी बनना चाहते हो ? उसका अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन पाने की तीव्र लालसा तुम में है ? तब तुम्हें एक पुरुषार्थ करना होगा.... महापुरुषार्थ का बिगुल बजाना होगा। भाग्य के भरोसे नहीं रह सकते । काल का बहाना करने से काम नहीं चलेगा। भावी के कल्पनालोक में खो जाने से नहीं चलेगा । बल्कि भगीरथ पुरुषार्थ और पराक्रम करने से ही संभव है । मन-वचन-काया से उसमें जुट जाना होगा । 'आराम हराम है'-सूक्ति को जीवन में कार्यान्वित करना होगा। तभी संभव है। ___ तुम्हें अपनी पाँच इन्द्रियों को वशीभूत करना होगा । उन पर विजय पानी होगी । शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श की लोलुप इन्द्रियों को नियंत्रित करना होगा । अमर्यादित इच्छाओं का निग्रह करना पडेगा। शब्द, रूप, रसादि की जो भी इच्छायें पैदा हों, उनकी पूर्ति न करो । उन्हें पूरी नहीं करने का मन ही मन दृढ़ संकल्प करो। और यदि यह सब करते हुए असंख्य दुःखों का सामना करना पड़े, तो हँसते हुए सहना सीखो । दु:ख-दर्द सहने की प्रात्म-शक्ति को विकसित करो। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय-जय शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्शजन्य सुखों का उपभोग करने की, उनके माध्यम से प्रामोद-प्रमोद प्राप्त करने की वर्षों पुरानी आदत का उच्चाटन करने की निश्चित योजना बनाकर तप-त्याग-ज्ञान-भक्ति आदि के पुरुषार्थ में लग जाओ । नये सिरे से अपने जीवन में उसका आरंभ कर दो। संसार-त्याग और मोक्ष-प्राप्ति के लिये इन्द्रिय-विजय का अभियान सर्वथा अनिवार्य है। वृद्धास्तृष्णाजलापूर्णैरालवाले: किलेन्द्रियैः । मुमितुच्छां यच्छन्ति, विकारविषपादपाः ॥२॥५०॥ अर्थ : लालसा रुपी जल से लबालब भरी इन्द्रय रुपी क्यारियों से फले-फूले विषय-विकार रुपी विषवृक्ष, जीवात्मा को तीव मोह-मूर्छा देते हैं। विवेचन : इन्द्रियाँ खेत की क्यारियों जैसी हैं । उनमें लालसा और विषय-स्पृहा का जल लबालब भरा जाता है । साथ ही इन क्यारियों में बीज-स्वरूप पड़े विषय-विकार पनपते रहते हैं और कालान्तर से वटवृक्ष का रूप धारण कर लेते हैं। विकार-विकल्प के इन विषवक्षों की घटाओं की लपेट में जो जीव आ जाता है, वह विबश बन उसके अभेद्य बन्धनों में फंस जाता है और मोहवश अपने होश खो बैठता है । जब कि क्यारी में बीज भले ही पडा हो, लेकिन अगर उसे सींचा न जाए अथवा पानी न दिया जाय, तो वह फलता-फूलता नहीं, अंकुरित नहीं होता । फिर वृक्षरूप में प्रकट होने का सवाल ही नहीं रहता । जीवात्मा पाँच इन्द्रिय और मन लेकर जन्म धारण करता है । तब से ही उसकी इन्द्रियरूपी क्यारियों में मनघट से विषय-स्पृहा का जल-सिंचन अविरत रूप से होता ही रहता है । फलतः जैसे-जैसे वह बडा होता जाता है, वैसे-वैसे इन्द्रियों की क्यारियों में विषय-वासना का पौधा अंकुरित होता रहता है और जब तक वह यौवनावस्था को पहुँचता है, तब विषय-पौधा भी घटादार वृक्ष का रूप धारण कर लेता है । जीव इसी विषय-विकार के घटादार वृक्ष की घनी छाया में सुस्ताता रहता है । मोह का गाढा जादू उस पर सवार हो जाता है । उसका चित्त भ्रमित होता जाता है और मन मायाजाल में उलझकर मूच्छित बन जाता है । अपने होश गँवा बैठता है, अट-शंट बकता रहता है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ उसमें मर्कट- चेष्टाओं का संचार होता है और वह पराधीन वन संसार के बाजार में इधर-उधर भटकता रहता है । ज्ञानसार जीव जिस अनुपात से इच्छित विषयों का खाद्य देकर अपनी इन्द्रियों का पोषण करता रहता है, उसी गति से आत्मा में दुष्ट, मलीन और निकृष्ट विकार अबाध रूप से परिपुष्ट होते रहते हैं । जीवात्मा पर मोह-मूर्च्छा का शिकंजा कस जाता है । परिणाम स्वरूप वह मन-वचन काया से विवेक भ्रष्ट बन असीम दुःख और अपार प्रशान्ति का शिकार बन जाता है । तब इस दुःख और शान्ति को दूर करने के लिए किसी जुमारी की तरह दुबारा दांव लगाता है । फिर से इन्द्रियों को खुश करने का भरसक प्रयत्न करता है । लेकिन आखिर में परिणाम शून्य ही आता है । उसकी हर कोशिश बेकार सिद्ध होती है और आन्तरिक दुःख अशान्ति घटने के बजाय उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है । परिणाम यह होता है कि दारुण दुःख और घोर अशान्ति के प्रहार सहन न कर पाने के कारण मृत्यु-भाजन बन जाता है । नाना प्रकार की दुर्गतियों में फँस कर नरक के गहरे कुए में धकेल दिया जाता है । अतः जीसको विकारों के विष वृक्ष से अपने आप को बचाना हो, उसे विषय लालसा और विकारों को पुष्ट करने की वृत्ति पर रोक लगानी चाहिए | और मन ही मन दृढ़ संकल्प धारण कर, विषय-पोषण के बजाय जीवन के लिये परम सन्जीवनीस्वरूप सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र को पुष्ट करने की प्रवृत्ति में दत्ताचित्त होना चाहिए । सरित्सहस्रदुष्पूरसमुद्रोदरसोदरः । तृप्तिमान्नेन्द्रियग्रामो भव तृप्तोऽन्तरात्मना ।। ३ ।। ५१ ।। श्रर्थ : यह जानकर कि असंख्य नदियों के द्वारा भी समुद्र के उदर समान इन्द्रिय-समूह को तृप्त नहीं कर सकते, हे वत्स ! ग्रन्तरात्मा से सम्यक् श्रद्धा का मार्ग अपनाकर अपने ग्राम को तृप्त कर । विवेचन : गंगा-यमुना और ब्रह्मपुत्रा जैसी असंख्य नदियाँ निरन्तर समुद्र के उदर में समाती रहती हैं, अपनी प्रथाह जलराशि उंडेलती हैं । फिर भी समुद्र कभी तृप्त हुग्रा ? उसने अनमने भाव से नदियों को क्या कह दिया कि - "बस हो गया, तुमने मुझे तृप्त कर दिया । अब तुम्हारी जरूरत नहीं है ।" मतलब, वह तृप्त नहीं हुआ और ना Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय-जय ७५ ही अन्त समय तक होगा । क्योंकि तृप्त होना उसका मूल स्वभाव ही नहीं है । ठीक इसी तरह पाँचों इन्द्रियों के स्वभाव में भी संतुष्ट होने जैसी वात नहीं है । इन्द्रियों का उदर भी सागर की गहराई जैसा प्रतल और गहरा है । अनंतकाल से, जीव अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये पौद्गलिक विषयों का भोग देता आया है, लेकिन उन्होंने उसे ग्रहण करने से कभी इन्कार नहीं किया । जरा वर्तमान जीवन की तरफ तो दृष्टिपात करो | अभी पिछले महीने ही उसे तृप्त करने के लिये क्या तुमने मनोहर शब्द, अनुपम रूप, स्वादिष्ट भोजन ( रस ) लुभावनी महक ( गंध ) और मृदु / कोमल स्पर्श का भोग नहीं चढ़ाया ? फिर भी वह तो सदा-सर्वदा के लिये भूखी जो ठहरी ! उसका उस पर कोई असर न हुआ । इस माह दुबारा क्षुधा शान्ति के लिये उसकी वही मांग, वही भूख और वही अतृप्ति । पिछले दिन पिछले माह और पिछले वर्ष जैसी अतृप्ति थी, भूख थी, वैसी ही ग्राज भी है । उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ, बल्कि विगत की तरह आज भी उनकी वही अवस्था है । इसका कारण उनका मूल स्वभाव है । तृप्त होना तो उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सीखा । जैसे-जैसे उनको अनुकूल वातावरण मिलता जाता है, वैसे-वैसे वे अनुकूल विषयों की अधिकाधिक स्पृहा करती रहती हैं । क्षणिक तृप्ति की टेकरी / टीले में अतृप्ति का खदबदाता लावा - रस भरा हुआ रहता है । , वाकई क्या तृप्त होना है ? ऐसी तृप्ति की गरज है कि दुबारा गरम लावारस का भोग न बनना पडे ? तब तुम दृढ़ निश्चयी बन अपनी इन्द्रियों को विषय खाद्य की पूर्ति कर तृप्त करने के बजाय, ग्रन्तरात्मा द्वारा तृप्त करने का प्रयोग कर देखो । सम्यग् विवेक के माध्यम से अप्रशस्त विषयों से इन्द्रियों को अलग कर उन्हें देव - गुरु-धर्म की आराधना में संलग्न कर दो । देव गुरु के दर्शन, सम्यक् ग्रंथों का श्रवण, परमात्मपूजन और महापुरुषों के गुणानुवाद में अपनी इन्द्रियों को लगा दो, तन्मय कर दो । दीर्घकाल तक सत् कार्यों में जुड़े रहने से उनमें परिवर्तन आते देर नहीं लगेगी और तब एक क्षण ऐसा आएगा कि वे परम तृप्ति का अनुभव अवश्य करेंगी । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार आत्मानं विषयः पार्भववासपराङ मुखम् । इन्द्रियाणि निबध्नन्ति, मोहराजस्य किकरा: ॥४॥५२॥ अर्थ : मोह राजा की दास इन्द्रियाँ सांसारिक क्रिया-कलापों से सर्वथा उद्विग्न बने प्रात्मा को विषय रुपी बंधनों में जकड़ रखती हैं । विवेचन : इन्द्रियों को कोई सामान्य वस्तु समझने की गलती न कर बैठना । वे दिखने में भले ही सीधी-सादी, भोली लगती हों, लेकिन अपने आप में असामान्य हैं । वे तुम्हारी भक्त नहीं हैं, सरल नहीं हैं, बल्कि मोहराजा की अनन्य आज्ञांकित सेविकायें हैं। मोहराजा ने अपनी इन स्वामी-निष्ठ सेविकाओं के माध्यम से अनंत जीवराशि पर अपना साम्राज्य फैला रखा है ! जो जीवात्मा संसारवास से, मोहराजा के अटूट बन्धन से त्रस्त होकर धर्मराजा की ओर आगे बढ़ता है, उसे ये बीच में ही रोक लेती है और पुनः मोह के साम्राज्य में खींच लाती हैं । वे अपने जादुई-पाश में जीव को ऐसी तो कुशलता से गुमराह कर देती हैं कि जीव को कतई पता नहीं लगता कि वह इन्द्रियों के जादुई पाश में बुरी तरह से फंस गया है । अन्त तक वह इसी भ्रम में होता है कि 'वह धर्मराजा के साम्राज्य में है ।' विषयाभिलाष-यह इन्द्रियों का जादुई पाश है, अनोखा जाल है। इन्द्रियाँ जीव से विषयाभिलाष कराती हैं, उसे नाना तरह से समझाबुझाकर विषयाभिलाष करने प्रेरित करती हैं । 'स्वास्थ्य अच्छा होगा, तो धर्मध्यान अच्छी तरह कर पाएगा। अत: अपने स्वास्थ्य और शरीर का वराबर खयाल कर !' पागल जीव उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाता है और शरीर-संवर्धन के लिये बाह्य-पदार्थों की निरन्तर स्पृहा करने लगता है । 'तुम्हारे तपस्वी होने से क्या हो जाता है ? यदि पारणे में घी, दूध, सूखा मेवा, मिष्टान्नों का उपयोग नहीं करोगे तो ठीक से तपस्या नहीं कर पाओगे ।' भोला मन इन्द्रियों की इस सलाह के बहकावे में आ जाता है और वह रसना का अभिलाषी बन जाता है । 'तुम ज्ञानी हो इससे क्या ? स्वच्छ वस्त्र परिधान करो। शरीर को निर्मल रखो । घोर तपस्या न करो। इससे दुनिया में तुम्हारी धाक जमेगी, सर्वत्र बोलबाला होगा ।' सरल प्रकृति के जीव Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय-जय को इन्द्रिय की यह सलाह सहज ही पसन्द आ जाती है और वह विषयों की स्पृहा में तन्मय बन जाता है । इस तरह जीवात्मा मोह के बन्धनों में जकड़ जाता है । फलतः बाह्य-रूप से धर्म-क्रिया में सदा तत्पर हो, लेकिन आन्तरिक रूप से मोह-माया के जंगल में भटक जाता है । अतः संसार से मुक्ति चाहने बाली आत्मा को हमेशा इन्द्रियों के विषय-पाश से काफी सचेत रहना चाहिये । गिरिमत्स्नां धनं पश्यन, धावतीन्द्रियमोहितः । अनादिनिधनं ज्ञानं धनं पार्वे न पश्यति ॥५॥५३॥ अर्थ :- इन्द्रिय के विषयों में निमग्न मूर्ख जोव पर्वत की मिट्टी को भी सोना चांदी वगैरह समझ, अतुल सपदा स्वरुप मानता है, उसे पाने के लिये बावरा बन चारों तरफ भागता है, परन्तु अपने पास रही अनादि-अनन्त ज्ञानसंपदा को देखता नहीं है । विवेचन : इन्द्रियों के विषयों में ग्रासक्त जीव न जाने कैसा मूर्ख है, पागल ! जो धन नहीं है, उसके पीछे निरन्तर भागता रहता है और वास्तव में जो धन है, उससे बिल्कुल अनजान, देखबर है । उसे पाने की तनिक भी चेष्टा नहीं करता । वह उसके बिल्कुल पास में होते हुए भी इसका उसे जरा भी ध्यान नहीं । सोना-चांदी अथवा धन-धान्यादि जो केवल पर्वत की मिट्टी के समान हैं, उसे वह संपत्ति मान बैठा है और उसे पाने के लिए दिनरात अथक प्रयत्न करता रहता है। कहते हैं न- 'दूर के ढोल सुहावने ।' दूर से जो संपत्ति दिखायी देती है, वाकई वह मृग-मरीचिका है। उसे पाने के लिये वह अपने चित्त की शान्ति और स्वास्थ्य को गँवा बैठता है और मिट्टी जैसी बदतर वस्तु को हथियाने के लिये, उसके संरक्षण और संवर्धन के लिये नित्य प्रति अशान्त, उद्विग्न बना रहता है । इस से बेहतर तो यह है कि तुम अपना रूख ज्ञान-धन जोड़ने की मोर मोड दो। इसे पाने के लिये तुम्हें कहीं बाहर नहीं जाना होगा; बल्कि वह तो अनादिकाल से तुम्हारे पास में ही है । तुम्हारी आत्मा की गहराईयों में दवा हुआ पडा है और उस पर कर्मों की अनगिनत Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ परतें जम गयी हैं । फलत: इन परतों को दूर कर अक्षय खजाने को प्राप्त करने के लिये महापुरुषार्थ करना ही हितकारक है । जैसे-जैसे तुम एक के बाद एक इन परतों को हटाते जाओगे, वैसे-वैसे ज्ञान- कोष की उपलब्धि होती जायेगी और तुम्हें अपूर्व सुख-शान्ति का मन ही मन अनुभव हो जाएगा । लेकिन ऐसा महापुरुषार्थ करने के लिये तुम तभी समर्थ होंगे, जब तुम्हारे में इन्द्रिय-विषयक आसक्ति का पूर्ण रूप से अभाव होगा । तुम इन्द्रिय-पाशों से बिल्कुल मुक्त हो जाओगे । सावधान ! विषयासक्ति तुम्हें ज्ञान-घन हांसिल नहीं होने देगी। अपनी ओर से वह तुम्हारे मार्ग में हर संभव रोडा अटकायेगी, बाधायें पैदा करेगी और ऐसा भगीरथ पुरुषार्थ करने नहीं देगी । यह निर्विवाद सत्य है कि आज तक तुमने ज्ञान-धन पाने का पुरुषार्थ नहीं किया, उसके पीछे इन्द्रिय-परवशता ही मूल कारण है | श्रुतज्ञान ( ज्ञानधन ) पाने के पश्चात् भी अगर जीव इन्द्रिय-परतंत्रता का शिकार बन जाए तो प्राप्त ज्ञानधन लुप्त होते देर नहीं लगती। तभी श्री भावदेवसूरिजी ने कहा है : ज्ञानसार " जई चउदश पुव्वधरो, निद्दाईपमायाओ वसइ निगोए अनंतयं कालं ।" चौदह पूर्वधर महर्षि भी यदि निद्रा, विकथा, गारव में अनुरक्त / लीन हो जाए, तो वे भी अनन्तकाल तक निगोद में भटकते हैं । अर्थात् जब तक केवलज्ञान का निधान प्राप्त न हो, तब तक क्षरणाध के लिये भी इन्द्रिय- लोलुप बनने से काम नहीं चलता । निरन्तर जागृति और ज्ञानधन की प्राप्ति हेतु सदैव पुरुषार्थ करते ही रहना है । पुरः पुर: स्फुरत्तृष्णा, मृगतृष्णानुकारिषु । इन्द्रियार्थेषु धावन्ति त्यक्त्वा ज्ञानामृत जडाः || ६ || ५४ || अर्थ :- जिसको उत्तरोत्तर बढ़ती हुई तृष्णा है, ऐसे मूर्खजन ज्ञान रूपी अमृत रस का त्याग कर मृगजल समान इन्द्रियों के विषयों में दौड़ते हैं । विवेचन : हिरण को भला कौन समझाये ? न जाने वह किस खुशी में कुलांचे भरता दौडा जा रहा है ? यहाँ कहाँ पानी है ? यह तो नीरी सूर्य किरण की जगमगाहट है ! उसे कहाँ पानी मिलनेवाला है ? मिलेगा.... क्लेश, खेद और अथक थकान ! लेकिन हिरण कहाँ किसी की -सुननेवाला है ? वह तो निपट मूर्ख.... मतिमन्द ! लाख समझाने के Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय-जय बावजूद कुलांचे भरता, किलकारी मारता भागता ही रहा और जा पहुँचा रेगिस्तान में ! जहाँ देखो वहाँ रेत ही रेत ! जिसे उसने पानी से लबालब भरा जलाशय समझा, वह निकली रेत, सिर्फ धल के जगमगाते अगणित करण ! लेकिन उत्साह कम न हुआ, जोश में प्रोट न आयी । क्षणार्ध के लिए रूका और दूर-सुदूर तक देखता रहा । दुबारा जलाशय के दर्शन हुए। फिर दौड लगायी । जलाशय के पास जा पहुँचा । लेकिन जलाशय कहाँ ? वह तो सिर्फ मृगजल था, एक छलावा ! मगर हिरण को कौन समझाये कि रेगिस्तान में कहीं पानी मिला है, जो उसे मिलेगा...? ठीक इसी तरह संसार के रेगिस्तान में इन्द्रिय-लोलुपता के वशीभूत हो, कुलांचे भरते जीवों को कौन समझाये ? जिस वेग से जीव इन्द्रियसक्ति का दास बना भागता रहता है, उसी अनुपात में उसकी वैषयिक-तृष्णा बढ़ती ही जाती है । क्लेश, खेद, असंतोष और अशान्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है । इसके बावजूद भी वह, समझने को कतइ तैयार नहीं कि इन्द्रियजन्य सुख से उसे तृप्ति मिलने वाली नहीं है । यही तो उसकी मानसिक जडता है, निपट मूर्खता और अव्वल दर्जे की अनभिज्ञता/अज्ञानता ! श्री उमास्वातिजी ने अपनी कृति 'प्रशमरति' में इसे लेकर तीखा उपालंभ दिया है येषां विषयेषु रतिर्भवति न तान् मानुषान् गरणयेत् । 'जिसे विषयों में तीव्र आसक्ति है, उसकी गणना मनुष्य में नहीं करनी चाहिये ।' अर्थात् जो जीव मनुष्यत्व से अलंकृत है, उसे इन्द्रियों के विषयों से क्या मतलब ? उसे विषयों से लगाव क्यों, प्रेम-भाव क्यों ? यदि इन्द्रियों के व्यापार से तन्मयता साधनी है, तो इसके लिये मनुष्य-भव नहीं । मानव-जीवन में तो ज्ञानामृत का ही पान करना है। उसमें ही परम तृप्ति का अनुभव करना है । जैसे-जैसे तुम ज्ञानामृत का पान करते जानोगे, वैसे-वैसे निकृष्ट, तुच्छ, अशुचिमय और असार ऐसे वैषयिक सुखों के पीछे दौडना कम होता जायेगा । इन्द्रियों के विषयों को आसक्ति खत्म होती जाएगी। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार पतङ्गामृङ्गानीनेभ-सारंगा यान्ति दुर्दशाम् । एकेकेन्द्रिय दोषाच्छेद, दुष्टस्तैः किन पंचभिः ॥७॥५५॥ अर्थ :- पतंगा, भ्रमर, मत्स्य, हाथी और हिरण एक-एक इन्द्रिय के दोष से मृत्यु को पाते हैं, तब दुष्ट ऐसी पांच इन्द्रिों से क्या क्या न होगा? विवेचन : एक-एक इन्द्रिय की गुलामी ने जीवात्मा की कैसी दुर्दशा की है ? पतंगा दीप-शिखा के नेह में निरन्तर उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है । उसे पाने के लिये प्राणों की बाजी लगा देता है। उसके रूप और रंग को निरखकर मन ही मन सपनों के महल सजाता अबाध रूप से घूमता ही रहता है। एक पल के लिये भी रुकने का नाम नहीं लेता । चक्षुरिन्द्रिय द्वारा उत्पन्न रूप-प्रीति के वशीभूत हो, अपने आप पर से नियंत्रण खो बैठता है । वह बरबस प्रज्वलित दीपशिखा को आलिंगन कर बैठता है। लेकिन उसे क्या मिला ? आलिंगन मे प्यार मिला ? उत्साह और जोश में वृद्धि हुई? अमृतवर्षा हुई ? नहीं, कुछ भी नहीं मिला । मिली सिर्फ आग, चिंगारी की तपन और वह क्षणार्ध में जल कर खाक हो गया। अरे, उस भावुक भ्रमर को तो तनिक देखो ! मृदु सुगंध का बड़ा रसिया ! जहां सुगंध आयी नहीं कि बड़े मिया भाग खड़े हुए। होश खोकर बेहोश होकर ! लेकिन सूर्यास्त के समय जब कमल-पुष्प संपुटित होता है, तब यही रसिया भ्रमर उसमें अनजाने वन्द हो जाता है । फलत: उसकी वेदना का पारावार नहीं रहता। उसकी वेदना को देखने और समझने वाला वहाँ कोई नहीं होता । और जब दूसरे दिन कमल-पुष्प पुन : खिलता है, तब उसमें से इस अभागे प्रेमी का निर्जीव शरीर धरती पर लुढक जाता है। लेकिन कमल-दल को इसकी कहाँ परवाह होती है ? 'तू नहीं. और सही', सूक्ति के अनुसार वह निष्क्रिय, निष्ठुर बना रहता है । जब कि इधर पूर्व-प्रेमी का स्थान दूसरा ग्रहण कर लेता है ! और कमाल इस बात का है कि वह पूर्वप्रेमी की और दृष्टिपात तक नहीं करता। यही तो लंपटता है, जिसकी भोग बनी जीवात्मा अपने आप को बचा नहीं सकती और दूसरे की ओर नज़र नहीं डालती । रस में ओत-प्रोत मछली की दशा भी कोई अलग नहीं है, बल्कि वही होती है, जो भोले हिरण और भावुक भ्रमर की होती है। जब Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय-जय मच्छीमार कांटे में बींध, पानी से ऊपर निकालता है अथवा अपने जाल को पत्थर पर पछाडता है. वारदार चाकु से छीलता है या उबलते तेल मैं तलता है, तब मछली की कैसी दुर्गति होती है ? स्पर्शन्द्रिय के सुख मैं मत्त बने गजेन्द्र को भी मृत्यु की शरण लेने को विवश बनना पड़ता है । मधुर स्वर का प्रेमी हिरण भी शिकारी के तीक्ष्ण तीर का शिकार वन जाता है। इन बिचारे जीवों को तो एक-एक इन्द्रिय की परवशता होतो है, जब कि मनुष्य तो पांचों इन्द्रियों के परवश होता है । उसकी दुर्दशा कैसी ? विवेकद्वीपहर्यक्षः, समाधिधनतस्करैः । इन्द्रियों न जितोऽसौ धीराणां धुरि गण्यते ॥८॥५६।। अर्थ :- जो विवेक रुपी गजेन्द्र का वध करने के लिये सिंह समान और निर्विकल्प ध्यान रुपी समाधि-धन को लूटने वाले लुटेरे रुगीन्द्रयों से जीता नहीं गया है, वह बीर नर पुगवों में अग्रगण्य माना जाता है। विवेचन :- जो धीर-गंभीर में भी धीर-गंभीर और श्रेष्ठ परमों में भी सर्वश्रेठ ! गगन भेदी गर्जना के साथ आगे बढ़ते काल-कराल केसरी को देखकर भी जिसमें भय का संचार तक न हो, ऐसी अट धोरता! साक्षात् मृत्यु सदृश बन-केसरी भी जिस के मुखमंडल की अद्वितीय अाभा निरख अपना मार्ग बदल दे-ऐसी उसकी बीरता ! एक -एक इन्द्रिय एक-एक बनकेसरी की भॉति बलशाली और शक्तिमान है, कुटिल निशाचार है । सावधान ! तुम्हारे प्रात्मांगरण में झलते गजेन्द्र का शिकार करने के लिये पंचेन्द्रिय के पांच 'नरभक्षी केसरी' आत्म-महल के आसपास घात लगाये बैठे हैं । तुम्हारे पात्ममहल के कण-करण में दबे समाधि-धन को लूटने के लिये दुष्ट निशाचर मार्ग खोज रहे हैं । ___कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी आँखों में धूल झोंक कर इन्द्रिय रूपी वनकेसरी और चोर अपना उल्लु सीधा न कर दे। अतः इन पर विजय पानी हो तो दृढ संकल्प कीजिए : "इन्द्रियजन्य सुख का, वैभव का मुझे उपभोग नहीं करना है।" और फिर देखिए, क्या चमत्कार होता है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ज्ञानसार वर्ता अनेक विषय लुभावना रुप धारण कर तुम्हारे सामने उपस्थित होंगे । इन्द्रियां सहज ही उसके प्रति अकर्षित होंगी मौर मनवा होश गँवा बैठेगा । बस, तुम्हारी पराजय होते पल का भी विलंब नहीं होगा । तुम्हारे विवेक - ज्ञान का यहीं अन्त हो जाएगा । फलस्वरुप तुम्हारे पास अनादिकाल से दबे पड़े निर्विकल्प समाधि - निधि की चोरी होते देर नहीं लगेगी । और तुम पश्चाताप के आँसू बहाते, हाथ मलते रह जाओगे । यदि चाहते हो कि ऐसा न हो, पश्चाताप करने की बारी न आये, तो अपने आप को कठोर आत्मनिग्रही बनाना होगा । जब विषय नानाविध रुप से सज-धज कर सामने आ जायें, तब तुम्हारे में उसकी मोर नज़र उठाकर देखने की भावना ही पैदा न हो । इन्द्रियाँ उसके प्रति प्राकर्षित ही न हों । ऐसी स्थिति में 'न रहेगा बांस, ना बजेगी बांसुरी' | तुम विजेता बन जानोगे, स्वाश्रयी बन जाओगे । फिर भला दुनिया में किसकी ताकत है जो तुम्हें अपने संकल्प से विचलित कर सके ? विषयादि के वियोग में जब इन्द्रियाँ प्राकुल- व्याकुल न हों, परमात्म-परायण बन विषयों को सदा-सर्वदा के लिए विस्मृत कर दे और चंचल मन स्थिर बन परमात्म- ध्यान की साधना में अपना सक्रिय सहयोग प्रदान कर दे, तब धीर-गंभीर पुरुषों में भी धीर-गंभीर और श्रेष्ठ में तुम्हें श्रेष्ठतम बनते तनिक भी देर नहीं होगी । हालांकि इस संसार में उस व्यक्ति को भी धीर-गंभीर माना जाता है, जो अनुकूल विषयों के संयोग से प्रायः परमात्म ध्यान.... धर्म - ध्यान जैसी बाह्य क्रियानों में अपने आप को जुड़ा रखता है, लेकिन विषयों की अनुकूलता समाप्त होते ही उनकी धीर-गंभीर वृत्ति हवा हो जाती है, समाप्त हो जाती है । अतः अपने आप को भव - फेरों से बचाने के लिये विषय-वासनाओं का परित्याग करते हुए इन्द्रियों को सविकल्पनिर्विकल्प समाधि में लयलीन करना है । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. त्याग तुम एकाध व्यक्ति अथवा वस्तु का परित्याग करते हो, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। बल्कि तुम उसे किस पद्धति से, अथवा किस दृष्टि से त्याग करते हो, यह महत्त्वपूर्ण है। माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन, और असंख्य स्नेही-स्वजनों का परित्याग करने की हमेशा प्रेरणा देने वाले ज्ञानी महात्मा यहाँ तुम्हें अभिनव माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन, प्रिया तथा स्नेही-स्वजनों से परिचित कराते हुए उनके साथ नये सिरे से सम्बन्ध स्थापित करने की प्रेरणा देते हैं। ___इन्द्रिय-विजेता के लिये सांसारिक, स्थूल जगत के प्रिय-पात्रों का परित्याग करना सरल है । अतः नये दिव्य स्नेही-स्वजनों से परिचय कर लो । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार ८४ संयतात्मा श्रये शुद्धोपयोगं पितरं निजम् । धृतिमम्बां च पितरौ, तन्मां विसृजतं ध्रुवम् ।।१॥५७।। अर्थ : संयमाभिमुख होकर में शुद्ध उपयोग स्वरुप पिता एवं आत्म-रति रुप माता की शरण ग्रहण करता हू । "ओ माता-पिता ! मुझे अवश्य मुक्त कीजिये ।" विवेचन : किसी उत्तम पद अथवा स्थान को पाने के लिये हमें अपने पून पद अथवा स्थान का परित्याग करना पड़ता है। लोकोत्तर मातापिता की अभौतिक वात्सल्यमयी गोद में खेलने के लिये लौकिक मातापितादि प्राप्तजनों का परित्याग किये बिना भला कैसे चलेगा ? हाँ, वह त्याग, राग या द्वेष पर आधारित न हो, बल्कि लोकोत्तर मातापिता के प्रति तीव्र आकर्षण, आदरभाव को लेकर होना चाहिये । अत:ममतामय माता-पिता से प्रार्थना करें । उनके स्नेह-बंधनों से मुक्ति हेतू उनके चरणों में गिर, नम्र निवेदन करें। "यो माता और पिता! हम मानते हैं कि आपके हम पर अनन्त उपकार हैं, अपार प्रेम है और असीम ममता है। लेकिन आपके स्नेहवात्सल्य का प्रत्युत्तर स्नेह से देने में हम पूर्णतया असमर्थ हैं। हमारे हृदय-गिरि से प्रस्फुटित स्नेह-स्त्रोत, श्रद्धेय पिता स्वरूप शुद्ध आत्मज्ञान की दिशा में प्रवाहित हो गया है। हमारी प्रसन्नता 'आत्म-रात'स्वरूप माता के दर्शन में, उसके उत्संग में समाविष्ट है। उनकी चरणरज माथे पर लगाने के लिये हमारा हृदय अधीर हो उठा है और मन-वचन-काया के समस्त योग उसी दिशा में निरन्तर गतिशील हैं । अत:उनके शरणागत बन कृत-कृत्य होने की अनुमति दीजिये ।" - 'शुद्ध-प्रात्मज्ञान' पिता है और 'आत्मरति' माता है । इन का आश्रय ही अभीष्ट है । इनके प्रति प्यार, स्नेह और ममता की भावना रखना महत्वपूर्ण है। किसी विशेष तत्त्व को माता-पिता मानना, मतलब क्या । तनिक सोचो और निर्णय करो । उन्हें सिर्फ मान्यता देने से काम नहीं बनेगा । वस्तुत: अहर्निश उनकी सेवा-सुश्रूषा और उपासना में लगे रहना चाहिये । उनके प्रति सदा-सर्वदा एकनिष्ठ/ वफादार हुए बिना सब निरुपयोगी है । अर्थात् शुद्ध प्रात्मज्ञान का 'परित्याग कर अशुद्ध अनात्म-ज्ञान की गोद में समा जाने की बूरी Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग . ८५ आदत को जडमूल से उखाड़ फेंकना है | आत्मरति/ज्ञानरति जैसी महामाता को तज कर पुद्गलरति-वेश्या के आलिंगन में आबद्ध होने की कुवृत्ति को छोडे बिना छुटकारा नहीं है । युष्माकं संगमोऽनादिर्बन्धवोऽनियतात्मनाम् । ध्र वैकरुपान् शीलादिबन्धूनित्यधुना श्रये ॥२॥५८॥ अर्थ : हे बन्धुगण ! अनिश्चित आत्मपर्याय से युक्त ऐसा तुम्हारा संगम प्रवाह से अनादि है । अत: निश्चित एक स्वरुप से युक्त ऐसे शील, सत्य, शम-दमादि वन्धुओं का अव मैं आश्रय लेता हूं । विवेचन : जिस तरह अभिनव माता-पिता बनाये, ठीक इसी तरह नये बन्धु भी बनाने ही होंगे । बाह्य स्थूल भूमिका पर आधारित बंधुजन से नाता तोडने हेतु प्रान्तर सूक्ष्म भूमिका पर रहे हुए बन्धुओं के साथ संबन्ध-संपर्क बनाना ही होगा । तुमने देखा होगा और अनुभव किया होगा कि बाह्य जगत में बन्धुत्व का सम्बन्ध कैसा अस्थिर है ! जो आज हमारे बन्धु हैं, वे ही कल शत्रु बन जाते हैं और जो शत्रु हैं, वे बन्धु बन जाते हैं । इस संसार में किसी संबंध की कोई स्थिरता नहीं है। ऐसे संबंधों से घिरे रहकर जीवात्मा ने न जाने कैसे गाढ राग-द्वेष के बीज बोये/पाप-बन्धन किये और दुर्गति की चपेट में फंस गये? लेकिन अब तो सावधान बन प्राप्त मानवभव में ज्ञान के उज्जवल प्रकाश की प्रखर ज्योति में आन्तर-बन्धुओं के साथ अट संबंध बाँधना जरूरी है। ठीक उसी तरह अनादिकाल से चले पा रहे संबंधों का विच्छेद करना भी आवश्यक है । ___ "हे बन्धुगण ! अनादिकाल से मैंने तुम्हारे साथ स्नेह-संबंध रखे। लेकिन उसमें नि:स्वार्थ भावना का प्रायःअभाव ही था, ना ही उसमें पवित्र दृष्टि थी । केवल भौतिक स्वार्थ के वशीभूत होकर बार-बार उसे दोहराता रहा । लेकिन जैसे ही स्वार्थ का प्रश्न आया, तुम्हें अपना शत्रु ही माना और शत्रु की तरह ही व्यवहार करता रहा । स्वार्थ लोलुपता में अन्धा बन, तुम्हारी हत्या की, तुम्हारे घर-बार लूटे । यहाँ तक कि अपने स्वार्थवश तुम्हें रसातल में पहुँचाते, तनिक भी न हिचकिचाय ।। सचमुच इस जगत में मनुष्य अपने स्वार्थ के खातिर Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ज्ञानसार दूसरे के साथ निःस्वार्थ स्नेह, प्रीति के संबंध बाँध नहीं सकता । अतः हे भाईयों ! अब मैंने आपके साथ के पूर्व संबंधों को तिलांजलि देकर, परम शाश्वत्, अनंत - असीम ऐसे शील, सत्य, शमैं- उपशम, संतोषादि गुणों को ही बन्धु के रूप में स्वीकार किये हैं । आत्मा के शील-सत्यादि गुरणों के साथ बन्धुत्व का रिश्ता जोडे बिना जीवात्मा बाह्य जगत् के संबंधों का विच्छेद नहीं कर सकता । बाह्य जगत का परित्याग यानी हिंसा, असत्य, चौर्य, मिथ्यात्व, परिग्रह, दुराचार, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि वृत्तियों का त्याग और वह त्याग करनेके लिये श्रहिंसा, सत्य, अचौर्य, शील, निष्परिग्रहता, क्षमा, नम्रता, सरलता, विवेकादि गुणों का जीवन में स्वीकार ! उन्हीं को केन्द्रबिन्दु मान जीवन व्यतीत करना होगा । ऐसी स्थिति में जीवन विषयक दैनंदिन प्रश्नों को हल करने के लिये क्रोधादि कषायों का आश्रय नहीं ले सकते । हिंसादि पाप बन्धनों की शरण नहीं ग्रहण कर सकते । अर्थ : कान्ता मे समतैौका, ज्ञातयो मे समक्रिया: बाह्यवर्गमिति त्यक्त्वा, धर्मसंन्यासवान् भवेत् || ३ ||५|| 'समता ही मेरी प्रिय पत्नी है और समान आचरण से युक्त साधु मेरे स्वजन-स्नेही हैं।' इस तरह बाह्य वर्ग का परित्याग कर, धर्मसन्यास युक्त बनता है । विवेचन : समता ही मेरी एकमात्र प्रियतमा है । अब मैं उसके प्रति ही एकनिष्ठ रहूंगा । जीवन में कभी उससे छल-कपट नहीं करुंगा । आज तक मैं उससे बेवफाई करता आया हूं। ऐसी परम सुशील पतिव्रता नारी को तज कर मैं ममता - वेश्या के पास चक्कर काटता रहा, बार-बार वहाँ भटकता रहा । ममता, स्पृहा, कुमति वगैरह वेश्याओं के साथ वर्षों तक आमोद-प्रमोद करता रहा और बेहोश बन, मोहमदिरा के जाम पर जाम चढ़ाता आया हूँ। वह भी इस कदर कि, उसमें डूब अपना सब कुछ खो बैठा हूँ । लेकिन समय आने पर उन्होंने मिलकर मुझे लूट लिया, मुझे बेइज्जत कर घर से खदेड दिया । फिर भी निर्लज्ज बन अब भी उनकी गलियों के चक्कर काटना भूल नहीं पाया । पुनः जरा संभलते ही दुगुने वेग से वेश्याओं के द्वार खटखटाने लगा हूँ । मैं उन्हें भूल नहीं Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग पाया हूँ। फिर वही मोह-मदिरा के छलछलाते जाम, प्यार-दुलार भरे नखरे, अजीब बेहोशी, पुनःमूर्छा और पुनः उन का डंडा लेकर पिल पड़ना । लेकिन होश कहाँ ? उनके मादक रूप, रंग और गंध का आकर्षण मुझे पागल जो बनाए हुए है ! "लेकिन अब बहत हो चका । मैंने सदा के लिये इन ममता, माया रुपी वेश्याओं को तिलांजलि दे दी है । समता को अपनी प्रियतमा बना लिया है। उसके सहवास और संगति में मुझे अपूर्व शान्ति, अपरंपार सुख और असीम प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है ।" "इसी भाँति ससार के स्नेही-स्वजनों को भी मैंने परख लिये हैं, निकट से जान लिये हैं । अब में क्या कहूँ ? क्षण में रोष और क्षरण में तोष ! सभी स्वार्थ के सगे हैं । जहाँ देखो वहाँ स्वार्थ ! जहाँ जामो वहाँ स्वार्थ ! बस, स्वार्थ, स्वार्थ और स्वार्थ ! अत : मैंने उन्हें स्नेहीस्वजन बना लिया है, जो हमेशा रोष-तोष से रहित हैं । उनके पास में सिर्फ एक ही वस्तु है, सर्व जीवों के लिये मैत्री-भाव और अपार करुणा ! और वे हैं-निर्ग्रन्थ साधु-श्रमण ! वे ही मेरे वास्तविक स्नेहीस्वजन हैं ।" इस तरह बाह्य परिवार का परित्याग कर आत्मा औदयिक भावों का त्यागी और क्षायोपशमिक भावों को प्राप्त करने वाला बनता है। प्रौदयिक भाव में निरन्तर डुबे रहने की वृत्ति को ही संसार कहा गया है । जहाँ तक हम इस वत्ति का परित्याग करने में असमर्थ रहेंगे, वहाँ तक संसार-त्यागी नहीं कहलायेंगे । धर्मास्त्याज्याः , सुसंगोत्था :, क्षायोपशमिका अपि । प्राप्य चन्दनगन्धाभ, धर्मसंन्यासमुत्तमम् ॥४॥६०।। अर्थ :- चन्दन की गध-समान श्रेष्ठ धर्म-संन्यास की प्राप्ति कर, उसके सत्मंग से उत्पन्न और क्षयोपशम से प्राप्त पवित्र धर्म भी त्याज्य हैं। विवेचन :- सत्संग से जीवात्मा में 'क्षायोपशमिक' धर्मों का उदय होता है । परमात्मा के अनुग्रह और सदगुरु की कृपा से मति ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन पर्यवज्ञान प्रकट होता है । देशविरति और सर्व Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार विरत का प्राप्ति होती है। दान-लाभ-भोगोपभोग और बीर्यादि श्रेष्ठ लब्धियों का आविर्भाव होता है । न जाने प्रशस्त निमित्त-आलंबनों का जीवात्मा पर कैसा तो अदभुत प्रभाव है ! पारसमरिण के स्पर्श मात्र से लोहा सुवर्ण बन जाता है । उसी तरह देव-गुरु के समागम से मिथ्यात्त्व, कषाय, अज्ञान, असंयम प्रादि औदयिक भावों से मलीन प्रात्मा समकित, सम्यग्ज्ञान, संयम आदि गुणों से युक्त, स्वच्छ सुशोभित बन जाती है । क्षायोपशमिक धर्म भी तब तक ही आवश्यक हैं, जब तक क्षायिक गुरणों की प्राप्ति न हो ! क्षायिक गुण आत्मा का मूल स्वरूप है । इसके प्रकट होते ही क्षायोपशमिक गुणों की भला आवश्यकता ही क्या है ? ऊपरी मंजिल पर पहुँच जाने के बाद सीढ़ी की क्या गरज है ? प्रौदयिक भाव के भूगर्भ से क्षायिक भाव के रंगमहल में पहुँचने के लिये क्षायोपशमिक भाव सिढ़ी समान हैं। जिस तरह चन्दन को सौरभ उसका स्थायी भाव है, उसी तरह क्षायिक धर्म भी आत्मा का स्थायी भाव है । हर जीवात्मा में क्षायिक ज्ञान, दर्शन और चारित्र सहज स्वरुप में विद्यमान है ।। क्षायोपशमिक क्षमादि गुणों के परित्याग का नाम ही धर्मसंन्यास है। उक्त तात्त्विक धर्मसंन्यास, सामर्थ्य योग का धर्म-संन्यास माना जाता है। 'द्वितीयापूर्वकरणे प्रथमस्तात्त्विको भवेत्' 'योग दृष्टि समुच्चय' नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि क्षायोपशमिक धर्म के त्याग स्वरुप धर्म-संन्यास माठवें गुरणस्थान पर द्वितीय अपूर्वकरण करते समय होता है । सम्यगदर्शन की प्राप्ति के पहले जिस अपूर्वकरण का अनुसरण किया जाता है, बह अतात्त्विक धर्म-संन्यास कहलाता है । गुरुत्वं स्वस्य नोबेति, शिक्षासात्म्येन यावता । प्रात्मतत्त्वप्रकाशेन, तावत् सेट्यो गुरुत्तम : ॥५।।६१॥ अर्थ :- जब तक शिक्षा के सम्बक परिणाम से प्रात्मस्वरूप के ज्ञान से गुरुत्व प्रकट न हो, तब तक उत्तम गुरु का आश्रम लेना चाहिये [माराधना करनी चाहिये । विवेचन :- जिस तरह सांसारिक स्नेही-स्वजनों का त्याग करना है. उसी तरह अभ्यंतर -प्रांतरिक स्वजनों के साथ अटूट नाता जोड़ना Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग ८६ है, सम्बन्ध प्रस्थापित करना है। यह सम्बन्ध/नाता कहीं बीच में ही टूट न जाए, विच्छेद न हो जाए, इसके लिये सदैव सदगुरु की उपासना करनी चाहिये । जब तक धनवान न बना जाए, तब तक उसकी सेवा नहीं छोड़नी चाहिये । जब तक उत्तम स्वास्थ्य का लाभ न हो, काया निरोगी न बने, तब तक डॉक्टर अथवा वैद्य का त्याग न किया जाए । ठीक उसी भाँति जब तक संशय-विपर्यास रहित ज्ञान-प्रकाश की प्राप्ति न हो, विशुद्ध मात्म-स्वरुप की झलक न दिखे, तब तक परम संयमी और ज्ञानी गुरु का परित्याग नहीं करना है । अर्थात्, जब तक गुरूदेव के गुरूत्व का विनियोग हममें न हो, तब तक निरन्तर विनीत बन उनकी श्रद्धाभाव से आराधना/उपासना में लगे रहना चाहिये । गुरुदेव की परम कृपा और शुमाशीर्वाद से ही हममें ज्ञान-गुरूता पैदा होने वाली है और ज्ञान-गुरुता का उदय तभी संभव है, जब उनसे पिनीत भाव से 'ग्रहरण शिक्षा' और 'प्रासेवन-शिक्षा ग्रहण की जाए और उसे सम्यग् भाव से प्रात्मपरिणत की जाये। पांच महाव्रतों का सूक्ष्म रुप अवगत करना, क्षमा, आजव, मार्दवादि दस यतिधर्मों की व्यापकता समझना, पृथ्वीकायादि षटकाय-जीवों का स्वरूप आत्मसात् करना, यह सब ग्रहण-शिक्षा के अन्तर्गत आता है। सद्गुरु की परम कृपा से जीवात्मा को ग्रहण-शिक्षा की उपलब्धि होती है । और इसी ग्रहण-शिक्षा को स्व-जीवन में कार्यान्वित करना उसे प्रासेवन-शिक्षा कहा गया है । मासेवन-शिक्षा की प्राप्ति सद्गुरु के बिना असंभव है और इसकी प्राप्ति के बिना ज्ञान-गुरुता का उदय नहीं होता । ठीक उसी तरह बिना ज्ञान-गुरुता के केवलज्ञान असंभव है और मोक्ष-प्राप्ति भी असंभव है। अत: सद्गुरु के समक्ष उपस्थित हो, मन ही मन संकल्प करें : "गुरुदेव, आपकी परम कृपा से ही मुझ में गुरुता आ सकती है। अतः जब तक मुझ में गुरुता का प्रादुर्भाव न हो, तब तक मैं शास्त्रोक्त पद्धति का अवलवन करते हुए, सादर, श्रद्धापूर्वक आपकी उपासना में रत रहुंगा।' Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६० अर्थ : ज्ञानाचरादयोऽपीष्टाः, शुद्धस्वस्वपदावधि | निर्विकल्पे पुनस्त्यागे, न विकल्पो न वा क्रिया ।। ६ ।। ६२ ।। ज्ञानाचारादि प्राचार भी अपने-अपने शुद्ध पद की मर्यादा तक ही इष्ट है । लेकिन विकल्प-विरहित त्याग की अवस्था में न तो कोई विकल्प है, ना ही कोई क्रिया । ज्ञानसार विवेचन : शुद्ध संकल्पपूर्वक की गयी क्रिया फलदायी सिद्ध होती है । सद्गुरू के पास 'ग्रहण' और 'आसेवन' शिक्षा प्राप्त करने की है । खास तौर से ज्ञानाचारादि श्राचारों का पालन करना होता है और वह भी शुद्ध संकरूपपूर्वक करना चाहिये । * ज्ञानाचार की आराधना तब तक करनी है, जब तक ज्ञानाचार का शुद्ध पद केवलज्ञान प्राप्त न हो जाए । हमेशा आराधना करते समय इस बात की गांठ बांध लेनी चाहिये कि, 'ज्ञानाचार के प्रसाद से केवलज्ञान अवश्य प्राप्त होगा ।' * दर्शनाचार की आराधना तब तक करनी चाहिये, जब तक हमें क्षायिक समकित की उपलब्धि न हो जाये । * चारित्राचार की उपासना उस हद तक करनी चाहिये, जब तक 'यथाख्यात चारित्र' की प्राप्ति न हो जाये । * तपाचार का सेवन तब तक किया जाए, जब तक 'शुक्लध्यान'" की मस्ती सर्वांग रुप से आत्मा में प्रोत-प्रोत न हो जाये । * वीर्याचार का पालन तब तक ही किया जाय, जब तक आत्मा में अनंत विशुद्ध वीर्य का निर्बोध संचार न हो जाये । इस तरह का निश्चय और संकल्प शक्ति, जीवात्मा के लिये परम फलदायी और शुभ सिद्ध होती है । जबकि संकल्पविहीन क्रिया प्राय: निष्फल सिद्ध होती है । केवलज्ञान, क्षायिक दर्शन, यथाख्यात चारित्र, शुक्ल - ध्यान और अनंत विशुद्ध वीर्योल्लास की प्राप्ति का दृढ़ संकल्प रख, ज्ञानाचारादि में सदा-सर्वदा पुरुषार्थशील बनना है । ज्ञानाचारादि के लिये तब तक ही पुरुषार्थ करना चाहिये, जब तक उनके उनके शुद्ध पद की प्राप्ति न हो जाए । जब तक हमारी अवस्था शुभोपयोग वाली है और सविकल्प है, तब तक निरन्तर ज्ञानाचारादि पंचाचार का पालन करना अति आवश्यक है । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग मतलब यह कि हमें ज्ञानाचारादि का पालन पूरी लगन से करना चाहिये, जब कि अन्तिम लक्ष्य, संबन्धित पद-प्राप्ति का होना चाहिये। लेकिन निर्विकल्प अवस्था प्राप्त होते ही उसमें किसी संकल्प और क्रिया का स्थान नहीं रहता । क्यों कि निर्विकल्प योग में उच्च कक्षा के ध्येय-ध्यान-ध्याता की अभेद अवस्था होती है । जब तक यह अवस्था प्राप्त न हो जाए, तब तक ज्ञानाचारादि प्राचारों के प्रालंबन से शुभोपयोग में दत्तचित्त हो जाना चाहिये । योगसंन्यासतस्त्यागी, योगानध्यखिलांस्त्यजेत । इत्येवं निर्गुणं ब्रह्म, परोक्तमुपपद्यते ॥७॥६३।। अर्थ :- योग का निरोध कर त्यागी बन, जीवात्मा सभी योगों का भी त्याग करती है। इस तरह अन्य दर्शनों की 'निर्गुण ब्रह्म' की बात घटित होती है। विवेचन :- सर्वत्याग की पराकाष्ठा ! कैसा अपूर्व दर्शन कराने का सफल प्रयत्न किया गया है ? औदयिक भाव का परित्याग (धर्मसंन्यास) कर जीवात्मा को क्षायोपशमिक भाव में प्रतिष्ठित करना और कालान्तर में द्वितीय अपूर्वकरण साधने के लिये क्षायोपशमिक भाव का भी त्याग कर देना ! 'क्षपकश्रेणियोगिन : क्षायोपशमिकक्षान्त्यादि-धर्मनिवृत्ते : ।' 'योगदृष्टि समुच्चय' ग्रन्थ में ठीक ही कहा गया है-जिन महात्माओं ने क्षपक-श्रेणी पर आरोहरण किया है, उनके क्षमादि क्षायोपशमिक धर्म भी अन्तर्धान हो जाते हैं और तदनन्तर जो प्रकट होते हैं, वे क्षायिक गुण होते हैं । लेकिन जैसे ही जीवात्मा ने चौदहवे गुणस्थानक पर पारोहण किया कि 'योगनिरोध' के माध्यम से वह सर्व योगों का भी परित्याग कर देता है । इस क्रिया को 'योग-संन्यास' भी कहा जाता है । यह योग-संन्यास, 'आयोज्य करण' करने के पश्चात् किया जाता है । 'योग-दृष्टि-समुच्चय' ग्रन्थ में आगे कहा गया है कि 'द्वितीयो योग-सन्यास प्रायोज्यकरणादूर्ध्वं जीवति' । सयोगी केवलज्ञानी समुद्घात करने के पूर्व 'प्रायोज्यकरण' का प्रारंभ करता है। केवलज्ञान के माध्यम से अचिन्त्य वीर्यशक्ति द्वारा भवोपग्राही कर्म (अघाती कर्म) को ऐसी स्थिति में लाकर क्षय करने की क्रिया को 'आयोज्य करण' कहा जाता है। कायादि - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार योग के त्याग से प्रकटित शैलेशी अवस्था में 'प्रयोग' नामक सर्वसंन्यासस्वरुप सर्वोत्तम योग की प्राप्ति होती है । इस तरह 'निर्गुण ब्रह्म' घटित होता है। औपाधिक धर्मयोग का अभाव ही 'निगुणता' कहलाती है। अनादिकाल से प्रात्मा में अवस्थित स्वाभाविक-क्षायिक गृरणों का कभी निर्मूलन नहीं होता । यदि उनका निर्मूलन हो जाए तो, गुणाभाव में गुणीजनों का भी अभाव हो हो जाए । लेकिन 'न भूतो न भविष्यति'। संसार में ऐसा होना सर्वथा असभव है । प्रौदयिक और क्षायोपशमिक गुणों का जब अभाव हो जाए, नाश हो जाए, तब जीवात्मा उन गुणों से रहित बन जाती है । उसी का नाम 'निर्गुण' है । इस तरह अन्यान्य दर्शनकारों की निर्गुण ब्रह्म' की कल्पना यथार्थ बनती है। लेकिन उनमें क्षायिक गुण होने से 'सगुण' भी है । । अत: हमें इसी सर्वत्याग को परिलक्षित कर निरन्तर प्रोदयिक भावों के परित्याग के पुरूषार्थ में लग जाना चाहिये । वस्तुतस्तु गुण : पूर्णमनन्तैर्भासते स्वत:। रुपं त्यक्तात्मन : साधोनि रस्य विधोरिव ॥८॥६४।। अर्थ :- बादल हित चन्द्र की तरह परम त्यागी साधु/योगी का स्वरूप परमार्थ समृद्ध और अनंत गुणों से देदीप्यमान होता है। विवेचन : कहीं बादल का नामो-निशान नहीं। स्वच्छ, निरभ्र आकाश ! पूर्णिमा की धवल रजनी और सोलह कलाओं से पूर्ण-विकसित चन्द्र ! कैसा मनोहारी दृश्य ! मानव-मन को पुलकित कर दे ! चराचर सृष्टि में ननचेतन का संचार कर दे ! निनिमेष दृष्टि टिकी ही रह जाए। ऐसे अपूर्व सौन्दर्य-क्षणों का कभी अनुभव किया है ? सांभव है, जाने-अनजाने कभी कर लिया हो ! फिर भी तन और मन अतृप्त ही रहा होगा ? पुन: पुनः उसी दृश्य का अवलोकन करने की तीव्र लालसा जगी होगी? लेकिन प्रयत्नों की पराकाष्ठा के बावजूद निराशा ही हाथ लगी होगी । तो लीजिये, परम आदरणीय उपाध्यायजी यशोविजयजी महाराज हमें इसी तरह के एक अलौकिक चन्द्र का अभिनव अवलोकन कराते हैं । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया ६३ "जरा ध्यान से देखो; यहाँ एक भी कर्म रूपी बादल नहीं है । तुम्हारे सामने शुद्ध स्फटिकमय सिद्ध शिला का अनन्त आकाश फैला हुआ है ! 'शुक्लपक्ष' की अनुपम, धवल रजनी सर्वत्र व्याप्त है । अनंत गुणों से युक्त आत्मा का चन्द्र पूर्ण कलाओंों से विकसित है । पल दो पलनिरन्तर - निर्निमेष नेत्रों से बस, देखते ही रहो उस का अलौकिक सौन्दर्य, रूप और रंग ।" आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का अनंत गुणमय स्वरूप का ध्यान, कठोर कर्मों के मर्म का छेदन कर देता है । वह तीव्र से तीव्र कर्मबन्धनों को तोड़ने में, उसे जड़मूल से उखाड़ फेंकने में समर्थ हैं । जब तक हमें वास्तविक अनंत गुणमय ग्रात्मस्वरुप की प्राप्ति न हो जाए, तब तक एकाग्र चित्त से उस का ध्यान और उसे प्राप्त करने का पुरुषार्थ निरन्तर करना चाहिये । और एक बार इसकी प्राप्ति होते. ही 'सच्चिदानन्द' की प्राप्ति होते देर नहीं लगेगी । फलत: समस्त सृष्टि, निखिल भूमण्डल पूर्ण रूप से दिखायी देगा | पूर्णता की लौकिक सचेतन सृष्टि का दर्शन होगा । इसी पूर्णता का परम दर्शन कराने हेतु पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने ग्रावश्यक पुरुषार्थ का वर्णन अपने आठ अष्टकों में क्रमश: इस प्रकार किया है : पूर्णतामय दृष्टि, ज्ञानानन्द में लीनता, स्वसंपत्ति में चित्त की स्थिरता, मोहत्याग, तत्त्वज्ञता, कषायों का उपशम इन्द्रिय-जय और सर्वस्व त्याग | इस तरह जीवात्मा क्रमश: सर्वोच्च पद प्राप्त करती है । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. क्रिया "यदि धार्मिक क्रियायें संपन्न न की जायें तो क्या नुकसान है ?" यह प्रश्न वर्षों से किया जा रहा है । लेकिन कोई भूलकर भी यह प्रश्न नहीं करता कि 'यदि पाप-क्रियायें न करें, तो क्या हर्ज है ?' सचमुच ऐसा प्रश्न कोई नहीं उठाता और उसका भी कारण है ! क्योंकि पाप-क्रियायें सब को पसन्द हैं । यदि धर्म पसन्द है, तो धार्मिक क्रियायें भी पसन्द होनी ही चाहिये। मोक्ष इष्ट है, तो मोक्ष-प्राप्ति के लिये आवश्यक क्रियायें इष्ट होनी ही चाहिये। ग्रंथकार ने यहाँ जीवन में धार्मिकक्रियाओं की आवश्यकता और अनिवार्यता को समझाने का सफल प्रयत्न किया है । उन की बातें कितनी सार्थक और अकाटय हैं, यह समझने के लिये प्रस्तुत अष्टक का अभ्यास अवश्य करें। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया.. ज्ञानी क्रियापर: शान्तो, भावितात्मा जितेन्द्रियः । स्वयं तीरों भवाम्भोधेः, परांस्तारयितु क्षमः ।।१।।६।। अर्थ : सम्यग् ज्ञान से युक्त, क्रिया में तत्पर, उपशम युक्त, भावित और जितेन्द्रिय (जीव) संसार रूपी समुद्र से स्वयं पार लग गये हैं और अन्यों को पार लगाने में समर्थ हैं। विवेचन : मानव-जीवन का श्रेष्ठतम पुरुषार्थ है - भवसागर से स्वयं पार उतरना और अन्यों को पार लगाना । यदि गंगा-यमुना-ब्रह्मपुत्रा सदृश भौतिक नदियों को पार करने के लिये ज्ञान और क्रिया की आवश्यकता है, तब भव के भीषण, रौद्र और तूफानी समुद्र को पार करने के लिये भला ज्ञान और क्रिया की आवश्यकता क्या नहीं है ? आवश्यकता है और सौ बार है । लेकिन उसकी आवश्यकता तभी महसूस होती है, जब भवसागर भीषण, रौद्र और तूफानी लगता हो । जब तक भवसागर प्रशान्त, सुखदायक एवं सुन्दर, अति सुन्दर दिखायी देता है, तब तक जीवात्मा को ज्ञान और क्रिया का महत्व समझ में नहीं आता । जीवन में उस की आवश्यकता का यथार्थ ज्ञान नहीं होता । भवसागर से पार लगने और अन्य जीवों को पार लगाने हेतु यहाँ निम्नांकित पाँच बातें कही गयी हैं : १. ज्ञानी : जिस भवसागर को पार करना है, उसकी भीषणता की जानकारी लिये बिना पार उतरना संभव नहीं है । साथ ही, जिनके आधार से तिरना है, उन कृपानिधि परमात्मा और करुणामय गुरुदेव का वास्तविक परिचय प्राप्त किये बिना कैसे चलेगा ? जिस में सवार होकर पार उतरना है, उस संयम-नौका की संपूर्ण जानकारी भी हासिल करना जरुरी है । साथ ही सागर-प्रवास के दौरान आनेवाली नानाविध बाधायें, विघ्न और संकट, उस समय अपेक्षित सावधानी, सुरक्षा-व्यवस्था और आवश्यक साधन-सामग्री का ज्ञान भी हमें होना चाहिए । २. क्रियापर : भवसागर पार उतरने के लिये देवाधिदेव जिनेश्वर भगवंत ने जो क्रियायें दर्शायी हैं, उन्हें अंजाम देने के लिये सदा-सर्वदा तत्पर होना जरुरी है। तत्परता का मतलब है- काल-स्थान और भाव का औचित्य समझ, हर संभव क्रिया करना । उसे करते हुए तनिक Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार भी आलस्य, वेठ, अविधि अथवा उदासीनता न हो, बल्कि सदैव अदम्य उत्साह और असीम उल्लास होना चाहिये । ज्ञान, दर्शन, तप, चारित्रादि के आचारों का यथाविधि परिपालन होना चाहिये। हालांकि भवसागर ने पार उतरने वाली भव्यात्माओं में यह स्वाभाविक रूप से होता है । ३. शान्त : शान्ति....समता...उपशम की तो प्रात्यन्त आवश्यकता है । भले ही ज्ञान हो, क्रिया हो, परंतु उपशम का पूर्ण रूप से अभाव है, तो पार लगना असंभव है। क्योंकि क्रोध और रोष की भावना जगते ही ज्ञान एवं क्रिया निष्प्राण और निर्जीव हो जाती है । भवसागर में भ्रमरण करती नौका वहीं रुक जाती है, ठिठक जाती है। अगला प्रवास अवरोधों के कारण भंग हो जाता है । यदि हमने क्रोध, रोष, ईर्ष्या रुपी भयंकर जलचरों को दूर नहीं किया तो वे नौका में छेद कर देगेउसे जल-समाधि देने का हर संभव प्रयत्न करेंगे । नौका में छेद होने भर की देर है कि समुद्र-जल उस में भर आएगा और परिणाम यह होगा कि वह सदा के लिये समुद्र के गर्भ में अन्तर्धान हो जायेगी। इसी तथ्य को परिलक्षित कर उपाध्यायजी महाराज ने बताया है कि भवसागर पार लगने की इच्छुक आत्मा शान्त-प्रशान्त, क्षमाशील और परम उपशमयुक्त होनी चाहिये । ४. भावितात्मा : ज्ञान, दर्शन और चारित्र से प्रात्मा भावित बननी चाहिये । जिस तरह कस्तूरी से वासित बने वस्त्र में से उसकी मादक सुगन्ध वातावरण को प्रसन्न और आह्लादक बनाती है, ठीक उसी तरह ज्ञान-दर्शन-चारित्र से सुरभित बनी आत्मा में से ज्ञान-दर्शनचारित्र की सौरभ निरन्तर प्रसारित होती रहती है । उसमें से मोहअज्ञान की दुर्गन्ध निकलने का सवाल ही पैदा नहीं होता। ५. जितेन्द्रिय : भवसागर से पार लगने के इच्छक जीवात्मा को अपनी इन्द्रियाँ वश में रखनी चाहिये । अनियंत्रित बनी इन्द्रियाँ जीव को नौका में से समुद्र में फेंकते विलंब नहीं करती हैं । इन पाँच बातों को जिसने अपने जीवन में पूरी निष्ठा के साथ कार्यान्वित किया है, उसे भवसागर से पार लगते देर नहीं लगेगी। अन्य बोवों को पार लगाने की योग्यता भी तभी संभव है, जब उक्त पाँच बातों को साध लिया हो और जिसने इस की कतइ परवाह नहीं Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ क्रिया की हो । वह यदि किसी को पार लगाने की चेष्टा करेगा तो खुद तो डूबेगा ही, अपितु दूसरे को भी डूबोएगा । क्रियाविरहितं हन्त, ज्ञानमात्रमनर्थकम् । गति विना पथज्ञोऽपि, नाप्नोति पुरमीप्सितम् ॥२॥६६॥ अर्थ : क्रियारहित मात्र ज्ञान सचमुच किसी काम का नहीं । चलने की क्रिया के प्रति उदासीन, मार्ग जानने वाला व्यक्ति भी इच्छित नगर नहीं पहुंच सकता । विवेचन : दिल्ली से बंबई की दूरी तुम भलीभांति जानते हो । तुम्हें यह भी मालूम है कि दिल्ली से बंबई किस मार्ग से जाया जाता है । राजमार्ग तुम जानते हो और रेल्वे-मार्ग की जानकारी भी तुम्हें है । तुम से यह भी छिपा नहीं है कि दिल्ली-बंबई का कितना किराया है । यह तो ठीक, हवाई-मार्ग की सही जानकारी भी तुम्हें है ।। लेकिन यदि तुम प्रवास की पूर्व तैयारी न करो, पदयात्रा प्रारंभ न करो अथवा रेल्वे से प्रवास करने की क्रियारूप टिकट खरीद कर रेल में बैठने का कष्ट न करो तो भला, दिल्ली पहुँच पाओगे क्या? नहीं पहुँचोंगे । अतः हमें गन्तव्य स्थान पर भले ही वह बंबई हो अथवा दिल्ली, क्रिया तो करनी ही होगी । सिर्फ मार्ग की जानकारी प्राप्त करने मात्र से इष्ट स्थान पर पहुँचा नहीं जाता। ज्ञान के आधार पर गति-क्रिया करनी ही होगी। . तुमने मोक्ष-मार्ग की जानकारी हासिल कर ली। आत्मा पर छाये अष्ट-कर्मों को जान लिया, उन कर्मों के विच्छेदन की क्रिया भी अवगत कर ली, लेकिन अगर समुचित पुरुषार्थ, परिश्रम न करो तो जानकारी हासिल करने का कोई महत्व नहीं है । इससे समस्या हल होनेवाली नहीं है, ना ही बात बनने वाली है। इससे विपरीत अधिकाधिक हानि/नुकसान होने की ही संभावना है। . मोक्ष-मार्ग के लिये आवश्यक क्रिया का त्याग कर यदि कोई जीवात्मा ज्ञान के बल पर ही मोक्ष-प्राप्ति करना चाहता हो तो यह उसका निरा भ्रम है । एक प्रकार की कपोल-कल्पना है। मोक्ष-मार्ग के अनुकूल क्रियाओं की उपेक्षा करनेवाला मनुष्य ज्ञान-बल से मिथ्या - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार भिमानी/घमंडी बन जाता है, संसारवर्धक क्रिया-कलापों में निरन्तर ओतप्रोत रहता है और स्व प्रात्मा को मलिन/कलंकित बनाता भवसागर की अनन्त गहराईयों में असमय ही खो जाता है । फलतः मौत की गोद में सदा के लिये सो जाता है । महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि जीवात्मा के रोम-रोम में प्रात्मा की सत्-चित्-प्रानन्दमय अवस्था प्राप्त करने की भावना जाग्रत होनी चाहिये । यदि हो गयी है, तो उसके जीवन में ज्ञान और क्रिया का आगमन होते विलंब नहीं लगेगा । अनादि काल से प्रकृति का यह सनातन नियम है कि जो वस्तु पाने की तमन्ना मन में पैदा होती है, उसकी सही पहचान, पाने के उपाय और उसके लिये किया जानेवाला श्रावश्यक पुरुषार्थ होता ही है । जिसके मन में अतुल संपदा पाने की आकांक्षा जगी हो, वह उसे प्राप्त करने के लिये आवश्यक ज्ञान-प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ क्या नहीं करता ? अवश्य करता है । किसी वैज्ञानिक के मन में अद्भुत आविष्कार की महत्त्वाकांक्षा उदित हो जाए, तो वह उसके लिये क्या अथक परिश्रम नहीं करेगा ? करेगा ही। ठीक उसी तरह अपनी आत्मा को परम विशुद्ध बनाने की तीव्र भावना जिन में उत्पन्न हो गयी थी उनकी, तप्त शिलानों पर आसनस्थ होकर, घोर तपस्या करने की आख्यायिकायें क्या नहीं सुनी हैं ? मोक्षमार्ग का ज्ञान हो जाने के उपरान्त भी अगर अनुकूल पुरूषार्थ करने में कोई जीव उदासीन रहता हो तो उसका मूल कारण प्राप्त सुखसमृद्धि में खोये रहने की कुप्रवृत्ति है, साथ ही नानाविध पापक्रियाओं का सहवास । जिन्हें वह छोड़ता नहीं है, उनसे अपना छुटकार पाता नहीं है। परमात्माभक्ति, प्रतिक्रमण, सामायिक, सूत्र-स्वाध्याय, ध्यान, गुरुभक्ति, ग्लान वैयावत्य, प्रतिलेखन, तप-त्यागादि विमल क्रियाओं को सदासर्वदा विनीत माव से अपने जीवन में कार्यान्वित करने वाली आत्मा, नि:सन्देह आत्मविशुद्धि के प्रशस्त राजमार्ग पर चल कर उसे सिद्ध करके ही रहती है। जो यह कहता है कि, "क्रियाओं का रहस्य....परमार्थ समझे बिना उन्हें करना अर्थहीन है, व्यर्थ है ।' यदि वह स्वयं उन का रहस्य और Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया परमार्थ समझकर क्रियान्वित करता हो तो उसकी बात अवश्य गौर करने जैसी है। लेकिन आमतौर पर आत्म-विशुद्धि के लिये जो क्रियायें करनी पड़ती हैं, उन क्रियाओं में आने वाली अनेक बाधायें सहने में जो सर्वथा असमर्थ और भयभीत होते हैं, वे लोग पवित्र क्रियाओं का अपलाप करते हैं और उन क्रियाओं का परित्याग कर पाप-क्रियाओं की गलियों में भटकते हुए पतन की गहरी खाई में गिर जाते हैं । स्वानुकलां क्रियां काले, ज्ञानपुर्णोऽप्यपेक्षते । प्रदीप : स्वप्रकाशोऽपि, तैलपूर्त्यादिकं यथा ॥३॥६७।। अर्थ :- जिस तरह दीप स्वयं प्रकाशस्वरुप होते हुए भी उसमें (प्रज्वलित रखने के लिये) तेल-वगैरह की जरूरत होती है। ठीक उसी तरह प्रसंगोपात पूर्णज्ञानी के लिये भी स्वभाव स्वरूप कार्य के अनुकूल क्रिया की अपेक्षा होती है । विवेचन :- जब तक सिद्धि प्राप्त न हो और साधक-दशा विद्यमान है, तब तक क्रिया की आवश्यकता होती है । अलबत्त, साधना की विभिन्न अवस्था में उनके लिये अनकल ऐसी भिन्न-भिन्न क्रियाओं की अपेक्षा होती है । अर्थात् केवलज्ञानी ऋषि-महर्षियों को भी क्रिया की आवश्यकता रहती ही है । स्वभाव को पुष्ट करने के लिये समान्यतः क्रिया की आवश्यकता रहती है । उचित समय में उचित क्रिया जरूरी है । सम्यक्त्त्व की भूमिका में रही विवेकी आत्मा समकित के लिये परमावश्यक ६७ प्रकार के व्यवहार का विशुद्ध पालन करती है । उसका आदर्श होता है देशविरति और सर्वविरति का । देशविरति रूप श्रावकजीवन की कक्षा तक पहुँचे जीव को बारह व्रत की पवित्र क्रियाओं का आचरण करना होता है । क्योंकि उसका अन्तिम लक्ष्य सर्वविरतिमय श्रमणजीवन प्राप्त कर कर्मों की पूर्ण निर्जरा करना होता है। ___ सर्वविरतिमय साधुजीवन में रही साधक आत्मा को ज्ञानाचारादि आचारों का परिपालन और दशविध यतिधर्म, बाह्य-अभ्यन्तर बारह प्रकार के तपादि क्रियाओं का आश्रय ग्रहण करना पड़ता है ।क्षपकश्रेणी पर चढ़ते समय शुक्लध्यान की क्रिया करनी पड़ती है । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार १०० तत्राष्टमे गुणस्थाने, शुक्लसद्धयानमादिमम् । ध्यातुं प्रक्रमते साधु राधसंहननान्वित : ॥५१॥ - गुणस्थान क्रमारोहे आठवें गुणस्थानक पर प्रथम वज्रऋषभ-नाराच संघयण वाला साधु प्रथम शुक्लध्यान करना प्रारंभ करता है। तात्पर्य यह है कि उसे ध्यान करने की क्रिया करनी ही पडती है । घाती कर्मों का क्षय कर जो आत्मा पूर्णज्ञानी बन गयी, उसे भी सर्वसंवर और पूर्णानन्दप्राप्ति के अवसर पर योगनिरोध की क्रिया करनी पड़ती है, समुद्घात की क्रिया करनी पड़ती है । पूर्णता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने के लिये हर भूमिका पर प्रावश्यक क्रिया करनी पड़ती है। इस तथ्य का वही इन्कार कर सकता है, जिसे जैनदर्शनप्रणीत मोक्ष-मार्ग का ज्ञान न हो, जानकारी न हो। तर्क से भी क्रिया का महत्व समझा जा सकता है । अनादिकाल से जीवात्मा पाप-क्रिया में आकंठ डूबी रहकर निरन्तर संसार-परिभ्रमण करती रही है । हमारी पाप-क्रियायें ही भव-भ्रमण की मूल कारण हैं। यदि भव-भ्रमण की क्रिया को रोकना है, तो पहले उसके कारणों का संशोधन कर उसे रोकना होगा, नष्ट करना पड़ेगा। पाप-क्रियाओं की प्रतिपक्षी धार्मिक क्रियाओं के द्वारा पाप-क्रियाओं का निवारण होता है। जहाँ तक जीव संसार-भ्रमण करता है, उसे कुछ न कुछ कर्म अथवा कोई न कोई क्रिया करनी ही पड़ती है, फिर भले ही वह पापक्रिया हो या धार्मिक क्रिया । जिसकी दृष्टि सत-चित्-आनन्द स्वरुप पूर्णता की चरम चोटी तक पहुँच गयी हो, जो आत्मा उस मंजिल तक पहँचने के लिये प्रयत्नों की पराकाष्ठा कर रही हो, वह आत्मा उन पवित्र क्रियाओं को करने के लिये सदैव तत्पर रहती है । घी अथवा तेल से भरा दीपक स्वयं ज्योति स्वरुप होते हुए भी यदि उसमें समय पर घी या तेल न पूरा जाय, तो क्या होगा? मतलब वहां घी-तेल परने की क्रिया सर्वथा अपेक्षित है। बिजली खुद ही प्रकाश-स्वरुप होते हुए भी 'स्विच ऑन' करने की और पावर-हाउस Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया १०१ से विद्युत प्रवाहित करने की क्रिया अपेक्षित ही है । संसार का भला ऐसा कौन सा क्षेत्र है, जहाँ मन-वचन-काया की क्रियायें अपेक्षित नहीं हैं ? कौन सा ऐसा कार्य है कि जो क्रिया न करने के बावजूद भी संपन्न होता है ? तात्पर्य केवल इतना ही है कि प्रत्येक साधक को, निज प्रमाद, आलस्य, उदधीसनता और मिथ्याभिमान को दूर कर निरंतर अपनी भूमिका के अनुकूल क्रिया करनी ही चाहिये, जो देवाधिदेव जिनेश्वर भगवंत द्वारा निर्देशित है । क्रिया को हमें विधिपूर्वक, कालोचित और प्रीति-भक्ति के साथ कार्यान्वित करना परमावश्यक है । बाह्यभावं पुरस्कृत्य ये क्रियां व्यवहारतः । वदने कवलक्षेपं विना ते तृप्तिकांक्षिणः ॥४॥ ६८ ।। अर्थ :- जो बाह्य क्रिया के भाव को आगे कर व्यवहार से उसी क्रिया का निषेध करते हैं, वे मुंह में कौर डाले बिना ही तृप्ति की अपेक्षा खते हैं । विवेचन : क्या तुम्हारी यह मान्यता है कि 'पौषध, प्रतिक्रमण, प्रभुदर्शन, पूजन-अर्चन, गुरुभक्ति, प्रतिलेखन, सेवा और तपश्चर्या आदि व्यवहार - क्रियायें सिर्फ बाह्य भाव है, इससे आत्मा का कल्याण संभव नहीं | क्या तुम्हारा यह मतव्य है कि हिंसा, असत्य, दुराचार, क्रूरता, चोरी और परिग्रह की क्रियाओं में तुम दिन-रात खोये रहो और तुम अहिंसा, सत्य, अचौर्य, सदाचार, अपरिग्रह आदि की सिद्धि प्राप्त कर लोगे ? क्या यह संभव है कि तुम रमणीरूप के दर्शन, मदान्ध श्रीमंतों की सेवा, आकर्षक वेशभूषा और स्वादिष्ट भोजन की विविध क्रिया में सदैव इतराते - इठलाते रहो, केलि क्रिड़ा करते रहो, फिर भी तुम आत्मा की शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निराकार दशा / अवस्था पा लोगे? तो यह तुम्हारा निरा भ्रम है । अरे भाई, जरा शान्ति से सोचो । स्वस्थ मन से विचार करो | निराग्रही बुद्धि का अवलंबन लेकर सोचो | हमारे पूर्वज, ऋषि-मुनि, महर्षियों के अनुभवसिद्ध वचनों को स्मरण कर उन्हें समझने का प्रयत्न करो । बाह्य भाव के दो भेद हैं: एक शुभ और दूसरा अशुभ। जिस में सरासर आत्मा की विस्मृति है और जो सिर्फ विषयानन्द की प्राप्ति के हेत ही की जाए, वह क्रिया अशुभ बाह्यभाव कहलाता है । और Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ज्ञानसार जिसमें आत्मा की मधुर स्मृति वास करती है, एक मात्र आत्मानन्द की प्राप्ति का लक्ष्य है, करुणासागर परमदयालू जिनेश्वर भगवान के प्रति श्रद्धाभाव है और पापक्रिया से मुक्त होने की पवित्र भावना है, ऐसी कोई भी क्रिया शुभ बाह्य भाव है । अशुभ पाप-क्रियाओं की अनादिकालीन आदत से छटकारा पाने के लिये धर्म-क्रियाओं का आश्रय लिये बिना और कोई चारा नहीं है । उसके बिना सब व्यर्थ है। अगर तुम्हारा पुत्र तुमसे कहे कि 'पिताजी, मुझे शाला में दाखिल क्यों करते हो ? विशेष प्रकार की वेशभूषा करने का आग्रह क्यों कर रहे हो ? अमुक पुस्तकों का ही मनन-पठन करने का आदेश क्यों देते हो ? अध्यापक के पास जाकर शिक्षा-ग्रहण करने का उपदेश क्यों देते हो ? क्योंकि यह सब व्यर्थ है, निरर्थक है, बल्कि किसी काम का नहीं । ज्ञान तो आत्मा का गुण है और आत्मा से ही ज्ञान का प्रगटीकरण होता है । तब नाहक शाला में जाकर विद्याध्ययन करने का कष्ट क्यों उठाना ? अतः मैं शाला में नहीं जाऊँगा, घर पर ही रहूँगा, खूब मौज-मस्ती करूँगा और टी. वी.-वीडियो देखूगा ।' तब क्या तुम उसकी बात को मान लोगे, स्वीकार कर लोगे? उसका शाला में जाना बन्द कर दोगे ? घर पर बिठा दोगे ? एकाध सैनिक अपने नायक से जाकर कहे : "आप कवायद क्यों करवाते हैं ? किसलिये मीलों तक दौड़ लगवाते हैं ? नाना प्रकार की कसरत करवाते हैं ? शस्त्र-संचालन का प्रशिक्षण क्यों देते हैं ? बल और शक्ति आत्मा का गुण है और आत्मा में से ही पैदा होता है । अतः यह सब निरर्थक है, सारी क्रियायें निरी बकवास हैं ।" क्या नायक ऐसे सैनिक को पल भर के लिये भी सह लेगा ? उसे सेना में से भगा नहीं देगा ? ___आत्मगुण के लिये आवश्यक क्रिया-अनुष्ठान करना ही पड़ेगा । तभी सही प्रात्मगुणों का प्रगटीकरण संभव है। अनन्त ज्ञानी जिनेश्वरदेव ने आत्म-विशुद्धि के लिये जिन कायिक, वाचिक एवं मानसिक प्रक्रियाओं को महत्वपूर्ण बताया है, उन्हें श्रद्धा-भाव से करना ही पड़ेगा। मूह में कौर डाले बिना कहीं उदरतृप्ति हुई है ? यदि हमें परम तृप्ति का सुख चखना है तो मुह में कौर डालने की क्रिया निःसंदिग्ध Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया भाव से करनी ही पड़ेगी । ठीक उसी तरह यदि परम आत्म-सुख का अनुभव करना है, तो उसके लिये आवश्यक क्रियाओं को करना ही पड़ेगा। गुणवदबहुमानादेनित्यस्मत्या च सत्किया । जातं न पातयेद् भावमजातं जनयेदपि ॥५॥६६॥ अर्थ : अधिक गुणवंत के बहुमानादि से तथा अंगीकृत नियमों को नियमित संभालने से शुभ क्रिया, प्रगट हुए शुभ भाव को न मिटाये, न नष्ट करे, साथ ही जो भाव अभी प्रगट नहीं हुए हैं, उन्हें उत्पन्न करती है । विवेचन : अन्तरात्मा से प्रगट शुभ........पवित्र.....उन्नत........मोक्षानुकूल भाव तो हमारी अमूल्य निधि है, सर्वश्रेष्ठ संपत्ति है । इसका संरक्षण करना हमारा परम कर्तव्य है । प्रस्तुत भाव की संपदा के माध्यम से ही हम परमपद की प्राप्ति कर सकेंगे। भाव की भी अपनी विशेषता है। यदि प्रति समय सावधानी से उसका संरक्षण न करें, तो इसे खत्म होते देर नहीं लगती । ऐसे शुभ, लेकिन चंचल भावों का संरक्षण करने के लिये सात उपाय बताये हैं, जो सरल हैं और सुन्दर हैं । लेकिन इन उपायों का अवलंबन तभी किया जा सकता है जब शुभ भावों का समुचित मूल्यांकन किया गया हो, बाह्य भौतिक संपत्ति से भी बढ़कर अनंत गुना महत्व उसे दिया गया हो । शुभ भावों की रक्षा के लिये कुछ भी करने की तैयारी होनी चाहिये । उसके लिये जो भोग देता आवश्यक है, देने के लिये हमें सदैव तत्पर रहना चाहिये। * सत्य के पवित्र भाव का संरक्षण करने हेतु राजा हरिश्चन्द्र ने अपना सब कुछ त्याग दिया था। राजसी ठाठ-बाठ, वैभव-विलास, यहाँ तक कि सर्वस्व त्याग कर, चंडाल के हाथ खुद बिक जाने तक का ज्वलन्त बलिदान किया था । * अहिंसा के उन्नत भाव की रक्षा हेतु महाराजा कुमारपाल ने अपने पैर की चमड़ी काटकर मकोड़े को बचा लिया था। * सतीत्व के सर्वोत्तम भाव के जतन के लिये सीता ने लंकापति रावण की अशोक वाटिका में कष्ट सहन किये थे। पितृ-वचन Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ज्ञानसार की रक्षा हेतु श्री राम ने हँसते-हँसते अयोध्या का राजा त्याग कर वनवास की राह पकडना पसन्द किया था । १. व्रत का स्मरण :- जब हमारे शुभ भावों पर अशुभ भावों का आक्रमण होता है, तब हमें अंगीकृत व्रत / प्रतिज्ञा का सतत स्मरण करना चाहिये । फलतः आत्मा में ऐसी अजेय शक्ति का प्रादुर्भाव होता है कि जिसके बल से, आधार से, अशुभ भावों को भगाने में क्षरण का भी विलंब नहीं लगता । झांझरिया मुनि पर जब कामोन्मत्त सुन्दरी ने आक्रमण किया था, तब मुनिवर ने शान्त-चित्त से यही कहा था : मन-वचन-काया से ग्रहित, लिया व्रत नहीं भंग करूँ । अविचल रहूँ ध्रुव सा निज तप में पुन: संसार का न मोह धरु ॥ २. गुणशालियों का सम्मान :- गुणशाली का मतलब है शुभ भावनाओं के शस्त्रास्त्रों से सज्ज सैनिक ! इनके प्रति अगाध श्रद्धा, परम भक्ति और अपार प्रीति भाव रखने से संकट काल में वे हमारी सहायतार्थ दौड़े आते हैं और हमारे आत्मधन की रक्षा करते हैं । ३. पाप - जुगुप्सा : हमने जिन पापों का परित्याग कर दिया है, उनके प्रति कभी किसी प्रकार का श्राकर्षण पैदा न हो । मोह की सुप्त भावना उत्पन्न न हो जाए, अतः सदैव उन पापों से घृणा करनी चाहिए । उनके सम्बन्ध में हमारे मन में नफरत की चिंगारी सुलगनी चाहिए । जिस तरह ब्रह्मचारी के दिल में अब्रह्म की पाप-क्रिया से नफरत होती है । ४. परिणाम - आलोचन : पाप-क्रिया से होने वाले परिणाम और धर्म - क्रिया के परिणाम पर हमें निरन्तर विचार करना चाहिये, चिन्तनमनन करना चाहिये । 'दुःखं पापात् सुखं धर्मात्' सूत्र स्मृति में रहना चाहिए । ५. तीर्थंकर भक्ति: देवाधिदेव तीर्थंकर भगवान का नामस्मरण, दर्शन-पूजन और उनके अनन्त उपकारों का सतत स्मरण - चिन्तन जरूरी Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया १०५ है । साथ ही उनके प्रति अनन्य प्रीति-भाव धारण करने से हमारे शुभ भावों में निरन्तर वृद्धि होती रहती है । ६. सुसाधु-सेवा : मोक्षमार्ग के अनुकूल आचरण रखने वाले साधु पुरुषों की आहार, वस्त्र, जल, पात्र, औषधादि से उत्कट सेवा और भक्ति करनी चाहिए । ७. उत्तर गुरण श्रद्धा : पञ्चवखारण, गुरुवन्दन, प्रतिक्रमण, तप त्याग, विनय विवेक आदि विभिन्न शुभ- क्रियाओं में सदा-सर्वदा प्रवृत्तिशील रहना चाहिये । इस तरह की प्रवृत्ति से सम्यग्ज्ञानादि, संवेग-निर्वेद आदि भाव नष्ट नहीं होते और जिनमें ये प्रगट नहीं हुए हैं, उनमें वे भाव पैदा होते हैं । और अन्तिम ध्येय स्वरूप परमानंद की प्राप्ति होती है । क्षायोपशमिके भावे, या क्रिया क्रियते तया । पतितस्थापि तद्भावप्रवृद्धिर्जायते पुनः || ६ ॥७०॥ अर्थ : क्षायोपशमिक भाव में जो तपसंयम युक्त क्रिया की जाती है, उसके माध्यम से गिरी हुई जीवात्मा में पुनः उस भाव की वृद्धि होती है । विवेचन : आत्मविशुद्धि की साधना यानी नगाधिराज हिमालय की ऊँची पर्वत श्रेणियों का आरोहरण ! यह कार्य अत्यन्त कठिन और दुष्कर है ! सजग आरोहक भी यदि सावधानी न बरते और सूझ-बूझ से काम न ले तो कभी-कभार फिसलते देर नहीं लगती । इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है, बल्कि आश्चर्य और अचरज तब होता है, जब गहरी खाई में गिरा आरोहक पुनः दुगुने उत्साह से और अपूर्व जोश से गिरिआरोहण करने का साहस करता है, पुरुषार्थ करता है । ऐसे आत्मविशुद्धि के भावशिखर पर आरोहण करते हुए फिसलकर गिरे, पतन की गहरी खाई में दबे आराधक की निराशा को परमाराध्य उपाध्यायजी महाराज पूरी तरह दूर करके उसे पुनः श्रारोहण के लिये सन्नद्ध करते हैं । उसका स्पष्ट शब्दों में मार्ग-दर्शन करते हैं । यदि ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय कर्मों के क्षयोपशम से तप और संयम के अनुकूल क्रिया करने लगे, तब निःसंदेह Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार तुम्हारे अन्तर की गहराईयों में तप एवं संयम, ज्ञान और वैराग्य, दान और शील के भावों की वृद्धि होने लगेगी । तप और संयम के अनुकूल जो भी अनुष्ठान करो, वह निर्विवाद रूप से सुदृढ और उग्र पुरुषार्थरुप होना चाहिए। यह बात उस पतित आराधक को परिलक्षित कर कही गयी है, जो साधु-वेष में है, जिसका दैनंदिन आचरण और दिनचर्या भी साधु जैसी ही है, लेकिन जो भाव-साधुता के भाव से कोसों दूर चला गया है। जिसमें संयमभाव का अंश तक नहीं हैं । ठीक उसी तरह वेश श्रावक की है, लेकिन जिसमें श्रावकजीवन के लिये आवश्यक तप-संयमभाव का पूर्णतया अभाव है। ऐसी विषम परिस्थति में यदि उसे साधु/ श्रावक को पुनः शुभ भाव में स्थिर होना है, अपने मूल स्वरुप को प्राप्त करना है, तो उसे दृढ़ संकल्प के साथ ज्ञान-दर्शन चारित्र के लिये पोषक क्रियायें करने का पुरुषार्थ करना चाहिये । __ मान लो, किसी साधु का मन विषय वासना से उद्दीप्त हो गया। उसका ब्रह्मचर्य का भाव भंग हो गया। तब वह सोचने लगे कि "मैं विषय-वासना से पराजित हो गया हूँ। मैं चौथे व्रत का पालन करने में पूर्ण रूप से असमर्थ हूँ । अतः अब साधुता में क्या रखा है ? क्यों न इसका (साधु-जीवन का) परित्याग कर गृहस्थ बन जाऊँ...?" तब उसका उत्कर्ष और उत्थान प्राय: असंभव है । पुनः वह संयम-मार्गी हगिज नहीं बन सकता । लेकिन इससे विपरीत, उसे यों सोचना चाहिए कि "अरे, यह मेरी कैसी दुर्बलता है ? मुझमें कैसी कमी रह गयी है कि साधुता ग्रहण करने के बावजूद भी मैं साधु-जीवन के मूलाधार ऐसे ब्रह्मचर्य व्रत के भाव से च्युत हो गया हूँ, निःसत्त्व और पंगु बन गया हूँ, अब मेरी आत्मा का क्या होगा? मैं परम विशुद्धि की मंजिल कैसे पा सकंगा ? फिर एक बार मैं संसार-सागर में डूब जाऊँगा ? मेरा सत्यानाश हो जायेगा । यह मुझे किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं । स्वीकार नहीं। अतः मैं प्रयत्नों की पराकाष्ठा कर खोये हुए ब्रह्मचर्य के भाव को दुबारा पाये बिना चैन की साँस न लूंगा । मैं ब्रह्मचर्य का दृढ़ता से पालन करुंगा। उन्माद और पागलपन को छोड़ दूंगा। घोर तप करूँगा, मन को ज्ञान की श्रृंखला से जकड़ रखंगा। चारित्र की Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया १०७ हर क्रिया में अप्रमत्त बन दुष्ट आचार-विचारों को दुबारा धुसने न । दूंगा । मुझे अपने संकल्प में पराजित होकर पीछे नहीं हटना है । ऐसे समय में पूज्य उपाध्यायजी महाराज विश्वास दिलाते हैं कि अगर इस तरह दृढ़ संकल्प से वह साधुजीवन की साधना में लग जाए, तो अल्पावधि में ही पुन: व्रत के पवित्र भाव से प्लावित होते देर नहीं लगेगी। शुभ क्रिया तो शुभ भाव की बाड़ है, कंटीली और मजबूत । यदि उसमें कोई छेद कर दे, तो अशुभ भाव रुपी पशुओं को घुसते देर नहीं लगेगी । और शुभभाव की हरी-भरी फसल को पल भर में चट कर जायेंगे | गँवार किसान भी यह भली-भाँति जानता है कि बाड़ के बिना फसल की रक्षा नहीं हो सकती । तब भला बुद्धिमान साधक इस तथ्य और सत्य को क्या नहीं समझ सकता ? वह जरूर समझता है । लेकिन क्या करे, राह जो भटक गया है । महाव्रत/अणुव्रतादि के भाव और दर्शन-ज्ञान-चारित्र के भावों की सुरक्षा तथा संरक्षण के लिये ही अनंतज्ञानी परमात्मा जिनेश्वरदेव ने तप-संयमादि अनेकविध क्रियाओं का निरुपण किया है । अतः क्रियाओं का परित्याग कर शुभ-भाव में वृद्धि और रक्षा की बात करना सरासर मूर्खता है। यह शाश्वत् सत्य है कि अशुभ भावों की जन्मदात्री अशुभ क्रियायें ही हैं, जिसे कोई झूठला नहीं सकता । अत: इसका सदन्तर त्याग ही मोक्ष-मार्ग का सुनहरा सोपान है, जिसका आरोहण करना हर साधक का परम कर्तव्य है । गुरणवद्धय ततः कुर्यात् क्रियामस्खलनाय वा । एकं तु संयमस्थानं, जिनानामवतिष्ठते ॥७॥७॥ अर्थ : अतः गुण की वृद्धि हेतु अथवा उसमें से स्खलन न हो जायें इसलिये क्रिया करना आवश्यक है । एक संयम-स्थानक तो केवलज्ञानी को ही होता है । विवेचन : जीवात्मा का साधना के समय केवल एक ही लक्ष्य, एक ही ध्येय और एक ही आदर्श रहना चाहिये और वह है, 'गुणवृद्धि' । प्रत्येक शुभ/शुद्ध क्रिया का लक्ष्य / ध्येय और आदर्श एक मात्र आत्मगुरणों की अभिवृद्धि ही होना चाहिये । व्यापारी दुकान के जरिये सिर्फ एक Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार १०८ ही मकसद पूरा करने में हमेंशा जुटा रहता है और वह मकसद है धनवृद्धि | धन बटोरने के लिये, संपत्ति इकट्ठी करने के लिये वह हर संभव मार्ग अपनाता है, उपाय और योजनाओंों को कार्यान्वित करता रहता है । भले ही उसका प्रयास, अपनाया हुआ मार्ग अपार कष्ट और अथक परिश्रम वाला क्यों न हो ? लेकिन वह लक्ष्य-पूर्ति के लिये सदा-सर्वदा सचेत, सजग और सन्नद्ध रहता है । और जैसे-जैसे धन-वृद्धि होती जाती है, उसके पुरुषार्थ में बढ़ोतरी होती जाती है । उसका पुरुषार्थ दीर्घकालीन होता जाता है और यह सब करते हुए उसके उत्साह का ठिकाना नहीं रहता । ठीक उसी तरह धार्मिक क्रियात्मक साधना, गुरणवृद्धि हेतु खोली गयी दुकान ही है । और क्रियात्मक व्यापारी की प्रत्येक क्रिया का लक्ष्य ! ध्येय गुरणों की वृद्धि ही होना चाहिए । जिन-जिन क्रियाओं के माध्यम से गुरणवृद्धि होने की संभावना है, भले ही वे क्रियायें कष्टप्रद और परिश्रम से परिपूर्ण क्यों न हों, गुणवृद्धि के अभिलाषी को हँसते-हँसते करनी चाहिये । और जैसे-जैसे गुणवृद्धि होती जायेगी, वैसे-वैसे उसके पुरुषार्थ में एक प्रकार की स्थिरता और दीर्घकालीनता का आविर्भाव होता जाएगा । फलतः उक्त क्रिया का आनन्द ब्रह्मानन्द - चिदानन्द में परिवर्तित होते विलंब नहीं होगा । यहाँ हम कुछ महत्वपूर्ण क्रियाओं पर विचार करते हैं । सामायिक : इसका ध्येय / लक्ष्य समतागुरण की वृद्धि होना चाहिये । जैसे-जैसे सामायिक की क्रिया कार्यान्वित होती जाये, वैसे-वैसे ग्रात्म- कोष में समतागुण की वृद्धि होनी चाहिये और सुख-दुःख के प्रसंग पर उन्मादशोक की वृत्तियाँ मंद होनी चाहिये । साथ ही प्रतिदिन, प्रतिमाह और प्रतिवर्ष हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिये कि सामायिकक्रिया के माध्यम से हमने क्या पाया ? राग-द्वेष कम हुए हैं या नहीं ? क्रोध-वृत्ति में कमी हुई है अथवा नहीं ? वैसे सामायिक की क्रिया निरन्तर गुणवृद्धि करने वाली और समतागुरण की एकमेव संरक्षरण शक्ति है । प्रतिक्रमण : पापजुगुप्सा, पापनिन्दा, पाप-त्याग के गुरण की वृद्धि के लिये क्रिया की जाती है । इस के माध्यम से गुरणवृद्धि के साथ-साथ जीवात्मा पाप-स्खलन से बच जाता है । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया १०६ तपश्चर्या : प्रात्मा के अनाहारीपन के गुण की वृद्धि के लिये और आहारसंज्ञा के दोष के क्षय हेतु प्रस्तुत क्रिया अनिवार्य है । इसके बिना दोष-क्षय अथवा अनाहारीत्व गुण की वृद्धि प्रायः असंभव है । गुरुसेवा : विनय, विवेक, आज्ञांकिता, लघुता, नम्रतादि, गुणों की अभिवृद्धि के लिये गुरुसेवा और गुरुभक्ति जैसी क्रियायें अनन्य साधन हैं । सावधानी के साथ यदि इसका अवलंबन लिया जाय, तो गुरण-वृद्धि दूर नहीं है । अन्यथा जो गुण हैं, उनका लोप होते देर नहीं लगती। - तीर्थयात्रा : परमात्मा के प्रति प्रीति, भक्ति और श्रद्धाभाव प्रदर्शित करने के लिये और स्व-गुणवृद्धि हेतु तीर्थयात्रा एक महत्वपूर्ण आलंबन है । विविध तीर्थों की यात्रा, जीवात्मा में परमेश्वर के प्रति अगाध भक्ति अनुपम प्रीति और अनिर्वचनीय श्रद्धाभाव पैदा करती है और गुणवृद्धि करने में सहायक सिद्ध होती है । लेकिन प्रस्तुत गुणों को विकसित करने की तमन्ना होना आवश्यक है । गुणों के बिना सारा जीवन सूना लगना चाहिये । इस तरह दान, शील, तप, स्वाध्याय, संलेखना, अनशन इत्यादि विविध अभिग्रह वगैरह क्रियायें नित नये गुणों के विकास और वृद्धि के लिये करनी चाहिये । इसके अभाव में गुरणप्राप्ति, गुणवृद्धि और गुणरक्षा प्रायः असंभव है । क्योंकि छद्मस्थ जीवों के संयम-स्थान, अध्यवसाय-स्थान चंचल होने के साथ-साथ लोप होने के स्वभाववाले हैं । केवलज्ञानी समस्त गुणों से युक्त होते है। अतः उनके लिये गुरण. क्षय अथवा गुरणों के पतन जैसा कोई भय नहीं है । साथ ही उनका संयमस्थान अप्रतिपाती-स्थिर होता है । वचोऽनुष्ठानतोऽसंगाक्रियासंगतिमंगति सेयं ज्ञान क्रियाऽभेवभूमिरानन्दपिच्छला ।।८॥७२॥ अर्थ : वचनानुष्ठान से प्रसंग क्रिया की योग्यता प्राप्त होती है। वह ज्ञान और क्रिया की प्रभेद भूमि है, साथ ही आत्मा के प्रभेद से प्राप्लावित है। विवेचन : जब देवाधिदेव जिनेश्वर भगवन्त की प्रीति- भक्ति में जीवात्मा पूर्णरुप से आप्लादित हो जाए, आत्मा का एक-एक प्रदेश भक्तिभाव Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ज्ञानसार के सुगंधित जल से अभिषिक्त हो जाता हैं, तब उसमें ऐसा अदभुत विशुद्ध वीर्य उल्लसित हो उठता है कि जिसके माध्यम से अपने प्रियतम परमात्मा के गहन वचनों को यथार्थ रुप में समझने में शक्तिमान बन जाता है और तदनुसार यथासंभव पुरुषार्थ करने के लिये कटिबद्ध बनता है । ! ... फलतः उत्सर्ग और अपवाद, निश्चय और व्यवहार, नय और प्रमागादि के वास्तविक ज्ञान के साथ-साथ सर्वत्र वह आत्मा के लिये अनुकूल प्रवृत्ति करने के लिये तत्पर बन जाता है । तब वह 'असंग-अनुष्ठान' की सर्वोत्तम योग्यता प्राप्त करता है । ऐसी स्थिति में ज्ञान और क्रिया के बीच रहा अन्तर / भेद अपने आप दूर हो जाता है और दोनों परस्पर एक दूसरे के भाव में समरस हो जाते हैं । - असंग-अनुष्ठान की भूमि में भाव स्वरुप क्रिया, शुद्ध उपयोग और शुद्ध वीर्योल्लास में एकाकार हो जाती है। तीनों का स्वरुप भिन्न नहीं रहता, बल्कि सुभग-सुन्दर त्रिवेणी-सांगम बन जाता है । वे अपने अलग अस्तित्व को तिलांजलि देकर परस्पर तादात्म्य साध लेते हैं। तब आत्मा स्वाभाविक आनन्द के अमृतरस में तरबतर हो जाती है। फलतः इससे परम तृप्ति का अनुभव करते हए 'जिनकल्पी' 'परिहार विशुद्धि' साधु/महात्मा इस जीवन में परम सुख का रसास्वादन करते रहते हैं । : ऐसी सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करने के लिये निम्नांकित चार बातें बतायी हैं । १. परमात्मा जिनेश्वर देव के प्रति अनन्य प्रीति । २. परमात्मा जिनेश्वर देव के प्रति श्रद्धा-भक्ति । ३. परमात्मा जिनेश्वर देव के वचनों का सर्वागीण ज्ञान । ४. उक्त ज्ञान के माध्यम से जिनवचनानुसार जीवन पावन करने हेतु महापुरुषार्थ । जब परमात्मा जिनेश्वर देव के प्रति प्रीति-भक्ति का भाव हो जाता है, तब संसार के भौतिक / पौद्गलिक पदार्थों के साथ स्नेह-संबंन्ध नहीं रह पाता । शब्द, रुप, रस और गंध के बन्धन टूटने लगते हैं। मोहान्ध कामान्ध जीवों का आदर-सत्कार करने की प्रवृत्ति बन्द हो जाती है। संसारविषयक, बातों को जानने की, समझने की, अवलोकन करने की और Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया १११ सुनने की वृत्ति अप्रिय लगने लगती है । जीवन में से पापमय पुरुषार्थ लुप्त होने लगता है और एक दिन ऐसा आता है, जब इन समस्त कुप्रवृत्तियों से पीछा छुड़ाकर परमात्मा के मधुर-मिलनार्थ जीवात्मा संयम-मार्ग की ओर अग्रसर होता है, दौड़ लगा देता है । उस समय उसे किसी बात की परवाह नहीं होती। भले फिर मार्ग कंटकाकीर्ण और उबड़-खाबड़ क्यों न हो ? मूसलाधार वर्षा और देह को कंपायमान करने वाली सर्द रात क्यों न हो? उसे इनका कतई अनुभव नहीं होता । अपितु उसकी कल्पना-सृष्टि में सिर्फ एक 'परमात्मा' के अतिरिक्त, कुछ नहीं होता । वह निरन्तर बढ़ता ही जाता है । गति में बाधा नहीं पडने देता और जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे उसके आनन्द, उत्साह और उल्लास का पार नहीं रहता है । तात्पर्य यह है कि जब तक गुणों की पूर्णता प्राप्त न हो तब तक जीवात्मा को चाहिये कि वह जिनेश्वर देव द्वारा निरूपित क्रियाओं को निरन्तर करता ही रहे । उन क्रियाओं की जानकारी प्राप्त कर केवल कृतकृत्य होना नहीं है । यदि क्रिया को त्याग दिया, तिलांजलि दे दी, तो ज्ञान एक तरफ धरा रह जाएगा और जीवन नानाविध पाप-क्रियाओं से सराबोर हो जाएगा। तब तुम्हारे ज्ञान का उपयोग उन्हें जडमूल से उखाड़ फेंकने के बजाय उनको पुष्ट करने के लिये होगा और तब परिणाम यह होगा कि आत्मा की उन्नति के बजाय अवनति / पतन होते पल का भी विलंब न होगा । आत्मा की ऐसी दुर्दशा न हो, अतः उपाध्यायजी महाराज धर्मक्रियाओं को कार्यान्वित करने में मन-वचनकाया से लग जाने की/जुट जाने की प्रेरणा देते हैं । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. तृप्ति अतृप्त मानव संसार की गलियों में भटक-भटक कर तृप्ति की परिशोध कर रहा है । उत्तरोत्तर उसकी अतृप्ति एवं १ तृष्णा बढ़ती ही जा रही है। अतिशय श्रम, संताप, बेचैनी और उद्विग्नता से । थका-हारा वह निरुद्देश्य, जहाँ पाशा की धुंधली किरण देखी, वहाँ अनायास आगे बढ़ जाता है । ऐसे तन-मन से बावरे बने मानव को यहाँ परम तृप्ति का मार्ग बताया गया है । इस पर चलकर ऐसी तप्ति प्राप्त कर लो कि फिर जीवन में दुबारा अतृप्ति की तड़प और बेचैनी पैदा होने का सवाल ही न उठे। अमृत-सिंचन से जीवन-बगिया पुनः महक उठेगी । जहाँ नजर डालोगे, सर्वत्र तृप्ति ही तृप्ति के दर्शन होंगे । साथ ही कभी न अनुभव किया हो, ऐसे परमानन्द की प्राप्ति होगी। अतृप्ति की धधकती ज्वालाओं को शान्त कर जीवन को हरा-भरा बनाने हेतु प्रस्तुत अष्टक का पठन-मनन करना अत्यावश्यक है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृप्ति ११३ पीत्वा ज्ञानामतं भक्त्वा, क्रियासुरलताफलम् । साम्यताम्बूलमास्वाद्य, तृप्ति यात परां मुनिः ॥ १ ॥७३ ।। अर्थ :- ज्ञान रुपी अमृत का पान कर और क्रिया रुपी कल्पवृक्ष के फल खाकर, समता रुपी तांबूल चखकर साधु परम तृप्ति का अनुभव करता है । विवेचन : परम तृप्ति, जिसको पाने के बाद कभी अतृप्ति की आग प्रदीप्त न हो, वह पाने का कैसा तो सुगम/सरल और निर्भय मार्ग बताया है ! हमेशा ज्ञानामृत का मधुर पान करो, क्रियासूरलता के फलों का रसास्वादन करो और तत्पश्चात् उत्तम मुखवास से मुंह को सुवासित करो। ऐसे अलौकिक ज्ञानामृत को छोड़कर भला, किसलिये जगत के भौतिक पेय का पान करने के लिये ललचाना ? अपने आप में मलिन, पराधीन और क्षणार्ध में विलीन हो जाने वाले भौतिक पेय पदार्थों का पान करने से जीवात्मा का मन राग-द्वेष से मलिन बनता है । साथ ही इन पेय पदार्थों की प्राप्ति हेतु प्रायः अन्य जीवों की गुलामी, अपेक्षा और खुशामदखोरी करनी पड़ती है। अवांछित लोगों का मुंह देखना पड़ता है । और यदि मिल भी जाये तो उनका सेवन क्षणिक सिद्ध होता है । पुन: इन की प्राप्ति के लिये पहले जैसी ही गुलामी और चाटुकारिता ! तब कहीं घंटे दो घंटे का आनन्द ! ऐसी परिस्थिति में संसार के विषचक्र में फंसा जीव भला, किस तरह अन्तरंग/प्रान्तरिक प्रानन्द-महोदधि में गोते लगा सकता है ? उसके लिये प्रायः यह सब असंभव है । इसके बजाय बेहतर है कि भौतिक पेय पदार्थों का पान करने की लत को ही छोड़ दिया जाय । क्षणिक माह को त्याग दिया जाए । मेरे आत्मदेवता ! जागो, कुंभकर्णी नींद का त्याग करो और ज्ञान से छलकते अमृतकुभ की तरफ नजर करो । इसे अपनाने के लिये तत्पर बनो । प्रस्तुत अमृत-कुभ को निरन्तर अपने पास रखो और जब कभी तृषा लगे, तब जी भर कर इसका पान करो। यह करने से ना ही राग-द्वष से पलिन बनोगे, ना ही स्वार्थी लोगों की खुशामद करनी पड़ेगी और ना ही इस संसार में दर-दर भटकने की बारी पाएगी। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ज्ञानसार तब यह प्रश्न खड़ा होगा कि भोजन कौन सा किया जाए ? लेकिन यों घबराने से काम नहीं चलेगा । शान्ति से विचार करोगे, तो उसका मार्ग भी निकल पाएगा । सर्व रसों से परिपूर्ण, अजेय शक्तिदायी और यौवन को प्रखंड रखने वाला भोजन भी तुम्हारे लिये तैयार है । तुम इसे ग्रहण करने के लिये अपना भोजन-पात्र जरा खोलो | उफ, तुम्हारा पात्र तो गंदा है । उसमें न जाने कैसी गंदगी है ? दुर्गन्ध उठ रही है ! पहले अपने पात्र को स्वच्छ करो । अस्वच्छ और गंदे पात्र में भला ऐसा उत्तम और स्वादिष्ट भोजन कैसे परोसा जाये ? गंदे पात्र में ग्रहण किया गया सवोत्तम भोजन भी गन्दा, अस्वच्छ और दुर्गन्धमय होते देर नहीं लगती । वह असाध्य बीमारी और रोगों का मूल बन जाता है । अरे भाई, तुम्हारे सामने ऐसा सरस, स्वादिष्ट और सर्वोत्तम भोजन तैयार होने पर भी भला तुम्हें जूठे भोजन का मोह क्यों है ? क्या तुम जूठन का मोह छोड़ नहीं सकते ? आज तक बहुत खा ली जूठन ! अब तो जठन खाने का दुराग्रह छोड़ो । क्या तुम नहीं जानते कि जूठन खा-खाकर तुम्हारा शरीर न जाने कैसी भयंकर बीमारी और असाध्य रोगों का घर बन गया है ? श्रावक-जीवन और साधु-जीवन की पवित्र क्रियायें ही यथार्थ में कल्पवृक्ष के मधुर फल हैं, उत्तम खाद्य है । लेकिन भोजन करने के पूर्व प्रात्मा रुपी भाजन में रही पाप-क्रियाओं की जूठन को बाहर फेंक, कर भाजन को स्वच्छ करना आवश्यक है । मतलब यह है कि पापक्रियाओं का पूर्ण रूप से त्याग कर धर्मक्रियाओं का प्रालंबन ग्रहण किया जाए, तभी भोजन के अपूर्व स्वाद का अनुभव हो सकता है । भोजनोपरान्त मुखवास की भी गरज होती है न? स्वर्गीय सुवास से युक्त समता ही मुखवास है । ज्ञान का अमृत-रस पीकर और सम्यक-क्रिया के स्वादिष्ट भोजन का सेवन करने के पश्चात् यदि समता का मुखवास ग्रहण न किया, तो सारा मजा किरकिरा हो जाएगा । भोजन का अपूर्व प्रानन्द अधूरा ही रह जाएगा और तृप्ति की डकारें नहीं आयेगी । गहन/गंभीर चिन्तन-मनन के पश्चात् प्राप्त पर तृप्ति के मार्ग को परिलक्षित कर, जब हृदयभाव-संचार की ओर प्रवृत्त होता है Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृप्ति ११५ तभी मार्मिक प्रभाव का उद्भव होता है । यहां उपाध्यायजी महाराज के तर्क की कोई करामात नहीं है, बल्कि उनकी अपनी भावप्रेरित प्रतीति है । जब हमें भी इसकी प्रतीति हो जाएगी, तब हम भी सोत्साह उक्त परम तृप्ति के मार्ग पर दौड़ लगायेंगे । फलस्वरूप जगत के जड़ भोजन की और गंदे पेय पदार्थों की मोहमूर्च्छा मृतप्रायः बन जाएगी । ज्ञान-क्रिया और समता भाव का जीवात्मा में प्रादुर्भाव होगा और तदुपरान्त मुनिजीवन की उत्कट मस्ती प्रकट होगी, पूर्णानन्द की दिशा में महाभिनिष्क्रमण होगा । वह सारे संसार के लिये एक चमत्कारपूर्ण अद्भुत घटना होगी । परिणाम यह होगा कि असंख्य जीव, मुनिजीवन के प्रति आकर्षित होंगे, उससे उत्कट प्रेम करने लगेंगे और उसे अपनाने के लिये उत्सुक बन कर सोत्साह प्रागे बढ़ेंगे । अतः हे जीव ! क्षणिक तृप्ति का पूर्णरूप से परित्याग कर परम / शाश्वत् तृप्ति की प्राप्ति हेतु मंगल पुरुषार्थ का श्री गणेश करो । स्वगुणैरेव तृप्तिश्चेदाकालमविनश्वरी । ज्ञानिनो विषयः कि तैयैभवेत् तृप्तिरित्वरी ।। २ ।। ७४ ।। अर्थ :- यदि ज्ञानी को अपने ज्ञानादि गुणों से कालान्तर में कभी विनाश न हो, ऐसी पूर्ण तृप्ति का अनुभव हो तो जिन विषयों को सहायता से अल्पकालीन तृप्ति है, ऐसे विषयों का क्या प्रयोजन ! विवेचन : पांच इन्द्रियों के प्रिय विषयों का आकर्षण तब तक ही संभव है, जब तक आत्मा ने स्वयं में झांक कर नहीं देखा है, वह श्रन्तर्मुख नहीं हुई है । उसके ज्ञान-नयन खोल कर अपनी ओर देखने भर की देर है कि उसे ऐसे अभौतिक रूप, रंग, गंध, स्पर्श और रसादि के दर्शन होंगे कि उसकी अनादिकाल पुरानी अतृप्ति क्षणार्ध में ही खत्म हो जायेगी । सदा-सर्वदा के लिये उसके पास रहने वाली अनुपम तृप्ति की झांकी होगी ! ऐसी अद्भुत तृप्ति की प्राप्ति के पश्चात् भला, कौन जगत के पराधीन, विनाशी और अल्पजीवी विषयों की ओर आकर्षित होगा ? हृदय - मंदिर की देवी - प्राणप्रिया के मंजुल स्वरों की मृदुता और प्रीतिरस से आप्लावित भक्तगणों की मीठी बोली सुनकर जो तृप्ति Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ज्ञानसार होती है, मानो या न मानो वह अल्पजीवी ही है, अल्पावधि के लिये है। क्योंकि समय के साथ प्रेयसी के स्वभाव में भी परिवर्तन की संभावना है और तब उसके हृदय-भेदी शब्द-बाणों से तुम्हारा मन छिन्न-भिन्न होते देर नहीं लगती । ठीक वैसे ही भक्तिशून्य बने भक्तों को विषैली बातें जब तुम्हारा अपवाद फैलाती हैं, तब कहां जाती है वह तृप्ति ? तब क्या मादक सौन्दर्य का दर्शन कर तप्त मिलती है ? नहीं, यह भी असंभव है । भले ही स्वर्गलोक की अनुपम सुन्दरी उर्वशी-सा मादक रूप क्यों न हो ? एक-सा रूप कभी किसी का टिका है ? एक ही वस्तु या व्यास को बार-बार देखने से मन कभी भरा है ? मतलब यह कि एक ही वस्तु निरन्तर अानंद नहीं देती. सुख का अनुभव नहीं कराती । ज्ञानीजनों को इसकी सही परख होती है । ज्ञानदृष्टि, शरीर के सौन्दर्य के नीचे रहे हड्डी-मांस के अस्थि-पिंजर को भली-भांति देखती है । उसकी बीभत्सना को जानती है । अतः रूप-रंग उन्हें आकर्षित नहीं कर सकते । बल्कि उन्हें तो आत्म-देवता के मंदिर में प्रतिष्ठित परमात्मा के कमनीय बिंब की सुन्दरता इस कदर प्रफल्लित कर देती है कि निनिमेष नेत्रों से उसकी ओर देखते नहीं अघाते । उसके दर्शन में लयलीन हो जाते हैं, साथ ही इसमें ही परम-तृप्ति का अनुभव करते हैं । विश्व में ऐसा कौन सा रस है, जिसका वर्षों तक कई जन्म में उपभोग करने के पश्चात् भी मानव को तृप्ति हुई है ? तुमने जन्म से लेकर आज तक क्या कम रसों का अनुभव किया है ? तृप्त हो गये ? मिल गयी तृप्ति ? नहीं, कदापि नहीं । और मिली भी तो क्षणिक ! पल दो पल के लिये, घंटे दो घंटे के लिये । इसी तरह दिन, मास और एकाध वर्ष के लिये । बाद में वही अतृप्ति ! अब तो तुम्हारे मन में किसी विशेष फल की सवास और विशेष प्रकार के इत्र को सुगन्ध की चाह नहीं रहो न ? तृप्ति हो गयी ? अब तो उस सुवास प्रोर सुगन्ध के लिये कभो प्राकुल -व्याकुल, अधीर नहीं बनोगे न ? जब तक स्वगुण की सुवास के भ्रमर नहीं बनेंगे, तब तक जड़ पदार्थों की परिवर्तनशील सुवास के लिये इस संसार में निद्देश्यरु भटकते हो रहेंगे । यह सत्य और स्पष्ट है कि स्वगुणों में Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृप्ति ११७ (ज्ञान-दर्शन-चारित्र) तल्लीन/तन्मय बनते ही भौतिक पदार्थों की मादक सौरभ भी तुम्हारे लिये दुर्गन्ध बन जाएगी । कोमल, कमनीय और मोहक काया का स्पर्श भले तुम आजीवन करते रहो. उसमें प्रोत-प्रोत होकर स्वर्गीय सुख निरन्तर लुटते रहो, लेकिन यह शाश्वत सत्य है कि उससे तप्ति मिलना असंभव है | “अब बस हो गया । विषय-भोग बहुत कर लिये, अब तो तृप्ति मिल गयी।" ऐसे उद्गार भी तुम्हारे मुख से प्रकट नहीं होंगे। जहां स्वगुण में सत्...चिद्....प्रानन्द की मस्ती छा गयी, वहां परम ब्रह्म के शब्द, परम ब्रह्म का सौन्दर्य, परम ब्रह्म का रस, परम ब्रह्म की सुगन्ध और परम ब्रह्म के स्पर्श की अनोखी, अविनाशी, अलौकिक सृष्टि में पहुँच गये, तब भला जड़ पदार्थों के शब्द, रूप, रस गन्ध, स्पर्शादि विषयों की क्षणिक तप्ति का प्रयोजन ही क्या है ? नंदनवन में पहुँचने के बाद पृथ्वी के बगीचे की क्या गरज है ? किन्नरियों की मादक सुरावलि की तुलना में गर्दभ-राग की क्या आवश्यकता ? अद्वितीय रूप-यौवना अप्सराओं की कमनीयता के मुकाबले भीलनियों की सुन्दरता किस काम की ? कल्पवृक्ष के मधुर फल चखने के बाद नीम के रस का क्या प्रयोजन ? देवांगनाओं के मादक स्पर्श-सुख की विसात में, हड्डी-माँस के बने मानव की संगति का क्या मोह ? ज्ञानी वही है, जिसके मन में शब्दादि विषयों की अपेक्षा न रही हो, आकर्षण खत्म हो गया हो, संग-व्यासंग की वत्ति नष्टप्रायः हो गयी हो । क्योंकि ज्ञानो बनने के लिये भी यही उपाय सर्वश्रेष्ठ है। या शान्तकरसास्वादाद् भवेत् तृप्तिरतीन्द्रिया। सा न जिह्वेन्द्रियद्वारा षडरसास्वादनादपि ॥३॥७५ ॥ अथ : शान्त रस के अद्वितीय अनुभव से (आत्मा को' जो अतीन्द्रीय __ अगोचर तृप्ति होती है, वह जिह्वेन्द्रिय के माध्यम से षडरस भोजन से भी नहीं होती। विवेचन : ना ही इष्ट-वियोग का दुःख, ना ही इष्ट-संयोग का सुख ! न कोई चिन्ता-सन्ताप, ना ही किसी पुद्गल-विशेष के प्रति राग-द्वेष । न कोई इच्छा-अपेक्षाएँ, ना ही कोई अभिलाषा-महत्त्वाकांक्षाएँ ! जगत के सभी भावों के प्रति समदृष्टि, वही शांतरस कहलाता है । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.१८ न यत्र दुःखं न सुखं न चिन्ता, न राग-द्वेषो न च काचिविच्छा | रसः स शांतः कथितो मुनीन्द्रः, सर्वेषु भावेषु समप्रमाण: ।। - साहित्यदर्पण ऐसे शांतरस का जन्म 'शम' के स्थायी भाव से होता है । और यह भी सत्य है कि बिना पुरुषार्थ किये अपने आप ही शांत रस पैदा नहीं होता । उसके लिये अनित्य, अशररण, एकत्व, अन्यत्व, संसारादि भावनाओं का सतत चिन्तन-मनन करते हुए विश्व के पदार्थों की निःसारता, निर्गुणता का ख्याल मन में दृढ़-सुदृढ़ बनाना पड़ता है । साथ ही परमात्म-स्वरूप के संग प्रीति-भाव प्रगट करना आवश्यक है । क्योंकि शांतरस का यही एकमेव ' आलंबन-विभाव' है । ज्ञानसकर यह सब करने के बावजूद भी 'रस' का उद्दीपन तभी और उस स्थान पर संभव है, जहां योगी पुरुषों का पुण्य - सान्निध्य हो । एकाध पवित्र, शांत और सादा श्राश्रम हो । कोई रम्य और पवित्र तीर्थस्थान हो । वह हरी-भरी दूब और चारों ओर हरियाली हो । जहाँ कल कल नाद की मधुर ध्वनि के साथ शीतल झरने निरन्तर प्रवाहित हो । संत - श्रमरणश्रेष्ठों की शास्त्रपाठ और स्वाध्याय की धूनी रमी हो । निकटस्थ पर्वतमाला पर स्थित मनोरम मंदिरों पर देदीप्यमान कलश हो और धर्मध्वज पूरी शान से इठलाता हुआ गगन में फहराता हो । साथ ही मधुर घंटनाद से आसपास का वातावरण आनंद की लहरियों से भरा हो । क्योंकि शांत रस के ये सब उद्दिपन विभाव जो हैं । ऐसे मनोहारी वातावरण में 'शांतरस' का प्रादुर्भाव होता है और तभी इसका जी भरकर ग्रास्वादन करनेवाले मुनिराज परम सुख का / पूर्णानन्द का अनुभव करते हैं । ऐसे आह्लादक सुख की परम तृप्ति की अनुभूति तो क्या, बल्कि इसकी शतांश अनुभूति भी बेचारी इन्द्रियों को नहीं होती । षड्स भोजन का रस भी शांत रस की तुलना में नीरस और स्वादहीन होता है । तब भला जिह्वेन्द्रिय को ऐसे शांतरस की अद्वितीय अनुभूति कैसे और कहां से संभव है ? मतलब, सर्वथा असंभव है । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृति ११६ इसके लिये परम पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'शांतरस का आस्वाद' शीर्षक का प्रयोग किया है । 'साहित्य दर्पण' में शांतरस के लिए विविध छह विशेषणों का उपयोग किया गया है : सत्त्वोद्रक :- बाह्य विषयों से विमुख कराने वाला कोई प्रांतरिक धर्म अर्थात् सत्त्व । सत्त्व का उद्गम रज और तम भाव के पराभव के पश्चात् होता है और इसी में से सत्व के उत्कट भाव का प्रगटीकरण होता है । तथाविध प्रलौकिक काव्यार्थ का परिशीलन सत्त्वोद्रेक का मुख्य हेतु बनता है । अखंड : विभाव, अनुभाव, संचारी और स्थायो, ये चारों भाव एकात्मक (ज्ञान और सुख स्वरूप ) रूप धारण कर लेते हैं, जो परम आह्लादक और चमत्कारिक सिद्ध होते हैं । स्वप्रकाशत्व :- रस स्वयं में ही ज्ञान स्वरूप स्वप्रकाशित है प्रानन्द :- रस सर्वथा आनन्द रूप है । चिन्मय : रस स्वयं सुखमय है । लोकोत्तरचमत्कारप्राण :- विस्मय का प्रारण ही रस है । 'स्वाद' की परिभाषा करते हुए स्वयं 'साहित्यदर्पण'कार ने लिखा है कि 'स्वाद: काव्यार्थसम्भेदादात्मानन्दसमुद्भवः' काव्यार्थ के परिशीलन से होने वाले आत्मानन्द के समुद्भव का अर्थ ही स्वाद है । शांतरस के महाकाव्यों के परिशीलन से पैदा हुआ स्वाद और उससे उत्पन्न महान् अतीन्द्रिय तृप्ति, षड्रसयुक्त मिष्टान्न भोजन से प्राप्त क्षणिक तृप्ति से बढ़कर होती है । यहाँ षड्स की तृप्ति उपमा है और ज्ञान-तृप्ति उपमेय । प्रस्तुत में 'व्यतिरेकालंकार' रहा हुआ है । 'व्यतिरेकालंकार' का वर्णन 'वाग्भटालंकार' ग्रन्थ में निम्नानुसार किया गया है :-- केनचिद्यत्र धर्मेण द्वयो संसिद्धसाम्ययो: । भवत्येकतराधिक्यं व्यतिरेकः स उच्यते || किसी भी धर्म में उपमान अथवा उपमेय की विशेषता होती है, तब इस अलंकार का सृजन हो जाता है । प्रस्तुत में उपमेय 'ज्ञानतृप्ति' में विशेषता का निरुपण किया गया है । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ज्ञानसार ज्ञान-तृप्ति अनुभवगम्य है । यह किसी वाणी विशेष का विषय नहीं है । तृप्ति के अनुभव-हेतु आत्मा को अपने ही गुणों का अनुरागी बनना होता है । संसारे स्वप्नवन्मिथ्या तप्तिः स्यादाभिमानिकी । तथ्या तु शान्तिशून्यस्य, साऽऽत्मवीर्यविपाककृत् ॥ ४ ।। ७६ ॥ अर्थ :- सपने की तरह संसार में तृप्ति होती है, अभिभान-मान्यता से युक्त ! [ लेकिन ] वास्तविक तृप्ति तो मिथ्याज्ञान-रहित को होती है । वह आरमा के वीर्य की पुष्टि करने वाली होती है। विवेचन : संसार में तुम विविध प्रकार की तृप्ति का अनुभव करते हो न ? वैषयिक सुखों में तुम्हें तप्ति की डकार आती है न ? लेकिन यह निरा भ्रम है.... हमारी भ्रान्ति ! केवल मृगजल, जो वास्तविकता से परिपूर्ण नहीं । यह भलीभाँति समझ लो कि सांसारिक तृप्ति असार है, मिथ्या है और मात्र भ्रम है । सपने में षडरसयुक्त मिष्टान्नों का भर-पेट भोजन कर लिया, सुवासित शर्बत का पान कर लिया और ऊपर से तांबूल-पान का सेवन ! बस, तप्त हो गये ! इसी में जीव ने अलौकिक तप्ति का अनुभव कर लिया । लेकिन स्वप्न-भंग होते ही, निद्रा-त्याग करते ही, तृप्ति का कहीं अता-पता नहीं । सूरा-सुन्दरी और स्वर्ण के स्वप्नलोक में निरन्तर विचरण करने वाली जीवात्मा, जिसे तृप्ति सम भ ने की गलती कर बैठी है, वह तो सिर्फ कल्पनालोक में भरी एक उडान है, जो वास्तविकता से परे और परमतृप्ति से कोसों दूर है । उससे जरूर क्षणिक मनोरंजन और मौज-मस्ती का अनुभव होगा, लेकिन स्थायित्व बिल्कुल नहीं । संसार के एशो-आराम और भोग-विलास की धधकती ज्वालाओं को पल, दो पल शांत करने के पीछे भटकता जीव. यह नहीं समझ पाता कि पल-दो पल के बाद ज्वाला शांत होते ही, जो अकथ्य वेदना, असह्य यातना, ठंडे निश्वास, दीनता, हीनता और उदासीनता उसके जीवन में छा जाती है, वह हमेशा के लिये बेचैन, निर्जीव, उद्विग्न बनकर अशान्ति के गहरे सागर में डूब जाता है । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृप्ति १२१ पांच इन्द्रियों के भोग्य विषयों का ऐश्वर्य प्राप्त करने और विलासिता में स्वच्छन्दतापूर्वक केलि-क्रीडा करने के लिये जीवात्मा न जाने कैसा पामर.... दीन.... निःसत्त्व और दुर्बल बन जाता है कि पूछो मत ! स पर शांत चित्त से विचार करना परमावश्यक है । उद्दीप्त वासनाओं के नग्न नृत्य में ही परमानंद की कल्पना कर आकंठ डूबे मानव को काल और कर्म के क्रूर थपेड़ों में फँसकर कैसा करूरण रूदन, श्राक्रन्दन करना पड़ता है ! उसकी कल्पना मात्र से रोम-रोम सिहर उठता है ! इसको वास्तविकता और संदर्भ को जानना हर जीव के लिये जरूरी है ! तभो भ्रम का जाल फटेगा ओर भ्रांति दूर होगी, तभी वास्तविक तृप्ति का मार्ग सुखद बनेगा । मिथ्या तृप्ति के अनादि आकर्षण का वेग कम होता जाएगा । इस तरह आत्मा के निर्भ्रान्त होते ही समकित को दिव्य दृष्टि प्राप्त होगी । इससे ग्रात्मा, महात्मा और परमात्मा के मनोरम स्वरूप का दर्शन होगा, वास्तविक दर्शन होगा । और तब स्वाभिमुख बनी आत्मा को सही आत्मगुणों का अनुभव होता है । इसी अनुभव की परम तृप्ति आत्मा के अनन्त वीर्य को पुष्ट करती है । इस प्रकार जब वीर्य पुष्टि होने लगे, तब समझ लेना चाहिये कि परम तृप्ति की मंजिल मिल गयो है । क्योंकि परम तृप्ति का लक्षण ही वीर्य पुष्टि है । अध्यात्ममार्ग के योगी श्रीमद् देवचन्द्रजी ने निर्भ्रान्त बन, आत्मानुभव की परम तृप्ति करने के लिये आवश्यक तीन उपाय बताये हैं : गुरु-चररण का शरण, जिन-वचन का श्रवण, सम्यक् तत्त्व का ग्रहरण उतना इन शरण, श्रवरण और ग्रहरण में जितना पुरुषार्थ होता है, ही जीवात्मा अनादि भ्रांति से मुक्त होता है । आत्मतत्त्व के प्रति प्रीति भाव उत्पन्न होता है । अनुत्तर धर्म-श्रद्धा जागृत होती है । अनंतानुबंधी कषायादि विकारों का क्षयोपशम होता है, गाढ कर्म-वंधन कम होते हैं । देवा एवं सांसारिक काम-लिप्सा और भागोपभोग के प्रति Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ज्ञानसार अनासक्ति पैदा होती है । प्रारंभ-समारंभ का त्याग करता है । संसारमार्ग का विच्छेद होता रहता है और मोक्ष-मार्ग के प्रयाण की गति में स्वयं स्फूर्त बन, गतिमान होता जाता है । __ इस तरह गहस्थाश्रम का परित्याग कर अरणगार-धर्म अंगीकार करता है । और कालान्तर से शारिरीक, मानसिक अपरंपार दुःखों का क्षय कर अजरामर, अक्षय पद को प्राप्त करता है । परन्तु परम पद की प्राप्ति के लिये मूलभूत मिथ्या तृप्ति के अभिमान को छोड़ना परमावश्यक है । सांसारिक पदार्थों की वास्तविकता से परिचित हो, उसमें से तप्ति प्राप्त करने की प्रवृत्ति को तिलांजलि देना है । तभी भविष्य का विकास और पूर्णानन्द-परम-पद संभव है । पुद्गलैः पुद्गलास्तृप्ति, यान्त्यात्मा पुनरात्मना । परतप्तिसमारोपो, ज्ञानिनस्तन्न युज्यते ॥ ५ ।। ७७ ।। अर्थ :- पुद्गलों के माध्यम से पुद्गल, पुद्गल के उपचयरूप त प्ति प्राप्त करते है । पात्मा के गुणों के कारण आत्मा तृप्ति पाती है । अत: सम्यग्ज्ञानी को पुद्गल की तृप्ति में प्रात्मा का उपचार करना अनुचित है । विवेचन :- किस से भला, किसको तृप्ति मिलती है ? जड पुद्गल द्रव्यों से भला चेतन आत्मा को क्या तृप्ति मिलती है ? किसी द्रव्य के धर्म का आरोपण किसी अन्य द्रव्य में कैसे कर सकते हैं ? जड़ वस्तु के गुणधर्म अलग होते हैं, जबकि चेतन के अलग। जड़ के गुणधर्म से चेतन की तृप्ति सर्वथा असंभव है । प्रात्मा अपने गुणों से ही तृप्ति पाती है । सुन्दर स्वादिष्ट भोजन से क्या प्रात्मा को तृप्ति मिलती है ? नहीं, शरीर के जड़ पुद्गलों का उपचय होता है । जीवात्मा उस तृप्ति का आरोप स्वयं में कर रहा है। लेकिन यह उसका भ्रम है, निरी भ्रान्ति । और वह मिथ्यात्व के प्रभाव के कारण दृढ़ से दृढ़तम बन गयी है । पौद्गलिक तृप्ति में प्रात्मा की तृप्ति मानने की भयंकर भूल के कारण जीवात्मा पुदगलप्रेमी बन गया है। पौदगलिक गुण-दोषों को देख, राग-द्वेष में खो गया है। राग-द्वेष के कारण मोहनीयादि कर्मों के नित नये कर्म-बन्धनों का शिकार बन, चार गति में भटक Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ रही है। अपार दु:ख, तारकीय यातना और भीषण दद का यही तो मू भूत कारण है। जीव की इस भूल का उन्मूलन करने हेतु पूज्य उपाध्यायजी महाराज 'निश्चय नय' की दृष्टि का अंजन लगाकर उसके माध्यम से पुदगल एवं प्रात्मा का मूल्यांकन करने का विधान करते हैं। "मधुर शब्द-रूप-रंग-रस-गंध और स्पर्श कितने ही सुखद, मादक, मोहक, मधुर क्यों न हो, लेकिन हैं तो जड़ हो । इनके उपभोग से मेरो ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय प्रात्मा की परमतृप्ति होना असंभव है । तो फिर उन शब्दादि परिभोग का प्रयोजन ही क्या है ? ऐसी काल्पनिक मिथ्या तृप्ति के पीछे पागल बन, पुदगल-प्रेम के प्रति प्रोत्साहित हो, मैं अपनी आत्मा की कदर्थना (दुर्दशा) क्यों करु ? इसके बजाय मैं अपनी आत्मतृप्ति हेतु श्रेष्ठ पुरुषार्थ करुंगा ।" यह है ज्ञानी पुरुष की ज्ञान-दृष्टि और ज्ञान-वाणी । इसी दृष्टि को जीवन में अपनाकर जड़ पदार्थो के प्रति रही प्रासक्ति का मुलोच्छेदन करने का उद्यम करना चाहिये। लेकिन सावधान ! कहीं तुमसे भूल न हो जाए.... और अर्थ का अनर्थ न हो जाय ! तुम असली मार्ग से भटक न जाओ । “जड़ जड़ का उपभोग करता है, इससे भला आत्मा का क्या सम्बन्ध ? उससे आत्मा को क्या लेना-देना ?" इस तरह का विचार कर यदि मतिभ्रम हो गया और जड़ पदार्थो के उपभोग में खो गये तो यह तुम्हारी सबसे बड़ी भूल होगी, भयंकर भूल-निरी आत्मवंचना । फलतः पुनः एक बार तुम उसी चक्र में फस जाओगे । क्योंकि इससे जड़ पद्गलों की तृप्ति में आत्म-तृप्ति मानने की अनादिकाल से चली आ रही मिथ्या मान्यता दुबारा दृढ़ बन जायेगी । भोगासक्ति का भाव गाढ़ बन जाएगा । "जड़ जड़ का उपभोग करता है, मेरी आत्मा भला कहाँ उपभोग करती है ?" आदि विचार यदि तुम्हें जड़-पदार्थो के उपभोग के लिये उकसाये, पुद्गल की सगति करने के लिये प्रेरित करे, तो समझ लो कि तुम अभी जिनेश्वर भगवंत के वचनों से कोसों दूर हो, बल्कि जिनवचनों को कतई समझ नहीं पाये हो । तुम्हारे लिये सम्यग़ज्ञान की मंजिल अभी काफी दूर है, तुम सम्यग्दर्शन पाने में सर्वथा असमर्थ सिद्ध हुए हो । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ज्ञानसार _वास्तव में तो तुम्हें अहर्निश इस बात का विचार करना चाहिये कि 'यदि जड़ पुद्गलों के परिभोग से मेरी आत्मा को चिरंतन तृप्ति का लाभ नहीं मिलता तो भला, जड़ पुद्गलों के उपभोग से क्या लाभ ? उनका प्रयोजन किस लिये ? इसके बजाय उसका परित्याग ही क्यों न कर लुं ? न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी । फिर ज्ञानध्यान में लग जाऊँ। आत्मगुरणों की प्राप्ति, वृद्धि और संरक्षण के लिये पुरुषार्थ कर।' इस तरह का दृढ़ संकल्प कर आत्मा के अान्तरिक उत्साह को उल्लसित करना चाहिये । ठीक वैसे ही विविध प्रकार की तपश्चर्या, व्रतनियमादि को अंगीकार कर कामलिप्सा एवं भोगविलास के विविध प्रसंगों का परित्याग कर पुद्गलों से तृप्त होने की आदत को सदा-सर्वदा के लिये भला देना चाहिये । हमेशा याद रहे कि अनादि काल से जिसके साथ स्नेह-संबंध और प्रीति-भाव के बन्धन अटूट हैं, वे तभी टूट सकते हैं, खत्म हो सकते हैं, जब हम उसकी संगति, सहवास और उपभोग लेना सदा के लिये बन्द कर दें । पुदगल-प्रीति के स्नेह-रज्जुनों को तोड़ने के लिये पुद्गलोपभोग से मुंह मोड़े बिना कोई चारा नहीं है । इसी तथ्य को दृष्टिगत कर, ज्ञानी महापुरुषों ने तप-त्याग का मार्ग बताया है । प्रात्मगुणों के अनुभव से प्राप्त तृप्ति चिरस्थायी होती है । उसमें निर्भयता और मूक्ति का सुभग संगम है। जब कि जड़ पदार्थो के उपभोग से मिलो तृप्ति क्षणभंगुर है। उसमें भय और गुलामी की बदबू है। अतः ज्ञानी महापुरुषों को प्रात्मगुणों के अनुभव से प्राप्त तृप्ति के लिये ही सदा-सर्वदा प्रयत्नशील रहना चाहिये, जो लाभप्रद है और हितकारक भी । मधुराज्यमहाशाका ग्राह्ये बाह्ये च गोरसात । परब्रह्मरिण तृप्तिर्या जनास्तां जानतेऽपि न ॥६॥७८॥ अर्थ :- जिनको मनोहर राज्य में उत्कट आशा और अपेक्षा है, वैसे पुरुषों से, प्राप्त न हो ऐसी वाणी से अगोचर परमात्मा के संबंध में जो उत्कट तृप्ति मिलती है, उसको सामान्य जनता नहीं जानती है । विवेचन :- परम ब्रह्मानंदस्वरूप अतल उदधि की अगाधता को स्पर्श करने को कल्पना तक उन पामर/नाचीज़ जीवों के लिये स्वप्नवत् है, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृप्ति १२५ जो मनोहर और निरंकुश राजसत्ता की अनन्त प्राशा, अपेक्षा और महत्वाकांक्षा अपने हृदय में संजोये, संसार में दर-दर की ठोकरें खाते भटक रहे हैं । सत्ता और शासन के लाल कसूबल मदिरा के पात्र में ही जिसने तप्ति की मिथ्या कल्पना कर रखी हो, उसे भला, परम ब्रह्म की तप्ति का एहसास कैसे हो सकता है ? ठीक वैसे ही मृदु वाणी के मंजुल स्वरों में भी परम ब्रह्म की तृप्ति का अनुभव असंभव है। क्योंकि वह तृप्ति तो अगम अगोचर है, पूणतया कल्पनातीत है । वह वचनातोत है, आन्तरिक है और मन के अनुभवों से अलग थलग है । इसे प्राप्त करने के लिये चंचल मन और विषयासक्त इन्द्रियों को निराश होकर लौट जाना पड़ता है। 'तब भला, परम ब्रह्म की तप्ति कैसी है ? इसका' प्रत्युत्तर किसी पद से देना असंभव है । 'अपयस्स पयं नत्थि' पदविरहित आत्मा के स्वरुप का, किसो पद-वचन से वर्णन करना संभव नहीं । और तो क्या. स्वयं बहस्पति अथवा केवलज्ञानो महापुरुष भी उसका वर्णन करने में असमर्थ हैं। क्योंकि वह कथन की सीमा से सर्वथा परे जो है। इसका केवल अनुभव किया जा सकता है । यदि कोई पूछे ‘शक्कर का स्वाद कैसा ?' इसका क्या जवाब हो सकता है ? क्योंकि शक्कर का स्वाद वर्णनातीत होकर अनुभव लेने की बात है । वैसे जगत के सामान्य जीव भोजनतृप्ति से भलीभाँति परिचित हैं। क्योंकि उसका अनुभव मधुर घो, मेवा-मिठाई और स्वादिष्ट सब्जिया के सेवन से प्राप्त होता है । उसमें गोरस (दूध-दही), मीठे फल, चटपटी चटनी, अचार, मुरब्बों का समावेश होता है । ऐसे उत्तमोत्तम भोजन से तृप्ति का अनुभव करने वाले सांसारिक जीव परम तृप्ति का अनुभव तो क्या, बल्कि उसे ठीक से समझने में भी सर्वथा असमर्थ हैं । परम ब्रह्म की तृप्ति का वास्तविक स्वरूप जानने और समझने के लिये घोर तपश्चर्या करनी पड़तो है । जबकि परम ब्रह्म में तृप्त बनी अात्मा इस तृप्ति में ऐसी खो जाती है कि जगत के अन्यान्य पदार्थ उसे अपनी ओर आकर्षित नहीं करते, रिझा नहीं सकते । कोटिशिला पर श्री रामचन्द्रजी ने क्षपक-श्रेणी की समाधि लगा दी । आत्मानद... पूर्णानन्द के साथ तादात्म्य साध लिया । इसकी Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ज्ञानसार जानकारी बारहवें देवलोक के इन्द्र सीतेन्द्र को प्राप्त हुई, तब वह विह्वल हो उठा। क्योंकि पूर्वभव का अद्भुत स्नेहभाव उसके रोम-रोम में अब भी व्याप्त था । फलस्वरुप उसने श्री रामचन्द्रजी की समाधि को भंग करने के लिये नानाविध उपसर्ग आरंभ कर उन्हें ध्यानयोग से विचलित करने का मन ही मन संकल्प किया । रामचन्द्रजी का मोक्षगमन सीतेन्द्र को तनिक भी न भाया । उसे तो उनके सहवास की भूख थी और थी तीब्र चाह । आनन-फानन में वह देवलोक से नीचे उतर आया । __उसने अपनी दैवी शक्ति से रमणीय उद्यान, कलकल नाद करते स्त्रोत, हरियाली से युक्त प्रदेश... यहाँ तक कि साक्षात् वसंत ऋतु को धरती पर उतार दिया । कोयल की मनभावन कूक, मलयाचल की मंथर गति से बहती हवा, क्रीडारसिक भ्रमरराज का मृदु गुंजन आदि मनोहारी दृश्यों की बाढ़ आ गयी । सर्वत्र कामोत्तेजक वातावरण का समाँ बंध गया और तब इन्द्र स्वयं नवोढा सीता बन गया । साथ ही असंख्य सखियों के साथ गीत-संगीत की धुनें जगा दी। वह विनीत भाव से रामचन्द्रजी के सामने खड़ा हो गया । नतमस्तक हो सौन्दर्य का अनन्य प्रतीक बन, उसने गद्गद् कंठ से कहा - "नाथ ! हमारा स्वीकार कर दिव्य सुख का उपभोग कीजिये और परम तृप्ति पाईये । मेरे साथ रही मेरी इन असंख्य विद्याधर युवतियों के उन्मत्त यौवन का रसास्वादन कर हमें कृतकृत्य कीजिये ।" नपुर के मंजुल स्वर के साथ स्मरदेव केलि-क्रीडा में खो गये। लेकिन सीतेन्द्र के मृदु वचन. दिव्य सौन्दर्य की प्रतीक असंख्य विद्याधर युवती. अद्भुत गीत-संगीत और कामोत्तेजक वातावरण से महामुनि रामचन्द्रजी तनिक भी विचलित न हुए, ना ही चचल बने । क्योंकि वे तो पहले से ही परम ब्रह्म के रसास्वादन में परम तृप्ति का अनुभव कर रहे थे। फिर तो क्या, अल्पावधि में ही उन्हें केवलज्ञान हमा । फलत: विवश हो, सीतेन्द्र ने अपने माया-जाल को समेट लिया। उसने भक्तिभाव से श्री रामचन्द्रजी को वन्दना, उनकी स्तुति को और केवलज्ञान का महोत्सव प्रारंभ कर भक्तिभाव में लीन हो गया। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृप्ति बिषयमिविवोद्गारः स्थावतृप्तस्य पुद्गलं । ज्ञानतृप्तस्य तु ध्यानसुधोद्गार - परम्परा ॥७॥७६॥ अर्थ :- जो पुद्गलों से तृप्त नहीं हैं, उन्हें विषयों के तरंग रूप जहर की डकार आनी है । ठीक उसी तरह जो ज्ञान से तृप्त हैं, उन्हें ध्यान रूप अमृत के डकारों की परंपरा होती है । विवेचन :- पुद्गल के परिभोग में तृप्ति ? एक नहीं, सौ बार असंभव बात है । तुम चाहे लाख पुद्गलों का परिभोग करो, उसमें लिप्त रहो, अतृप्ति की ज्वाला प्रज्वलित ही रहेगी । वह बुझने / शान्त होने का नाम नहीं लेगी । पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'अध्यात्म सार' ग्रंथ में कैसी युक्तिपूर्ण बात कही है ! विषयैः क्षीयते कामो नेन्धनेरिव पावक: । प्रत्युत प्रोल्लसच्छक्ति- भूयः एवोपवर्धते || १२७ 'आग में इन्धन डालने से आग शान्त होने के बजाय अधिकाधिक भड़क उठती है और उसमें से स्फोट ही होता है । ठीक उसी तरह सांसारिक पुद्गलों के भोगोपभोग से तृप्ति तो दूर रही, बल्कि अतृप्ति की ज्वालायें आकाश को छूने लगती हैं; जिसका अन्त सर्वनाश में होता है ।' इसी तरह पुद्गलों के अति सेवन से, भोजन है ) ऐसा अजीर्ण होता है कि उसके कारों की परंपरा निरन्तर चलती रहती है वह, बन्द नहीं होती । (जो पुद्गलभोजन विषअसंख्य विकल्प स्वरूप कंडरिक ने पुद्गलसेवन की प्रति लालसा के वशीभूत होकर साधुजीवन का परित्याग किया। वह भागता हुआ राजमहल पहुँचा और अघीर बन उसने मनभावन स्वादिष्ट भोजन का सेवन किया । पेट भर कर खाया । तत्पश्चात् मखमली, मुलायम गद्दों पर गिरकर लौटने लगा । बचैनी से करवटें बदलने लगा । राज कर्मचारी एवं सेवकगण असतोष से विषभोजी कंडरिक को हेय दृष्टि से देखने लगे । मारे अजीर्ण के वह बावरा बन गया । उसे भयंकर हिंसक विचारों के डकार पर डकार आने लगे । परिणाम यह हुआ कि विषभोजन से उसे अपने प्राणों से हाथ घोना पडा और वह सातवीं नरक में चला गया । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ज्ञानसार ____ 'विषयेषु प्रवृत्तानां वैराग्यः खलु दुर्लभम्', जो पुद्गलपरिभोग में लिप्त हैं, उनमें वैराग्य दुर्लभ होता है। और जब वैराग्य ही नहीं, तब सम्यग् ज्ञानी कैसा ? सम्यग् ज्ञान के अभाव में ज्ञानानन्द की तृप्ति कैसी ? और ज्ञानानन्द में तृप्ति मिले बिना ध्यान-अमृत की डकारें कैसे संभव हैं ? जबकि ज्ञानतृप्त आत्मा को निरन्तर ध्यानामृत की डकार आती ही रहती हैं । आत्मानुभव में तादात्म्य साधने के पश्चात् प्रात्मगुणों में तन्मयता रुपी ध्यान चलता ही रहता है। परिणामस्वरूप ऐसे दिव्य आनन्द की अनुभूति होती है कि वह संसार के जड-चेतन, किसी भी पदार्थ के प्रति आकर्षित नहीं होता । . निर्मम भाव से चले जा रहे खंधकमुनि ज्ञानामृत का पान कर परितप्त थे । ध्यान की साधना का आवेग उनके रोम-रोम में संचारित था। सहसा राजसैनिकों ने उन्हें दबोच लिया । उनकी चमड़ी उधेड़ने पर उतारू हो गये । खून की प्यासी छरी लेकर तैयार हो गये। खंधक मूनि तनिक भी विचलित न हुए। टस से मस न हुए। वे ध्यानसुधा को डकारें खा रहे थे । उनका प्रशान्त मुखमंडल पूर्ववत् ज्ञान-साधना से देदोप्यमान था। नयनों में शान्ति और समता के भाव थे। सैनिकों ने चमडी उधेड़ना आरंभ किया । रक्तधारा प्रवाहित हो उठी। जमीन रुधिराभिषेक से सन गयी । मांस के कतरे इधर--उधर उड़ने लगे । फिर भी यह सब महामुनि की ज्ञानसुधा की डकारों की परंपरा को नहीं तोड़ सका। वे पूर्ववत् ज्ञान-समाधि लगाये स्थितप्रज्ञ बने रहे। उनकी अविचलता ने, उच्चकोटि की ध्यान-साधना ने उन्हें धर्मध्यान से शुक्लध्यान को मंजिल की ओर गतिमान कर दिया। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय- इन घाती कर्मो का क्षय कर वे केवलज्ञान के अधिकारी बन गये । उनके सारे कर्मबन्धन टूट गये और भव-भवान्तर के फेरे खत्म हो गये । तात्पर्य यह है कि ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् ज्ञानी के मन में उसके मूलभूत गुण, तत्त्व अविरत संचारित रहने चाहिये । उमे उसका बारबार अवगाहन करते रहना चाहिये । तभी ज्ञान-अमृत में परिवर्तित हो है और उसका सही अनुभव मिलता है । तत्पश्चात् सांसारिक सुख, भोगोपभोग अप्रिय लगते हैं, उनके प्रति घृणा की भावना अपने आप पैदा हो जाती है । शास्त्रार्जन और शास्त्र-परिशीलन से आत्मा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृप्ति १२६ ऐसी भावित बन जाती है कि उस के लिये ज्ञान ज्ञानी का भेद नहीं रहता । ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिये प्रस्तुत अष्टक में बताये गये उपायों का जीवन में क्रमश: प्रयोग करना जरुरी है । सुखिनो विषयातृप्ता, नेन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्यहो । भिक्षुरेकः सुखी लोके, ज्ञानतृप्तो निरंजनः ॥६॥६०॥ अर्थ :- यह आश्चर्य है कि विषयों से अतृप्त देवराज इन्द्र एवं कृष्ण भी सुखी नहीं हैं । संसार में रहा, ज्ञान से तृप्त एवं कर्ममल रहित साधु, श्रमण ही सुखी है । विवेचन :- संसार में कोई सुखी नहीं है । विषयवासना के विषप्याले गटगटानेवाला इन्द्र अथवा महेन्द्र, कोई सुखी नहीं है । निरंतर अतृप्ति की ज्वाला में प्रज्वलित राजा-महाराजा अथवा सेठ - साहुकार कोई सुखी नहीं है । भले तुम उन्हें सुखी मान लो । लेकिन तुम्हारी कल्पना कितनी गलत है, यह तो जब किसी सेठ साहूकार से जाकर पूछोगे, तभी ज्ञात होगा । " विश्वविख्यात घनो व्यक्ति हेनरी फोर्ड से एक बार किसी पत्रकार ने पूछा था ...." संसार में सभी दृष्टि से आप सुखी और संपन्न व्यक्ति हैं, लेकिन ऐसी कोई चीज है, जो श्राप पाना चाहते हैं फिर भी पा नहीं सके हैं ?" का कथन सत्य है । मेरे पास धन है, कीर्ति है, और अपार वैभव है । फिर भी मानसिक शांति का प्रभाव है । लाख खोजने पर भी ऐसा कोई संगी-साथी नहीं मिला, जिसके कारण मुझे शांति और मानसिक स्वस्थता मिले ।” हेनरी ने गंभीर बन, प्रत्युत्तर में कहा । विश्व के धनाढ्य और संपन्न व्यक्तियों को देखकर ऐसा कभी न मानो कि 'वे कितने सुखो और संपन्न हैं !' भौतिक पदार्थों के संयोग से शांति नहीं मिलतो । भले इन्द्रियजन्य सुख से तुम प्रसन्न होंगे, लेकिन कदापि न भूलो कि वे सुख क्षणभंगुर हैं और दुःखप्रद हैं । जब तुम उनकी अन्तर्वेदना का कहानी सुनोगे, तब तुम्हें अपनी घासफूस की छोटी झोंपड़ी / कुटिया लाख दर्जे अच्छी लगेगी, बजाय उनके विशाल बंगले और वैभवशाली भव्य रंगमहल के । उनकी धनिकता के बजाय तुम्हें अपनी दरिद्रता सौगुनी बेहतर महसूस होगी । धन, कीर्ति, वभव, विक्कार के पात्र लगेंगे । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार - तब क्या इस संसार में कोई सुखी नहीं है ? नहीं भाई, यह भी गलत है। इस ससार में सुखी भी हैं और वे हैं- मुनि । 'भिक्षुरेक: सखो लोके" एकमात्र भिक्षक/अरणगार/मुनि संसार में सर्वाधिक सुखी और संपन्न व्यक्ति हैं । लेकिन जानते हो उनके सुख का रहस्य क्या है ? क्या उन्हें द्रव्यार्जन करना नहीं पड़ता, अतः सुखी हैं ? नहीं, यह बात नहीं है । जिस विषय-तृष्णा के पोषण हेतु तुम्हें द्रव्यार्जन करना पड़ता है, वह (विषय-तृष्णा) उनमें नहीं है । अतः वे परम सुखी हैं । श्री उमास्वातिजी ने उन्हें 'नित्य सुखी' संज्ञा से संबोधित किया है । निजितमदमदनानां, वाक्कायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ॥२३८॥ स्वशरोरेऽपि न रज्यति शत्रावपि न प्रदोषमुपयाति । रोगजरामरणभयैरव्यथितो यः स नित्यसुखी ॥२४०।। ऐसे महात्माओं के लिये यहीं इसी धरती पर साक्षात् मोक्ष है, जिन्होंने प्रचंड मद और कामदेवता-मदन को पराजित किया है । जिनके मन-वचन-काया में से विकारों का विष नष्ट हो गया है । जिनकी परपूदगल-विषयक आशा और अपेक्षायें नामशेष हो गयी हैं और जो स्वयं परम त्यागी व संयमी हैं । ऐसे महापुरुष शब्दादि विषयों के दारुण परिणाम को सोच, उसकी अनित्यता एवं दुःखद फल का अन्तर की गहराई से समझ और सांसारिक राग-द्वेषमय भयंकर विनाशलीला का खयाल कर, अपने शरीर के प्रति राग नहीं करते, शत्रु पर रोष नहीं करते, असाध्य रोगों से व्यथित नहीं होते, वृद्धावस्था की दुर्दशा से उद्विग्न नहीं बनते और मृत्यु से भयभीत नहीं होते । वे सदा-सर्वदा 'नित्य सुखी' हैं, परम तृप्त हैं । __परमाराध्य उपाध्यायजी ने इन सब बातों का समावेश केवल दो शर्तों में कर दिया है । ज्ञानतृप्त और निरंजन महात्मा सदा सुखी हैं। महा सुखी बनने के लिये उपाध्यायजी द्वारा अनिवार्य शर्ते बतायी गयी हैं । इन दो शर्तों को जीवन में क्रियात्मक स्वरूप प्रदान करने के लिये श्री उमास्वातिजी भगवत का मार्गदर्शन शत-प्रतिशत वास्तविक है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. निर्लेपता जीव का निर्लेप होना जरुरी है । हृदय को निलिप्त अलिप्त रखना आवश्यक है । राग और द्वेष से लिप्त हृदय की व्यथा और वेदना कहाँ तक रहेगी ? निलिप्त हृदय संसार में रहकर भी मुक्ति का परमानंद उठा सकता है । और प्रलिप्तता का एकमात्र उपाय है - भावनाज्ञान । प्रस्तुत अष्टक में तुम्हें भावनाज्ञान की पगडंडी मिल जाएगी । विलंब न करो, किसी को प्रतीक्षा किये बिना इस पगडंडी पर आगे बढ़ो । राग-द्वेष से हृदय को लिप्त न होने दो। इसके लिये श्रावश्यक उपाय और मार्ग तुम्हें इस अष्टक में से मिल जायेंगे । अतः इसका एकचित्त हो, अध्ययन - मनन और चिन्तन करो । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ज्ञानसार संसारे निवसन स्वायसज्जः कज्जलवेश्मनि । लिप्यते निखिलो लोक: ज्ञानसिद्धो न लिप्यते ॥१॥१॥ अर्थ : कज्जलग्रह समान संसार में रहता, स्वार्थ में तत्पर (जीव) समस्त लोक, कर्म से लिप्त रहता है, जब कि ज्ञान से परिपूर्ण जीव कभी भी लिप्त नहीं होता है । विवेचन :-संसार यानी कज्जल गह। उसकी दीवारें काजल से पती हई हैं; छत काजल से सनी हुई है और उसका भू-भाग भी काजल से लिप्त है। जहाँ स्पर्श करो, वहाँ काजल । पाँव भी काजल से सन जाते हैं और हाथ भी। सीना भी काजल से काला और पीठ भी काली हो जाती है। जहाँ देखो, वहाँ काजल ही काजल! मतलब, जब तक उसमें रहोगे, तब तक काले बनकर ही रहना होगा। संभवत : तुम यह कहोगे कि यदि उसमें सावधानी से सतर्क बनकर रहा जाए तो काला बनने का सवाल ही कहाँ उठता है ? लेकिन कैसी सावधानी का आधार लोगे ? जब कि कज्जल - गृह में वास करने वाला हर जीव अपने स्वार्थ के प्रति ही जागरूक है, सावधान है। क्योंकि स्वार्थ-सिद्धि के नशे में धुत्त उन्हें कहां पता है कि वे पहले से ही भूत जैसे काले बन गये हैं ! उन्हें तभी ज्ञान होगा, जब वे दर्पण में अपना रूप निहारेंगे । और तब तो वे अनायास चीख उठेंगे : 'अरे, यह मैं नहीं हैं, कोई दूसरा है !' लेकिन दर्पण में अपना रूप देखने तक के लिये भी उन्हें समय कहाँ है ? वे तो निरन्तर दूसरों का रूप-रंग और सौन्दर्य देखने के लिये पागल कुत्ते की तरह घिघिया रहे हैं और वह भी स्वार्थान्ध बन कर। यदि परमार्थ-दृष्टि से किसी का सौन्दर्य, रूपरग देखेंगे तो तत्क्षण घबरा उठेगे । उनकी संगत छोड़ देंगे और कज्जल-गृह के दरवाजे तोड़ कर बाहर निकल पायेंगे। __ संसार में ऐसा कौनसा क्षेत्र है, जहां जीवात्मा कर्म-काजल से लिप्त नहीं होता ? जहां मृदु- मधुर स्वरों का पान करने जाता है, .... लिप्त हो जाता है । मनोहर रुप - रंग और कमनीय सौन्दर्य का अवलोकन करने के लिये प्राकर्षित होता है.... लिप्त हो जाता है। गंध -सुगन्ध का सुख लूटने के लिये आगे बढ़ता है .... लिप्त हो जाता है । स्वादिष्ट भोजन की तृप्ति हेतु ललक उठती है ... लिप्त हो जाता है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ निले पता कोमल काया का उपभोग करने के लिए उत्तेजित होता है, लिप्त हो जाता है । फिर भले ही उसे शब्द, रुप, रस, गन्ध, स्पर्श प्रादि के सुख के पीछे दर-दर भटकते समय यह भान न हो कि वह कर्म - काजल से पुता जा रहा है । लेकिन यह निर्विवाद है की वह पुता अवश्य जाता है और यह प्रक्रिया ज्ञानी - पुरुषों से अज्ञात नहीं है । वे सब जानते हैं । जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय, नाम, गोत्र और वेदनीय, इन सात कर्मों से लिप्त बनता रहता है । यह काजल - लेप चर्मचक्षु देख नहीं पाते। इसे देखने के लिये जरुरत है - ज्ञानदृष्टि की, केवलज्ञान की दृष्टि की । तब क्या चतुर्गतिमय संसार में रहेंगे तब तक कर्म-काजल से लिप्त ही रहना होगा ? ऐसा कोई उपाय नहीं है कि संसार में रहते हुए भी इससे अलिप्त रह सकें ? क्यों नहीं ? इसका भी उपाय है । पूज्य उपाध्यायजी महाराज फरमाते हैं : 'ज्ञानसिद्धो न लिप्यते', ज्ञानसिद्ध आत्मा, कज्जल-गृह समान इस संसार में रहते हुए भी निरन्तर अलिप्त रहती है । यदि आत्मा के अंग-प्रत्यंग को ज्ञान रसायन के लेप से पुत दिया जाय, तो फिर कर्म रुपी काजल उसे स्पर्श करने में पूर्णतया असमर्थ हैं । ऐसी आत्मा कर्म-काजल से पुती नहीं जा सकती । जिस तरह कमल-दल पर जल-बिन्दु टिक नहीं सकते, जल-बिन्दुओं से कमल-पत्र लीपा नहीं जाता, ठीक उसी तरह कर्म - काजल से आत्मा भी लिप्त नहीं होती । लेकिन यह अत्यन्त आवश्यक है कि ऐसी स्थिति में आत्मा को ज्ञान - रसायन से भावित कर देना चाहिये । ज्ञान रसायन से आत्मा में ऐसा अद्भूत परिवर्तन आ जाता है कि कर्म काजल लाख चाहने पर भी उसे लेप नहीं सकता । ज्ञान-रसायन सिद्ध करना परमावश्यक है और इसके लिये एकाध वैज्ञानिक की तरह अनुसन्धान में लग जाना चाहिये । भले इसके अन्वेषण में, प्रयोग में कुछ वर्ष क्यों न लग जाएँ ! क्यों कि भयंकर संसार में ज्ञान - रसायन के आधार की अत्यन्त आवश्यकता है । इसे सिद्ध करने के लिये इस ग्रंथ में विविध प्रयोग सुझाये गये हैं । हमें उन प्रयोगों को प्राजमाना है और आजमा कर प्रयोग सिद्ध करना है । फिर भय नाम की वस्तु नहीं रहेगी । ज्ञान रसायन सिद्ध होते ही - * Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ज्ञानसार निर्भयता का आगमन होगा और परमानंद पाने में क्षणार्ध का भी विलंब नहीं होगा। नाहं पदगलभावानां, कर्ता कारयिताऽपि च । नानुमन्ताऽपि चेत्यात्मज्ञानवान् लिप्यते कथम् ? ॥२॥ ८२॥ अर्थ :- मैं पौद्गलिक - भावों का कर्ता, प्रेरक और अनुमोदक नहीं हूँ', ऐसे विचारवाला आत्मज्ञानी लिप्त कैसे हो सकता है ? विवेचन :- ज्ञान - रसायन की सिद्धि का प्रयोग बताया जाता है। “ मैं पौद्गलिक भावों का कर्ता नहीं हूँ, प्रेरक नहीं हूँ। साथ ही पौद्गलिक भावों का अनुमोदक भी नहीं हूँ।" इसी विचार से आत्मतत्त्व को सदा सराबोर रखना होगा। एक बार नहीं, बल्कि बार-बार । एक ही विचार और एक ही चिन्तन ! निरन्तर पौद्गलिक-भाव में अनुरक्त जीवात्मा उसके रुप-रंग और कमनीयता में खोकर, पौद्गलिक भाव द्वारा सजित हृदय-विदारक व्यथा-वेदना और नारकीय यातनाओं को भूल जाता है, विस्मरण कर देता है । वास्तव में पौद्गलिक सुख तो दु:ख पर आच्छादित क्षरणजीवी महीन पर्त जो है, और क्रूर कर्मों के आक्रमण के सामने वह कतई टिक नहीं सकती । क्षणार्ध में ही चीरते, फटते देर नहीं लगती और जीवात्मा रुधिर बरसता करुण क्रन्दन करने लगता है। पौद्गलिक सुख के सपनों में खोया जीवात्मा भले ही ऐश्वर्य और विलासिता से उन्मत्त हो फूला न समाता हो, लेकिन हलाहल से भी अधिक घातक ऐश्वर्य और विलासिता का जहर जब उसके अंग-प्रत्यंग में व्याप्त हो जाएगा, तब उसका करुण क्रन्दन सुनने वाला इस धरती पर कोई नहीं होगा। वह फूट-फूट कर रोयेगा और उसे शान्त करने वाले का कहीं अतापता न होगा। मैं खाता हूँ.... मैं कमाता हूँ.... मैं भोगोपभोग करता हूँ .... मैं मकान बनाता हूँ ।" आदि कर्तृत्व का मिथ्याभिमान, जीवात्मा को पुद्गल-प्रेमी बनाता है । पुद्गलप्रेम ही कर्म- बन्धन का अनन्य कारण है । पुदगल-प्रेमी जीव अनादि से कर्म-काजल से लिप्त होता आया है । फलत : अपरम्पार दुःख और वेदनाओं का पहाड़ उस पर टूट पड़ता है । वह व्यथाओं की बेड़ियों में हमेशा जकड़ा जाता है । यदि Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निले पता १३५ उस दारुण दु:ख के आधार को ही जड- मल से उखाडकर फेंक दिया जाये, तो कितना सुभग और सुन्दर कार्य हो जायं? और यह मत भूलो कि इस प्रकार की विषमता का मल है - पदगलभाव के पीछे रही दुष्ट-बुद्धि उस को परिवर्तित करने के लिये जीव को विचार करना पडेगा कि 'मैं पौद्गलिक भाव का कर्ता, प्रेरक और अनुमोदक नहीं हूँ।' दूसरी वासना है- पुद्गलभावों के प्रेरकत्व की । “मैंने दान दिलाया, मैंने घर दिलवाया, मैंने दुकान करवायी ।" इस तरह की भावना अपने मन में निरन्तर संजोकर जीव स्यंग को पुद्गलभाव का प्रेरक मान कर मिथ्याभिमानी बनता है । फलस्वरूप वह कर्म-कीचड़ में धंसता ही जाता है । अतः " मैं पुद्गलभाव का प्रेरक नहीं हूँ," इस भावना को दृढ़ - सुदढ़ बनाना चाहिये । इसी भांति तीसरी वासना है पुद्गलभाव को अनुमोदना ! पुद्गलभाव का अनुमोदन मतलब आन्तरिक और वाचिक रूप से उसकी प्रशंसा करना। "यह भवन सुन्दर है ! यह रूप/ सौ दयं अनुपम है ! यह शब्द मधुर, मंजुल है ! यह रस मीठा है ! यह स्पर्श सुखद है ।" आदि चिन्तन से जीव पुद्गल-भाव का अनुमोदक बन, कर्मलेप से लिप्त होता रहता है और असह्य यातना का शिकार बनता है । अतः "मैं पुदगल-भाव का अनुमोदक नहीं।" इस भाव के वशीभूत हो, भावना-ज्ञान की शरण लेनी चाहिये । प्रस्तुत भावना को हजार नहीं लाख बार अपने मन में स्थिर कर उसका रसायन बनाना चाहिये । तभी भावना-ज्ञान की परिणति सिद्ध-रसायन में होगी । फलतः कैसा भी शक्तिशाली कर्म-लेप आत्मा को लग नहीं सकेगा। - आत्मा स्वयं अपने मूल स्वरूप में स्वगुणों की कर्ता और भोक्ता है । पुद्गलभाव का कर्तृत्व-भोक्तत्व आत्मा के विशुद्ध स्वरूप में है ही नहीं | 'तब भला, जीव पुद्गल-भाव में क्यों कर कतत्व का अभिमान करता है ?' इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में यों कह सकते हैं कि जीव और कर्म का अनादि संबन्ध है । कर्मा से प्रभावित होकर जीव पुद्गलभाव के साथ अनन्त काल से कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि भाव धारण करता रहा है । प्रात्मा के शुद्ध स्वरुप के अनुराग से कर्मा का प्रभाव उत्तरोत्तर क्षीण होता जाता है । परिणामस्वरुप पुद्गलभाव के प्रति रही कर्तृत्वभोक्तृत्वादि मिथ्या भ्रान्ति भी क्षीण होती जाती है । ज्यों-ज्यों आत्मा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार के शुद्ध स्वरूप का राग वृद्धिंगत होता जाता है, त्यों-त्यों जड़ पुद्गल-भाव के प्रति वैराग्य वृत्ति का उदय होता जाता है और जीव त्याग - मार्ग की ओर गतिमान होता रहता है । लिप्यते पुद्गलस्कन्धो, न लिप्ये पुद्गलरहम् ।। चित्रव्योमांजनेनैव, ध्यायन्निति न लिप्यते ॥३।।८।। अर्थ 'पुद्गलों का स्कान्य पुद्गलों के द्वारा ही लिप्त होता है, ना कि मैं । जिस तरह अंजन द्वारा विचित्र प्रकाश ।' इस प्रकार ध्यान करती हुई प्रात्मा लिप्त नहीं होती । विवेचन:- प्रात्मा को निर्लिप्तावस्था का ध्यान भी न जाने कैसा असरकारक/प्रभावशाली होता है ! ध्यान करो! जब तक ध्यान की धारा अविरत रूप से प्रवाहित है, तब तक यात्मा कर्म-मलिन नहीं बन सकती। यदि यह दृढ़ प्रणिधान कर दिया जाए कि 'मुझे कर्म - कीचड़ में फँसना ही नहीं है, तभी कर्म से निलिप्त रहने की प्रवत्ति होगो । तुम्हारा प्रणिधान जितना मजबूत और दृढ़ होगा, प्रवृत्ति उसी अनुपात में वेगवती और प्रबल होगी । अतः जीव का प्रथम कार्य है-प्रणिधान को दृढ़ - सुदृढ़ बनाना और उसके लिये कर्म के चित्र-विचित्र विपाकों का चिन्तन करना । कर्मा से मुक्त होने की चाह पैदा होते ही कर्मजन्य सुख-सुविधाओं के प्रति नफरत/घणा पैदा होगी । अति आवश्यक सुख-सुविधा में भी अनासक्तिभाव. होना जरूरी है। और उसी अनासक्ति-भाव को स्वाभाविक रूप देने के लिये पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'पुद्गल - विज्ञान' का चिन्तन -मनन करने का प्रभावशाली उपाय सुझाया है। 'जिस तरह अंजन से विविध वर्ण युक्त आकाश लिप्त नहीं होता, ठीक उसी तरह पुद्गलसमुदाय से चैतन्य लिप्त नहीं बनता।" । यदि जीव अति आवश्यक पुद्गल - परिभोग के समय यह चिन्तन अविरत करता रहे तो पुद्गल-परिभोग की क्रिया के बावजूद भी वह लिप्त नहीं बनता । साथ ही पुद्गल- परिभोग में सुखगद्धि अथवा रसगृद्धि पैदा नहीं होती। और यदि सुख-गृद्धि या रस- गृद्धि पैदा होती हो तो समझ लेना चाहिये कि ध्यान प्रबल नहीं है, ना ही ध्यान की Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ नले पता पूर्व भूमिका में प्रणिधान दृढ़ है। ऐसी परिस्थिति में जोव कभी भटक जाता है, अपना निर्दिष्ट मार्ग छोड़ देता है और मान बैठता है कि 'पुद्गलों से पुद्गल उपचय पाता है, बल्कि मेरी आत्मा उसमें लिप्त नहीं होती । फलतः पूर्ववत् मनमौजी बन पुद्गलपरिभोग में आकंठ डूब जाता है । उसमें हो निर्भयता का अनुभव करता है । यह एक प्रकार की भयंकर आत्मवंचना ही है । इस विचार से कि ' पुद्गलों से पुद्गल बँधता है ।' जीव में रहा यह अज्ञान कि ' पुद्गलों से मुझे लाभ होता है .... पुद्गलों से में तृप्त होता हूं', सर्वथा नष्ट हो जाता है । और फिर पुद्गल के प्रति रहा हुआ आकर्षण तथा परिभोग-वृत्ति शनैःशनैः क्षीण होती जाती है | एक पुद्गल दूसरे पुद्गल से कैसे आबद्ध होता है, जुड़ता है, इसका वर्णन श्री जिनागमों में सूक्ष्मतापूर्वक किया गया है । पुद्गल में स्निग्धता एवं रुक्षता दोनों गुणों का समावेश है। स्निग्ध परिणाम वाले और रुक्ष परिणाम वाले पुद्गलों का आपस में बन्ध होता है, वे परस्पर जुड़ते हैं । लेकिन इसमें भी अपवाद है । जघन्य गुणधारक स्निग्ध पुद्गल और जघन्य गुणधारक रुक्ष पुद्गलों का परस्पर बन्ध नहीं होता । वे आपस में नहीं जुड़ पाते । जब गुण की विषमता होती है, तब सजातीय पुद्गलों का भी परस्पर बन्ध होता है । अर्थात् समान गुण वाले स्निग्ध पुद्गलों का, ठीक वैसे ही तुल्य गुण वाले रुक्ष पुद्गलों का सम - धर्मी पुद्गलों के साथ आपस में बन्ध नहीं होता । आत्मा के साथ पुद्गलों का जो संबन्ध है, वह तादात्म्य संबन्ध' -नहीं' बल्कि 'संयोग - संबन्ध' है । ग्रात्मा और पुद्गल के गुणधर्म परस्पर विरोधी, एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं । अतः ये दोनों एकरूप नहीं बन सकते । ठीक इसी तरह पुद्गल और प्रात्मा का भेदज्ञान परिपक्व हो जाने के पश्चात् कर्मपुद्गलों से लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। "भेदज्ञान को परिपक्व करने के लिये निम्नांकित पंक्तियों को आत्मसात करना परमावश्यक है । लिप्त होते पुद्गल सभी, पुद्गलों से मैं नहीं । अंजन स्पर्श न श्राकाश, है शाश्वत सत्य यही ॥ लिप्ता ज्ञान संपात - प्रतिघाताय केवलम् । निलें पज्ञानमग्नस्य क्रिया सर्वोपयुज्यते ॥४॥ ८४ ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ज्ञानसार अर्थ :- "आत्मा निलिप्त है " ऐसे निलेप भान के ज्ञान में मग्न बने जीव को प्रावश्यकादि सभी क्रियायें, केवल ' प्रात्मा कर्मबद्ध है, ऐसे लिप्तता के ज्ञानागमन को रोकने के निये उपयोगी होती हैं । विवेचन :- जिस के आत्म-प्रदेश पर 'मैं निलिप्त हूँ, ऐसे निर्लेपता ज्ञान की धारा अस्खलित गति से प्रवाहित होती हो, ऐसे योगी महापुरुष के लिये आवश्यक प्रतिलेखनादि क्रियाओं का कोई प्रयोजन नहीं रहता। क्यों कि आवश्यकादि क्रियाओं का प्रयोजन तो सिर्फ विभावदशा में यानी लिप्तता-ज्ञान में गमन करती चित्तवृत्तियों को अवरुद्ध करने के लिये है । इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा जब तक अविरत रूप से प्रमादकेन्द्रों की तरफ आकर्षित होती है, तब तक आवश्यकादि क्रियायें जीव के लिये महान उपकारक और हितकारी हैं। इन क्रियाओं के माध्यम से जीव विषय-कषायादि प्रमादों से बाल-बाल बच जाता है। प्रस्तुत प्रमाद - अवस्था छठे गुणस्थानक तक ही सीमित है। जब कि 'प्रमत्त-संयत' गुणस्थान तक प्रतिक्रमण-प्रतिलेखनादि बाह्य धर्मक्रियायें करने का विधान है। जब तक जीव प्रमादसंयुक्त होगा, तब तक निरालम्ब (पालम्बन-रहित) धर्म - ध्यान टिक नहीं सकता । उक्त तथ्य का उल्लेख 'गुणस्थान - क्रमारोह में किया गया है : यावत् प्रमादसंयुक्तस्तावत्तस्य न तिष्ठति । धर्मध्यानं निरालम्बमित्यूचुजिनभास्कराः ॥ - गुणस्थान कमारोहे अर्थात जब तक विषय- कषायादि प्रमाद का जोर है, तब तक निर्लेप-ज्ञान में तल्लीन होने की वृत्ति पैदा नहीं होती। ऐसी परिस्थिति में यदि आवश्यकादि को तजकर निश्चल ध्यान की शरण ले लें, तो 'अतो भ्रष्ट: ततो भ्रष्ट:' सदृश भयंकर स्थिति पैदा होते विलम्ब नहीं लगता । कुछ लोग प्रतिक्रमणादि क्रियाओं से ऊबकर निश्चल ध्यान की ओर आकर्षित होते हैं, लेकिन इस तरह करने से न तो उनकी विषयकषायादि की वृत्ति-प्रवृत्ति क्षीण बनती है, ना ही वे अगले गुणस्थान पर आरूढ हो सकते हैं । ऐसे लोग जैन दर्शन की सूक्ष्मता समझने में * गुणस्थानक के स्वरूप को जानने के लिये परिशिष्ट देखिये । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निले पता पूर्णतया असमर्थ हैं, ऐसा कहें तो अतिशयोक्ति न होगी । वे कपोलकल्पनाओं के प्राग्रही बन वास्तविक आत्मोन्नति के मार्ग से हमेशा के लिये विमुख बन जाते हैं । फलस्वरूप, जब तक अप्रमत्त दशा प्राप्त न हो तब तक अवरित रूप से आवश्यकादि क्रियाओं को करते रहना चाहिये । इन क्रियाओं के आलंबन से आत्मा प्रमाद की गहरी खाई में गिरने से बच जाती है। विभावदशा के प्रति रहा अज्ञान उसके मनोमन्दिर में प्रवेश नहीं कर सकता । 'श्री गुणस्थान क्रमारोह' में कहा है : तस्मादावश्यक : कुर्यात प्राप्तदोषनिकृन्तनम् । यावन्नाप्नोति सद्धयानमप्रमत्तगुणाश्रितम् ॥३१।। सातवें गुणस्थान के सम्यग् ध्यान में यानी निले प-ज्ञान में जब तक तल्लीनता का अभाव हो, तब तक आवश्यकादि क्रियाओं के माध्यम से विषय-कषायों की बाढ़ को बीच में ही अवरूद्ध कर के हमेशा के लिये उसका नामोनिशान मिटा दो। लिप्तता- ज्ञान अर्थात् विभाव दशा । कर्मजन्य भावों के प्रति मोहित होने की अवस्था । उसी लिप्तता-ज्ञान को नष्टप्रायः बनाने हेतु परमाराध्य उपाध्यायजी महाराज ने प्रावश्यक क्रियाओं का एकमेव उपाय बताया है । 'बाह्य क्रियाकांड से कभी आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं होती ।' कहने वाले महानुभाव जरा अपनी बुद्धि की मामिकता को कसौटी पर परख कर तो देखें । वे पायेंगे कि उत्साही वृत्ति से विषय -कषायों से युक्त सांसारिक क्रियायें सम्पन्न कर, अनात्मज्ञान को किस कदर दृढ़-सुदृढ़ कर दिया है ? क्या उसी ढंग से पाप-निंदाभित, प्रभुभक्तियुक्त, अभिनव गुणों की प्राप्तिस्वरूप प्रावश्यकादि क्रियायें करते हुए आत्मज्ञान दृढ़-प्रबल नहीं हो सकता ? अवश्य हो सकता है। यह असंभव नहीं, बल्कि सौ बार संभव है ! जिन्हों ने तर्क और विविध युक्तियों से मंडित अनेकविध उत्तमोत्तम ग्रंथों के अध्ययन - मनन-चिन्तन और परिशीलन में समस्त जीवन व्यतीत कर दिया था, ऐसे महापुरुष, ताकिक-शिरोमणि उपाध्यायजी महाराज के धीर-गंभीर वचन पर गंभीरता से विचार करना चाहिये । ठीक उसी तरह आवश्यकादि क्रियाओं के महत्त्व को समझना भी परमावश्यक है । वर्ना प्रमाद-वृत्ति उन्मत्त बनते देर नहीं लगेगी। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अर्थ : तपः श्रुतादिना मत्तः क्रियावानपि लिप्यते । भावनाज्ञानसंपन्नो, निष्क्रयोऽपि न लिप्यते ॥५॥६५ || ज्ञानसार श्रुत और तपादि के अभिमान से युक्त, क्रियाशील होने पर भी कर्म - लिप्त बनता है, जब कि क्रियाविरहित जीव यदि भावना-ज्ञानी हो तो वह लिप्त नहीं होता । .... विवेचन :- प्रतिक्रमण- प्रतिलेखनादि विविध क्रियाओं में रात-दिन खोया, तप- जप और ज्ञान- ध्यान का अभिलाषी हो, फिर भी अपनी क्रिया का अभिमान करता हो तो उसे कर्म - लिप्त हुग्रा ही समभो । 'मैं तपस्वी .... मैं विद्वान् ... मैं विद्यावान् .... मैं बुद्धिमान् .. मैं क्रियावान हूँ -' इस तरह अपने उत्कर्ष का खयाल अथवा अभिप्राय, मिथ्याभिमान है । एक तरफ तप त्याग और शास्त्राध्ययन चलता रहे और दूसरी तरह अपनी क्रिया के लिये मन में अभिमान की धारा जोरों से प्रवाहित रखता हो । यह निहायत अनिच्छनीय बात है । साधक को अभिमान की परिधि से बाहर आना चाहिये । मिथ्याभिमान के घेरे को तोड़ देना चाहिये । अपना उत्कर्ष और दूसरे का अपकर्ष करते हुए जीव, आत्मा के शुद्ध-विशुद्ध अध्यवसायों को मटियामेट कर देते हैं । परिणामस्वरूप आत्मा विशुद्ध अध्यवसायों का श्मशान बनकर रह जाता है । जिस स्मशान में क्रोध, अभिमान, मोह, माया, लोभ, लालच के भूतपिशाच निर्बाध रूप से तांडव नृत्य करने लगते हैं और आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह की डाकिनियां निरन्तर अट्टहास करती नज़र आती हैं । साथ ही सर्वत्र विषय विकार के गिद्ध बेबाक उड़ते रहते हैं पूज्य उमास्त्रातिजी 'प्रशमरति' में साधक - आत्मा से प्रश्न करते हैं:' लब्ध्वा सर्व मदहरं तेनैव मदः कथं कार्यः ?' तप-त्याग - ज्ञानादि के प्रालंबन से जहाँ मदहरण होता है, वहां उन्हीं की सहायता से भला अभिमान कैसे किया जाये ? याद रखो, और जीवन में आत्मसात् कर लो कि अभिमान करना बुरी बात है और उसके दुष्परिणाम प्रायः भयंकर होते हैं । 'केवलमुन्माद : स्वहृदयस्य संसारवृद्धिश्च ।' Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ निले पता मद से दो तरह का नुकसान होता है - हृदय का उन्माद और संसार - परिभ्रमण में वृद्धि । इससे तुम्हें कोई नहीं बचा सकता । तप, त्याग और श्रुतज्ञान के माध्यम से 'भावनाज्ञान' की भूमिका तक पहुँचना है । समस्त सत्क्रियाओं के द्वारा श्रात्मा को भावनाज्ञान से भावित करनी है । और यदि एक बार भावनाज्ञान से भावित हो जाओगे, तो दुनिया को कोई ताकत, किसी प्रकार की कोई क्रिया न करने पर भी तुम्हें कर्मलिप्त नहीं कर सकती । श्रुतज्ञान और चिन्ताज्ञान के पश्चात् भावनाज्ञान की कक्षा प्राप्त होती है । तब ध्याता, ध्येय और ध्यान में किसी प्रकार का भेद नहीं रह पाता। बल्कि वहां सदा-सर्वदा होती है ध्याता, ध्येय और ध्यान के अभेद को अद्भुत मस्तो ! लेकिन उसको अवधि केवल अन्तर्मुहूत की होती है । उस समय बाह्य धर्म- क्रिया की आवश्यकता नहीं होती । फिर भी वह कर्म - लिप्त नहीं होता । लेकिन जिसके श्रुतज्ञान का कोई ठौर-ठिकाना नहीं है, ऐसा जीव यदि श्रावश्यकादि क्रियाओं को सदन्तर त्याग दे और मनमाने धर्मध्यान का आश्रय ग्रहण कर निरन्तर उसमें आकंठ डूबा रहे तो वह कर्मबंधन से बच नहीं सकता । ठीक उसी तरह श्रुतज्ञानप्राप्ति के पश्चात् किसी प्रकार के प्रमाद अथवा मिथ्याभिमान का शिकार बन जाए तो भावनाज्ञान की मंजिल तक पहुँच नहीं पाता । अतः तप और ज्ञान रूपी अक्षयनिधि प्राप्त करने के पश्चात् उस से पदच्युत न होने पाये, इसिलिये निम्नांकित भावनाओं से भावित होना नितान्त आवश्यक है । * पूर्व पुरुषसिंहों के अपूर्वज्ञान की तुलना में मैं तुच्छ / पामर जीव मात्र हूँ भला किस बात का अभिमान करू ? .... * जिस तप और ज्ञान के सहारे मुझे भवसागर से तिरना है, उसी के सहयोग से मुझे अपनी जीवन- नौका को डुबाना नहीं है । * श्रुतज्ञान के बाद चिन्ताज्ञान और भावनाज्ञान की मंजिल तक पहुँचना है, अतः मैं मिथ्याभिमान से कोसों दूर रहूंगा । * भावनाज्ञान तक पहुंचने के लिये आवश्यकादि क्रियाओं का सम्मानसहित आदर करुंगा । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अलिप्तो निश्चयेनात्मा, लिप्तश्च व्यवहारतः । शुद्धयत्य लिप्तया ज्ञानी, क्रियावान् लिप्तया दशा ||६ ॥ ८६ ॥ ज्ञानसार अर्थ :- निश्चयनय के अनुसार जीव कर्म - बन्धनों से जकडा हुआ नहीं है, लेकिन व्यवहार नय के अनुसार वह जकडा हुपा है । ज्ञानीजन निर्लिप्त दृष्टि से शुद्ध होते हैं और क्रियाशील लिप्त दृष्टि से । विवेचन :- " मैं अपने शुद्ध स्वभाव में अज्ञानी नहीं.... पूर्णरूपेण ज्ञानी हूँ... पूर्णदर्शी हूँ.... प्रक्रोधी हूँ... निरभिमानी हूँ.... मायारहित हूँ..... निर्लोभी हूँ... निर्मोही हूँ... अनंत वीर्यशाली हूँ.... अनामी और अगुरुलघु हूँ । अनाहारी और अवेदी हूं । मेरे स्वभाव में न तो निद्रा है ना ही विकथा, ना रूप है ना रंग । मेरा स्वरूप सच्चिदानन्दमय है ।" आत्मा की इसी स्वभाव दशा के चिन्तन-मनन से ज्ञानीजन शुद्ध-विशुद्ध बनते हैं । 'निश्चयनय, * की यही मान्यता है । निश्चयनय के अनुसार आत्मा लिप्त है । जबकि लिप्तता ' व्यवहार नय' + के अनुसार है । " मैं जघन्य / अशुद्ध प्रवृत्तियों के कारण कर्म- बन्धनों से जकड़ा हुआ हूँ । कर्म-लिप्त हूँ । लेकिन अब सत्प्रवृत्तियों को अपने जीवन में अपनाकर कर्म- बन्धनों को तोड़ने का उससे मुक्त होने का यथेष्ट प्रयास करूंगा । साथ ही ऐसा कोई कार्य नहीं करूंगा कि जिससे नये सिरे से कर्म - बन्धन होने की जरा भी संभावना हो । इस सद्भावना और सत् प्रवृत्ति के माध्यम से मैं अपनी आत्मा को शुद्ध बनाऊँगा ।" इस तरह के विचारों के साथ यह लिप्त दृष्टि से आवश्यकादि क्रियात्रों को जीवन में आत्मसात् करता हुआ आत्मा को शुद्ध बनाता है । शुद्ध बनने के लिये ज्ञानीजनों को, योगी पुरुषों को 'निश्चय नय' का मार्ग ही अपनाना है । जब कि रात-दिन अहर्निश पापी दुनिया में खोये जीवात्मा के लिये 'व्यवहारनय' का क्रियामार्ग ही सभी दृष्टि मे उचित है । उसे अपनी कर्ममलिन अशुद्ध अवस्था का खयाल कर उसकी सर्वांगीण शुद्धि हेतु जिनोक्त सम्यक् - क्रिया का सम्मान करते हुए आत्मशुद्धिकरण का प्रयोग करना चाहिये । ज्यों-ज्यों पाप क्रियाओं से मुक्त * निश्चयनय का विस्तृत स्वरुप परिशिष्ट में देखिए । * व्यवहारनय की जानकारी के लिए परिशिष्ट देखिए । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ निले पता होते जाओगे, त्यों-त्यों निश्चयनय की प्रलिप्त दृष्टि का अवलंबन लेकर शुद्ध-ध्यान की तरफ निरन्तर प्रगति करते रहोगे । ज्ञान- क्रियासमावेशः सदेवोन्मीलने द्वयोः । भूमिकाभेदतस्त्वत्र भवेदेकैक - मुख्यता ॥७॥ ८७॥ अर्थ :- दोनों दृष्टियों के साथ खुलने से ज्ञान-क्रिया की एकता होती है । यहाँ ज्ञान-क्रिया में गुणस्थानक स्वरूप अवस्था के भेद से प्रत्येक की महत्ता होती है । · विवेचन :शुद्धि के लिये दो दृष्टियाँ खुलनी चाहिये । लिप्त दृष्टि और अलिप्त दृष्टि । जब दोनों दृष्टियाँ एक साथ खुलती हैं, तब ज्ञान और क्रिया की एकात्मता सघती है । गुणस्थानक की भूमिका के अनुसार ज्ञान-क्रिया का प्राधान्य रहता है । इसमें भी सर्व प्रथम बात है शुद्धि की । मन में शुद्धिकरण की भावना पैदा होनो चाहिये । एक बार एक मनुष्य किसी योगी के पास गया । उन्हें प्रणिपात - वन्दन कर विनयभाव से कहा । "गुरुदेव, मैं परमात्मा के दर्शन करना चाहता हूँ । प्राप करायेंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी ।" योगीराज ने नजर उठाकर उसे देखा । क्षरण दो क्षण उसे निर्निमेष दृष्टि से देखते रहे । तब उसका हाथ अपने हाथ में लेकर चल पड़ । गाँव के बाहर बड़ा तालाब था । योगीराज ने उसके साथ शीतल जल में प्रवेश किया । जैसे-जैसे वे आगे बढते गये, जल का स्तर बढता गया । वे दोनों कमर से ऊपर तक गहरे जल में चले गये । फिर भी आगे बढ़ते रहे । पानी सीने तक पहुँच गया। लेकिन रुके नहीं । दाढ़ी तक पहुँच गया, फिर भी आगे बढ़ते रहे और जब नाक तक पहुँच गया, तब योगोराज ने विद्युत वेग से अविलंब उसे पानी के भीतर पूरी ताकत के साथ दबोच लिया । वह छटपटाने लगा । तड़पने लगा । ऊपर आने के लिये हाथ पाँव मारने लगा । लेकिन योगीराज ने उसे दबोचे ही रखा । उसने लाख कोशिश को बाहर निकलने को, लेकिन वह अपने प्रयत्न में कारगार न हुआ । इस तरह पाँच-दस सेकड व्यतीत हो गये । तब योगीराज ने उसे ऊपर उठाया और तालाब Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार से बाहर निकल आये । योगीराज को क्रिया से हैरान-परेशान बह सकते में आकर उनका मुंह ताकने लगा । वातावरण में नीरव शान्ति छा गयी । एक-दूसरे की धड़कनें साफ सुनायी दे रही थीं। पानी में रहने के कारण मनुष्य अधमरा हो गया था फिर भी कुछ नहीं बोला । तब शान्ति भंग करते हुए योगीराज ने गंभीर स्वर में प्रश्न किया !" मैंने जब तुम्हें पानी में डुवा दिया था, तब तुम किसलिये छटपटा रहे थे ?" " हवा के लिये ।" " और छटपटाहट कैसी थी ?" " यदि ज्यादा समय लगता तो मेरे प्राण-पखेरू उड़ जाते । मैं ___ मर जाता।" . क्या ऐसी छटपटाहट परमात्मा के दर्शन की है ? जिस पल ऐसी छटपटाहट, तड़प का अनुभव होगा, उसी पल परमात्मा के दर्शन हो जायेंगे ।" शुद्धिकरण हेतु ऐसी तीव्र लालसा पैदा होते ही, खुद जिस भूमिका पर है, उसी के अनुरुप वह ज्ञान अथवा क्रिया पर भार दें और शुद्ध होने के पुरुषार्थ में लग जायें । दोनों में से किसी को भी भूमिका के अनुसार प्राधान्य देना चाहिये । ज्ञान को प्राधान्य दो अथवा क्रिया को, दोनों ही बराबर हैं। छठे गुणस्थानक तक (प्रमत्तयति का गुणस्थानक) क्रिया को ही प्राधान्य देना चाहिये । लेकिन उसमें भी ज्ञान की सापेक्षता होना परमावश्यक है । ज्ञान को सापेक्षता का मतलब है, जो भी क्रिया की जाए, उसके पीछे ज्ञान-दृष्टि होनी चाहिये । ज्ञान की उपेक्षा अथवा अवज्ञा नहीं होनी चाहिये । जब कि व्यवहारदशा में क्रिया का ही प्राधान्य होता है, लेकिन यदि जीव एकान्त क्रिया-जड़ बन जाए, तो आत्मशुद्धि असंभव है । अतः उसमें भी ज्ञान-दृष्टि की आवश्यकता है । ठीक इसी प्रकार ध्यानावस्था में ज्ञान का प्राधान्य रहे, लेकिन भूलकर भी यदि जीव एकान्त ज्ञानजड़ बन जाए, तो आत्मशुद्धि नहीं होती। अतः वहाँ मावश्यक क्रियाओं के प्रति सजगता और समादर होना चाहिये । । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निले पता १४५ व्यवहार से तीर्थ (प्रवचन) की रक्षा होती है, जबकि निश्चय से सत्यरक्षा । जिनमत का रथ, निश्चय और व्यवहार के दो पहियों पर अवस्थित है । अतः जिनमत द्वारा आत्मविशुद्धि का प्रयोग करने वाले साधक को हमेशा व्यवहार और निश्चय के प्रति सापेक्ष दृष्टि रखनी चाहिये । सापेक्ष दृष्टि एक प्रकार से सम्यग् दृष्टि ही है जबकि निरपेक्षदृष्टि मिथ्याष्टि है। सापेक्षदृष्टि उद्घाटित होते ही जीवात्मा में ज्ञान-क्रिया का अद्भुत संगम होता है । फलस्वरूप प्रात्मा निरन्तर विशुद्ध बनती जाती है और उसकी गुण-समृद्धि प्रकट होती है। सापेक्ष दृष्टि के मेघ से बरसता प्रानन्द-अमृत आत्मा को अजरामर-अक्षय बनाने के लिये पूर्ण रूप से समर्थ होता है। जबकि निरपेक्ष दृष्टि से रिसता रहता है क्लेश, अशान्ति और असंतोष का जहर ! सज्ञानं यदनुष्ठानं, न लिप्त दोषपंकतः । शुद्ध वुद्धस्वभावाय, तस्मै भगवते नमः ॥८।।८८।। अर्थ :- जिसका ज्ञानसहित क्रियारुप अनुष्ठान दोष रुपी मैल से लिप्त नहीं है और जो शुद्ध-बुद्ध ज्ञान स्वरुप स्वभाव के धारक हैं, ऐसे भगवान को मेरा नमस्कार हो । विवेचन :- जो भी क्रिया हो, ज्ञानसहित होनी चाहिये । ठीक उसी तरह ज्ञानयुक्त क्रियानुष्ठान दोष के कीचड़ से सना हुआ न हो । ज्ञानयुक्त (सज्ञान) क्रियानुष्ठान क्या होता है और किसे कहा जाता है ? मतलब, जो भी क्रिया हम करते हों, उसका स्वरूप, विधि और फल को जानकारी हमें होनी चाहिये । सिर्फ प्रात्मशुद्धि के एकमेव पवित्र फल की आकांक्षा से हमें प्रत्येक क्रियानुष्ठान करना चाहिये । यह आदर्श सदा-सर्वदा हमारे आचार-विचार से प्रकट होना चाहिये कि 'मुझे अपनी आत्मा की शुद्ध-बुद्ध अवस्था प्राप्त करना है ।' क्रिया में प्रवत्त होते हो उसकी विधि जान लेनी चाहिये और विधिपूर्वक क्रियानुष्ठान करना चाहिये । क्रियानुष्ठान के विधि-निषेध के साथ-साथ जिनमतप्रणीत मोक्षमार्ग का यथार्थ ज्ञान मुमुक्षु आत्मा को होना निहायत जरूरी है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'ज्ञानसार क्रियानुष्ठान करते समय इस बात से सतर्क रहना चाहिये कि वह अतिचारों से दूषित न हो जाये । मोह, अज्ञान, रस, ऋद्धि और शाता गारव, कषाय, उपसर्ग-भीरुता, विषयों का आकर्षणादि से अनुष्ठान दूषित नहीं होना चाहिये । इसकी प्रतिपल सावधानी बरतनी चाहिये। इस तरह दोष-रहित सम्यग् ज्ञानयुक्त, क्रियानुष्ठान के कर्ता और शुद्ध-बुद्ध स्वभाव के धनी भगवान को मेरा नमस्कार हो । कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि दोष-रहित क्रियानुष्ठान करने से आत्मा का शुद्ध-बुद्ध स्वरूप अपने आप ही प्रकट होता है । जबकि दोषयुक्त और ज्ञानविहीन क्रियायें करते रहने से आत्मा का शुद्ध-बुद्ध सहज स्वरूप प्रकट नहीं होता । लेकिन उससे विपरीत मिथ्याभिमान का ही पोषण होता है । फलतः भवचक्र के फेरों में दिन-दुगुनी रात चौगुनी वृद्धि हो जाती है । कर्म-निर्लेप होने के लिये ज्ञान-क्रिया का विवेकपूर्ण तादात्म्य साधना जबरी है । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. निःस्पृहता स्पृहाएं कामनाएं और असंख्य अभिलाषाओं के बंधन से अब तो मुक्त बनोगे ? बिना इनसे मुक्त हुए, बंधन काटे, तुम निर्लेप नही बन सकते ! प्रिय आत्मन् ! जरा तो अपना और अपने भविष्य का ख्याल करो ! आज तक तुमने स्पृहाओं की धू-धू प्रज्वलित अग्निशिखाओं की असह्य जलन में न जाने कितनी यातनाएँ सही हैं ? युगयुगान्तर से स्पृहा के विष का प्याला गले में ऊंडेलते रहे हो, पोते रहे हो । क्या अब भी तुप्त नहीं हुए ? और भी पीना बाकी है ? नहीं, नहीं, अब तो नि:स्पृह बनना ही श्रेयस्कर है ! मन की गहरायी में दबी स्पृहाओं को जड़मूल से उखेड कर फेंक दे ! और फिर देख, जीवन में क्या परिवर्तन आता है ? अकल्पित सुख, शांति और समृद्धि का तूं धनी बन जाएगा ! साथ ही आज तक अनुभव नहीं किया हो ऐसे दिव्यानद से तेरी आत्मा आकंठ भर जायेगी ! तू परिपूर्ण बन जायेगा । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ स्वभावलाभात् किमपि प्राप्तव्यं नावशिष्यते । इत्यात्मंश्वयसम्पन्नो निःस्पृहो जायते मुनिः ॥ १ ॥ ८३ ॥ ज्ञानसार अयं :- आत्मस्वभाव की प्राप्ति के पश्चात् पाने योग्य कुछ भी शेष नही रहता है ! इस तरह आत्मा के ऐश्वयं से युक्त साधु स्पृहारहित बनता है । विवेचन : हे आत्मन् ! तुम्हें क्या चाहिये ? किस चीज की चाह है तेरे मन में ? किस अरमान और उमंगों के प्रधान हो कर तूं रात-दिन भटकता रहता है, दौड़-धूप करता रहता है ? कंसी झंखनाएं तेरे हृदय को विदीर्ण कर रही हैं ? क्या तुम्हें सोने-चांदी और मोतीमुक्ताओं की चाह है ? क्या तुम्हें गगनचुम्बी महल और आलिशान भवनों की अभिलाषा है ? क्या तुम्हें रुप-रुप को अम्बार देवांगनाओं सी वृन्द में खो जाना है ? क्या तुम्हें यश-कीर्ति की उत्तुंग चोटियां सर करनी है ? अरे भाई, जरा सोच समझ ओर ये सब अरमान छोड़ दे ! इस में खुश होने जैसी कोई बात नहीं है । न तो शांति है, ना ही स्वस्थता ! , मान लो की तुम्हें यह सब मिल गया, तुम्हारी सारी अभिलाषाएँ पूरी हो गयी ! लेकिन आकांक्षापूर्ति हो जाने के पश्चात् भी क्या तुम सुखो हो जानोगे ? तुम्हें परम शांति और दिव्यानंद मिल जाएगा ? साथ ही, एक बार मिल जाने पर भी वह सब सदैव तुम्हारे पास ही रहनेवाला है ? तुम उसे दोर्घावधि तक भोग सकोगे ? यह तुम्हारा मिथ्या भ्रम है, जिसके धोखे में कभी न आना ! अरे पागल, यह सब तो क्षणिक, चंचल, और अस्थिर है । भूतकाल में कई बार इसे पाया है..... फिर भी हमेशा दरिद्र हो रहा है, भिखारी का भिखारी | अब तो कुछ ऐसा पाने का भगीरथ पुरुषार्थ कर कि एक बार मिल जाने के बाद कभी जाएं नहीं ! जो अविनाशी है, अक्षय है, अचल है उसे प्राप्त कर ! यहो स्वभाव है, आत्मा का स्वभाव ! मन ही मन तुम दृढ संकल्प करलो कि 'मुझे आत्म-स्वभाव की प्राप्ति करना है और करके ही रहूँगा ! इसके अलावा मुझे और कुछ नहीं चाहिए ! विश्व - साम्राज्य का ऐश्वर्य नहीं चाहिए, ना ही आकाश से बात करतो आलाशान अट्टालिकाओं को गरज है ! अगर Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:स्पृहता १४६ किसी की आवश्यकता है तो सिर्फ अात्मस्वभाव के ऐश्वर्य की और परमानंद की! मुनिराज इस तरह का दृढ निश्चय कर नि:स्पृह बने । नि:स्पृहता की शक्ति से वह विश्वविजेता बनता है ! फलतः संसार का कोई ऐश्वर्य अथवा सौन्दर्य उसे आकर्षित करने में असफल रहेगा, उसे लुभा नहीं सकेगा । दिन-रात एक ही तमन्ना होनी चाहिए : मुझे तो आत्मस्वभाव चाहिए, उसके अलावा कुछ नहीं !" जिसमें प्रात्मस्वभाव के अतिरिक्त दूसरी कोई स्पृहा नहीं हैं, उसका ऐश्वर्य अद्वितीय और अनूठा होता है ! श्रेष्ठिवर्य धनावह ने महाश्रमण वज्रस्वामी के चरणो में स्वर्णमुद्राओं का कोष रख दिआ ! उसकी पुत्री रुप-रंभा रूक्मिणी ने अपना रूप-यौवन समपित कर दिया ! लेकिन वज्रस्वामी जरा भी विचलित न हुए ! वे तो आत्म-स्वभाव के आकांक्षी थे ! उन्हें सूवर्णमुद्रा और मोती-मुक्ताओं की स्पृहा न थी, ना ही रुप-यौवन की कामना ! धनावह और रुक्मिणी उनके अन्तःकरण को अपनी ओर आकर्षित नही कर सके ! लेकिन महाश्रमण ने अात्मस्वभाव के ऐश्वर्य का ऐसा तो रुक्मिणी को रंग दिखाया कि रुक्मिणी मायावी-ऐश्वर्य से ही अलिप्त बन गयी, विरक्त हो गई ! प्रात्म-स्वभाव के अनूठे ऐश्वर्य की प्राप्ति हेतु पुरूपार्थशील हो गई ! आत्मस्वभाव का ऐश्वर्य जिस मुनिराज को आकर्षित करने में असमर्थ है, वे (मुनिराज) ही पुद्गल जन्य अधम ऐश्वर्य की ओर आकर्षित हो जाते हैं और अपने श्रमणत्व, साधुता को कलंकित कर बैठते हैं । दीनता की दर्दनाक चीख-पुकार, आत्मपतन के विध्वंसकारी प्राघात और वैषयिक-भोगोपभोग के प्रहारों से लुढ़क जाते हैं, क्षतविक्षत हो जाते हैं ! नटी के पीछे पागल अषाढाभूति की विवशता, अरणिक मुनि का नवयौवना के कारण उद्दीप्त वासना-नृत्य, सिंहगुफावासी मुनि की कोशा गणिका के मोह में संयम-विस्मृति....यह सब क्या ध्वनित करता है ? सिर्फ आत्मस्वभाव के ऐश्वर्य की सरासर विस्मृति और भौतिक पार्थिव ऐश्वर्य पाने की उत्कट महत्वाकांक्षा ! वैषयिक-ऐश्वर्य की अगणित वासनाएँ और विलासी-वृत्ति ने उन्हें अशतक कर दिया । अशक्त होकर वे दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विश्व Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ज्ञानसार के गुलाम बन गये ! कालान्तर से उन्हें दुबारा आत्मस्वभाव के ऐश्वर्य का भान हुआ और नि:स्पहता की दीप-ज्योति पूनः उनमें प्रज्वलित हो उठी ! दिव्यशक्ति का अपने आप संचार हुआ ! फलस्वरुप उन्होंने आनन-फानन में स्पृहा की बेड़ियां तोड़ दो और पामर से महान् बन गये, निर्बल से सबल बन गये ! परस्पृहा महादु खं, निःस्पृहत्वं महासुखम् । एतदुक्त समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥ पुद्गल की स्पृहा करना संसार का महादुःख है, जब कि निःस्पृहता में सुख की अक्षय-निधि छिपी हुई है ! श्रमण जितना नि:स्पृह होगा उतना ही सुखी होगा । संयोजितकरैः के के प्रार्थ्यन्ते न स्पृहावहै । अमात्रज्ञानपात्रस्य निःस्पृहस्य तृणं जगत् ॥ ॥२॥१०॥ अर्थ :- जो करबद्ध हैं, नतमस्तक हैं, ऐसे मनुष्य भला, किस किस की प्रार्थना __ नहीं करते ? जबकि अपरिमित ज्ञान के पात्र ऐसे नि:स्पृह मुनिवर के लिए तो समस्त विश्व तृण-तुल्य है ! विवेचन :- स्पृहा के साथ दीनता की सगाई है ! जहां किसी पुदगलजन्य स्पृहा मन में जगी नहीं कि दीनता ने उसके पोछे-पीछे दबे पाँव प्रवेश किया नहीं ! स्पृहा और दोनता, अनंत शक्तिशाली आत्मा की तेजस्विता हर लेती है और उसे भवोभव की सूनी-निर्जन सड़कों पर भटकते भोगोपभोग का भिखारी बना देती है ! __ महापराक्रमी रावण के मन में परस्त्री की स्पृहा अंकुरित हो गई थी ! सीता के पास जाकर क्या कम दीनता की थी उसने ? करबद्ध हो, दीन-वारणी में गिड़गिड़ाते हुए सीता से भोग की भीख मांगी थी । दीर्घकाल तक सीता की स्पृहा में वह छटपटाता रहा, तड़फता रहा ! और अंत में अपने परिवार, पुत्र, निष्ठावान् साथी और राजसिंहासन से हाथ धो बैठा ! अपने हाथों ही अपना सत्यानाश कर दिया ! स्पृहा का यह मूल स्वभाव है : जोव के पास दीनता का प्रदर्शन कराना ! गिड़गिड़ाने के लिए जीव को विवश करना और प्रार्थनायाचना करवाना ! अतः मुनि को चाहिये कि वह भूलकर भी कभी पर पदार्थ की स्पृहा के पीछे दीवाना न हो जाए । और यह तथ्य Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:स्पृहता किसी से छिपा नहीं है कि जो-जो लोग उसके शिकार बने, उन्हें सर्वस्व का भोग देकर दीन-हीन याचक बनना पड़ा है ! महीन वस्त्र, उत्तम पात्र, उपधि, मान-सम्मान, खान-पान, स्तुति-स्वागत किसी की भी स्पृहा नहीं करनी चाहिए ! स्पृहा की तीव्रता होते ही भलभले अपना स्थान-भूमिका और आचार-विचार को तिलांजलि दे देते हैं ! "मैं कौन ? मैं भला ऐसी याचना करू....१....करबद्ध और नतमस्तक हो दीन-स्वर में भीख मांगू ? यह सर्वथा उचित नहीं है !' निःस्पृह मुनिराज ही अनंतज्ञान के, केवलज्ञान के पात्र हैं ? जो अनंतज्ञान का अधिकारी है वह भूले भटके भी कभी पुद्गलों की स्पृहा नहीं करेगा ! सोना और चांदी उसके लिए मिट्टी समान है ! गगनचुम्बी इमारतें ईंट-पत्थर से अधिक कीमत नहीं रखती और रुप-सौन्दर्य का समूह केवल अस्थिपंजर है ! सारे संसार को तृणवत् समझ, नि:स्पृह बना रहने वाला योगी/मुनि परमब्रह्म का आनंद अनुभव करता है ! असीम अात्मस्वातंत्र्य की मस्ती में खोया रहता है ! ऐसी उत्कट नि:स्पृह-वृत्ति पाने के लिए जीवन में निम्नांकित उपायों का अवलम्बन करना चाहिए: ___*"मेरे पास सब कुछ है ! मेरी अात्मा सुख और शांति से परिपूर्ण है ! मुझे किसी बात की कमी नहीं ! मेरी आत्मा में जो सर्वोत्तम सूख भरा हुआ है, दुनिया में ऐसा सुख कहीं नहीं ! तब भला, मैं इस को स्पहा क्यों करूँ ?" ऐसी भावना से निज प्रात्मा को भावित रखनी चाहिए ! ० " मैं जिस पदार्थ की स्पृहा करता हूँ, जिसके पीछे दीवाना बन, रात-दिन भटकता रहता हूँ, जिसकी वजह से परमात्म-ध्यान अथवा शास्त्र- स्वाध्याय में मन नहीं लगता, वह मिलना सर्वथा पुण्याधीन है ! पुण्योदय न होगा तो नहीं मिलेगा ! जब की उसकी निरंतर स्पृहा करने से मन मलिन बनता है ! पाप का बन्धन और अधिक कसता जाता है ! अतः ऐसी परपदार्थ की स्पहा से क्यों न मुख मोड़ लं?" ऐसे विचारों का चिंतन - मनन करते हुए, जीवन की दिशा को ही बदल देना चाहिए ! • “यदि मैं परपदार्थो की स्पृहा करूँगा तो निःसंदेह जिनके पास ये हैं, उनकी मुझे गुलामी करनी पड़ेगी, दीर्घकाल तक उसका गुलाम Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ज्ञानसार बन कर रहना होगा ! उसके आगे दीन बन याचना करनी पड़ेगी । यदि याचना के बावजद भी नहीं मिले वे पदार्थ तो रोष अथवा रूदन का प्राधार लेना पड़ेगा ! प्राप्त हो गये तो राग और रति होगी ! परिणामस्वरुप दुःख ही दु:ख मिलेगा ! साथ ही यह सब करते हुए आत्मा- परमात्मा की विस्मति होते देर नहीं लगेगी। संयम - आराधना में शिथिलता आ जाएगी और फिर पुन:-पुनः भव - चक्कर में फंसना होगा !” इस तरह जीवन में होने वाले अंगणित नुकसान का खयालकर स्पृहा के भावों का निर्मूलन करना होगा ! जैसे भी संभव हो, जीवन में परपदार्थों की आवश्यकता को कम करना चाहिए ! पर पदार्थों की विपूलता के बल पर अपनी महत्ता अथवा मूल्यांकन नहीं करना चाहिए, बल्कि उनकी अल्पता में ही अपना महत्त्व समझना चाहिए ! ० सदा - सर्वदा नि:स्पृह आत्माओं से परिचय बढाकर उसे अधिकाधिक दृढ करना चाहिए ! नि:स्पृह महापुरुषों के जीवन-चरित्रों का पुन:पुनः परिशीलन करना चाहिए ! ० आवश्यक पदार्थों (गौचरी, पानी, पात्र, उपधि, वस्त्रादि) की भी कभी इतनी स्पृहा न करें कि जिसके कारण किसी के आगे दीन बनना पड़े, हाथ जोड़ना पड़े और गिड़गिड़ाना पड़े ! समय पर कोई पदार्थ न भी मिले तो उसके बिना काम चलाने की वृत्ति होनी चाहिए। तपोबल और सहनशक्ति प्राप्त करनी चाहिये ! छिन्दन्ति ज्ञानदारेण स्पृहाविषलतां धुधाः ! मुखशोषं च मूर्छा च दैन्यं यच्छति यत्फलम् ।।.३॥६१॥ अर्थ :- अध्यात्म-ज्ञानी पंडित पुरुष स्पृहा रूपी विष-लता को .न-रुपी हसिये से काटते हैं, जो स्पृहा विपलता के फलरुप, मुख का सुखना, मूर्छा पाना, और दीनता प्रदान करते हैं । विवेचन : यहाँ स्पृहा को विष-वल्लरी की उपमा दी गयी है ! स्पृहा यानी विष- वल्लरी ! यह विषवल्लरी अनादिकाल से- आत्मभमि पर निर्बाध रुप से फलती-फूलती और विकसित होती रही है ! आत्मभूमि के हर प्रदेश में वह विभिन्न रूप-रग से छायी हुई है। उस पर भिन्न-भिन्न स्वाद और रंग-बिरंगे फल-फूल लगते हैं ! लेकिन Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:स्पृहता उन फलों की खासियत यह है कि उनका प्रभाव हर कहीं, किसी भी मौसम में एकसा होता है ! हमें यहाँ पौद्गलिक- स्पृहा अभिप्रेत है ! जब अनुकूल पदार्थों की स्पृहा जग पड़े तब समझ लेना चाहिए कि विष-वल्लरी पूर-बहार में प्रस्फुटित हो उठी है ! इसके तीव्र होते ही मनुष्य मूर्छित हो जाता है, उसका चेहरा निस्तेज पड़ता है, मुख सूख जाता है और एक प्रकार का पीलापन तन-बदन पर छा जाता है ! उसकी वाणी में दीनता होती है और जीवन का प्रांतरिक प्रसन्न संवेदन लप्त होता दृष्टिगोचर होता है ! स्पृहा!! अरे भाई, स्पृहा की भी कोई मर्यादा है, सीमा है ? नहीं, उसकी कोई मर्यादा, सीमा नहीं है! स्पहा का विष प्रात्मा के प्रदेश-प्रदेश में व्याप्त हो गया है ! ऊपर से नीचे तक आत्मा जहरीली बन गयी है ! उसने विकराल सर्प का रुप धारण कर लिया है ! मानवदेहधारी जहरीले सर्पो का विष निखिल भूमंडल को, विश्व को मूर्छित, निःसत्व और पामर बना रहा है । धन-धान्य की स्पहा, गध -सुगंध की स्पृहा, रंग-रूप को स्पहा, कमनीय षोडसी रमणियों की स्पहा, मान-सन्मान और आदर-प्रतिष्ठा की स्पहा ! न जाने किस-किस की स्पृहा के विष के फहारे निरंतर उड़ते रहते हैं ! तब भला, स्वस्थता, सात्विकता और शौर्य कहाँ से प्रकट होगा ? फिर भी मानव पागलपन दोहराता हुया दिन-रात स्पहा करता ही रहता है ! दुःख, कष्ट, कलह, खेद, अशांति आदि असंख्य बुराइयों के बावजूद भी वह स्पृहा करता नहीं थकता ! मान लो, उसने समझ लिया है कि 'स्पहा किये बिना जी ही नहीं सकते; जिंदगी बसर करने के लिए स्पृहा का सहारा लिये बिना कोई चारा नहीं !' संभव है कि अमुक अंश में यह बात सच हो ! लेकिन क्या स्पृहा की कोई मर्यादा निर्धारित नहीं हो सकती ? तीव्र स्पृहा के बंधन से क्या जीव मुक्त नहीं हो सकता ? अवश्य मुक्त हो सकता है, यदि ज्ञान का मार्ग अपनाये तो ! उसके बल पर वह विषय-वासना की लालसा को नियत्रित कर सकता है ! ज्ञान-मार्ग का सहयोग लेना मतलब जड़ और चेतन के भेद का यथार्थ ज्ञान Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ज्ञानसार होना ! स्पृहा जन्य अशांति की अकुलाहट होना और स्पृहा की पूर्ति से प्राप्त सुख के प्रति मनमें पूर्णरूपेण उदासीनता होना ! "मैं प्रात्मा हूँ.... चैतन्यस्वरूप हूँ.... सुख से परिपूर्ण हूँ ! जड़ पौद्गलिक पदार्थों के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है ! फिर भला, मुझे उसकी स्पृहा क्यों करनी चाहिये ?" ___'जड़-पदार्थो की स्पहा करने से चित्त अशांत होता है ! स्वभाव में से परभाव में गमन होता है, और स्पृहा करने के उपरांत भी इच्छित पदार्थो को प्राप्ति नहीं होती, तब हिंसा, असत्य, चोरी आदि पापों के माध्यम से उसे पूरा करने का अध्यवसाय पैदा होता है ! अशांति... असुख में तीव्रता पा जाती है ! अतः ऐसे जड़ पदार्थों की स्पृहा से दूर ही भले ! __यदि स्पृहा पूर्ण हो जाए तो प्राप्त पदार्थो के प्रति आसक्ति बढ़ जाती है; उसकी सुरक्षा की चिंता पैदा होती है.... प्रात्मा के ज्ञानादि गुणों को संरक्षित रखने की विस्मृति हो जाती है ! तब नौबत यहाँ तक आ जाती है कि व्यवहार के लिए आवश्यक ऐसे न्याय-नीति, सदाचार, उदारतादि गुण भी लुप्त हो जाते हैं ! साथ ही, एक स्पृहा पूरी होते ही दूसरी अनेक स्पृहाओं का पुनर्जन्म होता है ! और उन्हें पूरी करने के लिए प्रयत्न करते समय प्राप्त सुख-शांति का अनुभव नहीं पा सकते ! इस तरह नित्य नई स्पृहा का जन्म होता रहे और उसे पूर्ण करने के भगीरथ प्रयास निरंतर चलते रहते हैं ! फलतः जीवन में शांति, प्रसन्नता का सवाल ही नहीं उठता । ऐसे समय यदि हमारी ज्ञानदृष्टि खुल जाय तो स्पृहा की विष-वल्लरी सूखते देर नहीं लगेगी ! इसीलिए कहा गया है कि ज्ञान रूपी हँसिये से स्पृहा रूपी विष-वल्लरिओं को काट दो । निष्कासनीया विदुषा स्पृहा चित्तगृहाद् बहिः । अनात्मरतिचाण्डाली संगमङगीकरोति या ॥४॥२॥ अर्थ :- विद्वान के लिए अपने मन-घर से तृष्णा को बाहर निकाल देना ही योग्य है, जो तृष्णा आत्मा से भित्र पुदगल में रति-रूप चांडालनी का संग स्वीकार करती है । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःस्पृहता १५५ विवेचन : स्पृहा और अनात्म-रति का गाढ़ सम्बन्ध है ! दोनों एक-दूसरे से घुल-मिलकर रहती हैं ! स्पृहा अनात्म-रति के बिना रह नहीं सकती और अनात्म-रति स्पृहा के सिवाय नहीं रहतो ! यहाँ पूज्यउपाध्यायजी महाराज तृष्णा को घर से बाहर करने की सलाह देते हुए कहते हैं कि स्पृहा अनात्म-रति की संगत करती है । अर्थात् उसे घर-बाहर कर देना चाहिए ! क्योंकि वह अनात्म-रति का संग करती रहती है ! स्पृहा कहती है : 'मेरा ऐसा कौन सा अपराध है कि मुझे घर बाहर करने के लिए तत्पर हैं ? उपाध्यायजी : तुम अनात्म-रति की संगत जो करती हो !' स्पृहा : “ इससे भला, आपका क्या नुकसान होता है ?" उपाध्यायजी : 'बहुत बड़ा नुकसान, जिसकी पूर्ति करना प्रायः असंभव है! तुम दोनों साथ में मिलकर हमारी गृहलक्ष्मी जैसी 'प्रात्मरति' को ही हैरान-परेशान और निरंतर व्यथित करती हो ! जब कि वह हमारे घर की सुशील रानी है ! और हमारे घर की एक मात्र आधारस्तंभ है ! उसका अस्तित्व ही मटियामेट करने के लिए तुम दोनों तूली हुई हो ! यदि तुम महाभयंकर अनात्म-रति का साथ छोड़कर सुंदर, सुभग, कमनीय ऐसी आत्म-रति का हाथ पकड लो तो हम प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें हमारे मन-मंदिर में रहने की अनुमति दे सकते हैं ! बशर्ते कि तुम्हें उस चांडालिनी (अनात्म-रति) का साथ छोड़ देना होगा ! तब सवाल यह उठता है कि 'अनात्म-रति' क्या है, जिसे छोड़ने का उपाध्यायजो महाराज ने बार-बार आग्रह किया है ! अनात्म-रति मतलब जड़रति.... पुदगलानंद ! जड़ पदार्थों के प्रति एक बार आकर्षण हो जाने पर उससे जिस सुख की कल्पना की जाती है, और उस कल्पना के जरिये जो विविध प्रकार की मृदुता-मधुरता का प्राभास होता है, उसे ही अनात्म-रति कहा गया है ! यदि अनात्म-रति को समय रहते सदविचार, तत्वचिंतन और अध्यवसाय से रोका न जाए, उसका मार्ग अवरुद्ध न किया जाय तो वह जिन पदार्थों को लेकर जागृत होती है, उन्हीं पदार्थों के पीछे स्पृहा उतावली बन दौड़ने लगती है ! और उसकी गति इतनी तो तीव्र वेगवती होती है कि कालान्तर Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार से वही स्पृहा का रूप धारण कर लेती है ! ऐसी स्थिति में स्पृहा आत्म-प्रदेश में विस्फोट कर देती है ! लेकिन उपाध्यायजी महाराज सर्वथा उसका निषेध नहीं करते, बल्कि उसका गौरवपूर्ण उल्लेख भी करते हैं ! वे स्पृहा की एकांत हेयता का इन्कार कर उसकी उपादेयता का भी वर्णन करते नहीं अघाते ! वह कहते हैं : अनात्म-रति से स्फुरित स्पहा हेय होती है, जब कि आत्म-रति से स्फुरित स्पृहा उपादेय होती है ! ___ व्यक्ति के जीवन में अनेक प्रकार की स्पृहायों के द्वन्द्व निरंतर चलते रहते हैं ! जब उसके मन में आत्मोत्थान की अभिलाषा जगती है तब उसे सद्गुण की स्पृहा होती है, सम्यग्ज्ञान की स्पृहा होती है, संयम के लिए आवश्यक उपकरणों की स्पृहा होती है और होती है संयम में सहायक साधु/संतों की कामना....! .... शासनसंरक्षण की तीव्र इच्छा, समग्र जोवों की कल्याण-भावना ! साथ ही मोक्षप्राप्ति की उत्कट चाहना होतो है ! प्रस्तुत सभी स्पृहाएँ उपादेय मानी जातो हैं ! क्यों कि इन सब आकांक्षाओं के मूल में 'प्रात्मरति' जो होती है ! ऐसी स्पृहाएँ, कामनाएँ, अभिलाषाएँ कि जिनके मूल में अनात्मरति है, वह दिखावे में भले हो तप, त्याग, और संयममय हो, ज्ञान और ध्यान की हो, भक्ति और सेवाभाव को हो, लेकिन सभी हेय हैं, सर्वथा त्याज्य हैं ! " मैं तपाराधना करूँगा तो मान-सन्मान मिलेगा ! मैं ज्ञानी-ध्यानी बनंगा तो सर्वत्र मेरा पूजा-सत्कार होगा ! मैं भक्ति-सेवाव्रती हँगा तो लोक में वाह-वाह होगी !” इन स्पृहाओं के मूल में 'अनात्मरति' कार्यशील हैं ! अतः ऐसी स्पहाओं को पास भी आने नहीं देना चाहिए ! बल्कि उन्हें हमेशा के लिए निकाल बाहर करना चाहिए ! फलस्वरूप, किसी भी प्रकार की स्पृहा पैदा होते ही साधकवर्ग को विचार करना चाहिए कि उक्त स्पहाओं से कहीं अनात्मरति का पोषण तो नहीं हो रहा है ? अन्तर्मुख होकर इसके बारे में सभी दृष्टि से विचार करना परमावश्यक है ! जव तब इसके सम्बन्ध में अन्तर की गहराई से बिचार नहीं होगा, तब तक अनात्म-रति से युक्त स्पृहाएँ, हमारे आत्म-गह को भग्नावशेष में परिवर्तित करते विलम्ब नहीं करेंगो ! भूलो भमत, तकाल में भी इसी के कारण हमारा सत्यानाश हुआ है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःस्पृहता १५७ ऐसे अवसर पर तुम्हारी विद्वत्ता, आराधकता और साधकता का दारो-मदार इस बात पर अवलम्बित है कि तुम श्रनात्म-रति समेत स्पृहा को अपने आत्म- गृह से निकाल बाहर करते हो अथवा नहीं ! यदि उन्हें निकाल बाहर करते हो तब तो तुम सही अर्थ में साधक, श्राराधक और विद्वान् हो, वर्ना कतई नहीं ! स्पृहावन्तो विलोक्यते, लघवस्तृणतूलवत् ! महाश्चर्य तथाप्येते, मज्जन्ति भववारिधौ ॥ ५ ॥ ६३ ॥ अर्थ :- स्पृहावाले तिनके और आक के कपास के रोएँ की तरह हलके दिखते हैं, फिर भी वे संसार-समुद्र में डूब जाते हैं ! यह श्राश्चर्य की बात है ! विवेचन :- याचना और भीख, मनुष्य का नैतिक पतन करती हैं ! किसी एक विषय की स्पृहा जगते ही उसकी प्राप्ति के लिए याचना करना, भीख माँगना और चापलूसी करना साधनासंपन्न मुनिराज के लिए किसी भी रूप में उचित नहीं है ! साधु को भूलकर भी कभी स्पृहावन्त नहीं बनना चाहिए ! , महा सामर्थ्यशाली स्थूलिभद्रजी की स्पर्धा करने के लिए कोशा गणिका के आवास में जाने वाले सिंहगुफावासो मुनिवर की कलंककथा क्या तुम्हें विदित नहीं है ? 'मगध- नृत्यांगना कोशा की चित्रशाला मैं भी चातुर्मास करूँगा, ऐसे मिथ्या आत्मविश्वास और संकल्प के साथ वे उसके द्वार पर गये, और कोशा की कमनीय काया के प्रथम दर्शन से और उसके मधुर स्वर से प्रस्फुरित शब्दों का श्रवण करते हो सिंहगुफावासी मुनिवर का सिंहत्व क्षणार्ध में हिरन हो गया ! वे गलितगात्र हो गये ! अनात्म-रति पुरजोर से जग पड़ी ! स्पृहा ने उसका सक्रिय साथ दिया ! फलतः सिंहगुफावासी मुनिवर नृत्यांगना कोशा के सुकोमल काया की स्पृहा के विष से व्याप्त हो गए ! प्रगाढ अरण्य, घने जंगल और असंख्य वनचर पशु-पक्षियों पर अधिपत्य रखने वाले वनराजों के बीच चार-चार माह तक एकाग्रचित्त ध्यानस्थ रहनेवाले महान सात्विक और मेरू सदृश निष्प्रकम्प बनकर, चातुर्मास करनेवाले महापुरुषार्थी, महातपस्वी मुनिवर कोशा के सामने तिनके से भी हलके दुर्बल बन गए ! आक को रूई से भातुच्छ बन गए ! कोशा गरिणका की Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ afat भंगिमा, नेत्र कटाक्ष की झपट से वे नेपाल जा पहुँचे ! कोशा के कटाक्ष का वायु उन्हें नेपाल उडा ले गया ! क्योंकि वैषेयिक स्पृहा ने उनमें रही संयमढता, संकल्पशक्ति की दृढता को क्षणार्ध में छिन्न-भिन्न कर मुनिवर को एकाध तिनका और आक की रूई की भाँति हलका जो कर दिया था ! भाषादाभूति के पतन में भी स्पृहा की करूण करामत काम कर गयी ! 'मोदक' की स्पृहा ! जिह्न ेन्द्रिय के विषय की स्पृहा ... यही स्पृहा उन्हें बार-बार अभिनेता के घर खिंच गयी... अभिनेत्रियों के गाढ़ परिचय में आने की हिकमत लड़ा गयी..। स्पृहा ने अपने कार्य-क्षेत्र का विस्तार किया.... मोदक की स्पृहा का विस्तार हुआ.... मदनाक्षी मानिनियों की स्पृहा रंग जमा गयी.... स्पृहा की तूफानी हवा जोरशोर से आत्म- प्रदेश पर सर्वत्र छा गयी । चारों दिशाओं में तहलका मच गया । स्पृहा से हलका बना आषाढाभूति का पामर जीव उस चक्रवात/ आंधी में उडा और सौन्दर्यमयी नारियों / अभिनेत्रियों के प्रांगण में जा गिरा ! एकाध तिनके की तरह तुच्छ बन वह स्पृहा की प्राधी का शिकार बन गया ! ज्ञानसार जिस तरह वेगवान तूफान और तेज श्रांधी मेरूपर्वत को प्रकम्पित नहीं कर सकती, हिला नही सकती, हिमाद्रि की उत्तुंग चोटियो को अपनी गरिमा और अस्मिता से चलित नहीं कर सकती, ठीक उसी तरह योगीश्वर / महापुरुषों की आत्मा मेरूपर्वत की तरह अटल-अचल होती है ! स्पृहा का तूफान उसे विचालिन नहीं कर सकता, ना ही अस्थिर कर सकता है ! अरे, स्पृहा उसके अन्तःस्थल में प्रवेश करने में ही असमर्थ है ! लेकिन यदि स्पृहा प्रवेश करने में समर्थ बन जाए तो संभव है कि उसमें रहो लोह - शक्ति सढश आत्मपरिणति नष्ट होते विलम्ब नही लगता ! जहाँ वह शक्ति नष्ट हो जाती है, वहाँ वायु के वेगवान प्रहार उसे तोड़-फोड़कर भूमिशायी बना देते हैं । प्रायः देखा गया है कि स्पृहावन्त व्यक्ति हलका बन जाता है और वह संसार-समुद्र में डूब जाता है । जब कि वास्तविकता यह है कि हलका ( वजन में कम ) व्यक्ति समुद्र तैर कर पार कर लेता है ! साथ हो हलको वस्तु को हवा का झोंका उड़ा ले जाता है, जब गृहसवन्त को Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःस्पृहता वह अपने स्थान से हिला तक नहीं कर सकता ! क्यों कि स्पृहावन्त व्यक्ति बजन में हलका नहीं बनता, बल्कि स्व-व्यक्तित्व से हलका बनता है ! तब भला स्पृहावन्त को वायु क्यों उड़ा ले जाएगा ? वायु भी सोचता है !" ___"यदि इस भिखारी को ले जाऊँगा तो बार-बार यह भीख मांगेगा और विविध पदार्थों की याचना करेगा !' अतः वह भी उसे ले जाने में उत्सुक नहीं रहता ! __ यह कभी न भुलो कि स्पृहा करने से तुम दुनिया की नजर में हलके बनते हो । तुम्हारी गणना तुच्छ और प्रोछे लोगों में होती है ! साथ ही तुम्हें भव-सागर की उत्ताल तरंगों का भोग बनते पल की देर नहीं लगेगी ! गौरवं पौरवन्धत्वात प्रकृष्टत्वं प्रतिष्ठया ! ख्याति जातिगुणात् स्वस्य प्रादुष्कुर्यान्न निस्पृहः ॥६॥१४॥ अर्थ :- स्पृहारहित मुनि, नगरजनों द्वारा वंदन करने योग्य होने के कारण अपने बड़प्पा को, प्रतिष्ठा से प्राप्त सवोत्तमता को, अपने उत्तम जातिगुण से प्राप्त प्रसिद्धि को प्रकट नहीं करता है । विवेचन : जीवन में व्याप्त भनात्मरति/पुद्गलरति को जिस श्रमण ने तिलांजलि दे दी है, वह भला पौद्गलिक भावों पर आधारित गौरव, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा की क्या लालसा करेगा ? वह खुद होकर क्या उसका भोंड़ा प्रदर्शन करेगा ? नगरजनों द्वारा किये गये भावभीने अभिनदन,....राजा-महाराजादि सत्ताधीश और सज्जनों द्वारा दी गयी व्यापक मान्यता....उच्च कुल...महान् जाति और विशाल परिवार द्वारा प्रकट प्रसिद्धि....आदि सब महामना मुनि की दृष्टि में कोई मोल/महत्व नहीं रखते ! ब्रह्मोन्मत्त महात्मा की दृष्टि-नजर इन सबके प्रति निर्मम और नि:स्पृह होती है ।। नागरिकों के द्वारा की गयी प्रशंसा-स्तवना और अर्चन-पूजन के माध्यम से मुनि अपना गौरव नही मानता । उसके मन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । राजा-महाराजा और सर्वसत्ताधीश व्यक्तियों द्वारा दुनिया में गायो जानेवाली यशकथा के बल पर नि:स्पृह Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ज्ञानसार योगो अपनी उच्चता, सर्वोपरिता की कल्पना नहीं करता । देश-परदेश में आबाल-वृद्ध के मुखपर रहे अपने नाम से उसके हृदय को खुशी नहीं होतो । उसके मन यह सब 'परभाव-पुद्गलभाव' होता है ! जब पुदगल पर से उसका जी पहले ही उचट गया है, तब भला वह आनंद कैसे मानेगा ? अरे, इतना ही नहीं बल्कि निखिल विश्व में फैली उसकी कीर्ति, यश, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा का वह जाने-अनजाने स्वसुख, स्वसंरक्षण के लिए भूलकर भी कभी उपयोग नहीं करेगा ! क्यों कि वह शरीर और शारीरिक सुख से सर्वथा निःस्पृह होता है ! जब कंचनपुर-नरेश क्रोधित हो, नंगी तलवार लिये, उत्तेजित बन झाँझरिया मुनि की हत्या करने झपट पड़ा, जानते हो, तब मुनिवर ने क्या किया ? उन्होंने क्या यह बताया कि 'राजन् ! तुम किसकी हत्या करने आये हो ? क्या. तुम मुझे जानते हो ? प्रतिष्ठानपुर के मदनब्रह्मकुमार को तुम नहीं जानते ? क्या तुम्हें नहीं मालूम कि कुमार ने राजपद का परित्याग कर श्रमण-जोवन स्वीकार कर लिया है ? शायद आप नहीं जानते कि मैं आपका साला हूँ ?" यदि वह अपना राजकुल, अपनी त्याग-तपस्या, राज-परिवार के साथ रहे संबंध आदि का प्रदर्शन करते, साफ-साफ शब्दों में बता देते तब संभव था कि राजा शस्त्र त्याग कर और क्रोध को थक कर महामुनि के चरणों में झुक जाता ! नतमस्तक होते पल का भी विलम्ब न लगता ! लेकिन वे तो पूर्णतया निःस्पृह, त्यागी और तर स्वी थे ! अतः उन्होंने अपना परिचय परपुद्गलभाव के वशीभूत हो कर देना पसंद न किया ! बल्कि उनके लिए खोदे गये गड्डे में शांत भाव से ध्यानस्थ हो, राजा के शस्त्र-प्रहार को झेलना अधिक पसंद किया और सिद्धि-पद प्राप्त कर लिया ! अपने ही मुख से अपने बडप्पन की डिंग हांकना, खुद हो कर अपना गौरव-गान गाना, अपनी जबान से खद की सामाजिक प्रतिष्ठा के किस्से गढ़कर सुनाना और अपने कूल, वंश, पांडित्य तथा वरिष्ठता की स्तवना करना....यह नि:स्पृह मुनि के लिए सर्वथा अनुचित एवं अयोग्य है । यदि मुनि स्वप्रशंसा करता है तो समझ लेना चाहिए Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःस्पृहता १६१ कि मुनि - जीवन में रही निःस्पृहता नाम की वस्तु सदा-सर्वदा के लिए नष्ट हो गयी है ! उसमें उसका नामोनिशान तक नहीं बचा है ! प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि की स्पृहा साधक को आत्मभाव की प्राप्ति नहीं होने देती ! तब साधक नाममात्र के लिए ही रह जाता है, बल्कि असल में वह ग्रात्मसाधक नहीं रहता ! उसकी साधकता लुप्त हो जाती है ! और पीछे रहते हैं सिर्फ उसके भग्नावशेष ! यह शाश्वत् सत्य है कि प्रतिष्ठा - प्रसिद्धि की स्पृहा कभी तृप्त नहीं होती, बल्कि समय के साथ वह बढती ही जाती है ! और जिंदगी की आखिरी सांस तक उसे पूरा करने की कोशिश अबाध रूप से जारी रहती हैं ! परिणामस्वरूप अनात्म- रति दृढ बनती है और आत्मा, अनात्मरति की वासना को मन में संजोये परलोक सिधार जाती है ! अतः इसके लिए अच्छा उपाय यही है कि निःस्पृह बनने के लिए, मुनि अपने मुख से स्व-प्रतिष्ठा और आत्मगौरव की प्रस्तावना ही नहीं करे । भूशय्या भैक्षमशनं जीर्णं वासो गृहं वनम् तथाऽपि नि:स्पृहस्याsहो चक्रिरणोऽप्यधिकं सुखम् ||७||५|| अर्थ :- ग्राश्चर्य इस बात का है कि स्पृहारहित मुनि के लिए पृथ्वी रुपी शय्या है, भिक्षा से मिला भोजन है, जीर्ण-शीर्ण वस्त्र हैं और अरण्यस्वरूप घर है, फिर भी वह चक्रवर्ती से अधिक सुखी है ! विवेचन : नि:स्पृह महात्मा इस संसार में सर्वाधिक सुखी है ! फिर भले ही वह भूमि पर शयन करता हो, भिक्षावृत्ति का अवलम्बन कर भोजन पाता हो, जीर्णशीर्ण जर्जरित वस्त्र धारण करता हो और अरण्य में निवास करता हो ! वह उन लोगों से अधिक भाग्यशाली और महान् सुखी है, जो सुवर्णमंडित पलंग पर बिछे मखमल के गद्दों पर शयन करते हैं, प्रतिदिन स्वादिष्ट षड्रस का भोजन करते हैं, नित्य नये वस्त्र परिधान करते हैं और आधुनिक साधन-सुविधाओं से सज्ज गगनचुम्बी महलों में निवास करते हैं । निःस्पृह योगी प्रायः ऐसा जीवन पसंद करते हैं, जिसमें उन्हें कम से कम पर - पदार्थों की आवश्यकता रहती हो !' पर - पदार्थों की स्पृहा जितनी कम उतना ही सुख अधिक ! सोने के लिए पत्थर की ११ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार शिला, खाने के लिए रुखा-सूखा भोजन, शरीर ढंकने के लिए कपड़े का एकाध टकड़ा और रहने के लिए खुले आकाश के तले बिछावन ! यही सिद्ध योगी की धन-संपदा है। यदि उनमें स्पृहा है तो सिर्फ इतनी ! और दुःख क्लेश का प्रसंग कभी आ भी जाए तो इतनी स्पृहा की वजह से ही ! इससे अधिक कुछ भी नहीं ! बिचारे चक्रवर्ती का तो कहना ही क्या ? मूढ और पागल दुनिया भले ही उसे विश्व का सर्वाधिक सुखी करार दे दे, लेकिन स्पृहा की धधकती ज्वालाओं से दग्ध चक्रवर्ती अंतरात्मा के सुख से प्राय: कोसों दूर होता है ! उसके नसीब में सुख है कहां ? अगर किसी सुखऐश्वर्य की गरज है तो उसे किसी न किसी का गरजमंद होना ही पड़ता है । जैसे भोजन के लिए पाकशास्त्री का, वस्त्राभूषण के लिए नौकर-चाकर का, मनोरंजन के लिए नृत्यांगनाओं का अथवा कलाकारों का और भोगोपभोग के लिए रानी-महारानियों का मुंह ताकना पड़ता है । उनकी खुशीपर निर्भर रहना पड़ता है । नहीं तो पुण्यकर्म के प्राधीन तो सही ! परनिरपेक्ष सुख का अनुभव ही वास्तविक सुखानुभव है । जबकि पर-सापेक्ष सुख का अनुभव भ्रामक सुखानुभव है ! क्यों कि पर-सापेक्ष सुख जब चाहों तब मिलता नहीं और मिल जाए तो टिकता नहीं ! हमारे मन में सुख-त्याग की इच्छा लाख न हो, फिर भी समय आने पर जब चला जाता है तब जीव को अपार दु:ख और वेदनाएँ होती हैं और उसकी पुनःप्राप्ति के लिए प्रयत्न करने में वह कोई कसर नहीं रखता। साथ ही जब पराधीन सुख की स्पृहा जग पड़ती है तब पाप-पुण्य के भेद को भी वह भूल जाते हैं । इस की प्राप्ति हेतु वह घोर पापाचरण करते नहीं अघाते ! सीता का संभोगसुख पाने की तीव्र स्पृहा । महाबली रावण के मन में पैदा होते ही सीता-हरण की दुर्घटना घटित हुई ! और उसी स्पृहा की भयंकर आग में लंका का पतन हुआ ! असंख्य लोगों को प्राणोत्सर्ग करना पड़ा ! रावण-राज्य की महत्ता, सुन्दरता और समृद्धि मटियामेट हो गयी ! और महापराक्रमी रावण को नरक में जाना पडा ! .." मालवपति मुंज को हाथो के पैरों तले कुचलवाया गया, रौंदा गया, किस लिए ? सिर्फ एक नारी मृणालिनी के लिए ! इस संसार Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि:स्पृहता में मनुष्य जो भी अनुचित कर रहा है, दिन-रात पापाचरण में डूबा हुआ है, उसके मूल में पर पदार्थ की स्पृहा ही काम कर रही है ! जब जीवात्मा पराधीन-सुख की स्पृहा से ऊपर उठेगा तब ही उस के दुःख-दर्द और अशान्ति का निर्मूलन होगा ! ठीक वैसे ही प्राप्त पौद्गलिक सुख भी पराधीन ही हैं, स्वाधीन नहीं । अतः उसके प्रति भी मन में इस कदर ममत्व नहीं होना चाहिए कि जिस के काफूर होते ही मनुष्य विलाप कर उठे, आक्रंदन करने लगे । इसीलिए निःस्पृह महात्मा महान सुखी माने गये हैं। क्योंकि पराधीन सुखों की स्पृहा से ऊपर उठ चूके होते हैं। जैसे कीचड़ बीच कमल ! यदि कोई उन्हें भोगोपभोग का अाग्रह करें तब भी वे स्वीकार नहीं करते । ठोक उसी उनके पास रहे अति अल्प पराधीन पदार्थों के प्रति भी वे ममत्व नहीं रखते । भले ही वे (पराधीनपदार्थ) चले जाए, शरीर का भी विसर्जन हो जायं, योगी पुरुषों को उसकी तनिक भी परवाह नहीं होती, अतः वे सुखी हैं ! परस्पृहा महादुःखं नि:स्पृहत्वं महासुखम् । एतदुक्तं समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ।।८॥३६॥ अर्थ : परायी पाशा-लालसा रखना महादुःब है, जब कि निःस्पृहत्व महान सुख है ! संक्षेप में दुःख और सुख का यही लक्षण बताया है ! विवेचन: यदि सुख और दुःख की वास्तविक परिभाषा करने में भूल हो जाए तो मनुष्य सुख को दुःख और दुःख को सुख मान लेता है ! फलत: अशांति, कलह और संताप से दुःखी बन जाता है ! सामान्य तौर पर मनुष्य बाह्य पदार्थों के संयोग-वियोग को सुख-दुःख मान लेता है ! ठीक वैसे ही बाह्य दुनिया के जड़-चेतन पदार्थ को वह सुख-दुःख का दाता मान लेता है ! अत: उस का कभी समाधान नहीं होता । . ___जब कि सुख-दुःख तो मन की कोइ धारणा, कल्पना मात्र है। बाह्य दुनिया के किसी पदार्थ की प्राप्ति न हुई हो, फिर भी उसकी स्पृहा पैदा हो जाएँ तो दु:खारंभ हो जाता है ! जही 'जहां पर-स्पृहा वहांवहां दुःख' जहां पर- स्पृहा का अभाव वहां दुःख का नामोनिशान नहीं !' प्रस्तुत सिद्धान्त में न तो अतिव्याप्ति है, न अव्याप्ति है और ना ही असंभव दोष है ! हर व्यक्ति को अपने जीवन पर दृष्टिपात . Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार करना चाहिए ! यदि उसके जीवन में कहीं कोई दु:ख है तो निरीक्षण करना चाहिए कि वह कहां से उत्पन्न हआ और किस कारण हमा ? तब उसे ज्ञात होते विलम्ब न लगेगा कि किसी जड़-चेतन पदार्थ की स्पृहा वहां विद्यमान है, जिसके कारण उस के जीवन में दुःख का प्रादुर्भाव हुआ है ! भोगी हो या योगी, पर- पदार्थ की स्पृहा पैदा होते ही वह दुःख का शिकार बन जाता है । जब कि पर-पदार्थ की स्पृहा दूर होते ही अनायास सुख का आगमन होता है ! जब तक राजकुल का भोजन प्रिय, स्वादिष्ट न लगा तब तक कंडरिक मुनि परम सुखी थे ! लेकिन राजकुल का भोजन इष्ट लगते ही स्पहा जग पड़ी ! परिणामतः शीघ्र ही वे दु:खी बन गये। उन्होंने साधु-जीवन की मर्यादाओं का उल्लंघन किया, श्रमण-जीवन का त्याग किया और अपनी स्पृहा को पूरी करने के प्रयास में कालकवलित हो गये ! सातवी नरक के महादुःख के भँवर में फंस गये ! जीवन में जाने-अनजाने कहीं पर-पदार्थ की स्पहा जाग न पड़े, अतः पर- पदार्थो से जहां तक हो सके कम परिचय करना चाहिए ! पर-पदार्थो के माध्यम से प्राप्त सुख की कामना का परित्याग करना चाहिए ! क्यों कि यही वह स्थान है, जहाँ जीव को फिसलते देर नहीं लगती! 'पर- पदार्थ सुख का द्योतक है, यह कल्पना मानवजीवन में इतनी तो रूढ हो गयी है कि जीव निरंतर उस की झंखना करता रहता है ! और जैसे जैसे पर पदार्थों की प्राप्ति होती जाती है, वैसे-वैसे लालसा, स्पहा, पाशातीत बढती ही जाती है। उसी अनुपात से दुःख भी बढता जाता है ! फिर भी समय रहते वह समझ नहीं पाता कि उसके दुःख का मूल कारण पर-पदार्थ की स्पृहा ही है ! वह तो यही मान बैठा है कि 'मुझे इच्छित पदार्थ नहीं मिलते इसलिये में दुःखो हूँ !' उसकी यही कल्पना उसे मनपसंद पदार्थ की प्राप्ति हेतु, पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरित करती है ! फलस्वरूप उसका दु:ख दूर होना तो दूर रहा, बल्कि अपना जीवन पूरा कर वह अनंत विश्व की जीव-सृष्टि में खो जाता है ! पूज्य उपाध्यायजी की 'निःस्पृहत्वं महासुखम्' सूक्ति के साथ 'भक्तपरिज्ञा पयन्ना' सूत्र का निरवेक्खो तरइ वुत्तरभवोऽयं' वचन Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निःस्पृहता भी जोड दें। 'निरपेक्ष आत्मा प्रायः दुष्कर दुस्तर भव-समुद्र से तैर जाती है ।' हमेशा नि:स्पृहता से प्राप्त महासुख का अनुभव करने वाली प्रात्मा दु:खमय भवोदधि को पार कर परम सुख.... अनंत सुख की अधिकारी बनती है ! नि:स्पृहता की यह अंतिम सिद्धि है ! अथवा यों कहे तो अतिशयोक्ति न होगी की अंतिम सिद्धि का प्रशस्त राजमार्ग निःस्पृहता है ! निरंतर स्पहा के वशीभूत हो, प्राप्त सुख के बजाय उस स्पृहा के त्याग से प्राप्त किया हुआ सुख चिरस्थायी, अनुपम और निर्विकार है !' प्रस्तुत तथ्य में आस्था रख कर निःस्पहता के महामार्ग पर जोव को गतिमान होना चाहिए । - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. मौन मौन धारण कर ! निःस्पृह बनते ही अपने आप मौन का आगमन हो जाएगा! मौन धारण करने से अनेकविध स्पृहाए शान्त हो जाएंगी ! ___मौन की वास्तविक परिभाषा यहाँ ग्रंथकार ने पालेखित की है ! व्यक्ति को ऐसा ही मौन धारण करना चाहिए ! हे श्रमणश्रेष्ठ ! तुम्हारा चारित्र ही एक तरह से मौन है ! मौन-रहित भला चारित्र कैसा ? पुद्गलभाव में मन का मौन धारण कर ! यहां तक कि पौद्गलिक विचारों को भी तिलांजलि दे देनी चाहिए ! उत्तमोत्तम मानसिक स्थिति का सृजन करने में प्रस्तुत अष्टक स्पष्ट रुप से हमारा मार्गदर्शन करेगा । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन मन्यते यो जगत् तत्त्वं स मुनिः परिकीर्तितः ! सम्यक्त्वमेव तन्मौनं मौनं सम्यक्त्वमेव वा ॥१॥ ६७ ॥ अर्थ -: जो जगत् के स्वरूप का ज्ञाता है, उसे मुनि कहा गया है ! अंतः सम्यक्त्व ही श्रमणत्व है और श्रमणस्व ही सम्यकूत्व है ! १६७ विवेचन :- मोक्षमार्ग की आराधना का अर्थ ही है मुनि-जीवन की आराधना । अतः मोक्षमार्ग के अभिलाषी आराधकों को प्रायः श्रमण जीवन की आराधना करनी चाहिए ! साथ ही आराधना करने के पूर्व श्रमणजीवन की वास्तविकता को यथार्थ स्वरूप में आत्मसात् करना चाहिए, समझना चाहिए | जिसका दिग्दर्शन/ विवेचन सर्वज्ञ - सर्वदर्शी परमात्मा ने किया है ! श्रमरणत्व के यथार्थ स्वरूप को जानकर श्रद्धाभाव से उस का आचरण करना चाहिए ! यहाँ मुनि जीवन का स्वरूप 'एवंभूत' नयदृष्टि से बताया गया है, विश्व में रहा प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थ अनंत धर्मात्मक होता है, अर्थात् एक वस्तु में अनेक धर्मों का समावेश होता है ! हर वस्तु का अपना अलग विशिष्ट धर्म होता है ! मतलब एक-एक धर्म, वस्तु का एक-एक स्वरूप है ! वस्तु भले ही एक हो, लेकिन उस का स्वरूप अनंत है, विविध है ! जब कि वस्तु की पूर्णता उसके अनंत स्वरूप के समूहरूप में होती है ! वस्तु के किसी एक स्वरूप को लेकर जब विचार किया जाता है, तब उसे 'नयविचार' कहते हैं ! प्रस्तुत में 'मुनि' जो स्वयं में एक चेतन पदार्थ है, उसके अनंत स्वरूपों में से किसी एक स्वरूप का विचार किया जाता है ! अत: यह विचार ' एवंभूत' नय का विचार है ! 'एवंभूत' नय शब्द और अर्थ दोनों का विशिष्ट स्वरूप बताता है ! उदाहरण के लिए हम 'घड़ा' शब्द को ही लें ! यहाँ 'घड़ा' शब्द और 'घड़ा' पदार्थ- दोनों के सम्बन्ध में 'एवंभूत' नय की विशेष दृष्टि है ! शब्दशास्त्र के नियमानुसार शब्द की जो व्युत्पत्ति होती है, वह व्युत्पत्ति - संदर्शित पदार्थ ही वास्तविक पदार्थ माना गया है ! साथ ही शब्द भी वह तात्विक है, जो उसकी नियत क्रिया में पदार्थ को स्थापित करता है ! इस तरह नयदृष्टि से घड़े को तभी घड़ा माना जाता * देखिए परिशिष्ठ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार है, जब वह किसी नारी अथवा अन्य के सिर पर हो और उसका उपयोग पानी लाने-ले जाने के लिए किया जाता हो ! एक स्थान से दूसरे स्थान पर पानी लाने-ले जाने की क्रिया के स्वरूप में 'एवंभूत' नय घड़े को देखता है ! और वह प्रसिद्ध क्रिया में रहे हुए घड़े का बोध कराने वाले के रूप में 'घड़ा' शब्द, इस नय को सहमत है ! ... 'मुनि' शब्द की व्युत्पत्ति है : 'मन्यते जगत्तत्वं सो मुनिः।' अर्थात् जो जगत् के तत्त्व का ज्ञाता है, वह मुनि कहलाता है। ऐसे ही मुनि के अनंत स्वरूपों में एक स्वरूप का ‘एवंभूत' नयदृष्टि से विचार किया गया है ! जगत्-तत्त्व को जानने के स्वभाव-स्वरूप मुनि का उल्लेख किया गया है ! मतलब, जगत-तत्त्व का परिज्ञान ही मुनि-स्वरुप का माध्यम बना है । जिस स्वरूप में जगत् का अस्तित्व है उसी स्वरूप में जानना' यही श्रमणत्व है.... और वही सम्यक्त्व है ! क्योंकि जगत्-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो समकित है । जगत-तत्त्व का ज्ञान = सम्यक्त्व सम्यक्त्व = श्रमणत्व जगत्-तत्त्व का ज्ञान = श्रमणत्व .. मुणी मोणं समायाए धणे कम्मसरीरगं ! पंतं लहं च सेवन्ति वीश समत्तदंसिरगो ।।। उत्तराध्ययने ऐसी साधुता को अंगीकार कर श्रमण, कामैण शरीर को समाप्त करता है, अर्थात् आठों कर्मों का विध्वंस करता है, क्षय करता है। जब जगत्-तत्त्व के ज्ञानरूप श्रमणत्व का प्रादुर्भाव होता है, तब वह सम्यक्त्वदर्शी नर-पुंगव रूखे-सूखे भोजन का सेवन करता है ! क्योंकि इष्ट, मिष्ट और पुष्ट भोजन के सम्बन्ध में उसके मन में कोई ममत्व नहीं होता, स्पृहा नहीं होती ! .. जगत-तत्त्व का ज्ञान, द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नयदृष्टि से, द्रव्य-गुण* एवं पर्याय की शैली से तथा निमित्त-उपादान की पद्धति से तथा उत्सर्गअपवाद के नियमों से होना चाहिए । * देखिए परिशिष्ट : Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन १६६ .... आत्माऽऽत्मन्येव यच्छुद्धं जानात्यात्मानमात्मना । सेयं रत्नत्रये ज्ञप्तिरुच्याचारैकता मुनेः ॥२॥१८॥ अर्थ :- प्रात्मा के विषय में ही प्रात्मा.सिर्फ कर्मरहित प्रात्मा को प्रात्मा से जानती है ! वह ज्ञान, दर्शन, एवं चारित्र रूपी तीन रत्नों में ज्ञान, श्रद्धा और आधार की अभेद परिणति मुनि में होती है। विवेचन :- आत्मसुख की स्वाभाविक संवेदना हेतु ज्ञान, श्रद्धा एवं प्राचार की 'अभेद परिणति' होना आवश्यक है । इस 'अभेद परिणति' संबंधित उपाय एवं उस का स्वरूप यहाँ बताया गया है । मात्मा आत्मा में ही आत्मा द्वारा विशुद्ध आत्मा को जानें ! जानने वाली प्रात्मा, प्रात्मा में जाने, आत्मा द्वारा विशुद्ध प्रात्मा को जाने । ऐसी स्थिति में ज्ञान, श्रद्धा और आचार एकरूप हो जाते हैं ! प्रात्मा सहज/स्वाभाविक आनन्द से सराबोर हो जाती है ! परपुद्गल से बिल्कुल अलग हो .... निलेप ! निरपेक्ष बन कर आत्मा को जानने की क्रिया करनी पड़ती है और आत्मा को ही जानना है ! तब सहज ही मनमें प्रश्न उठता है : 'कैसी आत्मा को जानना है ?' हमें कर्मों के काजल से मुक्त प्रात्मा को जानना है । ऐसी आत्मा को, जिस पर ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीय अंतराय, नाम, गोत्र, वेदनीय और आयुष्य-इन आठ कर्मों का बिलकुल प्रभाव न हो, बल्कि इन सब कर्म-बन्धनों से वह पूर्णतया निलिप्त हो। हमें एक स्वतंत्र आत्मा को जानना है । उसका दर्शन करना है । प्रस्तुत तथ्य को जानने के लिए यदि किसी की सहायता की आवश्यकता हो तो आत्मा की ही सहायता लेनी चाहिए ! आत्मगुरणों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए ! हाँ एक बात है ! और वह यह कि जानने को क्रिया करते समय दो बातों की ओर ध्यान देना जरुरी है : ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा० इन दो परिज्ञा से हमें प्रात्मा को जानना है, पहचानना है । आम० देखें परिशिष्ट * देखिए परिशिष्ट Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार तौर पर ज्ञपरिज्ञा आत्मा का स्वरूप दर्शाती है और प्रत्याख्यान-परिज्ञा उसके अनुरुप पुरुषार्थ कराती है ! आत्मा को जानने के लिए कहीं और भटकने की आवश्यकता नहीं है, प्रात्मा में ही जानना है ! अनंत गुणयुक्त और पर्याययुक्त प्रात्मा में हो विशुद्ध प्रात्मा की खोज करनी है, जानना है । लेकिन जानने की अभिलाषा रखनेवाली आत्मा को मोह का त्याग करना होगा; तभी वह इसे सही स्वरूप में जान सकेगी। आत्मानमात्मना वेत्ति मोहत्यागाद् यदात्मनि । तदेव तस्य चारित्रं तज्ज्ञानं तच्च दर्शनम् ।। __न जाने कैसी रोचक/आकर्षक दिल-लुभावनी बात कही है ! मोह का त्याग करो और आत्मा में ही प्रात्मा को देखो ! सचमुच यही ज्ञान है, श्रद्धा है और चारित्र है ! और इसका होना निहायत जरूरी है ! फलतः श्रुतज्ञान द्वारा जहाँ आत्मा ने प्रात्मा को पहचान लिया वहाँ 'अभेदनय' के अनुसार श्रुतकेवलज्ञानी बन गया ! क्योंकि आत्मा स्वयं में ही सर्वज्ञानमय है । * आत्मा (मोहत्याग कर) . * आत्मा को सर्वज्ञानमय) * आत्मा द्वारा (श्रुतज्ञान) • प्रात्मा में (सर्वगुण-पर्यायमय जाने) जो हि सुण्णाभिगच्छइ अप्पारणमणं तु केवलं शुद्धं । तं सुअकेवलिमिसिणो भणति लोगप्पदीवयरा ।। – समयप्रामृते "जिस श्रुतज्ञान के द्वारा केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं, उन्हें लोकालोक में प्रखर ज्योति फैलाने वाले श्रुतकेवली कहते हैं !" जब ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाय कि आत्मा अनादि-अनंत, केवलज्ञान-दर्शनमय है, कर्मों से अलिप्त और अमूर्त है, तब 'मैं साध्य-साधक और सिद्धस्वरूप हूँ ! ज्ञान-दर्शन और चारित्रादि गुणों से युक्त हूँ, ऐसी ज्ञान-दृष्टि अपनेआप प्रकट हो जाती है। वह रत्नत्रयी की अभेद परिणति है। उस में ही आत्मसुख की अनुपम संवेदना का यथार्थ अनुभव होता है । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन १७१ चारित्रमात्मचरणाद ज्ञानं वा दर्शनं मुनेः । शुद्धज्ञाननये साध्यं क्रियालाभात क्रियानये ॥३॥६६ अर्थ :- आत्मा के संबंध में चलना चारित्र है और ज्ञाननय की दृष्टि से मुनि के लिए ज्ञान और दर्शन साध्य है । जब कि क्रियानय के अनुसार ज्ञान के फलस्वरूप क्रिया के लाभ से साध्यरुप है । विवेचन :- प्रात्मा के सम्बन्ध में अनुगमन करना मतलब चारित्र ! मुनि का ध्येय.... साध्य यही चारित्र है ! इसी चारित्र का स्वरूप शुद्ध ज्ञाननय एवं क्रियानय के माध्यम से यहां तोला गया है । शुद्धज्ञान-नय (ज्ञानाद्वैत का कहना है कि 'चारित्र बोधस्वरूप है । आत्म-स्वरूप का अवबोध हो चारित्र है । उसका विश्लेषण निम्नानुसार है ! चारित्र = आत्मा में अनुगमन करना । = पौद्गलिक भावों से निवृत्त होना । = आत्म-स्वरुप में रमणता करना । = आत्मा, जो कि अनंतज्ञानरुप है, उसमें आकंठ डूब जाना। = आत्मा के ज्ञानस्वरुप में रमणता । तात्पर्य यही है कि आत्मज्ञान में स्थिरता यही चारित्र है और चारित्र का मतलब आत्म-ज्ञान में रमणता ! ज्ञान और चारित्र में अभेद है ! ज्ञाननय (ज्ञानाद्वैत) आत्मा के दो गुण मानता है : ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ! चारित्र ज्ञानोपयोगरूप और दर्शनोपयोगरुप है ! उसका अभेद है । इस व्यापार के भेद से ज्ञान त्रिरुप भी है ! जब तक विषयप्रतिभास का व्यापार होता हो तब तक ज्ञान है और जब आत्म-परिणाम का व्यापार हो तब सम्यक्त्व है ! जब आश्रव-निरोध होता है तब तत्वज्ञान में व्यापार होता है, तब वही ज्ञान और वही चारित्र ! Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ज्ञानसार क्रियानय का मंतव्य है कि सिर्फ आत्मस्वरुप का ज्ञान ही चारित्र और साध्य है, ऐसा नहीं है ! जीव को आत्मा का ज्ञान होने के बाद तदनुरुप क्रिया उसके जीवन में घुल-मिल जानी चाहिए ! ज्ञानस्य फलं विरति: विरतिफलं आस्रवनिरोधः संवरफलं तपोबलम् तपसो निर्जराफलं दृष्टम् ।' श्रमण के लिए जो चारित्र साध्य है, वह ज्ञानस्वरुप नहीं, बल्कि ज्ञान के फलस्वरूप है । ज्ञान का फल है विरतिरुप क्रिया, पाश्रवनिरोधात्मक क्रिया, तपश्चर्या की क्रिया और निर्जरा की क्रिया । यह क्रिया की प्राप्ति के फलस्वरुप चारित्र मुनि को साध्य होता है। ऐसे साध्य को सिद्ध करने के लिए कठोर पुरुषार्थ की आवश्यकता है । इस तरह पुरुषार्थ करते हुए प्रात्मतत्त्व निरावरण- कर्मरहित प्रकट होता है, तब आत्मा ज्ञाननय से साध्य बनती है । ___“जो भी करना है आत्मा के लिए कर । हे जीव, मन-वचन और काया का विनियोग प्रात्मा में ही कर दे । तुम अपनी आत्मा को केन्द्र में रख उस के विशुद्ध प्रात्मस्वरुप को परिलक्षित कर, वारणी, विचार और व्यवहार को रख," इसी को चारित्र कहते हैं । साथ ही ज्ञाननय/ज्ञानाद्वैत को मान्य ऐसे आत्मज्ञान को घर में बसा कर विशुद्ध आत्मज्ञान के प्रकटीकरण हेतु निरन्तर पुरुषार्थ करते रहना चाहिए । यही तो दोनों नयो का उपदेश है । पौद्गलिक भाव के नियंत्रण को छिन्न-भिन्न करने के लिए आत्मभाव की रमणता अविरत रुप से वृद्धिंगत होती रहे, उसी रमणता के लिए ज्ञान-दर्शन और चारित्र की आराधना मुनि के लिए साध्य है। यतः प्रवत्तिन मणौ, लभ्यते वान तत्फलम् । अतात्विकी मरिगज्ञप्ति-मरिणश्रद्धा च सा यथा ॥४||१००।। तथा यतो न शुद्धात्मस्वभावाऽऽचरणं भवेत् । फलं दोषनिवृत्तिर्वा, न तद् ज्ञानं न दर्शनम् ।।५॥१०१॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन १७३ अर्थ :- जिस तरह मणि (रत्न) के संबंध में कोइ प्रवृत्ति न की जाय अथवा उक्त प्रवृत्ति का फल निष्पन्न न हो, वह मणि का ज्ञान और मरिण की श्रद्धा अवास्तविक (कृत्रिम) है, ठीक वैसे ही शुद्ध प्रात्म-स्वभाव का प्रावरण अथवा दोष की निवत्ति-स्वरुप कोई फल प्राप्त न हो, वह ज्ञान नहीं और ना ही श्रद्धा है। विवेचन :- वास्तव में जो मरिण नहीं है, बल्कि निरा कांच का टुकड़ा है, उसे अपनी कल्पना के बल पर रत्न मानकर, 'वह रत्न है, कहने से, क्या हमारा माना हुआ रत्न, असली रत्न की प्रवृत्ति करेगा ? वास्तविक रत्न का काम देगा क्या ? साथ ही, असली मरिण-मुक्ता से प्राप्त होने वाला फल उक्त कल्पित वस्तु से प्राप्त हो जाएगा क्या ? अर्थात् जिस में मणि-मुक्ता के गुणों का सर्वथा अभाव है, उससे कोई फल मिलने वाला नहीं है । उसके प्रति 'यह रत्न है, कह कर श्रद्धा रखना अतात्विक है, असत्य है । वास्तविक मरिण भयंकर से भयंकर विषधर का विष उतारने का सर्वोत्तम कार्य करता है । तब क्या कांच का टुकड़ा (कृत्रिम मरिण) विष उतारने का कार्य करेगा? असली मरिण यदि किसी जौहरी के हाथ बेचा जाए तो लाखों की संपत्ति देगा, लेकिन कांच के टुकड़े के लाख रूपये प्राप्त होंगे क्या ? ठीक उसी तरह, जिससे आत्मस्वभाव में किसी प्रकार की कोई प्रवत्ति न हो और शुद्ध आत्मा का फल-'दोषनिवृत्ति' का भी प्राप्त न होता हो, ऐसा ज्ञान, ज्ञान नहीं और ना ही ऐसी श्रद्धा श्रद्धा है। - ज्ञान और श्रद्धा को नापने का न जाने कैसा अदभत यंत्र यहाँ बताया गया है ! क्या शुद्ध प्रात्मस्वभाव की निकटता साधनेवाला... आत्मस्वभाव का सही अनुसरण करनेवाला आचरण है ? क्या तुम्हारे भीतर वर्षों से घर कर गए राग-द्वेष और मोह, समय के साथ कम होते जा रहे हैं ? यदि इन प्रश्नों का उत्तर हकार में है तो तुम्हारा प्रात्मज्ञान और तुम्हारी आत्मश्रद्धा शत-प्रतिशत यथार्थ है । तुम्हारे आचरण में विशुद्ध आत्मा को ओजस्विता होनी चाहिए, कर्मों के कलंक-पंक की गहरी कालिमा नहीं, ना ही कर्मा के विचित्र प्रभाव ! . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१७४ ज्ञानसार जीवात्मा का पात्मज्ञान एवं आत्मश्रद्धा प्रायः मानसिक, वाचिक और कायिक आचरण को प्रभावित करती है । 'मैं विशुद्ध आत्मा हूँ.... सच्चिदानंदस्वरुप हूँ ।' परिणामस्वरुप उसके मनोरथ कल्पनाएँ, स्पहाएँ कामनाएँ और अनंत अभिलाषाएँ पौद्गलिक भावों से पराङमुख बन आत्मभावों के प्रति अभिमुख हो जाती है । उसकी वाणी विभावों की निंदा-प्रशंसा से निवृत हो, आत्मभाव की अगम-अगोचर रहस्य-वार्ताओं को प्रकट करने का सर्वोत्तम साधन बन जाती है । उसका इन्द्रियव्यापार शब्द, रूप, रस, गंध, और स्पर्श के सुख-दु:ख से निवृत्त हो आत्माभिव्यक्ति के पुरुषार्थ में लीन हो जाता है । ऐसे किसी ज्ञान अथवा श्रद्धा के सहारे हाथ पर हाथ धर बैठे न रहना चाहिए कि जिस ज्ञान-श्रद्धा द्वारा विशुद्ध प्रात्मस्वरुप प्रकट करने का पुरुषार्थ न होता हो । प्रात्मा के ज्ञानादि गुरणों में रमरणता न होती हो । पौद्गलिक प्रेम की धारा अविरत रूप से प्रवाहित हो, दारूण द्वेष की ज्वाला तन-बदन को झुलसा रही हो और मोह-माया का धना अंधेरा प्रात्मा पर आच्छादित होता हो । ज्ञान के तीक्ष्ण शस्त्र से पुद्गल-प्रेम की विष-वल्लरी का छेदन करना चाहिए । ज्ञान के शीतल जल से दारुण द्वष की ज्वाला को बुझाना/शांत करना चाहिए। ज्ञान की दिव्य-ज्योति से मोह-माया के अंधकार को दूर भगाना चाहिए। यही तो ज्ञान-श्रद्धा का परिणाम है, फल है । हृदय की पवित्र वृत्ति और वचन-काया के विशुद्ध कार्य-कलाप, दोनों की विशुद्धि दिन दुगुनी रात चौगुनी वृद्धिंगत होनी चाहिए । फलस्वरूप आत्मा आन्तरिक सुख का अनुभव करती जाती है । मधुरतम शान्ति और अद्भुत प्रानन्द में खो जाती है । तात्पर्य यही कि हमें ऐसे ज्ञान और श्रद्धा को आत्मसात् करना चाहिए कि जिससे वृत्ति एवं प्रवृत्ति दोनों प्रात्माभिमुख बन जाए । फलतः दोष क्षीण होते जायेंगे और गुणों का विकास होता जाएगा। यथा शोफस्य पुष्टत्वं यथा वा वध्यमण्डनम् । तथा जानन्भवोन्मादमात्मतृप्तो मुनिर्भवेत् ॥ ६ ॥१०२।। अर्थ :- जिस तरह नित्य बढ़ते सूजन अथवा वध करने योग्य पुरुष (बलि ) को कर्ण-पुष्पों (करन-फूल) की माला पहना कर सुशोभित करते Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन १७५ है, ठीक उसी तरह संसार के उन्माद को जानने वाला मुनि-श्रमण स्व-प्रात्मा को लेकर ही संतुष्ट होता है । विवेचन : एक अदना-सा इन्सान । सामान्य देहयष्टि, दुबला पतला, कमजोर तिनके जैसा । फूक मारे तो उड जाए ! वह अपने तनबदन को पुष्ट-शक्तिशाली बनाने की इच्छा करता है ! तभी एक दिन सूजन के मारे हाथ, पांव, गाल, चेहरा फूल गया ! एक बार किसी परिचित से भेंट हो गयी । कई दिनों की जानपहचान थी । उसने उसे गौर से देखा और तपाक से कह दिया : "दोस्त, क्या बात है ? बड़े तन्दुरूस्त नजर आ रहे हो !' अब आप ही कहिए, वह अपने दोस्त को क्या नवाब दे ? ' क्या वह दोस्त के कहने से सूजे हए शरीर को तन्दुरुस्त मान लेगा? अपने को पुष्ट मान लेगा ? वास्तव में देखा जाए तो वह निरोगी तो नहीं, रोग से परिपूर्ण मानता है । और उसे ऐसी कृत्रिम पुष्टता की कतई चाह नहीं है । ठीक इसी तरह कर्मोदय से, पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त भौतिक संपत्ति के प्रति मूनि का यह रूख होता है ! कर्मजन्य सौंदर्य, रूप, रंग, आरोग्य, सुडौलता, परिपुष्टतादि पौद्गलिक भावों के प्रति मुनि की यह दृष्टि होती है कि 'यह वास्तविक पुष्टता नहीं है, बल्कि कर्मजन्य भयंकर व्याधि है !' जैसे शरीर के प्रति ममत्व रखने वाले को 'सूजन' रोग लगता है, ठीक उसी तरह जिसे प्रात्मा पर ममत्व है उसके लिए पूरा शरीर ही रोग प्रतीत होता है । शारीरिक पुष्टता को वास्तविक पुष्टता नहीं मानता । . प्राचीनकाल में ऐसी परंपरा थी कि जिसका वध करना हो, बलि चढ़ानी हो, बलिदान के पूर्व उसका श्रृंगार किया जाता था ! नये वस्त्र और पुष्प-मालाएँ पहनायी जाती थी ! ढोल, तुरही और जयघोष के बीच उसकी शोभायात्रा निकाली जाती ! ऐसे समय वधस्तम्भ की ओर ले जाये जानेवाले मनुष्य को श्रृंगार और वाद्यवद क्या पाल्हादक लगते ? क्या वह जय जयकार और श्रृंगार से प्रसन्न होता ? नहीं, बिल्कुल नहीं । श्रृंगार, जय जयकार और तुरही Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ज्ञानसार घोष उसके लिए मृत्युघोष से कम नहीं होता । वह आकुल-व्याकुल और अधीर होता है । - बहुमूल्य वस्त्रालंकार और मान-सन्मानादि पौद्गलिक भावों के प्रति मुनि प्राय: उदासीन होता है । मृत्यु की निर्धारित सजा भुगतने के लिए निरंतर आगे बढ़ता मनुष्य, क्या पौद्गलिक भाव में कभी सुख का अनुभव कर सकता है ? यदि वह पौद्गलिक भाव के वास्तविक रूप से परिचित है तो उसके लिए संसार की पौद्गलिक भाव में रमरगता एकाध उन्माद से ज्यादा कुछ नहीं है । ऐसे समय उसका एक मात्र लक्ष्य निर्मल, निष्कलंक....परम चैतन्य स्वरूप.... निरंजन....निराकार ऐसा प्रात्मद्रव्य होता है ! मनमंदिर में प्रस्थापित अनंतज्ञानी परमात्मा का योगीपुरुष निरंतर ध्यान धरते हैं, उसके आगे नतमस्तक होते हैं और उसकी स्तुति करते हैं । साथ ही उक्त ध्यान, वंदन और स्तवन में वे ऐसे अलौकिक आनन्द का रसास्वादन करते हैं कि उसकी तुलना में पुद्गलद्रव्य का उपभोग उन के लिए तुच्छ और नीरस होता है। आत्म-ध्यान में हमेशा संतुष्टि का पुट होना चाहिए । क्योंकि बिना संतुष्टि के पौद्गलिक भावों की रमणता नष्ट नहीं होगी । मन संतुष्टि चाहता है और यह उसका मूलभूत स्वभाव है। यदि प्रात्मभाव में संतुष्टि नहीं मिली तो पुद्गलभाव में तृप्ति प्राप्त करने के लिए वह खूटे से छुटे सांड की तरह भाग खड़ा होगा। बालक को यदि पौष्टिक आहार न दिया जाए तो वह मिट्टी खाए बिना चैन नहीं लेगा । 'आत्मतृप्तो मुनिर्भवेत' मुनि को स्व-प्रात्मा में ही तृप्त होना चाहिए । और वह भी इस हद तक की, उसमें पुद्गलभाव के प्रति कोई आस्था, स्पृहा अथवा आकर्षण नहीं रहना चाहिए । दीक्षित होने के पश्चात् श्री रामचंद्रजी आत्मभाव में इस कदर तप्त हो गये थे कि सीतेन्द्र ने उनके आगे दिव्य-गीत / संगीत की दुनिया रचा दी ! नत्यनाटक की महफिल सजा दी । फिर भी वे उन्हें अतृप्त न कर सको । इतना ही नहीं बल्कि घाती-कर्मों का क्षय कर रामचन्द्रजी वहीं केवलज्ञान के अधिकारी बन गये ! Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ . सुलभं वागनुच्चारं मौनमेकेन्द्रियेष्वपि । पुदगलेषु अप्रवृत्तिस्तु योगीनां मौनमुत्तमम् ॥७॥१०३ ॥ अर्थ :- वाणी का अनुच्चार रूप मौन एकद्रिय जीवों में भी आसानी से प्राप्त सके वैसा हैं, लेकिन पुद्गलों में मन, वचन, काया की कोई प्रवृत्ति न हो, यही योगी पुरुषों का सर्वश्रेष्ठ मौन है ! विवेचन : मौन की परिभाषा सिर्फ यहाँ तक ही सीमित अथवा पर्याप्त नहीं है कि मुंह से बोलना नहीं, शब्दोच्चार भी नहीं करना । प्रायः 'मौन' शब्द इस अर्थ में प्रचलित है । लोग समझते हैं कि मुँह से न बोलना मतलब मौन । और आमतौर से लोग ऐसा ही मौन धारण करते दिखायी देते हैं । लेकिन यहां पर ऐसे मौन की महत्ता नहीं बतायी गई है । सर्व साधारण तौर पर मनुष्य की भूमिका को परि. लक्षित कर, मौन की सर्वांगसुन्दर और महत्वपूर्ण परिभाषा की गयी है। मुंह से शब्दोच्चार नहीं करने जैसा मौन तो पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, और वनस्पतिकाय जैसे एकेन्द्रिय जीवों में भी पाया जाता है, दिखाई पड़ता है । लेकिन प्रश्न यह है कि क्या ऐसा मौन मोक्षमार्ग की आराधना का अनन्य साधन/अंग बन सकता है ? क्या ऐसे मौन से एकेन्द्रिय जीव कर्ममुक्त अवस्था की निकटता साधने में सफल बनते हैं ? सिर्फ 'शब्दोच्चार नहीं करना', इसको ही मौन मानकर यदि मनुष्य मौन धारण करता हो और ऐसे मौन को मुक्ति का सोपान समझकर प्रवृत्तिशील हो, तो यह उसका भ्रम है । * मन का मौन : मानसिक मौन * वचन का मौन : वाचिक मौन * काया का मौन : कायिक मौन प्रात्मा से भिन्न ऐसे अनात्मभावपोषक पदार्थों का चिंतन-मनन नहीं करना । स्वप्न में भी उसका विचार नहीं करना । इसे मन का मौन अर्थात् मानसिक मौन कहा जाता है । हिंसा, चोरी, झठ, दुराचार, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभादि अशुभ पापविचारों का परित्याग करने की प्रवृत्ति रखना ही मन का मौन है । प्रिय पदार्थ १२ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ज्ञानसार का मिलन हो और अप्रिय का वियोग हो, प्रिय का कभी विरह न हो और अप्रिय का मिलन....!' ऐसे संकल्प-विकल्पों के माध्यम से उत्पन्न विचारों के त्याग का ही दूसरा नाम मन का मौन है । .. मिथ्या वचन न बोलें, अप्रिय और अहितकारी शब्दोचार न करें, कड़वे और दिल को आहत करनेवाली वाणी का जीवन में कभी अवलम्बन न लें। क्रोधजन्य, अभिमानजन्य, कामजन्य, मायाजन्य, मोहजन्य और लोभजन्य बात जबान पर न लाना, यानी वचन का मौन | वाचिक मौन कहा जाता है । पौद्गलिक भाव की निंदा और प्रशंसा न करना वाचिक मौन है ! काया से पुद्गल-भावपोषक प्रवृत्ति का परित्याग करना, यह काया का मौन कहलाता है ! इस तरह मन, वचन, काया के मौन को ही यथार्थ मौन की संज्ञा दी गई है। जिस तरह मौन का यह निषेधात्मक स्वरूप है, उसी तरह विधेयात्मक स्वरूप भी है : ____ निरंतर अपने मन में आत्मभावपोषक विचारों का संचार कर क्षमा, नम्रता, विनय, विवेक, सरलता एवं निर्लोभता के भावों में सदासर्वदा खोये रहना । अहिंसा, सत्य, अचोर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के मनोरथ रचाना ! आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ध्यान धरना आदि क्रियाएं मानसिक मौन ही है । इसी तरह वाणी से प्रात्मभावपोषक कथा करना....शास्त्राभ्यास और शास्त्र-परिशीलन करना, परमात्मस्तुति में सतत लगे रहना....जैसे कार्य वाचिक मौन के ही द्योतक हैं । वचन का मौन कहलाता है । जब कि काया के माध्यम से प्रात्मभाव की ओर प्रेरित और प्रोत्साहित करती प्रवृत्तियां करना, कायिक मौन है । ___ मन, वचन, काया के योगों की पुद्गलभावों से निवृत्ति और आत्मभाव में प्रवृत्ति, यह मुनि का मौन कहलाता है । ऐसे मौन को धारण कर मुनि मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ता जाता है । इस तरह के मौन से प्रात्मा को पूर्णानन्द की अनुभूति होती है। इसी मौन के कारण आत्मा की अनादिकालीन अशुभ वृत्ति-प्रवृत्तियों का अंत आता है और वह शुद्ध एवं शुभ प्रवृत्तियों की ओर गतिमान होती है । ऐसे मौन Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन १७६ का आदर किया जाए, ऐसे मौन को जीवन में आत्मसात् कर के मोक्षमार्ग का अनुगामी बना जाए, ऐसा अनुरोध पूजनीय उपाध्यायजी महाराज करते हैं ! ज्योतिर्मयीव दीपस्य क्रिया सर्वाऽपि चिन्मयी। यस्यानन्यस्वभावस्य तस्य मौनमनुत्तरम् ॥८॥१०४।। अर्थ :- जिस तरह दीपक की समस्त क्रियाए (ज्योति का ऊँचा-नीचा होना वक्र होना और कम-ज्यादा होना) प्रकाशमय होती हैं, ठीक उसी तरह प्रात्मा की सभी क्रियाए ज्ञानमय होती है-उस अनन्य स्वभाव वाले मुनि का मौन अनुत्तर होता है। विवेचन : मौन की सर्वोत्कृष्ट अवस्था बताते हुए दीपक की ज्योति का उदाहरण दिया गया है । जिस तरह दीपक की ज्योति ऊँची-नीची वक्र अथवा कम-ज्यादा होते हुए भी दीपक प्रकाशमय होता है, ठीक उसी तरह योगी पुरुषों के योग पुद्गल-भाव से निवृत्त होते हैं । ऐसे महात्माओं के मन, वचन, काया की क्रिया ज्ञानमय होती है। उसके आँतर-बाह्य सारे व्यवहार ज्ञान से परिपूर्ण होते हैं । उनको आहारक्रिया, परोपदेश-क्रिया, सभी ज्ञानमय होती है । आश्रव क्रिया को भी ज्ञानदृष्टि निर्जरा-क्रिया में परिवर्तित कर देती है। वह प्रत्येक क्रिया में चैतन्य का संचार करती है। कुरगडु मुनि पाहारग्रहण की क्रिया कर रहे थे । उस पर ज्ञानदृष्टि का पूरा प्रभाव था । फलतः क्रिया चैतन्यमयी हो गयी । परिणामस्वरुप आहारग्रहण करते हुऐ वे केवलज्ञानी बन गये । गुणसागर विवाह-मंडप में परिणय की वेदी पर बैठे थे । विवाह की रस्म पूरी कर रहे थे, कि सहसा क्रिया में चैतन्य का संचार हो गया और वह परिणय की क्रिया करते हुए वीतराग, निर्मोही बन गये । आषाढाभूति रंगभूमि पर अभिनय-क्रिया में खोये हुए थे । उनकी क्रिया ज्ञानदृष्टि से प्रभावित हो गई और फलतः भरत का अभिनय करनेवाले अाषाढाभति की आत्मा केवलज्ञान की अधिकारी बन गयी ।। ___ यहाँ हमें ज्ञानदृष्टि के अजीबोगरीब चमत्कारों की दुनिया में परिभ्रमण कर उक्त चमत्कारों का वैज्ञानिक मूल्याँकन और महत्व समझने का प्रयत्न करने की आवश्यकता है । ज्ञानदृष्टि के यथार्थ स्वरूप को प्रात्मसात् कर ज्ञानदृष्टि प्राप्त करने की जरूरत है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार १८० ज्ञान होना अलग बात है, और ज्ञानदृष्टि होना अलग ! संभव है ज्ञान हो और ज्ञानदृष्टि का अभाव हो ! लेकिन ज्ञानदृष्टि वाले में ज्ञान अवश्य होता है। आज हम ज्ञानप्राप्ति के लिए जरुर प्रयत्न करते हैं, लेकिन ज्ञानदृष्टि के मामले में पूर्णतया अनभिज्ञ हैं। ज्ञानी का पतन संभव है, लेकिन ज्ञानदृष्टि वाले का नहीं । वस्तुत : ज्ञानदृष्टि खुली होनी चाहिए । जब तक सिर्फ इतना ज्ञान कि 'में शुद्ध प्रात्म-द्रव्य हूँ..... परपुद्गलों से सर्वथा भिन्न हूं, तब तक परपुद्गलों का आकर्षण, ग्रहण और उपभोग आदि पूदगलभाव की क्रिया जीवन में निरन्तर होती है । पुद्गल-निमित्तक राग-द्वेष और मोह के कीड़े अबाध रुप से दिल को कचोटते रहते हैं । लेकिन ज्ञानदृष्टि का द्वार खुलने भर की देर है कि पुद्गल के मनपसन्द रुप रंग, गंध-स्पर्शादि का व्यापार प्रात्मा में राग-द्वेष और मोह-माया को पैदा करने में असमर्थ होते हैं ! साथ ही राग के स्थान पर विराग, द्वष के बदले करुणा और मोह के स्थान पर यथार्थदर्शिता का उद्भव होता है । ज्ञानदृष्टि का द्वार बन्द रहने पर पुद्गलभाव जीवन में रागद्वेष पैदा करते थे, लेकिन ज्ञानदृष्टि का द्वार खुलते ही वह पुद्गलभाव होते हुए भी राग-द्वेष और मोह पैदा करने में सर्वथा असमर्थ बनते हैं ! यह ज्ञानदृष्टि के द्वार खुलने का निशान है, संकेत है ! ज्ञानरष्टि से युक्त आत्मा में विषयों का आकर्षण और कषायों का उन्माद नहीं होगा ! उनकी प्रत्येक क्रिया एक ही प्रकार की होती है, लेकिन मोहष्टि का प्रभाव उसे विनिपात की और खिंच जाता है! जब कि ज्ञानदृष्टि का प्रभाव उसे भवविसर्जन की ओर ले जाता है ! ज्ञानदृष्टि से युक्त और पुद्गल-परान्मुख स्वभाव वाली प्रास्मा का मौन अनुत्तर होता है । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. विद्या अविद्या के प्रभाव से प्रभावित जीव "विद्या" के परम तत्त्व को समझ भी पाएंगे ? भवभवान्तर से अविद्या की वासना से युक्त जीवात्मा न जाने कैसे दारूण दुःखों का अनुभव लेती है ! -- ऐसी स्थिति में करुणासागर परम दयालु ग्रंथकार, पौद्गलिक सुख के साधनों के प्रति अभिनव दृष्टि से देखने की, अवलोकन करने की प्रेरणा उन्हें प्रदान करते हैं । साथ ही आत्मा का यथार्थ दर्शन करने की अनोखी सूझ देते हैं ! 'विद्या' प्राप्त करो और विद्या से दूर रहो । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ज्ञानसार नित्यशुच्यात्मताख्यातिरनित्याशुच्यनात्मसु । अविद्या तत्त्वधीविद्या, योगाचार्यः प्रकीर्तिता ॥१॥१०॥ अर्थ : योगाचार्यों ने बताया है कि अनित्य, अशुचि और आत्मा से भिन्न पुद्गलादि में नित्यत्व, शुचित्व प्रौर अत्मत्व (ममत्व) की बुद्धि अविद्या कहलाती है । तात्त्विक बुद्धि विद्या कहलाती है । विवेचन : जो पुद्गल अनित्य हैं, अशुचि-अपवित्र हैं और आत्मतत्व से भिन्न हैं, उन्हें तुम नित्य, पवित्र और आत्मतत्त्व से अभिन्न मान रहे हो, तब समझ लेना चाहिए कि तुम पर 'अविद्या' का प्रबल प्रभाव है । और जब तक पुद्गल-द्रव्यों को नित्य पवित्र एवं आत्मतत्त्व से अभिन्न मानते रहोगे तब तक तुम तत्वज्ञानी नहीं, आत्मज्ञानी नहीं, बल्कि अविद्या से आवृत्त/अज्ञान से अभिभूत, साथ ही विवेकभ्रष्ट ऐसी एक पामर जीवात्मा हो । न जाने पामर जीवात्मा की यह कैसी दुर्दशा-करूणाजनक स्थिति है ? 0 परसंयोग को नित्य समझता है ! ० अपवित्र शरीर को पवित्र समझता है ! ७ जड -पुद्गल द्रव्यों को अपना समझता है ! यही अहंबुद्धि और ममबुद्धि अविद्या कहलाती है ! मौन में यही अविद्या बाधक है । साधुता की साधना में अविद्या एक विध्न है । जब तक तुम इस पर विजय प्राप्त नहीं करोगे, तब तक साधुता की सिद्धि असंभव है । युग-युगान्तर से जो कर्मों का सितम और नारकीय यंत्रणाएं सहन करनी पड़ी हैं, इस का मूल यही अविद्या है । अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, और भिन्न को अभिन्न मानने की वृत्ति अनादिकाल से चली आ रही है । उस वृत्ति का विनाश करना, उसे नष्ट-भ्रष्ट करना सरल काम नहीं है, ठीक वैसे दृढ़ संकल्प हो तो असंभव भी नहीं है । * आत्मा को हमेशा नित्य समझो, * आत्मा को पवित्र समझो, ॐ आत्मा में ही 'अहं'बुद्धि का प्रादुर्भाव करो। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ इसी तत्त्वबुद्धि से यानी विद्या से अविद्या का विनाश संभव है । परसंयोग को नित्य मानकर उसमें रात-दिन खोया रहनेवाला रागी जीव उसका वियोग होते ही न जाने कैसा चित्कार / विलाप करता है ? यह तथ्य समझ में न आता हो तो श्री रामचंद्रजी के विरह में व्याकुल सीता की ओर दृष्टिपात करो । समझते देर नहीं लगेगी ! गंदगी और असाध्य रोगों के घर में ऐसे शरीर को पवित्र/शुद्ध मानकर उस पर बेहद प्रेम, प्यार और ममता रखनेवाले मनुष्य को जब उसके असलियत का पता चलता है, तब वह कैसा दिग्मूढ / संभ्रान्त बन जाता है ? क्षणार्ध में ही उसकी सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती है । यदि इस तथ्य पर विश्वास न हो तो सनत्कुमार चक्रवर्ती की ऐतिहासिक जीवनगाथा का अवगाहन अवश्य करें । जड़-चेतन में रहे भेद को न समझनेवाले मनुष्य की उलझन का मूर्तिमंत उदाहरण तुम स्वयं ही हो । जड़ पुद्गल के बिगड़ने या सुधरने पर तुम स्वयं ही कितने राग-द्वेषग्रस्त हो जाते हो ? न जाने कितनी चिंताएं अनायास तुम्हें सताने लगती हैं ? बिद्या “जड से मैं अलग हूं, भिन्न हू । जड से मेरा क्या नाता ? वह बिगड़े या सुधरे, उस से मुझे कोई सरोकार नहीं" । प्रस्तुत वृत्ति रागद्व ेष की भयंकर समस्या को सुलझा सकती है और आत्मा समभाव में रह सकती है । " पुद्गल का संयोग अनित्य है । उसके बल पर में सुख का भवन खड़ा नहीं करूंगा,....सुहाने सपने नहीं सजाऊँगा । ऐसे संयोग को भूलकर भी कभी नित्य नहीं मानूंगा, बल्कि मेरी अपनी आत्मा ही नित्य है ।" इस तत्व-वृत्ति के अंगीकार करने पर संयोग-वियोग के विकल्प से उत्पन्न विकलता / विह्वलता को दूर किया जा सकता है और फलस्वरूप आत्मा प्रशम - सुख का अनुभव कर सकती है । “सिर्फ मेरी आत्मा ही पवित्र है । वह पूर्णतया शुद्ध / विशुद्ध और सच्चिदानन्द से युक्त है ।" ऐसा यथार्थ दर्शन होते ही अपने शरीर को पवित्र एवं निरोगी बनाये रखने का पुरुषार्थ रूक जाएगा । साथ ही पुरुषार्थ करते हुए प्राप्त निष्फलता / श्रसफलता के कारण उत्पन्न अशांति दूर हो जाएगी । तब परिणाम यह होगा कि शरीर साध्य नहीं लगेमा, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ बल्कि साधन प्रतीत होगा । उसके साथ का व्यवहार केवल एक साधन रुप में रह जाएगा । फलतः शरीर-संबंधित अनेकविध पापों से सदा के लिए बच जाओगे, मुक्त हो जायोगे । अतः अविद्या के गाढ़ आवरण को छिन्न-भिन्न /विदीर्ण करने का भगीरथ पुरुषार्थ प्रणिधानपूर्वक शुरु कर देना चाहिए । यह सब करते हुए यदि कोई बाधा अथवा रुकावट ग्राये तो उसे दूर कर सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए | अर्थ : यः पश्येद् नित्यमात्मानमनित्यं परसंगमम् । छलं लब्धुं न शक्नोति तस्य मोहमलिम्लुचः ॥२॥१०६ ॥ ज्ञानसार जो आत्मा को सदा-प्रविनाशी देखता है, और परपदार्थ के सम्बन्ध को विनश्वर समझता है, उसके छिद्र पाने में मोह रुपी चोर कभी समर्थ नहीं होता | विवेचन : जो मुनि अपनी आत्मा को अविनाशी मानता है और परपदार्थ के सम्बन्ध को विनाशी देखता है, उस के श्रात्मप्रदेश में घुसने के लिए मोह रूपी चोर को कोई राह नहीं मिलती ! उसकी स्खलना देखने के लिए उसे कोई जगह उपलब्ध नहीं होती । यहां निम्नांकित तीन बातों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया गया है : • आत्मा का अविनाशीरूप में दर्शन । @ परपुद्गल - संयोग का विनाशी रूप में दर्शन । • आत्मप्रदेश में मोह का प्रवेश -- निषेध | यदि मारक मोह की असह्य विडम्बनाओं से मन उद्विग्न हो गया हो और उससे मुक्त होने की कामना तीव्र रूप से उत्पन्न हो गयी हो, तो ये तीन उपाय इस कामना को सफल बनाने में पूर्णतया समर्थ हैं । लेकिन इसके पूर्व मोह को श्रात्मप्रदेश पर पॉव न रखने देने का दृढ संकल्प अवश्य होना चाहिए । मोह के सहारे श्रामोद-प्रमोद और भोगविलास करने की वृत्तियों का असाधारण दमन होना चाहिए। तभी आत्मा की ओर देखने की प्रवृत्ति पैदा होगी और आत्मा का अविनाशी स्वरुप अवलोकन करने की प्रानन्दानुभूति होगी । फलतः पर- पुद्गलों का संयोग व्यर्थं प्रतीत होगा । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ हमें आत्मा के अविनाशी स्वरुप का दर्शन केवल एकाध पल, घंटा, माह अथवा वर्ष के लिए नहीं करना है, अपितु जब-जब स्व-आत्मा अथवा अन्य आत्मा की ओर दृष्टिपात करें तब-तब 'आत्मा अविनाशी है, ' का संवेदन होना चाहिए । अविनाशी आत्मा का दर्शन जब सुखद संवेदन पैदा करेगा तब नश्वर शरीर और भौतिक संपदा के दर्शन/ अनुभव के प्रति निरसता एवं अनाकर्षण - वृत्ति का जन्म होगा । अविनाशी आत्मा के साथ स्नेह-सम्बन्ध जुड़ते ही 'परपुद्गल-संयोग अनित्य है । और जो अनित्य है उनके समागम से मेरा क्या वास्ता ?' इस दिव्यदृष्टि का आविर्भाव होता हैं । पर-संयोग की अनित्यता का दर्शन मन पर ऐसा प्रभाव डालता है कि पर-संयोग करने-कराने और उसका सुखद अनुभव करने में या उसके विरह-वियोग में... न आनंद... न प्रमोद और ना ही किसी प्रकार का विषाद ! विद्या परसंयोग की अवस्था में मोह को आत्मप्रदेश में प्रवेश करने का मार्ग मिल जाता है । इसे मत भूलो कि जहां पर -संयोग से सुख सुविधा पाने की कल्पना की नहीं कि मोह - महाराजा का दबे पांव बिना किसी आहट के, आत्म-भूमि में प्रवेश हुआ समझो | अतः पर - संयोग में सुख की कल्पना का उच्छेदन करने हेतु 'पर-संयोग अनित्य है, ' ऐसी ज्ञानदृष्टि अपलक खुली रखने का आदेश दिया गया हैं । आत्मा ने स्वयं सुख की कल्पना नहीं की है । अनादि काल से उसने स्वयं में सुख का दर्शन नहीं किया है ! अतः आत्मा को स्वयं में सुख का दर्शन हो, इसलिए 'मैं नित्य, अविनाशी, अविनश्वर हू", ऐसी तत्वदृष्टि दी गयी है ! जब तक ये दोनों दृष्टियां खुल नहीं जाती तब तक मोह आत्म-भूमि में प्रवेश पाने में सफल बन जाता है और भयंकर विनाश करता हैं । अलबत्ता, बर्बादी के साथ वह मोह ग्रात्मभूमि के मालिक को कुछ सुख-सुविधाएं अवश्य प्रदान करता है | ताकि सुख-सुविधाओं का चाहक लालची मालिक उसके खिलाफ बगावत न कर दे । जेहाद का नारा बुलन्द न कर दे ! जिस तरह अंग्रेजों द्वारा प्रदत्त प्रांशिक मान-सन्मान और सर्वोच्च पदों के इनाम - इकराम के लालची कुछ भारतीय लोग भारत भूमि पर उनके राज्य शासन की आखिरी दम तक देशद्रोही हिमायत करते रहे ! ठीक उसी तरह जब Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ज्ञानसार तक हम मोह-महाराज द्वारा प्रदत्त प्रांशिक सुख-सुविधाए भोगते रहेंगे तबतक आत्म-द्रोह करते नहीं अघाएगे । बल्कि समय पडने पर अपनी इस कलुषित वृत्ति को नष्ट करने के बजाय बढाते ही जाएगे ! क्या ऐसे घृणित आत्मद्रोही बने रहकर, हम अपनी आत्मभूमि पर मोहमहाराज का राज्य-शासन चिरकाल तक बना रहे, इसमें खुश हैं ? तरंगतरलां लक्ष्मीमायुर्वायुवदस्थिरम् ।। अदभ्रधीरनुध्यायेदभ्रवद् भंगुरं वपुः ॥३।।१०७ अर्थ : - निपुण व्यक्ति लक्ष्मी को समुद्र-तरंग की तरह चपल, आयुष्य को वायु के झोंके की तरह अस्थिर और शरीर को बादल की तरह विनश्वर मानता है ! विवेचन : लक्ष्मी आयुष्य शरीर ___ इन तीन तत्त्वों के प्रति जीवात्मा का जो अनादि-अनंत काल से दृष्टिकोण रहा है, उसको मिटाकर एक नया लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण अपनाने का आग्रह पूज्य उपाध्यायजी कर रहे हैं । और 'अविद्या' के आवरण को छिन्न-भिन्न, तार-तार करने के लिए ऐसे नव्य दृष्टिकोण की नितान्त आवश्यकता है-यह बात समझने के लिए 'अदभ्रबुद्धि, निपुण-बुद्धि का आधार लेने सूचना दी है। लक्ष्मी की लालसा, जीवन की चाहना और शरीर की स्पृहा ने जीवात्मा की बुद्धि को कुठित कर दिया है, दिशाहीन बना दिया है। साथ ही साथ उसकी विचारशक्ति को सीमित बना दिया है ! जीव की अन्त:चेतना को मिट्टी के ढेर के नीचे दबा दिया है ! वस्तुतः लक्ष्मी, जीवन और शरीर के 'त्रिकोण' के व्यामोह पर समग्र संसार का बृहद् उपन्यास रचा गया है ! इस उपन्यास का कोई भी पन्ना खोलकर पढो, यह त्रिकोण दिखायी देगा ! राग और द्वेष, हर्ष और विषाद, पुण्य और पाप, स्थिति और गति, आनंद और उद्वग....आदि असंख्य द्वद्वों के मूल में लक्ष्मी, जीवन और शरीर का त्रिकोण ही कार्यरत है ! आशा को मीनारें और निराशाओं के कब्रस्थान इसी त्रिकोण पर खड़े हैं । यदि यों कहें तो अतिशयोक्ति न होगी की पवित्र, उदात्त, आत्मानुलक्षी एवं सर्वोच्च भावनाओं का स्मशान एकमात्र यही त्रिकोण है ! उक्त 'अविद्या त्रिकोण' को उसके वास्तविक Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या १८७ स्वरूप में देखने के लिए यथार्थदर्शी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसके बिना आत्मा की पूर्णता की ओर प्रयाण असंभव है । साथ ही पूर्णानन्द की अनुभूति भी अशक्य है । इसको जानने परखने के यथार्थ दृष्टिकोण ये हैं : - लक्ष्मी समुद्र-तरंग जैसी चपल है । - जीवन वायु के झोंके की तरह अस्थिर है ! . - शरीर बादल की भाँति क्षणभंगुर है । पूर्णिमा की सूहानी रात्रि में किसी समुद्र के शांत किनारे आसन जमाकर सागर की केलि-क्रीड़ा करती उत्ताल तरंगों में लक्ष्मी की चपलता के दर्शन कर उसकी लालसा को सदा के लिए तिलांजलि दे देना ! किसी पर्वतमाला की ऊंची चोटी पर चढकर दृष्टि अनंत आकाश की ओर स्थिरकर, सनसनाते वायु के झोंकों में जीवन की अस्थिरता का करूण संगीत श्रवण करना.... और तब जीवन की चाहना से निवृत्त होने का दृढ़ संकल्प कर लेना । वर्षाऋतु के मनोहर मौसम में वन-निकुंज में अड्डा जमा कर आकाश में प्रांखमिचौली खेलते बादलों में काया की क्षणभंगुरता की गंभीर ध्वनि सुन लेना । और काया की स्पृहा को तजने का मन ही मन निर्णय कर लेना ! परिणाम यह होगा कि अविद्या का अनादि आवरण विदीर्ण हो जायेगा और 'विद्या' को देदीप्यमान सौन्दर्य सोलह कलाओं से विकसित हो जायेगा। तब तुम इस दुष्ट 'त्रिकोण' से मुक्त हो जाओगे ! परिणाम यह होगा कि तुम सहज/स्वाधीन ज्ञानादि लक्ष्मी, आत्मा का स्वतंत्र अनंत जीवन और अक्षय आत्मद्रव्य की अगम/अगोचर सृष्टि में पहुँच जाओगे । जहाँ पूर्णानन्द और सच्चिदानन्द की सुखद अनुभूति होती है । लक्ष्मी, जीवन और शरीर-विषयक यह नूतन विचार-प्रणालि कैसी पालादक, अनुपम और अन्तःस्पर्शी है ! कैसा मदू आत्मसंवेदन और रोम-रोम को विकस्वर करने वाला मोहक स्पंदन पैदा होता है ! जीर्ण-शीर्ण प्राचीन-अनादिकालीन विचारधारा की विक्षुब्धता विवशता और विबेक-विकलता का तनिक मात्र स्पर्श नहीं ! कैसी सुखद परमानन्दमय अवस्था.... ! Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अर्थ : शुचीन्यप्यशुचीकर्तुं समर्थोऽशुचीसंभवे । देहे जलादिना शौचभ्रमो मूढस्य दारुणः ||४॥१०८॥ पवित्र पदार्थ को भी अपवित्र करने में समर्थ और अपवित्र पदार्थ से उत्पन्न हुए इस शरीर को पानी वगैरह से पवित्र करने की कल्पना दारुण भ्रम है । विवेचन : शरीरशुद्धि की तरफ झुके चाहिए कि शरीर की उत्पत्ति कैसे है और उसका मूल स्वभाव कैसा है । हुए मनुष्य को तनिक तो सोचना हुई है, वह कहां से उत्पन्न हुआ सुक्कं पिउरणो माउए सोणियं तदुभयं पि संस । तप्पढ़माए जीवो आहार तत्थ उप्पन्नो ॥ ज्ञानसार -भवभावना पिता का शुक्र और माता का रूधिर, इन दोनों के संसर्ग से शरीर की उत्पत्ति होती है । जीवात्मा वहाँ प्रवेश कर प्रथम बार शुक्र- रुधिर के पुद्गलों का आहार ग्रहण कर, शरीर का निर्माण करता है । यह हुई उसकी उत्पत्ति की बात । ―― भला, उस शरीर का स्वभाव कैसा है ? पवित्र को अपवित्र करने का, शुद्ध को अशुद्ध बनाने का, सुगंध को दुर्गंध में बदलने का और सुडौल को बेढ़ेगा बनाने का । तुम लाख कपूर, कस्तुरी और चंदन का विलेपन करो, शरीर उस विलेपन को अल्पावधि में ही अशुद्ध, अपवित्र और दुर्गंधमय बना देगा | गर्भ / शीतल फव्वारे के नीचे बैठकर सुगंधित साबुन मल-मलकर लाख स्नान कर लो, ऊँचे इत्र का उपयोग कर भले महका दो,.... लेकिन दो तीन घंटे बीते न बीते, शरीर अपने मूल स्वभाव पर गये बिना नहीं रहेगा । पसीने से तरबतर, मल से गंदा और नानाविध रोग-व्याधि से ग्रस्त बन जाते देर नहीं लगेगी । इस तरह शरीर को जल और मिट्टी से पवित्र बनाने की जीव की कल्पना न जाने कैसी भ्रामक और असंगत है ? शारीरिक पवित्रता को ही अपनी पवित्रता मानने की मान्यता कैसी हानिकारक है ? यह सोचना चाहिए । अतः शरीर को साध्य मानकर उसके साथ जो व्यवहार किया जाता है उस में आमूल परिवर्तन होना जरुरी है । लेकिन प्रवृत्ति के Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या १८६ परिवर्तन में वृत्ति का परिवर्तन पहले होना चाहिए । शरीर तो साधन है, ना कि साध्य । अतः शरीर के साथ सम्बन्ध सिर्फ एक साधन के रूप में ही होना चाहिए । ठीक वैसे व्यवहार भी साधन के रूप में ही होना चाहिए । मानव-शरीर मोक्षमार्ग की आराधना का सर्वोत्तम साधन है । अतः शरीर की एक-एक धातु, एक-एक इन्द्रिय और एक-एक स्पंदन का उपयोग मोक्षमार्ग की आराधना के लिए करना चाहिए । शरीर के माध्यम से आत्मा को पवित्र, शुद्ध और उज्जवल बनाना है । लेकिन खेद और आश्चर्य की बात तो यह है कि भ्रान्त मनुष्य आत्मा को ही साधन बनाकर शरीर को शुद्ध और पवित्र बनाने की चेष्टा करता है । उसे पवित्र बनाने हेतु वह ऐसे अजीबोगरीब उपायों का अवलम्बन करता है कि जिससे आत्मा अधिकाधिक कर्म-मलिन होती जाती है । साधन / साध्य का निर्णय करने में गफलत कर साध्य को साधन और साधन को साध्य मान लेता है । यह कभी न भूलें कि आत्मा साध्य है । अत: साध्य को जरा भी क्षति न पहुँचे इस तरह साधन के साथ व्यवहार रखना चाहिए । लेकिन अविद्या यह करने नहीं देती ! अविद्या के प्रभाव में रहा जीवात्मा शरीर के लिये एक प्रकार का ममत्म धारण कर लेता है । उसका सारा ध्यान, पूरा लक्ष शरीर ही होता है । वह हमेशा शरीर को पानी से नहलाएगा । उस पर जरा भी धब्बा न रह जाए इसकी खबरदारी बरतेगा । वह गंदा न हो जाए इसकी सावधानी रखेगा । यह सब करते हुए वह आत्मा को साफ करना तो भूल ही जाता है । उसे उसका ( श्रात्मा का ) तनिक भी खयाल नहीं रहता ! अरे भाई, कोयले को हजार बार दूध अथवा पानी से धोया जाए तो भी क्या वह सफेद होगा ? ठीक उसी तरह काया, जो पूर्णरूप से अपवित्र तत्वों से बनी है और दूसरे को अपवित्र बनाना ही जिस का मूल स्वभाव है, उसे तुम स्वच्छ, शुद्ध और पवित्र बनाने की लाख कोशिश करो,.... तुम्हारा हर प्रयत्न निष्फल होगा । यः स्नात्वा समताकुण्डे हित्वा कश्यलजं मलम् । पुनर्न याति मालिन्यं सोऽन्तरात्मा परः शुचिः ॥ ५॥ १०६ ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ज्ञानसार अर्थ : -जो समता रूपी कुड़ में स्नान कर पाप से उत्पन्न मल को दूर करती है, दुबारा मलिन नहीं बनती, ऐसी अन्तरात्मा विश्व में अत्यन्त पवित्र है। विवेचन : तो क्या तुम्हें स्नान करना ही है ? पवित्र बनना ही है ? आओ, तुम्हें स्नान करने का सुरम्य स्थान बताता हूँ, स्नान के लिए उपयुक्त जल बताता हूँ...। एकबार स्नान किया नहीं कि पुनः स्नान करने की इच्छा कभी नहीं होगी । इसकी आवश्यकता भी नहीं लगेगी। तुम ऐसे पवित्र बन जाओगे कि वह पवित्रता कालान्तर तक चिरस्थायी बन जाएगी। लो यह रहा समता का कुड ! यह उपशम के अथाह जल से भरा पड़ा है । इसमें प्रवेश कर तुम सर्वागीण स्नान करो । स्वच्छंद बनकर इसकी उत्ताल तरंगों के साथ जी भरकर केलि-क्रीडा करो । तुम्हारी आत्मा पर लगा हुआ पाप-पंक धुल जाएगा और आत्मा पवित्र बन जाते विलम्ब नहीं लगेगा । साथ ही समकित की परम पवित्रता प्राप्त होगी। * एकबार जिस आत्मा ने सम्यग्दर्शन की अमोध शक्ति पा ली, वह आत्मा कर्म के समरांगण में कभी पराजित नहीं होगी । ऐसी समकिती आत्मा कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति नहीं बांधती है । अंतःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति से ज्यादा स्थिति नहीं बांधती है । यह उसकी सहज पवित्रता है ।। मनुष्य को समता का स्नान करते रहना चाहिए । समता से समकित की उज्वलता मिलती है, जो स्वयं में ही आत्मा की उज्वलता और पवित्रता है । समतारस में निमज्जित आत्मा के तीन प्रकार के मल का नाश होता है । दृशां स्मरविषं शुष्येत्, क्रोधतापः क्षयं व्रजेत् । प्रौद्धत्यमलनाशः स्यात् समतामृतमज्जनात् ॥ -अध्यात्मसार दृष्टि में से विषय-वासना का जहर दूर होता है, क्रोध का आतप शांत हो जाता है और स्वच्छंदता की गंदगी धुल जाती है। बस, समता-कुण्ड में स्नान करने भर की देरी है । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या समता - कुंड की महिमा तुम क्या जानो ? वह कैसा चमत्कारिक और अलौकिक है ! तुम कैसी भी असाध्य व्याधि से ग्रस्त हो, भयंकर रोग से पीडित हो, उसमें स्नान कर लो । क्षरणार्ध में सब व्याधि और रोग दूर हो जायेंगे । तुम्हारा शरीर कंचन सा निरोगी बन जाएगा । जीवन में कैसे भी आंतरिक दोष हों, समता - कुंड में स्नान कर लो ! दोष कहीं नजर नहीं आयेंगे । जानते हो भरत चक्रवर्ती ने अपने जीबन में कौन सा दुष्कर तप किया था ? कौन सा बड़ा त्याग किया था ? किन महाव्रतों का पालन किया था ? कुछ भी नहीं ! फिर भी उन्होंने आत्मा के अनंत दोष क्षणार्ध में दूर कर दिये । जड - मूल से उखाड़ दिये । किस तरह ? सिर्फ समता - कुंड में स्नान करके ! पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने स्वरचित ग्रन्थ 'अध्यात्मसार' में इसका रहस्य अनूठी शैली में आलेखित किया है । श्राश्रित्य समतामेकां निवृत्ता भरतादयः । न हि कष्टमनुष्ठानमभूत्तेषां तु किंचन ।। १६१ बाह्य शरीर को पानी और मिट्टी से पवित्र करने का पागलपन दूर कर और समता - जल से ग्रात्मा को पवित्र बनाने का मार्गदर्शन कर, पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने न जाने कैसा महान् उपकार किया है ! समता द्वारा समकित की प्राप्ति होते ही समझ लेना चाहिए कि 'मैं पवित्र हो गया.... मैं पवित्र हूं ।' यदि यह भावना अहर्निश बनी रहे तो फिर. शरीरादि को पवित्र करने का विचार ही नहीं आएगा । जब हमारे मन में : 'मैं अपवित्र ह... गंदा !' भावना काम करती है, तब पवित्र बनने की प्रवृत्ति पैदा होती I समता को स्थिर बनाये रखने के लिए भूल कर भी कभी जीवों में कर्म - निर्मित वैविध्य का दर्शन नहीं करना चाहिए। जैसे-जैसे विशुद्ध आत्म-दर्शन दृढ़ होता जाता है, तैसे-तैसे समता की नींव दृढ़ और स्थिर बनती जाती है । समता का अनुपम सुख और आनन्द का अनुभव वही ले सकता है, जिसने उसे अपने जीवन में आत्मसात् की हो । शरीरादि पुद्गलों में अविरत आसक्त जीवात्मा भला, उसका वचनातीत सुख का क्या अनुभव कर सकेगा ? जिसके सिर पर शरीर को पवित्र बनाने की धुन सवार हो, वह भूलकर भी कभी समता के कुंड में निमज्जित हो कर अनुपम पवित्रता प्राप्त नहीं कर सकता । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ज्ञानसार आत्मबोधो नवः पाशो, देहगेहधनादिषु । यःक्षिप्तोऽनात्मना तेषु स्वस्य बन्धाय जायते ॥६॥११०॥ अर्थ : - शरीर, घर और धनादि में आत्मबुद्धि, यानी एक नये पाश का बंधन ! प्रात्मा द्वारा शरीरादि पर फेंका गया पाश, शरीर के लिए नहीं बल्कि आत्मबन्धन के लिए होता है । विवेचन : ★ शरीर * घर धन . * इन सब में आत्मबुद्धि यानी एक अभिनव...अलौकिक पाश! भले ही आत्मा शरीर, धन, घर आदि पर पाश फेंकती है, लेकिन उस पाश से खुद (आत्मा) ही बन्धन में बंधती है । जब कि वास्तविकता यह है कि जिस पर पाश डाला जाए वहीं बंधन में आना चाहिए । लेकिन यहाँ ठीक उसके विपरीत घटना घटित होती है । पाश डालने वाला स्वयं ही उसमें बंधता है । इसीलिए वह अलौकिक और अभिनव पाश है । 'मैं और मेरा'-इसी अविद्या से प्रात्मा बंधनयुक्त बनती है । इसे परिलक्षित कर पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने संसार के तीन तत्वों की ओर निर्देश किया है । शरीर में 'मैं' ! घर और धन में 'मेरा' ! यही 'मैं और मेरा' का अनादिकालीन अहंकार और ममकार (अविद्या), जीव को संसार की भुलभुलैया में भटका रहा है । कर्म के बंधनों में जकड़ रहा है । नरक-निगोद के दुःखों में सड़ा रहा है । दुःख-सुख के द्वंद्व में झुला रहा है । शरीर के प्रति 'मैं--पने की बुद्धि बहिरात्मभाव है । 'कायादि बहिरात्मा'-शरीर में आत्मीयता की बुद्धि बहिरात्म-दशा है । ऐसी अवस्था में प्रायः विषयलोलुपता और कषायों का कदाग्रह स्वच्छंदता से पनपता है । उक्त अवस्था के लक्षण हैं : तत्व के प्रति प्रश्रद्धा और गुरणों में प्रद्वेष । आत्मत्व का अज्ञान बहिरात्मभाव का द्योतक है । तभी पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'अध्यात्मसार' में कहा है : Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या विषयकषायावेशः तत्वाश्रद्धा गुणेषु द्वेषः । आत्माज्ज्ञानं च यदा बाह्यात्मा स्यात् तथा व्यक्तः ॥ . इस तरह शरीर में अहत्व की बद्धि रखनेवाला विषय-कषाय के आवेशवश अपनी ही आत्मा को कर्म-बन्धन में आबद्ध करता है । तत्त्व के प्रति श्रद्धा और गुरगों में द्वेषभाव बनाये रखती आत्मा को कर्मलिप्त करता है, जो खुद के दु:ख के लिए ही होता है। खद कर्म-बन्धन में जकड़ता जाता है। फिर भी उसे होश नहीं रहता कि 'मैं बन्धन में फंस रहा हूँ ।' यही तो आश्चर्यचकित करने वालो बात है। जब तक इसका अहसास न होगा, तब तक कर्म-बंधन असह्य नहीं लगेंगे । जब तक कर्म-बन्धन-प्रेरित त्रास और सीतम का अनुभव न हो, तब तक कर्मबन्धनों को तोड़ने का पुरुषार्थ नहीं होता । पुरुषार्थ में उत्साह, वेग और विजय का लक्षा नहीं होता । मोहमदिरा के जाम पर जाम चढ़ाकर नशे में धुत्त बहिरात्मा के सामने दर्पण धर दिया जाता है : “तू अपने आपको पहचान !" __ यदि उस दर्पण में ध्यानपूर्वक देखा जाए तो हम खुद को कैसे लगेंगे ? अनंतानंन कर्म-बन्धनों से जकड़े, श्रमित, निस्तेज, पराधीन, परतंत्र और सर्वस्व गँवाकर हारे हुए दर-दर के भिखारी से । घर और धन के प्रति ममता की बुद्धि, पराधीनता और परतंत्रता में वद्धि करती है। ज्ञानादि स्व-संपत्ति को देखने नहीं देती और बाह्य भाव के रंगमंच पर नानाविध नात्र नचाती है । 'अहं' और 'मम' के मार्ग पर गतिमान जीव की न जाने कैसी दुर्दशा होती है, इसे जानने के लिए भूतकालीन पुरुषों को ओर दृष्टिपात करना जरूरी है। सुभूम चक्रवती और ब्रह्मदत चनावों के दिल दहलाने वाले वृत्तान्तों को जानना अवश्यक है । भगवसम्राट कोणिक और वर्तमान में जर्मनी के भूतपूर्व तानाशाह हिटलर के करूण अन्त का इतिहास जानना परमावश्यक है ! 'सेंट हेलो' द्वीप पर जोवन-संध्या की अन्तिम किरणों में सांस लेते महाबली नेपोलियन की कहानी का जरा अवगाहन करो। अहंकार और ममकार के महा भयंकर. पाश की पाशविकता और क्रूरता · को जानकर, उस पाश से मुक्त होने का महान् पुरूषार्थ करना चाहिए । १३ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ज्ञानसार मिथोयुक्तपदार्थानामसंक्रमचमत्क्रिया। चिन्मात्रपरिणामेन विदुषवानुभूयते ॥७॥१०७॥ अर्थ :- प्रापस में परस्पर मिश्रित जीव-पुद्गलादि पदार्थों का भिन्नतारुप चमत्कार, ज्ञानमात्र परिणाम के द्वारा विद्वान पुरुष अनुभव करते हैं । विवेचन : जड-चेतन तत्त्वों का यह अनादि-अनंत विश्व है ! हर जड़-चेतन तत्त्व का अस्तित्व स्वतंत्र है । उसका स्वरुप भी स्वतंत्र है। लेकिन जड़ चेतन क्षीर-नीर की तरह एक-दूसरे में घुल-मिलकर रहे हुए हैं । उक्त तत्त्वों की भिन्नता मात्र ज्ञान-प्रकाश से देख सकते हैं । प्रधानतया पांच द्रव्य [जड-चेतन] इस विश्व में विद्यमान हैं : १ धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय ४ पुद्गलास्तिकाय और ५ जीवास्तिकाय । इन में आकाश द्रव्य आधार है और शेष चार द्रव्य प्राधेय हैं, यानी आकाश में स्थित हैं। फिर भी हरएक का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है, स्वरुप है, और कार्य है । एक द्रव्य का अस्तित्व भूल कर भी दूसरे में विलीन नहीं होता । ठीक वैसे ही एक द्रव्य का कार्य दूसरा द्रव्य कभी नहीं करता । भिन्नता का यह चमत्कार, मनुष्य बिना ज्ञान के देख नहीं पाता । प्रत्येक द्रव्य अपना अस्तित्व बनाये रखता है, अपने स्वरुप को निराबाध/अबाध रखता है और अपने-अपने कार्य में सदा मग्न रहना है। धर्मास्तिकाय -द्रव्य अरुपी है। उसका अस्तित्व अनादि-अनंतकाल हैं और उसका कार्य है जीव को गति करने में सहायता करने का । अर्थात् प्रत्येक जीव गति कर सकता है, उसके पीछे अदृश्य सहयोग/मदद 'धर्मास्तिकाय' नामक अरूपी, विश्वव्यापी और जड ऐसे द्रव्य की होती है । 'अधर्मास्तिकाय' स्थिति में सहायता देता है । अर्थात् जीव किसी एक स्थान पर स्थिर बैठ सकता है, खड़ा रह सकता है और शयन कर . सकता है, इसके पीछे अरुपी विश्वव्यापी और जड़ ऐसे 'अधर्मास्तिकाय' की मदद होती है ! 'प्राकाशास्तिकाय' का काम है अवकाश-स्थान देने का । जब कि 'पद्गलास्तिकाय' का कार्य तो सर्वविदित ही है ! • देखिए परिशिष्ट 'पंवास्तिकाय' Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या १९५ जो कुछ हमें दिखता है वह सब पुद्गलमय है । इन पांच द्रव्यों में सिर्फ पुद्गल ही रुपी है। हानि, वृद्धि और निरंतर परिवर्तन-यही पुद्गल का स्वरुप है । 'जीवास्तिकाय' का स्वरुप है चैतन्य । ज्ञानादि स्वपर्याय में रमणता उसका कार्य है । पुदगल द्रव्य में आत्मगुरगों का प्रवेश नहीं होता है । आत्मा में पुद्गल-गुरगों का प्रवेश नहीं होता । अर्थात् आत्मा के ज्ञानादि गुरण पुद्गल के गुरण कभी नहीं होते ! पद्गल का स्वभाव प्रात्मा का स्वभाव नहीं बन सकता ! इसो तरह हर द्रव्य के पर्याय भी स्वधर्म के परिणामरुप भिन्न-भिन्न हैं । हालांकि वे परस्पर इतने ओत-प्रोत होते हैं कि उनका भेद करना, वर्गीकरण करना अशक्य है । लेकिन ज्ञानी पुरुष अपने श्रुतज्ञान के माध्यम से उन्हें भलीभाँति जानते हैं और परख सकते हैं । सिद्धसेन दिवाकरजी ने अपने ग्रन्थ 'सम्मतितर्क' में कहा है : अन्नोन्नाणुरायाणं इमं तं च त्ति विभयणमसक्कं । जह दूद्धपाणियाणं जावंत विसेसपज्जाया ॥ 'दूध और पानी की तरह आपस में प्रोत-प्रोत,समरस बने जीव और पुद्गल के विशेष पर्याय में 'यह जीव है और यह पुद्गल है, ऐसा वर्गीकरण करना असंभव है । अत: उन दोनों के अविभक्त पर्यायों को समझना चाहिए !' इस तरह श्रुत-ज्ञान के माध्यम से जीव और पुदगल का भेद-ज्ञान यही 'विद्या' है। प्रविद्यातिमिरध्वंसे दृशा विद्याञ्जनस्पृशा । पश्यन्ति परमात्मानं आत्मान्येव हि योगिनः ॥८॥११२।। अर्थ -: योगीपुरूष, अज्ञान रूपी अंधकार का नाश होते ही विद्या-अंजन को स्पर्श करने वाली दृष्टि से आत्मा में ही परमात्मा को देखते हैं ! विवेचन :- अनादिकाल से चला आ रहा अविद्या का अंधकार नष्ट होते ही योगीजनों की दृष्टि में तत्त्वज्ञान के अंजन का दर्शन होता है। इस अंजन-अंचित दृष्टि से वह अंतरात्मा में दृष्टिपात करता है। तब उन्हें वहां किसके दर्शन होते हैं ? सच्चिदानन्दमय परमपिता परमेश्वर के! फलस्वरूप महायोगी सच्चिदानन्द की पूर्ण मस्ती में डोल उठता है, और जन्म-जन्मांतर के दुष्कर संघर्ष के पश्चात् प्राप्त अपूर्व, अद्भूत Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ज्ञानसार और कल्पनातीत सफलता से अभिभूत हो, उनका हृदय पूर्णानन्द से भर जाता है । वे पूर्णानन्दी बन जाते हैं । * अविद्या का नाश ! * तत्त्वदृष्टि का अंजन ! * अंतरात्मा में परमात्म-दर्शन ! परमात्म-दर्शन की पार्श्वभमि में दो प्रमुख बातें रही हुई हैं, जिनका प्रस्तुत अष्टक में समग्र-दृष्टि से विवेचन किया गया है । वह है, अविद्या का नाश और तत्वबुद्धि का अंजन ! अब हम गूगस्थानक के माध्यम से प्रस्तुत विकासक्रम का विचार कर ! अविद्या का अंधकार प्रथम गुणस्थानक पर होता है ! अंधकार से प्रावृत्त जीवात्मा 'वाह्यात्मा' कहलाती है । चतुर्थ गुरणस्थानक पर अविद्या के अंधकार का नाश होता है और 'तत्त्वबुद्धि' (विद्या) का उदय ! बारहवें गुरणस्थानक तक तत्त्वबुद्धि विकसित होती रहती है ! ऐसे तत्वबुद्धि-धारक जीवात्मा को 'अंतरात्मा' कही गयी है । जब कि यही 'अंतरात्मा' तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानक पर पहुंचकर परमात्मा का रुप धारण कर लेती है, परमात्मा बन जाती है । तब यह प्रश्न उपस्थित होगा कि भला, हम कैसे जान सकते हैं कि हम बाह्यात्मा हैं ? अंतरात्मा हैं ? अथवा परमात्मा है ? इसका उत्तर है: हम स्पष्ट रूप में जान सकते हैं कि हम क्या हैं । उसे जानने की पद्धति निम्नानुसार है : यदि हम में विषय और कषायों की प्रचरता है, तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा है, गुणों के प्रति द्वेष है और प्रात्मज्ञान नहीं है, तो समझ लेना चाहिए कि हम 'बाह्यात्मा' हैं । 卐 यदि हम में तत्त्वश्रद्धा जगी है, अणुव्रत-महावतों से जीवन संयमित है, कम-ज्यादा प्रमाण में मोह पर विजयश्री प्राप्त की है, विजयश्री पाने का पुरुषार्थ चालू है, तब समझ लेना चाहिए कि हम अंतरात्मा हैं और चतुर्थ गणस्थानक से लेकर बारहवें गणस्थानक तक कहीं न कहीं अवश्य हैं। 卐केवलज्ञान प्राप्त हो गया हो, योगनिरोध कर दिया हो, समग्र कर्मों का क्षय हो गया हो, सिद्ध शिला पर आरुढ़ हो गये हो, तब समझ * देखिए परिशिष्ट में : गुणस्थानक का स्वरूप Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्या लेना चाहिए कि हम 'परमात्मा' हैं । तेरहवें या चौदहवें गुणस्थानक पर अधिष्ठित हो गये हैं । मानसिक शांति के बिना यानी शोक, मद, मदन, मत्सर, कलह, कदाग्रह, विषाद, और वैरवृत्ति शांत हुए बिना अविद्या भस्मीभूत नहीं होती । मोहान्धता दूर नहीं होती । अतः मन को शांत करना चाहिए, तभी परमात्मदर्शन संभव है। परमात्मऽनुध्येयः सन्निहितो ध्यानतो भवति' ! --अध्यात्मसार संसार के सभी ग्राल-पंपाल को छोड़छाड़ कर, मन को शुभ मालम्बन में स्थिर कर, यदि ध्यान धरा जाय तो मन शांत होता है। शोकादि विकार उपशांत हो जाते हैं । तब आत्मा की ज्योति सहज प्रकाशित हो उठेगी। 'शान्ते मनसि ज्योतिः प्रकाशते शांतमात्मन: सहजम' आध्यात्मसारे Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. विवेक यहां संसार के व्यवहार में उपयोगी "विवेक" की बात नहीं है, बल्कि भेद-ज्ञान के विवेक की बात है । कर्म और जीव की जुदाई/भिन्नता का ज्ञान कराए वह विवेक । अनादिकाल से अविवेक के प्रगाढ़ अंधकार में खोये जीव को यदि विवेक का प्रकाश प्राप्त हो जाए तो उसका काम बन जाए ! परम विशुद्ध आत्मा में अशुद्धियाँ निहारना यह भी एक प्रकार से अविवेक ही है । विवेक के प्रखर प्रकाश में तो सिर्फ प्रात्मा की परम विशुद्ध अवस्था का ही दर्शन होता है । इसके अपूर्व प्रानंद का अनुभव करने के लिए प्रस्तुत अष्टक को ध्यानपूर्वक दो-तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिए, और उसका चिंतन-मनन करना चाहिए। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ विवेक कर्म जीवं च संश्लिष्टं सर्वदा क्षीरनीरवत् । विभिन्नीकुरुते योऽसौ मुनिहंसो विवेकवान् ॥१॥११३॥ अर्थ :- दूध और पानी की तरह ओत-प्रोत बने जीव और कर्म को जो मुनि रूपी राजहंस सदैव अलग करता है, वह विवेकवंत है । विवेचन : जीव और अजीव का जो भेद-ज्ञान, वह है विवेक । कर्म और जीव एक दूसरे में इस तरह प्रोत-प्रोत हैं, जिस तरह दूध और पानी ! प्राज ही नहीं बल्कि अनादिकाल से परस्पर प्रोतप्रोत हैं। उन्हें उनके लक्षण द्वारा भिन्न समझने का अर्थ ही विवेक है। क्योंकि अनादिकाल से आत्मा कर्म और जीव को अभिन्न मानती आयी है और उसी के फलस्वरूप अनंतकाल से संसार में भटकती रही है । उसका भव-भ्रमण तभी मिट सकता है जब वह जीव और अजीव का विवेक पाले । अहमिक्को खलु सुद्धो दंसरण-गारामइओ सदारूवी । गवि अस्थि मज्झ किञ्चि विअण्णं परमाणु मित्तवि ॥३८॥ -समयसार अविद्या से मुक्त आत्मा अपने आपको पुद्गल से भिन्न समझते हए : 'वास्तव में एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन-ज्ञानमय हूँ और निराकार हूँ ! दूसरा कोई परमाणु भी मेरा नहीं है ।' ऐसा सोचता है । जिस तरह किसी मनुष्य की मुद्री में सोने का सिक्का हो....लेकिन वह भूल गया हो कि उसकी मुट्ठी में सोने का सिक्का है और याद प्राते ही अचानक महसूस करता है कि उसकी मुट्ठी में सोने का सिक्का है। ठीक उसी तरह मनुष्य अनादिकालीन मोहरूपी अज्ञान की उन्मत्तता के वशीभूत हो कर अपने परमेश्वर स्वरूप आत्मा को भूल गया था ! लेकिन उसे भव-विरक्त सद्गुरु का समागम होते ही और उनके निरंतर उपदेश से सहसा अनुभव हुआ कि 'मैं तो चैतन्य-स्वरुप परम ज्योतिर्मय प्रात्मा हूँ...मेरे अपने अनुभव से मुझे लगता है कि मैं चिन्मात्र आकार की वजह से समस्त क्रम एवं अक्रम स्वरुप प्रवर्तमान व्यवहारिक भावों से भिन्न नहीं है ! अतः मैं एक हूँ-अकेला हूँ ! नर-नारकादि जीव के विशेष पर्याय अजीव, पुण्य, पाप, आस्व-संवर, निर्जरा बंध और मोक्ष, इन व्यवहारिक नौ तत्त्वों के ज्ञायक-स्वभावरुप भाव के कारण wonal Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ज्ञानसार अत्यंत भिन्न हूँ । इसीलिए मैं पूर्णतया विशुद्ध हूँ। मैं चिन्मात्र हूँ! सामान्य-विशेषात्मकता का अतिक्रमण नहीं करता । अतः दर्शन-ज्ञानमय हूँ ! स्पर्श, रस, गंध और वर्ण से मैं भिन्न होने की वजह से परमार्थ से सदा अरुपी हूँ। प्रात्मा के असाधारण लक्षणों से सर्वथा अज्ञात/अपरिचित अत्यंत विमूढ मनुष्य तात्त्विक आत्मा को समझ नहीं पाता और पर को ही आत्मा मान बैठता है ! कर्म को आत्मा मानता है ! कर्म-संयोग को आत्मा मान लेता है ! कर्म-जन्य अध्यवसायों को आत्मा मानता है । तब कर्मविपाक को ही आत्मा मान लेता है ! लेकिन यह सत्य भूल जाता है कि प्रस्तुत सभी भाव पुदगल-द्रव्य के परिणाम से निष्पन्न हैं, अतः उसे जीव कैसे कहा जाए ? श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है कि उक्त आठ प्रकार के कर्म पुद्गलमय हैं ! प्रविहं पि य कम्म सव्वं पुग्गलमयं जिरणा विति'। -समयसारे कर्म और कर्मजनित प्रभावों से प्रात्मा की भिन्नता जानने के लिए मुनि को हंसवत्ति का अनुसरण करना चाहिए। जिस तरह हंस दूध-पानी के मिश्रण में से सिर्फ दूध को ग्रहण कर पानी को छोड़ देता है, ठीक उसी तरह मुनि को भी कर्म-जीव के मिश्रण में से जीव को ग्रहण कर कर्म को छोड़ देना चाहिए । उसके लिए यह आवश्यक है कि, जीव के असाधारण लक्षणों को वह भली-भांति जान लें, अवगत कर लें, और तदनुसार जीव का श्रद्धान करें। इस तरह का विवेक जब मुनि में पनपता है, जागृत होता है, तब वह अपने आप में पूर्णानन्द का अनुभव करता है ! उसके रागादि दोषों का उपशम हो जाता है और चित्त प्रसन्न/प्रफुल्लित हो जाता है। देहात्माधविवेकोऽयं सर्वदा सुलभो भवे । भवकोट्यापि तभेद-विवेकस्त्वति दुर्लभः ॥२॥११४ अर्थ :- संसार में प्राय: शरीर और आत्मा वगैरह का अविवेक आसानी से प्राप्त हो सके वैसा है । लेकिन करोड़ों जन्मों के उपरांत भी उसका भेदज्ञान अत्यंत दुर्लभ है । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - विवेक २०१ विवेचन : इस संसार में रहे जीव, शरीर और आत्मा के अभेद की - वासना से वासित हैं और अभेद-वासना का अविवेक दुर्लभ नहीं, बल्कि सुलभ है । यदि कोई दुर्लभ है तो सिर्फ भेद-परिज्ञान ! लाखों-करोड़ों जन्मों के बावजूद भी भेद-ज्ञानरूपी विवेक सर्वथा दुर्लभ है ! सांसारिक जीव इस शाश्वत् सत्य से पूर्णतया अनभिज्ञ है कि शरीर से भिन्न ऐसा 'आत्मतत्त्व' नामक कोई तत्त्व भी है । वे तो आत्मा के - स्वतंत्र अस्तित्व तक को नहीं जानते, तब आत्मा का शुद्ध ज्ञानमय - स्वरुप जानने का प्रश्न ही कहां उठता है ? हर एक के लिए ग्रात्मा का स्वतंत्र अस्तित्व समझना और उसके प्रति पूरी श्रद्धा रखना कि 'मन से भिन्न, वचन से भिन्न और काया से भिन्न ऐसी चैतन्य स्वरूप • आत्मा है !' सुलभ नहीं है! कोई महात्मा ही ऐसे भेद - ज्ञान के जाता हो सकते हैं । सुपरिचिताणुभूता, सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा । एगत्तस्सुवलंभो वरिण सुलभो विभत्तस्स ||४|| —समयसार “काम भोग की कथा किसने नहीं सुनी ? कौन उससे परिचित • नहीं है ? किसके अनुभव में वह नहीं ग्रायी ? मतलब, काम-भोग की कथा सबने सुनी है, सब उससे परिचित हैं और सबने उस का अनु"भव किया है ! क्यों कि वह सर्वथा सुलभ है । जबकि शरीरादि से भिन्न आत्मा को एकता सुनने में नहीं आयी, उससे कोई परिचित नहीं है और ना ही उसका किसी ने अनुभव किया है, क्योंकि वह दुर्लभ है । असलियत यह है कि काम भोग की कथा तो असंख्य बार सुनी है, : हृदय में संजोकर जीवन में उसका जी भर कर अनुभव किया है । विश्वविजेता सम्राट मोह के राज्य में यही सुलभ और संभव था, जबकि दुर्लभ था सिर्फ भेद-ज्ञान ! विशुद्ध आत्मा के एकत्व का संगीत वहाँ कहीं सुनायी नहीं पड़ रहा था ! 1 भेद-ज्ञान के रहस्यों को जानने के लिए अंतरात्मदशा प्राप्त करना जरुरी है । उसके लिए पंचेन्द्रिय के विषयों के प्रति विरक्ति, उपेक्षाभाव और तत्संबंधित विषयों का त्याग करते रहना चाहिए | उसके . Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ज्ञानसार प्रति त्यागवत्ति का अवलम्बन करते रहना आवश्यक है। जब तक हमारे में विषयों के प्रति अनुराग रहेगा, तब तक हमारा मन बाह्य भावों से प्रोत-प्रोत रहेगा, वह आत्मा की ओर कभी उन्मूख नहीं होगा।' विषयों के त्याग के साथ ही कषायों का उपशम करना भी उतना ही अनिवार्य है । कषायों से संतप्त मन जड-चेतन का भेद समझने और अनुभव करने में पूर्णतया समर्थ नहीं होता । कषायों का आवेग जिस गति से क्षीण होता जाएगा, उसी गति से उसका (कषाय) ताप कम होता जाता है । कषाय-बंध शिथिल होते ही सहज ही तत्त्व की ओर आकर्षण बढ़ता है और श्रद्धा पैदा होती है । जीव-अजीवादि नौ तत्त्वों में निष्ठा और श्रद्धा बढ़ते ही विशेष रूप से जीवात्मा के स्वरूप के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है । परिणाम स्वरूप, जीव के क्षमादि गुणों के बारे में द्वेष भावना नहीं रहती और उससे जीवन उज्वल बनाने की तमन्ना पैदा होती है ! फलस्वरूप, प्रणवत एवं महाव्रतों को अंगीकार करने की तथा प्रासेवन करने की वृत्ति और प्रवृत्ति का प्राविर्भाव होता है । यह वृत्ति और प्रवृत्ति ज्यों-ज्यों बढती जाती है त्यों-त्यों मोह-वासना नष्ट प्रायः होती जाती है ! फलतः मोहजन्य प्रमाद की वृत्ति-प्रवृत्तियां नष्ट हो जाती हैं । ऐसा वातावरण निर्माण होने पर 'भेद-ज्ञान' करने की योग्यता प्राप्त होती है। भेद-ज्ञान की कथा प्रिय लगती है। भेद-ज्ञान की प्रेरणा और निरूपण करनेवाले सद्गुरूओं का समागम करने को जी चाहता है ! जो भेद-ज्ञानी नहीं है, उनके प्रति अद्वेष रहता है । इस तरह, उसे जब भेद-ज्ञान का अनुभव करने का प्रसंग पाता है, तब उसे एक अलभ्य वस्तु की प्राप्ति का अंतरंग आनंद होता है। अत: भेद-ज्ञान की वासना से वासित होने की जरूरत है। इससे मन के कई क्लेश और विक्षेप मिट जाएंगे। जीवन की अगणित समस्याएं क्षणार्ध में हल हो जाएँगी और अपूर्व प्रानन्द का अनुभव होगा।' शद्रऽपि व्योम्नि तिमिराद रेखाभिमिश्रता यथा । विकारैमिश्रता भाति तथाऽत्मन्यविवेकतः ॥३॥११॥ अर्थ : जिस तरह स्वच्छ आक श में भी तिमिर-रोग से नील पीतादि रेखाओं के कारण संमिश्रता दृष्टिगोचर होती हैं, ठीक उसी तरह प्रात्मा में अविवेकसे विकारों के कारण संमिश्रता प्रतित होती है। (प्राभासित होती है) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेक २०३ विवेचनः आकाश स्वच्छ और सुंदर है । लेकिन उसको देखनेवाले की आँखे तिमिर-रोग से ग्रसित होने के कारण उसे आकाश में लालपीली विविध प्रकार की रेखाए दिखायी पडती हैं और वह बोल उठता है: "आकाश कैसा चित्र-विचित्र लगता है।" __'निश्चयनय' से प्रात्मा निर्विकार, निर्मोह, वीतराग और चैतन्यस्वरूप है ! लेकिन उसे देखने वाले की दृष्टि में क्रोधादि विकारों का रोग है। अत: क्रोधादि विकारों से युक्त अविवेकी दृष्टि के कारण उसे काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सरादि रेखाएँ दिखायी देती हैं। और वह चीख पडता है, "देखो, जरा दृष्टिपात करो। आत्मा तो क्रोधी, कामी, विकारी और विषय-वासनाग्रस्त लगती है।' __इस तरह निश्चयनय हमें अपने मूलस्वरूप का वास्तविक दर्शन कराते हुए अनादिकाल से घर कर बैठी अपनी ही हीन भावना को उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित करता है। वाकई में हमने अपने आपको दीन-हीन, अपंग-अपाहिज और पराश्रित-पराजित समझ लिया है। जिस तरह किसी परदेशी-शासन के नशंस अत्याचार और दमनचक्र से प्रताड़ित, कुचली गयी देहाती जनता में दीनता, हीनता और पराधीनभाव देखने में आते हैं। मानों वे उसी स्थिति में जिदगी बसर करने में ही पूरा संतोष मानते हैं। लेकिन जब एकाध क्रांतिकारी उनमें पहुँचता है और उन्हें उनकी दारूण अवस्था का सही ज्ञान देता हुआ उत्तेजित स्वर में कहता है: "अरे कैसे तुम लोग हो ? तुम यह न समझो कि यही तुम्हारी वास्तविक जिन्दगी है और तुम्हारे कर्मों ने ऐसा जीवन बीताने का लिखा है ! तुम्हें भी एक नागरिक के रूप में पूरे अधिकार हैं। तुम भी आजाद बनकर अपनी जिंदगी बसर करने के पूरे हकदार हो। और वही तुम्हारा वास्तविक जीवन है। यह परदेशी शासन/राजसत्ता द्वारा तुम पर लादा गया जीवन है । अतः उसे उखाड़ फेंको और खुशहाल जीवन जीने के लिए तत्पर बनो....।" कर्मो की जुल्मी सत्ता के तले दबे-कूचले जानेवाले जीव, उन के द्वारा लादे गये स्वरूप को ही अपना वास्तविक स्वरूप समझ बैठे हैं। कर्मानुशासन को अपना अनुशासन मान लिया है। फलत: दीनता, हीनता और पराधीनता की भावना उसके रोम-रोम में बस गयी है । ऐसे में परम क्रांतिकारी परमात्मा जिनेश्वर भगवंत आह्वान करते हैं। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार २०४ “जीवात्माओं, यह तुम्हारा वास्तविक जीवन नहीं है । पूर्ण स्वतंत्र, स्वाधीन जीवन जीने का तुम्हारा पुरा अधिकार है । तुम अपने आप में शुद्ध हो, बुद्ध हो, निरंजन-निराकार हो। अक्षय और अव्यय हो, अजरामर हो...। तुम अपने मूल स्वरुप को समझो। कर्माधीनता के कारण उत्पन्न दीनता, हीनता और न्यूनता के बंधन तोड़ दो । तुम्हें पदपद पर जो रोग, शोक, जरा, और मृत्यु का दर्शन होता है, वह तो कर्म द्वारा तुम्हारी दृष्टि में किये गये विकार-अंजन के कारण होता है । तुम्हारी मृत्यु नहीं, तुम्हारा जन्म नहीं, तुम रोग-ग्रस्त नहीं, नाही कोइ दु:ख है। तुम अज्ञानी नहीं, मोहान्ध भी नहीं, साथ ही शरीरधारी नहीं ।" ऐसा आत्मज्ञान प्राप्त होते ही मुक्ति की मंजिल शनैः शनै: निकट पाती जाती है । आत्मज्ञानफलं ध्यानमात्मज्ञानं च मुक्तिदम् । आत्मज्ञानाय तन्नित्यं यत्नः कार्यो महात्मना ।। ---अध्यात्मसारे आत्मज्ञान हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए। सिर्फ प्रात्मा को जान लो। शेष कुछ जानने की आवश्यकता नहीं है। आत्मज्ञान के लिए ही नौ तत्त्वों का ज्ञान हासिल करना जरुरी है । जो प्रात्मा को न जान पाया, वह कुछ भी न जान पाया। कर्मजन्य विकृति को प्रात्मा में आरोपित कर ही अज्ञानी जीव भवसागर में प्रायः भटकते रहते हैं। अत: भेद-ज्ञान, आत्म-ज्ञान प्राप्त करना परमावश्यक है । यथा योधैः कृतं युद्ध स्वामिन्येवोपचर्यते । शुद्धात्मन्यविवेकेन कमस्कन्धोजित तथा ।।४॥ ११६।। अर्थ: जिस तरह योद्धायों द्वारा खेले गये युद्ध का श्रेय राजा को मिलता है, टीक उसी तरह अविवेक के कारण कर्मस्कन्ध का पुण्य-पाप रुप फल, शुद्ध आत्मा में आरोपित है । विवेचन : सैनिक युद्ध करते हैं और सैनिक ही जय-पराजय पाते हैं । लेकिन प्रजा यहो कहती है : "राजा की जय हुई अथवा पराजय हुई" अर्थात सैनिकों द्वारा प्राप्त विजय का श्रेय उनके राजा को मिलता है। उसी तरह सेना का पराजय भी राजा का पराजय कहा जाता है: Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवक २०५ इसी तरह कम-पुद्गल रुप पाप-पुण्य का उपचय-अपचय अविवेक करता है, फिर भी उसका उपचार शद्ध आत्मा में किया जाता है । अर्थात् 'पात्मा ने पुण्य किया और आत्मा ने पाप किया ।' कर्म-जन्य भावों का कर्ता आत्मा नहीं बल्कि प्रात्मा तो स्वभाव का कर्ता है। लेकिन आत्मा और कर्म परस्पर इस तरह प्रोत-प्रोत हो गये हैं कि कर्मजन्य भावों का कर्तुत्व प्रात्मा में भासित होता है। यही हमारी अज्ञानावस्था है, जो जीव के भवभ्रमण का कारण है। जन्मादिकोऽपि नियत: परिणामो हि कर्मणाम् । न च कर्म कृतो भेद : स्यादात्मन्यविकारिणि ।।१५।। आरोप्य केवल कर्म-कृतां विकृतिमात्मनि । भ्रमन्ति भ्रष्टविज्ञाना भीमे संसारसागरे ।।१६।। उपाधिभेदज भेद वेत्यज्ञः स्फटिके यथा । तथा कर्मकृत भेद-मात्मन्येवाभिमन्यते ।।१७।। -अध्यात्मसारे-आत्मनिश्चयाधिकारे "जन्म जरा मृत्यु आदि सब कर्मों का परिणाम है । वे कर्मजन्य भाव अविकारी आत्मा के नहीं है, फिर भी अधिकारी आत्मा में कर्मजन्य विकृति को प्रारोपित करनेवाले ज्ञानभ्रष्ट जीव भववन में भटकते रहते हैं। इस तरह कर्मजन्य विकृति को अविकारी आत्मा में प्रारोपित करनेवाले लोग स्फटिक रत्न को लाल-पीला समझने वालों को तरह अज्ञानो हैं। वे इस तथ्य से सर्वथा अनभिज्ञ होते हैं कि जिस स्फटिक को वे लाल-पीला समझते हैं वह तो उसके पीछे रहे लालपीले वस्त्र के कारण दिखायी पड़ता है। उसी तरह प्रात्मा में जो जन्मादि विकृति के दर्शन होते हैं, वह कर्मजन्य है, कर्मकृत है, ना कि प्रात्मा की है, लेकिन अज्ञानदशा इस तथ्य को समझने नहीं देती, बल्कि वह तो मिथ्या आरोप करके ही रहती है। आत्मा और कर्म भले ही एक आकाशक्षेत्र में रहते हों, लेकिन कर्म के गुण आत्मा में संक्रमण नहीं कर पाते। अात्मा अपने भव्य स्वभाव के कारण सदैव शुद्ध-विशुद्ध है । जिस तरह धर्मास्तिकाय है । अर्थात धर्मास्तिकाय भी आकाशक्षेत्र में ही है, फिर भी कर्मजन्य विकृति धर्मास्तिकाय में संक्रमण नहीं कर पाती! धर्मास्तिकाय अपने Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ शुद्ध स्वरूप में निर्बाध रहता है, उसी तरह आत्मा भी शुद्ध-विशुद्ध स्वरूप में रही हुई है । कर्मजन्य विकृतियों को आत्मा में आरोपित कर ही जीव रागद्वेष में सड़-गल रहा है, नारकीय यंत्रणाएँ सहु रहा है । दुःख में वह चीखता चिल्लाता है, विलाप करता है । सुख में आनंदित हो, नृत्य कर उठता है । तदुपरांत भी अपने को ज्ञानी और विवेकशील होने का मिथ्याडम्बर रचाता है । उसी तरह अन्य जीवों के प्रति भी वह इसी अज्ञान दृष्टि का अवलम्बन करता है । कर्मजन्य विकृति को आत्मा की विकृति मानता है । अपनी इसी समझ और मान्यता के आधार पर प्रायः वह आचरण करता है । फलतः उसका व्यवहार भी मलिन हो हो गया है । आजतक वह, कर्मजन्य विकृतियों को आत्मा में आरोपित कर निरंतर मिथ्यात्व को दृढ़ करता रहा है । लेकिन अब उसी मिथ्यात्व को नेस्तनाबूद करने के लिए भेद - ज्ञान की राह चलने की आवश्यकता है । आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की अत्यन्त आवश्यकता है । तभी हृदय शुद्ध होगा, दृष्टि पवित्र होगी और मोक्ष मार्ग सुगम बन जाएगा । सदा-सर्वदा अपने हृदय में निश्चयनय की दृष्टि को अखंड ज्योति की तरह ज्योतिर्मय रखने की नितान्त भावश्यकता है । प्रस्तुत उपदेश को हृदयस्थ कर तदनुसार कदम उठाना जरूरी है । इष्टकाद्यपि हि स्वर्ण पीतोन्मतो यथेक्षते । आत्माऽभेदभ्रमस्तद्वद् देहादावविवेकिनः ॥५॥११७ अर्थः ज्ञानसार जिस तरह जिसने धतूरे का रस पिया हो वह ईंट-पत्थर वगैरह को सोना देखता है, ठीक उसी तरह अविवेकी जड़मति को भी शरीरादि में आत्मा का भ्रम होता है । • विवेचनः धतूरे का पेय मनुष्य को दृष्टि में विपर्यास पैदा करता है । जो भी वह देखता है, उसे सर्वत्र सोना ही सोना दिखता है । अविद्या अविवेक का प्रभाव धतूरे के पेय से कम नहीं होता । शरीर इन्द्रिय.... मन.... आदि में वह आत्मा का अभेद मानता है... और उसे ही आत्मा समझ लेता है । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिनेक - २०७ पुनः पुनः जड़ तत्त्वों से आत्मा की भिन्नता समझाने के लिए बनेकविध दृष्टांतों का आधार लिया जाता है, प्रात्मा के गुण अलग हैं और जड़-पुद्गल के अलग | जड़-पुद्गल मूर्त हैं, रूपी हैं जबकि आत्मा 'पूर्णतया अरुपी/निराकारी है। व्यवहारनय भले ही शरीर के साथ श्रात्मा के एकत्व को मान्य करता हो, लेकिन निश्चयनय को यह मान्य नहीं है। वह शरीर के साथ आत्मा की एकता मान्य नहीं करता । तन्निश्चयो न सहते यदमूर्तो न मूर्तताम् । अंशेनाप्यवगाहेत पावकः शीततामिव ॥३५॥ उष्णस्याग्नेर्यथा योगाद् घृतमुष्णमिति भ्रमः । तथा मूर्ताङ्गसंबन्धादात्मा मूर्त इति भ्रमः ॥३६॥ न रुपं न रसो गन्धो न स्पर्शों न चाकृतिः । यस्य धमों न शब्दो व। तस्य का नाम मूर्तता ॥३७॥ अमूर्त आत्मा क्या अमुक अंश में भी मूर्तता धारण करता है? क्या अग्नि अंशमात्र भी शीतलता धारण करती है ? आत्मा में मूर्तता की निरी भ्रमरणा है। जिस तरह उष्ण अग्नि के कारण 'घी उष्ण है' का भ्रम होता है, ठीक उसी तरह मूर्त शरीर के संयोग से 'पात्मा मूर्त है' का भ्रम मात्र होता है । जिसका धर्म रूप नहीं, रस नहीं, गंव नहीं, स्पर्श नहीं, प्राकृति नहीं, ना ही शब्द है...'ऐसी आत्मा भला, मूर्त कैसी और किस तरह ? रुप, रस, गंध, स्पर्श, प्राकृति और शब्दये सब जड़ के गुणधर्म हैं, ना कि आत्मा के। तब भला, शरीरादि पुद्गल में आत्मा की एकता कैसे मान ले? वास्तव में प्रात्मा तो सच्चिदानन्द स्वरुप है। उसे मूर्तता स्पर्श तक नहीं कर सकती। इन्दियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मन : । मनसोऽपि परा बुद्धिो बुद्धः परतस्तु सः । "इन्द्रियों" को 'पर-अन्य' कही जाती हैं, इंद्रियों से मन 'पर' है, मन से बुद्धि "पर" है और बुद्धि से आत्मा 'पर' है। ऐसी अमूर्त मात्मा में मूर्तता आरोपित कर, अज्ञानी मनुष्य भव-भ्रमसा में भटक जाता है। । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ज्ञानसार पुद्गल द्रव्य का धर्म मूर्तता है और आत्मा का गुण ज्ञान है । अत: पुद्गलों से प्रात्म-द्रव्य भिन्न है ।। वास्तिकाय का धर्म गतिहेतुता है और प्रात्मा का गुण ज्ञान है, अतः धर्मास्तिकाय से प्रात्मद्रव्य भिन्न है। अधर्मास्तिकाय का धर्म स्थितिहेतुता है और आत्मा का गुण ज्ञान है । अत: अधर्मास्तिकाय से प्रात्म-द्रव्य भिन्न है ) आकाशास्तिकाय का धर्म 'अवकाश' है और आत्मा का गुण ज्ञान है । अत: आकाशास्तिकाय से भी आत्म-द्रव्य भिन्न है । ___ इन्द्रिय, बल, श्वासोश्वास, अायुष्यादि द्रव्य-प्राण पुद्गल के ही पर्याय हैं और आत्मा से बिलकुल भिन्न हैं। अत: द्रव्य-प्रारण में आत्मा को भ्रांति वर्जनीय है। आत्मा द्रव्य-प्रारण के बिना भी जिदा है जीवित है। जीवो जोवति न प्राणौर्वि ना तैरेव जीवति । इस तरह शरीरादि पुदगल-द्रव्यों में आत्मा की भेदबुद्धि विवेकशोल को होनी चाहिए, यही परमार्थ है । इच्छन न परमान् भावान विवेकाने: पतत्यधः । परम भावमन्विच्छन् नाविवेके निमज्जति ॥६॥११॥ अर्थः परमोच्च भावों की इच्छा न रखने वाला जीव विवेक रुपी पर्वत से नीचे गिर जाता है, और परम भाव को खोजनेवाला अविवेक में कभी निमग्न नहीं होता । विवेचन: शुद्ध चैतन्यभाव...सर्व विशुद्ध प्रात्मभाव का अन्वेषण जीव को विवेक की सर्वोच्च चोटी पर पहुँचा देता है। जब कि शुद्ध चैतन्यभाव की उपेक्षा, विवेक के हिमगिरि पर से जीव को गहरी खाई में पटक देती है। जहां अविवेक रुपी पशुओं के राक्षसी जबड़े में वह चबा जाता है। विवेक-गिरिराज का शिखर है अप्रमत्तभाव । गिरिराज के शिखर पर अप्रमत्त आत्मा को दुर्लभ सिद्धियों की, लब्धियों की प्राप्ति होती है, लेकिन विशुद्ध प्रात्मभावयुक्त जीव उन सिद्धियों और लब्धियों के प्रति उदासीन होता है। वह पूर्णतया अनासक्त होता है। . . बाचकवरश्री उमास्वातिजी ने कहा है : Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.९ विवेक सातिरसेष्वगुरूः प्रायद्धिविभूतिमसुलभामन्यैः । . . सक्तः प्रशमरतिसुखे न भजति तस्यां मुनि: संगम् ।।२५६।। या सर्वसुखर्राद्धः विस्मयनीयापि सात्वनगारद्धेः । नाति सहस्त्रभार्ग कोटिशतसहस्त्रगुणिताऽपि ॥२५७॥ -प्रशमरति "विश्व में अन्य जीवों को दुर्लभ वैसी ऋद्धि-लब्धि की विभूति पाकर और रस-ऋद्धि-शाता-गारव-रहित अरणगार भूलकर भी कभी उक्त लब्धि के सुख में आसक्तिभाव नहीं रखता । वह तो प्रशमरति के सुख में निमग्न होता है।" ___ "समस्त देवताओं की अद्भुत समृद्धि की गणना असंख्य बार की जाय फिर भी उसकी तुलना मुनि की आध्यात्मिक-संपत्ति के हजारवें भाग के साथ भी नहीं की जा सकती।" विवेक-भेदज्ञान की गरिमामय पर्वतमालाओं पर अनुपम सुख बिखरा पड़ा है और अनुत्तर आत्म-समृद्धि के अक्षय भंडार भरे पड़े हैं। लेकिन इस पर्वतमाला पर आरोहण करने के पूर्व जीव को कतिपय महत्व की बातें ध्यान में रखना अत्यंत आवश्यक है। १ धर्म-ध्यान में निमग्नता, ६. तृण-मणि के प्रति समष्टि २. भवोद्वेग १०. स्वाध्याय-ध्यानपरायणता, ३. क्षमाप्रधानता, ११. दृढ अप्रमत्तता, ४. निरभिमान, १२. अध्यवसाय-विशुद्धि, ५. मायारहित निर्मलता, १३. वृद्धिंगत विशुद्धि, ६. तृष्णाविजय, १४. श्रेष्ठ चारित्रशुद्धि, ७. शत्रु-मित्र के प्रति समभाव, १५. लेश्या-विशुद्धि, ८. आत्माराम, तभी 'अपूर्वकरण" रूपी शिखर पर पहुँचा जा सकता है। मन में किया गया ऐसा दृढ संकल्प कि 'मुझे विवेक-गिरिराज पर आरोहण करना है,' उपयुक्त पन्द्रह बातों को प्रात्मसात् करने की अनन्य शक्ति प्रदान करता है। साथ ही शिखर पर पहुँचने के पश्चात् भी भेद-ज्ञान के १४ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ज्ञानसार अप्रमत्त भाव को जागृत रखना होता है। यदि वहाँ प्रमाद का अवरोध उपस्थित हो जाए, शुद्ध चैतन्यभाव से तनिक भी विचलित हो जाए, तब पतन हुए बिना नहीं रहेगा। भेद-ज्ञान की इसी सर्वोत्कृष्ट भूमिका पर विपुल प्रमाण में कर्मक्षय होता है। प्रात्मा स्व-स्वभाव में अपूर्व सचिदानन्द का अनुभव करती है, साथ ही प्रशम-रति में केलि-क्रीड़ा करती है। मात्मन्येवात्मनः कुर्यात् य: षटकारकसंगतिम् । क्वाविवेकज्वरस्यास्य, वैषम्यं जडमज्जनात् ।।७।।११३।। अर्थ : जो प्रात्मा आत्मा में ही छह कारक का सम्बन्ध प्रस्थापित करती __ है, उसे भला जड़-पुदगल में निमग्न होने से उत्पन्न अविवेक रूपी ज्वर की विषमता कैसे संभव है ? विवेचन : व्याकरण की दृष्टि से कारक के छह प्रकार होते हैं : (१) कर्ता (२) कर्म (३) करण (४) संप्रदान (५) अपादान (६) आधार-अधिकरण जगत में विद्यमान सब सम्बंधों का समावेश प्रायः इन छह कारकों में हो जाता है। उक्त छह कारक का सम्बंध आत्मा के साथ जोड़ देने से एक आत्माद्वैत की दुनिया का सर्जन होता है । जिस में आत्मा कर्ता है और कर्म भी आत्मा ही है। कारण रूप से आत्मा का दर्शन होता है और संप्रदान के रूप में भी प्रास्मा का ही दर्शन होता है ! अपादान में भी प्रात्मा निहित है और अधिकरण में भी प्रात्मा ! इस तरह आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी का प्रतिभास नहीं होता । जहाँ देखो वहाँ आत्मा ! तब कैसी आत्मनन्द से परिपूर्ण अवस्था होती है ? पुद्गलों के साथ रहे संबंधो से अविवेक पैदा होता है, जो आत्मा में एक प्रकार की विषमता का सर्जन करता है । लेकिन 'मलं नास्ति कतः शाखा ?' पुद्गल के साथ रहा संबंध ही तोड़ दिया जाए, तब अविवेक का प्रश्न ही नहीं उठता और विषमता पैदा होने का अवसर ही नहीं आता। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेक : ___ * आत्मा स्वतंत्र रूप से ज्ञान-दर्शन में केलि-क्रीड़ा करती है ! जानने-समझने और देखने-परखने का काम करती है ! अतः स्वयं आत्मा 'कर्ता' है। * ज्ञानसहित परिणाम का आत्मा आश्रय-स्थान है । अतः आत्मा 'कर्म' है। * उपभोग के माध्यम से ज्ञप्तिक्रिया (जानने की क्रिया) में उपकारक होती है ! अतः आत्मा ही 'करण' है ।। ___* प्रात्मा स्वयं ही शुभ परिणाम का दानपात्र है ! अतः आत्मा 'संप्रदान' है। वही ज्ञानादि पर्यायों में पूर्व पर्यायों के विनष्ट होने से और आत्मा से उसका वियोग हो जाने के कारण, आत्मा ही 'अपादान' है। * समस्त गुण-पर्यायों के आश्रयभूत प्रात्मा के असंख्य प्रदेश रूपी क्षेत्र होने की वजह से प्रात्मा ही 'अधिकरण' है। आत्मचिंतन की ऐसी अनमोल दृष्टि खोल दी गयी है, कि जिस में आत्मा प्रात्मा के ही प्रदेश में निश्चित होकर परिभ्रमण करती रहे । जड-पुद्गलों के साथ का सम्बंध विच्छिन्न हो जाए और आत्मा के साथ अटूट बन्धन में जुड़ जाए। कर्तृत्व आत्मपरिणाम का दिखायी दे और कार्य आत्म-गुणों की निष्पत्ति का ! सहायक भी आत्मा और संयोग-वियोग भी आत्मा के पर्यायों में दिखायी दे । साथ ही सब का आधार भी आत्मा ही लगे ! बस, इसका ही नाम है विवेक । जब तक इस विवेक का अभाव होता है तब तक जड़-पुद्गलों के कर्ता के रुप में आत्मा का भास होता है । कार्यरुप जड़-पुद्गल दिखायी देते हैं। करणरुप जड़-इन्द्रियां और मन, एवं संप्रदान, अपादान, अधिकरण के रूप में भी जड-पद्गल ही दिखायी देते हैं। आत्मा और पुद्गलों के अभेद की कल्पना पर ही समस्त संबंधों को कायम किए जाते हैं । अतः सारी दुनिया विषमताओं से परिपूर्ण नजर आती है । विषमताओं से परिपूर्ण विश्व को देखनेवाला भी विषमता से घिर जाता है । जड़-चेतन के अभेद का अविवेक अनन्त यातनाओं से युक्त संसार में जीव को गुमराह और भटकते रहने के लिए प्रेरित कर देता है । तात्पर्य यह है कि जगत में जो नाते-रिश्ते होते हैं, उन सब का मात्मा के साथ विनियोग कर देना चाहिए । आत्मा, आत्मगुण और Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ज्ञानसार. आत्मा के पर्यायों की सृष्टि में, उनमें परस्पर रहे सम्बन्ध और रिश्तों को भली-भांति समझना चाहिये ! तभी भेद-ज्ञान अधिकाधिक दृढ होता है। संयमास्त्रं विवेकेन शाणोनोत्तेजितं मनः । धतिधारोल्बणं कर्मशत्रुच्छेदक्षमं भवेत् ॥८॥१२०॥ अर्थ :- विवेकरुपी सान पर अत्यंत तीक्षण किया हुआ और संतोष रूपी धार से उग्र, मुनि का संयमरूपी शस्य, कर्मरूपी शत्रु का नाश करने में समर्थ होता है । विवेचन : कर्म-शत्रु के उच्छेदन हेतु शस्त्र चाहिए ना ? वह शस्त्र तीक्षण/नुकीला होना चाहिए । शस्त्र की धार को तीक्ष्ण करने के लिए सान भी जरुरी है । यहां शस्त्र और सान, दोनों बताए गए हैं । .. संयम के शस्त्र की संतोषरुपी धार को विवेकरुपी सान पर तीक्ष्ण करो । तीक्ष्ण धारवाले शस्त्रास्त्रों से सज्ज होकर शत्रु पर टूट पड़ो और उसका उच्छेदन कर विजयश्री हासिल कर लो । कर्म-क्षय करने हेतु यहां तोन बातों का निर्देश किया गया है : * संयम * संतोष विवेक यदि संयम के शस्त्र को भेद-ज्ञान से तीक्ष्ण बनाया जाय तो कर्मशत्रु का विनाश करने में वह समर्थ सिद्ध होगा । परम संयमी महात्मा खंधक मुनि के समक्ष जब चमड़ी छिलवाने का प्रसंग पाया, तब मुनिराज ने अपूर्व धैर्य धारण कर संयमशस्त्र की तिधार को विवेक रुपी सान पर चढ़ा दिया । राजसेवक बड़ी करता से मूनि की चमडी छिलने लगे और इधर वे मुनि स्वयं संयम-शस्त्र से कर्म की खाल उतारने में तल्लीन हो गए । अर्थात् शरीर और आत्मा के भेदज्ञान की परिणति ने मरणांत उपसर्ग में भी धृति को बराबर टिकाये रख, सयम-वृत्ति को अभंग रखा । फलत: क्षणार्ध में ही अनंत कर्मों का क्षय हो गया और आत्मा पुद्गल-नियंत्रणों से मुक्त हो गयी । शरीर पर की चमड़ी उतरती हो, असह्य वेदना और कष्ट होता हो, खून के फव्वारे फूट रहे हो, फिर भी जरा सी हलचल नहीं, कतई असंयम नहीं, तनिक भी अधृति की भावना नहीं ! यह कैसे Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेक २१३ संभव है ? इतनी सहनशीलता, धैर्य और दृढ़ मन ! इसके पीछे कैसी अद्भुत शक्ति काम कर रही होगी ? कौन सा रहस्य छिपा होगा ? यह प्रश्न उठना साहजिक है। जानते हो वह अद्भुत शक्ति और रहस्य क्या था ? वह था भेदज्ञान ! अपूर्व विवेक-शक्ति ।। शरीर से आत्मा की भिन्नता इस तरह समझ में आ जानी चाहिये ओर फलस्वरुप उसकी वासना इस तरह बन जानी चाहिए कि शरीर की वेदना, पीड़ा, व्याधि, रोगादि विकृतियाँ हमारे धति-भाव को विचलित करने में समर्थ न हों ! हमें संयमभाव से जरा भी चलित न कर सके। भले ही फिर हम पर तलवार का वार हो या छरे का प्रहार हो । चाहे कोई 'स्टेनगन' की गोलियों से शरीर को छलनी-छलनी कर दें। शरीर....प्रात्मा के भेद-ज्ञान की भावना अगर जागृत हो गयी है तो फिर हम में अधृति और असंयम की भावना कतई पैदा नहीं होगी। झांझरिया मुनिवर पर तलवार का प्रहार किया गया, खंधकसूरिजी के पांच सौ शिष्यों को कोल्हू में पीला गया, गजसुकुमाल मुनि के सिर पर अंगारों से भरा मिट्टी का पात्र रखा गया, अरे ! अयवंती-सुकुमार मुनिवर के शरीर को सियारनी ने फाड़ खाया, फिर भी इन महात्माओं ने इसका किंचित भी विरोध या प्रतिकार न किया, बल्कि अद्भुत धैर्य, स्थिरता, अप्रमत्तता का परिचय देते हुए, धर्मध्यान और शुक्लध्यान में लीन रहे, मोक्ष-मार्ग की अंतिम मंजिल पार कर गये । इन सब घटनाओं के पीछे कोई अदृष्य शक्ति अथवा रहस्य है, तो वही भेद-ज्ञान और विवेक है । यदि भेदज्ञान का अभ्यास, चिंतन, मनन और प्रयोग जीवन में निरंतर चालु रहेगा, तभी मृत्यु के समय वह ( भेदज्ञान ) हमारी रक्षा करेगा ! भेदज्ञान केवल बातों में न हो, व्यवहार में भी होना आवश्यक है । सतत चितन और मनन द्वारा उसे आत्मसात करना चाहिये । फलस्वरुप, जीवन के विविध प्रसंगों में शारीरिक-आर्थिक-पारिवारिक संकट काल में वह हमारी सुरक्षा करेगा । हमारी धृति और संयम को तीक्ष्ण शस्त्र का रुप प्रदान कर अनंतानंत कर्मों का क्षय करेगा। जीव मात्र को ऐसे भेद-ज्ञान का शाश्वत विवेक प्राप्त हो ...। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. मध्यस्थता. तुम किसी एक विचारधारा के प्राग्रही मत बनो । बल्कि मध्यस्थ बनो। कुतर्क और कुविचारों का सर्वथा त्याग करो । यह तभी संभव है, जब तुम्हारी राग-द्वेषयुक्त वृत्ति शिथिल हो गयी हो, और तुम अंतरात्म-भाव में आकंठ डूब गये हो, पूरी तरह निमग्न हो गये हो! 'विभिन्ना अपि पन्थानः समुद्रं सरितामिव ग्रन्थकार महर्षि ने कैसी उत्कृष्ट बात कही है ! नदियाँ भले ही विविध मार्गों से, प्रदेशों से प्रवाहित होती हों, लेकिन अंत में समुद्र में ही जाकर मिलती हैं। ठीक उसी तरह, संसार में रहे मध्यस्थ पुरूषों के मार्ग भले ही अलग-अलग हों, लेकिन आखिरकार वह सब अक्षय परमात्म-स्वरूप में विलीन हो जाते हैं। मध्यस्थ-भाव को पाने के लिए इन पाठ श्लोकों का बार-बार मंथन करना आवश्यक है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यस्थता २१५ स्थीयतामनुपालम्भं मध्यस्थेनान्तरात्मना । कुतर्ककर्करक्षेपस्त्यज्यतां बालचापलम् ॥१॥१२१ अर्थ :- शुद्ध प्रान्तरिक परिणाम से मध्यस्थ हो कर, उपालंभ नहीं आये इस तरह रहो। कुतर्करूप कंकर फेंकनेरूप बाल्यावस्था की चंचलता का त्याग करो। विवेचन : प्रात्मस्वभाव में निमग्न रहना, न किसी के प्रति राग, ना हि द्वेष, यही मध्यस्थता है । इस तरह मध्यस्थता की अधिकारी हमारी अंतरात्मा बने, यह पूर्ण सौभाग्य की बात है। सचमुच, जीवन का वास्तविक आनन्द हर्षोल्लास इसी मध्यस्थ-दृष्टि में समाया हुआ है। जड़-चेतन द्रव्यों के प्रति राग-द्वेष करने से और विकृत आनंद से मन बहिर्मुख बनता है, भवाभिनंदी बनता है। तदुपरान्त राग-द्वेषयुक्त बाह्यात्मा अपने कुत्सित कार्यों को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए बालसुलभ क्रीड़ा की तरह कुतर्क का आधार लेता है । फलस्वरूप ऐसे जीवों को नानाविध उलाहनाओं का सामना करना पड़ता है। लोकनिंदा का भोग बनना पड़ता है..! मध्यस्थता को सिद्ध करने के लिए निम्नांकित बातों का पालन करना पड़ता है : • राग और द्वेष का त्याग, • अंतरात्म-भाव की साधना, • कुतर्क का त्याग इन तीन बातों को जीवन में आत्मसात् करनी चाहिए ! रागद्वेष के परित्याग हेतु हमें उन को पूर्वभूमिका का समुचित मूल्यांकन कर विचार करना चाहिए। प्राकृत मनुष्य में राग-द्वेष की जो प्रचरता दिखायी देती है, उसके पोछे दो तत्त्व काम कर रहे हैं : सुखासक्ति और भोगोपभोग की प्रवृत्ति । जब उसे सुख मिलता है और वासना-पूर्ति यथेष्ट मात्रा में होती है, तब वह रागी बनता है । लेकिन जब सुख नहीं मिलता और वासनापूर्ति नहीं होती तब वह द्वेषी बनता है। ऐसी हालत में जड़-चेतन दोनों के प्रति उस के मन में असीम राग और अनहद द्वेष निरंतर उफनता रहता है । इस तरह रागी और द्वेषी-ऐसा प्राकृत मनुष्य सुख . Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ज्ञानसार संपदा और काम-वासना का पक्षपाती बनता है और उसके वशीभूत होकर नाना प्रकार के निंदनीय कार्य करता भटकता रहता है ! तटस्थ पुरुष इन्द्रिय-जन्य सूखों के प्रति विरक्त और भोगोपभोग वृत्ति से विमुख होता है । वह सुख-भोग का कभी पक्षधर नहीं होता! फलतः वह सुख-भोगजन्य राग-द्वेष से सर्वथा पर होता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह पूर्णरूप से राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है । विरक्त बन जाने के बावजूद भी उसमें रहे असत् तत्वों के प्रति अनुराग और सत् तत्त्वों के प्रति द्वेष, उसे तटस्थ नहीं होने देते। अत. असत् तत्त्व को सत् और सत् तत्त्व को असत् सिद्ध करने के लिए रात-दिन प्रयत्न करता रहता है । इसके लिए वह कुतर्क और दलीलों का आश्रय लेता है । तब फिर तटस्थता कैसी ? ____ क्या जमालि में सुख के प्रति विरक्ति और काम-वासना के प्रति उदासीनता नहीं थी ? अवश्य थी, लेकिन फिर भी वह राग-द्वेष से अलिप्त न रह सका । क्यों कि वह असत् तत्त्वों के प्रति राग और सत् तत्त्वों के प्रति द्वेष से उपर न उठ सका । उसे न जाने कितने लोगों के उपालम्भ और लोक-निंदा का भोग बनना पड़ा ! खुद भगवान महावीर का उलाहना भी उसको सुनना पड़ा । जीवन-संगिनी आर्या प्रियदर्शना ने उसका त्याग किया । हजारों शिष्यों ने उसे छोड दिया ! अरे, उसे सरे-पाम अपमान, घृणा और बदनामी झेलनी पड़ी ! फिर भी वह तटस्थ न बन सका सो न बन सका ! असत् तत्त्व को सत् । सिद्ध करने के लिए उसने असंख्य कंकर उछाले, यहाँ तक कि उसकी वर्षा हो कर दी और दीर्घ काल तक असत् तत्वों का कट्टर पक्षधर बना रहा ! जबकि कुम्भकार-श्रावक ढक के कारण प्रार्या प्रियदर्शना तटस्थता प्राप्त कर गयी ! उसने कुतर्क का त्याग किया ! महावीर देव के पास पहँच गयी और संयमाराधना करती हुई, राग-द्वेष से मुक्त हो परम मध्यस्थ भाव में स्थिर हो गयी ! . इसीलिए कहा गया है कि जब तक कर्मजन्य भावों के प्रति तीव्र आसक्ति है, तब तक तटस्थता कोसों दूर है । अपनी आत्मा के स्वाभाविक गुणों में रमणता/निमग्नता यही वास्तविक मध्यस्थता है । स्वभाव का Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यस्थता २१७ परित्याग यही सब से बड़ा उपालम्भ ! उलाहना है । इन सब बातों का तात्पर्य यह है कि राग-द्वेष से परे रहने के लिए कुतर्क का त्याग करना चाहिए ! मनोवत्सो युक्तिगवों मध्यस्थस्यानुधावति ! तामाकर्षति पुच्छेन तुच्छाग्रहमन:कपिः ।।२। १२२।। अर्थ : मध्यस्य पुरुष का मन रुपी बछड़ा युक्तिरुपी गाय के पीछे दौडता है, जबकि दीन-हीन वृति वाले पुरुष का मनरूपी बंदर युक्ति रुपी गाय की पूछ पकड कर पीछे खिचता है ! विवेचन :मध्यस्थ पुरुष का मन बछड़ा है, और युक्ति गाय है ! बछड़ा गाय के पीछे दौडता है । मिथ्याग्रही पुरुष का मन बंदर जैसा है । वह हमेशा युक्तिरूपी गाय की पूंछ पकड कर उसे पीछे खिंचता है । ___ मध्यस्थ-वृत्तिवाला व्यक्ति नित्यप्रति युक्ति की ओर आकर्षित होता है, जब कि दुराग्रही उसे (युक्ति को) अपनी ओर खिंचता है। अपनी मान्यता, विचार-धारा की ओर युक्ति को जोड़-तोड़ कर मोड़ देता है । श्री हारिभद्री-अष्टक में कहा गया है : 'आग्रही बत निनीषति युक्तिं तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम्।। "आग्रही पुरुष की जैसी अपनी समझ, बुद्धि (मति) होती है, वह युक्ति को उसी और मोड़ लेता है । यह उसका लक्षण है, जब कि पक्षपातरहित व्यक्ति जहाँ युक्ति होगी, उस ओर बुद्धि को मोड़ता है ! क्यों कि पक्ष, गुट, संप्रदाय, गच्छ अथवा पंथविशेष का आग्रह-पक्षपात दिमाग में किसी युक्ति को प्रवेश ही नहीं करने देता ! युक्तिहीन, स्वपक्ष की बातों का दुराग्रह मनुष्य को लाख चाहने पर भी मध्यस्थ नहीं होने देता । अरे वह तो यहाँ तक सोचता रहता है कि 'यदि मैं अन्य पंथ, संप्रदाय, या गच्छ की सयुक्तिक बातें सुनूंगा और मुझे अँच गयी तो मेरा समकित चला जाएगा, फलत: में समकितविहीन बन जाऊँगा।' . किसी भी युक्ति की यथार्थता का परिक्षण करने की समझ हम में अवश्य होनी चाहिए । तर्क दो प्रकार के होते हैंः सुतर्क और कुतर्क ! : Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ ज्ञानसार सुतर्क किसे कहा जाए और कुतर्क किसे, यह समझाने की सूक्ष्म बुद्धि हम मे होना जरूरी है । इस भूतल पर जो जो मत, पंथ संप्रदाय अथवा गच्छों का प्रादुर्भाव हुआ है, वह किसी न किसी तर्क के सहारे हआ है । अपने किसी विचार या मान्यता के पोषक ऐसे तर्क और उदाहरण मिल जाने पर एकाध पंथ अथवा संप्रदाय का जन्म होता है । और उस युक्ति और उदाहरणों की यथार्थता-अयथार्थता का सही मूल्यांकन करने में असमर्थ जीव उस पंथ या मत में शामिल हो जाता है। लेकिन सिर्फ कुतर्क के आधार पर स्थित कपोल कल्पित मत-मतांतर, पंथ और संप्रदाय वर्षाऋतु में जन्मे कुकुरमुत्ते की तरह अल्प जीवी सिद्ध होते हैं ! अथवा अज्ञान और मतिमंद जीवों के क्षेत्र में वह पंथ या संप्रदाय फल-फूल कर वृक्ष का रूप धारण कर लेता है ! __ सीधा-सादा जीव, कुतर्क को ही मुतर्क समझ कर नादानी में उसकी ओर आकर्षित हो जाता है । जबकि कभी-कभी सुतर्क को कुतर्क समझ, उससे कोसों दूर निकल जाता है । सुतर्क को सुतर्क और कुतर्क को कुतर्क समझने की क्षमता रखने वाला मनुष्य ही मध्यस्थ-दृष्टि प्राप्त कर सकता है । यथार्थ वस्तु-स्वरूप की जानकारी हासिल करने हेतु युक्ति का प्राधार लेना अत्यंत आवश्यक है । ठीक उसी तरह युक्ति को यथार्थ रूप में समझने के लिए उसकी परिभाषा को समझना जरूरी है। वर्ना मिथ्या भ्रम की भुल भुलैया में भटकते देर नहीं लगती। जानते हो, शिवभति की कैसी दुर्दशा हुई ? रथवीरपुर नामक नगर में स्थित आचार्यश्री आर्यकृष्ण का परम-भक्त, और अनन्य शिष्य शिवभूति, भतिभ्रष्ट हो गया । आचार्यश्री. द्वारा विवेचित 'जिनकल्प' के शास्त्रीय विवेचन को वह अपनी कल्पना की उड़ान पर उड़ा ले गया । प्राचार्य श्री ने अपने शिष्य को भ्रम के चक्रव्यूह में फंसने से बचाने हेतु 'जिनकल्प' का यथार्थ विवेचन करने के लाख प्रयत्न किये ! अकाट्य तर्क देकर उसे समझाने का प्रयत्न किया । लेकिन सब व्यर्थ गया. ! शिवभूति के मन:कपि ने युक्ति रूप गाय की पूंछ पकड, हरबार अपनी और खिंचने का प्रयत्न किया !.यहाँ तक कि स्वयं वस्त्र-त्याग कर दिया.. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यस्थता २१९ वस्त्रहीन नगर में सरे आम निकल पड़ा और जो भी तर्क उसको अपने मत के पोषक प्रतीत हुए, अनुकल लगे, उन्हें ग्रहण कर एकांगी बन गया । यह सब करते हुए उसने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का विचार नहीं किया । उसने उत्सर्ग और अपवाद का विचार नहीं किया। वह अपने मत का ऐसा दुराग्रही बन गया कि सापेक्षवाद का भी विचार नहीं किया ! 'वस्त्रधारी मोक्ष नहीं पा सकता,' इसी एक हठाग्रह के कारण वह यथार्थ वस्तु स्वरूप के बोध से सर्वथा वंचित रह गया । मतलब, हमेशा युक्ति को परख कर उस का अनुसरण करते रहो । ० नयेषु स्वार्थसत्येषु मोघेषु परचालने । समशीलं मनोयस्य स मध्यस्थो महामुनिः॥३॥१२६॥ अर्थ :- अपने-अपने अभिप्राय में सच्चे और अन्य नयों के वक्तव्य का निराकरण करने में सर्वथा निष्फल नयों में जिन का मन सम-स्वभावी है, ऐसे मुनिवर बाकई में मध्यस्थ है। विवेचन : प्रत्येक नय अपने-आप में सत्य होता है, वास्तविक होता है, लेकिन जब वह एक-दूसरे के दृष्टिबिन्दु का खंडन करते हैं तब असत्य होते हैं । ___'स्वाभिप्रेतेनैव धर्मेणावधारणपूर्वकं वस्तु परिच्छेतुमभिप्रैति स नयः। जिस का अभिप्राय, अपने अभिलषित धर्म के निर्णयपूर्वक वस्तु का ज्ञान पाने का है, उसे नय कहा जाता है । जब एक नय किसी वस्तु के सामान्य प्रश का प्रतिपादन कर, वस्तु को उस स्वरुप में देखने समझने का आग्रह रखता है और दूसरा नय वस्तु के विशेष अंश का प्रतिपादन कर उसे उस स्वरूप में जानने की चेष्टा करता है, तब जो मनुष्य मध्यस्थ नहीं है, वह किसी एक नय की युक्ति को सत्य मान, दूसरे नय के वक्तव्य को असत्य करार दे बैठता है। फलतः वह एक नय का पक्षधर बन जाता है। लेकिन मध्यस्थ-वृत्तिं वाला, समभाववाला मुनि सभी नयों को सापेक्ष मानता है। मतलब यह कि वह प्रत्येक नय के वक्तव्य का सापेक्ष-दृष्टि से ... नयवाद : परिशिष्ट देखिए.. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार मूल्यांकन करता है। अतः वह भूलकर भी कभी ऐसा विधान नहीं करता कि 'यह नय सत्य है और वह नय असत्य है ।' नियनियवयरिणज्जसच्चा, सव्व नया परवियालगे मोहा । ते पूरण ण दिट्टसमप्रो विभयइ सच्चे व अलिए वा' ।।२८॥ -सम्मतितर्क सर्व नय अपने-अपने वक्तव्य में सत्य हैं, सही हैं । परन्तु दूसरे नय के वक्तव्य का खंडन करते समय गलत हैं। मिथ्या हैं। अनेकान्तसिद्धान्त का ज्ञाता पुरुष, उक्त नयों का कभी 'यह नय सत्य है, और वह नय असत्य है, ऐसा विभाग नहीं करते।' यदि हम पारमार्थिक दृष्टि से विचार करें तो जो नय, नयान्तरसापेक्ष होता है, वह वस्तु के एकाध अंश को नहीं, अपितु संपूर्ण वस्तु को ही ग्रहण करता है। अत: वह "नय" नहीं बल्कि “प्रमाण" बन जाता है। नय वह है जो नयान्तर-निरपेक्ष होता है। अर्थात्, अन्य नयों के वक्तव्य से निरपेक्ष अपने अभिप्राय का वक्तव्य करनेवाला 'नय' कहलाता है। और इसीलिए नय मिथ्यादृष्टि ही होता है। तभी शास्त्रों में कहा गया है, 'सवे नया मिच्छावाइणो' सभी नय मिथ्यावादी हैं । श्री मलयगिरिसूरिश्वरजी ने 'श्री आवश्यकसूत्र' में कहा है : _ 'नयवाद मिथ्यावाद है । अतः जिनप्रवचन का रहस्य जाननेवाले विवेकशील पुरूष मिथ्यावाद का परिहार करने हेतु जो भी बोलें उसमें 'स्यात' पद का प्रयोग करते हुए बोलें। अनजान में भी कभी स्यात्कार रहित न बोलें। हालाँकि आम तौर से देखा गया है कि लोकव्यवहार में सर्वत्र सर्वदा प्रत्यक्ष रूपमें 'स्यात्' पद का प्रयोग नहीं किया जाता। फिर भी परोक्षरुप में उसके प्रयोग को मन ही मन समझ लेना चाहिए। मध्यस्थ वृत्तिवाले महामुनि, प्रत्येक नय में निहित उसके वास्तविक अभिप्राय को भली-भांति समझते हैं। और तभी वे उसे उस रुप में सत्य मानते हैं। 'प्रस्तुत अभिप्राय के कारण इस नय का वक्तव्य सत्य है।' इस तरह वे किसी नय के वक्तव्य को मिथ्या नहीं मानते! वस्तु एक है, लेकिन प्रत्येक नय इस का विवेचन/वक्तव्य अपनेअपने ढंग से करता है। उदाहरणार्थ हाथी और सात अंधे! एक कहता है "हाथी खंभे जैसा है।" दूसरा कहता है हाथी सूपड़े जैसा है।" तीसरा Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यस्थता २२१ कहता है हाथी रस्से जैसा है। चौथा कहता है "हाथी ढोल जैसा है" पांचवा कहता है "हाथी अजगर जैसा है ।" छठा कहता है "हाथी लकड़ी जैसा है" और सातवां सबको झूठा करार दे, कहता है "हाथी घड़े जैसा है।" सातों अंधों की बात और परस्पर हो रहे वाद-विवाद को समीप ही खड़ा एक सज्जन चुपचाप सुन रहा है । क्या वह किसी के प्रति पक्षपात करेगा ? किसी का पक्षधर बन कर क्या यों कहेगा : 'अमुक सही कह रहा है और अमुक झूठ बोल रहा है ?" तनिक सोचिए, अपने दिमाग को कसिए, क्या वह यों कह सकेगा ? नहीं, हगिज नहीं कहेगा । अपितु मध्यस्थ भाव से कहेगा तो यह कहेगा: “भाइयों, तुम सब अपने-अपने विचार, मत के अनुसार सच कह रहे हो । क्यों कि तुम्हारे हाथ में हाथी का जो अवयव आया, उसी का तुम अपने-अपने हिसाब से वर्णन कर रहे हो ! लेकिन तुम सभी के कथन का सामूहिक रुप है हाथी !' स्वस्वकर्मकृतावेशः स्वस्वकर्मभुजो नराः ।। न रागं नापि च द्वष मध्यस्थस्तेषु गच्छति ॥४॥१२४॥ अर्थ : जिन्होंने अपने-अपने कर्मों का आग्रह किया है, वैसे अपने अपने कर्मो को भोगने वाले मनुष्य हैं ! इसमें मध्यस्थ पुरुष राग नहीं करता है । विवेचन : राग-द्वेष की शिथिलता-स्वरुप मध्यस्थ दृष्टि प्राप्त करने के लिए जगत् के जड़-चेतन द्रव्यों को और उनके पर्यायों को सही रुप में देखना चाहिए। यदि प्रत्येक परिस्थिति को, हर एक प्रसंग को और एक एक कार्य को यथार्थ स्वरूप में देखा जाए, यानी उसके कार्यकारण भाव को समझा जाए तो नि:संदेह राग-द्वेष की उत्पत्ति नहीं होगी। इस दृष्टि से केवलज्ञान के साथ वीतरागता का सम्बन्ध यथार्थ है। केवलज्ञान में विश्व के प्रत्येक द्रव्य....पर्याय, संयोग, परिस्थिति और हर कार्य, यथार्थ स्वरुप में वास्तविक कार्य-कारणभाव के रुप में दिखायी देता है। फलतः, राग-द्वेष का प्रश्न ही नहीं उठता। तात्पर्य यही है कि जैसे-जैसे विश्व के पदार्थों का यथार्थ-दर्शन होता जायेगा, वैसे-वैसे Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ राग-द्वेष क्षीण होते जाएंगे । होना अशक्य है | वास्तव में एवं अधे दर्शन से होती है । ज्ञानसार राग-द्वेष की तीव्रता में यथार्थ-दर्शन राग-द्वेष की उत्पत्ति विश्व के अस्पष्ट यहां पर संसारी जीवों के प्रति देखने का एक ऐसा यथार्थ दृष्टिकोण अपनाया गया है कि राग-द्व ेष नष्ट हुए विना कोई चारा नहीं । जिस जीव के प्रति जिन-जिन कार्य, संयोग और परिस्थिति के संदर्भ में राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, वह कार्य, संयोग और परिस्थिति वगैरह, उस जीव के पूर्वकृत कर्मों के कारण होते हैं । कर्मों को उपार्जित करनेवाला वह जीव है और उनको रोते-हँसते, चीखते भोगनेवाला भी वह खुद है । जब हम अन्य जीवों की ऐसी किसी प्रवृत्ति के साथ अपने श्रापको जोड़ देते हैं, तब राग-द्वेष का जन्म होता है । अन्य जीवों के समग्र जीवन और व्यक्तित्व के पीछे उसके कर्म ही कारण हैं । उपादान कारण उसकी आत्मा है और निमित्त कारण उसके अपने ही कर्म हैं । यदी यह वास्तविकता हमारे गले उतर जाए तब राग-द्वेष पैदा होने का कोइ प्रयोजन ही नहीं रहता । किसी एक नय के आग्रही मनुष्य के प्रति भी हमें यही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए | 'मिथ्यात्व - मोहनीय' कर्म का फल यह बिचारा भोग रहा है । कर्मबंधन खुद करता है और खुद ही उसे भोगता है । अतः हमें भला क्यों कर राग-द्वेष करना चाहिए ? अधमाधम व्यक्ति के प्रति भी सदा यही दृष्टि अपनानी चाहिए कि 'बेचारा न जाने किन जन्मों का पाप भोग रहा है ? यह संसार ही ऐसा है । पूज्यपाद उपाध्यायजी महाराज ने 'अध्यात्मसार' में कहा है । 'निन्द्यो न कोऽपि लोके पापिष्ठेष्वपि भवस्थितिश्चिन्त्या ।' "विश्व में किसी की निंदा न करो । पापी व्यक्ति भी निंदनीय नहीं है । भवस्थिति का हमेशा विचार करो !” पूज्यपाद श्री का 'भवस्थिति' - चितन का आदेश सचमुच सुन्दर है । भवस्थिति का चिंतन अर्थात् चतुर्गतियुक्त संसार में निरंतर चल रहे Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यस्थता २२३ प्रत्येक जड़-चेतन द्रव्य के पर्यायों के परिवर्तन का यथार्थ-चितन । साथ हो विशुद्ध प्रात्म-द्रव्य का भी सतत चिंतन करना चाहिए। स्तुत्या स्मयो न कार्यः कोपोऽपि च निन्दया जनः । यदि कोइ हमारी स्तुति करता हैं तो स्वयं अपने कर्म से प्रेरित होकर करता है। हम भला उसमें अनुराग क्यों करें?ठीक उसी तरह, अगर कोई निंदा करता है, तो वह भी अपने कर्म से प्रेरित होकर। उसके प्रति द्वेष क्यों रखें ? हमें तो सिर्फ यह तत्त्वज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि जीवों पर किन कर्मों का कैसा प्रभाव पड़ता है, किस-किस कार्य के पीछे कौन से कर्म कार्यरत हैं ?' इस से मध्यस्थ दृष्टि का विकास अवश्य होता है । लेकिन प्रस्तुत दृष्टिकोण तो अन्य जड़-चेतन द्रव्यों की तरफ अपनाना है । मनः स्याद् व्यापतं यावत् परदोषगुणग्रहे । कार्य व्यन वरं तावन् मध्यस्थेनात्मभावने ।।५।।१२५।। अर्थ :- जब तक मन पराये दोष और गुणग्रहण करने में प्रवर्तित है, तब तक मध्यस्थ पुरुष को अपना मन आत्म-ध्यान में अनुरक्त करना श्रेष्ठ है । विवेचन : पर-द्रव्य के गुण-दोषों का विचार करने की आवश्यकता ही क्या है ? ऐसे गुण-दोष के विचार से ही मन रागी और द्वेषी होता है। रागी-द्वेषी मन समभाव का आस्वाद नहीं ले सकता । किसी भी हालत में अपने मन को पर-द्रव्य की ओर आकर्षित ही नहीं होने देना चाहिए । मन को प्रात्म-स्वरूप में निमग्न करने से वह भूल कर भी पर-द्रव्य की अोर नहीं भटकता ! हमें आत्म-स्वरूप में अनुरक्तता का व्यवहारिक मार्ग खोज निकालना चाहिए । जिसे साधक आत्मा प्रयोग में ला सकें और आत्मानुभव का आंशिक स्वाद भी चख सके । . सदागमों का अध्ययन-चिंतन, परिशीलन, अनित्यादि भावनाओं का मनन (भावन), प्रात्मा के स्वाभाविक-वैभाविक स्वरुप का चिंतन, नय-निक्षेप और स्याद्वादशैली का पठन-पाठन, आवरणरहित आत्मा के स्वरुप का ध्यान, प्रात्मभाव में तल्लीन साधुओं का समागम-सेवा और सम्यगज्ञान की प्राप्ति, अनुभव ज्ञान की प्राप्ति, स्व-कर्तव्यों के प्रति Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ज्ञानसार निष्ठा और सर्वत्र औचित्य का पालन, ये हैं आत्मभाव में तल्लीन होने के विविध उपाय । इन का अवलम्बन लेकर मन को समाधिस्थ किया जा सकता है ! अनवरत अभ्यास के कारण समाधि में तन्मयता सिद्ध हो सकती है। फिर भी कभी-कभार मन पर-द्रव्य के प्रति आकर्षित होने की संभावना है । ऐसे प्रसंग पर पर-पदार्थों को देखने की विशिष्ट दृष्टि का आधार लेना चाहिए । जीवों के प्रति मैत्री, प्रमोद, करुणा, और मध्यस्थ दृष्टि रखना परमावश्यक है। जब कि जड़-पदार्थ के सम्बंध में अनित्यादि भावों का प्राश्रय लेना चाहिए। इस तरह मध्यस्थता को बरकरार रखी जाए, तभी मन प्रशम का सुखानुभव कर सकता है । पराये गुण-दोष देखने की बेचैनी का अनुभव किए बिना ऐसी गंदी आदत से मुक्त होना सरल नहीं है । पराये गुण-दोष देखने की गंदी आदत पड़ गयी है, जिससे दृष्टि मध्यस्थ हो ही नहीं सकती। फल-स्वरूप निष्कारण ही मन किसी का पक्षपाती और किसी का कट्टर दुश्मन बनकर रह जाता है । किसी का अनुरागी तो किसी का द्वेषी ! इससे मन को दु ख होता है सो बात नहीं, बल्कि इस में भी उसे एक प्रकार का अनोखा आनंद मिलता है ! वह अपना कर्तव्य समझ बैठता है ! और खासियत यह है कि इस के बावजूद भी वह अपने आप को मुनिधर्म का अनन्य आराधक समझता है ! । प्रायः प्रत्येक जीव में चेतन-द्रव्य के दोष और जड़-द्रव्य के गुण देखने की आदत होती है । वह चेतन (जीव) के दोष देख उसके प्रति द्वेष रखता है और जड़ के गुण देख उसका अनुराग करता है। जड़ माध्यम से जीव के प्रति भी वह राग-द्वेष से ग्रस्त बनता है तदुपरांत भी यह नहीं समझ पाता कि वह कोई गंभीर भूल कर रहा है। वह तो सिर्फ गुण-द्वेष देखने के हठाग्रह को मन में संजोये रखता है और विविध युक्तियों से उसे पुष्ट करता रहता है । इस तरह असत् तत्त्वों का आग्रह भी दूसरों के गुणदोष देखने के लिए निरंतर प्रेरित करता है । अपनी स्थल बुद्धि को समझ में न आने के कारण वह मोक्षमार्ग को भी गुण-दोष की दृष्टि से देखता है ! फलतः राग-द्वेष से ग्रसित हो जाता है । इन सभी विषमताओं से मुक्त होने का राजमार्ग है : 'सदा सर्वदा आत्मभाव में तन्मय होना और Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यस्थता २२५ परायी पंचायत को तिलांजलि देना ।' 'स्व' के प्रति एकाग्रचित्त होना। जब तक 'पर' का विचार दिलो-दिमाग में राग-द्वेष की होली सुलगाता हो तबतक 'स्व' में लीन होना सभी दृष्टि से श्रेयस्कर है । 'जब तक 'पर' का विचार मझे रागी-द्वेषी और पक्षपाती बनाता है, तब तक में अपनी आत्म-साधना....आत्मभाव में तल्लीन रहूँगा।' ऐसा मन ही मन दृढ़ संकल्प कर, जीवन जीने का प्रयास किया जाए तो नि:संदेह मध्यस्थदृष्टि के पट खल जाएंगे और समभाव का मनभावन मवेदन पा सकेंगे। विभिन्ना अपि पन्थान: समुद्रं सरितामिव ! मध्यस्थानां परं ब्रह्म प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् ॥६॥१२६॥ अर्थ :- मध्यस्थो (तटम्थ) के विभिन्न भी मार्ग, एक ही अक्षय, उत्कृष्ट परमात्म-स्वरूप में मिलते हैं ! जिस तरह नदियों के अलग-अलग प्रवाह समुद्र में मिलते हैं ! विवेचन : नदियों के प्रवाह भिन्न-भिन्न होते हैं । नदियाँ अलग-अलग मार्गों में प्रवाहित होती हैं, लेकिन आखिरकार उसके विभिन्न प्रवाह एक ही समुद्र में प्रा मिलते हैं, वह समुद्र से एकाकार हो जाते हैं । यह एक ऐसा उदाहरण है कि यदि इसके रहस्य को समझा जाए, गहरायी से इस पर विचार किया जाए तो सभी जीवों के प्रति अटूट मित्रता एवं सद्भाव प्रस्थापित होते देर नहीं लगती । कोइ नदी उत्तर में बहती है, तो कोई नदी दक्षिणांचल को अपने प्रवाह से फलद्रप बनाती है, तो कोई पूर्वाचल को सिंचते हुए उपजाऊ भूप्रदेश के रूप में परिवर्तित करती है। तो किसी नदी का प्रवाह पश्चिम किनारे को हरियाली और घनी वनराजि से सुशोभित करता, समुद्र की ओर बढ़ता रहता है । इस तरह भिन्न-भिन्न मार्ग और विविध प्रदेशों में नदियाँ प्रवाहित होते हए भी उनकी गति समुद्र की ओर होती है। संभव है, किसी नदी का पट विशाल होता है तो किसी का सोमित, किसो को गहरायो विशेष होती है, तो किसी की सामान्य ! किसी का प्रवाह तीव्र होता है तो किसीका मंद ! लेकिन उन सब की मंजिल Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ज्ञानसार एक होती है, और वह है अतल, अथाह समूद्र की मनभावन गोद ! वे अपने अस्तित्व को भूला कर समुद्र में पूर्णरूप से एकाकार हो जाती हैं। ठीक उसी तरह समस्त साधनाओं में, आराधनाओं में, उनकी पद्धति में भले ही विभिन्नता हों, लेकिन आखिरकार वे सभी मोक्षमार्गकी ओर जीव को गतिशील बनाती हैं। फिर भले ही वह अपुनबंधक, मार्गाभिमुख, समकितधारी, देशविरति अथवा सर्वविरति क्यों न हों। क्योंकि वे सब परमब्रह्म की ओर गतिशील हैं। फलस्वरूप, किसी के प्रति राग-द्वेष की भावना रखने का प्रश्न ही नहीं उठता । जो मध्यस्थ दृष्टिवाले होते हैं, उनको मध्यस्थता उन्हें परम ब्रह्म-स्वरूप महोदधि में मिला देती है। तब अनायास ही आत्मा और परमात्मा का संगम हो जाता है। जो जीव तीव्र भावसे पाप नहीं करता, वह क्षद्रता, लाभरति, दीनता, हीनता, तुच्छता, भय, शठता, अज्ञान, निष्फल आरंभ आदि भवाभिनंदी के दोषों से रहित होता है । शक्ल-पक्ष के चन्द्र की तरह सतत तेजस्वी और वृद्धिंगत ऐसे गुणों का स्वामी होता है। एक 'पुदगल-परावर्त' काल से अधिक जिस का भव-भ्रमण नहीं है, ऐसे जीव को शास्त्रों में 'अपुनर्बंधक, कहा गया है। ठीक उसी तरह, मार्गपतित और 'मागाभिमुख' इसी अपुनबंधक की ही अवस्थाएँ हैं। मार्ग का अर्थ है चित्त का सरल प्रवर्तन । मतलब, विशिष्ट गुणस्थानक की प्राप्ति हेतु योग्य स्वाभाविक क्षयोपशम । क्षयोपशम पानेवाले को 'मार्गपतित' की संज्ञा दी गयी है, जब कि मार्ग में प्रवेश योग्य भाव को पानेवाली प्रात्मा को 'मार्गाभिमुख' कहा गया है। ये सभी जीव प्राय: मध्यस्थ दृष्टिवाले होते हैं। ठीक वैसे ही समकितधारी, देशविरति और सर्वविरतिधर जीव भी मध्यस्थ दृष्टिवाले होते हैं ! सर्वविरतिधारी के दो भेद हैं। स्थविरकल्पी और जिनकल्पी । वे भी तटस्थ दृष्टिवाले होते हैं। उपर्युक्त सभी तटस्थ दृष्टिवाले जीवों का एक ही लक्ष, एक ही साध्य परम ब्रह्मस्वरुप है। और ये सब अपना विभिन्न अस्तित्व, परम ब्रह्मस्वरुप में विलीन कर देते हैं। कोइ भी जीव आराधना की किसी भी भूमिका पर भले ही स्थित हो, स्थिर हों, यदि मध्यस्थ दृष्टिवाला है तो वह निर्वाण-पद का (१)स्थविरकल्पी जिनकल्पी का स्वरुप देखिए परिशिष्ट में Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यस्थता २२७ अधिकारी है । उसके लिए तुम्हारे मन में हमेशा मित्रता और प्रमोद की भावना होना आवश्यक है । आचार में रही भिन्नता मध्यस्थ दृष्टि में बाधक नहीं होती । ठीक वैसे ही पोशाक और वस्त्र की विविधता में मध्यस्थता बाधक नहीं है । वस्त्र और प्राचार के माध्यम से किसी जीव की योग्यतायोग्यता का मूल्यांकन दोषपूर्ण होता है, जबकि मध्यस्थ दृष्टि के माध्यम से हर किसी की योग्यता प्रयोग्यता अपने श्राप सिद्ध हो जाती है । केवलज्ञान के प्रवाह, अतल महोदधि में मध्यस्थता की विभिन्न धाराएँ मिल जाती हैं और केवलज्ञान का स्वरुप धारण कर लेती हैं । स्वागमं रागमात्रेण द्वेषमात्रात् परागमम् । न श्रयामः त्यजामो वा किन्तु मध्यस्थया दृशा ||७|| १२७|| अर्थ : अपने शास्त्र का अनुरागत्रण स्वीकार नहीं करते और ना ही दूसरों के शास्त्र को द्रषवण त्याग देते हैं । अपितु शास्त्र का मध्यस्थता की दृष्टि से स्वीकार अथवा त्याग करते हैं । विवेचन : यहाँ परम श्रद्धय उपाध्यायजी महाराज एक प्रक्षेपका प्रत्युत्तर देते हैं । आक्षेप है : "श्राप पक्षपात का त्याग कर मध्यस्थ-वृत्ति अपनाने का उपदेश अन्य जीवों को देते हैं । तब भला, आप अन्य दार्शनिकों के शास्त्रों को स्वीकृति प्रदान क्यों नहीं करते ? अपने हो शास्त्रों का स्वीकार क्यों करते हैं ? क्या यह राग-द्वेष नहीं है ? 11 पूज्य उपाध्यायजी महाराज इस प्राक्षेप का प्रत्युत्तर देकर समाधान करते हैं: "स्व - सिद्धान्त का स्वीकार हम सिर्फ अनुरागवश नहीं करते, बल्कि इसकी स्वीकृति के पीछे प्रदीर्घ चितन एवं विशेष कारण है । ठीक वैसे ही, अन्य दर्शनों का त्याग हम किसी द्वेष के वशीभूत होकर नहीं करते, अपितु इसके पीछे भी हमारी विशिष्ट दृष्टि है । तात्पर्य यह कि किसी चीज का स्वीकार अथवा त्याग करने से राग-द्वेष सिद्ध नहीं होते। बल्कि उसका स्वीकार अथवा त्याग किस विशिष्ट दृष्टि से किया गया है, उस पर पक्षपात अथवा मध्यस्थता का निर्णय हो सकता है । मध्यस्थ दृष्टि से उसका सही मूल्यांकन कर किसी सिद्धांत का स्वीकार अथवा त्याग किया जाता है । वैसे मध्यस्थ-दृष्टि हमेशा Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ज्ञानसार युक्ति का अनुसरण करती है। जहां युक्ति-संगत लगा वहाँ झ काव होता है। युक्तिहीन वचनों को हमेशा तज दिया जाता है। हमारा यह स्पष्ट मत है कि पक्षपातो न मे वीरे न द्वषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। प्रभु महावीर के प्रति हमारे मन में कोई पक्षपात नहीं हैं, ना ही कपिलादि मुनियों के प्रति कोइ द्वेषभाव है । लेकिन जिनका वचन युक्तिसंगत है, वह हमारे लिए ग्राह्य है, अंगीकार करने योग्य हैं।" हमारे समक्ष दो वचन रखे जाते हैं। हम उन्हें शांति से सुनते हैं, उसका सही ढंग से चिंतन-मनन करते हैं और तब जो युक्तिसंगत लगे उसका सादर स्वीकार करते हैं। क्या इसे आप पक्षपात कहेंगे ? और जो वचन वाजिब न लगे, उसका परित्याग कर देते हैं। क्या इसे प्राप हमारा द्वष कहेंगे? किसी भी वचन की युक्तियुक्तता जानने के लिए विविध परीक्षा करती पडती है । जिस तरह सोने को सोना मानने के लिए उसकी कसौटी करते हैं ! परिक्षन्ते कषच्छेदतापैः स्वर्ण यथा जनाः । शास्त्रेऽपि वर्णिकाशुद्धि : परीक्षन्तां तदा बधा: ।।१७।। -अध्यात्मोपनिषत कष-च्छेद और ताप, इन तीन प्रकार की परीक्षा से शास्त्रवचन का यथोचित मूल्यांकन करना चाहिए। जिस शास्त्र में विधि एवं प्रतिषेधों का वर्णन किया गया हो और वे परस्पर विरुद्ध हों, तो वह 'कष' परिक्षा में उत्तीर्ण कहा जाता है। विधि और निषेध के पालन का योग-क्षम करनेवाली क्रियायें बतायी गयी हो तो उक्त शास्त्र 'च्छेद' परीक्षा में उत्तीर्ण माना जाता हैं और उसके अनुरुप सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया हो तो उसे 'ताप' परीक्षा में उत्तीर्ण कहा जाता है। "न श्रद्धयैव स्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु । यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु त्वामेव वीरप्रभुमाश्रिताः स्मः ॥" हे देवाधिदेव महावीर प्रभु ! सिर्फ श्रद्धावश हमें आपके प्रति कोइ पक्षपात नहीं है। ठीक उसी तरह सिर्फ द्वष के कारण दूसरों के प्रति Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यस्थता २२६ अरूचि नहीं है। लेकिन यथार्थ आप्तत्व की परीक्षा से हम आपश्री का आशय ग्रहण करते हैं ।" जिस तरह युक्ति के अनुसरण में मध्यस्थता रही है, ठीक उसी तरह सिद्धान्तों के दृष्टा महापुरुष की प्राप्तता का भी मध्यस्थ दृष्टि विचार करती है। जो वक्ता आप्तपुरुष-वीतराग है, उसका वचन/ उपदेश हमेशा स्वीकार्य होता है, सर्वमान्य होता है। ठीक वैसे ही जो वक्ता वीतराग नहीं होता, उसका कथन और वचन प्रायः राग-द्वषयुक्त होता है, अतः त्याज्य है । इस तरह मध्यस्थ दृष्टि को आलीशान इमारत प्रात्मा के त्याग और स्वीकार नाम के दो स्तम्भों पर टिकी हुई है । 'मध्यस्थया दृशा सर्वेष्वपुनबंधकादिषु । चारिसंजीविनीचारन्यायादाशास्महे हितम् ॥७॥१२८॥ अर्थ : अपनबंधकादि समस्त में मध्यस्थ दृष्टि से संजीवनी का चारा चराने के दृष्टांत द्वारा कल्याण की कामना करते हैं । विवेचन : स्वस्तिमतो नाम का नगर था । वहां दो ब्राह्मण-कन्याएँ वास करती थी। दोनों में प्रगाढ मित्रता और अनन्य स्नेह-भाव था । कालान्तर से दोनों विवाहित होकर अलग-अलग स्थान पर चली गयी। किसी समय दोनों का आगमन स्वस्तिमती नगर में स्वगृह में हुआ । प्रदीर्घ समय के पश्चात् भेंट होने पर दोनों प्रानन्द से पूलकित हो उठी। लगी आपस में अपनी अपनी सुनाने । बतियाते हुए एक सहेली ने सहज ही कहा : "सचमुच मैं बहुत दुःखी हूँ, सखी, लाख प्रयत्न के बावजूद भी मेरा पति मेरी एक बात भी नहीं सुनता। हमेशा अपनी मनमानी करता है।' ___"सखी, तुम निश्चिंत रहो। मैं तुम्हें ऐसी जडी-बुट्टी दूंगी कि उसके सेवनमात्र से वह तेरा हो जाएगा।' दसरी ने कुछ सोच विचार कर कहा और उसे जडी-बुट्टी देकर वह चली गयी । ___ ससुराल जाकर उसने वह जडी-बुट्टी पीसकर अपने पति को खिला दी। जडी-बूटी खाते हो उसका पति बैल रूप में परिवर्तित हो गया ! पति को बैल के रुप में देख, पत्नी को अत्यंत दु:ख हुआ। वह मन मार कर रह गयी । अब वह हमेशा उसे जंगल में चराने जाती-उसकी सेवा करती जिंदगी का बोझ ढोने लगी । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ज्ञानसार एक दिन की बात है ! ब्राह्मण-कन्या नित्यानुसार बैल को लेकर जंगल में गयी और एक वृक्ष नोचे चरने के लिए उसे छोड दिया ! उस वृक्ष पर विद्याधर-युगल बैठा हुआ था ! बैल को निहार कर विद्याधर ने अपनी पत्नी से कहा : “यह स्वभाव से बैल नहीं है । लेकिन जडी-बूटी खिलाने से मनुष्य का बैल बन गया है।" विद्याधर पत्नी विचलित हो गयी । उसे बेहद दुःख हुमा । उसमें करुणा भावना जग पड़ी ! उसने दयार्द्र होकर विद्याधर से कहा : "बहुत बुरा हुआ । क्या यह दुबारा मनुष्य नहीं बन सकता ?' "यदि इसे 'संजीवनी' नामक जड़ी खिला दी जाए तो यह पुनः पुरुष होसकता है और संजीवनी इसी वट वृक्ष के नीचे ही है ।" विद्याधर ने शांत स्वर में कहा । __ जमीन पर बैठी ब्राह्मण-कन्या विद्याधर पति-पत्नी की बात सुन, अत्यंत प्रसन्न हो उठी ! उसने अपने पति 'बैल' को संजीवनी खिलाने का मन ही मन निश्चय किया ! लेकिन बदनसीब जो ठहरी ! वह 'संजीवनी' जडी-बूटी से पूर्णतया अपरिचित थी ! वक्ष के नीचे भारी मात्रा में धास उगी हुई थी ! उसमें से अमुक जडी-बुट्टी ही 'संजीवनी' है, यह कैसे समझे ? ____ अजीब उलझन में फंस गयी वह । कुछ क्षण विचार करती रही और तब उसने मन ही मन कुछ निश्चय कर, वृक्ष तले उगी वनस्पति चरने के लिए बैल को छोड दिया ! परिणाम यह हुआ कि वनस्पति चरते ही बैल पुन: मनुष्य में परिवर्तित हो गया ! अपने पति को सामने खडा देख, उसकी खशी की कोई सीमा न रही ! तात्पर्य यह है कि जीव भले ही अपनबंधक हो, मार्ग-पतित या मार्गाभिमुख, समकितधारी, देशविरति या सर्वविरति साधु हो ! यदि उसे मध्यस्थ भाव-प्रात्मानुकूल समभाव की जडी-बुट्टी खिलादी जाएँ, तो अनादि परभाव की परिणतिरुप पशुता खत्म हो जाएँ, और वह स्वरुपविषयक ज्ञान में कुशल भेदज्ञानी पुरुष बन जाए । मध्यस्थ वृत्ति इस प्रकार हितकारी सिद्ध होती है । लेकिन उसके लिए कदाग्रह का त्याग किये बिना कोई चारा नहीं। वास्तविकता यह है कि असद् आग्रह जीव को पतन की गहरी खाई में फेंक देता है । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यस्थता २३१ व्रतानि चीर्णानि तपोऽपि तप्तं कृता प्रयत्नेन च पिण्डविशुद्धिः। अमूत्फलं यत्तु न निहनवानां, असद्ग्रहस्यैव हि सोऽपराधः।। "व्रत, तप, विशुद्ध, भिक्षावृत्ति........क्या नहीं था? सब था ? परंतु वह निहनवों के लिये निष्फल गया । क्यों भला ? असद् प्राग्रह के अपराध के कारण !" अतः असद् अाग्रह का परित्याग कर मध्यस्थ दृष्टि वाले बनना चाहिए ! श्रामे घटे वारि भतं यथा सद्, विनाशयेत्स्वं च धटं च सद्यः। असद्ग्रहग्रस्तमतेस्तथैव, श्रुतप्रदत्तादुभयोविनाश:।। “यदि मिट्टी के कच्चे धडे में पानी भर दिया जाए तो ? घडा और पानी दोनों का नाश होता है ! ठीक उसी भाँति असद् आग्रही जीव को श्रतज्ञान दिया जाए तो ? नि:संदेह ज्ञान और उसे ग्रहण करनेवाला-दोनों का विनाश होते देर नहीं लगेगी । असद् प्राग्रह का परित्याग कर, मध्यस्थ दृष्टि बाले बन, परम तत्त्व का अन्वेषण करना चाहिए । तभी परम हित होगा । : Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 १७. निर्भयता जहां भय वहां अशांति चिरस्थायी है ! अतः निर्भय बनो। निर्भयता में असीम शांति है और अनिर्वचनीय आनंद भी ! भयभीतता की धू-धू जलती अग्नि से बाहर निकलने के लिए तुम्हें प्रस्तुत प्रकरण अवश्य पढना चाहिए । तुम्हारा मुखमंडल, निर्भयता को अद्भूत आभा से देदीप्यमान, परम तेजस्वी दृष्टिगोचर तो होगा ही, साथ हो जीवन से निराशा छू-मंतर हो जाएगी ! सुख के अनेक साधन उपलब्ध होने पर भी, यदि तुम्हारे मन में भय होगा तो तुम दुःखी ही रहोगे। सुखं के साधन कोई काम के नहीं रहेंगे । निर्भयता ही सच्चे सुख को जननी itc Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्भयता यस्य नास्ति परापेक्षा स्वभावाद्वतगामिनः । तस्य कि न भयभ्रान्ति-क्लान्ति, सन्तानतानवम् ॥१॥१२६।। अर्थ : जिसे दूसरे की अपेक्षा नहीं है और जो स्वभाव की एकता को प्राप्त करनेवाला है, उसे भय की भ्रान्ति मे हुए खेद की परम्परा की अल्पता क्यों न होगी ? विवेचन : क्या तुमने कभी सोचा है कि तुम्हारे जोवन-गगन में भय के बादल किस कारण घिर आये हैं ? क्या कभी विचार किया है कि भय का भ्रम किस तरह पैदा होता है ? अनेक प्रकार के भय से तुम दिन-रात....प्रशांत और संतप्त हो, फिर भी कभी यह सोचने का कष्ट नहीं उठाते कि वह क्या है, जिसकी वजह से तुम भयाग्नि में धू-ध जल रहे हो। क्या तुम्हारी यह प्रांतरिक इच्छा है कि सदा के लिए तुम भयमुक्त हो जायो ? तुम्हारे निरभ्र जीवन-गगन में निर्भयता का सूर्य प्रकाशित हो, और तुम उसी प्रकाश-पुज के सहारे निर्विघ्नरूप से मोक्षमार्ग पर चल पडो ! ऐसी झंखना, आकांक्षा है क्या तुम्हारे मन में ? पूज्यपाद उपाध्यायजी महाराजने भयमुक्त होने के लिए दो उपाय सुझाये हैं : ० पर-पदार्थों की उपेक्षा ० स्व-भाव। अद्वैत की अपेक्षा! भय-भ्रान्त अवस्था का निदान भी पूज्यश्री के इसी कथन से स्पष्ट होता है । ० पर-पदार्थों की अपेक्षा ! ० स्वभाव- अद्वत की उपेक्षा ! आइए, हम इस निदान को विस्तार से समझने का प्रयत्न करें ! "पर पदार्थ यानि अात्मा से भिन्न.... दूसरी वस्तू ! जगत में ऐसे पर-पदार्थ अनंत हैं ! अनादिकाल से जीव इन्हीं पर-पदार्थों के सहारे जीवित रहने अभ्यस्त हो गया है । अरे, उसकी ऐसी दृढ मान्यता बन गई है कि, 'पर-पदार्थों की अपेक्षा से ही जीवित रह सकते हैं ! शरीर वैभव, संपत्ति, स्नेही-स्वजन, मित्र-परिवार, मान-सन्मान, और इनसे सम्बंधित पदार्थों की स्पृहा, ममत्व और रागादि से वह बार-बार भयाक्रांत बन जाता है । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ज्ञानसार "इनकी प्राप्ति कैसे होगी ? और नहीं हई तो? में क्या करूँगा ? मेरा क्या होगा ? मुझे कौन पूछेगा ? यह...नहीं सुधरेगा तो ? यदि बिगड गया तब क्या होगा...?" प्रादि असंख्य विचार उनके मस्तिष्क में तूफान पैदा करते रहते हैं । पर-पदार्थों के अभाव में अथवा उनके बिगड जाने की कल्पना मात्र से जीव को दुःख के पहाड़ टूट पडने जैसा आभास होता है । वह भयाकुल हो काँप उठता है ! उसका मन निराशा की गर्त में फंस जाता है ! वह खिन्न हो उठता है ! मुख-मंडल निस्तेज हो जाता है ! पर-पदार्थों के आस-पास चक्कर काटने में वह अपने प्रात्मस्वभाव को पूर्णतया भूल जाता है । प्रात्मा की सरासर उपेक्षा करता रहता है। परिणाम यह होता है कि वह प्रात्म-स्वभाव और उसकी लीनता की घोर उपेक्षा कर बैठता है ! ऐसी अवस्था में भयाक्रांत नहीं होगा तो भला क्या होगा? _इसीलिए ज्ञानी पुरुषों ने आदेश दिया है कि पर-पदार्थों की अपेक्षावत्ति को हमेशा के लिए तिलांजलि दे दो ! प्रात्म-स्वभाव के प्रति रहे उपेक्षाभाव को त्याग दो ! भयभ्रान्त अवस्था की विवशता, व्याकुलता और विषाद को नामशेष कर दो ! इतना करने से हमेशा के लिए तुम्हारे मन में धर कर बैठी पर-पदार्थों की अपेक्षावृत्ति खत्म हो जाएगी। परपदार्थों के अभाव में तुम दुःखी नहीं बनोगे, निराश नहीं होंगे ! फल यह होगा कि तुम्हारे रिक्त मनमें आत्म-स्वभाव की मस्ती जाग पड़ेगी ! भय के परिताप से दग्ध मस्तिष्क शांत हो जाएगा ! निर्भयता की खुमारी और विषयविराग की प्रभावी अभिव्यक्ति हो जाएगी। भय की आँधी थम जाएगी और जीवन में शारदीय रात की शीतलता एवं धवल ज्योति रूप निर्भयता का अविरत छिड़काव होने लगेगा । भवसौख्येन कि भरिभयज्वलनभस्मना । सदा भयोज्झितज्ञान-सुखमेव विशिष्यते ॥२॥१३०॥ अर्थ : असंख्य भयरुपी अग्नि-ज्वालाओं से जलकर राख हो गया है, ऐसे सांसारिक सुख से भला क्या लाभ ? प्राय: भय मुक्त ज्ञानसुख ही श्रेष्ठ है । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमंयता विवेचन : सांसारिक सुख ? भस्म से अधिक कुछ नहीं, राख है राख ! भय को प्रचंड अग्नि-ज्वालाओं से प्रगटी राख है ! ऐसे तुच्छ और हीन सांसारिक सुख से, राख जैसे संसार-सुख से भला, तुम्हें क्या लेना-देना ? संसार का सुख यानी शब्द, रूप, रस, गंध, और स्पर्श का सूख ! ये सब संसार-सुख के अनेकविध रुप हैं। इसके असंख्य प्रकार के रुपों को तुम्हारी अपनी चर्म-चक्षुओं से निहारते हुए राख कहीं नजर नहीं • पाएगी ! बल्कि राख को राख समझने-देखने के लिए सुखों का पृथक्करण करना होगा । तभी तुम उसे वास्तविक स्वरुप में देख पायोगे, समझ पाओगे। भय, सचमुच क्या आग लगती है ? यदि तुम भय को ज्वालामुखी समझोगे तभी 'संसार-सुख राख है, यह बात समझ पाओगे। अतः सर्वप्रथम भय को अग्नि समझना, मानना, और अनुभव करना होगा। भय का क्षणिक स्पर्श भी हृदय को झलसा देता है । जानते हो न, अलसने से जो असह्य वेदना होती है, उसको सहना अति कठिन होता है। भय का स्पर्श कब होता है, भयाग्नि कब धधक उठती है, इस से क्या तुम भलि-भांति परिचित हो ? जहाँ संसार-सुख की अभिलाषा का उदय हुआ, उसका उपभोग करने की अधीरता पैदा हुई कि भयाग्नि सहसा धधक उठती है । परिणामतः उपभोग के पूर्व ही संसार-सुख जल कर राख हो जाता है । और तब, जिस तरह छोटे बच्चे शरीर पर राख मलकर मगन हो नाचते हैं किल्लोल करते हैं, उसी तरह तुम भले ही संसार-सुख की भस्म बदन पर मलकर खुश हो जाओ ! लेकिन मिलनेवाला कुछ भी नहीं ! मिलेगी तो सिर्फ राख ही मिलेगी ! संसार के हर सुख के उपर असंख्य भयों के भूत मंडरा रहे हैं ! रोग का भय, लुटे जाने का भय, विनाश और विनिपात का भय, चोर का भय, मान-अपमान का भय, समाज का भय, सरकार का भय ! यहां तक की भव-भ्रमरण का भी भय । भय के सिवाय इस दुनिया में है ही क्या ? अतः सुज्ञ व्यक्ति को भूलकर भी कभी ऐसे सुख की अपेक्षा, कामना नहीं करनी चाहिए, कि जहां भयाग्नि का भाजन बनने की संभावना है । : Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ विश्व में सुख के अनंत प्रकार हैं । लेकिन सिर्फ 'ज्ञानसुख' ऐसा एकमेव सुख है, जिसे भयाग्नि कभी स्पर्श नहीं कर सकती ! तब उसे जलाने का सवाल ही नहीं उठता है । ज्ञानसुख को भयाग्नि भस्मीभूत नहीं कर सकती ! भय के भूत उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते और ना ही भय की प्राँधी उसे अपने गिरफ्त में ले सकती है । ज्ञानसार ज्ञान की विश्व - मंगला वृष्टि से आत्मप्रदेश पर सतत प्रज्वलित विषय-विषाद की भीषण अग्नि शांत हो जाती है । और सुख-प्रानंद के अमर पुष्प प्रस्फुटित हो उठते हैं ! अपने मनोहर रूप-रंग से प्राणी मात्र का मन मोह लेते हैं ! उन पुष्पों की दिव्य सौरभ से मन में ब्रह्मोन्मत्तता, कंठ में अलख का कूजन और यौवन में अलख की बहार आ जाती है । सारा वातावरण अद्भुत रम्य बन जाता है और अलख की धडकन से हृदय सराबोर हो उठता है । पामर जीव को परमोच्च और रंक को वैभवशाली बनाने की अभूतपूर्व शक्ति 'ज्ञानसुख' में है । आत्मा के प्रतल उदधि की प्रगाधता को स्पर्श करने की अनोखी कला 'ज्ञानसुख' में है। जब कि ऐसी अगम्य शक्ति और कला संसार - सुख में कतई नहीं है । अतः संसार - सुख की तुलना में ज्ञानसुख शत-प्रतिशत प्रभावशाली और अद्वितीय है । मतलब, ज्ञान से ही जब परम सुख और अवर्णनीय आनंद की प्राप्ति हो जाएगी, तब संसारसुख अपने श्राप ही भस्म - सा लगेगा । न गोप्यं क्वापि नारोप्यं हेयं देयं च न क्वचित् । क्व भयेन मुनेः स्थेयं ज्ञ ेयं ज्ञानेन पश्यतः ? ३ ।। १३१ ।। अर्थ : जानने योग्य तत्त्व को स्वानुभव से समझते मुनि को कोई कही छिपाने जैसा अथवा रखने जैसा नहीं है । ना ही कहीं छोड़ने योग्य है ! तब फिर भय से कहां रहता है ? प्रर्थात मुनि के लिए कहां पर भी भय नहीं है विवेचन : हे मुनिवर ! क्या आपने कुछ छिपा रखा है ? क्या आपने कोई वस्तु कहां रख छोडी है ? क्या आपने कोई चीज जमीन में दबा रखी है ? क्या आप को कुछ छोड़ना पड़े ऐसा है ? कुछ देना पडे ऐसा है ? फिर भला, भय किस बात का ? क्या आपको Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निभ यता २३७ मुनिश्रेष्ठ ! आप निर्भय हैं ! आप को निर्भय बनाने वाली ज्ञानदृष्टि है ! ज्ञानदृष्टि से विश्वावलोकन करते हुए तुम निर्भयता की जिदगी बसर कर रहे हो ? जहाँ ज्ञानदृष्टि वहीं निर्भयता ! समस्त सृष्टि को जानना है राग-द्वष किये बिना ! जगत की उत्पत्ति, विनाश, और स्थिति को जानना-देखना यही ज्ञानदृष्टि कहलाती है। जब तुम ज्ञानरष्टि के सहारे सारे संसार को देखोगे तब राग-द्वेष और मोह का कहीं नामोनिशान नही होगा । यदि विश्वावलोकन में किचित् भी राग-द्वेष और मोह का अंश आ गया तो समझ लेना चाहिए कि जो अवलोकन कर रहे हैं वह ज्ञानदृष्टि से युक्त नहीं है, बल्कि ज्ञानदृष्टि-विहिन है और है अज्ञान से परिपूर्ण । भारे क्रोध से राजा की अांखें लाल-सुर्ख हो रही थी, नथूने फूल रहे थे, हाथ कांप रहे थे और मुखमण्डल कोप से खिचा हुआ था। पांव पछाडता राजा झांझरिया मुनिवर की ओर लपक पडा था, मुनिवर की हत्या करने के लिये ! लेकिन क्षमाशील झाझरिया मुनिवरने इस घटना को किस रूप में लिया और किस रूप में उसका मूल्यांकन किया ? नही जानते, तो जान लो । उन्होंने इस घटना को सहज में ही लिया और ज्ञानदृष्टि से उसका मूल्यांकन किया। उनके मनमें राजा के प्रति न रोष था, ना कोप ! उन्हें अपने तन-बदन पर मोह ही नहीं था ! उन्होंने इस घटना पर विचार करते हुए मन ही मन सोचा : "राजा भला, मेरा क्या लटने वाला है ? उस की तलवार का और रोष का डर किस लिये ? मैंने कुछ छिपा नहीं रखा है । जो है सबके सामने है ! और फिर शरीर का मोह कैसा ? वह तो विनाशी है। कभी न कभी नष्ट होगा ही ! तलवार का प्रहार जब शरीर पर होगा तब मैं परमात्मध्यान में मग्न हो जाऊंगा, समता-समाधिस्थ बन जाऊंगा ! तब मेरे लूटे जाने का प्रश्न हो उपस्थित नही होता !" फलत: मुनिवर निर्भयता की परम ज्योति के सहारे परम ज्योतिर्मय बन गये । जब तक तुम कुछ छिपाना चाहते हो, सौदेबाजी करने में खोये रहते हो, किसी बात को गोपनीय रखना चाहते हो, तबतक तुम्हारे Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ज्ञानसार मन में सदैव भय की भावना, भयाक्रांतता बनी रहेगी और यही भावना तुम्हारी मोक्षाराधना के मार्ग में रोड़ा बनकर नानाविध मानसिक बाधाएँ । अवरोध पैदा करती हैं ! अतः इसे मिटाने के लिए ज्ञानदृष्टि का अमृत - सिंचन करना चाहिए। तभी मोक्ष- पथ की आराधना सुगम और सुन्दर बन सकती है । ● विश्व में कुछ छिपाने जैसा नहीं है ! ● विश्व में लेन-देन करने जैसा कुछ नहीं है ! ● विश्व में संग्रह करने जैसा कुछ नहीं है ! इन तीन बातों पर गहराई से चिंतन-मनन कर गले उतारना है, हृदयस्थ करना है । परिणामस्वरूप भय का कहीं नामोनिशान नहीं रहेगा । सर्वत्र अभय का मधुरनाद सुनायी देगा । मुनिमार्ग निर्भयता का राजपथ है । क्योंकि वहां छिपाने जैसा, गुप्त रखने जैसा कुछ भी नहीं है । जड़ पदार्थों का नाहीं वहां लेन देन करना है, नाही भौतिक पदार्थों का संग्रह करना है । हे मुनिवर ! ग्रापकी आत्मा के प्रदेश - प्रदेश पर निर्भयता की मस्ती उल्लसित है ! उसकी तुलना में स्वर्गीय मस्ती भी तुच्छ है । एक ब्रह्मास्त्रमादाय निघ्नन् मोहचमूं मुनिः ! बिभेति नैव संग्रामशीर्षस्थ इव नागराट् ||४|| १३२ ॥ अर्थ : ब्रह्मज्ञान रूपी एक शस्त्र धारण कर, मोहरुपी सेना का संहार करता मुनि, संग्राम के अग्रभाग में ऐरावत हाथी की भांति भयभीत नहीं होता है ! विवेचन : भय कैसा और किस बात का ? मुनि और भय ? ग्रनहोनी बात है ! मुनि के पास तो 'ब्रह्मज्ञान' का शस्त्र है ! इसमे वह सदासर्वदा निर्भय होता है । मुनि यानी घनघोर युद्ध में अजेय शक्तिशाली मदोन्मत्त हाथी ! उसे भला पराजय का भय कैसा ? उसे शत्रु का कोइ हुंकार या ललकार भयाक्रान्त नहीं कर सकता । मोह - रिपु से सतत संघर्षरत रहते हुए भी मुनि निर्भय और निश्चल होता है । ब्रह्मास्त्र के कारण वह नित्यप्रति आश्वस्त और निश्चित है ! मोह – सेना की ललकार और उत्साह को क्षणार्ध में ही मटियामेट करने की मुनिराज की योजना 'ब्रह्मास्त्र' को सहायता Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्भयता २३६ से सांगोपांग सफल होती है | मदोन्मत्त मोह-सेना, मुनिराज के समक्ष तृणवत् प्रतीत होती है । फिर भी उसकी हलचल, प्रयत्न और आवेग कुछ कम नहीं होते । _____ महाव्रत-पालन में सांगापांग सफलता, सार्वत्रिक समता, विश्वमैत्री की भव्य भावना और इन सबकी सिरमौर-सदृश परमात्म-भक्ति ! साथ ही आज्ञा-पालन, मुनिराज की शक्ति में निरंतर विद्युत-संचार करते रहते हैं ! उनके मुखमण्डल पर एक अद्भुत खुमारी दृष्टिगोचर होती है । वह खुमारी होती है निर्भयता की, शत्रु पर विजयश्री प्राप्त करने की असीम श्रद्धा की । मुनिवर दो प्रकार के युद्ध में सावधान होते हैं ! 'प्रोफन्सिव' और डिफेन्सिव' [OFFENSIVE AND DIFFENSIVE] ! शत्रु पर आक्रमण कर उसे धराशायी करने के साथ-साथ वह स्व-संपत्ति का संरक्षण भी करते हैं । ठीक उसी तरह किसी अन्य मार्ग से शत्र घुसपैठ कर लूट-मार न मचा दे, इस की पूरी सावधानी भी बरतते हैं। - मुनि उपवास, छठ्ठ अट्ठमादि उग्र तपश्चर्या करते हैं। यह भी मोहरिपु के खिलाफ एक जंग है, जो समय-समय पर खेलते रहते हैं । लेकिन फिर भी मुनिराज को अपनी जाल में फंसाने के प्रयत्नों में मोहराजा भी कोई कसर नहीं रखता ! 'आहार संज्ञा' के मोर्चे पर मुनिराज को लडता छोड दूसरी ओर से वह उनके क्षेत्र में अभिमान और क्रोध के सुभटों को छद्मवेश में घुसा देता है ! लेकिन मुनि भी इतने सोधे सादे और भोले नहीं है ! मोहराजा सेर हैं तो मुनिवर सव्वासेर जो ठहरे ! वे 'डिफेन्सिव' जंग में भी निपुण होते हैं । अतः तपश्चर्या करते समय वो क्रोध ओर अभिमान से हमेशा दूर रहते हैं । मोहराज के इन सूभट-द्वय को वे अपने पास फरकने नहीं देते ! ब्रह्मास्त्र की सहायता से महामुनि रणक्षेत्र में रणसिंधा फुक मोहरिपु की विराट सेना को मार-काट करते हुए, लाशों को रौंदते हुए आगे बढ जाते हैं ! बेचारा मोह ! सारी दुनिया को अपनी अंगुली के इशारे पर नचाता है, लेकिन मुनिवर का वह बाल भी बांका नहीं कर सकता ! वह निस्तेज, अशक्त और निर्जीव सिद्ध होता है ! मुनि राज की निर्भयता और अजेयता के आगे उसका कुछ नहीं चलता ! हमेशा एक बात याद रखो ! शत्रु की कैसी भी घेरेबन्दी क्यों न हो ? तुम सदा निर्भय बने रहो ! ब्रह्मज्ञान का हथियार हाथ में रहने दो ! उसे अपने से अलग न करो ! उसे छिनने के लिए शत्रु - Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० लाख प्रयत्न करेगा, शाम, दाम, दंड और भेद का आधार लेगा, तुम्हें प्रलोभन दिखा कर बहकाने का प्रयत्न करेगा । लेकिन सावधान ! हथियार हाथ से चला न जाए ! मुनि को इसकी पूरी सावधानी बरतनी चाहिए । फिर भय का प्रश्न ही नहीं उठेगा ! अर्थ मयूरी ज्ञानदृष्टिश्वेत् प्रसर्पति मनोवने । वेष्टनं भयसर्पाणां न तदानन्दचन्दने ||५|| ||१३३॥ : यदि ज्ञान दृष्टि रूपी मयूरी मनरुपी उपवन में स्वच्छद रूप से के लि क्रीडा करती है तो आनन्द रुपी बावनाचंदन के वृक्ष पर भयरूपी साँप लिपटे नहीं रहते । विवेचन : 'मन' बावना चंदन का उपवन है । 'ग्रानन्द' बावनाचंदन का वृक्ष है । 'भय' भयंकर सर्प है। ज्ञानसार 'ज्ञान दृष्टि' उपवन में किल्लाल करती, मीठी कूक से सब के चित्त- प्रदेश को हर्षोत्फुल्ल करती मयूरी है ! मुनिवर का मन यानी वावना चंदन का अलबेला उपवन ! वहाँ सर्वत्र सौरभ ही सौरभ ! जहाँ दृष्टि पडे वहाँ सर्वत्र चंदन के वृक्ष ! एक नहीं अनेक ! और वह भी सामान्य चंदन के नही, बल्कि बावना चंदन के वृक्ष ! जहाँ नजर पडे वहाँ आनन्द ही आनन्द ! मुनिवर का मन यानी आनन्द-वन ! उस ग्रानंद वन में मयूरी की मीठी कूक होती है । उस मयूरी का नाम है ज्ञानदृष्टि ! फिर भला, वे भय - सर्प चंदनवृक्ष से कैसे लिपट सकते हैं ? मुनि - जीवन के लिए ज्ञान- दृष्टि महत्त्वपूर्ण है ! ज्ञानदृष्टि के बल पर ही मुनि निर्भय रह सकता है । साथ ही उसके सान्निध्य में आत्मानंद की अनुभूति हो सकती है । ज्ञानदृष्टि का मतलब है ज्ञान की दृष्टि.... सम्यग् ज्ञान की दृष्टि । जगत् के पदार्थ और उसके प्रसंगों को ज्ञान-परिपूर्ण दृष्टि से देखना है, परखना है और अवलोकन करना है । इस तरह जीव को अनादि काल से आज तक नहीं मिली है ! अत; वह जो कुछ देखता है, परखता है, समझता है और जिसके सम्बंध में चिंतन की दिव्य-दृष्टि Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्भयता २४१ मनन करता है, वह सब रागदृष्टि से या द्वेषदृष्टि से करता है। फलतः कर्म-बंधनों के मजबूत जाल में खुद होकर फंस जाता है। जबकि ज्ञानदृष्टि में राग और द्वेष का सर्वथा अभाव होता है। ज्ञानष्टि यानी मध्यस्थ दृष्टि ! ज्ञानदृष्टि यानी यथार्थ दृष्टि ! अनादिकालीन अज्ञानपूर्ण कल्पना, मलिन पद्धति और मिथ्या वासना का अवलम्बन कर मष्टि को निरखने और परखने में भय रहता ही है ! फलत: निर्भयता नहीं मिलती है । एक उदाहरण से समझे इस बात को। शरीर रोगग्रस्त हो गया, अज्ञानी मनुष्य इससे भयभीत हो उठेगा । मलिन विचारवाला रोगको मिटाने के लिए गलत उपायों का अवलम्बन करेगा । मिथ्यावासना वाला शरीर में रहे रोग की चिंता में अपनी शांति खो बैठेगा ! और तब भय-सर्प उसके आनन्द -वृक्षों से लिपट जाएंगे । मन-वन में भय-सों की भरमार हो जाएगी ! लेकिन ज्ञानदृष्टि-मयरी की सुरीली कक सुनायी पडते ही भयसर्पो को छठी का दूध याद आ जाएगा और जहाँ राह देखेंगे वहाँ भागते देर नहीं लगेगी ! रोगग्रस्त शरीर की नश्वरता, उसमें रही रोग-प्रच रता और परिवर्तनशीलता का वास्तविक ज्ञान, ज्ञानदृष्टि हो कराती है । साथ ही, प्रात्मा और शरीर का भेद भी समझाती है । जबकि आत्मा को शाश्वतता, उसकी संपूर्ण निरोगिता और शुद्ध स्वरूप की ओर हमारा ध्यान भी केन्द्रित करती है । 'रोग का कारण पाप-कर्म हैं,' का निर्देश कर, पाप-कर्मों को नष्ट करने हेतु पुरुषार्थ कराती है । सनत्कुमार चक्रवर्ती का शरीर एक साथ सोलह रोगों (मतान्तर से सात महारोग) का शिकार बन गया ! लेकिन उनका मन-उपवन नित्यप्रति ज्ञान-दृष्टि रुपी मयूरी की मीठी कूक से गूंजारित था ! अत: उसने समस्त रोगों के मूल कर्म-बंधनों को काटने का भगीरथ पुरुषार्थ किया । सात सौ वर्ष तक कर्मों के साथ भिडते रहे, उनका सफल सामना करते रहे । उस का कारण था ज्ञानष्टि से उन्हें मिली निर्भयता और अभय-दृष्टि ! वे अपने उद्देश्य में सफल हुए। हमारे प्रयत्न ऐसे हों कि सदा-सर्वदा हमारे मन-वन में ज्ञान-दृष्टि रुपी मयूरी की सुरीली ध्वनि गूंजती रहे । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार २४२ कृतमाहास्त्रवैफल्यं ज्ञानवर्म बिति य : ! क्व भीस्तस्य क्व वा भंग. कर्मसंगरकेलिषु ॥६॥१३४॥ अर्थ :- जिस ने मोहरुपी शस्त्र को निष्फल बना दिया है, ऐसा ज्ञानरूप कवच धारण किया है, उसको कम-संग्राम की क्रीडा में भय कैसा और पराजय भी कैसे संभव है ? विवेचन : कर्मों के खिलाफ संग्राम ! संग्राम खेलनेवाले हैं मुनिराज ! मुनिराज इस संग्राम में पूर्णतया निर्भय और अजेय हैं ! भय का कहीं नामोनिशान नहीं और पराजय की गंध तक नहीं ! कर्म के सनसनाते मोहास्त्रों की बौछार होने पर भी मुनिवर के मुखारविंद पर भय की रेखा तक नहीं, बल्कि मंद-मंद स्मित बिखरा है । मन में अदम्य मस्ती है और युद्ध का अपूर्व उल्लास है । जिन मोहास्त्रों का सामना करते हुए तिस्मारखाँ को भी धिग्घी बंध जाएँ, बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं के चक्के छूट जाएँ और बड़े बड़े पहलवानों का दिल दहल जाएँ, धरती को कम्पायमान करनेवाले रथी-महारथी सुध-बुध खो बैठे, ऐसे तीक्ष्ण मोहास्त्रों को मार के बावजूद मुनिवर अटल-अचल और धीर-गंभीर खडे रहते हैं ! आश्चर्य की बात ही है ! यदि उनकी इस अडिग वृत्ति और निश्चलता का रहस्य जानना हो तो, तनिक निकट जाइए ! उन्हें एक नजर देखिए ! तब तुम्हारी शंका कुशंकाओं का निराकरण होते विलम्ब नहीं लगेगा ! । मनिराज का कवच तो देखो ! वह लोहे का नहीं, कछए की खाल का नहीं और ना ही किसी रासायनिक अथवा 'प्लेस्टिक' का है। वह कवच है ज्ञान का ! ज्ञान-कवच ! हाँ, उन्हों ने ज्ञान-कवच धारण कर रखा है । कर्म लाख प्रयत्न करें, अपने पास रहे मोहास्त्रों का भंडार खाली कर दें, लेकिन ज्ञानकवच के प्रागे सब निष्फल है ! वैशाली की नगरवधु रूपसुंदरी कोशा के यहाँ महायोगी स्थुलभद्रजी इसी ज्ञान-कवच को धारण कर बैठे थे ! दीर्घावधि तक मोहास्त्रों की बौछार....शर-संधान होता रहा, लेकिन कोइ असर नहीं हुआ। मुनिराज निर्भय थे । परिणामस्वरुप, Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्भयता २४३ उन्हें पराजय का सामना न करना पडा । बल्कि बिजयश्री की भेरी बजाते वे बहार निकल पाये । ___ अत: हमेशा ज्ञान-कवच सम्हाल रखना चाहिए। भूलकर भी कभी दीवार पर टांगने की मुर्खता की, अलमारी में बंद कर दिया और इधर एकाध मोहास्त्र कहाँ से आ टपका तो काम तमाम होते देर नहीं लगेगी ! ज्ञान-कवच कस कर बांधे रखिए ! जानबुझ कर ज्ञानकवच दूर मत करो ! वह दूर सरक नहीं जायँ-इसलिये सावधान रहें। चूंकि कभी-कभी वह कवच सरक कर गिर जाता है ! , इन्द्रियाधीनता 0 गारव (रसादि) 0 कषाय (क्रोधादि) ® परिषह-भीरूता इन चारों में से एकाध के प्रति भी तुम्हारे मनमें प्रेम पैदा होने भर की देर है ! कि ज्ञान-कवच सरक ही जाएगा और मोहास्त्र का जबरदस्त वार तुम्हारे सीने को छिन्न भिन्न कर देगा ! तुम पराजित हो, धराशायी हो जाओगे । संवेग-वैराग्य और मध्यस्थदृष्टि को विकसित-विस्तारित करनेवाले शास्त्र-ग्रंथों का नियमित रूप से पठन-पाठन, चिंतन-मनन और परिशीलन करते रहो ! तुम्हारी जोवन-दृष्टि को उसके रंग में रंग दो ! तूलवल्लघवो मूढा भ्रमन्त्यभ्रे भयानिलैः । नै रोमापि तैनिगरिष्ठानां तु कम्पते ॥७॥१३॥ अर्थ : आक की रूई की तरह हलके और मूढ ऐसे लोग भय रुपी वायु के प्रचंड झोंके के साथ आकाश में उडते है, जबकि ज्ञान की शक्ति से परिपुष्ट ऐसे मशक्त महापुरुषों का एकाध रोंगटा भी नहीं फडकता । विवेचन :- प्रचंड आँधी आने पर तुमने आकाश में धूल के गुब्बारे उडते देखे होंगे ? कपड़े और घास-फूस के तिनके उडते देखे होंगे ? लेकिन कभी मनुष्य को उडते देखा है ? हाँ, बड़े-बड़े, भारी-भरकम मनुष्य जैसे मनुष्य भी उड जाते हैं ! वायु के झंझावाती झोंके उन्हें आकाश में उड़ा ले जाते हैं और जमीन पर पटक देते हैं । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ज्ञानसार अच्छी तरह पहचान लो इस प्रचंड पवन को । इसका नाम भय है ! जिस तरह आँधी की तीव्र गति में आक की रूई उडकर आकाश में निराधार उडती रहती है, ठीक उसी तरह भय के भयंकर तूफान का भोग बन मनुष्य भी उपर उड कर यहाँ-वहाँ भटकता रहता है । आश्रय के लिए प्राकुल-व्याकुल हो जाता है । विकल्पों की दुनिया में निरर्थक चक्कर काटता रहता है, बिना किसी आधार. निराधार निराश्रय बनकर ! भय की आहट मात्र से मनुष्य उड़ने लगता है ! और भय भी एक प्रकार का नहीं बल्कि अनेक प्रकार के हैं: रोग का भय, बेइज्जत होने का भय, धन-संपत्ति चले जाने का भय, समाज में लांछित-अपमानित होने का भय और परिवार बिगड़ जाने का भय ! ऐसे कई प्रकार के भय का पवन सनसनाने लगता है ! और मूढ मनुष्य अपनी सारी सुध-बुध खोकर बावरा बन, उडता चला जाता है ! उसके मन में न स्थैर्य होता है और ना ही शांति ! जबकि मुनिराज ज्ञान के भार से प्रबल भारी होते हैं ! सत्त्वगुण का भार बढ़ता जाता है और तभी रजोगुण का भार नहिवत् हो जाता है । हिमाद्रि सदृश ज्ञानी पुरूषों का रोंगटा तक नहीं फडकता, भले ही फिर प्रचंड आँधी और तूफान से सारी सृष्टि में ही क्यों न उथलपुथल हो जाएं ! ज्ञानी पुरूष नगाधिराज हिमालय की भाँति संकटकाल में सदा अजेय, अटल, अचल और सदा निष्प्रकम्पित ही रहते हैं । झांझरिया मुनि को लांछित करने हेतु निर्लज्ज नारी ने उनके पाँव में पैजन पहना दिया और उनके पीछे हाथ धोकर पड़ गयी ! जब अपनी मनोकामना पूरी होते न देखी तब सरे आम चिल्ला पड़ीः ''दौड़ोदौड़ो, इस साधु ने मेरी इज्जत लूट ली!" परन्तु मुनिवर के मुख पर अथाह शांति के भाव थे । वे तनिक भी विचलित न हुए ओर त्रंबावटी नगरी के राजमार्ग पर बढ़ते ही रहे ! वहाँ न भय था, न कोई विकल्प ! " अब मेरा क्या होगा ? मेरी इज्जत चली जाएगी ? नगरजन मेरे बारे में क्या अनर्गल बातें करेंगे ?" क्योंकि वह अपने आप में परमज्ञानी थे, पर्वत-से अजेय-अडिग थे । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमयता २४५ हम ज्ञानी बनेंगे तभी भय पर विजय पा सकेंगे। उसे अपने नियंत्रण में रख सकेंगे। सचमुच, जिसने भय को भयभीत कर दिया, उस पर विजयश्री प्राप्त कर ली, उसका आनंद अनिर्वचनीय होता है । उसका वर्णन करने में लेखनी असमर्थ है। सिर्फ उसका अनुभव किया जा सकता है ! शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता ! भयाक्रांत मनुष्य उक्त आनन्द और असीम प्रसन्नता की कल्पना तक नहीं कर सकता ! ज्ञानी बनने का अर्थ सिर्फ जानकर बनना नहीं हैं, सौ-पचास बड़े-बड़े ग्रन्थ पढ लेना मात्र नहीं है । ज्ञानी का मतलब है ज्ञानसमृद्ध होना, निरंतर आसपास में घटित घटनाओं का ज्ञानदृष्टि से सांगोपांग अभ्यास करना, चितन-मनन करना है । ज्ञानदृष्टि से हर प्रसंग का अवलोकन करना । जिसके देखने मात्र से ही अज्ञानी थरथर कांपता हो वहाँ ज्ञानी निश्चल और निष्प्रकम्प रहता है। जिन प्रसंगों के कारण अज्ञानी विलाप करता है, ठंडी आहें भरता है और निश्वास छोड़ अपने कर्मों को कोसता है, वहाँ ज्ञानी पुरूष अतल अथाह जल-राशि सा धीर-गम्भीर और मध्यस्थ बना रहता है ! जिस घटना को निहार अज्ञानी भाग खड़ा होता है, वहाँ ज्ञानी उसका धैर्य के साथ सामना करता है ! _ ऐसे ज्ञान-समृद्ध बनने के लिए पुरूषार्थ करना चाहिए । फल स्वरूप, भय के झंझावात में भी तन-मन की स्वस्थता-निश्चलता को बनाये रख सकेगे, शिव नगरी की ओर प्रयारण करने हेतु समर्थ बनेंगे। ___तात्पर्य यह है कि निर्भयता का मार्ग ज्ञानी-पुरूष ही प्राप्त करते हैं । चित्ते परिणतं यस्य चारित्रमकुतोभयम् । __ अखण्डज्ञानराज्यस्य तस्य साधोः कुतो भयम् ॥॥१२६॥ अर्थः जिसके चित्त में जिसको किसी से कोई भय नहीं है, ऐसा चारित्र परिणत है, उस अखण्ड ज्ञान रुपी राज्य के अधिपति साधु को भला, भय कसा ? विवेचन : चारित्र! अभय चारित्र ! Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ज्ञानसार अभय का भाव प्रस्फुरित करनेवाला चारित्र जिस की अक्षय-निधि है और जो उसके पास है, उसे भला, भय कैसा ? किस बात का भय ? कारण वह तो अखंड, अक्षय ज्ञान रूपी-राज्य का एकमेव अधिपति है, महाराजाधिराज है ! अखंड ज्ञान का साम्राज्य ! और उसका सम्राट है मुनि स्वयं ! ऐसे साम्राज्य का अलबेला सम्राट क्या भयाक्रांत हो ? प्राकुलव्याकुल हो ? अरे उसे भयप्रेरित व्यथाएँ शत-प्रतिशत असंभव होती हैं । चारित्र की उत्कृष्ट भावना से उसकी मति भावित होती है । समस्त संसार के बाह्य भौतिक पदार्थ एवं कर्मजन्य भावों की ओर मुनि इस दृष्टि से देखता है 'क्षणविपरिणामधर्मा मानामद्धिसमुदया: सर्वे । सर्वे च शोकजनका: संयोगा विप्रयोगान्ताः ।। -प्रशमरति मनुष्य की ऋद्धि पीर संपत्ति का स्वभाव क्षणार्ध में ही परिवर्तित होने का रहा है और समस्त ऋद्धि-सिद्धि के समुदाय शौकप्रद हैं ! - संयोग वियोग में परिणमित होते हैं ! जिसे इस शाश्वत सत्य का पूर्ण ज्ञान है कि 'ऋद्धि सिद्धि और धनसंपदा क्षणिक है, 'वह कभी शोकग्रस्त अथवा भयातुर नहीं होता ! चारित्र में स्थिरता और अभय प्रदान करनेवाली दूसरी भी भावनाओं का मुनि बार-बार चिंतन करता रहता है: भोगसुखै: किमनित्यैर्भयबहले: कांक्षित: परायत्तैः । नित्यमभयमात्मस्थं प्रशमसुखं तत्र यतितव्यम् ॥ -प्रशमरित जो अनित्य भयमुक्त और पराधीन हैं ऐसे भोग सुखों से क्या मतलब ? अपितु मुनि को नित्य अभय और अात्मस्थ प्रशमसुख के लिए ही सदैव पुरूषार्थ करना चाहिए । वासनावृत्ति को जिसने प्रतिबंधित कर दिया है, कषायों के उत्पात को जिसने नियंत्रित कर दिया है, हास्य-रति-अरति एवं शोक उद्वेग की Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्भयता २४७ ज्वालाओं को शांत-प्रशांत कर दिया है, साथ ही अपनी दृष्टि को स बना दिया है, ज्ञान-ध्यान और तपश्चर्या का अतुल बल जिसने प्राप्त कर लिया है, लोक व्यापार और आचार-विचारों को हमेशा के लिए तिलांजलि दे दी है, ऐसे महामुनि को भला भय कैसा ? उसे किसी बात का डर नहीं होता । बल्कि वह तो निर्भय और नित्यानंदी होता है ! अक्षय ज्ञान - साम्राज्य में भय का नामोनिशान तक नहीं होता है ! ज्ञान-साम्राज्य के उस पार भय, शोक, और उद्वेग होता है ! मुनिराज को सिर्फ एक बात की सावधानी / दक्षता रखनी चाहिए कि भूलकर भी कभी वह ज्ञान - साम्राज्य की सीमाओं के उस पार न चला जाए ! वह अपने राज्य में सदा निर्भय होता है । साथ ही उक्त साम्राज्य के नागरिकों का वह एकमेव अभयदाता है । वास्तव में देखा जाए तो अभय का आनन्द ही सही आनन्द है । भयभीत अवस्था में आनन्द नहीं होता, बल्कि उसका अस्पष्ट आभास मात्र होता है, कृत्रिम आनन्द होता है । अखंड ज्ञान-साम्राज्य में ही अभय का आनन्द प्राप्त होता है । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. अनात्मशंसा आज जब स्वप्रशंसा के ढोल सर्वत्र बज रहे हैं और पर- निंदा करना हर एक के लिये एक शौक / फैशन बन गयी है, ऐसे में प्रस्तुत अध्याय तुम्हें एक अभिनव दृष्टि, नया दृष्टिकोण प्रदान करेगा । स्व के प्रति और अन्य के प्रति देखने की एक अनोखी कला सिखाएगा । यदि स्वप्रशंसा में आकंठ अहर्निश डूबे मनुष्य को पूज्यपाद उपाध्यायजी की यह दृष्टि पसन्द आ जाए, उसे आत्मसात् करने की बुद्धि पैदा हो जाए, तो निःसन्देह उसमें मानवता की मीठी महक फैल जायेगी । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनात्मशंसा गुणैर्यदि न पूरणों ऽसि, कृतमात्मप्रशंसया । गुणैरेवासि पूर्णश्चेत, कृतमात्मप्रशंसा ॥१॥। १३७ ।। अर्थ :- यदि तुम स्व-गुणों से परिपूर्ण नहीं हो, तब आत्म-प्रशंसा का क्या मतलव ? ठीक वैसे ही, यदि तुम स्व-गुणों से परिपूर्ण हो, तो फिर श्रात्मषशंसा की जरुरत ही नहीं है । २४६ विवेचन :- प्रशंसा ! स्व-प्रशंसा ! मनुष्य मात्र में यह वृत्ति जन्मतः होती हैं । उसे अपनी प्रशंसा सुनना अच्छा लगता है । जी भरकर स्व-प्रशंसा करना भी अच्छा लगता है । लेकिन यही वृत्ति अध्यात्ममार्ग में बाधक होती है । मोक्ष मार्ग की आराधना में 'स्व-प्रशंसा' सबसे बड़ा अवरोध है । अत: वह त्याज्य है । निःसंदेह तुम्हारे अन्दर अनंत गुणों से युक्त आत्मा वास कर रही है । तुम ज्ञानी हो, तुम दानवीर हो, तुम तपस्वी हो, तुम परोपकारी हो, तुम ब्रह्मचारी हो, फिर भी तुम्हें अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए और ना ही सुननी चाहिये । क्योंकि स्व-प्रशंसा से उत्पन्न प्रानंद तुम्हें उन्मत्त और मदहोश बना देगा । परिणाम स्वरुप अध्यात्म मार्ग से तुम भ्रष्ट हो जाओगे । तुम्हारा अधःपात होते बिलम्ब नहीं होगा । यदि तुम अपनेआप में गुणी हो, तब भला तुम्हें 'आत्म-प्रशंसा' की गरज ही क्या है ? श्रात्मप्रशंसा के कारण तुम्हारे गुणों में वृद्धि होने वाली नहीं, बल्कि उनके नामशेष हो जाने का डर है । 'मेरे सत्कार्यों से लोग परिचित हों, मेरे में रहे गुरणों की जानकारी दूसरों को हो...., लोग मुझे सच्चरित्र, सज्जन समझें...." आदि इच्छा, अभिलाषा के कारण ही मनुष्य ग्रात्म-प्रशंसा करने के लिए प्रेरित होता है । इसमें उसे अपनी भूल नहीं लगती, ना ही वह किसी प्रकार का पाप समझता है । भले ही वह न समझे ! संभव है साधना, उपासना और आराधना - मार्ग का जो पथिक न हो, वह उसे पाप अथवा भूल न भी समझे ! लेकिन जिसे मोक्ष मार्ग की साधना से आनन्दामृत की प्राप्ति होती है, आत्म-स्वरुप की उपासना मात्र से आनंद की डकारें आती हैं, उसे 'स्व-प्रशंसा, आत्म-प्रशंसा' की मिध्यावृत्ति अपनाने का कभी विचार तक नहीं आता । 'स्व-प्रशंसा' उस के लिए पाप ही नहीं afe महापाप है और उससे प्राप्त आनंद कृत्रिम और क्षणिक होता है । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ज्ञानसार लेकिन धरती पर ऐसे कई लोग हैं, जिनमें इन गुणों का अभाव होता है; सत्कार्य करने की शक्ति नहीं होती; वे भी अपनी प्रशंसा करते नहीं अघाते । अरे, तुम्हें भला किस बात की प्रशंसा करनी है ? गांठ में कुछ नहीं, और चाहिए सब कुछ ! गुणों का पता नहीं, फिर भो प्रशंसा चाहिए ? जो समय तुम आत्म-प्रशंसा में बरबाद करते हो, यदि उतना ही समय गुण-संचय करने में लगाओ तो? परंतु यह संभव नहीं । क्योंकि गुणप्राप्ति की साधना कठिन और दुष्कर है, जब कि बिना गुणों के ही आदर सत्कार और प्रशंसा पाने की साधना बावरे मन को, मूढ़ जीव को सरल और सुगम लगती है ! यह न भूलो कि स्वप्रशंसा के साथ परनिन्दा का नाता चोली-दामन जैसा है । इसीलिये ऐसे कई लोग परनिंदा के माध्यम से स्व-प्रशंसा करना पसंद करते हैं, जिन में आत्मगुण का पूर्णतया अभाव है, साथ ही जो स्वप्रशंसा के भूखे होते हैं । 'अन्य को तुच्छता साबित करने से खुद की उच्चता अपने आप सिद्ध हो जाती है ।' इस संसार में ऐसे जीवों की भी कमी नहीं है । आत्मोत्कर्षाच्च बध्यते कर्म नियैर्गोत्रं । प्रतिभवमनेकभवकोटिदुर्मोचम् ॥ भगवान उमास्वातिजी फरमाते हैं 'आत्मप्रशंसा के कारण ऐसा नीचगोत्र कर्म का बन्धन होता है कि जो करोड़ों भवों में भी छूट नहीं सकता ।" साथ ही, यह भी शाश्वत सत्य है कि यदि हम सही अर्थ में धर्माराधक हैं, तो हमे अपने मुंह अपनी ही प्रशंसा करना कतइ शोभा नहीं देता। श्रेयोद्रमस्य मूलानि, स्वोत्कर्षाम्भ:प्रवाहतः । पुण्यानि प्रकटीकुर्वन्, फलं कि समवाप्स्यसि ? ॥२॥१२८।। अर्थ :- कल्याणरुपी वृक्ष के पुण्यरुपी मूल को अपने उत्कर्षवाद रुपी जल के प्रवाह से प्रकट करता हुआ तू कौन सा फल पायेगा ? विवेचन :- कल्याण वृक्ष है ।। उसका मूल पुण्य है, जड़ है । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनात्मशंसा २५१ ___ जिसकी जड़ मजबूत है, मूल नीचे तक भीतर उतरा है, वह वृक्ष मजबूत । यदि जड़ें ही कमजोर हैं, तो वृक्ष के ढहते देर नहीं लगेगी। वह धराशायी हुना ही समझो । सुख का विशाल वटवृक्ष पुण्य रूपी घनी जड़ों पर ही खड़ा है। क्या तुम जानते हो कि वटवृक्ष की जड़ में पानी का प्रवाह पहुँच गया है और उसके मूल बाहर दिखायी देने लगे हैं। उसके प्रासपास की मिट्टी पानी की धारा में बह गई है। क्या तुम्हें पता है ? पानी की वजह से मूल कमजोर हो गये हैं और वृक्ष खतरनाक ढंग से हिलने-डुलने लगा है। जरा अांखें खोलो, होश में आओ और ध्यान से देखो । वृक्ष कडाके की आवाज के साथ जमीन पर पा गिरेगा । उफ, इतनी उपेक्षा करने से भला, कैसे चलेगा ? क्या तुम पानी के प्रवाह को नहीं देख रहे हो ? अरे, तुमने खद ही तो नल खोल दिया है । क्या तुम अपनी प्रशंसा नहीं करते ? अपनी अच्छाईयों और अच्छे कामों का बखान नहीं करते ? अपने गुरण और प्रवृत्तियों की 'रिकार्ड' वजाते नहीं थकते ? अरे मेरे भाई ! उसी स्व-प्रशंसा का नल तुमने पुरजोश में खोल दिया है और पानी 'कल्याण-वृक्ष' की जडों तक पहुंच गया है । लो, ये मूल दिखने लगे और वृक्ष धराशायी होने की तैयारी में है। अगर एक बार 'कल्याण वृक्ष' ढह गया कि फिर तुम्हारे नसीब का सितारा डूब गया समझो । पीछे दुःख भोगने के सिवाय कुछ नहीं बचेगा । सब मिट्टी में मिल जाएगा । और तब स्व-प्रशंसा करने की घृष्टता ही नामशेष हो जाएगी। अलबत्ता, स्वप्रशंसा कर तुम्हें कुछ न कुछ खशी तो होती ही होगी और सुख का आस्वाद भी मिलता होगा । लेकिन स्व-प्रशंसा से प्राप्त आनंद क्षणभंगुर होता है । साथ ही उसका अंजाम बुरा ही होता है । क्या तुम ऐसे दुःखदायी सुख और आनंद का त्याग नहीं कर सकते ? यदि कर लोगे, तो नि:संदेह 'कल्याण-वृक्ष' स्थिर, मजबूत और दीर्घजीवी साबित होगा। फलतः उसकी डाल पर सुख के मीठे फल लगेंगे और उन फलो का आस्वाद तुम्हे अजरामर बना देता । बेशक, तब तक तुम्हें धैर्य रखना होगा। दूसरों का स्व-प्रशंसा का पानंन्द लूटते देख भूलकर भी तुम उनका अनुसरण न करना । भले ही दूसरे स्व-प्रशंसा के आनन्द Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ज्ञानसार में आकठ डूब जाए, लेकिन तुम्हारे मन तो वह आनन्द प्रकल्प्य और अभोग्य ही है । हम अपनी प्रशंसा खुद करें, तो अच्छा नहीं लगता । आराधक प्रात्मा के लिए यह सर्वथा अनुचित और अयोग्य है कि वह नित्यप्रति अपना मूल्यांकन खुद ही करे, अपने महत्त्व का रटन/ जाप खुद ही करे और खुद ही लोगों को अपने गुण बताये । आराधक को चाहिए कि वह 'स्व-विज्ञापन' को घोर पाप समझे । मोक्ष-मार्ग का अनुगामी अपने दोष और दूसरों के गुण देखता है । जब वह अपने गुणों से ही अनभिज्ञ होता है, तब उसकी प्रशंसा (स्तुति) करने का प्रसंग ही कहाँ आता है ? स्व.-प्रशंसा से कल्याण-वक्ष की जड़ें उखड़ जाती हैं । उसका तात्पर्य यह है कि स्वप्रशंसा करने से पुण्यबल क्षीण हो जाता है और पुण्य क्षीण होते ही सुख खत्म हो जाता है । यह निर्विवाद सत्य है कि स्वप्रशंसा सुखों का नाश करनेवाली है । प्रालंबिता हिताय स्युः परैः स्वगुरगरश्मयः । अहो स्वयं गृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ ।।३।।१३९।। अर्थ :- यदि दूसरे व्यक्ति ने तुम्हारे गुण रुपी रस्सी को थाम लिया, तो वह उसके लिए हितावह है, लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि यदि स्वयं गुणरूपी रस्सी को थाम लिया तो भव-समुद्र में डूबा देती है। विवेचन :- तुम्हारे में गुण हैं ? उन गुणों को दूसरों को देखने दो। दूसरों को उनका गुणानुवाद करने दो । वे उक्त गुरगदर्शन, गुणानुवाद और गुरण-प्रशंसा की रस्सी को पकड़ कर भव-सागर से पार हो जायेंगे । लेकिन तुम अपने गुणों की प्रशंसा अथवा दर्शन करने की कोशिश भूलकर भी न करो । यदि तुम अपनी प्रशंसा खुद करने की बुरी लत में फंस गये, तो तुम्हारा बेडा संसार-सागर में गर्क होते देर नहीं लगेगी । तुम्हारी यह लत, आदत तुम्हें भवोदधि की अथाह जलराशि में डुबाकर ही रहेगी । वैसे देखा जाए तो गुण-प्रशंसा ऐसी शक्ति है, जो भवोदधि से तीरा सकती है और डूबा भी सकती है । हाँ, कौन किसके गुणों की प्रशंसा करता है, यह सब उस पर निर्भर है । खुद ही अपनी प्रशंसा करने भर Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनात्मशंसा २५३ की देर है कि डुब गये समझो । जबकि अन्य जीव के गुरणों की प्रशंसा की, तो पार लगते देर नहीं । जब-जब तुम्हारे मन में गुरणनुवाद करने को इच्छा जगे, तब-तब दूसरों के गुणों की प्रशंसा करनी चाहिये और स्व-प्रशंसा की बुरी लत से कोसों दूर रहना चाहिये। हालांकि स्व-प्रशंसा की बुराई मनुष्य में आज से नहीं, बल्कि अनादिकाल से चली आ रही है और जोव मात्र उसका भोग बनता रहा है । जो इससे मुक्त हो गया, निःसंदेह वह महान् बन गया । स्वप्रशंसा करने से * गुणवृद्धि का कार्य बोच में ही स्थगित हो जाता है । * स्व दोषों के प्रति उपेक्षाभाव पैदा होता है । * दूसरों के गुण देखने की वृत्ति नहीं रहती । दूसरों के गुण सुनकर द्वेष पैदा होता है । घोर कर्म-बन्धन के शिकार बनते हैं । * * दूसरों की नजर में अपने आप को गुणवान, बुद्धिशाली, सर्वोत्तम, सज्जन दिखाई देने की इच्छा, जीव को 'स्व-प्रशंसा' करने के लिए प्रेरित करती है । ऐसी इच्छा सर्वजन साधारण है । इससे दूर रहे विना जीव पाप के अभेद्य परकोटे को भेद नहीं सकता । लेकिन इसके मूल में जो भावना काम कर रही है, वह तो सौ फीसदी गलत और अनिच्छनीय है । मैं अपनी प्रशंसा करुगा तब दूसरे मुझे सज्जन, गुणवान समझेंगे । ' क्या यह रीत अच्छी है ? सच तो यह है कि इस तरह स्व-प्रशंसा से सर्वत्र अपना विज्ञापन करना कोई अच्छी बात नहीं है, ना ही प्रभावशाली भी । अलबत्ता, लोकतंत्र के युग में चुनाव में खड़े प्रत्याशी / उम्मीदवार को जो भरकर अपनी प्रशंसा का राग अलापना पड़ता है । विद्यमान परिस्थिति में धर्मक्षेत्र, सामाजिक क्षेत्र, शैक्षणिक क्षेत्र और राजनैतिक क्षेत्र में सत्ता और स्वामित्व प्राप्त करने के लिए स्व-प्रशंसा एक रामबाण उपाय माना गया है । हलांकि सांसारिक क्षेत्र में 'स्व-प्रशंसा', भले ही आवश्यक मानी गयी हो, लेकिन धर्म-क्षेत्र में यह सबसे बड़ा अवरोध है । यदि हम मोक्षमार्ग के पथिक हैं अथवा उस मार्ग पर चलने के अभिलाषी हैं, तो 'स्व-प्रशंसा का परित्याग करने की हमें प्रतिज्ञा करनी चाहिए। संभव है कि स्व Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ज्ञानसार प्रशंसा' से दूर रहने पर तुम्हें लगेगा कि दुनिया में तुम्हारी सही पहचान, वास्तविक मूल्यांकन नहीं हो रहा है। लेकिन एक समय ऐसा आ जाएगा, जब तुम्हारे गुण समस्त विश्व के लिए एकमेव आलंबन सिद्ध होंगे । दुनिया के समस्त प्राणी तुम्हारे गुरगों की रस्सी थामकर पापकंड से बाहर निकल जायेंगे। धीरज का फल मीठा होता है । जल्दबाजी करनेवाले व्यक्ति के लिए नुकसानदेह है । और हाँ, दूसरों का गुणानुवाद करने की प्रवृत्ति निरन्तर जारी रखना, बीच में ही स्थगित नहीं कर देना । उच्चत्वरष्टिदोषोत्थस्वोत्कर्षज्वरशान्तिकम् । पूर्वपुरूषसिंहेभ्यो, भृशं नोचत्वभावनम् ।।४।।१४०॥ अर्थ :- सर्वोच्चता की दृष्टि के दोष से उत्पन्न स्वाभिमान रूपी ज्वर को शान्त करने वाले पूर्वपुरूषरुपी सिंह से अत्यन्त न्यूनता की भावना करने जैसी है। विवेचन :- उच्चता का खयाल ! खतरनाक खयाल है । "मैं सर्वोच्च है । मैं दूसरों के मुकाबले महान हैं। तप और चारित्र से बड़ा है। ज्ञान से श्रेष्ठ हूँ । सेवा-सादगी के क्षेत्र में परमोच्च हूँ।" यदि इस तरह की नानाविध वैचारिक तरंगें किसी के दिमाग में निरन्तर उठती हों, तो निहायत खतरनाक और भयानक है। याद रखना, इन्हीं विचारतरंगों से एक प्रकार का ऐसा विषम ज्वर पैदा होगा कि जान के लाले पड़ जाएंगे। ऐसा ज्वर, कि जो मलेरिया, न्यूमोनिया और टायफाइड से भी भयंकर होता है और वह है-अभिमान....मिथ्याभिमान ! __ संभव है, ज्वर का यह नाम तुमने जिंदगी में पहली बार ही सुना होगा। तेज बुखार में मनुष्य को मिठाई कडवी लगती है। वह निरन्तर अनर्गल बकबास और पागलपन के प्रलाप करता रहता है । अपनी सुघबुध और होशो-हवास खो बैठता है | अभिमान.... मिथ्याभिमान के विषम ज्वर में भी ये ही सारी प्रतिक्रियायें होती रहती है। लेकिन अभिमानी व्यक्ति इसे देख नहीं पाता और ना ही समझ पाता है । . अभिमान के तेज बुखार में नम्रता, विनय, विवेक, लघुता की मेवा-मिठाई कभी नहीं भाती, बल्कि कडवी लगती है । ठीक वैसे ही उस पर 'पर-अपकर्ष' के पागलपन की धुन सवार हो जाती है । फलतः Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रनात्मशंसा २५५ वह क्या बकता है, उस हालत में कैसा लगता है, आदि बातों का उसे भान नहीं रहता । वह उसी दौर में पूज्य माता-पिता का अपमान करता है । परम आदरणीय गुरुदेवों का उपहास करता है । अन्य गुणीजनों को तुच्छ समझता है । उनके दोषों को संबोधित कर उन्हें अपमानित करने की चेष्टा करता है । क्या ऐसे विषम ज्वर को उतारना है, शान्त करना है ? यदि अभिमान को 'ज्वर' स्वरूप में मान लें तभी यह संभव है । उसे दूर करने के प्रयत्न किये जा सकते हैं । अभिमान के विषम ज्वर से पीडित जीव आत्मकल्याण के मार्ग पर चल नहीं सकता । शायद वह यों कह दे कि, 'मैं मोक्षमार्ग पर ही हूँ,' तो यह उस का मिध्या प्रलाप ही है । पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने प्रस्तुत विषम ज्वर को नेस्तनाबूद करने का उपाय भी सुझाया है : "जिस विषय का तुम्हें प्रभिमान है जिस पर तुम्हें नाज है, उस विषय में निष्णात / पारंगत बने प्राचीन महापुरूषों के सम्बन्ध में सोचो, विचार करो और उनकी सर्वोत्तम सिद्धि के साथ अपनी तुलना करो ।” सचमुच प्रस्तुत विचारप्रौषधि चमत्कारिक एवं अनूठी है । तुम अपने को उन महापुरुषों के मुकाबले खड़ा पाओगे तो स्वयं को बौने से कम नहीं पाओगे । तुम्हें अपना अस्तित्व नहींवत् प्रतीत होगा और क्षणार्ध में ही तुम्हारा अभिमानज्वर 'नॉरमल' हो जाएगा ! जब ज्ञान, विज्ञान, बुद्धि, बल, कला, त्याग, व्रत, तपादि विषयों में पारंगत, सिद्ध महापुरुषों के स्मरण मात्र से तुम आश्यर्चचकित रह जानोगे । तुम्हारा अभिमान - ज्वर शीघ्र उतर जायेगा । ठीक वैसे ही आज के युग में भी हम से अधिक विद्वान् और पारंगत कई महापुरुषों का विचार करना जरुरी है : "इन सबकी तुलना में भला, मुझमें अधिक क्या है ? यदि कुछ नहीं, तब यों ही अभिमान करना कहां तक उचित है ?" शरीर-स :-रूप- लावण्य-ग्रामारामधनादिभिः । उत्कर्षः परपर्यायैश्चिदानन्दधनस्य कः ? ||५|| १४१ ।। अर्थ : शरीर के रूप-लावण्य, गाँव, बाग-बगीचे, धन-धान्यादि और पुत्रपौत्रादि समृद्धि रूप परद्रव्य के पर्यायों से भला ज्ञानानन्द से परिपूर्ण आत्मा को अभिमान कैसा ? Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ज्ञानसार विवेचन : परपर्याय ! आत्मा से जो पर है, भिन्न है, उसके पर्याय । शारिरीक सौन्दर्य, रूप-लावण्य, ग्राम-नगर, उद्यान, धन-धान्यादि संपदा और पुत्र-पौत्रादि....ये सब पर-पर्याय हैं । प्रात्मा से भिन्न जो पुद्गल हैं यह उसकी सृष्टि है । पुद्गल की ये परिवर्तनशील अवस्थायें हैं । ___आत्मन् ! पुद्गल की इन रचनामों से भला, तुझे क्या लेना-देना ? जरा, ध्यान से सुन । ये कोई तेरी अपनी अवस्थायें नहीं हैं, ना ही तेरी सृष्टि ! ये तो 'पर' हैं, परायी हैं । मतलब, जो कुछ भी है, दूसरों का है। इनकी समृद्धि से तू अपने आप को श्रीमंत-समृद्ध न मान । ना ही इन पर मिथ्या अभिमान कर । इसके अभिमान से उत्पन्न प्रानन्द तुम्हारे किसी काम का नहीं है । अत: बेहतर यही है कि तुम इससे सर्वथा अलिप्त रहो । हे चिदानन्दधन ! तुम ज्ञानानन्द से परिपूर्ण हो । पुदगलानन्द का सारा विष नष्ट हो गया है । ज्ञानानन्द की मस्ती की तुलना में तुम्हें इन पद्गलों की परिवर्तनशील अवस्थाओं से प्राप्त प्रानन्द तुच्छ प्रतीत होता है । वह आनन्द नहीं, बल्कि नीरा पागलपन लगता है । सारी दुनिया भले ही तुझे पुद्गल-पर्याय की समृद्धि के कारण सुन्दर समझे, सौन्दर्यशाली माने, नगरपति समझे, पुत्र-पुत्री और पत्नी के कारण पुण्यशाली करार दे, अलौकिक संपदा का स्वामी माने । लेकिन दुनिया के इस पर-पर्याय-दर्शन से उत्पन्न कोर्ति तुम्हारा एक रोम भी खड़ा नहीं कर सकती, तुम्हे रोमांचित नहीं कर सकती । क्योंकि तुमने मन ही मन दृढ संकल्प कर लिया हैः “शरीर का रूप और लावण्य, धन-धान्यादि संपदा, पुत्र-पौत्रादि परिवार....ये सब पुद्गलजन्य हैं, ना कि मेरा है । मेरे साथ इन का कोई सम्बन्ध नहीं ।" तब भला, उस पर अभिमान करने का प्रश्न हो कहाँ खड़ा होता है ? जब पर-पर्याय का मूल्यांकन नहीं रहा, तब उस पर अभिमान करने से क्या मतलब ? ० पर-पुद्गल के पर्यायों का मूल्यांकन बन्द करो । ० ज्ञानानन्द को अखंड रखो । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनात्मशंसा २५७ प्रात्मप्रशंसा के मिथ्याभिमान से बचने के लिये ज्ञानी पुरुषों ने दो उपाय सुझाये हैं । मोक्ष-मार्ग की ओर जिसने प्रयाण शुरू कर दिया है, व्रत-महाव्रतमय जीवन जीने का जिस ने संकल्प कर लिया है और जो तपश्चर्या तथा त्याग का उच्च मुल्यांकन करते हैं, ऐसी मुमुक्षु आत्माओं को चाहिए कि वे हमेशा स्वप्रशंसा के पाप से बचने का पुरुषार्थ करें । उसके लिये उन्हें पुद्गल-पर्यायों का गुरण-गान करना बन्द करना चाहिये । सदा-सर्वदा ज्ञानानन्द के अतल सरोवर में निमग्न हो जाना चाहिये । सावधान ! स्व-प्रशंसा के साथ पर-निन्दा प्रायः जुड़ी हुई होती है। एक बार स्व-प्रशंसा एवं परनिन्दा का आनन्द प्राप्त होने लगा कि ज्ञानानन्द का प्रवाह मंद होने लगेगा, वैसे-वैसे प्रात्म-तत्त्व का विस्मरण होता जाएगा और तुम्हारे जीवन में पुदगल-तत्त्व प्रधान बन जाएगा। -मुनि तो चिदानन्दघन होता है । -उसे पर-पर्याय का अभिमान नहीं होता। - वह ज्ञानानन्द-महोदधि में विलसित रहता है । -मुनि को निरभिमानता इसीलिये होती है। शुद्धाः प्रत्यास्मसाम्येन, पर्यायाः परिभाविताः । प्रशुद्धाश्चापकृष्टत्वाद्, नोत्कर्षाय महामुनेः ॥६॥१४२।।... अर्थ : प्रत्येक आत्मा में शुद्ध घर की दृष्टि से प्रपाणित शुद्ध-पर्याय समान हा से निभान होने हैं और अशुद्ध-विभावपर्याय तुच्छ होने से महामुनि [सभी नयों में मध्यस्थ परिणति वाले] उस पर कभी अभिमान नहीं करते । विवेचन :- महामुनि तत्त्वचिन्तन के माध्यम से अभिमान पर विजयश्री प्राप्त करते हैं । न जाने यह चिन्तन कैसा तो अद्भुत, अपूर्व और सत्य है, यहो तो देखना है । ___ महामुनि शुद्ध नय की दृष्टि से प्रात्म-दर्शन करते हैं। पहले अपनी प्रात्मा का देखते हैं, बाद में अन्य प्रात्माओं को देखते हैं । उनको किसी प्रकार का भेद ...अन्तर....उच्च-नोचता....भारी-हल्कापन का दर्शन Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सानसार नहीं होता । हर प्रात्मा के शुद्ध पर्याय समान दिखायी देते हैं । अन्य आत्मा के बजाय अपनी आत्मा में कोई विशेषता अथवा अधिकता दृष्टिगोचर नहीं होती । तब अभिमान क्यों और किसलिये किया जाए? दूसरों के मुकाबले हमारे में कोई विशेषता अथवा किन्हीं गुणों की प्रचुरता हो, तभी अभिमान जगे न ? . आत्मा के शुद्ध पर्यायों का विचार शुद्ध नय की दृष्टि से ही किया जाता है । ऐसी स्थिति में सभी आत्मायें ज्ञानादि अनन्त गुणों से युक्त, अरूपी....दोष-विरहित और समान प्रतीत होती हैं। दूसरी प्रात्मा की तुलना में हमारी आत्मा में एकाध गुण भी अधिक नहीं होता....। किसी आत्मा में दोष के दर्शन नहीं होते । फिर भला, उत्कर्ष किस बात पर करना चाहिये ? संभव है, शुद्ध स्वरूप के चिन्तन में तो अभिमान के अश्व पर सवार होना सर्वथा दुष्कर है, लेकिन शुद्ध पर्यायों के साथ-साथ अशुद्ध पर्याय भी विद्यमान होते हैं । अशुद्ध पर्यायों में समानता नहीं होती है । तब अभिमान का टट्ट रेस के घोड़े का रुप धारण करने में विलंब नहीं करता और पागल जीव उस पर सवार हो जाता है ! लेकिन महामुनि अशुद्ध पर्यायों से कोसों दूर रहते हैं । अपने आत्मप्रदेश से अशुद्ध पर्यायों को देश-निकाला दे देते हैं । तब वे अभिमान कैसे करेंगे ? भले ही दूसरों के मुकाबले अलौकिक रुप-सौन्दर्य हो, विशिष्ट प्रकार का लावण्य हो, शास्त्र-ज्ञान और परिशीलन में महापंडित हो, अधिक प्रज्ञा हो, अन्य आत्माओं से बढ़-चढ़कर शिष्य-संपदा हो, अथवा मान-सम्मान का जयघोष सारी आलम में गूंजता हो, उनके (महामुनि के) लिये यह सब तुच्छ और क्षणिक होता है। सर्वोत्तम महामुनि भूलकर भी कभी क्षणिक वस्तु पर अभिमान नहीं करते । यदि पड़ोसी के बजाय तुम्हारे घर में अधिक गंदगी हो, तुम्हारा घर ज्यादा गंदा और मटमैला हो, तो क्या अभिमान करोगे ? 'तुम्हारे मकान से मेरे मकान में ज्यादा कचरा है !' कहते हुए क्या तुम्हारा सीना फलकर कुप्पा हो जाता है ? नहीं, हर्गिज नहीं । क्योंकि कचरे को तुम तुच्छ समझते हो । कचरे की अधिकता पर अभिमान नहीं होता ! तब भला, जो महामुनि समस्त वैभाविक पर्यायों को तुच्छ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनात्मशंसा २५६ समझते हैं, एक प्रकार की गंदगी समझते हैं, उस पर और उस की अधिकता पर भूलकर भी क्या वे अभिमान करेंगे ? - शुद्ध पर्यायों में समानता का दर्शन, - अशुद्ध पर्यायों में तुच्छता का दर्शन, महामुनि को सदा मध्यस्थ भाव में बनाये रखने में आधारभूत सिद्ध होता है । यह दर्शन उसे आत्म-उत्कर्ष के गहरे समुद्र में गिरने नहीं देता और फलस्वरुप प्रात्मा की स्वभावदशा और विभावदशा का चिन्तन, महामुनि का अमोघ शस्त्र बन जाता है। अमोघ शस्त्र के सहारे वह अभिमान की उत्तुंग चोटियों को चकनाचूर कर देता है । यदि हर एक मुनि इसी चिन्तन-पथ के पथिक बन, साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ते रहें, तो अभिमान को क्या ताकत है कि वह उनके मार्ग का रोडा बन सके ? क्षोभं गच्छन् समुद्रोऽपि, स्वोत्कर्षपवनेरितः । गुणोधान् बुद्दीकृत्य, विनाशयसि कि मुधा ? ॥७॥१४३॥ अर्थ : मर्यादासहित होने के बावजूद भी, अपने अभिमान रुपी वायु से प्रेरित एवं व्याकुलता को प्राप्त हुआ, अपनी गुण-राशि को पानी के बुदबुदे का रुप देकर' व्यर्थ में नष्ट क्यों करता है ? विवेचन :___ - वह साधु है । - साधु-वेष को मर्यादा में है । अभिमान-वायु के प्रचंड झोंके उठ रहे हैं । यात्म-समुद्र में तूफान पा गया है । गुण-राशि का अपार जल बुदबुदा बन नष्ट हो रहा है, खत्म हो रहा है । क्या तुम्हें यह शोभा देता है ? तुम अपनी मर्यादा तो समझो ! यदि यह तथ्य समझ में आ जाये कि 'अभिमान की वायु गुणों का नाश करती है, तो गुणों के नाश की प्रक्रिया रुक जायेगी। पूज्य उपाध्यायजी महाराज का आदेश है कि गुणों का संरक्षण और संवर्धन करते हुए भो अभिमान नहीं करें। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ज्ञानसार तू साधु का स्वांग रचकर, साधु-वेष धारण कर, अभिमान करता है ? व्यर्थ हो गुणों का नाश क्यों करता है ? क्या तेरी समझ में कतई नहीं आता कि अभिमान के कारण गुणों का नाश होता है ? जानते नहीं कि अभिमानवश जमालि भव-भवर में फंस गया । वह मिथ्याभिमान के कारण अपनी सुध-बुध खो बैठा। संस्कार और शिक्षादीक्षा भुला बैठा । परमोपकारी परमात्मा महावीर देव के अनन्त उपकारों को विस्मृत कर दिया | विनय विवेक से भ्रष्ट बन गया । साथ ही अपनी अल्पज्ञता का ख्याल खो बैठा । न जाने उसने कितने गुरण खो दिये । गुणों का नाश कर बैठा । अरे, ग्रभिमान के प्रचंड वायु के झोंकों की लपेट में आकर असंख्य गुणरुपी महल ध्वस्त हो जाते हैं । अभिमान - वायु के उद्गम स्थान पर ही क्यों न 'सील' मार दी जाए ? कुल, रुप, बल, बुद्धि, यौवन वगैरह अन्य जीवों से तुम्हारे पास बढ़-चढ़कर होंगे | यदि इस पर तुमने उत्कर्ष किया तो कुत्सित हवा के झोंके उठते विलंब नहीं होगा । यदि तुम श्रमण हो तो शास्त्रज्ञान, शास्त्राभ्यास, शासन - प्रभावकता, वक्तृत्व-शक्ति लेखन - कला, शिष्यपरिवार, भक्त - समुदाय और गच्छाभिमान.... आदि छोटी-मोटी बातों का व्यामोह पैदा होते देर नहीं लगेगो । ऐसे समय यदि तुमने तात्त्विक चिन्तन द्वारा उन सब बातों को 'तुच्छ' न माना और शुद्ध नय की दृष्टि से 'समानता' का विचार न किया, तो मिथ्याभिमान की भूत-लीला से तुम आक्रान्त हो जायोगे । फलतः तुम्हारे में रहे गुण, पानी के बुदबुदे को तरह नष्ट होते पल की भी देर नहीं लगेगी । उसमें एक नये अनिष्ट का जन्म होगा । गुणरहित होने के उपरान्त भी 'मैं गुणी हूँ' ऐसा बताने हेतु ओर अपनो इज्जत बचाने के लिये दंभ करना पडेगा । तुम्हें दंभी बनना होगा ! तुम जैसे नहीं हो, वैसा प्रदर्शन करने के लिये प्रयत्न करोगे । तनिक सोचो, प्रात्मा का यह कैसा अधःपतन ? क्या यह भी नये सिरे से समझाना होगा ? प्रायः ऐसा देखा गया है कि दुष्कर प्रयत्न और घोर तपश्चर्या के फलस्वरुप आत्मा में गुणों का प्रादुर्भाव होता है । यदि उन का यथोचित संरक्षण और संवर्धन न किया जाए, तो समझ लेना चाहिये कि गुणों का सही मूल्यांकन करना हम भूल गये हैं । जो मनुष्य गुणों का मूल्यांकन करना भूल जाए, उसके गुण नष्ट होते समय नहीं लगता । गुणों Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनात्मशंसा के मारक हमेशा इसी ताक में रहते हैं। उन को तो केवल अवसर मिलना चाहिए । वे अपनी पूरी शक्ति के साथ जीव पर पील पड़ेगे, टूट पडेंगे और गुणों का संहार करके ही दम लेंगे। अत: स्व-पर्याय अथवा पर-पर्याय का अभिमान नहीं करना है । सदा-सर्वदा, निरभिमानी बने रहना है । क्योंकि हम साधु-वेष की मर्यादा के बन्धन में जो हैं। हे महात्मन् ! भूलकर भी गुणों का नाश न करो और ना ही अभिमान....मिथ्याभिमान की संगत करो ! निरपेक्षानवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्तयः ।। योगिनो गलितोत्कर्षापकर्षानल्पकल्पना : ॥८॥१४४॥ अर्थ :- योगी का स्वरूप अपेक्षारहित, देश की मर्यादा से मुक्त, काल की मर्यादा से रहित, ज्ञानमय होता है । उनको उत्कर्ष की कल्पनायें गलित हो गयी होती हैं । विवेचन : योगी ! जो आत्मस्वरूप में लीन और परमात्म-स्वरूप की झंखना करने वाला होता है उसे देश-काल के बन्धन नहीं होते हैं । वह स्व-उत्कर्ष से और पर-अपकर्ष से परे होता है । आत्मा के प्रतल महोदधि में अनंत ज्ञान में योगी सदा रमण करता है । पर-भाव, पर-पर्याय अथवा पौद्गलिक विविध रचनाओं में योगी की चेतना जाती नहीं, लुब्ध नहीं होती, आकर्षित नहीं होती। उसके मन में किसी प्रकार की कोई झंखना, कामना अथवा अभिलाषा के लिये स्थान नहीं होता । वह निरन्तर परमात्म-स्वरूप की अन्तिम मजिल पाने हेतु प्रवृत्तिशील रहे । उसे किसी की परवाह नहीं होती, ना ही कोई अपेक्षा । वह पूर्णतया निरपेक्ष भाव का प्रतीक होता है। उस में भव-सागर पार उतरने के लिये आवश्यक उत्कट निरपेक्षता होती है । 'निरविक्रवो तरइ दुत्तर भवोयं' । 'निरपेक्ष तिरे दुस्तर भवसागर को !' किसी राष्ट्र, नगर अथवा गांव-विशेष का उन्हें आग्रह नहीं । किसो मौसम का उन्हें बन्धन नहीं । शरदऋतु हो या वर्षाकाल, या फिर ग्रीष्म ऋतु, उनको निर्वाणयात्रा पर कोई प्रभाव नहीं ! अरे, किसो भाव-विशेष को भी उन्हें अपेक्षा नहीं । 'कोई मुझे योगी माने', Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ज्ञानसार महात्मा माने या महाश्रमण माने ।' ऐसा आग्रह नहीं । कहने का तात्पर्य यह है कि उन्हें किसी बात की कोई अपेक्षा नहीं होती। किसी के आधार पर, परभाव पर जिन्दगी बसर करता ही नहीं ! तब फिर स्व-उत्कर्ष और परापकर्ष की कल्पनायें बेचारी हिमखंड की तरह पिघल ही जाये न ? देश, काल और पर-द्रव्य के आधार पर जीवन व्यतीत करने वाला स्वोत्कर्ष को, स्वाभिमान को नष्ट नहीं कर सकता । परापकर्षपरनिन्दा की बुरी आदत को नियंत्रित नहीं कर सकता अभिमान को नेस्तनाबूद करने के लिये अनन्त इच्छाएँ और कामनाओं को निरपेक्षता की आग में डाल देना होगा। साथ ही, अपेक्षारहित, परद्रव्यों की अपेक्षा से मुक्त जीवन बिताने का दृढ संकल्प करना होगा । तभी स्वमहत्ता की शहनाई बजनी बन्द होगी और पर-निन्दा के बिगूल की आवाज शमते देर नहीं लगेगी ! -योगी बनना है ? -योगी का जोवन बाहर से कठोर, लेकिन भोतर में शान्त, प्रशान्त और कोमल होता है । ऐसे जीवन की क्या चाह जग पड़ी है ? विद्यमान परद्रव्य-सापेक्ष जीवन के प्रति क्या घृणा उत्पन्न हुई है ? रात-दिन परनिन्दा में मग्न जीवन से क्या घबरा गये हो ? पर-परिगति के प्रांगण में सतत सम्पन्न प्रेमालाप और कामुक चेष्टानों से क्या नफरत हो गयी है ? और क्या, योगी का आन्तरिक प्रसन्नता से सराबोर और अात्मस्वरूप की रमणता वाला जीवन ललचाता है ? तुम्हें अपनी ओर आकर्षित करता है ? __तब निःसन्देह तुम 'योगी' बनने लायक हो । तुम्हे कदम-कदम पर योगो-जीवन के परमानन्द का अनुभव होगा । अभिमान का नशा काफूर हो जाएगा और आत्मा के अनत गुण प्रकट हो जायेंगे । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. तत्त्व-दृष्टि 'जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि !' यह कहना सहज है ! हर कोई सरलता के साथ इसका उच्चारण कर सकता है ! लेकिन स्व-दृष्टि को परिवर्तित कर सृष्टि का नव सर्जन करने कौन तैयार है ? किस दृष्टि के कारण हमें भव-भ्रमणाओं में उलझना पडता है । और किस दृष्टि की पतवार थाम कर हम भव-सागर की उत्ताल तरंगों को मात कर, मोक्ष की ओर निर्विघ्न प्रस्थान कर सकते हैं ? किस दृष्टि से हमें परमानन्द की प्राप्ति होती है और किस दृष्टि के कारण विषयानन्द की लोलुपता बढती है ? इसका रहस्य जानने के लिए प्रस्तुत अष्टक को खूब ध्यानपूर्वक पढो और उसका चितन-मनन करो। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ज्ञानमार रूपे रूपधती दृष्टिदृष्टवा रूपं विमुह्यति । मज्जष्यात्मनि नीरूपे तत्त्वदृष्टिस्त्वरूपिणी ।।१।। ॥१४५।। अर्थ : रुपी दृष्टी रूप को निहारकर मोहित हो जाती हैं, जबकि रूप रहित तत्त्वदृष्टि रूपरहित आत्मा में लीन हो जाती है । विवेचन : तत्त्वदृष्टि ! वासनामों का निर्मलन करनेवाली तीक्ष्ण दृष्टि ! हमें अपनी दृष्टि को तात्विक बनाना है, अर्थात् विश्व के पदार्थों का दर्शन तात्त्विक दृष्टि से करना है ! तात्त्विक दृष्टि से किये गये पदार्थ-दर्शन में राग-द्वेष नहीं होते, असत्य नहीं होता। चर्म चक्ष चमड़े का सौन्दर्य निहार कर मोहित होती है, मुग्ध होती है। रागद्वेषका कारण बनती है। चर्म चक्षु से संसार मार्ग का दर्शन होता है। उससे मोक्षमार्ग का दर्शन नहीं होता । मोक्ष-मार्ग केदर्शन हेतु तात्त्विक इष्टि की आवश्यकता है। इसी तात्त्विक दृष्टि को आनन्दघनजी महाराज 'दिव्य-विनार' कहते हैं । चरम नयणे करी मारग जोवतां भल्यो सयल संसार । नेणे नयने कारी मारग जोइए नयन ते दिव्य विचार । पंथडो निहालु रे बीजा जिन तरणो....... अरुपी तात्मिक दृष्टि से ही अरुपी आत्मा का दर्शन कर सकते हैं। क्योंकि तात्विक-दृष्टि और आत्मा दोनों अरुपी है। यानी अरुपी का अरुपी से ही दर्शन संभव है। जैसे पोद्गलिक दृष्टि से पुदगल का दर्शन ! चर्मदृष्टि....पुद्गल-दृष्टि....चरम नयन....ये सब शब्दपर्याय हैं ! प्रात्म-दर्शन हेतु इन दृष्टियों का उपयोग नहीं होता, उसके लिए अरुपी ऐसी तात्त्विक दृष्टि ही उपयोगी है । इसके खलते ही प्रात्म-प्रशंसा अथवा परनिदा जैसी बुरी लतें छूट जाती हैं। तत्त्वदृष्टि सिर्फ खुलती है सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, और सम्यक चारित्र की उपासना एवं आराधना से ! हमेशा खयाल रखो कि तत्त्वभूत पदार्थ एक मात्र प्रात्मा ही है। शेष सब पारमार्थिक दृष्टि से असत् है । लेकिन यह जीव अनादिकाल से तत्त्वभूत प्रात्मा का विस्मरण कर प्रतत्त्वभूत पदार्थों के पीछे बावरा बना भटकता रहा है, दुःखी हुआ है, नारकीय यंत्रणाएँ सहता Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वदृष्टि २६५ रहा है, और नानाविध विडम्बनायों का शिकार बना है। फिर भी जिनेश्वर भगवंत को तत्त्वदृष्टि उसे मिली नहीं । जिस दृष्टि से प्रात्मा के प्रति अनुराग की भावना पनपती है, वह तात्त्विक दृष्टि कहलाती है, जब कि जिससे जड़-पुद्गल के प्रति अनुराग पैदा होता है वह चर्मदृष्टि है । केवलज्ञानी भगवंत की दृष्टि पूर्ण तत्त्वदृष्टि होती है। उस से सकल विश्व के चरावर पदायों का कालिक दर्शन होता है। यह दर्शन परहित होता है, हर्ष-शोक से मुक्त होता है । आनन्द-विषाद से रहित होता है । अरुपी आत्मा का भी प्रत्यक्ष दर्शन होता है । केवलज्ञानी भगवंतों ने जिस मार्ग का अवलम्बन कर ऐमा पूर्ण तत्त्व-दृष्टि से युक्त केवलज्ञान प्राप्त किया है उसी मार्ग पर चल कर हो केवलज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । और वह मार्ग है सम्यग् दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का । भुल कर भी कभो शब्द, रुप, रस, गंध और स्पर्श के मोह से ग्रस्त न बनो ! प्रात्मस्वरुप में सदा-सर्वदा लीन रहो ! तभी पूर्णता प्राप्त होगी। सभी उपदेशों का यही सारांश है। तात्पर्य है। अनादिकालीन बुरी आदतों को, मन को समझा कर छोडने का पुरुषार्थ करो। नये सिरे से नयो आदतों का श्रीगणेश करो। पात्ल-स्मरण, आत्मरति और आत्मस्वरूप में लोनता के लिए सम्यक श्रुतज्ञान में लोन रहो; साथ हो सम्यक् चारित्र से जावन का संयमी बनाओ। भ्रमवाटी बहिर्दष्टिभ्रंमच्छाया तदीक्षणम् । अभ्रान्तस्तत्त्वष्टिस्तु नास्यां शेते सुखाशया ॥२॥१४६॥ अर्थ : बाह्य दृष्टि भ्रान्ति की वाटिका है और बाह्य दृष्टि का प्रकाश भ्रान्ति की छाया है । लेकिन भ्रान्तिविहीन तत्त्व दृष्टि वाला जीव भूमकर भी भ्रमकी छाया में नहीं सोता । विवेचन : बाह्यदृष्टि, -भ्रान्ति के विषवक्षों से युक्त वाटिका ! -भ्रान्ति के वृक्षों की छाया भी भ्रान्ति हो है ! क्यों कि विषवृक्षों को छाया भो आखिर विष ही होता है । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार -बाह्यदृष्टि भ्रान्तिरुप और बाह्यदृष्टि का दर्शन भी भ्रान्तिस्वरुप ही होता है ! __फलतः भ्रान्ति के विषवृक्षों की छाया में तत्त्वदृष्टि आत्मा आराम से नहीं सोती, निर्भय बनकर विश्राम नहीं करती । क्योंकि भलिभांति मालुम है कि यहां सोने में, विश्राम करने में जान का जोखिम है । संभव है कभी-कभार उसे विषवृक्षों को घटाओं से गुजरना पडे, लेकिन उस की तरफ उसका आकर्षण कतई नहीं होता । बाह्यदृष्टि में 'अहं' और 'मम' के विकल्प होते हैं, वह उपादेय को हेय और हेय को उपादेय सिद्ध करने की कोशिश करती है। वास्तविक सुख के साधनों में दुःख का दर्शन और दुर्गति के कारणभूत साधनों में सुख का आभास पैदा करती है। साथ ही वह इन्द्रियों के विषयों में और मन के कषायों के प्रति कर्तव्य बुद्धि का ज्ञान कराती है । और शम-दम-तितिक्षा में, क्षमा, नम्रता, निर्लोभिता, सरलतादि में निःसारता बताती है । अतः बाह्यदृष्टि के प्रकाश में जो भी दिखाई दे उसे भ्रमका ही स्वरूप समझना । तत्त्वदृष्टि महात्मा बाह्यदृष्टि के प्रकाश को भ्रान्ति ही समझता है । उसकी सहायता से विश्व के पदार्थों को समझने का प्रयत्न ही नहीं करता है ।। बाह्यदृष्टि की अपनी यह विशेषता है कि वह विषयोपभोग में दुःख की प्रतीति नहीं कराती । इन्द्रियों के उन्माद में अशांति महसूस नहीं होने देती । कषायों के दावानल में जलते जीव को 'मैं जल रहा हूँ,' का आभास नहीं होने देती ! परिणाम-स्वरूप बाह्यदृष्टि की वाटिका के विषवृक्षों को देख जो ललचा गया, उसके सुंदर मोहक रूप वाले फलों को निहार लुब्ध हो गया, वह अल्प समय में ही अपना होश खोकर घोर वेदनाओं का अनुभव करता है ! तत्त्वदृष्टि प्रात्मा अपनी अंतरात्मा के सुख से ही परिपूर्ण होता है ! उसे किसी अन्य सुख की कामना-स्पृहा नहीं होती ! अतः वह कभी बहिष्टि की वाटिका में प्रवेश नहीं करता ! कभी-कभार उसे उस वाटिका में से गुजरना पडे तो वह भूल कर भी कभी वहाँ के विषवृक्षों की सुन्दरता को देखकर मुग्ध नहीं होता, ना ही उससे प्रभावित हो क्षणार्ध के लिए उनकी घनी शितल छाया में बैठने का नाम लेता है! Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वदृष्टि २६७ स्थुलभद्रजी स्वयं अंतःसुख से, तत्त्वदृष्टि के सुख से परिपूर्ण थे। लेकिन परम सौन्दर्यवती कोशा ने उन्हें विषवक्षयुक्त वाटिका में ही चातुर्मास हेतु ठहराया था। वह नित्यप्रति विषफलों से भरे थाल लेकर उनकी सेवा में स्वयं उपस्थित रहती और मगध की यह सुप्रसिद्ध नृत्यांगना उन्हें बाह्यदृष्टि की सुख-सामग्री से मोहित करने का यथेष्ट प्रयत्न करती थी । लेकिन लाख प्रयत्नों के बावजूद भी तत्त्वदृष्टियुक्त स्थुलभद्रजी के आगे उसकी दाल न गली । वह उन्हें मोहित करने के बजाय स्वयं उनके रंग में रंग गयी ! स्थुलभद्रजी ने तत्त्वष्टि का अंजन कर और तत्त्वदृष्टि का अमृतपान करा कर उसे ऐसी बना दी कि उसमें आमूल परिवर्तन की उत्कट भावना पैदा हो गई । बहिई ष्टि की वाटिका में रहते हुए भी कोशा प्रसार संसार से निर्लिप्त बन गयी । तात्पर्य यह है कि तत्त्वदृष्टि के बिना कोई जीव बहिर्डष्टि की वाटिका से सही-सलामत बाहर नहीं निकल सकता । ग्रामारामादिमोहाय यद् दृष्टं बाह्यया दृशा ! तत्वदृष्ट्या तदेवान्तीतं, वैराग्यसंपदे ॥३॥१४७।। अर्थ : बाह्यदृष्टि से देखे गये गांव, और बाग-बगीचे, मोह के कारण बनते हैं ! जबकि तत्त्वदृष्टि से प्रात्मा में उतारा हुआ यह सब वैराग्य. प्राप्ति के लिए होता है । विवेचन : वही चिर-परिचित गांव और नगर, वही कुंज-निकुंज और उद्यान....नंदनवन...। .वही परम सौन्दर्यमयी ललनाएँ, अप्सराएँ, किन्नरियाँ ! –बाह्यदृष्टि से इनकी ओर देखने पर प्रीति होती है। लेकिन इन्हें ही तत्त्वदृष्टि से देखा जाएँ तो मन में वैराग्य की भावना जागृत होती है । अत: हे महामार्ग के अनन्य आराधक ! तुम्हें रागी बनना है या विरागी ? तुम श्रमण बन गये, विरागी हो गये, विरतिधर बन गये, लेकिन फिर भी वैराग्य-मार्ग पर विजयश्री प्राप्त करना शेष है । त्याग करने मात्र से वैराग्य की प्राप्ति नहीं होती ! विरागी बनने की आंतरिक इच्छा से तुमने त्याग किया है, यह सौ-टक्का सच है, लेकिन वैराग्य में मस्तो प्राप्त करने का दुष्कर कार्य अभी तुम्हें त्यागी जीवन में शुरु करना है और वैराग्य की अगोचर दुनिया में धूम मचाना है । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ परम त्यागी श्रमण का वेश तुमने धारण कर लिया, अर्थात् रागमहोदधि से पार उतरने के प्रतीक स्वरुप गणवेश धारण कर लिया है.... और प्रथाह महोदधि में तुमने छलांग लगा दी है ! त्यागी बनने मात्र से राग सागर से तुम तिर गये, पार उतर गये, यह समझने की गंभीर भूल न कर बैठना । वस्तुतः तैरना तुमने अब शुरू किया है ! लेकिन तभी तुम्हारी जीवन- नौका को तुम पार कर सकोगे जब राग -समुद्र में आने वाले अवरोधों को तत्त्वदृष्टि से देख कर अपनी नौका को बचा ले जाओगे ! उन के प्रति कतई ललचाओगे नहीं बल्कि उत्तरोत्तर वैराग्य - भावना को पुष्ट करते रहोगे । ज्ञानसान त्यागी भी उसी दुनिया में जीते हैं जिस दुनिया में रागी और भोगी जीते हैं । लेकिन रागी और भोगी लोग दुनिया को बहिर्दृष्टि से देखते हैं । उस के वर्तमान पर्यायों को ही देखते हैं; जबकि त्यागी, दुनिया के कालिक पर्यायों का निरीक्षण करता है ! पौद्गलिक पर्यायों के सम्बंध में चिंतन-मनन करता है : - "क्षण विपरिणामधर्मा मर्त्यानां ऋद्धिसमुदया: सर्वे !" , 'मनुष्य की ऋद्धि सिद्धि, संपत्ति-वैभव सब क्षणार्ध में ही परिवर्तित होने वाला है.... विपरित परिणाम में परिणत होनेवाला है ।' बाह्यष्टि आत्मा किसी वैभवशाली, समृद्ध नगर को देख, आनन्दविभोर हो उठता है । वहां प्रतर्हष्टि महात्मा सोचता है कि, 'एक दिन यह सब स्मशान में बदल जाएगा, ध्वस्त हो जाएगा । मनुष्यों की महती भीड से महकती गली और सड़कों पर एक दिन गीदड़ और, सियार के झुंड उतर आएंगे ! यह नियति का अटल नियम है। सदन स्मशान में और स्मशान सदन में बदल जाता है । किसी की आनन्द भरी किल्लोल में किसी का करुण क्रंदन और किसी के विलाप में किसी का आलाप । यह इस दुनिया की पुरानी रीत और परम्परा है, जिसे कोई बदल नहीं सकता । आज के वन कल के नंदनवन ! आज का नंदनवन कल का वन ! आज की रुपसुंदरी नवयौवना कल की दुर्बल असहाय वृद्धा ! प्राज की रुपहीन दूर्बलिका - कल की यौवनोन्मत्त षोडसी ! Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वदृष्टि २६६ अब तुम हो कहो, तत्त्वदृष्टि जीव इस परिवर्तनशील दुनिया के प्रति क्या अनुरक्त बनेगा ? उसे मोह होगा या वैराग्य ? वस्तुतः तत्त्वदृष्टि धारक मनुष्य के मन में संसार के पदार्थों के प्रति मोह होगा ही नहीं ! क्योंकि तत्त्वष्टि अपने आप में मोह-जनक नहीं, बल्कि मोहमारक जो है। तत्त्वदृष्टि का चिंतन नित्यप्रति वैराग्यप्रेरक होता है। यही पूज्य उपाध्यायजी महाराज संसार के मोहोत्तेजक पदार्थों का, तत्त्वदृष्टि से चिंतन कराते हैं । आइए, हम भी उस चिंतन में प्रवेश करें ! बाह्मयष्टेः सुधासारटिता भाति सुन्दरी । तत्त्वष्टेस्तु साक्षात् सा विषमुत्रपिठरोदरी।। ४।। १४८।। अर्थ : वाद्यदृष्टि का नारी अमन के सार से बनी लगती है, जर कि तत्त्व दृष्टि को बह की मलमूत्रकी हंडिया जैसी उदरवाली प्रतीत होती है। विवेचन : सुदरी ! जगत-निर्माता ब्रह्मा ने अमृत के सार से सुदर नारी को बनाया है ! 'नैषधीय चरित' के रचयिता कवि हर्ष कहते हैं : "द्रौपदी ऐसी असीम सुन्दरी थी कि जिस की काया का गठन ब्रह्मा ने चंद्र के गर्भभाग से किया था । अतः चन्द्र का मध्य भाग काला दिखायी देता है !" सभी विख्यात कवियों ने नारी - देह का वर्णन करने में अपनी लेखनो और कल्पना की कसौटी कर दो है...! 'असार संसार में यदि कोई सारभूत है तो सिर्फ सारंगलोचना ! मृगनयना सुन्दरी ही है !' _ 'नारी' का यह मनोहारी दर्शन, बाह्यदृष्टि वाले मनुष्यों का दर्शन है ! उसी नारी का अवलोकन अन्तष्टि महात्मा किस रूप में करते हैं, जानते हो ? - विष्टा और मूत्र की सिर्फ एक हंडिया ! -- नरक का दिया ! -- कपट की काल-कोठरी ! क्योंकि वे नारी-देह की सुकोमल धवल त्वचा के भीतर झांकते हैं और उन्हें वहाँ विष्टा, मूत्र, रूधिर, मांस एवं हड्डियों के अलावा कुछ दिखायी नहीं देता ! उसको देखने मात्र से उन्हें राग नहीं बल्कि वैराग्य पैदा होता है ! Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० तत्त्वदृष्टि महात्मा, नारीसमागम में नरक के दर्शन करते हैं ! नरक की भयंकर यातनाओं के दर्शन मात्र से मोह का नाश होता है ! नारी के अंगविक्षेप और प्रेमालाप के भीतर कपट-लीला का दर्शन होता है और वैराग्य जग जाता है ! ज्ञानसार बर्हिष्टि मनुष्य, नारी को मात्र शारीरिक उपभोग का साधन मान, उसके साथ बीभत्स व्यवहार करता है, जब कि तत्त्वदृष्टि जीव नारी की आत्मा भी मोक्षमार्ग की आराधना कर सकें इतनी पवित्र और उत्तम है !' ऐसी पवित्र दृष्टि रखते हुए उसके शारीरिक कमनीय अवयवों का ममत्व छोडने के आशय से, उसे ( नारी को) विष्टा, मूत्र की इंडिया, नरक का दिया और कपट की काल कोठरी के रूप में देखता है । और यह प्रयोग्य भी नहीं है ! स्त्री के सौंदर्य का और उसकी भाव-भंगिमा की अलौकिकता का वर्णन उन लोगों ने किया है, कि जो सर्वथा कामी, विकारी और शारीरिक वासना के भूखे भेडिये थे ! आज भी बहिर्दृष्टि मनुष्य नारी के बाह्य सौन्दर्य के रुप और रंग तथा फेशनपरस्ती की प्रशंसा करते नहीं प्रघाता ! इसमें नारीजाति का मान-सम्मान नहीं बल्कि घोर अपमान है । नारी-दर्शन से उत्पन्न सहज वासनावृत्ति को जडमूल से उखाड़ फेंकने के लिए उसकी शारीरिक बीभत्सता का विचार करना अत्यंत श्रावश्यक और महत्वपूर्ण माना गया है ! लेकिन साथ ही यह न भूलो कि नारी देह में भी अनंत गुणमय आत्मा वास करती है । नारी को 'कुक्षी' भी कही गयी है । यह कोई गलत बात नहीं है । अतः उसका समुचित आदर करना भी उतना ही जरुरी है । इसीलिए नारीदर्शन के बावजूद उसके प्रति मन में मोह आसक्ति पैदा न हो, ऐसा दर्शन करने को कहा गया है । और यह अन्तर्दृष्टि के बिना असंभव है । संसार में 'नारी' - तत्त्व महामोह का निमित्त है । लेकिन यह वैराग्य का निमित्त भी बन सकता है । इसके लिए परमावश्यक है अन्तर्दृष्टि.... तत्त्वदृष्टि.... ! लावण्यलहरीपुण्यं वपुः पश्यति बाह्यहम् । तत्त्वष्टिः श्वकाकानां भक्ष्यं कृमिकुलाकुलम् ||५||१४६ ।। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वदृष्टि २७१ अर्थ :- बाह्यदृष्टि मनुष्य सौंदर्य-तरंग के माध्यम से शरीर को पवित्र देखता है, जबकि तत्त्वदृष्टि मनुष्य उसे ही कुत्तों के खाने योग्य कृमि से भरा हुआ खाद्य देखता हैं । विवेचन :- शरीर ! नारी से भी बढ़कर प्रिय शरीर ! तुम भला, शरीर को किस दृष्टि से देखते हो ! बाह्यदृष्टि से शरीर, सौन्दर्य से सुशोभित, स्वच्छ और निर्मल प्रतीत होता है ! जब कि तत्त्वदृष्टि को यही शरीर कौए-कुत्तों के खाने योग्य कृमिओं से भरा भक्ष्य मात्र लगता है । कोई एक शरीर को देख रागी बनता है, जब कि दूसरा उसे देख विरागी/रागहीन बनता है ! एक शरीर की सेवा करता है, हिफाजत करता है, जब कि दूसरा उसके प्रति बिलकुल उदासीन बेपरवाह होता है ! एक शरीर के माध्यम से अपनी महत्ता समझता है, जबकि दूसरा स्वयं को उसके बंधनों में जकड़ा महत्वहीन/तुच्छ मानता है ! शारीरिक सौन्दर्य उसकी शक्ति, उसका लावण्य, और उसके आरोग्य को महत्व देने वाला बाह्यदृष्टि जीव...शरीर में सर्वत्र व्याप्त आत्मा के सौन्दर्य को देख नहीं सकता, ना ही आत्मा की अपार शक्ति को समझ पाता है ! साथ ही, प्रात्मा के अव्याबाध प्रारोग्य की उसे तनिक मात्र कल्पना नहीं होती । अरे, मुलायम, मोहक त्वचा के तले रही विभत्सता को वह देख नहीं सकता ! उस की दृष्टि तो सिर्फ बाह्यत्वचा पर ही केन्द्रित होती है । वह रूखी त्वचा को मूलायम बनाने में, आकर्षक बनाने में प्रयत्नशील रहता है ! गंदी चमडी को साफसुथरो बनाने के लिए आकाश-पाताल एक कर देता है ! बहिरात्मदशा में ऐसा ही होता है ! लेकिन अंतरात्मा.... तत्त्वदृष्टि पुरुष हमेशा शरीर के भीतर झांकता है और काँप उठता है । उसमें रहा मांस और रूधिर, मल और मूत्र.... यदि बाहर निकल कर रिसने लगे तो देखा न जाए ऐसा बीभत्स दृश्य खडा हो जाता है ! वह शरीर को रोगो अवस्था का विचार करता है ! वृद्धावस्था को कल्पना करता है....और अंत में निश्चेष्ट देह के कलेवर का दर्शन Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जानसार करता है....! उस के अासपास इकट्ठे हुए कौए और कुत्तों को देखता है : 'वे शरीर को बोटो-बोटी नोच-खचोट रहे हैं !' अनायास वह आँखें मंद लेता है : 'जिस शरीर को नित्यप्रति मेवा-मिष्टान्न खिलापिलाकर पुष्ट किया, नियमित रुप से नहलाया-सजाया और मुशोभित किया, क्या आखिर वह कौमों को तीक्षण चोंचों का प्रहार सहने के लिए ? कुत्ते को दाढ तले कुचल जाने के लिए ? छि: छि: ! . वह शरीर को लकड़ी की निता पर लाचार, मजबूर, निष्प्राण हालत में पड़ा देखता है ! क्षणार्ध में वह अग्नि की ज्वाला का भाजन बन जाता है और लकड़ियों के साथ जलकर राख हो जाता है। सिर्फ घंटे, दो घंटे की अवधि में वर्षों पुराना सर्जन राख की देरी बनकर रह जाता है और वायु के तेज झोंके उसे पल, दो पल में इधर-उधर उडा ले जा नामशेष कर देते हैं । गरीर की इन अवस्थाओं का वास्तविक कल्पनाचित्र तत्त्वष्टि ही बना सकता है ! इससे शरीर का ममत्व टूटता जाता है ! उस का मन अविनाशो आत्मा के प्रति बरबस अाकर्षित होने लगता है। आत्मा से भेंट करने हेतु वह अपने भौतिक सुख-चैन को तिलांजलि दे देता है। गरीर को दुर्बल और कृश बना देता है ! शारारिक सौन्दर्य की उसे परवाह नहीं होती। शारीरिक सौन्दर्य के बलिदान से प्रात्मा के सौन्दर्य का प्रकटीकरण संभव हो तो वह उसे (शारीरिक सौन्दर्य को) हँसते. हंसते त्याग देता है । पापों के सहारे वह भूल कर भी शरीर को पुष्ट करना अथवा टिकाना नहीं चाहता । वह निष्प्राण वृत्ति धारण कर नगर टिकाता है...., वह भी ग्रात्मा के हितार्थ ! तत्त्वष्टि का यही वास्तविक शरीर दर्शन है। गजाश्वमूपभवनं विस्मयाय बहिर्दशः । तत्राश्वेभवनात् कोऽपि भेदस्तत्वदृशस्तु न ॥६॥१५॥ अर्थ - बाह्यदृष्टि को गजराज और उतुंग अश्वों से सज्ज राजभवन को देख विस्मय होता है, जबकि तत्वदृष्टि को उसी राजभवन में और हाथी और घोड़े के अस्तबल में विशेष कुछ नहीं लगता । विवेचन : ऐश्वर्य ! राजभवन का वैभव ! Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वदृष्टि २७३ आज के राष्ट्रपति भवन का वैभव अथवा विविध राज्यों के राजपाल, प्रधानमंत्री, एवं मुख्यमंत्रियों के आलिशान बंगले का वैभव और सुखसामग्री का दर्शन कर तुम्हारी आँखे क्या आश्चर्य से चकित रह जाती हैं ? तिरंगा लहराते उनके राजकीय भवन, राजा-महाराजाओं के रथादि वाहनों से अधिक मूल्यवान विदेशी कारें, मोटर साइकिल और स्कूटर आदि देख कर क्या तुम मुग्ध हो जाते हो ? इसका अर्थ यही है कि तुम बाह्यदृष्टि के वशोभत हो ! विश्व-दर्शन करने में तल्लीन हो । अब भी तुम्हारी आँखे खुली नहीं है, तुम वास्तविकता से ठीक-ठीक दूर हो और तुम्हारा तत्वांजन होना शेष है ! ' मेरे पास इतनी सारी संपत्ति कब हो और मैं भी आलिशान भवन, मनभावन वाहन और निरंकुश सत्ता का स्वामी कैसे बनु ?' आदि चिंतन में सदा सर्वदा खोये रहते हो तो नि:संदेह तुम्हारी अंतर्दृष्टि के पट खले नहीं हैं ! फिर भले ही तुम धर्माराधना करते हो, रात-दिन प्रभु-भजन करते हो ! यदि तुम श्रमण हो तो राजसी ठाठ-बाठ और भवन-वाहन देखकर क्या विचार करोगे ? 'परलोक में भी इतने ही ऐश्वर्य और वैभव का स्वामी बनू ! ' ऐसे अरमान तो दिलोदिमाग में नहीं बसा रखे हैं न ? ऐश्वर्य संपन्न राजा-महाराजा, राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री-राज्यपाल, मिलमालिक अथवा उद्योगपतिओं से प्रभावित हो, स्वयं ऐसा बनने के सपने तो नहीं देखते न ? यदि तुम्हारी अन्तर्ड ष्टि-तत्त्वदृष्टि जागृत है तो तुम इन बातों से प्रभावित नहीं बनोगे ! उनके जैसे ऐश्वर्यधारक बनने के अरमान नहीं रखोगे ! बल्कि इन सब पौद्गलिक पदार्थों की अनित्यता, असारता और क्षणभंगुरता का विचार करोगे, चिंतनमनन करोगे ! AT 'इन्द्रजालोपमाः स्वजनधनसंगमा: !' . स्वजन, धन, वैभव....इनका सयोग इन्द्रजाल-सा है ! * ' तेषु रज्यन्ति मूढस्वभावाः !' इसमें मूढ...विवेकभ्रष्ट लोग ही आकंठ डूबे रहते हैं ! अंतदृष्टि महात्मा ऐश्वर्यशाली को, बलशाली को और उद्यमवीरों को अंत में असहाय स्थिति में देखते हैं : Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ तुरगरथेभनरावृतिकलितं दधतं बलमस्खलितम् : हरति यमो नरपतिमपि दीनं मैनिक इव लघुमीनम् || विनय विधीयतां रे श्री जिनधर्मः शरणम् जिनके पास हिनहिनाता अश्वदल था, मदोन्मत्त हाथियोंका प्रचंड़ सैन्य था और था अपूर्व शक्ति का अभिमान ! ऐसे रथी-महारथी महान् शक्तिशाली राजा-महाराजाओं को यमराज चुटकी में उठा ले गए ! जैसे मछुमारा एकाध मछली को ले जाता है ! उस समय उन राजामहाराजाओं की कैसी दयनीय दशा होती होगी ? ज्ञानसार क्षणिक, भययुक्त और पराधीन पुद्गल - जन्य ऐश्वर्य, तत्त्वदृष्टि उत्तम पुरुष को विस्मित नहीं कर सकता ! क्योंकि उनके लिए ऐसा ऐश्वर्य कोइ मूल्य नहीं रखता । उन्हें सिर्फ चिदानंदमय आत्मस्वरुपका मूल्यांकन होता है । वे आत्मा के अविनाशी, अक्षय, अनंत, अगोचर, अभय एवं स्वाधीन ऐश्वर्य के लिए दिन-रात प्रयत्नशील रहते हैं । जिस ऐश्वर्य को बहिरष्टि मनुष्य शिरोधार्य करने में स्वयं को गौरवान्वित समझता है, उसे अंतर्दृष्टि महात्मा पैरों तले कुचलने में ही अपना हित, परमहित मानता है । भस्मना केशलोचेन वपुर्धृतमलेन वा । महान्तं बाह्यग् वेत्ति चित्साम्राज्येन तत्त्ववित् ||७|| १५१ ।।. अर्थः बाह्यदृष्टि मनुष्य शरीर पर राख मलनेवाले को, केशलोच करने वाले को अथवा शरीर पर मल धारण करने वाले को महात्मा समझता है, जबकि तस्वदृष्टि मनुष्य ज्ञान की गरीमा वाले को महान मानता है । विवेचनः महात्मा ! कौन महात्मा ? बाह्यदृष्टि जीव तो शरीर पर भस्म मलनेवाले को, सिरपर जटा बढाने वाले को, वस्त्र के नाम से केवल लंगोटी धारण करने वाले को महात्मा मानता है । मस्तक पर मुंडन नहीं बल्कि लुंचन किया हो, श्वेत वस्त्र धारण किये हो, हाथ में रजोहरण और दंड लिए हुए हो, ऐसे व्यक्तिविशेष को 'महात्मा' के रूप में पहचानता है । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वष्टि २७५ और जिसे शरीरकी कतइ परवाह नहीं, तन-बदन पर मैल की पर्त जम गयी हो, कपडे मैले-कूचले हों, बेढंगे वस्त्र धारण किये हो, उसे भी बहिई ष्टि मनुष्य महात्मा कहता है । जानते हो? तत्त्वदृष्टि मनुष्य 'महात्मा' को किस कसौटी से जानता है ? पहचानता है ? ज्ञान के प्रभुत्व के माध्यम से पहचानता है । * ज्ञान-साम्राज्य का जो अधिपति वह महात्मा ! * ज्ञान की प्रभुता का प्रभु यानि महात्मा ! तत्त्वदृष्टि जीव, कसौटी करते हुए देखता है : " इसमें क्या ज्ञान की प्रभुता है ? साथ ही, इसके ज्ञान साम्राज्य का विस्तार कितना और कैसा है ? " बिना ज्ञान, महानता असंभव है। ज्ञान के बिना जीव वास्तविक 'महात्मा' नहीं बन सकता ! ज्ञान की प्रभुता से युक्त महापुरूषों को सिर्फ तत्त्वदृष्टि मनुष्य ही पहचान सकता है । संभव है कि वे ज्ञानी महात्मा शरीर पर भस्म न लगाते हो, अपनी देह को और वस्त्रों को मैले कुचले नहीं रखते हो, ना ही केश का लुचन कराते हो। ऐसी स्थिति में बाह्यष्टि जीव उनको महात्मा के रूप में नहीं देख सकता है। लेकिन जहाँ ज्ञान का सर्वथा अभाव हो, फिर भी शरीर पर भस्म का लेपन होगा, तन-बदन गंदा होगा, केश-लुचन होगा.... वहाँ बाह्यदृष्टि जीव आकर्षित होते देर नहीं लगेगी ! हालांकि उसे वहाँ ज्ञान का प्रकाश नहीं मिलेगा। वह (बाह्यष्टि जीव ) ज्ञानार्जन के लिए महात्माओं की खोज करता ही कहाँ है ? वह महात्माओं के पास, संत चरणों में सर अवश्य झुकाता है, परन्तु भौतिक सुख पाने के साधन जुटाने के लिए ! जानते हो, वह कौन से साधन हैं ? ' संपत्ति कैसे इकठ्ठी करना? एक रात में सुलतान कैसे बनना! सोना-चांदो किस तरह बटोरना और पुत्र-पौत्रादि कैसे प्राप्त करना !' ऐसो अजीबोगरीब पौद्गलिक वासनामों की तृप्ति के लिए वह संतचरण में झुकता है ! उसकी यह दृढ मान्यता होती है कि मैले-कुचले, गंदे और नंग-धडंग बाबा, जोगी और अघोरी के पास ऋद्धि-सिद्धियों का भंडार भरपूर होता है ! वे क्षणार्घ में ही गरीब को अमीर और बांझी को पुत्रवती बनाने की अद्भुत क्षमता रखते हैं !' बाह्यदृष्टि जीव को मोक्षमार्ग के लिए उपयोगी और कर्म-बंधन Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार तोडने में अनन्य सहायक ऐसे ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती है । लेकिन जो ऐसे ज्ञान के धनी हैं वे विश्व के लिए अनंत उपकारी और हितकारी होते हैं । तत्त्वष्टियुक्त जीव ऐसे महापुरुषों को ही 'महात्मा' के रूप में सम्बोधित करते हैं । साथ ही नित्यप्रति उनकी सेवा-भक्ति और उपासना करते हैं । महात्मा बनने के अभिलाषी जीव को ज्ञानदृष्टि से युक्त होना अत्यंत जरूरी है । क्योंकि ज्ञान-दृष्टि के बिना महान नहीं बन सकते ! इस तत्त्व को जानने वाला मनुष्य तत्त्वज्ञान को पाने का प्रयत्न करेगा ही। सिर्फ कोई स्वांग रचकर अथवा बाह्य प्रदर्शन कर कथित महात्मा बनना, उसे रूचिकर नहीं होता है ! वह सदा-सर्वदा निष्पाप और ज्ञानपूर्ण जीवन में ही महानता के दर्शन कर, उस मार्ग पर चलता रहता है। न विकाराय विश्वस्योपकारयव निमिताः । स्फुरत्कारुण्यपीयूषवृष्टयस्तत्त्वदृष्टयः ॥८॥ १५२॥ अर्थः स्फूरित करूणा रूप अमृत-धारा की वृष्टि करने वाले तत्त्वदृष्टि धारक महापुरुषों की उत्पत्ति विकार के लिए नहीं, अपितु विश्व कल्याण हेतु ही है । विवेचन :- तत्त्वदृष्टि वाले माहपुरूष यानी -करुणामृत का अभिषेक करने वाले ! -विश्व पर निरंतर उपकार करने वाले ! -राग-द्वेषादि विकारों का उच्छेदन करने वाले! ग्रहण और प्रासेवन शिक्षा के माध्यम से और स्व-पर आगम ग्रंथों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म रहस्यों की प्राप्ति द्वारा ही तत्त्वदृटि महापुरुषों की उत्पत्ति होती है ! जिनशासन के प्राचार्य, एवं उपाध्याय ऐसे तत्त्वदृष्टि महापुरुषों को प्रशिक्षित करने में रत रहते हैं। विश्व में राग द्वेषादि विकारों को विकसित एवं विस्तृत करने का कार्य तत्त्वदृष्टिवाले महापुरूष नहीं करते, बल्कि उस को विनष्ट करने का भगिरथ कार्य करते हैं। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वष्टि २७७ विषय-कषाय के वशीभूत बने भवसागर में डूबते जीवों को देख तत्त्वदृष्टिधारक महापुरुषों का हृदय करुणामृत से आकंठ भर जाता है ! प्रायः वे डूबते जीवों को संयम को नौका में बिठाकर भव-सागर से पार लगा देते हैं । महा भयंकर भवन में भूले पड़े जीवों को देखकर तत्त्वदृष्टिवाले महात्माओं के मन में असीम करुणा का स्फूरण होता है । फलस्वरुप वे दयाई हो कर जीवों को अभयदान देते हैं, सही मार्ग इंगित करते हैं, उसमें साथ देने का आश्वासन देते हैं और मोक्षमार्ग की श्रद्धा प्रदान करते हैं । अनेकानेक जीवों के नाना प्रकार के संदेह, शंका-कुशंकाओं का निराकरण कर, निःशंक बन, मोक्षमार्गकी आराधना में उन्हें प्रेरित-प्रोत्साहित करते हैं । वे समुद्रवत् गंभीर और मेरुवत् अचल अडिग होते हैं। उपसर्ग-परिषह से उन्हें भय नहीं होता, ना ही दीन-हीन वृत्ति रखते हैं । नित्यप्रति मोक्षमार्ग की साधना में खोये रहते हैं। वास्तव में ऐसे महात्मा ही महा हितकारी और कल्याणकारी होते हैं । इस दुनिया में उनके बिना अन्य कोई आश्वासन, प्राश्रयस्थान, अथवा आधार नहीं हैं। करूणासभर हृदय से और तत्त्वदृष्टि के माध्यम से किये गये विश्वदर्शन से ये विचार प्रगट होते हैं : "अरे ! इस पृथ्वी पर धर्म की ऐसी दिव्यज्योति बिखरी हुई होने पर भी ये पामर जीव अपनी आँखों पर अज्ञान की पट्टी बांधकर संसार की चौरासी लाख जीवयोनि में निरुद्देश्य भटक रहे हैं । आत्मतत्त्व का विस्मरण कर, व्यर्थ में ही जड़ तत्त्वों से सुख प्राप्त करने का मिथ्या प्रयास कर रहे हैं । नारकीय दुःख, कष्ट और नाना प्रकारकी विटम्बनामों से ग्रस्त हो गये हैं । न जाने कैसे दीन-हीन और दयनीय स्थिति के भोग बन गये हैं ? कैसा करुण ऋदन कर रहे हैं ! क्यों न बेचारों को इन यातनाओं से बचा लूं ? उन्हें धर्म का सही मार्ग बताकर उनके भव-फेरों का अंत कर दू ! उन्हें धर्म का मर्म और रहस्य समझा दू, ताकि वे अनंत दुःख, संताप और परिताप से मुक्त हो जाएँ....भीषण भव-सागर से पार उतर जाएँ।" Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ज्ञानसार सांसारिक जीव उन्हें उपकारी माने या न माने, लेकिन वे निरंतर उपकार करते ही रहते हैं | उनके मनमें जीव मात्र के कल्याण की भावना ही बसी हुई होती है । प्रखर प्रकाश के दाता सूर्य को भले ही कोई उपकारी माने या नहीं मानें, सूर्य प्रकाश देता ही रहता है । क्योंकि यह उसका मूल स्वभाव है ! ठीक उसी तरह, तत्त्वदृष्टि महास्माओं का मूल स्वभाव ही दीन-हीन-दयनीय जीवों के प्रति दया हो, उपकार करने का है । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. सर्वसमृद्धि __ आहा ! 'वैभव' और 'समृद्धि, शब्द हो कैसे आकर्षक हैं ? जिस वैभव और समृद्धि की चोटीपर से फिसल जाने 1 के कारण जीव की हड्डीपसली खोजे कहीं नहीं मिलती है, उस शिखर पर पहुंचने के लिए न जाने कितने लोग अधीर/आकुल-व्याकुल हो रहे हैं ! प्रस्तुत अध्याय में अपूर्व और अद्भुत समृद्धि के सुहाने गगनचुम्बी शिखरों का दर्शन कराया गया है ! आप इस अष्टक में आध्यात्मिक नैभव-संपत्ति का रसपूर्ण भाषा में वर्णन पढ़ोगे। भौतिक वैभवों का आकर्षण मिट जायेगा और आध्यात्मिक संपत्ति 1 पाने के लिए लालायित हो उठेगे ! Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ज्ञानसार बाह्यदृष्टिप्रचारेण मुद्रितेषु महात्मन : । अन्तरेवावभासन्ते स्फुटा: सर्वाः समृद्धयः ॥१॥१५३।। अर्थ :- जब बाह्यदृष्टि की प्रवृत्ति बंद पडती है तब महात्मा को अंतर में उपजी सर्वसमद्धि का दर्शन होता है। विवेचन:- अपार...अनंत समृद्धि....! भला बाहर खोजने की आवश्यकता ही क्या है ? अन्यत्र भटकने से क्या मतलब ? जरा सोचो और एक बात पर गौर करो । तुम अपनी बाह्य दृष्टि बंद कर दो । करली? अब अंतई ष्टि के पट खोलकर अंतरात्मा में झांको ! एकाग्र बनकर देखो। अंधकार है न ? कुछ दिखाई नहीं पड़ता ? लेकिन हताश न हो | भूलकर भी अंतर्दृष्टि बंद न कर देना । उसके प्रकाश को और प्रखर बनाकर देखो । बाहर के प्रकाश से आँखे चौ धिया गई हैं, अत: कुछ देर और घना अंधेरा दिखायी देगा । और तब शनैः शनैः वहाँ स्थित अखण्ड भंडार दृष्टिगोचर होने लगेगा....! कुछ दिखा ? नहीं ? तब तुम्हारी समस्त इन्द्रियों की शक्ति को केन्द्रित कर, अन्तरात्मा में रही समद्धि के भंडार को देखने के काम में लगा दो । विश्वास रखो, वहाँ विश्व का श्रेष्ठ और अक्षय भंडार दबा पड़ा है....और तुम उस भंडार के बिलकुल करीब हो....धैर्य रखकर उसे देखने का प्रयत्न करो। उस में क्या है और क्या नहीं, इसे जानने के लिए इतने आकुल-व्याकुल न बनो। तुम स्वयं ही भंडार में क्या है उसे ध्यान पूर्वक देख लेना । फिर भी कह देता हूं कि भंडार की समृद्धि से तुम देव-देवेन्द्रों के साम्राज्य खरीद सकते हो....। देवलोक और मृत्युलोक की समस्त ऋद्धि-सिद्धियाँ मोल ले सकते हो। साथ ही, जानकारी के लिए उक्त समृद्धि की एक विशेष खासियत बता दूं। इसे प्राप्त करने के बाद वह कदापि कम नहीं होगी...! ___ क्या अब भी दृष्टिगोचर नहीं हुई वह समृद्धि ? बाह्यदृष्टि तो बंद कर रखी है न ? उस पर 'सील' मार दो । वह तनिक भी खुली न रहने पाएँ, वरना भंडार नजर नहीं आएगा। बाह्यदृष्टि के पापवश ही कई बार जीव इसके (समृद्धि का भंडार) बिलकुल करीब पाकर Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसमृःि २८१ हाथ मलते रह जाते हैं ! अर्थात् उन्हें निराशा ही गले लगानी पडती है । अतः बाह्यदृष्टि को तो चूर-चूर ही कर दो । हाँ, अब भंडार के दर्शन हुए ! अस्पष्ट और क्षणिक दर्शन ! परवाह नहीं अस्पष्ट ही सही, आखिर दृष्टिगोचर तो हमा न ? अब अपने हाथ तनिक लम्बे कर आगे बढो, उत्तरोत्तर प्रकाश की ज्योत बड़ी होती जाएगी...हो गयी न ? अब तो भंडार के स्पष्ट दर्शन हो गये न ? पूरी शक्ति से उसे खोल दो । न जाने कैसी अद्भुत समृद्धि से वह भरा पड़ा है ! अब बताइए, तुम्हें देश-परदेश में भटकने की गरज है ? सेठसाहुकारों की गुलामी करने की जरूरत है ? वाणिज्य, व्यापार करने की आवश्यकता है ? पुत्र-पौत्रादि परिवार के पास जाने की इच्छा है ? उन सब का स्मरण भी हो पाता है क्या ? जो भी है, भव्य और अद्भुत है न ? लेकिन सावधान !बाह्यदृष्टि के खलते ही यह सब अलोप होते देर न लगेगी और परिणामतः पुन: गांव-नगर की गली कूचों में भटकते भिखारी बन जाओगे । समाधिनन्दनं धैर्य दम्मोलि: समताशचिः । ज्ञानं महाविमानं च वासवधीरियं मुनेः ॥२॥ १५४ ।। अर्थ : समाधिरूपी नंदनवन, धंय रूपी वज्र, समता रूपी इन्द्राणी और स्वरूप-अवबोध रूपी विशाल विमान, इन्द्रकी यह लक्ष्मी मुनि को होती है ! विवेचन :- मुनिराज आप स्वयं इन्द्र हैं ! ___ आपकी समृद्धि और शोभा का पार नहीं, अपरम्पार है ! आपको किसी बात की कमी नहीं, ना ही आप दीन हीन और दयनीय हैं ! देवराज इन्द्र की समस्त समृद्धि के श्राप स्वामी हैं । आइए, तनिक अलौकिक समृद्धि के दर्शन करीये : ...... यह रहा आपका नंदनवन...! नंदनवन कैसा सुरम्य, हरियाली से युता, आह्लादक और मनोहारी है ! ध्याता , ध्यान और ध्येय के मिलन स्वरुप समाधि के नंदनवन में आपको नित्यप्रति विश्राम करना है। इस में प्रवेश करने के पश्चात् पापको अन्य किसी चीज की याद Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ज्ञानसार नहीं पाएगी । प्रतिदिन नया, नूतन लगनेवाला यह नंदनवन आपका अपना है...! अच्छा लगा न ? आपको क्या शत्रों का भय है ? हमेशा निर्भय रहिए । प्रति दुर्गम पर्वतमालाओं को क्षणार्ध में चकनाचूर कर दे, क्षत-विक्षत कर दे ऐसा शक्तिशाली वन प्राप के पास है। फिर भला, डर किस बात का ? इन्द्र इस वज्र को प्रायः अपने पास रखता है, वैसे माप को भी हे मुनिन्द्र ! धैर्य रुपी पत्र को सदा-सर्वदा अपने पास रखना है। यदि परिषहों की पर्वतमाला प्रापका मार्ग अवरुद्ध कर दे तो धैर्ग-वज्र से उन्हें चकनाचूर कर निरंतर आगे बढते रहना है । क्षुधा या पीपासा, शोत या उष्ण, डाँस या मच्छर, नारी या सम्मान...आदि किसी भी परिषह से आपको दीनता या उन्माद नहीं करना है । धैर्य-वज्र से उसे पराजित कर सदा विजयश्री वरण करते रहना है । आपको अकेलापन, एकांत खलता है न ? आप के मन को स्नेह से प्लावित करनेवाला और प्रेमदृष्टि से घायल करनेवाले सहयोगी की आवश्यकता है न ? यह रही वह सुयोग्य, रुपसम्पन्न, नवयौवना इन्द्राणी समता-शचि ! आपकी कायमी सहयोगिनी है ! इसी समता-शचि के हाथ अमृतपान करते रहना, उसके अनिंद्य सौन्दर्य का उपभोग करते रहना! आपको कभी अकेलापन महसूस नहीं होगा !आपका मन सदा-सर्वदा प्रेम को मस्ती में खोया रहेगा । समता-शचि मध्यस्थष्टि है । अतः इसे क्षणार्ध के लिए भी अपने से अलग नहीं करना । ' लेकिन वास-स्थान कहां ?' अरे मुनिराज, आपको विशाल विमान में ही निवास करना है । इंट-चूने और मिट्टी-पत्थर से बनी इमारतें इसके मुकाबले तुच्छ हैं ! घास फूस की झोंपड़ी या मिट्टी के कच्चे मकान आपके लिए नहीं! आपको अपने परिवार के साथ विमान में ही निवास करना है। ज्ञान-रुपी महाविमान के आप खुद एक मात्र मालिक हैं । ज्ञान/आत्मस्वरूप के अवबोध रूपी ज्ञान...यही महाविमान है । बताइए, इसमें निवास करते हुए पापको किसी कठिनाई का सामना तो नहीं करना पडेगा न ? सभी प्रकारकी सुविधाएँ और सुख सामग्री से युक्त यह विशाल विमान है....! वस्तुतः आपका नंदनवन भी इसी विमान में है और आपकी अनन्य सहयोगिनी इन्द्राणी तथा वज्र भी इसी विमान में रहेंगे ! Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व समृद्धि २८३ कहिए, कोई न्यूनता रह गयी है ? मुनिन्द्र, आपके पास विश्व की श्रेष्ठ संपत्ति उच्चतम वैभव और अमोघ शक्ति है । ऐसी दिव्यावस्था में आप के दिन रात कैसे गुजर जाएंगे, उस का पता तक नहीं चलेगा । प्रत: हे मुनिश्वर ! आप अपनी शक्ति, संपत्ति और अलौकिक समृद्धि को पहचानिए । साथ ही, इसके अतिरिक्त तुच्छ एवं प्रसार ऐसी पौद्गलिक संपत्ति की कामनायें छोड दें । विस्तारित क्रियाज्ञानचर्मच्छत्रो निवारयन् । मोहम्लेच्छमहावृष्टि चक्रर्षात न कि मुनिः ? ।।३।। १५५ ।। अर्थ : क्रिया और ज्ञान रूपी चर्मरत्न एवं छत्ररत्न से जो युक्त हैं भोर मोहम्लेच्छों द्वारा महावृष्टि का जो निवारण करते हैं, क्या ऐसे महामुनि चक्रवर्ति नहीं हैं ? विवेचन : हे मुनीश्वर, क्या आप चक्रवर्ती नहीं हैं ? अरे, प्राप तो भावचक्रवर्ती हैं। चक्रवर्ती की अपार समृद्धि तथा शक्ति के श्राप श्रागार हैं । यह क्या आप जानते हैं ? आपके पास चर्मरत्न है । सम्यक् क्रिया का चर्मरत्न है ! श्राप के पास छत्ररत्न है । सम्यग् ज्ञान का छत्ररत्न है ! भले ही फिर मोहरूपी म्लेच्छ, मिथ्यात्व के दैत्यदल भेजकर तुम पर कुवासनाओं का शरसंधान कर दें ! चर्मरत्न और छत्ररत्न प्रापका बाल भी बांका नहीं होने देंगे । आप में यह खुमारी अवश्य होनी चाहिए कि, ' में चक्रवर्ती हूं।' साथ ही, इस बात का गर्व होना चाहिए कि " मेरे पास चर्मरत्न और छत्ररत्न है ।" इस प्रकार के गर्व और खुमारी से आप दीन नहीं बनेंगे, कभी हताश नहीं होंगे, कायर नहीं होंगे । फिर भले ही मोहम्लेच्छ कैसा भी जाल बिछाएं, जैसा चाहे वैसी व्यूह-रचना कर दे, तुम्हारे इर्द-गिर्द मिथ्यात्व के भयंकर दैत्यों का पहरा बिठा दें, और तुम्हें उलझानेवाली विविध वासनाओं की बौछार कर दे, लेकिन श्राप निर्भय बनकर पूरी शक्ति से उस का सामना करना । यदि तुम सम्यक् क्रियाओं में निमग्न होंगे तो वासना के तीर आपका कुछ नहीं बिगाड़ेंगे ! यदि तुम सम्यग् - ज्ञान में मग्न होंगे तो . Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ वासना के तोर तुम्हारी प्रदक्षिणा कर पुनः लौट जाएंगे और उसी द्वैत्य का वक्ष स्थल भेदते हुए आर-पार हो जाएँगे । जानते नहीं ? स्थलीभद्रजी पर मोह - म्लेच्छ ने कैसा तो गजब का आक्रमण किया था ? वासना की कैसी अति-वृष्टि की थी ? लेकिन वे चक्रवर्ती मुनीन्द्र थे ! मोह ने नगरवधु कोशा के हृदय में मिथ्यात्व का प्रारोपण किया था, मिथ्यात्व ने उन पर बासनाओं की जबरदस्त मुठ मारी थी । कोशा नित्यप्रति नव-शृंगार कर वासनाओं के तीर पर तीर छोडने लगी, वासनाओं की तुमुल वर्षा करने लगी, उन्हें वश करने के लिए नानाविध नेत्र - कटाक्ष और प्रेमालाप की शतरंज बिछाने लगी, अंगविन्यास किये और मदोत्तेजक भोजन पुरसे ! गीत-संगीत प्रौर नर्तन-कीर्तन से जादूई शमां बांध दिया। लेकिन उस की युक्ति स्थुलीभद्रजी पर कारगर सिद्ध न हुई । ना ही उस का मनोवांछित पूरा कर सकी । काम-वृष्टि का एकाध बूँद भी उन्हें भीगा नहीं सका ! क्योंकि उस चक्रवर्ती के पास सत्क्रियाओं के चर्मरत्न और सम्यग् - ज्ञान के छत्ररत्न जो थे । यह दो रत्न सदा-सर्वदा चक्रवर्ती की, उनके शत्रुनों से रक्षा करते हैं । बशर्ते कि चक्रवर्ती इन दोनों को अहर्निश अपने पास ही रखे । यदि उन्हें अपने पास नहीं रखा तो घडी के सौवे भाग में ही चक्रवर्ती को नामशेष होते देर नहीं लगेगी । मुनिराज ! आपको तो सभी आश्रवों का परित्याग कर सर्वसंवर में स्वयं को नियंत्रित करना है, यानी क्रिया और ज्ञान में परिरगति प्राप्त करना है । मन-वचन-काया के योगों को चारित्र की क्रियाओं में पिरो लेना है ! और ज्ञान का अखण्ड उपयोग रखना है । भूलकर भी कभी ज्ञान ज्योति बुझ न जाए, इसका पूरी सावधानी से ध्यान रखना है । यदि क्षायोपशमिक ज्ञान, शास्त्रज्ञान की मंद दीपिका भी बुझ गयी तो वासनाओं की डांकिनियाँ तुम्हारा खून चूस लेंगी । वासनाओं की मूसलाधार बारिश तुम्हें भीगा कर ही छोड़ेगी और फलतः तुम अस्वस्थ हो, भाव मृत्यु की गोद में समा जाओगे । ज्ञानसार प्रतिदिन स्मरण रखिए कि आप चक्रवर्ती हैं । चक्रवर्ती की अदा से जीवन व्यतीत करना सीखिए। दो रत्नों को अहर्निश अपने पास रखिए ! मोह - म्लेच्छ पर विजयश्री पा लोगे ! Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व समृद्धि नवब्रह्मसुधाकुण्ड - निष्ठाषिष्ठायको मुनिः । नागलोकेशवद् भाति क्षमां रक्षन् प्रयत्नतः ॥ ४ ॥ १५६ ॥ अर्थ : नौ प्रकारके ब्रह्मचर्य रूपी प्रमृत-कुण्ड की स्थिति के सामर्थ्य से स्वामी और प्रयत्न से सहिष्णु वृत्ति के धारक मुनिराज हूबहू नागलोक के स्वामीवत् शोभायमान है । २८५ विवेचनः मुनीश्वर ! आप शेष नाग हैं, नागलोक के प्रधिपति हैं । आश्चर्यचकित न हों । साथ ही इन बातों को नीरी कल्पना न समझें ! सचमुच श्राप नागेन्द्र हैं । ब्रह्मचर्य का अमृत-कुण्ड आप का को आप अपने उपर धारण किए हुए हैं । हुई है । अब बताइए आप नागेन्द्र हैं या आपकी खुशामद अथवा चापलूसी नहीं कर हम रिझाना नहीं चाहते । बल्कि वह बात कर रहे हैं । निवास स्थान है । क्षमा पृथ्वी वह आप के सहारे टिकी नहीं ? सच मानिए, हम कर रहें हैं । व्यर्थ की प्रशंसा जो वास्तविकता है, यथार्थ है, वाकइ आप ब्रह्मचर्य के नौ नियमों का पालन कर, मन-वचन और काया के योग से ब्रह्मचर्यं के अमृत कुण्ड में रमण करते हैं, केलिक्रीडा करते हैं । १. स्त्री, पुरूष और नपुंसक का जहाँ वास है वहीं आप नहीं रहते । २. स्त्रीकथा नहीं करते । ३. जहाँ स्त्रीसमुदाय बैठा हो, वहाँ आप नहीं बैठते । ४. दीवार की दूसरी ओर हो रही स्त्री-पुरूष की राग चर्चा अथवा प्रेमालाप श्राप नहीं सुनते और ऐसे स्थान को छोड़ देते हैं । ५. सांसारिक अवस्था में की हुई कामक्रीडा का कभी स्मरण नहीं करते । ६. विकारोत्तेजक पदार्थः घी, दूध, दहीं, मलाई मिष्टान्न आदि का कभी सेवन नहीं करते । ७. प्रति प्रहार नहीं करते, यानी ठूंस ठूंस कर खाना नहीं खाते ! ८. शरीर को सुशोभित नहीं करते । ६. स्त्री के अंगोपांग को एकटक नहीं निहारते । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ज्ञानसार ब्रह्मचर्य के अमृत-कुण्ड में आप कैसे अपूर्व आहलाद का अनुभव कर रहे हैं । इस पाहलाद का वर्णन कैसे किया जाए और किन शब्दों में किया जाए ? साथ ही यह बात वर्णनयोग्य ही कहाँ है ? अपितु गोता लगाकर अनुभव करने की बात है ! सचमुच, आप ब्रह्मचर्य के अमृतकुण्ड के अधिपति हैं, अधिनायक है और हैं स्वामी ! इस आनन्द की तुलना में विषयसुख की केलि-क्रीडा का आनन्द तुच्छ है, नहींवत् है, असार है । क्षमा यानी पृथ्वी....! सारे भूतल पर यह लोकोक्ति सर्वविदित है : 'शेषनाग पृथ्वी को धारण किये हुए हैं !' संभव है यह लोकोक्ति सत्य न हो, लेकिन हे मुनिन्द्र, आपने तो सचमुच क्षमा-पृथ्वी को धारण कर रखा है ! क्षमा ऑपके सहारे ही टिकी हुई है । ___कैसी पाप की क्षमा और सहनशीलता ! वास्तव में वर्णनातीत है। गुरुदेव चंडरूद्राचार्य अपने नवदीक्षित शिष्य श्रमण के लुचित मस्तक पर दंडप्रहार करते हैं, लेकिन नवदीक्षित मुनि शेषनाग जो ठहरे ! उन्होंने क्षमा धारण कर रखी थी। दंड-प्रहार की मार्मिक पीडा के बावजूद उन्होंने क्षमा-पृथ्वी को जरा भी हिलने नहीं दिया । उन्होंने सहनशीलता की पराकाष्ठा कर दी। शेषनाग अगर यों दंडप्रहार से भयभीत हो जाए, विचलित हो जाए, तो भला पृथ्वी को कैसे धारण कर सकेगा ? फलतः नवदीक्षित मुनिराज अल्पावधि में ही केवलज्ञानी बन गये । ब्रह्मचर्य और सहनशीलता ! इनके पालन और रक्षा के कारण मुनि शेषनाग हैं । " में शेषनाग हूँ, नागेन्द्र हूँ।" की सगर्व स्मृति-मात्र से ब्रह्मचर्य में दृढता और सहनशीलता में परिपक्वता का प्रादुर्भाव होता है । मनिरध्यात्मकलासे विवेकवृषभस्थितः । शोभते विरतिज्ञप्तिगंगागौरीयुतः शिवः ॥५॥ १५७॥ अर्थ : मुनि अध्यात्मरुपी के लाश के उपर और विवेक ( सद्-असद् के निर्णयस्वरुप) रुपी वृषभ पर बैठ, चारित्रकला एव ज्ञान कला स्वरूप गंगागौरी सहित महादेव की भांति सुशोभित है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ सर्वसमृद्धि विवेचन : महादेव शंकर ! मुनिश्री आप ही शंकर हैं ! क्या आप जानते हैं ? यह कोई हंसी मजाक की बात नहीं, बल्कि हकीकत है। महादेव शंकर की शोभा....उनका महाप्रताप ... अद्वितिय प्रभाव ... सब कुछ आपके पास है। आप सकल समृद्धि और सिद्धियों के एकमेव स्वामी हैं । हाँ, प्रापका निवास स्थान भी कैलाश पर्वत है। अध्यात्म के कैलाश पर आप अधिष्टित है न? नीरे पत्थरों की पर्वतमाला से यह अध्यात्म का पर्वत अनेकानेक विशेषताएँ लिए हुए है। कैलाश पर्वत से अध्यात्म का पर्वत सचमुच दिव्य और भव्य है । वृषभ-बैल का वाहन आपके पास है न ? आप विवेक-रुपी वृषभ पर अरूढ हैं । माप सत्-असत् के भेदाभेद से अवगत हैं, हेय-उपादेय से भलीभाँति परिचित हैं ! शुभाशुभ में रहे अन्तर का पापको ज्ञान है । यही आपका विवेक वृषभ है। क्या आप जानना चाहते हैं कि गंगा-पार्वती कहां पर हैं ? अरे, आप की दोनों ओर गंगा-पार्वती बैठी हुई हैं। तनिक दृष्टिपात तो कीजिए उस ओर ! कैसा मनोहारी रूप है उनका | और आपकी प्रेम-दृष्टि के लिये दोनों लालायित हैं । __ चारित्र-कला आप की गंगा है और ज्ञान-कला पार्वती । उन गंगा-पार्वती से ये गंगा और पार्वती आप को अपूर्व अद्भूत एवं असीम सुख प्रदान करती है ! ये दोनों देवियां दिन-रात आपके साथ ही रहती हैं और माप को जरा भी कष्ट पड़ने नहीं देती। प्राप से अलग उन का अपना अस्तित्व ही नहीं है...। माप के अस्तित्व एवं व्यक्तित्व में दोनों ने अपना अस्तित्व और व्यक्तित्व विलीन कर दिया है । ऐसे अनन्य, अद्भुत प्रेम के प्रतिक जैसी चारित्र-कला और ज्ञान कला समान देवियाँ आपके साथ हैं। अब भला बताइए, आपको विश्व से क्या लेना-देना ? उसकी परवाह ही क्यों ? कहिए मुनिराज, निःसंकोच बताइए । समद्धि में कोई कसर रह गयी है ? आवास के लिए उत्तुंग पर्वत, वाहन के रूप में बलिष्ठ वृषभ और गंगा-गौरी जैसी प्रियतमाएँ ! और आप को किस चीज की आवश्यकता है ? आप अपनी धुन में रह सारी दुनिया को प्रेमदीवानी बनाते रहिए । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जानसार __ कहने का तात्पर्य यह है कि मुनिश्वर को नित्यप्रति अध्यात्म-समाधिस्थ ही रहना है। उन्हें अध्यात्म को ही अपना आवास मानना चाहिए । जब-जब बाहर निकलने का प्रसंग आए तब विवेकारूढ होकर ही जाना चाहिए । बिना विवेक के कहीं न जाएं और ना ही कुछ देखने का प्रयत्न करें । ज्ञान और चारित्र के साथ ही जीना और मरना है । जीवन का आनन्द सुख एवं शांति, ज्ञान तथा चारित्र के सहवास में ही प्राप्त करें। इनका संग छोड किन्हीं दूसरो में खो कर, सुख शांति प्राप्त करने का व्यर्थ प्रयत्न न करें । ज्ञान और चारित्र के प्रति पूरी निष्ठा हो । यदि इन पर इमानदारी से अमल किया जाए तो कभी किसी चीज को कमी महसूस न होगी और कीर्ति-पताका सर्वत्र फहरती रहेगी । शंकर महाराज ! आप अपना वैराग्य-डमरू बजा कर राग-द्वेष से भरी दुनिया को निरंतर सुनाते रहिए ! ज्ञानदर्शनचद्रार्कनेत्रस्य नरकच्छिदः । सुखसागरमग्नस्य कि न्युनं योगिनो हरेः ।।६।। १५८।। अर्थ ! जान-दर्शन रूपी सूर्य और चन्द्र जिनके नेत्र हैं, जो नरकगति (नरका मुग-इन्ता ) का विनाश करने वाले हैं, ऐसे 'सुख रूपी समुद्र में निमग्न योगी को कृष्ण से भला क्या न्यून है ? विवेचन : श्री कृष्ण ! -चंद्र और सूर्य जिन को दो प्रांखे हैं, -जिन्हों ने नरकासुर का वध किया है, -अथाह सागर में जो निमग्न रहते हैं, __ योगीराज ! तुम्हें श्री कृष्ण से भला क्या कमी है ? क्या आपकी दो आँखे चन्द्र-सूर्य नहीं है ? क्या आपने नरकासुर का वध नहीं किया है ? क्या आप सुखसागर में सोये नहीं हैं ? फिर भला, आप अपने में किस बात को न्युनता का अनुभव करते हैं ? आप स्वयं ही तो श्रीकृष्ण है । आपकी दो आंखे हैं : ज्ञान और दर्शन ! ये चन्द्र-सूर्य समान ही तेजस्वी और विश्व प्रकाशक हैं । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसमृदि २८९ क्या आप ने नरकगति का उच्छेदन नहीं किया है ? नरकासुर का मतलब नरकगति ! चारित्र के अमोध शस्त्र से आप ने नरकगति का विच्छेद किया है, नाश किया है ।। ___ आत्मसुख के समुद्र में आप सोये हुए हैं। अब आप ही बताइए श्रीकृष्ण की विशेषताओं में प्राप की विशेषता कौन सी कम हैं ? ___किसी वस्तु को सामान्य रूप से देखना यानी दर्शन और विशेष रूप से देखना यानी ज्ञान । विश्व की जड़-चेतन वस्तुओं को मुनि सामान्य और विशेष-दोनों दृष्टि से परखता है। हर वस्तु में सामान्य और विशेष, दोनों स्वरूप समाविष्ट हैं। जब उसके सामान्य स्वरूप को देखा जाए तब दर्शन और विशिष्ट रूप में देखा जाए तब ज्ञान कहा जाता है । योगी का जीवन महाव्रतों से युक्त होता है । अत: वह मृत्यु के बाद नरक में नहीं जाता, अतः उसने नरकासुर का वध किया, ऐसा कहा जाता है । क्योंकि नरक का भय यह अपने माप में एकाध असुर से कम नहीं है । पवित्र पापरहित जीवन व्यतीत करने से ही यह भय दूर होता है। आध्यात्मिक सुख के महोदधि में मुनि मस्त होकर शयन करता है । भले अरेबीयन महासागर सूख जाए, जल का थल हो जाय, और अथाह जलराशि रणप्रदेश में बदल जाए, लेकिन अध्यात्म-महोदधि कभी नहीं सुखता ! पूज्य उपाध्यायजी महाराज मुनि को अक्षय, अभय और स्वाधीन समृद्धि का सुख बताने हेतु प्रात्मभूमि पर ले जाकर, एक के बाद एक उत्तमोत्तम समृद्धि का दर्शन कराते जाते हैं। संसार में श्रेष्ठ समझी जाने वाली समृद्धि के विविध स्वरूपों का निकट से दर्शन कराते हुए कहा है : “ तुम तो ऐसी संपत्ति के स्वयं अधिपति हो.... तुम दुनिया के सर्वश्रेष्ठ समृद्धिवान और वैभवशाली हो । तुम दीन न बनो। भौतिक संपदा के प्रति भूल कर भो आकर्षित न हो। तुम देवेन्द्र हो, तुम चक्रवति हो, तुम महादेव शंकर हो और श्रीकृष्ण भी तुम ही हो । १६ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ज्ञानसार सिर्फ अपने आपको पहचानो ( Know your self ) जब तुम अपने अापको पहचान लोगे तब दुनिया के श्रेष्ठ सुखी जीव बनते तुम्हें विलंब नहीं लगेगा ! " . योगी ही बनना पडे तो हरि से किसी बात में न्युनता नहीं लगेगी! जब तक योगी नहीं बनेंगे तबतक गली-बाजारों में भटकते भीखारी से भी न्यूनता महसूस होगी ! अतः तुम्हें नित्यप्रति ज्ञान और चारित्र की योग-साधना करनी है । या सष्टिब्रह्मणो बाह्या बाह्यापेक्षावलम्बिनी । मुनेः परानपेक्षाऽन्तर्गुण सृष्टिः ततोऽधिका ।।७।।१५।। अर्थ : जो ब्रह्मा की सृष्टि है, वह सिर्फ बाह्य जगतरूप है, साथ ही बाह्य कारण की अपेक्षा रखने वाली है । जब कि मुनिबर की अन्तरंग गुण-स ष्टि अन्यापेक्षारहित होने से अधिक श्रेष्ठ है । विवेचन : ब्रह्मा सृष्टि के जनक हैं ! ___ कहा जाता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि का सर्जन किया है, लेकिन उनका सर्जन कैसा है ? समस्त जगत का सर्जन पर-सापेक्ष ! अन्य के अवलम्बन पर ही सारा दार-मदार ! इस प्रश्न का निराकरण कहीं नहीं मिलता कि आखिर ब्रह्मा ने ऐसी सृष्टि का सर्जन क्यों किया? किसी ने नन्हेमुन्नों को समझाने की दृष्टि से कहा प्रतीत होता है कि ब्रह्मा के मन में सृष्टिसर्जन का विचार आया और सर्जन कर दिया। लेकिन एकाध बच्चे ने कहीं पूछ लिया होता : 'ब्रह्मा को किसने पैदा किया ?' तब नि:संदेह यह बात प्रचलित न होने पाती कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की है। किसी के गले न उतरे ऐसी यह बात बुद्धिजीवियों ने स्वीकार कर ली है और शास्त्रों ने इसे सिद्ध करने के प्रयत्न किये हैं । 'ब्रह्मा की उत्पत्ति कैसे हुई ?' प्रश्न का जवाब अगर कोई दे दें कि 'ब्रह्मा तो अनादि है !' तब हमें यह मानने में क्या हर्ज है कि 'सृष्टि भी अनादि है !' जाने दीजिए इस चर्चा को ! हमें सिर्फ विचार करना है मुनिब्रह्मा के सम्बन्ध में । मुनि-ब्रह्मा अंतरंग गुणों की रचना करते हैं, गुण-सृष्टि का सर्जन करते हैं....! उक्त रचना से बाह्य रचना कई गुनी Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसमृद्धि २६१ श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण है । गुणसृष्टि के सर्जन में किसी बाह्य कारण की अपेक्षा ही नहीं रहती । बाह्य दुनिया के सर्जन में न जाने कितना पराश्रयपन ! एक मकान खड़ा करने में, नारी की स्नेह-दृष्टि प्राप्त करने में, धन-संपत्ति संचय करने में, सगे-संबंधी तथा मित्र-परिवार के साथ सम्बन्ध बांधने में.... प्रात्मा से भिन्न ऐसे जड़-चेतन पदार्थों के बिना भला, चल सकता है क्या ? इन पदार्थों के लिए कितने राग-द्वेष और असत्य के फाग खेलने पड़ते हैं ? जो भी झगड़े और क्लेश होते हैं इन पर-पदार्थों के कारण ही होते हैं । ठीक वैसे ही, जीवमात्र की सुख-शांति और वैभव की सारी कल्पनाएँ इसी पर-पदार्थो को लेकर ही हैं ! और हमारे जीवन में पर-पदार्थों की अपेक्षा ऐसी तो रूढ बन गई है कि उसके बिना संसार में जीव जो नहीं सकता, वस्तुतः उस का जीना असंभव है । मुनिराज जिस अनुपात में साधना-आराधना के मार्ग में आगे बढ़ते हैं, ठीक उसी अनुपात में पर-पदार्थ की सहायता के बिना जीवन व्यतीत करने का प्रयत्न करते हैं। जैसे भी संभव हो कम से कम परपदार्थों की सहायता लेते हैं । साथ ही, प्रांतरिक गुणसष्टि का इस तरह सर्जन करते हैं कि जिसके बल पर नित्य स्वतंत्र और निर्भय जीवन जी सकें। उनकी सृष्टि में प्रलय के लिए कोई स्थान नहीं, जब कि ब्रह्मा द्वारा रचित सष्टि में प्रलय और उल्कापात की पूरी संभावना है । प्रलय अर्थात् सर्वनाश ! आत्मगुणमय सृष्टि में जब जीवन का प्रारम्भ होता है तब किसी प्रकार की कोई अपेक्षा नहीं होती, बल्कि सर्वथा निरपेक्ष जीवन ! मतलब कोई राग-द्वेष नहीं, झगड़े-फसाद नहीं ! सुख-दुःख का द्वंद्व नहीं। ब्रह्माजी की सृष्टि की तुलना में मुनिराज की सृष्टि कितनी भव्य, दिव्य और अलौकिक होती है। इस सृष्टि में सुख, शांति, निर्भयता और विशाल समृद्धि का भंडार होता है कि जीव को पूर्ण तृप्ति हो जाय ! अतः हे मुनिराज ! आप तो सृष्टि के सर्जनहार ब्रह्माजी से भी महान् हैं ! कष्ट, दुःख, वेदना और नारकीय यातनाओं से युक्त ब्रह्मा की दुनिया के बजाय आप कैसी अनुपम, अलौकिक, अनंत सुख, आनंद और पूर्ण रूप से स्वायत्त, गुणसृष्टि का सृजन करते हैं ! अब तो आपको अपनी महत्ता, स्थान और शक्ति का अहसास हुआ या नहीं ? Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ज्ञानसार अब तो आपको किसी बात की न्यूनता का पनुभव नहीं होगा न ? वह कोई काल्पनिक बात नहीं है, बल्कि वास्तविक हकीकत है। प्राप इस पर गंभीरता से विचार कर इस बात को प्रात्मसात् करना । परिणामतः गुणसष्टि का सर्जन करने के लिए आप प्रोत्साहित होंगे और कल्पित सष्टि की रचना से मुक्त हो जाएंगे । रत्नस्त्रिभिः पवित्रा या श्रोतोभिरिव जाह्नवी । सिद्धयोगस्य साऽप्यहत्पदवो न दवीयसी ॥८॥१६०।। अर्थ : जिस तरह तीन प्रवाहों के संगमस्वरुप पवित्र गंगा नदी है, ठीक उसी तरह, तीन रत्नों से युक्त पवित्र ऐसा तीर्थ कर पद भी मिद्ध योगी साधु से अधिक दूर नहीं । विवेचन :- खैर, आप ब्रह्मा शंकर अथवा श्री कष्ण बनना नहीं चाहते, देवेन्द्र बनने का या चक्रवर्तीत्व का शौक नहीं, लेकिन तीर्थंकर-पद की तो चाह है न ? तीर्थकर-पद ! सम्यग ज्ञान, सम्यग दर्शन और सम्यक चारित्र : इन तीन रत्नों से पवित्र पद ! क्या आप इस पद के चाहक हैं ? यह भी मिल सकता है ! लेकिन इसके लिए आपको ढेर सारी प्राथमिक तैयारियां करनी पड़ेगी। और उसके लिए दो बातें मुख्य हैं : (१) भावना और (२) आराधना । मन में हमेशा ऐसी भावना होनी चाहिए कि, 'मोहान्धकार में भटकते और दुःखी-पीडित जीवों को मैं परम सुख का मार्ग बताऊं, उन्हें दुःख से मुक्ति दिलाऊँ....समस्त जीवों को भव-बंधन से आजाद करूँ !' इस भावना के साथ बीस स्थानक तप की कठोर आराधना होनी चाहिए। इन दो बातों से तीर्थंकर-पद की नींव रखी जाती है और तीसरे भव में उस पर विशाल इमारत खडी हो जाती है ! तीर्थकर नामकर्म निकाचित करते ही आप तीर्थंकर बन गये समझो! इस भावना और आराधना में प्रगति होने पर; गुरू भक्ति और ध्यान योग के प्रभाव से आप स्वप्न में तीथंकर भगवान का दर्शन करोगे! विश्व का सर्वोत्तम श्रेष्ठ पद ! तीर्थकरत्व की दिव्यातिदिव्य समद्धि ! समवसरण की अद्भुत रचना, अष्ट महाप्रतिहारी की शोभा, वाणी के पैंतीस गुण और चौंतीस Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसमृद्धि २६३ अतिशय ... वीतराग दशा और सर्वज्ञता, चराचर विश्व को देखना और जानना.... शत्रु-मित्र के प्रति समदृष्टि ! ऐसी अवस्था प्रापको पसंद है न ? और कार्य क्या है आपका ? सिर्फ धर्मोपदेश द्वारा विश्व में सुख-शांति की सौरभ फैलाना ! समस्त विश्व को सुखी करने का उपदेश देना ! अरिहंत पद कहिए या फिर तीर्थंकर पद, गंगा की तरह पवित्र है ! पदवी श्रेष्ठ होने पर भी उसका लेशमात्र अभिमान नहीं ! पदवी सर्वोतम, लेकिन कतइ दुरुपयोग नहीं ! ऐसी यह पवित्र पदवी है ! तीन रत्नों की पवित्रता जैसी । जिस तरह तीन प्रवाहों से गंगा पवित्र है न ? आप तीर्थंकर पद की कामना करें, अन्तर में अभिलाषा रखें, यह सर्वथा उचित है । लेकिन इसके लिए जगत के सस्मत जीवों के प्रति करुणा भाव धारण करें ! सब का हित का विचार करें। किसी जीव के लिए अनिष्ट चितन न करें । सांसारिक जीवों के दोष अथवा अवगुण दिखायी दें तो उन्हें जड - मूल से उखाड़ ने की भावना रखें ! ठीक वैसे ही, उसके लिए सक्रिय प्रयत्न करें। ना कि उनके दोष देख कर उनसे मुँह फेर लें । उनके प्रति तिरस्कार अथवा घृणा का भाव न रखें । स्वहित के बजाय परहित को अपने विचारों का केन्द्र-बिन्दू बनाना । तीर्थंकर - पद की प्राप्ति के मनोरथ भावना और तमन्ना तब पैदा होती है जब आत्मा योग - भूमिका में स्थिर हो गयी हो । ज्ञान दृष्टि से संसार का अवलोकन किया हो ! उसकी बाह्य समृद्धि को तुच्छ, असार समझ कर परित्याग कर दिया हो अथवा उसे त्यागने का दृढ संकल्प जनमा हो ! सर्व प्रकार से श्रेष्ठ... सर्वोत्तम समृद्धि में तीर्थ कर पद की समृद्धि सर्वोच्च मानी जाती है और वह वास्तविकता से परिपूर्ण है । प्रस्तुत 'सर्वसमृद्धि' अष्टक में अंतिम समृद्धि 'तीर्थ कर पद' की बताकर पूज्य उपाध्याय जी महाराज अष्टक पूरा करते हुए आत्मा को तीर्थ कर-पदप्राप्तिहेतु आवश्यक उपायों की ओर उन्मुख होने का निर्देश करते हैं । तीर्थंकर - पद का प्रधान कार्य है : दुःख त्रास और संकटो से दुनिया को उबारने का । अतः वह श्रेष्ठ पद कहलाता है ! Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. कर्मविपाक-चिन्तन तुम्हारे अपने सुख और दुःख के कारण जानने के लिए तुम्हें कर्म के तत्त्वज्ञान का अभ्यास करना ही होगा। समस्त विश्व पर जिन कर्मों का जबरदस्त प्रभाव है, उन्हें (कर्मों को) पहचाने बिना नहीं चलेगा । हमारे समस्त सुख और दुःख का मूल प्राधार कर्म ही है । यह सनातन सत्य जान लेने के पश्चात् हमें अपने सुख-दुःख का ३ निमित्त, भूल कर भी अन्य जीवों को नहीं बनाना चाहिये! प्रस्तुत चिंतन गहरायी से और एकाग्र चित्त से करना ! बीच में ही रुक न जाना, बल्कि पुन:पुनः चिंतन करना ! निःसंदेह तुम्हें अभिनव ज्ञानदृष्टि प्राप्त होगी । VM wamenim Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाक-चिन्तन २९५ दुखं प्राप्य न दीनं स्यात् सुखं प्राप्य च विस्मितः ! मुनिः कर्मविपाकस्य जानन् परवशं जगत् ॥१॥१६॥ अर्थ : कर्मविपाकाधीन जगत से परिचित होकर साधु दुःख पाकर दीन नहीं होता, ना ही सुख पाकर विस्मित! विवेचन : संपूर्ण जगत् ! कर्मों की अधीनता ! कर्म के अधीन कोई दीन है, कोई हीन है ! कोई मिथ्याभिमानी है ! कोई दर-दर भटकता है तो कोई घर-घर भीख मांगता है। कोई गगन-चुम्बी अट्टालिकाओं में इठलाता-इतराता है तो कोई प्रिय-परिजन के वियोग में करूण क्रंदन करता है ! कोई इष्ट के संयोग में स्नेह •का संवनन करता है तो कोई पत्र-परिवार की विरहाग्नि में निरंतर धू-धू जलता है । कोई रोग-बीमारी से त्रस्त हो छटपटाता है, विलाप करता है तो कोई निरोगी काया के उन्माद में प्रलाप करता है ! कर्म के ये कैसे कठोर विपाक हैं ? ज्ञानावरणीय कर्म के विपाक से अज्ञान, मुर्खता और मुढता का जन्म होता है । दर्शनावरणीय-कर्म के उदय से घोर निद्रा, अंधापन, मिथ्या-प्रतिभास का शिकार बनता है! जबकि मोहनीयकर्म के विपाक तो अत्यंत भयंकर और असहनीय होते हैं कि बात ही न पूछो ! बिलकुल विपरीत समझ होती है! परमात्मा, सद्गुरू और सद्धर्म के सम्बंध में एकदम उलटी कल्पना ! वह हितैषी को दुश्मन मानता है और दुश्मन को गहरा दोस्त ! क्रोध से लालपीला हो जाएं और अभिमान के शिखर पर प्रारूढ हो, फिसल पडता है ! साथ ही, मोह-जाल बिछाता है । लोभ-फणिघर के साथ खेलता है ! न जाने मोहनीय कर्म के विपाक कैसे भयानक हैं ! बात-बात में भय और नाराजगी ! क्षण में हर्ष और क्षण में शोक ! हरदम डर और हरदम जुगुप्सा ! पुरुष को स्त्री-समागम की तीव्र लालसा और स्त्री को पुरूष-देह की अभिलाषा ! जब कि नपुंसक को स्त्री-पुरुष-दोनों का आकर्षण ! अंतरायकर्म के विपाक भी जटिल और निश्चित हैं ! पास में वस्तु हो, लेने वाला सुयोग्य-सुपात्र व्यक्ति हो, लेकिन देने की इच्छा नहीं होती ! सामने वस्तु हो, मन पसन्द हों, फिर भी प्राप्त नहीं होती ।लाडी (नारो) गाडी (वाहन) और वाडो (बंगला) होते Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ हुए भी उसका उपभोग न कर सके । इष्ट भोजन सामने होते हुए खा न सके ! तपश्चर्या करने की भावना न हो ! मुनि किसी को उँचे कुल में और किसी को नीच कुल में जन्मा देख, यह सोचते हुए समाधान करता है कि, 'यह सब गोत्र-कर्म का विपाक है ।' मुनि जब किसी को निरोगी, पूर्ण स्वस्थ देखता है और किसी को रुग्ण... बीमार.... सड़ता.... गलता हुआ देखता है तब यह समाधान करता है कि यह सबलता - दुर्बलता वेदनीयकर्म का विपाक है ! मुनि किसी को मनुष्य रूप में, किसी को पशु रुप में तो किसी को देव रूप में और किसी को नरक रुप में जानता है तब यों सोच कर समाधान करता है कि, 'यह उसके प्रायुष्यकर्म और गतिनाम कर्म का विपाक है । मुनि जब किसी को बाल्यावस्था में मरते हुए देखता है, किसी को युवावस्था में तो किसी को वृद्धावस्था में, तब उसे किसी/ प्रकार का दुःख, शोक अथवा आश्चर्य नहीं होता । वह उसे सिर्फ आयुष्यकर्म का परिणाम समझता है । ज्ञानसार मुनि किसी को सौभाग्यशाली, किसी को दुर्भागी, किसी को सफल, किसी को असफल, किसी को मृदुभाषी, किसी को कर्कशभाषी, किसी को खूबसूरत, किसी को बदसूरत, किसी को हंसगति वाला तो किसी को ॐ गति वाला देखता है, तब उसे इससे कोई हर्ष-विषाद नहीं होता ! बल्की वह इसे नामकर्म का विपाक समझता है । जब मुनि के अपने जीवन में भी ऐसी विषमताओं का प्रादुर्भाव होता है तब 'यह कैसे हुआ ? यह किस तरह संभव है ?' श्रादि प्रश्न उपस्थित कर उद्विग्न नहीं होते । क्योंकि वे 'कर्म विपाक के विज्ञान' से भली-भाँति परिचित होते हैं । उसके पीछे रहे 'कर्म-बंधन-विज्ञान' के भी वे जानकार होते हैं । अतः वे दीनता नहीं करते, और सुख-दु:ख के द्वंद्व उन्हें स्पर्श तक नहीं कर पाते । उक्त महावैज्ञानिक मुनि के अन्तर में हर्ष - शोक की लहरियाँ / भँवर पैदा नहीं हो पाते । वे स्वयं को सुखी अथवा दुःखी नहीं मानते । कर्मोदय भले शुभ हो या अशुभ, वे उसमें खो कर किसी प्रकार की सुख-दुःख की कल्पना नहीं करते । दीनता - हीनता और हर्षोन्माद के चक्रवात में से बचने का यह एक वैज्ञानिक मार्ग है; 'जगत् को कर्माधीन समझो । संसार की प्रत्येक Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाक-चिन्तन २९७ घटना के पीछे रहे कर्मतत्त्व की गहरी और वास्तविक जानकारी हासिल करो । यही जानकारी तुम्हें कभी दीन नहीं बनने देगी, ना ही विस्मित होने देगी । फलतः, दीनता और विस्मय नष्ट होते ही तुम अन्तरंग आत्मसमृद्धि की दिशा में गतिशील बनोगे । येषां भभंगमात्रेण, भज्यन्ते पर्वता अपि ! तैरहो कर्मवैषम्ये भूपभिक्षाऽपि नाऽऽप्यते ॥२॥१६२।। अर्थ : जिनकी भ्र कुटि तनने मात्र से भी बड़े बड़े पर्वत छिभिन्न हो जाते हैं, ऐसे महारथी राजा भी कर्म-विषमता पैदा होने पर भिक्षा भी नहीं पाते, यह आश्चर्य है ! विवेचन : कर्मों को यह न जाने कैसी विषमता है ? ___बड़े से बड़े राजा भिखारी बन जाते हैं ! भीख मांगने पर भी अनाज का दाना नहीं मिलता ! जिन की भृकुटि तनते ही हिमाद्रि की पर्वतमालाएँ कम्पायमान हो जाएँ... जिनके आक्रमण मात्र से गिरि-कन्दराए मिट्टी में मिल जाएँ....शत्रुओं के चक्के छुट जाएं....धरती का कोना कोना विनाश का प्रतीक बन जाएँ....लेकिन कों की भयानकता प्रकट हात हा वही राजा, महाराजा और सम्राट.... पलभर में रंक, दीन, गरीब पनकर दाने-दाने के मुंहताज हो जाते हैं । ऐसे अनेकानेक राजा-महाराजों के पतन की करूण कहानियाँ इतिहास के झरोखे से झांकने में तुम्हें अवश्य दृष्टिगोचर होगी। उन के प्रध:पतन की कहानियाँ से इतिहास के पन्ने भरे पडे हैं । संभव है यह सब पढ़कर तुम्हारा मन सहानुभूति से द्रवित हो उठा होगा अथवा 'वे इस के काबिल थे,' सोचकर तुम्हें संतोष हुआ होगा ! लेकिन किसी का अकस्मात इस तरह का पतन कैसे संभव है ? दीर्घावधि से विश्व के दरबारों में जिनका नाम गूंजारित था, उनका यों यकायक पतन क्यों कर ? इसकी सच्चाई को गहराई में जाने का, सत्य-शोधन करने का कभी क्या तुमने प्रयत्न किया है ? __ क्या भूल गये रूस के लोहपुरुष क्रुश्चेव को ? अमरिकी तानाशाह और बलाढ़ य हस्तियाँ भी उससे थर्राती थी ! उसके शाब्दिक अग्निबाणों से विश्व का हर नागरिक दग्ध था ! जिसने स्टेलीन, लेनीन और Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ज्ञानसार बुल्गालीन जैसे रुस के महारथियों को जन-मानस में से उखाड़ फेंका था ! इतना ही नहीं बल्कि रुस के भाग्यविधाता-निर्माता लेनीन-स्टेलीन की कब्रों को तोड़-फोड़ कर उनका नामो-निशान तक मिटा दिया ! उसी महाबली क्रुश्चेव का पतन होते देर न लगी ! एक ही रात में वह और उसका नाम मिट गया ! आज रुस में रुसी उसे जानते तक नहीं ! सिर्फ क्रुश्चेव ही नहीं, ममरिकन राष्ट्राध्यक्ष केनेडी को ही लीजिए ! उसका प्रभाव और दबदबा विश्व के हर कोने में छाया हुआ था ! अमरिकन प्रजा अब्राहम लिंकन के बाद उसे ही महापुरुष मानती थी ! वह उनका एक मात्र भाग्य-विधाता था ! लेकिन देखते ही देखते वह गोली का निशाना बन गया ! उसे कोई नहीं बचा सका ! ऐसे कई किस्से किंवदंतियों से विश्व का इतिहास भरा पडा है ! इस पतन और विनाश के पीछे एक अदृश्य फिर भी ठोस सत्य, कठोर फिर भी चिरंतन तत्व काम कर रहा है ! जानते हो, वह क्या है! वह है कर्मतत्त्व....! यश, कीति, सौभाग्य, सफलता, सत्ता और शक्ति यह सब 'शुभ कर्म' के परिणाम हैं । उन की अपनी समयमर्यादा होती है। लेकिन अल्पमति मनुष्य इससे पूर्णतया अनभिज्ञ होता है । वह उसकी कालमर्यादा को जानता नहीं । अतः उसे दीर्घकालीन समझ लेता है । लेकिन जब कल्पित ऐसे अल्पकालीन शुभ कर्मों का अस्त हो, अचानक अशुभ कर्मों का उदय होता है, तब पतन, अधःपतन और विनाश की दुर्घटनायें घटती हैं ! अपयश, दुर्भाग्य, अपकीति, निर्बलता और सत्ताभ्रष्टता, ये अशुभ कर्मों के फल हैं । सूरमानों के सरदार इजिप्त के राष्ट्राध्यक्ष नासिर को इजराईल जैसे छोटे राष्ट्र के हाथों हार खानी पड़ी, जीते-जी कलंक का घब्बा अपने दामन पर लगा, एक 'दुर्बल शासक' के रुप में प्रसिद्ध हुमा.... भला क्यों ? सिर्फ एक ही कारण ! उसके शुभ कर्मों का प्रस्त हो गया था और अशुभ कर्मों ने उस पर अधिकार कर लिया था । लेकिन यों घबराने से काम नहीं चलता । अशुभ कर्म की कालमर्यादा पूरी हो जाने पर, शुभ कर्म का पुन: उदय होता है। दूसरी भी एक विचित्रता है कि जब कतिपय अशुभ कर्मों का उदय Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाक-चिन्तन २६६ चल रहा हो तब कुछ शुभ कर्मों का उदय भी उसके साथ-साथ हो सकता है । लेकिन प्रतिपक्षी नहीं । उदाहरण के लिए : यश का उदय हो तब उसके प्रतिपक्षी अपयश, यानी अशुभ कर्म का उदय नहीं होता, लेकिन बीमारी, जो स्वयं ही एक अशुभ कर्म हैं, का उदय संभव है ! क्योंकि बीमारी यह यश का प्रतिपक्षी कर्म नहीं है । जब तक कर्म हमारे अनुकूल हैं, तब तक जीव जो चाहे उत्पात, उघम और प्रांदोलन करें औौर हुंकार भरें, लेकिन जैसे ही अशुभ कर्मों का उदय हुआ नहीं कि जीव का उत्पात, उधम और उन्माद पलकझपकते न झपकते खत्म हो जाते हैं । गर्वहरण होता है और वह अपमानित हो दुनिया के मजाक का विषय बन जाता है । अतः कर्म का विज्ञान जानना आवश्यक है । जातिचातुर्यहीनोऽपि कर्मण्यभ्युदयावहे । अर्थ क्षरणाद् रङ्कोऽपि राजा स्यात् छत्रछन्नदिगन्तरः ||३|| १६३ ।। : जब अभ्युarप्रेरक कर्मों का उदय होता है तब जाति और चातुर्य से हीन और रंक होने पर भी, क्षणार्ध में दिशाओं को छत्र से ढकने वा राजा बन जाता है । विवेचन : वह नीच जाति में जन्मा है, चतुराई और अक्लमंदी नामकी कोई चीज उस में नहीं है, फिर भी चुनाव में प्रचंड मत से चुन आता है, विजयी बनता है, मंत्री या मुख्य मंत्री के सर्वोच्च स्थान पर प्रारुढ़ होता है । आज के युग में राजा कोई बन नहीं सकता । राजा-महाराजानों के राज्य और सत्ता पेड़ से गिरे सुखे पत्ते की तरह नष्ट हो गई है । फिर भी चुनाव में विजयी जातिहीन मनुष्य राजाओं का राजा बन जाता है । आज सारे देश में 'जातिविहीन समाज रचना' की हवा पूरे जोर से बह रही है ! 'मनुष्यमात्र समान' सुक्ति के अनुसार हर जगह नोच जाति के लोगों को उच्च स्थानों पर बिठा दिये गये हैं और कुशाग्र बुद्धिवाले परमतेजस्वी उच्च जाति और वर्ण के व्यक्तियों को सरे ग्राम हेयदृष्टि से देखा जाता है....! आन्तरजातीय विवाह का सर्वत्र बोलबाला है ... और ऐसे विवाह रचानेवाले व्यक्ति तथा परिवारों को पुरस्कृतं कर प्रशासकीय स्तर पर सम्मानित किया जाता है । भले ही निम्न Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ज्ञानसार जाति के लोगों को उच्च स्थान प्रदान किये जाते हो, लेकिन यह न भूलिए कि 'जैसी जात वैसी पात !' सोचना यह है कि आखिर इस उत्थान और पतन के पीछे क्या राज छिपा है ? जातिविहीन और मतिमंद व्यक्ति उच्च स्थान पर आरूढ कैसे हो गये ? यहां पर इसका समाधान/निराकरण यों किया गया है : "अभ्युदय करनेवाले कर्मों के उदय से!" शुभ कर्म का उदय व्यक्ति का अभ्युदय करता है। शुभ कर्मका उदय, जातिविहीन और मतिमंद के लिए भी लागु है ! बुद्धिहीन व्यक्ति भी शुभ कर्म के उदय से सर्वसत्ताधीश बन जाता है ! लगता है आज के युग में उन तमाम नीच जाति के और बुद्धिहीन लोगों के सामुदायिक शुभ कर्मों का उदय आ गया है । फलत: निम्न जातिवाला 'बोस' बन बैठा है और उच्च जातिवाला कुशाग्र बुद्धि का घनी दफ्तर और कार्यालय में चपरासी, चाकर और पहरेदार बन कर रह गया है । नीच जाति के लोग 'बड़े' बन गये हैं ! जबकि उच्चजाति में जन्मा हर तरह से कुशल, उसकी अटेची उठाकर आगे-मागे चलता नजर आता है । प्रायः यह देखा गया है कि यश, कीति, सत्ता, सौभाग्य, सुस्वर, आदेयता आदि कर्म, उच्च और नोच जाति में भेदाभेद नहीं करते, ठोक वैसे हो अपयश, अरकोति, दुभाग्य, कर्कश-स्वर, अनादेयता आदि की उच्च जाति से न कोई दुश्मनी है अथवा न परहेज है। जानते हो, हमारे स्वतंत्र भारत के संविधान कर्ता कौन थे ? डा. आम्बेडकर ! उनका जन्म नीच जाति में ही हरा था । कांग्रेसाध्यक्ष कामराज, जो हमारे स्व. प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के युग की एक जानी मानी हस्ती और 'कामराज-योजना' के जनक थे वे भी नीच कुल में हो जन्मे थे। दोनों हस्तियाँ हरिजन थी ! भारत के भूतपूर्व राष्ट्राध्यक्ष डॉ. जाकोर हुसैन एक मुस्लिम परिवार में जन्मे थे ! जबकि तत्कालीन काँग्रेस प्रमुख दामोदर संजीवैया भी हरिजन परिवार से ही थे ! भारत के सर्वोच्च स्थानों पर हीनजाति के लोग बैठे थे ! उसके पीछे कौन सी अदृश्य शक्ति काम कर रही थी ? आखिर उसका राज क्या था ? सिर्फ एक, उनके शुभ कर्मों का उदय ! Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाक-चिन्तन जबकि उच्च कुल में पैदा हुए लोगों की कीर्ति-पताका तार-तार हो गयो ! उनका सौभाग्य और प्रादेयता मानो लुप्त हो गयी ! तीस करोड़ हिन्दुओं के सर्वमान्य धर्मगुरु शंकराचार्य को अकस्मात् जेल का आतिथ्य ग्रहण करना पड़ा, उनकी गो-रक्षा की मांग सरकार ने नहीं सुनी, और उन्हें शासकीय स्तरपर अनादर का भाजन बनना पड़ा ! . यह सब कर्मों का खेल है ! उसमें हर्ष-शोक का प्रश्न ही नहीं उठता । किसी कवि ने ठीक ही कहा है । कबहीक काजी कबहीक पाजी कबहोक हुआ अपभ्राजी; कबहीक कीति जगमें गाजी सब पुद्गल को है बाजी....! अर्थात् कभी-कभार तुम्हें 'काजी' के बहुमान से सम्बोधित कर दुनिया तुम्हें सम्मानित करती है, तो कभी 'पाजी' कहकर तुम्हारा सरेआम अपमान करती है ! कभी तुम्हारी कीर्ति-पताका सर्वत्र फहराती है तो कभी तुम्हारी कलंकगाथा दुनिया में फैल जाती है । यह सब कर्म की बाजी है । किसी ने ठीक कहा है, 'न जाना जानकी नाथे कल क्या होने वाला है, कामराज को कौन जानता था? लेकिन कांग्रेसाध्यक्ष बनते हो वे भारतीय राजनीति के बेताज बादशाह बन गये ! और वह दिन भो आया कि जब उनको कोई जानता ही नहीं! यह सब शुभ कर्मों के उदय और अशुभ कर्मों के उदय का खेल है । कर्म की गति सदा निराली, अनोखी और अनठी रही है । इस का रहस्य सिर्फ केवल ज्ञानी जान सके हैं । 'कर्मन की लख लीला में लाखों हैं कंगाल । चढती-पड़ती हँसतो-रोती-टेढी इसकी चाल ।। विषमा कर्मण: सृष्टिष्टा करमपृष्टवत् ।। जात्याविभूतिवेषभ्यात् का रतिस्तत्र योगिनः ? ॥४॥१६४।। अर्थ :- ऊंट की पीठ की तरह कर्म की रचना वक्र है जो जाति प्रादि की उत्पति की विषमता से समान होने बाली नहीं है । उस में योगी को प्रेम कैसे हो सकता है ? .. जात्यादि Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ विवेचन : ऊँट के अट्ठारह वक्र । कर्म के अनंत वक्र । सर्वत्र विषमता ! जहाँ देखो वहाँ विषमता ! कहीं भी समानता के दर्शन नहीं ! समानता जैसे मृगजल बन गई है ! मतलब कर्मों मे सर्जित दुनिया विषमता से लबालब भरी हुई है । जहाँ नमूने के लिए भी समानता नहीं ! जाति की विषमता.... कुल की विषमता.... शरीर, विज्ञान, आयुष्य, बल, उपभोगादि सभी में विषमता । ऐसी कर्मसर्जित घिनौनी दुनिया से त्यागी-योगी को भला प्रीति कैसी ? * विश्व में विषमता के दर्शन करो । * विषमता के दर्शन से विश्व के प्रति रही प्रीति और आस्था छिन्न-भिन्न होते देर न लगेगी । * फलतः, प्रासक्ति का प्रमाण कम होगा ! * उससे हिंसा, झूठ, चोरी, वामाचार, बलात्कार और परिग्रह के असंख्य पाप नष्ट हो जाएंगे । * तब मोक्षमार्ग की ओर दृष्टि जायेगी । * कर्मबंधन तोडने का पुरूषार्थ होगा । * किसी भी जीव के दुःख के तुम निमित्त नहीं बनोगें । * और तुम योगी बन जानोगे । परमादरणीय उमास्वातिजी ने अपने ग्रंथ 'प्रशमरति' में कहा है : जातिकुल देहविज्ञानायुर्बल- भोग- मूतिवैषम्यम् । दृष्ट्वा कथमिह विदेषां भवसंसारे रतिर्भवति ? ज्ञानसार "जाति, कुल, शरीर, विज्ञान, प्रायुष्य, बल एवं भोग की विषमताओं को देखते हुए, जन्म-मृत्यु रूपी संसार के प्रति भला, विद्वद्जनों का स्नेह-भाव कैसे संभव है ?" यदि आप को अपनी जात-पांत की उच्चता में खुशी होती है, कुल की महत्ता गाने में प्रानन्द मिलता है, स्व-शरीर को देख-देख कर हर्ष के फव्वारे फूटते हैं, अपने कला-विज्ञान का महसास कर मन प्रफुल्लित होता है, खुद की आयु पर दृढ विश्वास है, अपने द्रव्य-बल, शरीर-बल, और स्वजन बल पर गौरव है, भोग-सुख की ललक है, तो मान लेना Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाक-चिन्तन चाहिये कि जीवन में रही विषमताओं के सम्बन्ध में तुम पूर्णतया अनभिज्ञ हैं । तुमने विषमतामों देखी नहीं और परखा तक नहीं! क्योंकि जहां विषमता होती है वहां रति नहीं होती, खुशी नहीं होती । लेकिन जहां रति-खुशी का बोलबाला होता है वहां विषमता नहीं दिखती । * सांसारिक विषयों में विषमता नहीं दिखती अतः उसके प्रति अधिकाधिक आकर्षण पैदा होता है, * तत्पश्चात् अभिलाषा पैदा होती है, * रति-आसक्ति का जोर बढ़ता है, * वे विषय पाने का प्रयत्न होता है, * प्रयत्न करते हुए पापाचरण भी होगा, * और विषय प्राप्त होते ही जीवन में विषमता छा जायेगी । इस प्रकार की मानसिक एवं शारीरिक वेदनाओं के हम भूल कर भी शिकार न बन जाएँ, अतः उपाध्यायजी महाराज ने 'विश्व-विषमता' का सुक्ष्मावलोकन करने का प्रादेश दिया है। किसी व्यक्ति की उच्चता-नीचता का प्रमाण हमेशा एक-सा नहीं रहता । किसी परिवार की विशालता, और भव्यता सदा एक सी नहीं रहती । शारीरिक आरोग्य हमेशा एक तरह नहीं रहता। __कला-विज्ञान सदा के लिए बराबर बना नहीं रहता! प्रायुष्य किसी के धारणानुसार एक जैसा नहीं होता ! बल और शक्ति का प्रमाण एक सा नहीं रहता, ना ही आवश्यक भोग-सामग्री निरंतर प्राप्त होती है ! अरे भाई, इसी का नाम तो विषमता है ! . इस का जन्म हमारे अच्छे-बुरे कर्मों में होता है, ना कि इश्वर ने विषमताभरे विश्व की रचना की है ! उन्होंने तो हमें विषमतायुक्त विश्व के दर्शन कराये हैं, हमारे सामने वैषम्य का नंगा स्वरूप खडा कर दिया है । विश्व इश्वर का सृजन नहीं, बल्कि अच्छे-बुरे कर्मों का सृजन है । जीव अपने कर्मों के अनुरूप विश्व की रचना करता है । प्रगति और पतन, प्राबादी और बर्बादी, सुख और दुःख, शोक और हर्ष, प्रानन्द और विषाद आदि सब कर्मों का उत्पादन है ! योगी और त्यागी ऐसी दुनिया से प्रीति नहीं करते ! . Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ज्ञानसार आरुढा :प्रशमणिं श्रुतकेवलिनोऽपि च ! भ्राम्यन्तेऽनन्तसंसारमहो दुष्टेन कर्मणा ॥५।।१६।। अर्थ : आश्चर्य तो इस बात का है कि उपशम-श्रेणी पर प्रारुढ एवं चौदह पूर्वधरों को भी दुष्ट कर्म अनंत संसार में भटकाते हैं । विवेचन : उपशम श्रेणी ! पहले....दुसरे...तीसरे...चौथे....पांचवे....छठवें....सातवें....पाठवें.... नौवें...दसवें....ग्यारहवें गुणस्थान पर पहुंच जाते हैं, मोहोन्माद शान्त.. प्रशांत...उपशांत हो गया होता है ! जिस गति से मोह का प्रमाण कम होता है, उसी अनुपात में प्रात्मा क्रमश : उच्च गुणस्थान पर अधिष्ठित होता जाता है। - सपकवेणी पर चढता जीव ग्यारहवें गुणस्थान पर कभी.जाता ही नहीं ! वह सीधा दसवें गुणस्थान से छलांग मार...बारहवें गुणस्थान पर पहुँच जाता है । जहाँ मोह बिलकुल खत्म (क्षय) हो जाता है। बारहवें स्थान पर पहुँचा जीव सीधा तेरहवें गुणस्थान पर पहुँच, वीतराग बन जाता है । और तब प्रायुष्य पूर्ण होने पर, चौदहवें स्थान पर पहुँच कर मोक्षगति पाता है ।। लेकिन ग्यारहवां गुणस्थानक अपनी फिसलन-वृत्ति के लिए सर्वविदित है ! इस स्थान पर मोहनीय कर्म का बोलबाला है । उसकी गिरफ्त से बड़े-बड़े वीर-महावीर बच नहीं सकते 1 मतलब, ग्यारहवा गुणस्थानक, कर्म का प्राबल्य, उसकी अजेयता और सर्वोपरिता का शक्तिशाली केन्द्र है । कोइ भी असामान्य व्यक्तित्व फिर भले ही उसे* दशपूर्वो का ज्ञान हो, वह सत चारित्र का धनी हो, वीर्योल्लास से युक्त हो, ग्यारहवें गुण स्थान पर पहुंचते ही आनन-फानन में कर्म-चक्रव्यह में फंस जाएगा ! संसार में भटक जायेगा । कर्म को चौदह पूर्वधरों की भी शर्म नहीं, उत्तम संयम की भी कतइ लाज नहीं, ना ही उत्कृष्ट ज्ञान की परवाह ! यही तो कर्म की निर्लज्जता है ! ___'कर्म' की इसी क्रूर लीला से कुपित हो, पूज्य उपाध्यायजी महाराज देखिए परिशिष्ट Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाक-चिन्तन ३०५ सहसा : 'दुष्टेन कर्मणा !' कह उठते हैं ! जब वे उपशम-श्रेणी पर आरूढ और ग्यारहवें गुणस्थान पर पहुँचे महर्षि को धक्का मार कर खड्ड में गिराते हुए कर्म को देखते हैं, तब क्रोधाग्नि से उनका रोम .. रोम व्याप्त हो जाता है ! भ्र ुकुटी तन जाती है और मारे प्रवेश के 'हे दुष्ट कर्म !' कह कर चीख पडते हैं ! कर्म के बंधन तोडने के लिये वे पुकारते हैं ! ग्यारहवाँ 'उपशांत मोह' गुणस्थान, कर्म द्वारा रचित अंतिम रक्षापंक्ति ( मोर्चा ) है ! और सदा-सर्वदा सर्व के लिए वह अपराजेय है ! जो सीधे दसवे से बारहवे गुणस्थान पर छलांग मार कर पहुँच जाते हैं. वे इसके शिकार नहीं बनते । 'उपशांत- मोह' का अर्थ जानते हो ? तो सुनो : पानी से लबालब भरा एक प्याला है । लेकिन पानी स्वच्छ नहीं है, मटियाला है ! उस में मिट्टी, कंकर सब मिला हुआ है । तुम्हें वह पानी पीना है । जोर की प्यास लगी है । सिवाय उस पानी के कोई चारा नहीं ! तुम उसे महीन कपड़े से छान लोगे । फिर भी पानी स्वच्छ नहीं होता | तब थोडी देर के लिए प्याला नीचे रख दोगे । पानी में रही मिट्टी धीरे-धीरे नीचे बैठ जाएगी ! मैल प्याले के तह में जम जाएगा और धीरज रखोगे तो स्वच्छ पानी ऊपर तैर आएगा ! इस से यही ध्वनित होता है कि पानी में मिट्टी अवश्य है, लेकिन उपशांत है ! ठीक उसी तरह आत्मा में मोह जरूर है, लेकिन नीचे तह जमा हुना है ! अतः आत्मा निर्मल.... मोहरहित दृष्टिगोचर होती है ! लेकिन जिस तरह प्याले को हिलाते ही तह में जमी मिट्टी और मैल उपर उभर आएगा और पानी दुबारा गंदा हो जाएगा । उसी तरह उपशांत मोह वाली आत्मा कोइ दोष से आन्दोलित हुई तो मोह श्रात्मा में व्याप्त हो, उसे गंदा कर मलीन बना देगा ! उपशांत मोह में निर्भयता नहीं होती । हाँ, मोह क्षीण हो जाय, अर्थात् पानी को कंकर-मिट्टी बिना का स्वच्छ बना दिया जाए, बाद में प्याले को भले ही हिलाइए, कंकर-मिट्टी के उभर आने का सवाल ही पैदा नहीं होगा ! उसी भाँति मोह का सर्वथा क्षय होने पर कोई चिंता नहीं । दुनिया का कोई निमित्त कारण उसे मोहाधीन नहीं कर २० Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ज्ञानसार सकेगा ! कर्मो की क्रूर-लीला भला कहाँ तक संभव है ? सिर्फ ग्यारहवे गुणस्थान तक ! वहाँ चौदह पूर्व के ज्ञानी भुतकेवलियों की पराजय भी अवश्यंभावी है । अर्थात चौदह पूर्वघर-श्रुतकेवली भी प्रमाद के वशीभत हो, अनादि काल तक निगोद में रहते हैं । न जाने कर्मों की यह कैसी भीषणता-भयानकता है ! ऐसे कर्म विपाकों का ससत-चिंतन मनन कर, उस के क्षयहेतु कमर कसनी चाहिए । अर्वाक सर्वाऽपि सामग्री प्रान्तेव परितिष्ठति । विपाकःकर्मणः कार्यपर्यन्तमनुधावति ॥६॥१६६॥ अर्थ : हमारे निकट रही सभी सामग्री/कारण, एकाध थके हुए प्राणी की तरह सुस्त रहती है । जबकि कर्म-विपाक कार्य के अंत तक हमा पीछा करता है । विवेचन : कर्म-विपाक का अर्थ है कर्म का परिणाम/फल ! कोई कार्य बिना किसी कारण के नहीं बनता और हर कार्य के पीछे पाँच कारण होते हैं : .१ काल २ स्वभाव ३ भवितव्यता ४ कर्म और ५ पुरुषार्थ लेकिन इन सब में 'कर्म' प्रधान कारण है ! कर्म-विपाक कार्य के अंत तक हमारा पीछा नहीं छोडता, बल्कि सतत छाया की तरह साथ रहता है। शेष सभी कारण थोडा-बहुत चलकर इधर-उधर हो जाते हैं, लेकिन यह निरंतर पीछे ही लगा रहता है । कोइ किसी कार्य की भूमिका तैय्यार करता है, कोई कार्यारम्भ कराता है, कोई कार्य के बीच ही थक कर एक ओर हो जाता है । लेकिन कर्म कभी थकता नहीं है । जब तक कोई कार्य पैदा होता है और खत्म-(नाश) होता है, तब तक कर्म साथ ही चलता है । इसे कभी विश्राम नहीं, विराम नहीं पौर आराम नहीं। - व्यक्ति को जितना भय अन्य कारणों से नहीं, उतना भय कर्म का होता है । कर्म-क्षय होते ही अन्य चार कारण अपने आप लोप हो जाते है । उन्हें दूर करने के लिए किसो प्रकार की मेहनत नहीं करनी पडती ! ये सब कर्म के पीछे होते हैं । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाक-चिन्तन ३०७ __ इसी वजह से कर्म के अनुचितन और क्षय हेतु जीव को पुरुषार्थ करना होता है । कर्मक्षय हेतु कर्म ने ही मनुष्य को अनुकूल सामग्री प्रदान की है। खुद को मिटाने के लिए कर्म स्वयं आगे बढकर जीव को सामग्री प्रदान कर रहा है । * तुम्हें मनुष्यगति प्राप्त है ? * तुमने प्रार्य-भूमि में जन्म धारण किया है ? * तुम्हें तन-बदन का आरोग्य मिला है ? तुम्हारी पांचों इन्द्रियाँ परिपूर्ण हैं ? तुम्हें चिंतन-मनन के लिए मन मिला है ? • तुम्हें सुदेव, सुगुरु, और सद्धर्म का संयोग मिला है ? कर्म-क्षयहेतू और भला, किस सामग्री की आवश्यकता है ? इस से वठिया और विशेष सामग्रो को अब भी क्या गरज है ? तो क्या कर्म-क्षय की भावना भी कर्मों को ही जगानी पड़ेगी, पैदा करनी होगी? सचमुच कितनी बेहंदी बात है ? संभवतः तुम अब भी कम की पिशाचलीला से परिचित नहीं हो । यदि तुमने अनुकूल परिस्थिति और सामग्री का समय रहते सदुपयोग न किया तो वह उसे दुबारा छिन लेगा और फिर तुम्हारी ऐसी बुरी हालत करेगा कि तुम फूट-फूट कर रोओगे। लेकिन उसके सिकंजे से छूट नहीं पाओगे । तब एक श्रण ऐसा पाएगा कि तुम कर्मों के गुलाम बन जाओगे । यदि तुम प्राप्त सामग्री का योग्य उपयोग करोगे तो वह (कर्म) तुम्हें इससे भी बढकर और अमूल्य सामग्री प्रदान करेगा। फलत: उससे तुम अपने सभी कर्मों का सरलता से नाश कर सकोगे । . जिस तरह कर्मों को तुम प्रत्यक्ष में देख नहीं सकते, ठीक उसी तरह तुम्हें उसका क्षय भी प्रत्यक्ष में नहीं दिखने वाले धर्म से ही करना होगा । यह सनातन सत्य है कि धर्म से कर्म नष्ट होते हैं । धर्म प्रात्मा का है, लेकिन प्रात्मा तक पहुँचने के लिए तुम्हें अपनी पांचों इन्द्रियाँ और मन का सदुपयोग करना पड़ेगा । संसार के तुच्छ सुख और सुविधा में भूलकर भी अपनी इन्द्रियों को और मन को न लगायो । तभी तम आत्मा की गहराई को स्पर्श कर पाओगे और आत्मधर्म प्राप्त कर Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ज्ञानसार सकोगे । आत्मधर्म की प्राप्ति होने पर कर्म-क्षय होते विलम्ब नहीं होगा । जैसे जैसे कर्मक्षय होता जाएगा वैसे-वैसे धर्मतत्त्व के साथ तुम्हारा नाता जुड़ता जाएगा । फलस्वरूप काल, स्वभाव, भवितव्यता श्रादि के दोषों को नजरअंदाज कर किस पद्धति से कर्म-क्षय किया जाएँ इसका सदा-सर्वदा चिंतन-मनन करते रहो । कर्म को भूलकर यदि 'काल बुरा है, भवितव्यता अच्छी नहीं हैं, बहानेबाजी की, तो याद रखो, कर्म तुम्हारे सीने पर चढ बैठेंगे | तुम्हें समय-बेसमय पागल बना देंगे । फलस्वरूप तुम अशांति...... दुःख.... पश्चात्ताप.... कलह और संताप के होम-कुण्ड में बुरी तरह झुलस जाओगे । प्रत: धर्म में पुरुषार्थं करो । कर्मों के भय का गांभीर्य समझो । प्रमाद, मोह और आसक्ति की श्रृंखलाएँ तोड दो और कर्मक्षय हेतु कटिबद्ध हो जाओ । असावचरमावते धर्मं हरति पश्यतः । चरमावतिसाधोस्तु छलमन्विष्य हृष्यति ॥ ॥७॥१६७॥ अर्थ : यह कर्म विपाक अंतिम 'पुद्गलपरावर्त' के अतिरिक्त अन्य किसी भी पुद्गलपरावर्त में हमारी आँखों के सामने धर्म का नाश करता है, परंतु चरम पुद्गलावर्त में रहे हुए साधु का छिद्रान्वेषण कर खुश होता है । विवेचन : चरम पुद्गलावर्त-काल ! अचरम पुद्गलावर्त - काल ! 'पुद्गलपरावर्त' किसे कहा जाएँ - इसकी जानकारी तुम परिशिष्ट में से प्राप्त कर लेना । यहाँ तो सिर्फ कर्म का काल के साथ और काल के माध्यम से आत्मा के साथ कैसा सम्बन्ध है, यहां बताया गया हैं । जब तक आत्मा अंतिम पुद्गलावर्त काल में प्रविष्ट न हो जाएँ तब तक लाख प्रयत्न करने के बावजूद भी कर्म आत्मधर्म को समझने नहीं देता, ना ही उसे अंगीकार करने देता है । मनुष्य, भगवान के मंदिर अवश्य जाएगा, नित्य पूजा-पाठ करेगा, लेकिन परमात्म-स्वरूप को प्राप्ति की इच्छा से नहीं, वरन् सांसारिक सुख और संपदा की अभिलाषा लेकर जाएगा । गुरू महाराज को वंदन करेगा, भिक्षा देगा, भक्ति करेगा, वैयावच्च श्रौर सेवा करेगा, लेकिन सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र के लिए नहीं, अपितु स्वर्गलोक की ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त करने के Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाक-चिन्तन ३०९ लिए ! अरे, वह प्रव्रज्या ग्रहण कर साधु भी बन जाएगा ! लेकिन मोक्षप्राप्ति और आत्मविशुद्धि के लिए प्राराधना नहीं करेगा, परंतु देवलोक के दिव्य सुख और उच्च पद पाने के लिए पाराधना करेगा। शास्त्रों में उल्लेख है कि 'शुद्ध चारित्रपालन से देवगति प्राप्त होती है । ऐसा जान कर वह दीक्षित होगा । चारित्रपालन करेगा! कठोर तपस्या और निरतिचार चारित्र का पालन करेगा ! लेकिन कर्म-बंधनों से मुक्ति पाने की भावना पैदा ही नहीं होगी। वह उसे ऐसे भुलभुलैये में फैसा देगा कि मुक्ति होने के विचार ही उसमें न जगे ! __ कर्म-बंधन की श्रृंखला से आत्मा को मुक्त करने का विचार तक प्र-चरमावतं काल में नहीं आता । वह धर्माचरण करता अवश्य दिखाई देता है, लेकिन प्रात्मशुद्धि और मुक्ति के लिए नहीं, बल्कि संसार-वृद्धि के लिए करता है। चरमावर्त काल में अवश्य आत्मधर्म का ज्ञान होता है । प्रात्म-धर्म की आराधना और उपासना भी होती है । लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी कर्मबंधन से मुक्ति की इच्छा रखनेवाले साधु-मुनिराज के इर्द-गिर्द 'कर्म' निरंतर चक्कर लगाते रहते हैं ! छिद्रान्वेषण करते हैं ! और यदि एकाध छिद्र दृष्टिगोचर हो जाए तो प्रानन-फानन में घुस-पैठ कर मुनि के मुक्ति-पुरूषार्थ को शिथिल बनाने पर तुल जाता है । उन के मार्ग में नाना प्रकार को रूकावटें और अवरोध पैदा करते विलम्ब नहीं करता । अतः मुनि को सदा सावधान रहना आवश्यक है। वह कोई छिद्र न रहने दे अपनी पाराधना-उपासना की रक्षापंक्ति में ! तभी । सफलता संभव है। प्रमाद के छिद्रों में से कर्म आत्मा में प्रवेश करता है । मानव जीवन के निद्रा, विषय, कषाय, विकथा, और मद्यपान-ये पाँच प्रधान प्रमाद हैं । अत: मुनि को अपनी निद्रा पर संयम रखना चाहिए। उन्हें रात्रि के दो प्रहर अर्थात् छह घंटे ही शयन करना चाहिए । वह भी गाढ निद्रा में नहीं । दिन में निद्रा का त्याग उनके लिए श्रेयस्कर है । पांच इन्द्रियों के विषयों में से किसी भी विषय के प्रति कभी आसक्ति न होनी चाहिये । क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों के पराधीन नहीं होना चाहिए । विकथाओं में कभी Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ज्ञानसार लिप्त नहीं होना चाहिए। नारी के संबंध मे भूलकर भी साधु चर्चा न करें। भोजनादि विषयक बातचीत से दूर रहना चाहिये। देस-परदेस की और राजा महाराजाओं की कपटपूर्ण चर्चा में दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए । मद्यपान से साधु को बचना चाहिए। यदि साधु को इन पाँच प्रमादों से अलिप्त रहना आ जाए तो मजाल है कि उसके प्रात्मप्रदेश पर कर्म-शत्रु अाक्रमण कर दें ! फिर भले ही वह उसके इर्द-गिर्द चक्कर क्यों न लगाता हो ! कहने का तात्पर्य यह है कि यदि मुनिराज कर्म-घूसपैठियों को घूसपैठ का अवसर ही न दे तो उनके सताने का,हैरान/परेशान करने का सवाल ही न उठे । हाँ, उसे घुसपैठ करने का मौका देना न देना, साधु पर निर्भर है । यदि प्रमाद के आचरण को 'कर्मकृत' संज्ञा प्रदान कर, उसका अनुशरण करें तो अघ.पतन हुअा ही समझो ! फिर उसे पतन की गहरी खाई में गिरते कोई बचा नहीं सकेगा । यह तथ्य भलि भांति समझ लेना चाहिये को 'चरमावर्त काल' में प्रमाद-सेवन में कर्म का हाथ नहीं होता ! और यह बात तभी गले उतरेगी जब हम कुटिल कर्म को लीला को अच्छी तरह समझ लगे । इसलिए कर्म का अनुचिंतन करना आवश्यक है । कर्म-विपाक का बिचार आते ही जीव कांप उठता है । साम्यं बिभर्ति यः कर्मविपाकं हृदि चिन्तयन् । स एव स्याच्चिदानन्दमकरन्दमधवतः ॥८॥१६८॥ अर्थ : हृदय में कर्म-विपाक का चिंतन-मनन करते हए जो समभाव धारण करता है, वहीं योगी ज्ञानानन्द रुपी पराग का भोगी भ्रमर होता है ! विवेचन : हे योगीराज ! आप तो भोगी म्रमर हैं, ज्ञानानन्द-पराग का जी भर कर उपभोग करने वाले हैं, आपके हृदय में सदा कर्म-विपाक का चिंतन और मुख पर समता का संवेदन है ! बिना कर्म विपाक-चिंतन के समभाव का वेदन नहीं होता और समभाव के वेदन बिना ज्ञानानन्द का अमृतपान असंभव है । मतलब उपरोक्त श्लोक से तीन बार्ते स्पष्ट होती हैं : Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाक-चिन्तन * कर्म विपाक चिंतन * समभाव * ज्ञानानन्द का अनुभव... ! कर्मविपाक के चिंतन-मनन से समभाव हो प्रकट होना चाहिए । अर्थात् संसार में विद्यमान प्राणी मात्र के लिए समत्व की भावना पैदा होनी चाहिए। न किसी के प्रति द्वेष, ना ही किसी के प्रति राग । शत्रु के प्रति द्वेष नहीं, मित्र के लिए राग नहीं । कर्मकृत भावों के प्रति हर्ष और शोक नहीं होना चाहिए । यह सब कर्म विपाक के चिंतनमनन से ही संभव है । यदि हमें राग-द्वेष और हर्ष - शोक होते हैं तो समझ लेना चाहिए कि हमारा चिंतन कर्म विपाक का चिंतन नहीं बल्कि कुछ और है । हर्ष - शोक, राग-द्वेष और रति-रति आदि भावों के लिए सिर्फ कर्मों को ही नहीं कोसना चाहिए, उसके बजाय हमें निरंतर यह विचार करना चाहिए कि 'कर्म विपाक, का चिंतन-मनन न करने से यह सब हो रहा है । हमें स्मरण रखना चाहिए कि कर्मविपाक का चिंतन किये बिना राग-द्वेष और हर्ष-शोक कभी कम नहीं होंगे । अरे, मरणान्त उपसर्गों के समय भी जो महात्मा तनिक भी विचलित नहीं हुए, श्राखिर उसका रहस्य क्या था ? 1 इसके प्रत्युत्तर में यह कह कर अपने मन का समाधान कर लेना कि 'वह सब उन के पूर्व भवों की प्राराधना का फल था, हम सबसे बड़ी भूल कर रहे हैं । उसके बजाय यह मानना -समझना चाहिए कि 'उस के मूल में उन का अपना कर्म विपाक का चिंतन-मनन अनन्य, असाधारण था; जिसकी वजह से संतुलन खोये बिना वे समभाव में अंत तक अटल-अचल बने रहे ।' यही विचारधारा हमें आत्मसात् कर लेनी चाहिए । जीवन में बनते प्रसंगों के समय यदि कर्म - विपाक के विज्ञान का उपयोग किया जाए तो समता-समभाव में स्थिर रहना सरल बन जाएँ । और समभाव के बिना ज्ञानानन्द कहाँ ? ज्ञानानन्द समभाव से संभव है ! राग-द्वेष और हर्ष - शोक का तूफान थमते ही ज्ञान का आनन्द - आत्मानंद प्रगट होता है । जब कि राग-द्वेष से स्फूरित आनन्द, आनन्द न होकर विषयानन्द होता है । ज्ञानानन्द के निरंतर उपभोग Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ के लिए समभाव की ज्योत अखंडित रखनी चाहिये ! उसे छिन्न-भिन्न नहीं होने देने के लिए कर्म विपाक का चिंतन अनुचिंतन सदा-सर्वदा शुरु रहना चाहिए। न जाने पूज्य उपाध्याय जी महाराज ने कैसी अलौकिक व्यवस्था का मार्गदर्शन किया है ! संसार में रही विषमताओं का समाधान 'कर्म विपाक' के विज्ञान द्वारा न किया जाएँ तो ? तब क्या होगा ? संसार के जीवों के प्रति राग और द्वेष की भावना तीव्र बनेगी । राग-द्वेष के कारण अनेकविध अनिष्ट पैदा होंगे । हिंसा, झूठ, चोरी, दुराचार, परिग्रह, क्रोध - मान, माया, लोभादि असंख्य दोषों का प्रादुर्भाव होगा । फलतः जीवों का जीवन जीवों के हाथ ही असुरक्षित बन जाते देर नहीं लगेगो । परस्पर शंका-कुशंका, घृणा, द्वेष और वैर - भावना में, क्रमशः बढोतरी होगी । परिणाम स्वरुप विषमता बढेगी । ऐसी स्थिति में मोक्ष मार्ग की आराधना संभव नहीं । ज्ञानसार आज भी हम देखते हैं कि जो प्रस्तुत कर्म - विज्ञान से अनभिज्ञ हैं, उन की क्या हालत है ? वे अपनी जिंदगी बदतर स्थिति में गुजार रहे हैं । वहाँ अशांति, चिंता और दुःख का साम्राज्य छाया हुआ है । न जाने आत्मा-परमात्मा और धर्म ध्यान से वे कितने दूर - सुदूर निकल गये हैं । तब आप तो मुनिराज हैं ! मोक्ष मार्ग के पथिक बन आपको कर्म - बंधन तोडने हैं और शुद्ध-बुद्ध अवस्था प्राप्त करनी है । ग्रतः प्राप को 'कर्म विज्ञान' का मनन कर उसे पचाना चाहिए। उसके आधार पर समभाव के धनी बनना चाहिए । फलतः आप ज्ञानानन्द - पराग के भोगी भ्रमर बन जायेंगे ! ध्यान रहे, जहाँ भी समभाव खंडित होता दृष्टि गोचर हो, शीघ्रातिशीघ्र " कर्म विपाक" का आलम्बन ग्रहण कर लेना । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ y shbT २२. भवोद्वेग s tessa delle stesseskatesessed destesbeseddesbo ses OREAdhikdadekedardbhopdedashutdoobsesedabadebededeededesedesebedesebedeshshobsksbsesbetasbdastiseshdesebhsboasbsebhoosesponses2000 हे भव-परिभ्रमण के रसिक जीव ! तनिक इस संसा-समुद्र की ओर तो दृष्टिपात कर । इसकी विभीषिका और भीषणता का तो दर्शन कर। इसकी निःसारता एवं भयानकता का तो ख्याल कर । क्या तू यहाँ सुखी है ? शान्त है ? संतुष्ट है ? पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने यहाँ भव-समुद्र की भयंकरता को समझाने का प्रयत्न किया है...। तुम इस अध्याय को ऊपरी तौर से पढ़ मत जाना, बल्कि पूरे गांभीर्य से पढकर यथायोग्य चिन्तन करना । भव-बधनों की विषमता और असारता से मुक्ति पाने हेतु जिस अदम्य उत्साह, र शक्ति और जिज्ञासा की आवश्यकता है, वह सब तुम्हें प्रस्तुत अष्टक के चिन्तन मनन से निःसंदेह प्राप्त होगा । desestade destestes ste se cdo do site testestatasastadestostudu testetsbredesteste de dadestedestestedesete se asteste stedestestesh sasadacha destacast stocadaststedtstestestastaste stasastadastaste sostre Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ज्ञानसार यस्य गंभीरमध्यस्याज्ञानवमयं तलम् । रुद्धव्यसनशैलोधैः, पन्थानो यत्र दुर्गमा: ॥१॥१६६॥ पातालकलशा यत्र मृतास्तृष्णामहानिलः । कषायाश्चित्तसंकल्पवेलावृद्धि वितन्वते ॥२॥१७०॥ स्मरौर्वाग्निज्वलत्यन्तर्यत्र स्नेहेन्धनः सदा । यो घोररोगशोकादिमत्स्यकच्छपसंकुलः ॥३॥१७१॥ दुर्बुद्धिमत्सरद्रोहैविद्युतिगजितैः । यत्र संयात्रिका लोकाः, पतन्त्युत्पातांकटे ॥४।।१७२।। ज्ञानी तस्माद् भवांभोधेनित्योद्विग्नोऽतिदारुणात् । तस्य संतरणोपायं, सर्भयत्नेन काङ्क्षति ॥५॥१७३॥ अर्थ : जिसका पव्यभाग गभीर है, जिसका (मय समुद्र का ) गेंदा (तलभाग) अज्ञान रूपी वज से बना हुआ है, जहां सकट और अनिष्ट रूपी पर्वतमालाओं से घिरे दुर्गम मार्ग हैं । जहां (संसार-समुद्र में) तृष्णा स्वरुप प्रचंड वायु से युक्त पाताल कलश रूपी चार कषाय, मन के संकल्प रुपी ज्वारभाटे को अधिकाधिक विस्तीर्ण करते हैं । जिसके मध्य में हमेशा स्नेह स्वरुष इन्धन से कामरुष वडवानल प्रज्वलित है और जो भयानक रोग-शोकादि मस्स्य और कछुओं से भरा दुर्बुद्धि, ईा और द्रोह- स्वरुप बिजली, तूफान और गर्जन से जहां समुद्री व्यापारी तूफान रुपी संकट में पड़ते हैं । ऐसे भीषण ससार- समुद्र से भयभीत ज्ञानी पुरुष उससे पार उतरने के प्रयत्नों की इच्छा रखते हैं । विवेचन : संसार ! जिस संसार के मोह में असंख्य जीव अंधे बन गये हैं, जानते हो वह संसार कैसा है ? मोक्षगति-प्राप्त परम-पात्मायें संसार को किस Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवोद्वेग ३१५ दृष्टि से देखतो हैं ? तुम भो उसके वास्तविक स्वरूप का दर्शन करोगे, तब उद्विग्न हो उठोगे । तुम्हारे मन में उसके प्रति अप्रीति के भाव पैदा होंगे । एक प्रकार की नफरत पैदा हो जाएगी। और यही तो होना चाहिये । मोक्ष के इच्छुक के लिए इसके सिवाय पोर कोई चारा नहीं है । संसार की आसक्ति.... प्रीतिभाव छिन्न-भिन्न हुए बिना शाश्वत्.... अनन्त....प्रदीर्घ...प्रव्याबाघ सुख संभव नहीं । संसार के यथार्थ स्वरूप का तनिक जायजा लो। संसार को समुद्र समझो । १. संसार-समुद्र का मध्यभाग अगाध है । * २. संसार-समुद्र की सतह अज्ञान-वज्र की बनी हुई है । *३. संसार-समुद्र में संकटों के पहाड़ है। * ४. संसार-समुद्र का मार्ग विकट-विषम है । * ५. संसार-समुद्र में विषयाभिलाषा की प्रचंड वायू वह रही है । ६. संसार समुद्र में क्रोधादि कषायों के पाताल-कलश हैं। * ७. संसार-समुद्र में विकल्पों का ज्वार आता है । * ८. संसार-समुद्र में रागयुक्त इन्धन से युक्त कंदर्प का दावानल __ प्रज्वलित है । ht. संसार-समुद्र में रोग के मच्छ और शोक के कछए स्वच्छंद विहार कर रहे हैं । * १०. संसार-समुद्र पर दुर्बुद्धि की बिजली रह-रहकर कौंधती है । *११. संसार-समुद्र पर माया-मत्सर का भीषण तूफान गहरा रहा है । १२. संसार-समुद्र में द्रोह का भयंकर गर्जन हो रहा है । * १३, संसार-समुद्र में नाविकों पर संकट के पहाड़ टूट पड़े हैं । ___ अत: संसार-समुद्र सर्वथा दारुण है और विषमता से भरा पड़ा है। संसार-समुद्र :- 'वाकई संसार एक तूफानी सागर है'- इस विचार को हमें अपने हृदय में भावित करना चाहिये और तदनुसार जीवन का भावो कार्यक्रम निश्चित करना चाहिये। सागर में रहा प्रवासी उसे पार करने के नानाविध प्रयत्न करता है, ना कि उसमें सैर-सपाटा अथवा दिल -बहलाव का प्रयत्न करता है । उसमें भी यदि सागर तूफानी हो Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ज्ञानसार तो, पार करने की उसे हमेशा जल्दी रहती है ! अतः हमें यह संकल्प दृढ़ मे दृढतर बनाना चाहिये कि 'मुझे संसार-समुद्र पार करना ही है।' मध्य माग :- समुद्र का मध्य भाग ( बीचों-बीच) अगाध होता है कि उसकी सतह खोजे भी नहीं मिलती । यहां संसार का मध्य भाग यानी मनुष्य की युवावस्था/यौवनकाल । जीव की यह अवस्था वाकई अगाध होती है, जिसका ओर-छोर पाना मुश्किल होता है । उस की युवावस्था की अगाधता को सूर्य-किरण भी भेदने में असमर्थ हैं । अच्छे-खासे तैराक भी समुद्र की अतल गहराई में खो जाते हैं, जिनका अता-पता नहीं लगता । तल-भाग (सतह) :- संसार-समुद्र की सतह (तल भाग) किसी मिट्टी, पत्थर अथवा कीचड़ की बनी हुई नहीं है, बल्कि वन की बनी हुई है। जीव की अज्ञानता वज्र से कम नहीं । यह सारा संसार अज्ञानता की सतह पर टिका हुआ है । मतलब संसार का मूल प्रज्ञानता ही है। पर्वतमालायें - समुद्र में स्थान-स्थान पर छोटे-बड़े पर्वत, कहीं पर पूर्ण रूप से तो कहीं-कहीं पर आधे पानी में डूबे हुए रहते हैं । नाविक-दल हमेशा इन समुद्री टीलों और चट्टानों से सावधान रहता है । जब कि संसार-समुद्र में तो ऐसी पर्वतमालाएं सर्वत्र बिखरी पड़ी हैं । जानते हो, ये पर्वत कौन-से हैं ? संकट, ग्रापत्ति-विपत्ति, प्राधि-व्याधि, दुःख, अशान्ति.... ये सब सांसारिक पर्वत ही तो हैं । एक दो नहीं, बल्कि पूरी हारमाला/पर्वतमाला ! अरावली की पर्वतमालायें तुमने देखी हैं ? सह्याद्रि को पर्वत-श्रृखलाओं के कभी दर्शन किये हैं ? इनसे भी ये पर्वतमालायें अधिकाधिक दुर्गम और विकट हैं, जो संसार-समुद्र में फैली हई हैं । कहीं-कहीं वे पूरी तरह पानी के नीचे हैं, जो सिधे-सादे नाविक के ध्यान में कभी नहीं आती । यदि इन से तुम्हारी जीवन-नौका टकरा जाए, तो चकनाचूर होते एक क्षण का भी विलंब नहीं । मार्ग :- ऐसे संसार-समुद्र का मार्ग क्या सरल होता है ? नहीं, कतइ नहीं । ऐसे ऊबड़-खाबड़, दुर्गम मार्ग पर चलते हुए कितनी सावधानी बरतनी पड़ेगी, कितनी समझदारी और संतुलित-वृत्ति का प्रवलंबन करना होगा ? हमारी तनिक लापरवाही, चंचलता, निद्रा, आलस्य Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवोद्वेग अथवा विनोद सर्वनाश को न्यौता देते देर नहीं करेंगे। ऐसे विकट समय में किसी अनुभवी परिपक्व मार्गदर्शक की शरण ही लेनी होगी । उस का अनुसरण करना पड़ेगा या नहीं ? सुयोग्य सुकानी के नेतृत्व पर विश्वास करना ही होगा, तभी हम सही-सलामत/सुरक्षित अपनी मंजिल तक पहुंच पायेंगे । प्रचंड वायु :- तृष्णा...पाँच इन्द्रियों के विषयों की कामना की प्रचंड वायु महासागर में पूरी शक्ति के साथ ताण्डव-नृत्य कर रही है। तृष्णा.... कितनी तृष्णा ! उसकी भी कोई हद होती है । मारे तृष्णा के जीव इधर-उधर निरुद्देश्य भटक रहा है। विषय सुख की लालसा के वशीभूत हो जीव कैसा घिर गया है ? जानते हो, यह प्रचंड वायु कहां से पैदा होती है ? पाताल-कलशों से । वही उसका उद्गम स्थान है । पाताल-कलश :- संसार-सागर में चार प्रकार के पाताल-कलश विद्यमान हैं : क्रोध ,मान, माया और लोभ ! इनमें से प्रचंड वायु उत्पन्न होती है और सागर में तूफान पैदा करती है....। ज्वार भाटा :- मन के विभिन्न विकल्पों का ज्वार-भाटा संसार सागर में आता रहता है। कषायों में से विषय-तृष्णा जागत होती है और विषयतृष्णा में से मानसिक विकल्प पैदा होते हैं । जानते हो, मानसिक विकल्पों का ज्वार कितना जबरदस्त होता है...? पूरे समुद्र में तूफान मा जाता है....। पानी की तरंगें किनारे को तोड़ती हुई भयानक दैत्य-सा रूप धारण कर लेती हैं । आम तौर पर समुद्र में पूर्णिमा की रात्रि को ही ज्वार प्राता है। लेकिन संसारसागर में तो निरंतर ज्वार आता रहता है । क्या तुमने कभी ज्वार के समय तूफानी स्वरुप धारण करते सागर को निकट से देखा है ? शायद नहीं देखा हो ! लेकिन अब मानसिक विकल्पों के ज्वार को अवश्य देखना ! उसे देखते ही तुम घबराहट से भर जाओगे । वडवानल :- कैसा दारूण वडवानल भभक रहा है ! कंदर्प के वडवानल में संसारसमुद्र का कौन-सा प्रवासी फँसा नहीं है ? इस दुनिया में कौन माई का लाल है, जो उक्त वडवानल की उग्र ज्वालाओं से बच पाया है ? उसमें राग का इन्धन डाला जाता है । राग के इन्धन से वडवानल सदा-सर्वदा प्रज्वलित रहता है । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ वाकई, कंदर्प का वडवानल आश्चर्यजनक है ! वडवानल में जीव निर्भय बनकर कूद पड़ते हैं ! भड़कते वडवानल के बावजूद वे उस में से निकलने का नाम नहीं लेते .... बल्कि राग का इन्धन डाल-डालकर उसे निरन्तर प्रदीप्त रखते हैं ! कंदर्प यानी काम वासना / भोग-संभोग की तीव्र लालसा । नर नारी के संभोग की वासना में धू-धू जलता है और नारी नर के संभोग में । जबकि नपुंसक, नर व नारी, दोनों के संभोग की वासना में जलता है । वास्तव में देखा जाए तो संसारसागररूपी वडवानल, भयंकर, भीषण और सर्वभक्षी है....। सामान्यत: संसार-सागर के सारे प्रवासी इस ( वडवानल) में फँसे नजर आते हैं, जब कि कुछ उसकी ओर लपकते दिखायी देते हैं । ज्ञानसार मच्छ और कच्छप : संसार - समुद्र में बड़े-बडे मगरमच्छ और मछलियाँ भी हैं। छोटे-बड़ें साध्य असाध्य रोगों के मच्छ भी मुसाफिरों के लिए प्राफत बने रहते हैं....। उन्हें हैरान-परेशान करते हैं। एकाध मगरमच्छ का खाद्य बनता दिखायी देता है, तो कोई इन मछलियों की गिरफ्त में फँसा नजर आता है । इन रोग रूपी मच्छों से प्रवासी सदेव भयभीत होते हैं । ठीक उसी तरह शोक-कछुओं की भी इस संसार सागर में कमी नहीं है, जो प्रवासियों को कोई कम हैरान-परेशान नहीं करते । चंचला :- जरा आकाश की ओर दृष्टिपात करो । रह-रहकर चंचला कौंधती नजर आती है । उसकी चमक-दमक इन आँखों से देखी न जाए, ऐसी चकाचौंध करने वाली अजीबों-गरीब होती है । कभी-कभार वह हमें छूते हुए विद्युत वेग से निकल जाती है । दुर्बुद्धि ही चंचला है । हिंसामयी बुद्धि झूठ- चोरी की बुद्धि, दुराचार व्यभिचार की बुद्धि, माया मोह की बुद्धि और राग-द्वेष की बुद्धि । चंचला की चमक-दमक में जीव चकाचौंध हो जाता है । तफान :- मत्सर की आंधी कितने जोर-शोर से जीवों को अपनी चपेट में ले लेती है ! गुणवान व्यक्ति के प्रति रोष यानी मत्सर । संसार-सागर में ऐसी प्रांधी प्राती ही रहती है । क्या तुमने कभी नहीं देखी ? तुम्हें उसकी आदत पड़ गयी है । अतः तुम उस की भयंकरता.... भीषणता को समझ नहीं पाओगे । लेकिन गुणवान व्यक्ति के प्रति तुम्हारे मन Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवोद्वेग ३१६ में रोष की भावना क्या पैदा नहीं होती ?ऐसे समय तुम्हारे मन में कैसा तूफान पैदा होता है ? जो इस तूफान में फंस गया....उसकी गुण-संपदा नष्ट होते देर नहीं लगती । वह गुण-संपदा से दूर. सुदूर निकल जाता गर्जन-तर्जन : द्रोह-विद्रोह का गर्जन-तर्जन संसार-समुद्र में निरन्तर सुनायी देता है । पिता पुत्र का द्रोह करता है, तो पुत्र पिता का द्रोह करता है। प्रजा राजा का द्रोह करती है, तो राजा प्रजा का द्रोह करता है। पत्नी पति का द्रोह करती नजर आती है, तो पति पत्नी का द्रोह करता दृष्टिगोचर होता है। शिष्य गुरु का द्रोह करता है और गुरु शिष्य का द्रोह करता है। जहाँ देखो, वहाँ द्रोह की यह परंपरा और गर्जन-तर्जन अबाधित रूप से चल रहा है। अविश्वास और शंका-कुशंका के वातावरण में संसार-समुद्र के प्रवासी का दम घुट रहा मसाफिर :- संसार-सागर में असंख्य प्रात्मायें विद्यमान हैं । लेकिन महासागर के सीने पर लहराती-इतराती नौकाओं में प्रवास करने वाला एक मात्र प्राणी मनुष्य है। ये लोग संसार-सागर का प्रवास खेते हुए बुरी परिस्थिति के फंदे में फंस जाते हैं और परिणाम स्वरूप जानेअनजाने घोर संकट में पड़ जाते हैं । उन में से बड़ी संख्या में तो पर्वतमालाओं से टकरा कर समुद्र की अतल अनन्त गहराई में खो जाते हैं। बचे-खुचे लोग सफर जारी रखते हुए, मध्य भाग में प्रज्वलित वडवानल के कोप-भाजन बन मर जाते हैं...। कुछ तो आकाश में सतत कौंधती बिजली के गिरने से खत्म हो जाते हैं.... । कई तूफान की विभीषिका में अपना सर्वस्व खो बैठते हैं ! शेष रहे थोड़े से मुसाफिर, जिन्हें भव सागर का यथार्थ ज्ञान है और जो ज्ञान-समृद्ध घीर-गंभीर महापुरुषों का अनुसरण करते हैं, बच पाते हैं....भव-सागर को पार करने में सफल हो जाते हैं ।। ज्ञानी पुरुषों की दृष्टि में प्रस्तुत संसार-सागर अनन्त विषमताओं से भरा अत्यन्त दारुण है। जब तक वे यहाँ सदेह होते हैं, तब तक अधिकाधिक उद्विग्न रहते हैं। किसी भी सुख के प्रति वे आकर्षित नहीं होते, ना ही स्वयं ललचाते हैं । उनका सदा-सर्वदा सिर्फ एक ही Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ज्ञानसार लक्ष्य होता है; 'कब इस भव सागर से पार उतर' ! उनके सारे प्रयत्न और प्रयास भवसागर से पार उतरने के लिये होते हैं, मुक्ति के होते हैं । मन, वचन, काया से वे संतरण हेतु ही प्रयत्नशील रहते हैं । हमें भी प्रात्म-संशोधन करना चाहिये । सोचना चाहिये कि यह भवसागर हमारे ठहरने के काबिल है क्या ? हमें यहाँ स्थिर होना चाहिये क्या ? कहीं भी कोई सुगम पथ है क्या? कहीं निर्भयता है ? अशांतिरहित असीम सुख है ? नहीं है। जो है, वह सिर्फ मृगजल है । तो भव सागर में स्थिर होने का सवाल ही कहाँ उठता है ? जहाँ स्वस्थता नहीं, शान्ति नहीं, सुख नहीं और निर्भयता नहीं, वहाँ रहने की कल्पना से ही हृदय काँप उठता है । जब देश का विभाजन हुआ और भारत व पाकिस्तान दो राष्ट्र बने, तब पाकिस्तान में हिन्दु परिवारों की स्थिति कैसी थी ? उनका जीवन कैसा था ? वहाँ से लाखों हिन्दू परिवार हिजरत कर भारत चले आये । जान हथेली पर रखकर सुखशान्ति और संपदा गॅवा कर । क्योंकि उन्हें वहाँ अपनी सुरक्षा, निर्भयता और सलामती का विश्वास न रहा। ___ इसी तरह जब भवसागर से हिजरत करने की इच्छा पैदा हो जाए, तब माया-ममता के बन्धन टूटते एक क्षण भी न लगेगा। इसलिये यहाँ भवसागर की भीषणता का यथार्थ वर्णन किया गया है। प्रत : शान्ति से अकेले में इस पर चिन्तन करना, एकाग्र बन कर प्रतिदिन इस पर विचार करना । जब तुम्हारी प्रात्मा भव-सागर की भयानकता और विषमता से भयभीत हो उठे, तब उसे पार करने की तीव्र लालसा जाग पडेगी और तुम मन, वचन, काया से पार होने के लिये उद्यत हो जाप्रोगे। ऐसी स्थिति में विश्व की कोई शक्ति तुम्हें भव सागर पार करते रोक न पाएगी। तैलपात्रधरो यद्वत्, राधावेधोधतो यथा । क्रियास्वनम्यचित्त : स्याद्, भवभीतस्तथा मुनि: ॥६॥१७४।। अर्थ :- जिस तरह तेल-पात्र धारण करने वाला और राधावेष साधने वाला, अपनी क्रिया में अनन्य एकाग्र चित्त होता है । ठीक उसी तरह संसारसागर से भयभीत साधु अपनी चारित्र-क्रिया में एकाग्रचित्त होता Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवोद्वग ३२१ विवेचन :- किसी एक नगर का एक नागरिक ! उसकी यह दृढ़ मान्यता थी कि लाख प्रयत्नों के बावजूद भी मन नियंत्रित नहीं होता । अतः वह प्रायः मन की अस्थिर वृत्ति और चंचलता का सर्वश्र डंका पीटता रहता था । श्रपनी मान्यता से विपरीत मन्तव्य रखने वाले के साथ वाद-विवाद करता रहता । वह मुनियो के साथ भी चर्चा करता रहता । न किसी की सुनता, ना ही समझने की कोशिश करता । मन की स्थिरता को मानने के लिये कतई तैयार नहीं । वायु वेग से नगर में बात फैल गयी । राजा ने भी सुनी, लेकिन राजा विचलित न हुआ । वह स्वयं दर्शन - शास्त्र का ज्ञाता और विद्वान् था । मन को नियत्रित करने की विद्या से वह भलो-भाँति परिचित था । उस ने मन ही मन उसे सबक सिखाने का निश्चय किया । पानी को तरह समय बातता गया । एक बार भाई साहब राजा के जाल में फँस गये । राजा ने उसे फाँसी की सजा सुना दी । सुनते हो उसका एड़ी का पसीना चोटी तक आ गया । वह आकुल-व्याकुल हो उठा । 'मृत्यु' के नाम से हो वह काँप उठा । वह राजा के आगे गिडगिडाने लगा । " प्रभु ! मुझे फाँसो न दो" वह बोला । " लेकिन अपराधी को दण्ड देना राजा का कर्तव्य है । "प्रभो ! जो दंड देता है, वह क्षमा भी कर सकता है ।" राजा ने कुछ सोचते हुए कहा : "एक शर्त पर तुम्हें क्षमा कर सकता हूँ ।" “एक नहीं, मुझे सौ शर्तें मंजूर हैं. लेकिन फाँसी मंजूर नहीं ।" उसने बेताब होकर कहा । "तैल से लबालब भरा पात्र हाथ में लिये नगर की हाट - हवेली और वजारों की प्रदक्षिणा करते हुए राजमहल में सकुशल पहुँचना होगा । यदि मार्ग में कहीं तेल की एक बूंद भी गिर गयी अथवा तेल-पात्र तनिक भी छलक गया तो मृत्यु दण्ड से तुम्हें कोई बचा नहीं पाएगा । बोलो स्वीकार है ?" उसने स्वीकार किया । राज-परिषद् समाप्त होने पर वह अपने आवास गया । उसके साथ राज कर्मचारी भी थे । इधर राजा ने हाट ܐܪ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ ज्ञानसार हवेलियाँ और बजार सजाने का प्रादेश दिया। निर्धारित मार्ग पर रुपरंग की अंबार सुन्दरियों को तैनात कर दिया । कलाकारों को अपनी कला सरे-ग्राम प्रदर्शित करने की आज्ञायें जारी की। सारे नगर का नजारा ही बदल गया । निर्धारित समय पर वह लबालब भरा तेल-पात्र लिये अपने प्रावास से निकला । राज-कर्मचारी भी उसके साथ ही थे। वह हाट-हवेली और बाजार से गुजरता है, लेकिन उसका सारा ध्यान तैल-पात्र के अतिरिक्त कहीं नहीं । दुकानों की सजावट उस का ध्यानाकर्षण नहीं करती। नाट्य-प्रसंग उसके मन को ललचाने में असफल बनते हैं। रूपसियों का देह-लालित्य और नेत्र-कटाक्ष उसे कतइ विचलित नहीं कर पाते । उस की दृष्टि केवल अपने तैल-पात्र पर ही है। इस तरह वह सकुशल राजमहल पहुंचता है। महाराजा को विनीत भाव से वन्दन कर एक और नतमस्तक खड़ा हो जाता है। "तैल की बूंद तो कहीं गिरी नहीं ना ?" "जी नहीं !" राजा ने राजकर्मचारियों की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा। उन्होंने भी मौन रहकर उसके कथन को पुष्टि की । तब राजा ने कहा : "लेकिन यह कैसे सभव है ? सरासर असंभव बात है। आज तक विश्व में जो बनी नहीं, ऐसी अनहोनी बात है। मन चंचल है। वह इधरउधर देखे बिना रह ही नहीं सकता। और इधर-उधर देखने भर की देर है कि तैल-पात्र छलके बिना रहेगा नहीं।'' "राजन ! मैं सच कहता हूँ। मेरा मन सिवाय तेल-पात्र के कहीं नहीं गया....दूसरा कोई विचार दिमाग में आया ही नहीं।" उसने मंद, लेकिन दृढ़ स्वर में कहा । "क्या मन किसी एक वस्तु में एकाग्र बन सकता है ?" "क्यों नहीं ? यह शत-प्रतिशत संभव है। मेरे सिर पर जब साक्षात् मृत्यु झूल रही थी, तब मन भला एकाग्र क्यों नहीं होता ?', "तब फिर जो साधु / मुनि और साधक निरन्तर मृत्यु के भय को अपनी आँखों के आगे साक्षात् देखते हों, उनका मन चारित्र में Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवोद्वग ३२३ स्थिर हो सकता है अथवा नहीं ?" तबसे वह मन की स्थिरता का उपाय आत्मसात् कर गया। अनन्त जन्म-मृत्यु के भय से साधु अपनी चारित्र-क्रिया में निरन्तर एकाग्रचित्त होता है। हाँ, उसे असार संसार का भय अवश्य हो । राधावेध साधने वाला कैसी एकाग्रता का धनी होता है! उसे नीचे पानी से लबालब भरे कुण्ड में देखना होता है और ऊपर स्तंभ के सिरे पर निरन्तर घूमती पुतली की, कुण्ड में पडती छाया की दिशा में, निशाना ताक, उसकी एक आँख बिंधनी होती है। इसके लिये कैसा एकाग्रता चाहिये ? राजकुमारियों का पाणिग्रहण करने के इच्छुक नरपुंगवों को ऐसे राधावेध की कसौटी पर अपनी बुद्धि, बल और एकाग्रता की परीक्षा देनी पड़ती थी ! इसी तरह का आदेश, श्री जिनेश्वर भगवान ने शिवसुन्दरी का पाणिग्रहण करने के लिये, आवश्यक संयमपाराधना में एकाग्रता लाने हेतु दिया है। एकाग्र-चित्त हुए बिना संयम की मंजिल पाना असंभव है। विषं विषस्य वहुनेश्च. वह्निरेव यदौषधम् ।। तत्सत्यं भयभीतानामुपसमऽपि यन्न भी: ॥७॥१७५।। अर्थ :- विष की दवा विष और अग्नि की औषधि अग्नि ही है। इसीलिए मसार से भयभीत जीवों को उपसर्गों के का. ण किसी बात का डर नहीं होता। विवेचन :-यह कहावत सौ फीसदी सच है : 'विष की दवा विष और अग्नि को औषधि अग्नि'। विष यानी जहर । जहर का भय दूर करने के लिये जहरीली दवा दी जातो है। उस से तनिक भो डर नहीं लगता। ठीक उसी तरह अग्नि-शमन के लिए अग्नि की औषधि देने में भय नहीं लगता। तब भला संसार का भय दूर करने के लिये उपसर्गों की औषधि सेवन करने में कर बात का भय ? अत : धीर-वीर मुनिवर उपसर्ग सहने के लिये अपने-पाप तैयार होते हैं, उन्हें गले लगाने के लिये खुद कदम आगे बढ़ाते हुए नहीं घबराते । भगवान् महावीर ने श्रमण-जीवन में नानाविध उपसर्ग सहने Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ज्ञानसार हेतु अनार्य देश का भ्रमण किया था । क्यों कि उनके मन में कर्म-रिपुओं का भय दूर करने की उत्कट भावना थी। उन्होंने शिकारी कुत्तों का उपसर्ग सहन किया....ग्वालों ने उनके चरणांबुज को चुल्हा बनाकर खीर पकायी, लेकिन वे मौन रहकर सब सहते रहे....। अनार्य पुरुषों के प्रहार और असह्य वेदना, कष्ट और यातनाये सहते हुए उफ तक नहीं को । ऐसे तो अनेकानेक उपसर्ग शान्त रह, सहते रहे। उन्हें किसी तरह का भय महसूस न हुआ। अरे, औषधि के सेवन में भला, भय किस बात का ? शारीरिक रोगों के उपचार हेतु लोग बंबई-कलकत्ता नहीं जाते ? वहाँ डाक्टर शल्य-चिकित्सा करता है, हाथ-पाँव काटता है अाँख निकालता है, पेट चीरता है....अओर भी बहुत कुछ करता है। लेकिन रोगी को उसकी इस क्रिया / विधि से कतइ डर नहीं लगता। वह खुद स्वेच्छा से चीर-फाड कराता है। क्योंकि वह बखूबी जानता है कि इससे उसका दर्द और बोमारी दूर होने वाली है; रोग-निवारण का यही एक सरल, सुगम मार्ग है। तब भला खंधक मुनि राजकर्मचारियों द्वारा अपनी चमड़ी छिलते देख भयभीत क्यों होते ? उन पर रोष किसलिये करते ? उन्हें तो यह महज एक शल्य-क्रिया लगी। उस क्रिया से भव के भय का निवारण जो हो रहा था। अवंति सूकूमाल ने खुद ही सियार को अपना शरीर चीरने-फाड़ने दिया, उसे भरपेट खाने दिया, खून का पान करने दिया । आखिर क्यों? वह इसलिए कि उस से उन का भवरोग जो मिटने वाला था । मेतारज मुनि ने सुनार को अपने सिर पर चमड़े की पट्टी चुपचाप बांधने दी.... जरा भी विरोध नहीं किया । क्योंकि उस से उन के भवरोग के भय का निवारण होने वाला था । __भगवान महावीर ने ग्वाले को कान में कील ठोकने दिया, संगम को काल-चक्र रखने दिया,...गोशालक की अनाप-शनाप बकवास सहन की । इसके पीछे एक ही कारण था : ये सारी क्रियायें उनके भवरोग को मिटाने वाली रामबाण औषधियाँ जो थी । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवोद्वेग भगवंत ने मुनियों को उपसर्ग सहने का उपदेश दिया, भला किस लिए ? मुनिगरण संसार का भय दूर करने के लिये आराधना-साधना करते हैं । उपसर्गों के माध्यम से उसका 'आपरेशन' होता है और संसार का भय सदा के लिए मिट जाता है । साथ ही प्रापरेशन करने वाले रोगी के मन में डाक्टर के प्रति रोष की भावना पैदा नहीं होती। उसके लिए वह डाक्टर परमोपकारी सिद्ध होता है। तभी खंधकमुनि को राजकर्मचारी उपकारी प्रतीत हुए। अवंति सूकुमाल को सियार उपकारी लगा और मेतारज मुनि को सुनार । ठीक इसके विपरीत आपरेशन करने वाला डाक्टर बीमार को दुष्ट प्रतीत हो.... अनुपकारी लगे तो आपरेशन बिगड़ते देर नहीं लगती। इसी तरह उपसर्गकर्ता दुष्ट लगे, तो मानसिक संतुलन ढलते विलंब नहीं होगा । साथ ही संसार के भय में एकाएक वृद्धि हो जाएगी। खंघकसूरिजी को मंत्रो पालक 'डाक्टर' न लगा, बल्कि कोई दुष्ट लगा । फलत: उनका संसार भय दूर न हुआ । उनके शिष्यों के लिए मंत्री पालक मुक्ति पाने में अनन्य सहायक बन गया । जीव को समताभाव से उपसर्ग सहने हैं....। उससे भवरोग तुरंत दूर हो जाते हैं । हम स्वेच्छया उपसर्ग सहन नहीं करें, लेकिन कर्मप्रेरित उपसर्गों को भी हंसते-हंसते सह लें तो काम बन जाय । बालक आपरेशन-कक्ष में जाने से डरता है ! अपने समक्ष आपरेशन के लिए आवश्यक शस्त्र लिए डाक्टर को देख चीख पड़ता है भला, क्यों ? उसे अपने रोग की भयानकता अवगत नहीं है । वह डाक्टर को रोगनिवारक नहीं मानता । इसी तरह जीव भी बालक की तरह यदि अविकसित बुद्धि वाला होता है, तो वह उपसर्ग के साये से भी चीत्कार कर उठता है । उपसर्ग की उपकारिता से वह पूर्णतया अनभिज्ञ जो ठहरा। तात्पर्य यही है कि उपसर्ग सहने आवश्यक हैं । इससे भव का भय हमेशा के लिए दूर होता है । स्थैर्य भवभयादेव, व्यवहारे मुनिजेत् । स्वात्मारामसमाधो तु, तदप्यन्तनिमज्जति ॥८॥१७६।। मर्थ :- व्यवहार नय से संसार के भय से ही साधु स्थिरता पाता है। परंतु Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ज्ञानसार अपनी आत्मा की रतिरुप समाधि-ध्यान में वह भय अपने-आप ही विलीन हो जाता है । विधेचन : संसार का भय ? क्या मुनिवर्य को संसार का भय रखना चाहिये ? क्या भय उन की चारित्रस्थिरता को नींव है ? । चार गति के परिभ्रमरण स्वरूप संसार का भय मुनि को होना चाहिये । तभी वह निज चारित्र में स्थिर हो सकता है । "यदि मैं चारित्र-पालन की आराधना में प्रमाद करूँगा, तो मुझे बरबस संसार की नरक और तिर्यंचादि गति में अनन्त काल तक भटकना पडेगा।" मुनि में यह भावना अवश्य होनी चाहिये । उपरोक्त भावना उसे : * इच्छाकारादि सामाचारी* में अप्रमत्त रखती है । . क्षमादि दसविध र अतिधर्म में उन्नत रखती है । * निर्दोष भिक्षाचर्या के प्रति जागृत रखती है । * महाव्रतों के पालन में अतिचारमुक्त करती है । * समिति-गुप्ति के पालन में उपयोगशील बनाती है । प्रात्मरक्षा, सयम-रक्षा प्रोर प्रवचन रक्षा में उद्यमशील बनाती है। संसार के भय से प्राप्त संयम-पालन की अप्रमत्तता उपादेय है। 'संसार में मुझे भटकना पड़ेगा'-ऐसा भय आर्तध्यान नहीं, बल्कि धर्मध्यान है। जब मुनि प्रात्मा की निर्विकल्प समाधि में लीन हो जाता है , तब संसारभय स्वयं अपना अस्तित्व उसमें विलीन कर देता है । वह अपना अस्तित्व स्वतंत्र नहीं रखता । वह मोक्ष और संसार दोनों में सदा नि:स्पृह होता है । उसे न मोक्षप्राप्ति का विचार और ना ही संसारभय को अकुलाहट । मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पहो मनिसत्तमः' जब ऐसो उच्च कोटि की निर्विकल्प समाधि किसी प्रकार के मानसिक विचार बिना ही प्राप्त होतो है, तब संसार का भय नहीं रहता। जब तक ऐसी आत्म-दशा प्राप्त न हो जाये, तब तक संसार का भय रहना चाहिये पार मुनि को भी ऐसा भय सदा-सर्वदाप्रपने *देखिये परिशिष्ट के देखिये परिशिष्ट ० देखिये परिशिष्ट Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवोद्वेग ३२७ मन में रखना चाहिए। प्रव्रज्याग्रहण करने मात्र से ही दुर्गति पर विजयश्री प्राप्त कर ली है, ऐसी मान्यता मुनि के मन में नहीं होनी चाहिए। वह लापरवाह और निश्चिन्त न बने । यदि मुनिवर भव-भ्रमण का भय तज दें, तो - शास्त्र-स्वाध्याय में प्रमाद करेगा। विकथा (स्त्री, भोजन, देश, राजकथा) करता रहेगा। * दोषित भिक्षा लाएगा । * कदम-कदम पर राग-द्वेष का अनुसरण करेगा । * महाव्रत-पालन में अतिचार लगाएगा । * समिति- गुप्ति का पालन नहीं करेगा । of मान-सम्मान और कीति-यश का मोह जगेगा । * जन-रंजन के लिये सदैव प्रयत्नशील रहेगा। * संयम-क्रिया में शिथिल बनेगा । इस तरह अनेक प्रकार के अनिष्टों का शिकार बनेगा । अतः भव का भय...दुर्गति-पतन का भय, मुनि को होना ही चाहिए । पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने तो संसार को सिर्फ समुद्र की संज्ञा ही दो है । लेकिन 'अध्यात्म सार' में उन्होंने इसे अनेक प्रकार के रूप और उपमाओं से उल्लेखित किया है। उदाहरणार्थ : संसार एक घना वन है, भयंकर कारागृह है, वीरान श्मशान है, अंधेरा कुंपा है आदि । इस तरह भवस्वरूप की विविध कल्पनायें कर उस पर गहरा चिन्तनमनन करना चाहिये । संसार प्रसार है, इसकी अनुभूति हुए बिना इसके वैषयिक सुखों को आसक्ति का पाश कभी नहीं टूटता । साथ ही, भव के प्रति रहे राग को डोर टूटे बिना भव-बन्धन तोड़ने का पुरुषार्थ संभव नहीं । लेकिन इसके लिए भवस्वरूप के चिन्तन में खो जाना चाहिये, तन्मय होना चाहिये । भवसागर के किनारे खड़े रहकर उस की भीषणता का अनुभव करना । भव-श्मशान के एक कोने पर खड़े हो, उसकी वीरानी और भयानकता देखना । भव-कारागृह में प्रवेश कर उसकी Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ वेदना और यातनायें समझना । भव कूप को कगार पर खडे हो, उसकी भयंकरता को निहारना । अनायास तुम चीत्कार कर उठोगे ... तुम्हारा तन-बदन पसीने से तर हो जाएगा.... तुम थर-थर कांपने लगोगे और तब 'हे अरिहंत ! कृपानाथ....' पुकारते हुए महामहिम जिनेश्वर भगवंत की शरण में चले जाओगे । ज्ञानसार Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. लोकसंज्ञा-त्याग ज्ञानियों को अज्ञानियों की पद्धति पसंद नहीं ! अज्ञानांधकार में आकंठ डूबी दुनिया में रहे ज्ञानीपुरुष दुनिया के प्रवाह में नहीं बहते ! वे तो अपने ज्ञान-निर्धारित निश्चित मार्ग पर चलते रहते हैं ! दुनिया से वे सदा निश्चित-बेफिक्र होते हैं ! लोक की प्रसन्नता-अप्रसन्नता को लेकर कोई विचार नहीं करते ! उन का चिंतन-मनन ज्ञाननिर्धारित होता है । लोक प्रवाह...लोकसंज्ञा और लोकमार्ग से तत्त्वज्ञानी-दार्शनिक किस तरह अलिप्त होते हैं-यह तुम प्रस्तुत अष्टक पढने से समझ पाओगे । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० प्राप्तः षष्ठं गुणस्थानं भवदुर्गाद्विलङ्घनम् । लोकसंशारतो न स्यान्मुनिर्लोकोत्तरस्थितिः ॥ १ ॥ १७७॥ अर्थ : जिसमें संसार रूपी विषम पर्वत का उल्लंघन है, ऐसे छठे गुणस्थानक को प्राप्त और लोकोत्तरमार्ग में जो रहा हुया है ऐसा साधु, मन में लोकसंज्ञा में प्रीतिबाला नहीं होता है । विवेचन : मुनिवर्य, याप कौन हैं ? यदि आप अपने व्यक्तित्व को देखोगे तो निःसंदेह 'लोकसंज्ञा' में प्रीतिभाव नहीं होगा । यहाँ भाप को उच्च श्रात्म-स्थिति का यथार्थ वर्णन किया गया है : ( १ ) श्राप छठे गुरणस्थान पर स्थित हैं । (२) लोकोत्तर - मार्ग के पथिक हैं । ज्ञानसार श्रतः सदैव आप के स्मृति-पट पर यह तथ्य अंकित होना चाहिए कि, 'मैं छठे गुणस्थान पर स्थित हूँ । इसके पहले के पांच गुणस्थान मैंने सफलतापूर्वक पार कर लिए हैं । यतः मुझे कुदेव, कुगुरु और कुधर्म के प्रति श्रद्धाभाव से नहीं देखना चाहिए । मैं दुध-दहीं में पांव नहीं रख सकता । में मिश्र - गुरगस्थान पर नहीं हूँ । श्रापकी दृढ श्रद्धा होनी चाहिए कि, 'जिनोक्त तत्त्व ही सत्य हैं ।' में गृहस्थ नहीं हूँ... प्रत: गृहस्थ की भांति मेरी वृत्ति और बर्ताव नहीं होना चाहिये । मैं अणुव्रतधारी नहीं अपितु महाव्रतधारी हूँ । जिन पापो को बारह व्रतधारी श्रावक तज नहीं सकता, मैंने उन्हें त्रिविध-त्रिविध ( मन वचन काया से कराना, और अनुमोदन करना) तज दिया है । अत: मेरे लिए ऐसी श्रात्मानों का सम्पर्क सम्बंध हितकारक है, जिन्होंने मेरी तरह पापों को त्रिविध-त्रिविध छोड़ दिए हैं । अपने पापों के परित्याग के साथ ही मैंने देव गुरू और संघ की साक्षी, सम्यग् ज्ञान, दर्शन, और चारित्र की आराधना करने की श्रात्मा की अनुभूति से कठोर प्रतिज्ञा की है । फलस्वरूप मुझे ऐसी ही सर्वोत्तम आत्मायों का सहवास पसंद करना चाहिये जो सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में प्रोत-प्रोत हो ।” हे मुनिराज ! आप को इस तरह का चिंतन-मनन करना चाहिये, ताकि आप पापासक्त और मिथ्या कल्पनाओं में खोये जीवो के सहवास,. परिचय और उन्हें खुश करने की वृत्ति से बच जाओ । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसंज्ञा-त्याग ३३१ मैं लोकमार्ग का नहीं, बल्कि लोकोत्तर मार्ग का यात्री हूं । लोक मार्ग और लोकोत्तर मार्ग (जिन मार्ग) में जमीन-पाकाश का अन्तर है ! लोकमार्ग मिथ्या धारणाओं पर चलता है, जबकि लोकोत्तर-मार्ग केवलज्ञानी वीतराग भगवंत द्वारा निर्देशित निर्भय-मार्ग है । अतः लोकोत्तर-मार्ग का परित्याग कर मुझे लौकिक मार्ग की पोर हर्गिज नहीं जाना चाहिए ! मुझे लोगों से भला क्या लेना-देना ? मेरा उन से कोई सम्बन्ध नहीं है ! लौकिक मार्ग में स्थित जीवों से मैंने तमाम रिश्तेनातों का विच्छेद कर दिया है । उन का सहवास नहीं, ना ही उनका किसी प्रकार का अनुकरण ! क्यों कि उनकी कल्पनाएं, विचार, व्यवहार, धारणा और आदर्श अलग होते हैं ! जबकि मेरी कल्पना-सष्टि, धारणाएँ और आदर्श अलग होते हैं ! जिन्दगीपर्यंत लोकोत्तर मार्ग-जिनमार्ग का अनुसरण करूँगा, न कि लोकमार्ग का! हर प्रसंग और हर घटना में मैं देवाधिदेव जिनेश्वर भगवंत को प्रसन्न करने का प्रयत्न करूंगा, ना कि दुनिया के लोगों को ! सामान्य जीवों को प्रसन्न करने का मेरा प्रयोजन ही क्या है ?" "संसार की विषम पर्वतमालानों को लांघकर मैं छठे गुरणस्थान पर पहुँचा हूँ ! मैं लोकोत्तर मार्ग में स्थित हूँ, फिर भला लोक-संज्ञा से प्रीति क्यों रखू ? क्योंकि लोक-संज्ञा में दुबारा संसार के विषम पहाड़ों पर चढाई करना पड़ता है । अनेकविध मानसिक विषमताएँ उस मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं। इसके बजाय मैं लोकोत्तर मार्ग के आदर्शों का ही अवलम्बन करूंगा । उन यादों के पीछे मेरे मन, वचन, काया की समस्त शक्ति लगा दूंगा । मुझे लोगों से कोई मतलब नहीं ! वे दिन-रात बैषयिक सुख में आकंठ डूबे रहते हैं, जबकि मुझे पूर्णतया निष्काम योगी बनना है । संसार के जीव, जड संपत्ति के माध्यम से अपने वैभव और महत्ता का मिथ्या प्रदर्शन करते हैं, जबकि मुझे सच्चे दिल से ज्ञान, दर्शन-चारित्र की अनूठी संपदा से प्रात्मोन्नति की साधना करना है । लोक बहिई ष्टि होते हैं, जबकि मुझे ज्ञानदृष्टि से अपना विकास करना है । जोव अज्ञान और अशांति की ओर अंधी दौड लगा रहे हैं । जबकि मुझे केवलज्ञान की और निरंतर गतिशील होना है। ऐसी स्थिति में जीव भोर मुझ में साम्य कैसा ? मैं तो अपना छठा गुणस्थान ही कायम रखूगा और सातवें....आठवें गुणस्थान पर पहुँचने के Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ज्ञानसार लिए प्रयत्न करता रहूँगा । अब पीछेहठ नहीं ! किसी कीमत पर और किसी हालत में भी पीछेहठ नहीं ! लोक-संज्ञा में मैं अपना पतन कदापि नहीं होने दूगा ।। यथा चिंतामणि दत्ते बठरो बदरीफलः । हहा जहाति सद्धर्म तथं व जनरंजनैः ॥२॥१७८॥ अर्थ :- जिस तरह कोई मूर्ख बेर के बदले में चिन्तामणि रत्न देता है, ठीक उसी तरह कोई मूढ लोक-रंजनार्थ अपने धर्म को तज देता है ।। विवेचन : एक था गडरिया । वह प्रतिदिन ढोर चराने जंगल में जाता था । अचानक एक दिन उसे चिन्तामणि-रत्न मिल गया। उसे वह रंगबिरंगी पत्थर पसन्द आ गया । उसने उसे बकरी के गले में बांध दिया ! शाम को गडरिया गांव लौटा ! गाँव के बाहर कोई एक आदमी बेर बेच रहा था । पके और रसीले बेर देखकर अनायास उसके मुंह में पानी भर पाया। उसने उसके पास जाकर कहा : "दो-चार बेर मुझे भी दे दे !" 'बेर यों मुफ्त में नहीं मिलते ! जेब में पैसे हैं ?' गडरिया के पास फटी कौडी भी न थी ! वह सोच में पड़ गया! बेर खाने थे, लेकिन पैसे कहां से लाये ? उसे एक उपाय सुझा ! उसने बकरी के गले में बंधा चिंतामरिण-रत्न देकर बदले में बेर खरीद लिए । बेरवाले ने चमकते पत्थर को देखा और वह भी ललचा गया। उसने कभी ऐसा पत्थर देखा न था ! उसी समय वहां से एक महाजन गुजरा। उन की तेज नजर बेरवाले के हाथ में रहे चमकीले पत्थर पर पडी । वह वहीं ठिठक गया । वह जौहरी होने के कारण चिंतामणि-रत्न पहचानते उसे देर न लगो । इधर-उधर की बातों में उलझाकर उसने बेरवाले को कुछ पैसे देकर, चितामरिण-रत्न खरीद लिया । धर्म देकर लोक-प्रशंसा खरीदनेवाला भी उस गडरिये जैसा ही है । जबकि धर्म चिंतामणि-रत्न से अधिक कीमती और विशेष है । वह अचिंत्य चितामणि है....। जीव कभी कल्पना भी न कर सके, वैसी दिव्य Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसंज्ञा-त्याग और अपूर्व भेंट, सद्धर्म-चितामरिण प्रदान करता है । उक्त सद्धर्म को लोकप्रशंसा के लिये अथवा लोकरंजनार्थ देने वाले, गडरिये से भी बढ़कर मूर्ख हैं । क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे पास जो सद्धर्म है, वह अचित्य चितामरिण है ? आखिर सद्धर्म को तुम क्या समझ बैठे हो ? जिस सद्धर्म से तुम आत्मा की अनत संपदा और ढेर सारी संपत्ति प्राप्त कर सकते हो, उसे तुम लोक-प्रशंसा के खातिर कोडी के मूल्य बेच रहे हो ? लोग भले ही तुम्हें त्यागी, विद्वान् तपस्वी, ब्रह्मचारी, परोपकारी और बुद्धिमान कहें, लेकिन ज्ञानियों की दृष्टि में तुम मूर्ख हो । तुमने धर्म का उपयोग लोक-रंजन हेतु किया, यही तुम्हारी मूर्खता है । अरे, तुम्हारी मूर्खता की कोई हद है ? किसी को तुम सद्धर्म के द्वारा लोक-प्रशंसा पाते देखते हो, तब उस से प्रभावित हो जाते हो ? वह तुम्हे महान् प्रतीत होता है और खुद को कनिष्ट, तुच्छ और छोटा समझते हो ! फलत: तुम्हारे मन में भी लोक-प्रशसा और लोकाभिनन्दन पाने की तीव्र लालसा पैदा होती है ! सद्धर्म-प्राप्ति से, सद्धर्म की आराधना से तुम्हें तनिक भी संतोष, आनन्द और तृप्ति नहीं होती। तुम तपश्चर्या करते हो । लेकिन जानते हो कि तप सद्धर्म ही है ! क्या तुम तपश्चर्या के माध्यम से लोक-प्रशंसा के इच्छुक नहीं हैं न ? तुम अपनी तपश्चर्या के विज्ञापन द्वारा ' लोग मेरी प्रशसा करेंगे ।' भावना नहीं रखते हो न ? तुम दान देते हो ! दान सद्धर्म है । तुम दान के बलपर लोक-प्रशंसा पाने की चाह नहीं रखते हो न ? दान देकर मन ही मन हरखाते हैं ? नहीं, तुम्हारे दान की दूसरे लोग प्रशंसा करते हैं, तब ही सुख होता है न ? ज्ञानप्राप्ति से असीम आनद मिलता है क्या ? दूसरे लोग जब तुम्हें ज्ञानी विद्वान कहे, तब ही आनन्दित होते हैं न ? ब्रह्मचर्यपालन से प्रसन्नता मिलती है क्या ? दूसरे तुम्हें ब्रह्मचारी कहकर सम्बोधित करें, तब ही प्रसन्न होते हो न ? यदि सद्धर्म के माध्यम से तुम लोक-प्रशंसा पाना चाहते हो, तब चिंतामणि-रत्न के बदले बेर खरीदनेवाले उस गडरिये से अधिक बुद्धि . Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ शाली कैसे हो सकते हैं ? हाँ, वह बात संभव है कि तुम सद्धमं से लोक प्रशंसा पाना नहीं चाहते, फिर भी तुम्हारे शुभ कर्मों के कारण लोग वाह-वाह किये बिना नहीं प्रघाते, उस में तुम्हारा कोई अपराध नहीं । तदुपरांत भी, तुम्हें यह आदर्श तो बनाये रखना है कि 'यह प्रशंसा-स्तुति सिर्फ पुण्यजन्य है ।' इस से खुशी नहीं होना है । क्योंकि पुण्य का प्रभाव खत्म होते ही प्रशंसक निंदक बन जायेंगे। यदि प्रशंसा से फुल जाओगे तो निंदा से दुःखी होना पडगा । तुम सद्धर्म की मन-वचन काया से श्राराधना करते हो, तुम्हें लोकप्रशसा नहीं मिलती, मान-सन्मान नहीं मिलता, इससे निराश होने की प्रावश्यकता नहीं । हमेशा याद रखो सद्धमं का फल लोक-प्रशसा नहीं है । भूल कर भी कभी अन्य प्राणियों से अपने सद्धर्म की कदर करवाने की भावना नहीं रखना । क्योंकि सद्धर्म की प्राराधना से तुम्हें अपना ग्रात्मा को निःस्पृह महात्मा बनाना है । कर्म - बंधनों को छिन्न-भिन्न करता है । आत्मा को परमात्मा बनाना है । यदि लोक प्रशंसा के व्यामोह में जरा भी फँस गये तो तुम्हारे भव्य और उदात्त आदर्शों को कब्र खुदते देर नहीं लगेगी । अतः सर्द व सावधान रह सद्धर्म की आराधना करनी चाहिए । लोकसंज्ञामज्ञानद्यामनुस्त्रोतोऽनुगा न के I प्रतिस्त्रोतोऽनुगस्त्वेको राजहंसो महामुनिः ||३|| १७६ ।। शनल र अर्थ :- लोकसंज्ञा रूपी महानदी में लोक-प्रवाह का अनुसरण करनेवाले भला कौन नहीं है? प्रवाह विरुद्ध चलने वाला राजहंस जैसे मात्र मुनीश्वर हो हैं । विवेचन : काई एक बडी नदी है । गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, ब्रह्मपुत्रा से भी बडी ! जिस दिशा में नदी बहती है उसके प्रवाह में अनुकूल दिशा में सभी प्रवाहित होते हैं, प्रयास करते हैं ! लेकिन प्रवाहविरुद्ध प्रतिकूल दिशा में कोई प्रवास नहीं कर सकता । उफनते, विद्यत्वेग से आगे बढ़ते प्रवाह की प्रतिकूल दिशा में तरना बच्चों का खेल नहीं हैं ! कोई बड़ी बात परिग्रह इकट्ठा लोक-संज्ञा रूपी नदी के प्रवाह में बहना, प्रवास करना - नहीं हैं | खाना-पीना, ओढ़ना-पहनना, विकथाएँ करना, Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसंज्ञा-त्याग ३३५ करना, भोगोपभोग का आनन्द लूटना, गगनचुम्बी भवननिर्माण करना और कीमती वाहन रखना, पुत्र-पत्नी और परिवार में खोये रहना, तनको साफ-सुथरा रखना, सजाना-सँवारना, वस्त्राभूषण धारण करना..... आदि समस्त क्रिया सहज स्वभाविक है । इस में कोई विशेषता नहीं और ना ही आश्चर्य करने जैसी बात है । अज्ञान, मोह श्रीर द्वेष में फसी हुई दुनिया के बुद्धिमान कहलाते विद्वान् लोग, लौकिक आदर्श और परम्पराएँ साथ ही विवेकहीन रीति रिवाज के बोझ को ढोते फिरते हैं ! मुनि को चाहिए कि वह इन आदर्श, पद्धति, परम्परा और रीति-रिवाज के चंगुल में भूलकर भी न फँसे ! लोकप्रवाह द्वारा मान्य कुछ मत निम्नानुसार हैं : ( १ श्रमण- समाज को समाज सेवा करनी चाहिए : अस्पताल, शाला महाविद्यालय, और धर्मशालाएँ निर्माण करानी चाहिए । (२) श्रमण को अस्वच्छ, फटे-पुराने वस्त्र धारण नहीं करना चाहिए बल्कि स्वच्छ और अच्छे वस्त्र परिधान करने चाहिए ! ( ३ ) धर्म के प्रचार और प्रसार हेतु श्रमणों को कार, वायु-यान, रेल्वे का प्रवास और समुद्र - प्रवास करना चाहिए ! (४) श्रमरणगरण लोगों को अधिकाधिक प्रतिज्ञाएँ न दें ! (५) श्रमण अधिक दीक्षाएँ न दे ! (६) श्रमण बाल-दीक्षा न दे ! यह आधुनिक लोकमत है ! जिस की श्रात्मा जागृत न हो और ज्ञानदृष्टि खुलो नहीं हो, प्रायः ऐसे साधु लोक-प्रवाह के भोग बने बिना नहीं रहते ....। इस प्रकार के लोकप्रवाह शिष्ट और सदाचारी समाज रचना का अंग-भंग करने हेतु प्रचलित है । सुशिक्षा और समाजसुधार के नाम पर कई गंदी, बीभत्स और समाज को पतनोन्मुखी बनाने वाली योजनाएँ कार्यान्वित होती नजर आ रही हैं । १. ' आबादी बढ रहा है, अनाज नहीं मिलेगा, अत: संतति-नियमन करो ! अधिक बालक न हो, इसलिए ऑपरेशन करवाओ । निरोध का उपयोग करो !' आदि विचारों का सरेआम राष्ट्रव्यापी प्रचार कर Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार मनुष्य को दुराचारी, व्यभिचारी बनाने की योजनाएँ दिन-दहाडे कार्यान्वित हो रही हैं ! और लोक-प्रवाह के बहाव में सदैव बहनेबाले इसमें फंसे बिना नहीं रहते ! २. विधवाओं को पुनर्विवाह की सुविधा मिलनी चाहिए ! ३. सह-शिक्षा अवश्य हो, उसका विरोध क्यों ? ४. सिनेमा से मनोरंजन होता है....! ५. संसार में भी धर्माराधना कर सकते हैं ! मोक्ष-प्राप्ति होती ऐसी मान्यता और मतों का समावेश लोक-प्रवाह में है। मुनिराज को चाहिए कि वह इन मान्यताओं का शिकार न बनें, बल्कि इसकी विरूद्ध दिशा में अपना जीवन-क्रम निरंतर जारी रखें। निर्भयता और नीडरता के साथ चलते रहे, वह किसी के बहकाव में न पायं। वह सदा-सर्वदा जिनेश्वर भगवान द्वारा निरूपित मार्ग का ही निष्ठापूर्वक अवलम्बन करता रहे। भगवंत की वाणी और सिद्धान्त से बढकर अपने सिद्धान्त और जीवन-दर्शन को महत्त्व न दें! वह लोक-प्रवाह के तीव्रवेग के बीच रह, जीवों की अज्ञानता को मिटाने का प्रयत्न करें, उन्हें मोह-व्यामोह के जाल से दूर रखने की कोशिश करें । उन्हें सत्य ऐसे मोक्ष-मार्ग की ओर प्रेरित करने का पुरूषार्थ करें। मुनि तो राजहंस है। वह सिर्फ मोती ही चगता है। घास उस का खाद्य नहीं और कीचड वह नहीं उछालता । घास खाते और कीचड में सने जीव के लिए उसके मन में करुणा और दयार्द्रता उभर आये ! उन्हें मुक्ति दिलाने का प्रयत्न करे, ना कि स्वयं उन में एकरूप हो जाएँ। अज्ञानियों की बातों में आकर उनके अविवेकपूर्ण मत और मान्यताओं को स्वीकृति देने की बुरी आदत से अपने को बाल-बाल बचाएँ। तभी मुनि-जोवन की मर्यादा और परम्परा में रह मोक्षमार्ग की पाराधना में आगे बढ सकेगा । लोक-संज्ञा के परित्याग हेतु उस में नि:स्पृहता, नीडरता और निर्भयता होना परमावश्यक है ! और इसके मूल में रहो ज्ञानदृष्टि होना इस से भी ज्यादा आवश्यक है । लोकमालम्ब्य कर्तव्यं कतं बहुभिरेव चेत् ! तथा मिथ्यादशां धर्मो न त्याज्य: स्यात् कदाचन ।।४।।१८०॥ -. - Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसंज्ञा-त्याग ३३७ अर्थ : यदि लोकावलम्बन के आधार से बहुसंरव्य मनुष्यों द्वारा की जाती क्रिया करने योग्य हो तो फिर मिथ्याष्टि का धर्म कदापि त्याग करने योग्य नहीं है। विवेचन:- जिन को दृष्टि स्वच्छ न हो, -जिन की दृष्टि निराग्रही न हो, -जिनके पास केवल ज्ञान' का प्रकाश न हो, ---जिनके राग-द्वेषादि बंधन अभी टूटे न हो, ऐसे व्यक्ति-विशेष ने ही अपनी बुद्धिमत्ता के बलपर जो मिले उन्हें साथ लेकर विभिन्न मतों और पंथों की स्थापना की है। उन्हें 'मिथ्यामत' अथवा 'मिथ्यापंथ' कहा गया है। मिथ्यादृष्टि से वास्तविक विश्व-दर्शन नहीं होता। सब कुछ गलत-सलत दिखायी देता है। जो उसे दिखता है, वह सच मानता है। विश्व में ऐसे कई मत और संप्रदाय हैं और उनके अनुयायियों की संख्या भी कम नहीं है। मतलब विभिन्न मतों के विविध अनुयायी दुनिया में अत्र-तत्र फैले हुए हैं। यदि किसी की यह मान्यता हो कि 'बहुत लोग जिस मत का अनुसरण करते हैं, वह सच्चा हैं।' तो गलत बात है । क्यों कि सच्चाइ का अनुसरण करने वाले लोगों का प्रमाण प्रायः अल्प होता है । जबकि असत्य ओर अवास्तविकता का अनुसरण करने वाले असंख्य मिल जाएँगे । सत्य और वास्तविक मार्ग का अनुगमन करने की शक्ति बहुत कम लोगों में पायी जाती है । अत: अगर यह मान लिया जाए कि 'बहुमत जो करता है, उसे हमें भी करना चाहिए।' तो वह सत्य होगा या असत्य ? विश्व के ज्यादातर जोवों को क्या पसंद है, बृहत् समाज की अभिरुचि और अभिलाषा क्या है ?' इस बात को परिलक्षित कर जो लोग धर्म के सिद्धान्त और मत प्रवर्तन करते हैं, ऐसे लोग सत्य से दूर भागते हैं। वे सच्चे हो ही नहीं सकते। आमतौर से सामान्य जीवों को भोगपभोग में रुचि होती है। उन्हें हिंसा, झठ चोरी. दुराचार व्यभिचार और परिग्रह में दिलचस्पी होती है । वे गोत-सांगीत सुनना, सुदर रूप देखना, प्रिय रस का सेवन करना, गंध-सुगंध का आस्वाद लेना और मुलायम शरीर-स्पर्श करना २२ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार पसंद करते हैं। यदि तुम उनकी सुप्त इच्छा-अभिलाषा और कामना पूर्ण करने की अनुमति दो, एकाध आकर्षक जाल उन पर फेंक दो और उसे धर्म की संज्ञा दे दो, तो वे उसे खुशी-खुशी स्वीकार लेंगे। ऐसा तथाकथित धर्म अथवा सिद्धान्त विश्व के बहुसंख्य जीव सोत्साह ग्रहण कर अनुयायी बन जाएगे । लेकिन प्रश्न यह है कि इस से क्या आत्म-कल्याण संभव है ? ऐसा धर्म जीवों को दुःखों से मुक्त कर सकेगा ? क्या ऐसा धर्म तुम्हें मोक्ष का सुख प्रदान कर सकेगा? । जो दुर्गति में जाते जीवों को बचा न सके, वह भला धर्म कैसा ? आत्मा पर रहे कर्मों के बंधनों को छिन्न-भिन्न न कर सकें उसे धर्म कैसे कहा जाय ? विश्व का बृहत् मानव-समाज अज्ञानी ही होता है। भगवान महावीर के समय में भी गोशालक का अपना अनुयायी-वर्ग बहुत बडा था ! उससे क्या गोशालक का मत स्वीकार्य हो सकता है ? वास्तव में 'बहुमत से जो आचारण किया जाए उसका ही आचरण करना चाहिए, 'यह मान्यता अज्ञानमूलक है । आजकल व्याख्यान में भी कई व्याख्याता इस बात का ध्यान रखते हैं कि बृहत् समाज, श्रोतावृन्द क्या सुनना चाहता है ? उसका अनुशीलन कर बोलो....!' लोकरूचि का अनुसरण करने से लोकहित की भावना सिद्ध नहीं होती ! क्यों कि आम समाज की रुचि प्रायः आत्मविमुख होती है. जड मूलक होती है । उस का अन्धानुकरण करने से क्या लोक-हित संभव है ? नहीं इसलिये तो लोक-संज्ञा के अनुसरण का भगवान ने निषेध किया है ! सिर्फ उसी बात का अनुसरण करना श्रेयस्कर है, जिससे आत्महित और लोकहित दोनों संभव हो। जो आत्महित अथवा लोकहित की व्याख्या मे ही अनभिज्ञ हैं, उन्हें अवश्य यह अप्रिय लगेगा ! लेकिन केवल मुट्ठीभर लोगों के लिए आत्महित का उपदेश बदल नहीं सकते। अलबत्ता, प्राणी मात्र की रुचि आत्मोन्मुख बनाने के प्रयत्न अवश्य करने चाहिए और उसके लिए लोकरुचि का ज्ञान होना जरूरी है। यह ज्ञान प्राप्त करने में लोकसंज्ञा का अनुसरण नहीं है । ठीक उसी तरह कभी-कभार श्री जिनवचन की निंदा के निवारण हेतु लोकाभिप्राय का अनुसरण किया जाए तो उसमें लोकसंज्ञा का सवाल नहीं उठता। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसंज्ञा-त्याग प्रसंगोपात सयम-रक्षा एवं आत्मरक्षा हेतु लोक-अभिप्राय का अाधार लिया जाए तो वह लोकसंज्ञा नहों कहलाती । लेकिन प्रवचन, संयम और आत्मा की विस्मृति कर लोकरजनार्थ, लोक-प्रशसा प्राप्त करने हेतु लोकरूचि का अनुसरण किया जाए तो वह लोकसंज्ञा है ।। __ लोक-अभिरूचि का अनुसरण करनेवाले कई मिथ्यामतों का विश्व में उदय होता है और का न्तिर से अस्त भी । लेकिन उनके मत के अनुसरण से मोक्ष-प्राप्ति कदापि संभव नहीं । श्रेयोऽर्थिनो हि भयांसो लोके लोकोत्तरे न च ! स्तोका हि रत्नवणिज : स्तोकाश्च स्वात्मसाधका ॥५॥१८॥ अर्थ : वास्तव में देखा जाए तो लोक-मार्ग और लोकाक्तर-मार्ग में मोक्षार्थियों की सख्या नगण्य ही है। क्योंकि जंसे रत्न की परख करने वान नौ री बहुत कम होते हैं, वैसे प्रात्मोन्नति हेतु प्रयत्न करनेवालों की संख्या न्यून ही होती है । विवेचन :- मोक्षार्थी= मोक्ष के अर्थी । ___ यानी सर्व कर्मक्षय के इच्छुक ! प्रात्मा की परम विशुद्ध अवस्था की प्राप्ति के अभिलाषी....! ऐसे जीव भला लोकमार्ग में और लोकोत्तरमार्ग में कितने होंगे ? न्यून हा होते हैं, नहीवत् । जिसकी गणना अगुली पर को जा सकती है ! दुनिया में रत्न की परख रखनेवाले जौहरी भला कितने होंगे ? बहुत कम । उसो तरह आत्मसिद्धि के साधक कितने ? नहीवत् ! मोक्ष ? जहाँ शरीर नहीं, इन्द्रियाँ नहीं, इन्द्रियानुकूल भोगोपभोग नहीं, और विषयसुख की अभिलाषा में से उत्पन्न होनेवाले कषाय नहीं। व्यापार-वारिणज्य नहीं, संसार के बहुत बड़े वर्ग के मन में यह उलझन घर कर गई है कि, आखिर मोक्ष में क्या है ? वहाँ जाकर क्या करें? क्योंकि उन के पास मोक्ष के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान नहीं और ना ही मोक्ष-सुख की कोई वास्तविक कल्पना है । तब भला, मोक्षर्थी कैसे हो सकते ? ठीक वैसे ही लोकोत्तर... जिनेश्वरदेव-प्रणीत मोक्ष-मार्ग में भी कई जोव मोक्षार्थी नहीं होते । वे सब बीच के स्टेशन-स्वर्ग पर उतर जानेवाले होते हैं। जिनको मोक्ष की कल्पना भी न हो, ऐसे Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार लोग क्या मोक्ष-मार्ग पर चल सकते हैं ? आत्मविशुद्धि के अभिलाषी, लोकोत्तर मार्ग पर चलने वाले जीवों की संख्या मर्यादित ही होती है । लोकोत्तर-जिनभाषित मार्ग में भी लोकसंज्ञा सजाने से बात नहीं प्रातो । अन्य सज्ञानों पर नियंत्रण रखने वालों को भी यह अनादिकालीन संज्ञा सता सकती है । आहारांज्ञा पर काबू रखनेवाला तपस्वी जो मासक्षमण, अठ्ठाई, अठ्ठम....छठ्ठ उपवास अथवा वर्धमान आयंबिल तप का पाराधन करता हो... उस के भी यह लोकसंज्ञा पाडे आये बिना नहीं रहती । मैथुन-संज्ञा को वश में रख पूरी निष्ठा के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को भी लोकसंज्ञा पीडा पहुँचा के रहती है। परिग्रह संज्ञा को वशीभूत करने वाले अपरिग्रही महात्माओं को यह संज्ञा इशारों पर नचाती है । ऐसे कई उदाहरण इतिहास के पृष्टों पर अंकित हैं, जो लोकसंज्ञा की कहानी आप ही कहते नजर आते हैं। अरे, पुराने जमाने की बात छोड़ दो, आज के युग में भी ऐसे कई प्रसंग प्रत्यक्ष देखने में आते हैं । "मेरी तप-त्याग की आराधना, दान-शील की उपासना, परमार्थपरोपकार के कार्यों से अन्य जीवों को अवगत करू... आम जनता की दृष्टि में 'मैं बड़ा आदमो बनूं ।'... लोकजिह्वा पर मेरी प्रशंसा के गीत हो....।" यह लोकसंज्ञा का एक रुपक है । इस तरह लोक-प्रशंसा के इच्छुक धर्माराधक जीव अपनी त्रुटियाँ, क्षतियाँ और दोषों के छिपाने का हेतूपूर्वक प्रयत्न करता है। आमतौर से वह भयसंज्ञा से पीडित होता है ! "यदि लोग मेरे दोष जान लेंगे तो बड़ी बदनामी होगी।' सदैव यह चिंता उसे खाये रहती है । वह दिन-रात उद्विग्न-अन्यमनस्क और अशांत दृष्टिगोचर होता है | वास्तव में देखा जाए तो लोकसंज्ञा की यह खतरनाक कार्यवाही है । लौकिकमार्ग में तो उस का एकछत्री प्रभाव है ही, लोकोनर-मार्ग में भी कोई कम प्रभाव नहीं है । लोकसंज्ञा के नागपाश में फंसी आत्मा मोक्ष-मार्ग की आराधना करना भूल जाती है और अपने लक्ष्य को तिलांजलि दे देती है । इसीलिए तो ऐसो महाविनाशकारी लोक-संज्ञा का परित्याग करने के लिए भारपूर्वक कहा गया है । अतः जीव को हमेशा समझना चाहिए : 'हे आत्मन् ! ऐसा सर्वांग Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसंज्ञा-त्याग ३४१ संपूर्ण सत्य मोक्षमार्ग पाकर तुम्हें अपनी आत्मा को कर्म-बंधनों से मुक्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिये ।' यह हकीकत है कि लोकरंजन करने से तुम्हारी प्रात्मशुद्धि असंभव है । शायद तुम्हारी यह धारणा है कि 'याराधना के कारण विश्व के जीव मेरी जी भरकर प्रशंसा करते हैं !' वह तुम्हारा निरा अज्ञान है । क्योंकि पुण्यकर्मों के उदय से लोकप्रशंसा प्राप्त होती है । जब तक तुम्हारे पूर्वभव के कर्म सबल हैं तब तक ही हर कोइ तुम्हारी स्तुति करेंगे । एक बार अशुभ कर्मों का उदय हुअा नहीं कि ये ही लोग तुम्हारी तरफ देखेंगे तक नहीं ! तुमसे बढ़कर पुण्यशाली आत्मा मिलते ही वे सब एक स्वर से उसकी प्रशंसा करने में खो जाएँगे और तुम्हें हमेशा के लिये भूल जाएंगे । तुम्हारी आराधना से क्या मोक्ष-विमुख लोग खुश होंगे ? नहीं, इसके बजाय तो आराधना के बलपर तुम अपनी आत्मा को ही प्रसन्न करो। परमात्मा का प्रेम प्राप्त करो । मन में और कोई अपेक्षा न रखो ! वर्ना तुम कभी आराधना से विमुख हो जाओगे । जब तुम्हारी आराधनासाधना की कोई प्रशंसा नहीं करेगा, तब तुम्हारा मन आराधना से उचट जाएगा। लोकमंज्ञाहता हन्त नीचैर्गमनदर्शनैः ! शंसयति स्वसत्यांगमर्मघातमहाव्यथाम ॥६॥१६२॥ अर्थ :- खेद है कि लोकसंज्ञा से पाहत जीव, नतमस्तक मन्थर गति से चलते हुए अपने सत्य-व्रतरुप अंग में हुए मर्म प्रहारों की महावेदना ही प्रगट करता है। विवेचन : अफसोस....! तुम मन्थर गति से नतमस्तक हो चलते हो....! भला, किसलिए? इसके पीछे आखिर क्या हैतु है ? क्या तुम लोगों को यह दिखाना चाहते हो कि, "भूलकर भी किसी जीव की हिंसा न हो जाए, अतः हम यों चलते हैं । धर्मग्रंथों में प्रदर्शित विधि का पालन कर रहे हैं ! दृष्टि पर हमारा संयम है....इधर....उधर कभो ताकते-झांकते नहीं और हम उच्च कोटि के पाराधक हैं। लेकिन यह ढोंग क्यों ? निरे दिखावे से क्या लाभ ? तुम्हारा दंभ खुल गया है ! लोग तुम्हें जब उच्च कोटि का पाराधक नहीं कहते तब तुम्हारा चहेरा कैसा हतप्रभ और Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ज्ञानसार निस्तेज हो उठता है ? दूसरे प्राराधकों की प्रशंसा तुम्हें अच्छी नहीं लगती ! प्रसंगोपात उनकी निंदा और टोका-टिप्पणी करते हो ! तुम सदा-सर्वदा अपनी ही गुणगाथा सुनना पसंद करते हो । शायद लोकप्रशंसा पाने के लिए तुमने कमर कस रखी है । तप, व्याख्यान, शिष्य परिवार, मलिनवस्त्र और अपने वारणी-विलास से किसे आकर्षित करना चाहते हो ? शिवरमणी को ? नहीं, तुम सिर्फ लोगों को अपने भक्त बनाना चाहते हो और येन-केन प्रकारेण उन्हें खुश रखना चाहते हो। तुम धीरे-धीरे मन्थर गति से क्यों चल रहे हो ? तुम्हारे सत्य.... संयम आदि अंग पर मार्मिक प्रहारों की मार पडी है । उससे असह्य वेदना हई है....! लोकसंज्ञा ने तुम्हारे मर्मस्थान में प्रहार किया है ! इन प्रहारों की वेदना से गति धीमी न हो जाएं तो और क्या हो ? तुम नतमस्तक हो चलते हो ? क्या करें ? शायद लोकसंज्ञा की चकाचौंध से तुम्हारी दृष्टि चौंधिया गई हो और तुम्हें ऊपर देखने में कष्ट होता है ! वाकई, दुःख की बात है ! अफसोस है, तुम्हारा वह दम्भ देखा नहीं जाता; लेकिन इससे तुम्हें मुक्ति कैसे दिलाये ? सिवाय खेद प्रकट करने के अतिरिक्त कोई उपाय ही नहीं ! धर्म की आराधना और प्रभावना करते समय कभी प्रात्मा की विषय-कषायों से निवृत्ति स्मरण में रही है ? परमात्मा का शासन याद रहा है ? नहीं तो फिर क्या याद रखा है ? 'मैं....अहं!' तुम्हें सदा अपनी ही पड़ी रहती है ! तुम कठोर तपश्चर्या करते हो, जमकर क्रिया करते हो....। अगर उसमें मोक्ष और आत्मा को केन्द्र-बिंदू बना लो तो ? बेड़ा पार होते देर नहीं लगेगी ! अत कहता हूँ, अपनी आत्मा को पहचानो, उसकी स्वाभाविक और वैभाविक अवस्थाओं को जानने की कोशिश करो । मोक्ष के अनंत सुख और असीम शांति-हेतु हमेशा गतिशील रहो । यदि तुम अपना यह अंतिम लक्ष्य, उद्देश्य और आदर्श नहीं रखोगे तो विषय-कषायों में निरंतर वृद्धि होती रहेगी । संज्ञाएँ दिन-ब-दिन पूष्ट बनती जायेंगो । लोकसंज्ञा अनंत भवभ्रमण में फंसा देगी। कीर्ति की लालसा दिन दुगुनी और रात चौगुनी बढ़ती जाएगी.... और जब 'यशकोति' नामकर्म तुम्हारे पास शेष नहीं रहेगा, तब क्या करोगे ? Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसंज्ञा-त्याग ३४३ आजकल लोकोत्तर-मार्ग में भी लोक संज्ञा-प्रेमी अत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं । यह खेदजनक नहीं तो क्या है ? अनादि-काल से चले आ रहे जिनशासन की धुरा वहन करनेवाले ही जब लोकसंज्ञा की मोहक जाल में फंस जाते हैं, तब दूसरा मागे ही क्या रहा ? अतः उपाध्यायजी महाराज मर्म-प्रहार कर रहे हैं । आमतौर पर से लोकसंज्ञा-ग्रस्त जीव 'लोकहित' का बहाना करते हैं । यह भी कभी संभव है कि लोकहित, लोगों की आत्मा को समझे बिना ही कर सकें ? क्योंकि लोकसंज्ञाग्रस्त जीव हिताहित का निर्णय करने में कभी सक्षम-समर्थ नहीं होता । वह हित को अहित और अहित को हित का करार देते विलम्ब नहीं करेगा । उस के मन में जीव-मात्र के प्रात्म-कल्याण की भावना का सर्वथा अभाव होता है | वह प्रायः ऐसी ही प्रवृत्तियाँ करेगा कि जिसमें उसको यश मिलता होगा। और उसे 'लोकहित' का सुहाना लेबल लगा देगा । ऐसी परिस्थिति में एकाध जौहरी सदृश महामुनि ही अपने आप को बचा लेता है । अतः समग्र दृष्टि से लोकसंज्ञा का परित्याग करना ही हितावह है । आत्मसाक्षिकसद्धर्मसिद्धौ कि लोकयात्रया ! तत्र प्रसन्नचन्द्रश्च भरतश्च निदर्शने ॥७॥१८३॥ अर्थ :- ऐसा सद्धर्म कि जिसमें साक्षात प्रात्मा ही साक्षी हो, के प्राप्त होने पर भला लोक-व्यवहार का क्या काम है ? इसके लिए प्रसन्नचंद्र . राजर्षि और सम्राट भरत के उदाहरण यथोचित हैं । विवेचन : चक्रवर्ति भरतदेव ! प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र ! क्या तुम जानते हो, उन्हें केवलज्ञान कैसे प्राप्त हुआ? एक बार वे स्नानादि आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त हो,श्रेष्ठ वस्राभूषण धारण कर, स्वनिर्मित दर्पण-महल में नए थे । सिर्फ यह देखने के लिए कि, 'मैं कितना सुन्दर और सुशोभित लगता हूँ, इस रूप में !' दर्पण में अपना माहक मुख-मंडल और सुगठित अंग-प्रत्यंगों को अभी देख ही रहे थे कि सहसा अंगुली में से सुवर्ण-मुद्रिका नीचे गिर गयी ! मुद्रिकाविहीन अंगुली से शारीरिक शोभा में अन्तर पड गया । उन्हों ने एक एक कर सभी अलंकार उतार दिये पीर पुन: दर्पण में झांका । अलंकारविहीन शरीर का Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ज्ञानसार रूप-रंग ही बदल गया ! वे फ्ल, दो पल मन ही मन सोचते रहे : "क्या मेरी सुदरता, शोभा सिफ परपुद्गल ऐस वस्रालंकारो से हो है ?" और वे धर्म-ध्यान में खो गये । फलस्वरूप उसी दर्पण महल में वे शुक्लध्यान और केवलज्ञान के अधिकारी बन गये । गृहस्थ के रूप में ही केवलज्ञानो बन गये। इधर दर्पण-महल के बाहर राजकर्मचारी ओर दरबारी चक्रवर्ती भरत की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन दर्पण महल से बाहर निकले केवलज्ञानी भरत ! उन्हें आत्मसाक्षी ही केवलज्ञान प्राप्त हो गया था ! प्रसन्नचंद्र राजर्षि ! भयानक और वीरान स्मशान में वे ध्यानस्थ खडे थे। सिर्फ एक पाँव पर ध्यानस्थ । सूर्य की और स्थिर दृष्टि किये....अंग..प्रत्यंग को आत्म-नियंत्रित किये हुए। लेकिन राजमार्ग पर से गुजरते सैनिकों की वाणी सहसा उनके कानों पर आ टकरायी : "राजा प्रसन्नचंद्र के पुत्र का राज्य उसके चाचा हथियाने की ताक में है....।" बस, इतनो सो बात ! लेकिन प्रसन्नचंद्र राजर्षि का ध्यान भंग हो गया ! वे वैचारिक संघर्ष में उलझ गये । राजर्षि मानसिक युद्ध में कूद पडे । उनका युद्धोन्माद का ज्वर उतरने के बजाय निरंतर बढता ही गया । इधर श्रेणिक महाराज राजर्षि की घोर तपस्या और अभंग ध्यानावस्था पर मुग्ध हो उठे ! उन्हों ने उन्हें बार-बार वंदन किया लेकिन बाह्यदृष्टि से घोर तपश्चर्या में रत प्रसन्नचंद्र राजर्षि, यात्म-साक्षी से क्या तपस्वी थे ? नहीं, बिलकुल नहीं ! वास्तव में वे तपस्वी न थे, बल्कि सातवी नरक में जाने के कर्म इकट्ठा कर रहे थे ! ये दोनों उदाहरण कैसे हैं ? परस्पर विरोधी! चक्रवर्ति भरत बाह्य दृष्टि से प्रारम्भ-समारम्भ से युक्त संसार-रसिक दृष्टिगोचर होते थे! लेकिन आत्म-साक्षी से निर्लिप्त पूर्ण योगीश्वर थे। किसी ने ठीक ही कहा है : 'भरत जी मन में ही वैरागी.. !' जब कि प्रसन्नचंद्र राजर्षि बाह्यदृष्टि से घोर तपस्वी, प्रारम्भ-समारम्भ रहित, मोक्षमार्ग के पथिक थे.... लेकिन आत्म-साक्षी से युद्धप्रिय..बाह्य भावों में लिप्त थे। श्री 'महानिशीथ सुत्र' में कहा गया है : -धम्मो अप्पस क्खियो। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसंज्ञा-त्याग ३४५ धर्म आत्म-साक्षिक है। यदि हम आत्मसाक्षी से धार्मिक वृत्ति के हैं तो फिर लोक व्यवहार से क्या मतलब ? खुद ही अपने मुंह से 'मैं धार्मिक हूँ, मैं आध्यात्मिक हूँ....।" घोषणा करने की क्या आवश्यकता है ? अपितु प्रात्म-साक्षी से चिंतन-मनन करना चाहिए : "मैं धार्मिक हूँ ? अर्थात् शीलवान हूँ ? सदाचारी हूँ ? न्यायी हूँ ? नि:स्पृह हूँ ? निर्विकार हैं ?' इस का न्याय आत्मा से लेना चाहिए । भुल कर भी कभी लोगों के प्रमाण पत्र' पर निर्णय मत करो। महाराजा श्रेणिक ने प्रसन्नचंद्र राजर्षि को कैसा 'प्रमाण पत्र' दिया था! "उन तपस्वी ....महान योगी..सच्चे महात्मा' आदि। लेकिन उक्त प्रमाण पत्र के आधार पर प्रसन्नचंद्र राजर्षि को क्या केवलज्ञान प्राप्त हुआ ? नहीं, कतइ नहीं ! हाँ, मन ही अपने भाई के साथ युद्धरत प्रसन्नचंद्र के पास जब उसके हनन हेतु कोई शस्त्रास्त्र न रहा, तब मस्तक पर रहे मुगुट का उपयोग शस्त्ररूप में करने के लिए उन्होंने अपने हाथ ऊपर उठाये....लेकिन मस्तक पर मुगुट कहाँ था ? मस्तक पर एक बाल भी न था....! अतः ऊपर उठे दोनों हाथ के साथ-साथ वे खुद भी मानसिकयुद्ध भूमि से स्वस्थान लौट आये ! आनन-फानन में उन्हें अपनी भूल समझ में आ गयी । पश्चात्ताप की भावना उग्र होती गयी । इस तरह वे धर्म-ध्यान और शुक्लध्यान में दुबारा स्थिर हो गये और केवलज्ञानी बने ! धर्मोपासना के कार्य में लोकसाक्षी को प्रमाणभूत न मानो! प्रात्म-साक्षी को प्रमाण-भूत मानो! यदि लोक साक्षी को प्रमाणभूत मानने की भूल करोगे तो जाहिर में अपनी धर्म-भावना प्रदर्शित करने की कुबुद्धि सुझेगी....! फलस्वरूप तुम्हारा सारा दार-मदार संसार और संसारी- जीवों पर रहेगा ! आत्मा को विस्मृत कर जाओगे ! उसकी उपेक्षा करने लगोगे । तब आत्मोन्नति के लिए धर्मध्यान करने की भावना विलुप्त हो, लोक-प्रसन्नत्ता के लिए ही धर्माराधना होगी....। इस तरह अात्म--कल्याण का महान् कार्य बीच में स्थगित हो जाएगा, और तुम जन्म-मृत्यु के फेरों में भटक जाओगे। मोक्ष का सुहाना सपना छिन्न-भिन्न हो जाएगा.... । शिवपुरी का कल्पनामहल ध्वस्त होते देर नहीं लगेगी। पुनः चौरासी लाख जीव-योनि का परिभ्रमण अनिवार्य हो जाएगा। तब भला, लोक-साक्षी से धर्म-ध्यान करने से क्या Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ज्ञानसार मतलब ? इस के बावजूद धर्मकार्य में सदैव आत्म-साक्षी को प्रधान मान, मोक्ष-पथ पर गतिशील होना चाहिए । लोकसंशोझित: साधुः परब्रह्मसमाधिमान् । सुखमास्ते गतद्रोहममतामत्सरज्वर: ॥८॥१४८।। अर्थ : जिस के द्रोह-ममता और गुण-द्वेष रूपी ज्वर उतर गया है, और जो लोक सांज्ञा-रहित परब्रह्म में समाधिस्थ हैं, ऐसे मुनि सदा-सर्वदा सुखी रहते हैं। विवेचन : पूज्य गुरुदेव ! आप सुखपूर्वक रहें! आपके मन में भला, किस बात का दुःख है ? आप की तो परब्रह्म में समाधि होती है। आप के सुख को उपमा भी कौन सी दी जाएँ ? मन के दुःख तो होते हैं पामर जीव को ! जो द्रोह से दग्ध है, जिस के मर्मस्थानों में ममता दंश मारती है और जिसे मत्सर का दाहज्वर प्राकुल-व्याकूल बनाता है। आप के मन में तो द्रोह, ममता और मत्सर के लिए कोई स्थान ही नहीं ! आपके सुख और शान्ति की कोई सीमा नहीं ! श्रमण को सुख-प्राप्ति के चार उपाय सुझाये हैं : १. परब्रह्म में समाधि २. द्रोह-त्याग ३. ममता-त्याग ४. मत्सर-त्याग ब्रह्म का मतलब है संयम । संयम में पूर्ण लीनता ! संयम के सतरह प्रकार जानते हो....? पञ्चाश्रवाद विरमणं पंचेन्द्रियनिग्रह : कषायजयः । दण्ड त्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदश भेदः ।। -श्री प्रशमरति मिथ्यात्व, अविरति. कषाय, योग और प्रमाद, इन, पाँच प्राश्रवों से मुक्त बनो । अपनी पांच इन्द्रियों पर सदैव संयम रखो। क्रोध, मान, माया, लोभ-इन कषायों पर विजयश्री प्राप्त करो। मन, वचन, काया को अशुभ प्रवृत्तियों को लगाम दो। यही तुम्हारी सर्व-श्रेष्ठ समाधि है। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकसंज्ञा-त्याग ३४७ द्रोह को त्याग दो, किसी को धोखा मत देना । श्री जिनेश्वर भगवंत के शासन के साथ भूल कर भी कभी दगाबाजी न करना । सदैव निष्ठावान बने रहना। अपने शारीरिक सुख और शान्ति के लिए भगवान के शासन का कदापि परित्याग न करना। उन के सिद्धांत और नियमों का उल्लंघन न करना। तुम्हें भगवान महावीर का वेश प्राप्त है । तुमने उसे परिधान कर रखा है। ध्यान रहे, उसकी इज्जत न जाने पाए। इस वेश के कारण तुम्हें अन्न, वस्त्र, पात्र, पुस्तकादि सामग्री प्राप्त होती है। लोग तुम्हारे समक्ष नतमस्तक होते हैं । तुम्हारा मान-सन्मान करते हैं। अत: जीवन में साधुवेश का कभी द्रोह न करना। ममता को त्याग देना । सांसारिक स्वजन-परिजनों के प्रति रही ममता का परित्याग करना । भक्तजनों पर भूल कर भी ममत्व मत रखमा । तन-बदन उपधि और उपाश्रयादि बाह्य पदार्थों के लिए मन में रही ममता का त्याग करना ही इष्ट है। जब तक अन्य पदार्थों के प्रति ममत्व भावना जागृत रहेगी, तब तक आत्मा के प्रति ममत्व-भाव का सदैव अभाव रहेगा और अन्य पदार्थों के प्रति का ममत्व तुम्हें शांत और स्वस्थ नहीं रहने देगा। गुण के प्रति द्वेष-भाव नहीं रखना । मत्सर अर्थात् गुण-द्वष । गुण द्वष टालने के लिए गुणोजनों का द्वष न करना। सदैव ध्यान रहे, छद्मस्थ आत्माएँ भी गुण-शाली होती हैं । अनंत दोषों के उपरांत भी सिर्फ गुण ही देखने के हैं। गुणानुरागी अवश्य बनना, गुण-द्वषी नहीं । गुणवान के दोष देखने पर भी उसके द्वषी न बनना । द्वषी बनोगे तो तुम स्वयं अशान्त बन जाओगे। हाँ, जिन गुणों का तुम में पूर्णतया अभाव है, उन गुणों का दर्शन यदि अन्य आत्माओं में हो तो तुम्हें विनम्र भाव से उस का अनुमोदन करना है। यदि गुणद्वेषो बन किसी के दोपों का अनुवाद करोगे तो तुम कदापि सुख से रह नहीं सकोगे। तुम्हारा मन हमेशा के लिए प्रशांत, उद्विग्न और क्लेशयुक्त वन जाएगा। यदि तुम गुणवान् जीवों की निंदा टीका, टिप्पणी न करो तो नहीं चलेगा ? क्या निंदा करने से तुम्हारी महत्ता बढ जाएगी? क्या दोषानुवाद करने से तुम अपना प्रात्मोकर्ष कर पायोगे ? इस से - Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ज्ञानसार तुम्हारे अध्यवसाय शुद्ध-विशुद्ध हो जायेंगे ? क्यों व्यर्थ में ही अशांत और उद्विग्न बनने का काम कर रहे हो ? इस से कोई लाभ होनेवाला नहीं है। इस से तो बेहतर है कि तुम सदा-सर्वदा सतरह प्रकार के संयम से युक्त जीवन में मस्त बने रहो। द्रोह, ममता और मत्सर को गहरी खाई में फेंक दो। लोग भले ही उस में मस्त बन, आकंठ डूब कर, अपने आप को कृतकृत्य मानते हो, लेकिन तुम्हें उस का शिकार नहीं बनना है। कीचड़ में, गंदे-पानी के प्रवाह में सुअर लोटता है, हंस नहीं । सदा खयाल रहे, तुम हंस हो ! राजहंस ! ऐसी लोकसंज्ञा के भोग तुम्हें कदापि नहीं होना है ! अतः तुम्हारे लिए लोक संज्ञा का परित्याग श्रेयस्कर है । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. शास्त्र भौतिक सुख की विवशता और असांख्य दुःखों के भार से मुक्त ऐसे ऋषि, मुनि और महात्माओं ने शास्त्र लिखे हैं। सुयोग्य जीवों को शिक्षित-प्रशिक्षित किये और उन्होंने (जीवों ने) निर्वाणमार्ग का अवलम्बन किया ! ऐसे शास्त्रों का अध्ययन, मनन और परिशीलन ही मानसिक शांति और सुख प्रदान करता है ! शास्त्रों का स्वाध्याय ही सर्व दुःखों के भय से और सर्व सुखों की कामना से जीव को मुक्त करता है । अतः शास्त्रों, ग्रंथों को अपना जीवनसाथी और जीवनाधार बनाओ । उसके मार्गदर्शन को ही शिरोधार्य करो। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ज्ञानसार चर्मचक्षुभृतः सर्वे देवाश्चवधिचक्षुषः । सर्वतश्चक्षुषः सिद्धा: साधवः शास्त्रचक्षुषः ॥१॥१५॥ अर्थ :- सभी मनुष्य चर्म चक्ष को धारण करनेवाले हैं । देव अवविज्ञान रुरि चावाले है । सिद्ध केवलज्ञान-केवलदर्शनरुप चक्षुओं से युक्त , जबकि साधुजन शास्त्ररुपी चक्ष वाले हैं ! विवेचन : सभी प्राणियों को भले चर्म-चक्षु हों, वे भले ही उस से सृष्टि के समस्त पदार्थों का निरीक्षण करें....लेकिन तुम तो मुनिराज हो ! तुम्हारे चक्षु साक्षात् शास्त्र हैं ! तुम्हें जो विश्वदर्शन और पदार्थदशन करना है, वह शास्त्र-चक्षुत्रों के माध्यम से ही करना है। · देवी-देवता अवधिज्ञान रूपी चक्षुओं के धनी होते हैं। वे जो कुछ जानते अथवा देखते हैं, वह अवधिज्ञान रुपी अाँखों से हो । मुनिवर्य, तुम अवधिज्ञानी नहीं हो, अपितु शास्त्रज्ञानी हो....। तुम्हें जो कुछ जानना और देखना है, वह शास्त्र की आँखो से ही देखना और जानना है ! सिद्ध भगवंतों का एक नेत्र केवलज्ञान है और दूसरा केवल दर्शन! वे इन नयनों के माध्यम से ही चराचर विश्व का देखते हैं और जानते हैं ! जब कि मुनिराजों का शास्त्र हो चक्षु है । अतः सदैव अपनी आँखों को खुली रखकर ही विश्व-दर्शन करना, दुनिया सारी को जानना ! यदि आँखें बंद कर देखने जाओगे तो भटक जाओगे....। मूनि की दिनचर्या में २४ घंटे में से १५ घंटे शास्त्र-स्वाध्याय के लिए हैं ! ६ घंटे निद्रा के लिए रखे गये है, जबकि ३ घंटे अाहारविहार और निहार के लिए निश्चित हैं । शास्त्राध्ययन के बिना शास्त्रचक्षु खुलती नहीं। शास्त्र-चक्षु नयी खोलने की है। उसके लिए विनयपूर्वक सद् गुरूदेव के चरणों में स्थिर हो, शास्त्राभ्यास करना पडता है और अभ्यास करते हुए यदि किसी प्रकार की शंका-कुशंका मन में जन्मे तो उनके पास विनम्र बन अपनी शंका का निराकरण करना चाहिए। निःशंक बने शास्त्र-पदार्थों का विस्मरण न हो जाएँ अत: बार-बार उन का परावर्तन करना चाहिए । परावर्तन से स्मृति स्थिर बन जाती है । तब उन पर चितन, मनन करना चाहिए। शास्त्रोक्त शब्दों का अर्थ-निर्णय करना है। विभिन्न 'नयों' से उसका विश्लेषण करना है और रहस्य Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ तक पहुँचना है । ऐसा भी होता है कि एक ही शब्द अलग-अलग स्थान पर ग्रथं भेद प्रदर्शित करता है, उसे पूरी तरह से समझना चाहिये ! ठीक वैसे ही एक ही अर्थ सर्वत्र काम नहीं आता ! उसका निर्णय, तत्कालीन द्रव्य, क्षत्र और काल के माध्यम से करना चाहिए और तत्पश्चात् अन्य जोवों को उसका अर्थ-बोध कराने का कार्य आरम्भ करना चाहिए.. । शास्त्र परमात्मा जिनेश्वरदेव के धर्मशासन में किसी एक ग्रंथ अथवा शास्त्र का पठन-पाठन करने से तत्त्वबोध नहीं होता, ना ही कोई काम चलता है । अन्य धर्मों में, सारांश एकाध धमग्रन्थ में उपलब्ध होता है, जैसे : गीता, बाइबल और कुरान । लेकिन जैनधर्म का सार एक ही ग्रन्थ तक सीमित हो जाएँ इतना वह संक्षिप्त नहीं है । जैनधर्मप्रणित पदार्थज्ञान, जीवविज्ञान, खगोल और भूगोल, मोक्षमार्ग, शिल्प और साहित्य, ज्योतिषादि ज्ञान-विज्ञान इतना तो विस्तृत और विशाल - विराट है कि उस का संक्षेप किसी एक ग्रन्थ में समाविष्ट होना असंभव है । कई लोग जानना चाहते हैं कि भगवद् गोता, बाइबल और कुरान की तरह क्या जैनधर्म का भी कोई एक प्रमाणभूत ग्रन्थ है ? प्रत्युत्तर में उन्हें कहना पडता है कि जैनधर्म सम्बंधित ऐसा कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है । जैनधर्म का अध्ययन, मनन, और चिंतन करने के लिए व्यक्ति अपने जीवन का बहुत बडा भाग खर्च करे, व्यतीत करे, तभी इसकी गरिमा, ज्ञान और सिद्धांतो को समझ सकेगा । साधु-मुनिराज के पीछे धनोपार्जन, भवन-निर्माण, परिवार परिजनों की देख भाल आदि किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं होती । भारत की प्रजा .... उस में भी विशेष रूप से जैनसंघ, मुनि की सारो आवश्यकताओं की पूर्ति भक्ति भाव से करता है । अतः श्रमणों का एक ही कार्य रह जाता हैं पचमहाव्रतमय पवित्र जीवन जोना और शास्त्राभ्यास करना । इसके अतिरिक्त उन्हें किसी भी बात की चिंता नहीं, परेशानी नहीं । चमचक्षु की महत्ता से बढकर शास्त्र चक्षु की तेजस्विता का मूल्यांकन करना चाहिए । जितनी चिंता और सावधानी चर्मचक्षु के सम्बंध में बरती जाती है, उससे अधिक चिंता और सावधानी शास्त्र - चक्षु के सम्बंध में लेनी आवश्यक है । शास्त्र दृष्टि के प्रकाश में विश्व के पदार्थ स्वरुप का दर्शन होगा, भ्रांतियाँ के बादल बिखर जाएँगे और विषय - Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ज्ञानसार कषायों के विचारों से लिप्त चित्त को परम मुक्ति का साक्षात्कार होगा । इसलिए शास्त्र-चक्षु प्राप्त कर उसका जतन करो। पुरःस्थितानिवोधिस्तियगलाकविवर्तिनः ! सर्वान् भावानवेक्षन्ते ज्ञानिनः शास्त्रचक्षुषा ॥२॥१८६॥ अर्थ : ऊर्ध्व अधो एवं तिच्छा नोक में परिणत सर्व भावों को साक्षात् सम्मुख हो इस तरह, अपने शास्त्ररुपी चक्ष से ज्ञानी पुरुष प्रत्यक्ष देखते हैं । विवेचन :- चौदह राजलोक का शास्त्रदृष्टि से साक्षात्कार ! मानो चौदह राजलोक प्रत्यक्ष सामने ही न हो ! शास्त्रदृष्टि की ज्योतिकिरण ऐसी तो प्रखर, प्रकाशमय और व्यापक है ! उस में सर्व भावों का दर्शन होता है। ___शास्त्र-दृष्टि ऊपर उठती है तो समग्र ऊर्ध्वलोक का दर्शन होता है। यह सूर्य-चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, और तारागण...असंख्य देवी-देवता और देवेन्द्रों का ज्योतिष चक्र ! उस म उपर सौधर्म और इशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक, तत्पश्चात् ब्रह्मा, लांतक, महाशुक्र सहस्त्रार देवलोक । उस के उपर आनत और प्राणत, फिर आरण और अच्युत देवलाक ! क्या तुमने ये बारह देवलोक देखे हैं ? उस से भी उपर एक के बाद एक नवग्रेवेयक देवलोक को देखो ! अघोर न होकर, तनिक धीरज रखो। अब तुम लोकांत के निकट हो स्थित रमणीय प्रदेश का दर्शन करोगे । देखो उसे, यह 'पांच अनुत्तर' के नाम से सुविख्यात है! यहाँ से सिद्धशिला, जहाँ अनंत सिद्ध भगवंत विराजमान हैं, सिर्फ बारह योजन दूर है। सिद्ध भगवंतो को कैसा सुख है ? अक्षय, अनंत और अव्याबाध ! खैर, अभी तो इसके दर्शन से ही सतुष्ट होइए, इस का अनुभव करने के लिए तो तुम्हें अशरीरो होना होगा। ___अब जरा नीचे देखिए ! सम्हलना, कम्पायमान न होना! सबसे पहले नीचे रहे असंख्य व्यंतरों के भवनों का दर्शन करो.... और वनउपवन में-रमणीय उद्यानों में केलि-क्रोडा करते वाणव्यंतरों को देखा । ये सभी देव हैं, इन्हें 'भवनवासी' कहा जाता है। इससे भी नीचे उतरिए ! Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र ३५३ यह रही पहली नरक । इसे 'रत्नप्रभा' के नाम से पहचाना जाता है। इसके नीचे शर्कराप्रभा है ! तीसरी नरक वालुकाप्रभा है । चौथी नरक को देखा ? उफ ! कैसी भयानक, खौफनाक है ? उसे पंकप्रभा कहते हैं । पाँचमी नरक का नाम है धूमप्रभा । जबकि छठवीं तमःप्रभा और सातवीं महातमःप्रभा है। गाढा अंधकार है सर्वत्र । कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता। जीव आपस में मार-काट और खन की नदियाँ बहाते नजर आते हैं। न जाने केसी घोर वेदना....चोख...चित्कार... ! सिर फट जाए-ऐसा कोलाहल ! तुमने अच्छी तरह देखा न? नरक के जीव मरना चाहते हैं, लेकिन मर नहीं सकते । हाँ, कट जाएंगे, पाँवों के तले कुचल जाएगे, लेकिन मरेंगे नहीं ! जब तक आयुष्य पूरा न हो तब तक मृत्यु कैसी ? किसी तरह सडते-गलते भी निर्धारित अवधि पूरी करना है। इसे अधोलोक कहा जाता है। अब तुम जहाँ हो, उसी को ध्यान से देखो। इसे 'मध्यलोक' कहते हैं। शास्त्र-चक्षु के माध्यम से इसे भलीभाँति देखा जा सकता है। एक लाख योजन का जंबूद्वीप....उसके आस पास दूर-सुदूर तक दो लाख योजन परिधि में फैले 'लवण समुद्र' के इर्द-गिर्द है 'घातकी खंड !' इसका क्षेत्रफल चार लाख योजन है। उसके बाद कालोदधि समुद्र....पुष्कर द्वीप ....फिर समुद्र, फिर द्वीप, इस तरह मध्यलोक में असंख्य समुद्र और द्वीप फैले हुए हैं । अंत में 'स्वयंभूरमण समुद्र है। चीदह राज लोक की अद्भुत और अनोखी रचना देखी ? उस के सामने खड़े होकर यदि तुम उसे देखो तो उसका प्राकार कैसा लगेगा? जिस तरह कोई मानव अपने दो पाँव फैलाकर और दो हाथ कमर पर रखकर अदब से चपचाप खड़ा हो ! क्यों हबह ऐसा लगता है न? यह चौदह 'राजलोक' है ।* 'राजलोक' क्षेत्र का एक माप है !धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जावास्तिकाय, ये पांच द्रव्य शास्त्रदृष्टि से अच्छी तरह देखे जाते हैं । जब श्रुतज्ञान के क्षयोपशम के साथ अचक्षु दर्शनावरण का क्षयोपशम जुडता है, तब शास्त्रचक्षु खुलते हैं और विश्वदर्शन होता है । * दखिए परिशिष्ट Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार विश्वरचना, विश्व के पदार्थ और पदार्थो के पर्यायों का परिवर्तन.... आदि का चिंतन-मनन ही 'द्रव्यानुयोग'० का चिंतन है । द्रव्यानुयोग के चिंतन-मनन से कर्म-निर्जरा (क्षय) बहुत बड़े पमाने पर होती है। मानसिक अशुभ विचार और संकल्प ठप्प हो जाते हैं। परिणामस्वरुप विश्व में घटित अद्भुत घटनाएँ, अकस्मात एवं प्रसंगोपात उत्पन्न होनेवाले आश्चर्य, कुतूहल प्रादि भाव रूक जाते हैं। प्रात्मा स्थितप्रज्ञ बन जाती है। अतः हे मुनिराज ! तुम अपने शास्त्रचक्ष खोलो । साथ ही ये मुंद न जाएं, बंद न हो जाएं इसकी सदैव सावधानी रखो। शास्त्रचक्षु का दर्शन अपूर्व प्रानन्द से भर देगा। शासनात् त्राणशक्तेश्च बुधः शास्त्र निरुच्यते ! वचनं वीतरागस्य तत्तु नान्यस्य कस्यचित् ॥३॥१८७॥ अर्थ : हितोपदेश करने के साथ साथ उसकी रक्षा के सामर्थ्य से पडितगण 'शास्त्र' शब्द की व्युत्यत्ति करते हैं। अतः उक्त शास्त्र को वीतराग का वचन कहा जाता है। अन्य किसी का नहीं । विवेचन : वीतराग का वचन अर्थात् शास्त्र ! रागी और द्वषी व्यक्ति के वचन 'शास्त्र' नहीं कहलाते। ऐसा व्यक्ति कितना भी दिग्गज विद्वान् हो, कुशाग्र बुद्धि का धनी हो, लेकिन वीतराग-वाणी की अवहेलना कर स्वयं की कल्पना एवं मान्यतानुसार ग्रन्थों का आलेखन करता हो, उसे शास्त्र नहीं कहते । क्यों कि कोई भी शास्त्र क्यों न हो, वह प्रात्म-हित का उपदेश करता है । सभी जीवों की रक्षा-सुरक्षा का आदेश देता है। शब्दशास्त्र के अनुसार 'शास्त्र' शब्द के निम्नांकित दो अर्थ ध्वनित होते हैं : शासनसामर्थेन च संत्राणवलेनानवोन ! युक्तं यत् तच्छास्त्रं तच्चतत् सर्वविद्वचनम् ॥ -प्रशमरति 'शास्त्र वही है, जिसमें हितोपदेश देने का सामर्थ्य और निर्दोष जीवों की रक्षा की अपूर्व शक्ति हो, और वही सर्वज्ञ का वचन है, ० देखिए परिशिष्ट Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र वाणी है । सर्वज्ञ वीतराग की वारणी में उपरोक्त दोनों तथ्यों का समावेश है । उन की मंगलवाणी आत्म-हित का उपदेश प्रदान करती है और निर्दोष जीवों की निरंतर रक्षा करती है । राग-द्व ेष से उद्दंड चित्तवाले जीवों का सम्यग् अनुशासन करने वाले शास्त्र को नहीं माननेवाले मनुष्य को जरा पूछिए : ३५५ @ "आत्मा को चर्मचक्षु से देखने का प्राग्रही प्रदेशी राजा जीवित जीवों को चीर कर आत्मा की खोज कर रहा था, सजीव जीवों को लोहे की पेटी (बक्से) में बंद कर.... मौत के घाट उतारता था । ऐसे क्रूर और पैशाचिक प्रयोग करनेवाले प्रदेशी राजा को भला किसने दयालु बनाया ? केशी गरणधर ने ! जिन वचनों / शास्त्रों का आधार लेकर प्रदेशी का हृदयपरिवर्तन कर जीवरक्षक बनाया । @ श्रभिमान के मदोन्मत्त गजराज पर सवार इन्द्रभूति को किस ने परमविनयी, द्वादशांगी के प्रणेता एवं अनंत लब्धियुक्त बनाया ? @ भोगोपभोग एवं दुनिया के राग-रंग में खोये... परम वैभवशाली शालिभद्र को पत्थर की गर्म शिला पर सोकर अनशन करने का सामर्थ्य किसने प्रदान किया ? 4 दृष्टि में से विष का लावारस छिड़कते चंडकौशिक को किस ने शांत, प्रशांत और महात्मा बनाया ? @ अनेक हत्याओं को करनेवाले अर्जुनमाली को किस ने परम सहिष्णु और महात्मा बनने की प्रेरणा दी ? जिनशासन के इन ऐतिहासिक चमत्कारों को क्या तुम अकस्मात कहोगे ? श्रात्मा को महात्मा और परमात्मा बनानेवाली जिनवारणी के शास्त्रों की तुम अवहेलना कर सकोगे ? और अवज्ञा कर तुम क्या अपने दु:ख दूर कर सकोगे ? यस्माद् राग-द्वेषोद्धतचित्तान् समनुशास्ति स्द्धर्मे । सन्त्रायते च दुखाच्छास्त्रमिति निरुच्यते सदिः || - प्रशमरति Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार जिस इतिहास में शास्त्र द्वारा सर्जित अनेकविध चमत्कारों की बातें संग्रहित हैं, उस का अध्ययन-अध्यापन आज के युग में भला, कौन करता है ? उस के बजाय हिंसा, झुठ, चोरी, व्यभिचार, बलात्कार, परिग्रह और अशांति से छलकते इतिहास का पठन-पाठन आज के विद्यार्थियों को कराया जाता है । लेकिन अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की गंगा-जमुना बहाने वालों के इतिहास का स्पर्श तक करने में शर्म आती है ! असंख्य दुःखों को दूर कर, राग और द्वेष के औद्धत्य को नियंत्रित करनेवाले, साथ ही प्रात्मा का वास्तविक हित करनेवाले शास्त्रों के प्रति सन्मान को भावना अपनाने से ही मानव मात्र का आत्मकल्याण संभव __शास्त्र एवं शास्त्रकारों पर गालियों की बौछार कर मानव-समाजका सुधार करने की डिंगे हाँकना प्राधुनिक सुधारकों का एक-सूत्री कार्यक्रम बन गया है । ठीक वैसे ही, शास्त्र और शास्त्रप्रणेता वीतराग महापुरूषों के प्रति घणा और अपमान की भावना पैदा कर क्या नेता-अभिनेताओं के प्रति सन्मान की दृष्टि प्रस्थापित कर, मानवसमाज को सुधार रहे हो ? यह तुम्हारी कैसी अज्ञानदशा है ? वास्तव में वीतराग भगवंत के वचन/वाणी रुपी शास्त्रों को स्वदृष्टि बनानेवाला मानव ही आत्महित और परहित साधने में समर्थ है। शास्त्रे पुरस्कृते तस्माद वीतरागः पुरस्कृतः । पुरस्कृते नस्तस्मिन् नियमात् सर्वसिद्धयः ॥४॥१८॥ अर्थ :- शास्त्र का पुरस्कार करना मतलब वीतराग का पुरस्कार करना । और बीताग का पुरस्कार यानी निश्चित ही सर्व सिद्धि प्राप्त करना । विवेचन : शास्त्र वीतराग । जिसने शास्त्र माना उसने वीतराग का स्वीकार किया ! जिसने वीतराग को हृदय-मंदिर में प्रतिष्ठा की उसके साथ सर्व कार्य सिद्ध हो गये ! यह कैसी विडम्बना है कि शास्र का स्मरण हो और उस के Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र कर्ता का विस्मरण ? सरासर झूठ है। कर्ता का स्मरण अवश्य होगा। एक बार वीतराग को स्मृति पथ में ले आये कि समझ लो उन की सारी शक्ति तुम्हारी खुद की हो गयी । तब भला, ऐसा कौन सा कार्य है, जो वीतराग की अनंत शक्ति के सामने असाध्य है ? पूज्यपाद् हरिभद्रसूरिजी ने अपने 'षोडशक' ग्रन्थ में कहा है : अस्मिन हृदयस्थे सति हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनिन्द्र इति । हृदयस्थिते च तस्मिन् नियमात् सर्वार्थसिद्धयः ॥ "जब तीर्थंकर प्रणीत आगम हृदय में हो तब परमार्थ में तीर्थंकर भगवंत स्वयं हृदय में विराजमान हैं, क्योंकि वे उस के स्वतंत्र प्रणेता हैं। इसी तरह तीर्थकर भगवंत साक्षात् हृदय में हैं तब सकल अर्थ की सिद्धि होती ही है । जो कुछ बोलना, सोचना, समझना और चिंतन करना वह जिनप्रणीत आगम के आधार पर । "मेरे प्रभु ने इस तरह से सोचने, समझने और चिंतन करने का आदेश दिया है ।" यह विचार रोम-रोम में समा जाना चाहिए। क्षणार्ध के लिए भी जिनेश्वर भगवान का विस्मरण न हो....! वे (भगवंत) अचिंत्य चिंतामरिण-रत्न हैं । भवसागर के शक्तिशाली जलयान हैं ! एकमेव शरण्य हैं । ऐसे परमकृपालु, दयासिंधु करूणानिधि परमात्मा का निरंतर स्मरण शास्त्र-स्वाध्याय के माध्यम से सतत रहे। शास्त्र का स्मरण होते ही अनायास शास्त्र के उपदेशक परमात्मा का स्मरण होना ही चाहिए । जिनेश्वर भगवान का प्रभाव अद्भुत है। राग और द्वेष से रहित । परमात्मा, उनका स्मरण करनेवाले आत्मा को दुःख की दाहक ज्वाला से बचाते हैं ! चिन्तामणि रत्न में भला कहाँ रागद्वेष होता है ? फिर भी विधिपूर्वक पूजापाठ और उपासना कर ध्यान करने वाले की मनोकामना पूरी होती है । परमात्मा का आत्म-द्रव्य ही इतना प्रबल प्रभावी और शक्तिशाली है कि उनका नाम, स्थापना-द्रव्य और भाव से स्मरण करे तो निःसंदेह सर्व कार्य की सिद्धि होती है ! * चार निक्षेपों का स्वरुप परिशिष्ट में देखिए । - - Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ज्ञानसार जिनेश्वर भगवान के समरन का उत्कट उपाय शास्त्राध्ययन और शास्त्र-स्वाध्याय है ! शास्त्र-स्वाध्याय के माध्यम से जिनेश्वर भगवंत का जो स्मरण होता है, उनकी जो स्मति जागत होती है, एक प्रकार से वह अपूर्व और अद्भुत ही नहीं, उस में गजब की रसानुभूति होती है । "पागमं आयरंतेण अत्तणो हियवाखियो ।" तित्थनाहो सयंधुद्धो सवे ते बहुमन्निया ।। "तुम ने आगम का यथोचित आदर-सत्कार किया मतलब अात्महित साधने के इच्छुक एवं स्वयंबुद्ध तीर्थ करादि सभी का सन्मान-बहुमान किया है।" वैसे पागम का यथोचित मानसन्मान करने का सर्वत्र कहा गया है। परतु शास्त्र को सर्वोपरी मानना / समझना तभी संभव है जब आत्मा हित साधने के लिए तत्पर हो । जब तक वह इन्द्रियों के विषयसुखों के प्रति आसक्त हो, कषायों के वशीभूत हो और संज्ञाओं से बुरी तरह प्रभावित हो. तब तक शास्त्र के प्रति अभिरूचि नहीं होती, ना ही शास्त्रों का यथोचित आदरसत्कार संभव है। आज के वैज्ञानिक युग और भौतिकवाद के झंझावात में शास्त्राध्ययन की प्रवृत्ति एक तरह से ठप्प सी हो गई है। शास्त्र के अतिरिक्त ढेर सारा साहित्य उपलब्ध है कि जीव में शास्त्राध्ययन और वांचन की रुचि ही नहीं रहती । आबाल-वृद्ध सभी के समक्ष देश-परदेश की कथा, राजकथा, रहस्य कथा, तंत्र-मंत्रकथा, भोजनकथा, नारीकथा, कामकथा, इत्यादि से संबधित ढेर सारी पठनीय सामग्री प्रकाशित होती जाती है कि शास्त्रकथाएँ उन्हें नीरस और दकियानूसी खयालात की लगती हैं । शास्त्रकथाएँ सर्वदृष्टि से निरूपयोगी और बकवास मालूम होती हैं। लेकिन जो साधु है, श्रमण है, और मुनि है, उसे तो शास्त्राध्ययन द्वारा परमात्मा जिनेश्वरदेव की अचिंत्य कृपादृष्टि का पात्र बनना ही चाहिए । प्रदृष्टार्थेऽनुधावन्त: शास्त्रदीपं विना जडाः । प्राप्नुवन्ति परं खेदं प्रस्खलन्तः पदे-पदे ॥५॥१८६॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र ३५६ अर्थ :- शास्त्र रुपी दीपक के बिना परोक्ष अर्थ के पीछे दौडते अविवेकी मानव, कदम-कदम पर ठोकर खाते अत्यधिक पीड़ा और दुःख (क्लेश) पाते हैं ! विवेचन : जो प्रत्यक्ष नहीं है, कान से सूना नहीं जाता, आँखों से देखा नहीं जाता, नाक से सुधा नहीं जाता, जिह्वा से चखा नहीं जाता, और स्पर्श से अनुभव नहीं किया जाता...ऐसे परोक्ष पदार्थों का ज्ञान भला, तुम कैसे पा सकते हो ? न जाने कब से तुम भटक रहे हो ? कितनी ठोकरें खायी हैं ? कितनी पीडा और क्लेश सहना पडा है ? अरे भाग्यशाली, और कितना भटकोगे ? ऐसे परोक्ष पदार्थों में मुख्य पदार्थ है आत्मा । परोक्ष पदार्थों में महत्वपूर्ण पदार्थ है मोक्ष । ठीक वैसे ही परोक्ष पदार्थों में नरक, स्वर्ग, पुण्य, पाप, महाविदेहादि अनेक क्षेत्र... आदि अनेक पदार्थों का स्मावेश होता है । इन परोक्ष पदार्थों की अद्भुत सृष्टि का एकमेव मार्गदर्शक (Guide) है शास्त्र । परोक्ष पदार्थों को सही अर्थ में बतानेवाला दीपक है शास्त्र । बिना शास्त्ररूपी 'गाइड' के तुम इन परोक्ष पदार्थों की सृष्टि में भटक जाओगे और हेरान-परेशान हो जाओगे । तुम इस तथ्य को अच्छी तरह जानते हो कि अंधा मनुष्य अनजाने प्रदेश में भटक जाता है । और तब तुम उद्विग्न होकर कह उठोगे कि 'यह सब निरी कल्पना है !' शास्त्रों का स्पर्श किये बिना पाश्चात्य देशों की उच्चतम डिग्रियाँ प्राप्त कर विद्वान् कहलानेवाले और स्वयं को कुशाग्र बुद्धि के धनी समझने वाले मनुष्य, परोक्ष विश्व को मात्र कल्पना मान कर उस ओर दृष्टिपात भी नहीं करते ! लेकिन हे महामुनि ! तुम तो परोक्ष विश्व के अद्भुत रहस्य जानने-समझने के लिए प्रतिबद्ध हो। तुम्हें तो इन अगम-अगोचर के रहस्यों को जानना ही होगा । उसके लिए शास्त्रज्ञान का दीपक अपनाना ही होगा, अपने पास रखना हो होगा । अंधकार युक्त प्रदेश में विचरण करनेवाला अपने पास 'बेटरी' रखता ही है न ! किसी गड्ढे में पांव न पड़ जाए, कोई कांटा पैर में चुभ न जाए, किसी पत्थर से टकरा न जाए, अतः बेटरी को महत्वपूर्ण साधन समझ कर साथ में Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० रखता ही है । ठीक उसी तरह परोक्ष-पदार्थों की दुनिया में शास्त्र - दीप का प्रकाश फैलाती 'बेटरी' की गरज है ही, वर्ना अज्ञान के गड्ढे में पांव पड जाएगा, राग का कांटा पाँव को आर-पार बींध देगा श्रीर मिथ्यात्व की चट्टानों से अनायास ही टकराने की नौबत आ जाएगी ! अतः सदा-सर्वदा शास्त्रज्ञान का दीप साथ में रखो । " तत्र परोक्ष विश्व के रहस्यों का पता लगाना है न ? आत्मा, परमात्मा और मोक्ष की अपूर्व और अद्भुत सृष्टि का दर्शन करना है न आत्मा पर प्राच्छादित अनंत वर्मों के आवरण को उनकी जानकारी पाये बिना भला, कैसे हटा पाओगे ? कर्म - बंधनों को छिन्न-भिन्न कैसे कर सकोगे ? शास्त्र ज्ञान के दीप के बिना अनायास ही कर्म-बंधनों की तिमिराच्छन्न दुनिया में खो जाना पडेगा । ज्ञानसार हां, संभव है कि परोक्ष-पदार्थों की परिशोध में तुम्हें जरा भी दिलचस्पी न हो, उनकी प्राप्ति के लिए तुम्हारे में उत्साह न हो और परोक्ष-पदार्थों के भंडार को पाने के लिए आवश्यक हिम्मत तुम जुटा न पाते हो, तब शास्त्रज्ञान पाने की अभिरूचि तुम्हारे में कभी पैदा नहीं होगी । वास्तविकता तो यह है कि परोक्ष-पदार्थों को जानने, समझने और परखने के लिए रस प्रचुरता चाहिए । अदम्य उत्साह चाहिए, प्राणों पर दाव लगाकर दुर्धर्ष संघर्ष करने का साहस चाहिए। तभी शास्त्ररूप दीपक प्राप्त करने की इच्छा जगेगी न ? परोक्ष-पदार्थों का प्रमाण, स्थान, मार्ग, पर्वत-मालाएँ, नदियां, वन, उपवन... साथ ही आवश्यक साधन और सावधानी के बिना, परोक्ष-दुनिया का प्रवास भला कैसे संभव है ? इसके लिए आवश्यक है शास्त्रज्ञान ! हाँ, शास्त्रज्ञान की प्राप्ति का क्षयोपशम संभव न हो तो शास्त्रज्ञानी महापुरूषों का अनुसरण करना हितकर है । उन के आदेश और वाणी को शिरोधार्य करना । तभी तुम परोक्ष अर्थ के भंडार के निकट पहुँच पानोगे । अरे, द्राविड, वारिखिल्ल और पांडवों के साथ लाखों, करोंड़ो मुनि परोक्ष अर्थ के उच्चतम स्थान पर जा पहुँचे । किस तरह, जानते हो ? ज्ञानी महापुरूषों की सहायता से ! अतः मुनि के लिए शास्त्रज्ञान प्रावश्यक माना Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र ३६१ है, वह सर्वथा हेतुपूर्वक ही है ! क्योंकि मुनि तो परोक्ष-विश्व के अनन्य पथिक जो ठहरे । शद्धोञ्छाद्यपि शास्त्राज्ञानिरपेक्षस्य नो हितम् ! भौतहन्तुर्यथा तस्य पदस्पर्शनिवारणम् ॥६॥१६०॥ अर्थ : शास्त्रों की प्राजा की, अपेक्षा से रहित स्वच्छंदमति साधु के लिए शुद्ध भिक्षा वगैरह बाह्याचार भी हितकारी नहीं है, जैसे भौतमति की हत्या करने वाले को उनके पांवो को स्पर्श न करने की आज्ञा देना है। विवेचन : एक घना जंगल ! जंगल में भीलों की छोटी-बडी बस्तियाँ । उनका राजा भील्लराज । भील्लराज ने एक गुरू बनाये । उनका नाम भौतमति । भौतमति बाबा के पास एक सुन्दर छत्र था । वह मयुरपिच्छ का बना हुआ था । देखते ही मन को मोह ले ऐसा । उत्तम कारागिरी का वह एकमेव अद्भुत नमुना था। एक बार भील्लराज की पत्नी गुरु-दर्शन करने आयी, तो उसने बाबाजी का छत्र देखा ! मन ही मन वह ऊसे भा गया । उस ने भील्लरान से वह छत्र ला देने के लिए कहा। पत्नी-प्रेम में रंगा भील्लराज, बाबाजी के पास गया । "गुरुदेव ! आपका यह छत्र भील्ल-रानी के मन भा गया है ! अत: आप मुझे दीजिए !" उसने विनीत भाव से कहा ! "अरे पगले, यह कैसे संभव है ?" "क्यों नहीं गुरूदेव ?" "यह छत्र साधु-संतों के काम का है ! तुम्हारे कोई काम का नहीं ! फिर देकर क्या लाभ ?" "नहीं गुरुदेव, आपको देना तो पड़ेगा ही ! भील्ल-रानी के मन भा जो गया है ।" बाबाजी ने साफ मना कर दिया ! भील्लराज नाराज हो उठा । वह पाँव पटकता बस्ती में गया और अपने अन्य भील साथियों को इकट्ठा कर बोला : “जामो भौतमति Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार । बाबा का वध कर छत्र छिन लो !" साथी बाबाजी के मंदिर की दिशा में वेग से निकल पडे। वे अभी थोड़े ही दूर गये होंगे कि भील्लराज ने उन्हें आवाज देकर वापिस बुलाया और कहा: "ध्यान रहे, बाबाजी के पाँव-चरण पूज्य हैं, अतः उन पर वार न करना।" साथी, भील्ल राज की आज्ञा शिरोधार्य कर निकल पडे ! बाबाजी विश्राम कर रहे थे। उन्होंने दूर से ही उन्हें लक्ष्य बनाकर तीरों की बौछार कर दी । गुरु देव को छलनी-छलनी कर दिया और छत्र लेकर भील्लराज के पास लौट आये ! "गुरुदेव का चरणस्पर्श नहीं किया न?" "नहीं, हमने उन्हें दूर से ही तीरों की बौछार कर बींध दिया । चरणों पर वार करने का प्रसंग ही न आया।" जरा सोचो तो, भील्लराज की यह कैसी गुरु भक्ति ? शास्त्राज्ञा का उल्लंघन कर, भले ही तुम ४२ दोषों से रहित भिक्षा ग्रहण करो, अथवा किसी निर्दोष बस्ती में वास करो। पांच महाव्रतों का कठोरतापूर्वक पालन करो, लेकिन जिनाज्ञा का उल्लंघन किया, यानी प्रात्मा की ही हत्या कर दी। प्रात्मा का ही हनन कर देने पर वाह्याचारों का पालन करने का क्या अर्थ? जिनाज्ञा-निरपेक्ष रह, पालन किये गये बाह्याचार आत्मा का हित साधने के बजाय अहित ही करते हैं। अत: जिनाज्ञा का परिज्ञान होना जरूरी है। इसका अर्थ यदि कोइ मुनि यूं ले लें कि, "हमें शास्त्र-स्वाध्याय करने की क्या आवश्यकता है? हम तो बयालीस* दोषरहित भिक्षा ग्रहण करेंगे ! महावतों का निष्ठापूर्वक पालन करेंगे। प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि क्रियाँए नियमित रूप से करते रहेंगे । आयंबिल, उपवासादि तपस्या करेंगे।" तो वह सरासर गलत और सर्वथा अनुचित है । ऐसी मान्यता रखनेवाले और तदनुसार आचरण करने वाले मुनियों को सम्बोधित कर यहाँ कहा गया है : 'हे मुनिराज ! बाह्य-आचार कभी प्रात्महित नहीं करेंगे। जिनाज्ञानुसार तुम्हारा व्यवहार नहीं है, आचरण नहीं है, यह सबसे बड़ा दोष है, अपराध है।" बयालीश दोष प-िशिष्ट में देखिए ! Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान काल में जिनाज्ञा कुल ४५ आगमों में संकलित और संग्रहित है। वह इस तरहः ११ अंग+१२ उपांग+६ छेद+४ मूल + १० पयन्ना +२ नंदीमूत्र और अनुयोगद्वार-कुल ४५ मूल सूत्र हैं। उन पर लिखी गयीं चूर्णियाँ, भाष्य, नियुक्तियाँ और टीकाएँ ! इस तरह पंचांगी आगमों का अध्ययन-मनन और चिंतन करने से जिनाज्ञा का बोध हो सकता है। मात्र मूल सूत्रों को केन्द्रबिन्दु बनाकर स्व-मतानुसार उसका अर्थ निकालने वाला जिनाज्ञा को हर्गिज समझ नहीं सकता ! ठीक वैसे ही, ४५ प्रागमों में से कुछ प्रागम माने और कुछ नहीं मानें, उसे भी जिनाज्ञा का परिज्ञान नहीं हो सकता। पंचांगी आगम के अलावा श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरि, श्री ऊमास्वाति वाचक, श्री हरिभद्रसरिजी, श्री हेमचद्रसरिजी, श्री वादिदेवसूरिजी, श्री शांतिसूरिजी, श्री विमलाचार्य. श्री यशोदेवसृरिजी, उपाध्याय श्री यशोविजयजी आदि महषियों के मौलिक शास्त्र-ग्रन्थों का अध्ययन पठन और चिंतन-मनन करना परमावश्यक है । ईन पूर्वाचार्यों ने जिनाज्ञा को अपनी अनूठी शैली और तार्किक वाणी के माध्यम से उस में रहे रहस्यों को अधिकाधिक मात्रा में उजागर करने का प्रयत्न किया जिनाज्ञा की ज्ञान-प्राप्ति कर किया हुमा आचारपालन सदा-सर्वदा प्रात्महितकारी है। जिनाज्ञा-सापेक्षता सदैव कर्म-बंधनों का नाश करती है। 'मैं अपनी हर प्रवृत्ति जिनाज्ञानुसार करूँगा।' यह भाव प्रत्येक मुनि/ श्रमण के मनमें दृढ होना जरुरी है । प्रज्ञानाऽहिमहामंत्रं स्वाच्छन्द्यज्वरलङ्गनम ! धर्मारामसुधाकुल्यां शास्त्रमाहुमहर्षय : ।।७।। १६१॥ अर्थ : ऋषिश्रेष्ठों ने, शास्त्र को प्रज्ञान रुपी सर्प का विष उतारने में महामत्र समान, स्वच्छंदता रुपी ज्वर को उतारने में उपवास समान और धर्म रुपी उराधन में अमृत की नीक समान कहा है । विवेचन : कहा गया है कि -सर्पका विष महामंत्र उतार देता है। * ४५ पागम परिशिष्ट में देखिए ! Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ - उपवास करने से ज्वर / बुखार उतर जाता है । - पानी के सतत छिड़काव से उद्यान हराभरा रहता है । ज्ञानसार किसी साँप का जहर तुम्हारे अंग-अंग में फैल गया है, यह तुम जानते हो ? तुम विषम ज्वर से पीडित हो, इस का तुम्हें पता है ? तुम्हारा उद्यान जल बिना उजड गया है, इसका तुम्हें तनिक भी खयाल है ? और इसके लिए तुम किसी महामंत्र की खोज में हो ? किसी औषधि की तलाश में हो ? कोई पानी की नीक अपने उद्यान में प्रवाहित करना चाहते हो ? तब तुम्हें नाहक हाथ-पाँव मारने की जरूरत नहीं । इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं,.... चिंता और शोक से भयाकुल होने का कोई कारण नहीं ! तो क्या तुम निदान कराना चाहते हो ? कोई बात नहीं ? आयो इधर बैठो और शांत चित्त से सुनो : 'तुम्हें प्रज्ञान नामक 'सर्प' का विष चढ गया है । तुम्हें स्वच्छंदता का ज्वर हो आया है.... और पिछले कई दिनों से आ रहा है । सच है ना ? तुम्हारा 'धर्म' नामक उद्यान उजड रहा है न ? यदि तुम्हें निदान सच लगे तोही औषधि लेना । खयाल रहे, जैसा निदान सही है वैसे उसके उपचार भी जवरदस्त हैं, नकसीर और रामबाण हैं । शास्त्ररूपी महामंत्र का जाप करिए, शिघ्र ही अज्ञान - सर्प का जहर उतर जाएगा ! 'शास्त्र' नामका उपवास कीजिए, बुखार दुम दबाकर भाग खड़ा होगा और 'शास्त्र' नाम की नीक को खुला छोड़ दीजिए, धर्मोद्यान नवपल्लवित होते देर नहीं लगेगी । लेकिन सावधान ! एकाध दिन, एकाध माह.. एकाध वर्ष तक शास्त्र का स्वाध्याय-जाप करने मात्र से प्रज्ञान रुपी साँप का जहर नहीं उतरेगा । आजीवन ... ग्रहर्निश शास्त्र जाप करते रहना चाहिए । स्वच्छंदता का ज्वर दूर करने के लिए नियमित रुप से शास्त्र स्वाध्याय रुप उपवास करने होंगे । यह कोई मामूली ज्वर नहीं है, तुम्हारे अंग-प्रत्यंग में वह बुरी तरह से समा गया है ! अतः उसे दूर करने के लिए अगणित Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र उपवास और कठोर तपश्चर्या का आधार लेना होगा। उसी तरह उजड़ते धर्मोद्यान को हरा-भरा रखने के लिए सदैव 'शास्त्र' की नीक को निरंतर खुला रखना होगा, वर्ना उसे सूखते / वीरान होते पल की भी देरी नहीं लगेगी। शास्त्राध्ययन क्यों आवश्यक है, इसे तुमने अच्छी तरह समझ लिया न ? यदि इन तथ्यों को परिलक्षित कर शास्त्राध्ययन और शास्त्र-स्वाध्याय शुरु रखोगे तो निःसंदेह तुम्हारी यात्मा का कायाकल्प ही हो जाएगा। जहर के उतर ने, ज्वर के कम होने और धर्मोद्यान को फूला-फला देखकर तुम्हें जो आहूलाद और आनंद होगा, उसकी कल्पना करें! उद्यान के नवपल्लवित होने से तुम्हारा दिलो-दिमाग बागबाग हो उठेगा, सारा समाँ हँसता-खेलता नजर आएगा ! जब तुम विषरहित निरोगी बन धर्मोद्यान में विश्राम करोगे तब तुम्हें देवेन्द्र से भी अधिक अानन्द प्राप्त होगा! हाँ, जब जहर सारे शरीर में फैल गया हो, ज्वर से तन-बदन उफन रहा हो, तब तुम्हें उद्यान में सुख और शांति नहीं मिलेगी। फलस्वरूप, उसकी रमणीयता भी तुम्हें प्रसन्न नहीं करेगी, सुगंधित पुष्प तुम्हें सुवासित नहीं कर सकेंगे, ना ही उद्यान तुम्हें आहुलादित कर सकेगा । इसीलिए 'शास्त्र' कि जिसका अर्थ स्वयं तीर्थकर भगवंतों ने बताया है, जिसे श्री गणधर भगवंतों ने लिपिबद्ध किया है, और पूर्वाचार्यों ने जिसके अर्थ को लोकभोग्य बनाया है, का निरंतर-नियमित. रुप से चिंतन-मनन करना चाहिए। शास्त्र-स्वाध्याय अपने आप में व्यसन रुप बन जाना चाहिए। उसके बिना साँस लेना मुश्किल हो जाए। सब कुछ मिल जाए, लेकिन जब तक शास्त्र-स्वाध्याय नहीं होगा तब तक कुछ नहीं। ठीक उसी तरह जैसे-जैसे शास्त्रस्वाध्याय बढता जाय वैसे-वैसे प्रज्ञान, स्वच्छंदता और धर्महीनता की वृत्ति नष्ट होती जायेगी। अत: तुम्हें सदा खयाल रहे कि इसो हेतूवश शास्त्र-स्वाध्याय करना परमावश्यक है। शस्त्रोक्ताचारकर्ता च शास्रज्ञः शास्त्रदेशक : ! शास्त्रोकहा महायोगी प्राप्नोति परमं पदम् ।।८।।१६२।। अर्थ : शास्त्र प्रणीत प्राचार का पालनकर्ता, शास्रों का ज्ञाता, ज्ञास्त्रों का उपदेशक और शास्त्रों में एकनिष्ठ महायोगी परमपद पाते हैं । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार विवेचन : महायोगी ! शास्त्रों के ज्ञाता होते हैं, उसका उपदेश देनेवाले होते हैं और उस में प्रतिपादित प्राचारों को स्व-जोवन में कार्यान्वित करने वाले होते हैं। जिसके जीवन में इस प्रकार त्रिवेणी का संगम है, वह महायोगी कहलाता है। और इन तीन बातों की एकमेव कुंजी है शास्त्रदृष्टि । बिना इसके, शास्त्रों को समझना और जानना असंभव है ! फलतः उपदेश देना और शास्त्रीय जीवन जीने का पुरुषार्थ कदापि नहीं होगा। महायोगी बनने की पहली शर्त है शास्त्रदृष्टि । नजर शास्त्रों की ओर ही लगी रहनी चाहिए। स्वयं आचार-विचार-वृत्ति और व्यवहार का विलीनीकरण शास्त्रों में ही कर देना चाहिए । शास्त्र से भिन्न उन की वाणी नहीं और विचार नहीं । शास्त्रीय बातों से अपनी वृत्ति और प्रवृत्तियों को भावित कर दी हो, विचार मात्र शास्त्रीय ढांचे में ढल गये हो, और मन ही मन दृढसंकल्प हो गया हो कि "शास्त्र से ही स्व और पर का आत्महित संभव है ।" अर्थात महायोगी ऐसी हीतकारी शास्त्रीय बातों काही उपदेश करें। शास्त्रनिरपेक्ष होकर जन-मन को भाने वाले शास्त्र-विरोधो उपदेश देने की चेष्टा न करें। आमतौर से सामान्य जनता की अभिरूचि शास्त्रविपरीत ही होती है, फिर भी महायोगी/ महात्मा जनाभिरुचि-पोषक शास्त्र-विरुद्ध उपदेश देने का उपक्रम न करें। अहितकारी उपदेश श्रमणश्रेष्ठ कदापि न दें। वह खुद का हित भी शास्त्रों के मार्गदर्शन के अनुसार ही साधने का प्रयत्न करें । जीवन की वृत्ति और प्रवृत्ति के लिए शास्त्रों का मार्गदर्शन उपलब्ध है । छोटी-बडी प्रवृत्तियाँ किस तरह की जाए इसके सम्बध में शास्त्र में स्पष्ट निर्देश दिये गये हैं । साथ ही, सरल सुगम और सुन्दर विधि का भी नियोजन किया गया है । मुनिराज उसे अच्छी तरह आत्मसात् करें और तदनुसार अपना जीवन जीये। प्रसगोपात सुपात्र को इसका उपदेश भी दें ! जिसे मोक्ष-मार्ग की आराधना करनी हो, आत्मा के वास्तविक स्वरुप को जिसे प्रगट करना हो, उसे शास्त्र का यथोचित आदर करना ही होगा । शास्त्र भले ही प्राचीन हो, लेकिन वे अर्वाचीन की भांति नित्य नया संदेश देते हैं। जिसे आत्महित साधना है, उस के लिए सिवाय Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र ३६७ शास्त्र, दूसरा काई मार्ग नहीं है । लेकिन, जिसे लौकिक जोवन ही जीना है और आत्मा, माक्ष, परलाक आदि से कोई सरोकार नहीं है, ऐसे विद्वान्,बुद्धिमान, कलाकौशल्य के स्वामि और राष्ट्रनेता भले ही शास्त्र की तनिक भी परवाह न कर ! शास्त्रों को सरेआम अवहेलना करें. उन के और तुम्हारे पादर्श भिन्न हैं, उस में जमीन-पास्मान का अन्तर है । हे मुनिवर, तुम्हें तो शास्त्राधार लेना ही होगा । यही तुम्हारे लिए सर्वथा श्रेयस्कर और उपयुक्त है । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. परिग्रह-त्याग परिग्रह ! बाकइ इस 'ग्रह' का प्रभाव सकल विश्व पर छाया हुआ है! आश्चर्य इस बात का है कि मानव अन्य ग्रहों के शिकंजे से मुक्त होने के लिए आकुल-व्याकुल है, जबकि इसकी प्राप्ति के लिए जमीनआसमान एक कर देता है । मानवमात्र पर इसका कितना जबरदस्त असर है- यह तुम्हें जानना ही होगा । दिल को कंपायमान करने वाली और धन-मूर्छा को कंपायमान करने वाली परिग्रह की अजीबोगरीब बातें पढकर तुम्हें एक नयी दिव्य दृष्टि प्राप्त होगी । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह-त्याग न परावर्तते राशेर्वक्रतां जातु नोज्झति । परिग्रहग्रहः कोऽयं विडम्बितजगत्त्रयः ॥१॥१६३॥ अर्थ :- न जाने परिग्रहरूपी यह ग्रह कोसा है, जो राशि से दुबारा लौट नीं आता, कभी वक्रता का परित्याग नहीं करता और जिसने त्रिलोक को विडंबित किया है ? विवेचन : सौ...दो सौ, हजार....दो हजार, लाख.... दो लाख, कोटि.... दो कोटि, अरब....दस अरब ? अंक के बाद अंक बढ़ते ही जाते हैं। पलटकर देखने का काम नहीं । वाकई 'परिग्रह' नामक ग्रह ने प्राणी मात्र के जन्म-नक्षत्र को चारों प्रोर से घेर लिया है । उस के उत्पात, तृष्णा और व्याकुलता को कभी देखा है ? यदि तुम इस पापी ग्रह के असर तले होंगे तो निःसंदेह उन उत्पातों को, तृष्णा को और व्याकुलता को समझ नहीं पाओगे । नदी के तीव्र प्रवाह में बता मानव अन्य को डूबते नहीं देख सकता, बल्कि तट पर खड़े लोग ही उसकी वेदना, विह्वलता और असहाय स्थिति समझ सकते है । 'परिग्रह' ग्रह से मुक्त महापुरूष ही उसे देख सकते हैं कि इस ग्रह की सर्वभक्षी जाल में फंसे जीव किस कदर तडपते हैं, छटपटाते हैं | धन-संपत्ति एवं वैभव के उत्तुंग शिखरों पर आरोहण करने के लिए प्रयत्नशील मानव को संबोधित कर पूज्य उपाध्यायजी महाराज कहते हैं : 'हे जीव ! तुम इस निरर्थक प्रयत्न का परित्याग कर दो। आज तक कोई मानव अथवा देव-देवेन्द्र भौतिक संपत्ति के शिखर पर लाख प्रयत्नों के बावजद भी पहँच नहीं पाया है। कोई उसके शिखर पर पहँच ही नहीं पाता....वह पनन्त है । दूर के ढोल हमेशा सुहावने होते हैं । अतः तुम उसकी बुलंदी पर पहुँचने के अरमान दिल से निकाल दो। व्यर्थ की विडंबना क्यों मोल लेते हो ? __अरे, तुम उसकी वक्रता तो देखो । वह हमेशा जीव की इच्छा के विपरीत ही चलता है । जिसके हृदय में वैभव का जरा भी मोह नहीं, उसके इर्द-गिर्द थी और संपत्ति की अभिनव दुनिया खडी हो जाती है । जब कि जो यश और संपदा के लिए निरंतर छटपटाता है अधीर Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० और आतुर है, उस से वह लाखों योजन दूर रहती है । परिग्रह ही मानव की उदात्त भावनाओं को भस्मीभूत करता है.... विवेक का विलीनीकरण करता है । फलतः मानव वक्रगति का पथिक बन जाता है... सरल चाल कभी चलता नहीं । त्रिलोक को सदा-सर्वदा अशांत और उद्विग्न करने वाले परिग्रह नामक ग्रह का आजतक किसी खगोलशास्त्री ने संशोधन किया ही नहीं । उसके व्यापक प्रभावों का विज्ञान खोजा नहीं गया है । अलबत्ता, इस की वास्तविकता को आज तक सिर्फ सर्वज्ञ परमात्मा ही जान पाये हैं । अतः उन्होंने इसकी भीषणता / भयानकता का वर्णन किया है । असंतोषमविश्वासमारंभं दुःखकारणम् । मत्वा मूर्च्छाफलं कुर्यात, परिग्रह नियंत्ररणम् ॥ ज्ञानसार - योगशास्त्र परिग्रह अर्थात् मूर्च्छा... गृद्धि.... आसक्ति | इसका फल है : असंतोष, अविश्वास और आरंभ समारंभ | मतलब, दुःख, कष्ट और अशान्ति । अतः सदैव परिग्रह का नियंत्रण करना आवश्यक है । त्रिभुवन को अपनी अंगुलियों के इशारे पर नचाने वाले इस दुष्ट ग्रह को उपशान्त किए बिना जीव के लिए सुख-शान्ति असंभव है । सगर चक्रवर्ती के कितने पुत्र थे ? कुचिकर्ण के यहाँ कितनी गायें थी ? तिलक श्रेष्ठि के भंडार में कितना अनाज था ? मगध सम्राट नंदराजा के पास कितना सोना था ? फिर भी उन्हें तृप्ति कहाँ थी ? मानसिक शान्ति कहाँ थी ? वैसे परिग्रह की वृत्ति द्रव्योपार्जन, उसका यथोचित संरक्षण श्रौर संवर्धन कराने प्रवृत्तियाँ कराती है । इस से परपदार्थों के प्रति ममत्व दृढ़ होता जाता है । परिणाम स्वरूप एक ओर धार्मिक क्रियायें संपन्न करने के बावजूद भी आत्मभाव निर्मल.... पवित्र नहीं हो पाता । तामसभाव और राजसभाव में प्रायः बाढ आती ही रहती है । कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने बताया है कि 'दोषास्तु पर्वतस्थूलाः प्रादुष्यन्ति परिग्रहे । ' परिग्रह के कारण पहाड़ जैसे बड़े और गंभीर दोष पैदा होते हैं । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह-त्याग ३७१ उससे अाजित मानव पिता की भी हत्या करते नहीं हिचकिचाता, सदगुरु और परमात्मा की अवहेलना करते पीछे नहीं हटता, मुनि-हत्या करते नहीं घबराता । ठीक वैसे ही असत्य बोलते, चोरी करते नहीं रुकता । धन-धान्य, संपत्ति-वैभव, परिवार, भवन और वाहन आदि सब परिग्रह है। आत्मा से भिन्न पदार्थों के लिए मूर्छा-ममत्व परिग्रह कहलाता है । अतः परिग्रहपरित्याग किए बिना प्रात्मा प्रशान्त नहीं बनती । परिग्रहगहावेशाद, दर्भाषितरज:किराम । धुयन्ते विकृता: किं न प्रलापा लिडि गनामपि ॥२॥१६४॥ अर्थ :- परिग्रह रुपी ग्रह के प्रवेश के कारण उत्सूत्रभाषण रुपी धूल सरे श्राम उडाने वाले वेशधारी लोगों की विकारयुक्त बकवास . तुम्हें सुनायी नहीं दे रही हैं ? विवेचन : धन-संपत्ति और बंगला-मोटर आदि अतुल वैभव में गले तक डबे और परिग्रह के रंग में रंगे हुए सामान्य गृहस्थों की बात तो छोड़ दीजिए, लेकिन जिन्हों ने सर्वदृष्टि से बाह्य परिग्रह का परित्याग कर दिया है, जो त्यागी, तपस्वो, मुनिवेशधारी हैं और आत्मानन्द की पूर्णता के राजमार्ग का अबलवन लिया है. ऐसे महापुरुष परिग्रह के रग में रंगे दृष्टिगाचर हो, तब भला ज्ञानी पुरुषों को खेद नहीं होगा तो क्या होगा ? मुनि और परिग्रह ? परिग्रह के बोझ को आनन्द से ढोता मुनि, मुनि-जीवन के कर्तव्यों से भ्रष्ट होता है । महाव्रतादि के पुनीत पालन में शिथिल बनता है और जिनमार्ग की आराधना के आदर्श को कलंकित करता है । ज्ञान और चारित्र के विपुल साधनों का संग्रह करने के उपरांत भी जिस मुनि को यह मान्यता है कि 'मैं जो भी कर रहा है, सर्वथा अयोग्य है और मैं परिग्रह के पापमय बहाव में बहा जा रहा हूँ।' ऐसा मुनि भूलकर भी कभी दूसरों को परिग्रह के मार्ग पर चलने का प्रोत्साहन नहीं देगा । ठीक वैसे ही 'परिग्रह के माध्यम से अपना गौरव नहीं बढेगा ।' ऐसा मानने वाला मुनि, उसका अनुकरण एव अनुसरण करने वाले अन्य मुनियों के कान में धीरे से कहेगा : "मुनिजन, आप Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ज्ञानसार इस झंझट में कभी न फँसना । मार्ग-भ्रष्ट न होना । मैं तो इस के कीचड में सर से पाँव तक सन गया हूँ, लेकिन तुम हर्गिज न सनना, बल्कि सदा-सर्वदा निर्लेप रह आराधना के मार्ग पर गतिशील रहो ।" लेकिन जो साधु अपना आत्मनिरोक्षण नहीं करता है, ना ही अपनो त्रुटियों को समझता है....वह निःसन्देह खुद तो परिग्रह का बोझ ढ़ोने वाला कुलो बनेगा हो, साथ में अन्य मुनियों को भी परिग्रही वनने के लिए उकसायेगा । उसका उपदेश मार्गानुसारी नहीं, अपितु उन्मार्गपोषक होगा । वह कहेगा : "हम तो सदा अपने पास सम्यग् ज्ञान के साधन रखते हैं.... सम्यक् चारित्र के उपकरणों से युक्त हैं । हम भला कहाँ कंचन-कामिनी का संग करते हैं ? फिर पाप कैसा ? साथ ही, जो हमारे पास है, उसके प्रति हममें ममत्व की भावना कहाँ है ? ममत्व होगा, तभो परिग्रह !" इस तरह अपना बचाव करते हुए, 'ऐसा परिग्रह तो रखना चाहिए,' का निश्शंक उपदेश देगा । उपदेश द्वारा लाखों को संपत्ति इकट्ठी कर, और उस पर अपना अधिकार प्रस्थापित कर उक्त रकम किसी भक्त की तिजोरी में बन्द रखना, क्या परिग्रह नहीं है ? उपाश्रय, ज्ञानमंदिर, पौषधशाला और धर्मशाला निर्माण हेतु उपदेश के माध्यम से कराड़ों रूपये खर्च करवाकर उनकी व्यवस्था/प्रबन्ध के सारे सूत्र अपने हाथ में रखना, क्या परिग्रह नहीं है ? सहस्त्रावधि पुस्तकों की खरीदी करवाकर उस पर अपने नाम का ठप्पा मारकर उसका मालिक बनना, क्या परिग्रह नहीं है? इतना ही नहीं, बल्कि इससे एक कदम आगे, इन कार्यों के प्रति अभिमान धारण कर उससे अपने बड़प्पन का डका पिटवाना, क्या साधुता का लक्षण है ? ऐसे परिग्रही लोगों को पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'वेषधारी' को संज्ञा प्रदान की है । सिर्फ वेश मुनि का, लेकिन आचरण गृहस्थ का । अपरिग्रह का जयघोष करने वाले जब परिग्रह के शिखर पर पारोहण हेतु प्रतिस्पर्धा करने लग जाए, तब ऐसा कौन-सा ज्ञानी पुरूष है, जिसका हृदय आतनाद से चीख न पड़ेगा ? एक समय की बात है । किसी त्यागी पुरुष के पास एक धनिक गया। वन्दन-स्तवन कर उसने विनीत भाव से पूछा “गुरूवर, मुझे हजार रुपये गरीब, दीन-दरिद्र और मोहताज लोगों में बांटने हैं....पापको Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह-त्याग ३७३ ठीक लगे-वैसे बांटवा दें तो बड़ी कृपा होगी।" और भक्त ने सौ-सौ की दस नोट उनके सामने रख दीं । त्यागी पुरुष पल-दो पल के लिए मौन रहे। उन्होंने तीक्ष्ण नजर से एक बार उसकी ओर देखा और तब बोले : 'भाग्यशाली, यह काम तुम अपने मुनीम को सौंप दो । मैं तुम्हारा मुनीम नहीं है।" धनिक क्षणार्ध के लिये स्तब्ध रह गया । उसने चुपचाप नोट उठा लिये और क्षमायाचना कर नतमस्तक हो, चना गया । वह मन हो मन त्यागी पुरूष की महानता और विराट ध्यक्तित्व से गद्गद् हो उठा ।। परिग्रह इसी तरह आहिस्ता-आहिस्ता मुनिजीवन में प्रवेश करता है । यदी ऐसे समय जरा भी सावधानी न बरती गयी तो समझ लो कि परिग्रह को दुष्ट चाल में फस गये । श्रीमद हेमचन्द्राचार्यजी ने ठीक ही कहा है : तप:श्रुतपरिवारां शमसाम्राज्यसंपदम । परिग्रहप्रस्तास्त्यजेयुर्योगिनोीि हि ॥ -योगशास्त्र परिग्रह का पाप-ग्रह जब योगी पुरूषों को ग्रसित करता है, तब वे त्याग, तप, ध्यान, ज्ञान, क्षमा, नम्रतादि अभ्यन्तर लक्ष्मी का सदा के लिये त्याग कर देते हैं । इतना ही नहीं, बल्कि जिनमत के अपरिग्रहवाद का विकृत ढंग से प्रतिपादन करते हैं । क्या तुमने कभी वेषधारियों को अपने परिग्रह का बचाव करते देखा नहीं है ?"उपमिति" ग्रन्थ में कहा गया है कि, 'ऐसे जीव अनंत काल तक संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं।' यस्त्यक्त्वा तृणवद बाह्यमान्तरं च परिग्रहम् । उदास्ते तत्पदांभोज पर्युपास्ते जगत्त्रयो ॥३॥१६॥ अर्थ :- जो तुरण के समान बाह्य-प्राभ्यन्तर परिग्रह का परित्याग कर, सदा उदासीन रहते हैं, उनके चरणकमलों की तीन लोक सेवा करते हैं । विवेचन :- वे महापुरुष सदा वन्दनीय और पूजनीय हैं जो धन-संपदा पुत्र-परिवार, सोना-चांदी, हीरे-मोती आदि का स्वेच्छा से त्याग करते हैं । वे महात्मा सदैव पूजन-अर्चन योग्य हैं, जो मिथ्यात्व, अविरति. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ज्ञानसार कषाय, गारव और प्रमादादि का सर्वथा त्याग करते हैं और निर्मम, निरहंकार बनकर संसार में विचरण करते हैं । ऐसे परम त्यागी योगी ही अहर्निश वन्दनीय हैं, जिनके वन्दन-रतवन से अनन्त कर्मों का क्षय होता है, असंख्य दोष नष्ट हो जाते हैं ओर गौरवमय गुणों का निरंतर प्रादुर्भाव होता है । -धन-संपदा आदि बाह्य परिग्रह है | -मिथ्यात्व-अविरति आदि प्राभ्यन्तर परिग्रह है। ईन दोनों परिग्रहों का मुनि तृणवत् त्याग करें, मलबे की तरह उठाकर बाहर फेंक दें । खयाल रहे, घर में रहे कूड़े को बाहर फेंकने वाले को कभी उस का (कचरे का) अभिमान नहीं होता | अरे भाई, फेंकने लायक वस्तु फेंक दी, उसमें अभिमान कैसा ? जिस तरह कूडा और मलबा संग्रह करने की वस्तु नहीं है, वैसे ही परिग्रह भी संग्रह करने योग्य नहीं, अपितु त्याग करने जैसो वस्तु है। किसी चीज को कूड़ा समझकर फेंक देने के बाद उसके प्रति तिलमात्र भी आकर्षण नहीं होता, जबकि वस्तु को मूल्यवान समझ कर उसका त्याग करने पर उसका आकर्षण सदा बना रहता है। "मैंने लाखों-करोडों का वैभव क्षणमात्र में त्याग दिया.... मैंने विशाल परिवार का सुख सदा के लिये छोड़ दिया, मैंने महान त्याग किया है।" बार-बार ऐसे विचार मन में उठते रहें, तो समझ लो कि त्याग तणवत् नहीं किया है। इस तरह त्याग करने से उसके प्रति उदासीनता पैदा नहीं होती । त्यागी भूलकर भी अपने त्याग की गाथा न गाये। अरे, अपने मन में भी त्याग का मल्यांकन न करें। शालिभद्र ने ३२ पत्नियों के साथ-साथ नित्य प्राप्त दैवी ६६ पेटियों का त्याग किया....ममतामयी माता का त्याग किया....वह त्याग निःसन्देह तणवत् त्याग था । वैभारगिरि पर उन के दर्शनार्थ पायी वात्सल्यमयी माता और प्रेमातुर पत्नियों की ओर आँख उठा कर देखा तक नहीं। उदासीनता और मोहत्याग की प्रतिमूर्ति सनत्-कुमार ने चक्रवर्तीत्व का त्याग किया....सर्वोच्च पद का त्याग ! लगातार ६ माह तक साथ चलने वाले माता-पिता और पत्नी-परिवार की ओर देखा तक नहीं, अपितु विरक्त भाव और उदासीनता धारण कर निरन्तर आगे बढ़ते रहे। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह-त्याग ३७५ सच तो यह है कि बाह्य परिग्रह के साथ-साथ प्राभ्यन्तर परिग्रह का भी त्याग होना चाहिये । तभी विरक्ति और उदासीनता का आविर्भाव संभव है। यदि आभ्यन्तर परिग्रह रुप मिथ्यात्व और कषायों का त्याग नहीं किया, तो पुनः बाह्य परिग्रह की लालसा जागते विलंब नहीं लगेगा । संभव है कि जीव मानव-जीवन के सुखों का परित्याग कर स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति हेतु संयम भी ग्रहण कर ले, फिर भी वह अपरिग्रही नहीं बनता । क्योंकि प्राभ्यन्तर परिग्रह की उस की भावना पूर्ववत् बनी रहती है। ___ जबकि बाह्य-ग्राभ्यन्तर परिग्रह का त्यागी पुरुष, निर्मम-निरहंकारी बन, आत्मानन्द की पूर्णता में स्वयं को पूर्ण समझता है। वह भूलकर भी कभी बाह्य पदार्थों के माध्यम से अपने को पूर्ण नहीं समझता, ना ही पूर्ण होने का प्रयत्न करता है। अपित बाह्य पदार्थों के संयोग में अपनेग्राप को सदव अपूर्ण ही समझता है। अतः वह बाह्य पदार्थों का त्याग कर उन के प्रति मन में रहे अनुराग को सदा के लिए मिटा देता है। बत्तीस कोटि सुवर्ण मुद्रायें और बत्तीस पत्नियों का तृणवत् परित्याग कर, प्राभ्यन्तर राग-द्वेष का त्याग कर, वैभारगिरि पर ध्यानस्थ रहे महामुनि धन्ना अणगार को जब भगवान महावीर ने देशना देते हुए भूरि-भूरि प्रशंसा की, तब समवसरण में उपस्थि देव-देवी, मनुष्य-- तिर्यंच, पशु-पक्षी, कौन उन भाग्यशाली धन्ना अणगार को नतस्तक नहीं हुआ था ? अरे, मगधाधिपति श्रेणिक तो वैभारगिरि की पथरीली, वीरान और भयंकर पगडंडी को रोंदते हुए धन्ना अणगार के दर्शनार्थ दौड़ पड़े थे। और महामुनि के दर्शन कर श्रद्धासिक्त भाव से उनके चरणों में झुक पड़े थे। आज भी इस ऐतिहासिक घटना की साक्षी स्वरुप 'प्रनुत्तरोषपातिक सूच' विद्यमान है । बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह के महात्यागी धन्ना अणगार के चरणों में तीन लोक श्रद्धाभाव से नतमस्तक हुए थे और आज भी उनका स्मरण कर हम नतमस्तक हो जाते हैं । चित्त की परम शान्ति, आत्मा की पवित्रता और मोक्ष-मार्ग की आराधना का सारा दार-मदार परिग्रह-त्याग की वृत्ति पर अवलंबित है। क्यों कि परिग्रह में निरन्तर व्याकुलता है, वेदना है और पाप Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ प्रचुरता है। चितेऽन्तथिगहने, बहिनिमेन्यता बथा । त्यागात् कञ्चकमात्रस्य, भुजंगो न हि निर्विषः ॥४॥१६६॥ अर्थ :- जब तक मन अभ्यन्तर परिग्रह से प्राकुल -व्य कुल है. तब तक बाह्य निर्ग्रन्थवत्ति व्यर्य है । क्योंकि कंचकी छोड़ देने से विषधर विष रहित नहीं बन जाता। विवेचन :- भले ही तुमने वस्त्र-परिवर्तन कर दिया, निवास स्थान को तजकर उपाश्रय अथवा धर्मशाला में बैठ गये, केशमुडन कारने के बजाय केश-लोच कराने लगे, धोती अथवा पेंट के बदले 'चोल पट्टक' धारण करना शुरु कर दिया और जूते पहनने बजाय नगे पांव रहने लगे, लेकिन इससे तुम्हारे मन की व्याकुलता, विवशता और अस्थिरता कभी दूर नहीं होगी। तब क्या करना चाहिये ?, एक काम करो । प्राभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करने के लिए कटिबद्ध हो जाओ। जिस परिग्रह को तुमने तज दिया है, दुबारा उसका स्मरण न करो । त्याग किये गये परिग्रह से बढ़कर परिग्रह की प्राप्ति के लिये तत्पर न बनो । तभी मन प्रसन्न और पवित्र रहेगा । जब तक अन्तरंग राग-द्वेष एवं मोह की ग्रंथि का नाश न होगा, भौतिक पदार्थों का प्रान्तरिक आकर्षण खत्म नहीं होगा, तब तक मानसिक स्वस्थता असंभव है । अतस्थ मलीन भावों का संग्रह, परिग्रह मन को सदैव रोगी ही रखता है। "लेकिन अन्तरंग-परिग्रह का त्याग सर्वथा दुष्कर जो है?'' मानते हैं । लेकिन उसके बिना बाह्य निग्रंथवेश वृथा है । साँप भले ही केंचुली उतार दे, लेकिन जब तक वह विष बाहर नहीं उगलेगा, तब तक वह निर्विष नहीं बन सकता । तुमने सिर्फ बाह्य-वेश का परिवर्तन कर दिया और बाह्याचार का परिवर्तन कर दिया । उससे भला क्या होगा ? क्या तुम उस लक्ष्मणा साध्वी के नाम से अपरिचित, अनभिज्ञ हो ? प्राचीन समय की बात है । राजकुमारी लक्ष्मणा ने समग्र संसार के परिग्रह को त्याग दिया । वह संयममार्ग की पथिक बन गयी । भग Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह-त्याग वान के पास में सम्मिलित हो, घोर तपश्चर्या प्रारंभ की । कैसी अदभूत तपश्चर्या ! ज्ञान और ध्यान का उसने अपूर्व संयोग साध लिया। विनय और वैयावृत्य की संवादिता साध ली। लेकिन एक दिन की बात है । अचानक उसकी दृष्टि एक चिड़ा-चिडिया के जोड़े पर पड़ी। दोनों मैथुन-क्रिया का आनन्द लूट रहे थे। लक्ष्मणा के मनःचक्षू पर यह दृश्य अंकित हो गया । वह दिग्मूढ़ हो सोचने लगी: "भगवान ने मैथुन का सर्वथा निषेध किया है । वे स्वयं निर्वे दी हैं । तब उन्हें भला वेदोदय वाले जीवों के संभोग-सूख का अनुभव कहाँ से होगा ?" जातीय संभोगसुख के अन्तरंग परिग्रह ने लक्ष्मणा साध्वी का गला घोंट दिया। मैथुन-क्रिया के दर्शन मात्र से संभोग सुख के परिग्रह की वासना जग पड़ी। परिग्रह-परित्याग के उद्घोषक साक्षात् तीर्थकर उसे अज्ञानी लगे। पल-दो पल के पश्चात् साध्वी लक्ष्मणा सहज और स्वस्थ हो गयी। वह मन ही मन सोचने लगी: "अरेरे, मैंने यह क्या सोचा और समझा ? भगवंत तो सर्वज्ञ हैं। उनसे कोई बात छिपी हुई नहीं है । वे सब जानते हैं और समझते हैं। वाकइ मैंने कितनी बडी मूर्खता कर कर दी और गुरुदेव के प्रति अपने मन में अशुभ चिन्तन किया....." उसके मन-मंच पर भगवान के समक्ष प्रायश्चित करने का विचार उभर पाया । वह एक कदम आगे बढ़ी और फिर ठिठक गयी.......! "प्रायश्चित करने के लिए मुझे अपना मानसिक पाप प्रभु के समक्ष निवेदन करना होगा...। समवसरण में उपस्थित श्रोताद मेरे बारे में क्या सोचेंगे.... ? भगवान स्वयं क्या अनुभव करेंगे ? 'साध्वी लक्ष्मणा और ऐसे गंदे विचार ?' इसके बजाय तो मैं स्वयं अपने हाथों प्रायश्चित कर लूंगी।" अवसर पाकर भगवान से पूछ लँगो : "प्रभु कोई ऐसे गंदे विचार करे, तो उसका प्रायश्चित क्या है ?" दूसरे अन्तरंग परिग्रह ने उसके मन को मथ लिया। चित्त चंचल हो उठा। माया भी अन्तरंग परिग्रह हो है । हालांकि उसने अपना पाप स्वमुख से प्रकट नहीं किया, लेकिन आज सहस्त्रावधि वर्षों के पश्चात् भी हम उसे जान पाये हैं। भला कैसे ? यह सही है कि निर्ग्रन्थ भगवान से कोई बात छिपी नहीं रह सकती । आर्या लक्ष्मणा आज भी Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ज्ञानसार जन्म-मरण के चक्र में फंसी चक्कर काट रही है। यह सब अन्तरग परिग्रह की लीला है। बाह्य परिग्रह का त्याग करते हए यदि प्राभ्यन्तर परिग्रह की एकाध गाँठ भी रह जाए, तो संसार-परिभ्रमण के अतिरिक्त दूसरा कोई चारा नहीं है । उपाध्यायजी महाराज ने फरमाया है कि, "यदि तुम्हारा मन अन्तरंग परिग्रह से आकुल-व्याकुल है, तो बाह्य मुनिवेश व्यर्थ है, वह कोई कीमत नहीं रखता। ऐसा कहकर वे मुनिवेश का त्याग करने को नहीं कहते, परन्तु अन्तरंग परिग्रह के परित्याग की भव्य प्रेरणा देते हैं। त्यक्ते परिग्रहे साधोः, प्रयाति सकलं रजः । पालित्यागे क्षणादेव, सरसः सलिलं यथा ॥५॥१६७।। अर्थ : परिग्रह का त्याग करते ही साधु के सारे पाप क्षय हो जाते हैं। जिस तरह पाल टूटते ही तालाब का सारा पानी बह जाता है। विवेचन :-पानी से भरे सरोवर को खाली कर देना है ? उसके किनारे को तोड़ दो। सरोवर खाली होते विलंब नहीं लगेगा। यह भी कोई बात हुई कि तट तोडना नहीं और सरोवर खाली हो जाए ? तब तो असंभव है। तुम्हारी मनीषा आत्म-सरोवर को पाप-जल से खाली करने की है न ?तब परिग्रह के तट को तोड दो....और तोड़ना ही पडेगा। इसके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है। मानता हूँ कि उक्त तट को बाँधने में तैयार करने में तुमने दिन-रात पसीना बहाया है, कठोर परिश्रम किया है। संयम और स्वाध्याय को ताक पर रखकर तुमने अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया है। मुनि-धर्म की मर्यादानों का उल्लंघन कर तट को सुशोभित....सुन्दर किया है। लेकिन मेरी मानो और तट को तोड दो। इसके बिना आत्म-सरोवर में रहा पाप-पानी बाहर नहीं जाएगा। यह भी भली भाँति जानता हूँ कि परिग्रह के तट पर बैठ-कर तुम्हें नारी कथा, भोजन कथा, देश कथा और राजकथा बतियाने में अपूर्व आनन्द मिलता है । भोले-भाले अज्ञानी जीवों से मान-सम्मान Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह त्याग स्वीकार करने में लोन हो, परिग्रह के तट पर प्रायः तुम्हारा दरबार लगता है और खुशामदखोर तथा चापलुसों के बीच बैठे तुम अपने आपको महान समझते हो । लेकिन याद रखना, तट पर से फिसल गये तो फिर अगाध पान-पंक में समाधि लेनी होगी.... और ऐसे समय उपस्थित खुशामदखोरों में से एक भी तुम्हें बचाने के लिये पाप-पंक से भरे सरोवर में छलांग नहीं लगाएगा । परिग्रह के तट पर धुनी रमाकर बैठे तुम वहाँ के शाश्वत् 'नियमों को जानते हो ? तट पर बैठा यदि तट तोडने का कार्य न करे, तो उसका अगाध पाप-पंक में डूबना निश्चित है ... । भले ही फिर तुम त्यागीवेश में हो, तुम्हारा उपदेश वैराग्य - प्रेरक हो, तुम्हारी क्रियायें जिनमार्ग की हो, लाखों भक्त तुम्हारी जय जयकार करते हों, तुम आँखें मुँद, पद्मासन लगाये ध्यानस्थ हो अथवा घोर तपश्चर्या करते हो । ये सारी क्रिया-प्रक्रियायें किसी काम की नहीं, जब तक तुम परिग्रह के तट पर बैठे हुए हो। क्योंकि अन्त में तो तुम्हें तट पर से लुढक कर गाव पाप - जलराशि में डूबकर मरना ही है । ३७६ परिग्रह के तट पर धूनी रमाकर तुम विश्व को अपरिग्रह का उपदेश देते हो, यह कहाँ तक उचित है ? बजाय इसके तट को तोड़ दो.... । न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी ! पाप की जलराशि को बह जाने दो.... | क्या तुम्हें उस पानी की दुर्गंध नहीं आती ? खैर, आदत जो पड़ गयी है ! लेकिन ऐसे स्थान पर बैठकर साधुता को क्यों लजा रहे हो ? उसकी तनिक शान ओर आन तो रहने दो । तभी कहता हूँ भाई, उठाओ कुदाल और फावड़ा । देर न करो, तुरन्त परिग्रह के तट को तोड़ दो । जब तट टूट जाएगा, पाप का जल बहते देर नहीं लगेगी और तब निर्मल आत्म-सरोवर के किनारे खड़े कोई नई अभिनव अनुभूति का अनुभव करोगे । तुम्हें महसूस होगा कि अब तक परिग्रह में संयम का अमृत सोख गया था और अन्तःकरण की केसर - सुरभित महाव्रतों की वाटिका को किसी ने विरान बना दिया था । दृष्टि पर अन्धकार की परत किसी ने जमा दी थी । साधना-आराधना का सुहावना उद्यान उजड़ गया था और प्रांगण में कंटीली झाड़ियाँ ही पनप आयी थीं । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ज्ञानसार परिग्रह के पापवश सर्वविरति-जोवन तहस-नहस हो गया था और सर्वविरति के वेश में तुम्हें प्रासक्ति ने अजीब उलझन में डाल दिया था। परिग्रह के पाप से ही तो साधु महाव्रतों का उल्लंघन करने के लिए प्रेरित होता है । परिग्रह का ममत्व ही उसे क्रोधादि कषाय और रस-ऋद्धि-शाता गारव का सेवन करने हेतु धक्का मारता है । जहाँ परिग्रह का परित्याग किया नहीं कि क्रोधादि कषाय उपशांत होते विलंब नहीं लगता । गारव के प्रति घणाभाव पैदा होगा...। महाव्रतों के पालन में अडिगता और स्थिरता आएगी। जबकि तुम धन-संपत्ति और परिवार का त्याग कर श्रमण बने हो तो अब साधु-जोवन में पैदा किए हुए परिग्रह का परित्याग करने में हिचकिचाहट क्यों ? अगाध जल-राशि तैर कर, किनारे लगते समय भला, डूबने की तैयारी क्यों कर रहे हो ? इसीलिए तो बार-बार आग्रह कर रहा हूँ कि परिग्रह के तट को तोड दो । पाप-जल बह जाएगा और तुम निर्मल, निर्मम बन जानोगे । त्यक्तपुत्रकलत्रस्य, मूर्खामुक्तस्य योगिनः । चिन्मात्रप्रतिबद्धस्य, का पुद्गल-नियंत्रणा ? ॥६॥१६८।। अर्थ : जिसने पुत्र और पत्नी को त्याग दिया है और जो ममत्व रहित है और ज्ञान मात्र में ही प्रासक्त है, ऐसे योगी को पुद्गल का बन्धन कैसा? विवेचन : अलख के गीत गाता....भौतिक सुखों से सर्वथा लापरवाह योगी भला, कभी किसी का बन्धन स्वीकार करता है ? वह तो निबंधन निमुक्त हो सदा-सर्वदा आत्मज्ञान की संगति में तल्लीन होता है । जोगी ! तेरे जोग को संभाल ! जोग पर भोग की शैवाल तो जम नहीं गया है न ?जोग पर भोग के भूतों का प्रभाव तो कहीं नहीं छा गया है न ? वर्ना तेरा त्याग व्यर्थ जाएगा । तुमने नारी-सुख को तज दिया.... यहाँ तक कि तुमने मुलायम मखमली गद्दे और तकियों का सुख भी त्याग दिया ! अरे भला, अब तेरे लिए 'यह मेरा' जैसा क्या रह गया है ? तूने ममत्व के बन्धन तोड दिए । अब तुझ पर किसी जड-चेतन पदार्थ का आधिपत्य संभव नहीं । जोगी तुम्हारी चेतना जागृत हो उठी है । तुमने परिग्रह की Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह-त्याग ३८१ शिलाओं को उखाड़ फेंक दिया है । फिर तुम पर पूदगल का प्रभाव कैसे रह सकता है....? द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावादि का बन्धन कैसे शक्य है ? ध्यान रखो, चेतना-शक्ति किसी बंधन को नहीं मानती । साथ ही जबरन कोई उस पर नियंत्रण लाद नहीं सकता। ___ "मुझे ऐसे ही, अमुक प्रकार के वस्त्र चाहिये, ऐसे ही पात्र चाहिए ऐसी ही पेन.... घड़ी और लेटरपेड़ चाहिए, ऐसा ही आसन चाहिए, "आदि द्रव्याग्रह जोगी ! तुम्हें शोभा नहीं देता। क्या इन द्रव्यों के बिना तुम्हें नहीं चलता ? तब इन द्रव्यों को अपेक्षा तुम्हारे मन को निरंतर क्षब्ध रखेगी ।। "मुझे तो देहात में अथवा नगर में ही रहना है, मुझे निर्जन स्थान पसंद नहीं.... लोगों का सिलसिला, मुझे अच्छा लगता है.... उनका निरन्तर आवागमन भाता है । मुझे सुन्दर सुख-सुविधाओं से युक्त उपाश्रय पसंद है । मैं ऐसे देहात मे रहना पसंद करता है, जहाँ अधिक गर्मी न पड़ती हो, यह है क्षेत्राग्रह । क्षेत्र का नियंत्रण जोगी पर ? या जोगी का नियंत्रण क्षेत्र पर ? अरे भाग्यशाली ! तुम्हें कहाँ एक ही क्षेत्र में वास करना है ? तुम क्षेत्र-निरपेक्ष बन विचरण करते रहो। देहात हो या धना जंगल, कठिनाई हो या सुलभता, तुम्हें सदैव ज्ञाना-- नन्द में मस्त रहना है । तुम अपने आप को कदापि अपूर्ण न मानो। ज्ञान की परिपूर्णता का आभास होते ही पुदगल से पूर्ण अथवा सुखी बनने की कल्पना/आकांक्षायें भाप बनकर उड़ जायेंगी । "मुझे तो शरद-ऋतु ही भाती है । ग्रीष्म ऋतु में तो बारह बज जाती है और वर्षा में लगातार बारिश होती है-ऐसे स्थान पर रहना मेरे लिए पूर्णतया असंभव है ।" क्या ऐसा काल-प्रतिबन्ध तुम्हें अहनिश सताता है ? ऐसे काल-सापेक्ष विकल्पों की प्रचण्ड लहरें रह-रहकर गहराती रहती हैं ? तब यह नि:संदिग्ध सत्य है कि तुम 'चिन्मय' नहीं बन पाये ! अव भी पुद्गलनियंत्रण के कारावास में तुम बन्द हो । ___तुम्हें भाव-सापेक्षता की पीड़ा तो नहीं सताती न ? “मेरा नित्य प्रति गुणानुवाद हो, लोग सदा मेरी जयजयकार करते रहे, प्रशसा-गीत की झड़ा लग गई हो और मान-सन्मान के कार्यक्रमों का लंबा सिलसिला चलता हो । सुगंधयुक्त सुरभित वाताबरण हो ।” अर्थात् जीवों Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ज्ञानमार को अच्छी-बुरी भावनाओं का असर तुम पर पड़ता है और अच्छी-बुरी भावनाओं के अनुसार राग-द्वेष को भी उत्पत्ति होती है । तब भला तुम्हें योगी कौन कहेगा ? कहने का तात्पर्य यही है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से तुम निरपेक्ष बनो । पुद्गल निरपेक्ष बने बिना भवसागर पार नहीं कर सकोगे; तुम्हारी मानसिक पवित्रता नहीं बनी रहेगी, चित्त की स्वस्थता टिकेगी नहीं और सम्यगज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना में तल्लीन नहीं रह सकोगे । तुम संसार तजकर साधु बने, मोह छोड़कर मुनि बने और अंगना तजकर अणगार बने | तुमने क्या नहीं किया ? कई अपक्षायें तुमने पहले ही त्याग दी हैं, फिर भी अब तम्हें मानसिक भूमिका पर बहुत कुछ त्याग करना है । स्थूल त्याग से सूक्ष्म त्याग की ओर गति करना है । तुमने आज तक जो त्याग किया है, उसमें हो संतुष्ट न रहो और ना ही इसे अपनी कल्पना-सृष्टि में कायम रखो। अभी मंजिल बहुत दूर है । अतः पुद्गल नियंत्रण में से तम्हें सर्वथा मुक्त होना है। यह न भूलो कि यह शरीर भी पौगलिक है । जहाँ इसके आघिपत्य से भी स्वतंत्र बनना है, तो अन्य पौदगलिक पदार्थों की बात ही कहाँ है ? जिन पोदगलिक पदार्थों का साथ अनिवार्य है, उनकी संगति में भी, उसका तुम पर नियत्रण नहीं होना चाहिए। पुदगल पर तुम्हारा नियंत्रण प्रस्थापित कर, उससे निरपेक्ष बने रहो, तो ही ज्ञानानंद में गाते लगा सकोगे । विमात्र दोपको, गच्छेत् निर्वातस्थानसंनिभः । निष्परिग्रहतास्थैर्य , धर्मोपकरणरपि ॥७॥१६६।। अर्थ :- ज्ञ न मात्र का दीपक, पवन रहित स्थान जैसे धर्म के उपकरणों द्वारा भी परिग्रह-परित्याग-स्वरुप स्थिरता धारण करता है । विवेचन : दीपक ! दोये में धो भरा हआ है और कपास की बत्ती है। दीया टिमटिमाता है, उसकी लौ स्थिर है, हवा का काई झोंका नहीं और प्रकाश में कोई अस्थिरता नहीं । वह स्थिर है और प्रकाशमान है। विश्व के तत्त्वचिन्तकों ने, दार्शनिकों ने और महर्षियों ने ज्ञान को दीपक कोउप मा दी है। स्थूल जगत में जिस तरह दीप प्रकाश की Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह - त्याग ३८३ आवश्यकता है, ठीक उसी तरह आत्मा के सूक्ष्म जगत में ज्ञान - दीप के प्रकाश को आवश्यकता होती है । लेकिन निद्रा में जोव ज्ञानप्रकाश पसंद नहीं करता । जे हो माह निद्रा में जीव ज्ञान प्रकाश नहीं चाहता... अज्ञानांधकार में हो मोह रुपो गहरी नींद आती है । यदि दीपक स्थिर है, तो प्रकाश फैला सकता है । बशर्ते कि वह घी - तेल पूरित होना चाहिये और वायु रहित स्थान पर रखा गया हो । ज्ञानदीपक के लिए भी ये शर्ते अनिवार्य हैं । • ज्ञान - दीपक का घी तेल है-सुयोग्य भोजन । ७ ज्ञान - दापक का निरापद स्थान है-धर्म के उपकरण | ज्ञानोपासना निरन्तर चलती रहे और धर्मध्यान तथा धर्म-चिन्तन निराबाध गति से होता रहे, इसके लिये तुम श्वेत और जीर्ण-शीर्ण वस्त्र धारण करते रहो, यह परिग्रह नहीं है । सतत स्वाध्याय का मधुर - गुंजन होता रहे, इसके लिये तुम वस्त्र - पात्र ग्रहण करो, यह ग्रह नहीं है । हाँ, वस्त्र - पात्र ग्रहण करने की ग्रानी शर्तें हैं : - नि:स्पृह वृत्ति से ग्रहण करना, -ज्ञान- दीपक को प्रज्वलित रखना । भले हो दिगंबर संप्रदाय की यह मान्यता हो कि, "तुम परिग्रही हो... ज्ञान मात्र की परिगति वाले श्रमरण - समुदाय को वस्त्र धारण नहीं करने चाहिये और ना ही अपने पास पात्र रखने चाहिए ।" यह कहते हुए उनका तर्क है कि, " वस्त्र - पात्र का ग्रहण-धारण मूर्च्छा के बिना नहीं हो सकता । मूर्च्छा परिग्रह है । 11 सिर्फ उनको मान्यता के कारण हम परिग्रही नहीं बन जाते, या वे अपरिग्रहो नहीं हो जाते । यदि वस्त्र - पात्र के धारण करने मात्र से हो मूर्द्धा का उद्गम होता हो तो भाजन ग्रहण करने में मूर्च्छा क्यों नहीं ? क्या भोजन राग-द्वेष का निमित्त नहीं ? क्या कमंडल मोरपंख ग्रहण करने और सतत अपने पास रखने में परिग्रह नहीं ? अरे, शरीर ही एक परिग्रह जो ठहरा ....! दिगबर मुनि भोजन करते हैं और कमंडल तथा मोर पंख अपने पास रखते हैं.. दांत किटकिटाने वालो सर्दी में घास-फूस की शय्या पर गहरी नींद सोते हैं....! इसे शरीर पर की मूर्च्छा नहीं तो और क्या कहेंगे ? असं यमी संसारी जीवों को Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ षधि बताने की क्रिया अपरिग्रहता का लक्षण है ? हे मुनिराज ! यदि तुम शास्त्र - मर्यादा में रहकर चौदह प्रकार के धर्मोपकरण धारण करते हो, उनका नित्य प्रति उपयोग करते हो, उनसे तुम्हारा ज्ञान दीप अखंड और स्थिर रहता है, तो निःसन्देह तुम परिग्रही नहीं हो । नग्न रहने से सर्वथा अपरिग्रही नहीं वना जाता अथवा वस्त्र धारण करने से परिग्रही ! राह में भटकते कुत्ते और सूर नग्न ही होते हैं न ? क्या उन्हें हम अपरिग्रही मुनि की संज्ञा देंगे ? ठीक वैसे ही विजयादशमी के दिन घोडे को सजाया जाता है, सोने और चांदी के कीमती गहने पहनाये जाते हैं, तो क्या उस घोडे को हम परिग्रही कहेंगे ? कुत्ता कोई मूर्च्छारहित नहीं है, ना ही घोडे को अपनी सजावट पर मूर्च्छा है ! यह लक्ष्य होना चाहिए कि कहीं ज्ञान - दीपक बुझ न जाए । ज्ञानदीपक को निरन्तर प्रज्वलित - ज्योतिर्मय बनाये रखने के लिये तुम जो शास्त्रीय उत्सर्ग - अपवाद का मार्ग अपनाते हो, उसमें तुम शत-प्रतिशत निर्दोष हो, लेकिन तनिक भी आत्म-प्रवंचना न हो, इस बात की सावधानी बरतना । ऐसा न हो कि एक तरफ शास्त्र - अध्ययन करने हेतु वस्त्र - पात्रादि ग्रहण करते हो और दूसरी तरफ वस्त्र पात्रादि ग्रहण व धारण करने में मूर्च्छा - श्रासक्ति गाढ़ बनती जाय । जैसे-जैसे ज्ञानोपासना बढ़ती जाए, वैसे-वैसे पर - पदार्थ विषयक ममत्व क्षीण होता जाए, तो समझना चाहिए कि ज्ञानदीपक ने तुम्हारे जीवन-मार्ग को वास्तव में ज्योतिर्मय कर दिया है । सिर्फ ज्ञानोपासना ! अन्य कोई प्रवृत्ति नहीं ! मन को भटकने के लिये अन्य कोई स्थान नहीं.... । बस, एक ज्ञानोपासना में ही तल्लीनता ! फिर भले ही काया पर - पदार्थों को ग्रहण करे और धारण करे | आत्मा पर इसका क्या असर ? अर्थ : मूर्च्छाछन्नधियां सर्व, जगदेव परिग्रह: । मूर्च्छया रहितानां तु जगदेवापरिग्रहः ॥६८॥ २००॥ ज्ञानसार जिसकी बुद्धि मूर्च्छा से श्राच्छादित है, उसके लिये समस्त जगत परिग्रह स्वरुप है, जबकि मूर्च्छा-विहीन के लिये यह जगत अपरिग्रह स्वरूप है । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह-त्याग ३८५ विवेचन:-परिग्रह-अपरिग्रह की न जाने कैसी मार्मिक व्याख्या की है। कितनी स्पष्ट और निश्चित ! धरातल पर ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसे हम परिग्रह अथवा अपरिग्रह की संज्ञा दे सकते हैं ? मच्र्छा यह परिग्रह और अमूच्र्छा अपरिग्रह । संयम-साधना में सहायक पदार्थ अपरिग्रह और बाधक पदार्थ परिग्रह । पर-पदार्थों का त्याग किया । धन-संपत्ति, बंगले-मोटर वगैरह को सदा के लिये तज कर संयम-जीवन अंगीकार किया,श्रमण बने । अरे, शरीर पर वस्त्र नहीं और भोजन के लिये पात्र....! और तुमने समझ लिया कि 'मैं अपरिग्रही बन गया।' ठीक है, क्षणार्ध के लिये तुम्हारी बात स्वीकार कर, पूछना चाहता हूँ-"जिन पर-पदार्थों का तुमने त्याग किया, उनके लिये तुम्हारे हृदय में राग-द्वेष की भावना पैदा होती है या नहीं ? अरे, शरीर तो पर पदार्थ जो ठहरा! जब वह रोगग्रस्त बीमार होता है, तब उसके प्रति क्या ममत्व जागत नहीं होता? शरीर को तज तो नहीं दिया ? पर-भाव का त्याग तो नहीं किया ? तनिक गंभीरता से सोचो, विचार करो कि वाकइ तुम अपरिग्रही बन गये ? भूलकर भी कभी स्थूल दृष्टि से विचार न करना, बल्कि सूक्ष्म दृष्टि से चिन्तन करना.... । तभी परिग्रह-अपरिग्रह की व्याख्या साफ-साफ समझ में आएगी। __ मुनिराज ! ओ निर्मोही..निर्लेप मुनिराज ! परिग्रह को स्पर्श करने वाली वायु भी तुम्हें छु नहीं सकती... परिग्रह की पर्वतमालाओं का बोझ ढोंते श्रीमन्त/धनवान तम्हारी प्रदक्षिणा कर छूमंतर होने में सदा तत्त्पर होते हैं....तुम्हारे मन में परिग्रह का आग्रह नहीं, ना ही भौतिक.... सांसारिक पदार्थों की रंच मात्र स्पृहा ! तुमने जिस परिग्रह का मनवचन-काया से त्याग किया है, उसका मूल्यांकन भी तम्हारे मन पर प्रतिबिंवित नहीं। शरीर को ढंकने वाले वस्त्र, भिक्षार्थ पात्र और स्वाध्याय हेतु संग्रहित पुस्तकों पर, 'ये मेरे हैं, ऐसा ममत्व भी नहीं। अन्तरंग दृष्टि से तुम संयम के उपकरणों से भी निर्लेप हो। हाँ, राह भटकते, दीन-हीन बन भीख मांगकर जीवन बसर करते.... विविध व्यसनों से घिरे भिखारियों को कभी देखा है ? जिन के पास 'परिग्रह' कहा जाए, ऐसा कुछ भी नहीं होता । और यदि है तो भी Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ज्ञानसार जीर्ण-शीर्ण गुदडी और दुर्गंधित चोला । हाथ में एक-दो पैसे ! क्या इसे तुम 'परिग्रह' कह सकोगे और उसे परिग्रही ? या फिर अपरिग्रही महात्मा कहोगे या पहुँचे हुए साधु-संत ? नहीं, हर्गिज नहीं। क्यों ? क्योंकि उन्हें तो 'जगदेव परिग्रह' है । उनकी प्राकांक्षाओं का क्षेत्र होता है, निखिल विश्व । सारो दुनिया ही उनका परिग्रह है। चराचर सष्टि में विद्यमान समस्त संपत्ति के प्रति उनमें गहरा ममत्व भरा पड़ा होता है। तुम्हारे पास क्या है और क्या नहीं, उस पर परिग्रह अपरिग्रह का निर्णय न करो। तुम क्या चाहते हो और क्या नहीं-उस पर परिग्रहअपरिग्रह का निर्णय न करो। हाँ, तुम अपनी तपश्चर्या, दान और चारित्र-पालन से क्या चाहते हो? यदि तुम स्वर्गलोक का इन्द्रासन या फिर मृत्युलोक का चक्रवर्ती-पद चाहते हो, देवांगनाओं के साथ आमोद-प्रमोद अथवा मृत्युलोक की वारांगनाओं का स्नेहालिंगन चाहते हो, तब तुम अपरिग्रही कैसे ? सहस्त्रावधि लावण्यमयी नारी-समुदाय के मध्य आसनस्थ , वैभव के शिखर पर आरूढ़, मणि-मुक्ता खचित सिंहासन...रत्न जडित स्तंभों से युक्त भव्य महल, बहुमूल्य वस्त्राभूषण.... आदि से घिरा हुआ होने के उपरान्त भी जिसका अन्त:करण 'नाहं पुदगलभावानांकर्ता कारयिता ऽपि च' इस भाव से आकंठ भरा हुआ है, जो त्याग और तपश्चर्या के लिये अधिर, आकुल-व्याकुल हैं और चार गति के सुखों से सर्वथा निर्लेप हैं, जिस को दृष्टि में कंचन, कथीर समान है, सोना-चांदी-मिट्टी समान है और जिसे शिव, अचल, अरुज, अनंत, अक्षय, अव्याबाध मोक्ष के बिना अन्य किसी चीज को लालसा नहीं-क्या उसे भी तुम परिग्रही कहोगे ? जिसे किसी प्रकार की मूर्छा/प्रासक्ति नहीं, वह परिग्रही नहीं है। ठीक वैसे ही जो अनंत तृष्णा से आकुल-व्याकुल है, वह अपरिग्रही नहीं । अतः बुद्धि पर जमी मूर्छा की परतों को उखाडकर 'आपरेशन' करवाकर बुद्धि को मूर्छा-मुक्त करोगे, तभी पूर्णता का पंथ प्रशस्त होगा। तुम्हारा अन्तःकरण पूर्णानन्द से छलक उठेगा ! Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. अनुभव यह कोई दुनिया के खट्टे-मीठे अनुभवों की चर्चा-वार्ता नहीं है, ना ही यह राजनैतिक-सामाजिक अनुभवों का अभिनव अध्याय है । यहां तो प्रस्तुत है आत्मा के अगम-अगोचर अनुभव की बात माजतक जो अनुभव हमें मिला नहीं है,उसे साकार रूप देने के लिए आवश्यक-मार्गदर्शन है और है प्रेरणा-प्रोत्साहन । जीवन में एकाध बार भी यदि प्रात्मा के परमानन्द का अनुभव हो जाए तो काफी है। अरे, मोक्ष-सुख का सेम्पल भी प्रभागिये के मार्ग में कहाँ से ! Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ सन्ध्येव दिनरात्रिभ्यां केवल तयोः पृथक् । बुधैरनुभवो दृष्टः केवलाकरुणोदयः ॥ १॥ २०१ ।। अर्थ :- जिस तरह दिन और रात्रि से संध्या अलग है, ठीक उसी तरह ज्ञानी पुरुषों को केवलज्ञान और श्रुतज्ञान से भिन्न केवलज्ञानस्वरुप सूर्य के प्ररूणोदय समान अनुभव की प्रतीति हुई है । विवेचन :यहाँ उस अनुभव की बात नहीं है, जिसे आमतौर से मनुष्य कहता है : "मेरा यह अनुभव है ! मैं अनुभव की बात कहता हूँ ! " कहनेवाला मनुष्य सामान्यत: अपने जीवन में घटित घटना को 'अनुभव' की संज्ञा प्रदान कर कहता है । लेकिन ग्रंथकार ने श्रम मनुष्य नहीं समझ सके वैसे 'अनुभव' की बात कही है ! एक समय की बात है । कोई एक सद्गृहस्थ मेरे पास आए । सात्त्विक प्रकृति और धार्मिक वृत्ति के थे । वंदन कर उन्होंने विनीत भाव से कहा : “गुरूदेव, ध्यानस्थ अवस्था में मुझे अद्भुत अनुभव होते हैं ! "" " किस तरह के अनुभव ?" ज्ञानसार ... "कभी-कभी मुझे ग्रपने चारों और लाल-लाल रंग फैले नजर आते हैं । कभी भगवान श्री पार्श्वनाथ की मनोहारी मूर्ति के दर्शन होते हैं, तो कभी-कभार मैं किसी अज्ञात अपरिचित प्रदेश में अपने आप को भ्रमण करता महसूस करता हूँ .. इस तरह उन्होंने ध्यान में स्फुरित विविध विचार... आदि प्रात्मानुभव कह सुनाये ! लेकिन ग्रन्थकार को ऐसे अनुभव भी यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं । ग्रन्थकार तो 'अनुभव - ज्ञान' स्पष्ट करना चाहते हैं ! उसे समझाने के लिए और स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं : "} ' संध्या तुमने देखी है ? क्या उसे दिन कहोगे ? या फिर उसे रात्री कहोगे ? नहीं ! यह सर्वविदित है कि संध्या, दिन-रात से एकदम भिन्न है । ठीक उसी तरह अनुभव भी श्रुतज्ञान नहीं है, ना ही केवलज्ञान ! वह इन दोनों से बिल्कुल भिन्न है ! हाँ, वह केवलज्ञान के सन्निकट अवश्य है ! सूर्योदय के पूर्व अरुणोदय होता है न ? बस, हम अनुभव को सिर्फ केवलज्ञान रुपी सूर्योदय के पूर्व का अरूणोदय Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव ३८६ कह सकते हैं ! अर्थात वहाँ मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न चमत्कार नहीं होता ! बुद्धि-मति की कल्पनासृष्टि नहीं होती, और शास्त्रज्ञान के अध्ययन....चिंतन....मनन से पैदा हुए रहस्यों का अवबोध नहीं होता । 'मेरी बुद्धि में यह आता है, अथवा अमूक शास्त्र में यों कहा गया है,' या 'मुझे तो अमुक शास्त्र का यह रहस्य समझ में आता है,' आदि सारी बातें 'अनुभव' से विलकुल परे हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि अनुभव तर्क से कई गुना उच्च स्तर पर है । अनुभव शास्त्रों के ज्ञान तले दबा हुआ नहीं है और ना ही बुद्धि अथवा शास्त्र से समझ में आये ऐसा है । सावधान, किसी को अनुभव की बात ताकिक ढंग से समझाने का प्रयत्न न करना । हमेशा समझने और समझाने के लिए बुद्धि-मति, ज्ञान और तर्क....की आवश्यकता रहती है, जबकि 'अनुभव' दूसरो को समझाने की बात नहीं है । 'यथार्थवस्तुस्वरुपोपलब्धिपरभावारमतवास्वादकत्वमनुभव: ।' भगवान् हरिभद्रसूरीश्वरजी ने अनुभव के वास्तविक स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा है : (1) यथार्थ वस्तु स्वरुप का ज्ञान, (1) पर-भाव में अरमणता, (।) स्वरुपरमण में तन्मयता । सारे जगत के पदार्थ जिस स्वरुप में हैं, उसी स्वरूप में ज्ञान होता है.... ज्ञान में राग-द्वेष का मिश्रण नहीं होता ! आत्मा से भिन्न, अन्य पदार्थों में रमणता नहीं होती ! योगी को तो प्रात्म-स्वरूप की ही रमणता होती है । उस का देह इस दुनिया की स्थूल भूमिका पर होता है और उसकी प्रात्मा दुनिया से परे सूक्ष्मातिसूक्ष्म भूमिका पर पारुढ होती है । __अनुभवी आत्मा की स्थिति का गम्भीर शब्दों में किया गया यह संक्षिप्त लेकिन वास्तविक वर्णन है । हम स्वरुप में रमणता इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि परभाव की स्मणता में सिर से पाँव तक सराबोर हो गये हैं । और परभाव की रमरणता यथार्थ वस्तु-स्वरुप के Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार अज्ञान को आभारी है । जिस गति से वस्तुस्वरुप-विषयक अज्ञान दूर होता जाएगा, उस गति से आत्म-रमरणता आती रहेगी और परभाव में भटकने की क्रिया क्रमश: कम होती जाएगी । फलतः 'अनुभव' तरफ की उर्ध्वगामी गति शुरु होगी। शाश्वत्....परम ज्योति में विलीन होने की गहरी तत्परता प्रकट होगी और तब जीवन-विषयक जड़ता का उच्छेदन कर अनुभव के प्रानन्द को वरण करने का अप्रतिम साहस प्रकट होगा। ऐसी स्थिति में अज्ञान के निबिड़ अन्धकार तले दबी चेतना, ज्ञानज्योति की किरणों का प्रसाद प्राप्त कर परम तृप्ति का अनुभव करेगी। ब्यापार: सर्वशास्त्राणां दिकप्रदर्शनमेव हि । पारं तु प्रापयत्येकोऽनुभवो भववारिधेः ॥२॥२०२।। अर्थ :- वस्तुत: सर्व शास्त्रों बार उद्यम दिशा-दर्शन कराने का ही है। लेकिन सिर्फ एन. अनुभव ही संसारसमुद्र से पार लगाता है । विवेचन :- न जाने कैसा कर्कश कोलाहल मचा है ? .. ___शास्त्रार्थ और शब्दार्थ के एकांतिक आग्रह ने हलाहल से भी भयंकर विष उगल दिया है....और इसके फूत्कार साक्षात् फणिधर के फत्कारों को भी लज्जित कर रहें हैं....। कोई कहता हैं : "हम ४५ आगम मानते हैं !' कोई कहता है : "हम ३२ आगम ही मानते हैं !" जबकि कुछ का कहना है : "हम पागम ही नहीं मानते !" कैसा घोर कोलाहल ? और किसलिये ? क्या उनके द्वारा मान्य शास्त्र उन्हें भव-पार लगाने वाले हैं ? क्या शास्त्र उन्हें निर्वाण-पद के अधिकारी बनाने वाले हैं ? यदि शास्त्रों के बल पर ही भव-सागर पार उतरना संभव होता तो आज तक हम यों भटकते नहीं! क्या भूतकाल में कमी हम शास्त्रों के ज्ञाता, निर्माता और पंडित नहीं बने होंगे? अरे, नौ 'पूर्व' का ज्ञान प्राप्त किया था, फिर भी उक्त पूर्वी का ज्ञान, 'शास्त्र ज्ञान' हमें भवपार नहीं उतार सका ! भला, क्यों? इस पर कभी गहरायी से सोचा है ? चिंतन-मनन किया कभी कारण जानने का ? तब शास्त्र को लेकर शोरगुल मचा, अशांति क्यों फैला रहे हो ? शास्त्र का भार उठा कर भव-सागर में डुबने की चेष्टा क्यों Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ अनुभव कर रहे हो ? शास्त्र तुम्हें अनंत, अव्याबाध सुख कभी नहीं देगा | मेरे इस कथन को शास्त्र के प्रति अरुचि अथवा उसकी पवित्रता का अपमान न समझो... बल्कि उसकी मर्यादा का भान कराने के लिए मैं यह सब कह रहा हूँ । शास्त्र पर ही दार-मदार बांधे बैठे तुम्हें, अपनी जडता को तिलाञ्जलि देने के लिए ही सिर्फ कह रहा हूँ ! शास्त्र ? इस का कार्य है मार्ग दर्शन देना, दिशा-दर्शन कराना । यह तुम्हें सही और गलत दिशा का अहसास कराएगा ! इससे अधिक वह कुछ नहीं करेगा । शास्त्रों के उपदेश हमारी आत्मभूमि पर हूकार भरते भले ही धावा बोल दें लेकिन विषय कषाय का तोपखाना क्षणार्ध में ही आग उगलते हुए उन को धराशायी कर देता है । उनका नामोनिशान शेष नहीं रखता ! निगोद में मूर्च्छित पडे किसी चौदह पूर्वधर को पूछ कर देखो कि उन का सर्वोत्कृष्ट शास्त्रज्ञान उन्हें क्यों नहीं बचा सका ? विषय - कषाय के मिथ्याभिमान से छूटा तीर जब सीना भेद कर प्रारपार हो जाता है तब शास्त्र का कवच तुच्छ सिद्ध होता है । अतः यूं कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी की अब तक कुकर्मों के साथ सम्पन्न युद्ध में केवल शास्त्र को ही एक मात्र आधार मान और उस पर विश्वास रख बैठे रहने से आजीवन पश्चात्ताप के आँसू बहाने की नौबत प्रायी है । तभी शास्त्रकार प्रस्तुत में स्पष्ट शब्दों में कहते हैं : "शास्त्र तो तुम्हें सिर्फ दिशाज्ञान ही देंगे !" फिर तुम्हें भवसागर से पार कौन लगाएगा ? निश्चिंत रहिए । 'अनुभव' तुम्हें भव-पार लगाएगा ! हाँ, 'अनुभव' तक पहुँचने का मार्ग शास्त्र बतायेंगे । यदि भूल कर कभी मन: कल्पित मार्ग पर निकल पडे तो 'अनुभव' नामक मंजिल तक पहुँच नहीं पाओगे ? ठीक वैसे ही किसी मानसिक 'भ्रम' को 'अनुभव' समझ अपने आपको कृत कृत्य समझोगे तो ग्रात्मोन्नति से वंचित रह जाओगे । अतः हमेशा शास्त्र से ही दिशाज्ञान प्राप्त करना ! फलत: जैसे-जैसे 'तुम 'अनुभव' के उत्तुंग शिखर पर आरोहण करते जानोगे वैसे-वैसे तुम्हारी पर - परिणति निवृत्त होती जाएगी और पर- पुद्गलों का प्रार्कषण नामशेष होता जाएगा। श्रात्म-रमणता की सुवास सर्वत्र फैल Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ज्ञानसार जाएगी। आत्म-परिणति की मोठी सौरभ वातावरण को सुरभित कर देगी। तभी यथार्थ वस्तु-स्वरुप के अवबोधपरका 'अनुभव'-शिखर तुम सर कर लोगे। लेकिन 'अनुभव' शिखर के आरोहण का प्रशिक्षण लिये बिना ही यदि भावना से प्रेरित होकर प्रयत्न किये तो नि:संदेह अगमनिगम की किसी पहाडी की गहरी खाई में पटक दिये जानोगे और तब लाख खोजने के बावजूद भी तुम्हारा अता-पता नहीं मिलेगा! अतः प्रशिक्षित होना अनिवार्य है। अध्ययन करना आवश्यक है। बाद में 'अनुभव'शिखर पर आरोहण करो, सफलता तुम्हारा पाँव छुएगी। बोलो, इच्छा हैं ? अरे भाई, केवल तुम्हारी इच्छा से ही नहीं चलेगा ! इसके लिए आवश्यकता है दृढ संकल्प की, निर्धार-शक्ति की। साधना के मार्ग पर कठोर निर्णय के बिना नहीं चलता। विध्नों को पाँव तले रौंदने हेतु दाँत पीस निरंतर आगे बढो.. ! आभ्यंतर विघ्नों की श्रृंखलाओं को तोड दो..! उस की कमर ही तोड दो कि दुबारा अपनी टाँग अडा कर निर्धारित कार्यक्रम में विधन नहीं करें। इतनी निर्भयता, दृढता और खुमारी के बिना अनुभव का शिखर सर करने की कल्पना करना निरी मूर्खता है। अतीन्द्रियं परं ब्रह्म विशुद्धानुभवं विना! शास्त्रयुक्तिशतेनापि न गम्यं यद् बुधा जगुः ॥३॥२०३।। अर्थ : पंडितों का कहना है कि इन्द्रियों से अगोचर परमात्म-स्वरुप विशुद्ध अनुभव के बिना समझना असंभव है, फिर भले ही उसे समझने के लिए तुम शास्त्र की सैकडों युक्तियों का प्रयोग करो। विवेचन : शुद्ध ब्रह्म ! विशुद्ध आत्मा ! इन्द्रियों की इतनी शक्ति नहीं कि वे शुद्ध ब्रह्म को समझ सकें । किसी प्रकार के आवरण-रहित विशुद्ध आत्मा का अनुभव करने की क्षमता बेचारी इन्द्रियों में कहाँ संभव है ? अर्थात् कान शुद्ध ब्रह्म की ध्वनि सुन न सके, आँखें उसके दिव्य रुप को देख न सकें, नाक उसकी Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव ३६३ मधुर सुरभि सूघ न सकें, जिह्वा उसका स्वाद न ले सकें और चमडी उसका स्पर्श न कर सकें ! शास्त्रों की युक्ति-प्रयुक्तियाँ और तर्क भले ही आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करें, बौद्धिक कुशाग्रता भले ही नास्तिक-हृदय में आत्मा की सिद्धि प्रस्थापित कर दें, लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि प्रात्मा को जानना यह शास्त्र के बस की बात नहीं है। जानते हो, शास्त्र और बुद्धि का प्राधार लेकर राजा प्रदेशी की सेवा में उपस्थित महानुभाव कैसे निस्तेज. निष्प्राण बन गये थे ? लाख प्रयत्न के बावजद भी वे शास्त्र और बुद्धि के बल पर राजा प्रदेशी को आत्मा की वास्तविक पहचान नहीं करा सकें। और फलस्वरुप इंद्रियों के माध्यम से प्रात्मा को पहचान ने के हठाग्रही राजा प्रदेशी ने कुपित हो, न जाने कैसा जुल्म गुजारा था ? लेकिन जब केशी गणधर से उसकी भेंट हुई, इंद्रियों को अगोचर, इन्द्रियों से अगम्य आत्मा का दर्शन कराया कि राजा प्रदेशी, राजर्षि प्रदेशी में परिवर्तित हो गया ! आत्मा को समझा विशुद्ध अनुभव से । आत्मा का अनुभव किया इंद्रियों के उत्माद से मुक्त हो कर । आत्मा को पा लिया शास्त्र और तर्क से ऊपर उठ कर ! जिस ने आत्मा को जानने-समझने और पाने का मन ही मन दृढ संकल्प किया है उसे इन्द्रियों के कर्णभेदी कोलाहल को शांत-प्रशांत करना चाहिए। किया भी, इन्द्रिय को हस्तक्षेप नहीं करने देना चाहिए ! शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श की दुनिया से मन को दूर-सुदूर अनजाने प्रदेश में ले जाना चाहिए। तभी विशुद्ध अनुभव की भूमिका का सर्जन होता है। ___ साथ ही, आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी को जानने समझने की कामना नहीं होनी चाहिए। प्रात्मा के अलावा दूसरे को पहचान ने की जिज्ञासा नहीं होनी चाहिए , आत्म-प्राप्ति सिवाय अन्य कोई प्राप्ति की तमन्ना नहीं चाहिए , जब तक आत्मानुभव का पावन क्षण प्रकट होना दुर्लभ है। आत्मानुभव करने हेतु इस प्रकार का जीवन-परिवर्तन किये बिना Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार अन्य कोई मार्ग नहीं। इसके लिए गिरिकन्दरा अथवा पाश्रम-मठों में भटकने की आवश्यकता नहीं है। बल्कि आवश्यकता है अंतरंग साधना की, शास्त्रार्थ और वितंडावाद-वादविवाद से उपर उठने की और शंका-कुशंका तथा तर्क-कुतर्क के भँवर से बहार निकलने की। साथ ही, आत्मानुभव करने के लिए आत्मानुभवियों के सतत संपर्क और संसर्ग में रहने की जरूरत है। आसपास की दुनिया ही बदल जानी चाहिए। सारी प्राशा-आकांक्षाएँ, कामनाएँ और अभिलाषाओं को जमीन में गाड देना चाहिए ! इस तरह किया गया आत्मानुभव निःसंदेह भवसागर से पार लगाता है ! हाँ, प्रात्मानुभव का ढोंग करने से बात नहीं बनेगी ! प्रतिदिन विषय-कषाय और प्रमाद में लिप्त मानव, एक-आध घंटे के लिए एकांत स्थान में बैठ, विचारशन्य बन और 'सोऽहं' का जाप जप, यह मान लें कि उसे आत्मानुभव हो गया है, तो वह निरी आत्म-वंचना है। जबकि आत्मानुभवी का समग्र जीवन ही परिवर्तित हो जाता है, उस में मामूलाग्र परिवर्तन पा जाता है । उसके लिए विषय, विष का प्याला और कषाय फणिधर की प्रतिकृति प्रतीत होते हैं। प्रमाद उस से कोसों दूर भागेगा । आहार-विहार में वह सामान्य मनुष्य से बहुत उंचा उठा होता है। साथ ही, आत्मा की अनुभूति का उसे ऐसा तो असीम अानन्द होगा, जिस की तुलना में दूसरे आनन्द तुच्छ लगेंगे । परमात्मस्वरुप की प्राप्ति के लिये आत्मानुभव के बिना अन्य सब प्रयत्न व्यर्थ ज्ञायेरन हेतवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः । कालेनैतावता प्राज्ञैः कृतः स्यात् तेषु निश्चयः ॥४॥२०४।। अर्थ : यदि युक्ति से इन्द्रियों को अगोचर पदार्थों का रहस्य ज्ञान हो सकता तो पंडितो ने इतने समय में अतीन्द्रिय पदार्थों के सम्बंध में निर्णय कर लिया होता। विवेचन: विश्व में दो प्रकार के तत्त्व विद्यमान हैं : -इंद्रियों से अगोचर-इंद्रियातीत और --इंद्रिय गोचर, इन्द्रिय गम्य । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव ३६५ जिस तरह समस्त विश्व इन्द्रियातीत नहीं है, ठीक उसी तरह सकल विश्व इन्द्रियों द्वारा जाना नहीं जा सकता! विश्व सम्बंधित ऐसी कई बातें हैं, जिनका साक्षात्कार हमारी अथवा अन्य किसी की भी इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता। ऐसे ही तत्त्व और पदार्थों को 'अतींद्रिय' कहा गया है। ऐसे अतींद्रिय पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का निर्णय मानव किस तरह कर सकता है ? भले ही वह विद्वान् हो या अत्यंत बुद्धिमान ! विद्वत्ता अथवा बुद्धि, अतीन्द्रिय पदार्थों का दर्शन नहीं करा सकती । तब क्या यह माना जाएँ कि आजपर्यंत इस धरती पर विद्वानों और बुद्धिशालियों का जन्म ही नहीं हुआ ? क्या वे एकाध अतीन्द्रिय पदार्थ का निर्णय सर्व-सम्मति से नहीं कर सके ? ___ आज के युग में किसी भी बात अथवा घटना को तर्क या बुद्धि के माध्यम से समझने का आग्रह बढ़ता जा रहा है। बुद्धि और तर्क से समझा जाए और इन्द्रियों से जिस का अनुभव किया जा सके उसे ही स्वीकार करने की वृत्ति प्रबल होती जा रही है। ऐसे समय पूज्य उपाध्यायजी महाराज का यह कथन प्रकाशित करना आवश्यक है ! बुद्धि से समझ में न आ सकें ऐसा कोई तत्त्व क्या इस अनंत विश्व में है ही नहीं ? क्या इस धरती पर ऐसी कोई समस्या विद्यमान नहीं, जो बुद्धि से सुलझ न सकी हो ? कोई प्रश्न नहीं है ? जबकि सच्चाई यह है कि आधुनिक युग के वैज्ञानिकों के समक्ष ऐसी कई समस्याएँ हैं, जिसका हल/ निराकरण वे बुद्धि अथवा तर्क के बल पर करने में असमर्थ हैं ! संभवतः तुम यह कहोगे: “जैसे बुद्धि का विकास होता जाएगा, समस्याओं का निराकरण भी होता रहेगा।" बुद्धि अपने आप में कभी परिपूर्ण नहीं होती । वह अपूर्ण ही होती है । अतः पूर्ण चैतन्य के साक्षात्कार के बिना अथवा उस पर श्रद्धा प्रस्थापित किये बिना, किसी समस्या का हल असंभव है। आकाश से उस पार के संशोधन-अन्वेषण में रत विज्ञान, पृथ्वी पर रहे मानव-प्राणी की समस्याएँ हल करने में असमर्थ सिद्ध हुआ है। वह अनाज, आवास और रोटी-रोजी का प्रश्न हल नहीं कर सका है। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ज्ञानसार और मानसिक अशांति दूर नहीं कर सका है। फिर भी विज्ञान की परिपूर्णता का गीत गाता अर्धदग्ध मानव उसकी सर्वोपरिता पर अंधश्रद्धा रख, मुस्ताक है। बुद्धि का दुराग्रह जब मनुष्य को अतीन्द्रिय पदार्थों के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करने देता तब उसके साक्षात्कार की बात ही कहाँ रही ? आत्मा-परमात्मा इंन्द्रियातीत तत्त्व हैं ! हालाँकि तर्क एवं बुद्धि से उस का अस्तित्व सिद्ध है, फिर भी वह इन्द्रियों से प्रत्यक्ष में अनुभव न किया जाए ऐसा तत्त्व है। इस का अनुभव करने के लिए इंद्रियातीत शक्ति और सामर्थ्य होना आवश्यक है। उन तत्त्वों का साक्षात्कार नि:संदेह परम शांति प्रदान करने वाला एकमेव उपाय है । वह मानव की समस्त समस्याओं का रामबाण समाधान/ निराकरण है, जो अन्य किसी साधन-सामग्री से अशक्य है। इस का साक्षात्कार होते ही मानव अपने आप को 'दु:खी, पीडीत और अशान्त' नहीं समझता। कष्ट, अशांति और पीडा उसे स्पर्श तक नहीं कर सकती। अतः अतींद्रिय पदार्थों का निर्णय करने हेतु बुद्धि के जाल में फंस मानव-जीवन की अमूल्य पलों को व्यर्थ गँवाने के बजाय अनुभव के राजमार्ग पर प्रयाण कर और आत्मानुभूति कर दुःख अशांति के गहराये बादलों को छिन्न-भिन्न करना यही श्रेष्ठ सार है और परमार्थ है। 'अतीन्द्रिय पदार्थों का निर्णय करने में आज तक दिग्गज पंडित और बुद्धिमान सफल नहीं हुए हैं !' कहकर ग्रंथकार ने हमें अपना मार्ग परिवर्तित करने की प्रेरणा दी है । साथ ही सुयोग्य मार्गदर्शन किया है। और हमें आत्मानुभव के प्रशस्त-मार्ग पर निरंतर गतिशील होने के लिए प्रोत्साहित किया है। शास्त्र और विद्वान् तो मात्र दीप-स्तम्भ हैं ! अतः सिर्फ उन से जुड़े रहने से कार्य सिद्ध नहीं होता। साथ उन के मार्गदर्शन में हमें अपना मार्ग खोजना है। केषां न कल्पनादवी शास्त्रक्षीरान्नगाहिनी ! विरलास्तद्रसास्वादविदोऽनुभवजिह्वया ॥१॥२०॥ अर्थ : किस की कल्पना रुपी कलछी शास्त्र रुपी खीर में प्रवेश नहीं कर सकती? लेकिन अनुभव रुपी जीभ से शास्त्रास्वाद को जानने वाले विरले ही होते हैं। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ अनुभव विवेचन : मान लो कि गह-कार्य में सदैव खोयी भारतीय नारी को अनुभव-ज्ञान का विज्ञान न समझाते हो, इस तरह पूज्य उपाध्यायजी महाराज रसोईघर के उपकरणों को माध्यम बनाकर समझाने बैठ जाते चल्हे पर उफनती खीर को देखो ! उस में कलछी डाल कर तुम खीर को अच्छी तरह से हिला सकते हो । उसे जलने नहीं देते.... लेकिन कलछी से खीर हिलाने मात्र से तुम उस का स्वाद ले सकते हो ? नहीं, यह असंभव है। ___ खीर का स्वाद लेने के लिए तो उसे जीभ पर रखना पड़ता है ! फलतः जीभ और खीर का संयोग होता है और बड़े चाव से चटकारे लेते हैं, तब उसकी रसानुभूति होती है ! -शास्त्र खीर का भोजन है, -कल्पना (ताकिकता) कलछी है, -और अनुभव जीभ है ! उपाध्यायजी महाराज फरमाते हैं : "तार्किक बुद्धि से शास्त्रों को उलटते-पुलटते रहोगे, उससे कोई शास्त्रज्ञान का रसास्वाद अनुभव नहीं कर सकोगे। इतना ही नहीं, बल्कि शास्त्रों को तार्किकता के पडले में तौलने में ही जीवन पूर्ण हो गया तो अंतिम समय खेद होगा कि "सचमुच मैं दुर्भागी-अभागा हूँ कि कड़ी महेनत कर खीर पकायी, लेकिन उसका स्वाद लूटने का मौका ही न मिला !" खीर इसलिये पकायी जाती है कि उस का यथेष्ट उपभोग ले सकें। जी भर कर रसास्वादन कर सकें। कलछी तो केवल साधन है खीर पकाने का। एक साधन के रुप में वह अवश्य महत्वपूर्ण है ! उक्त साधन से जब खीर तैयार हो जाएँ, हमारा पूरा लक्ष्य खीर की पोर हो, ना कि कलछी की और । यहाँ तार्किकता की मर्यादा स्पष्ट कर दी गयी है। शास्त्रों का अर्थनिर्णय हो गया कि भोजन तैयार हो गया ! तत्पश्चात् कलछी को एक ओर रख देना चाहिए। तार्किकता के लिए कोई स्थान नहीं ! फिर तो अर्थनिर्णय का रसास्वादन करने हेतु उसे अनुभव-जीभ पर रख दो, और चटकारे लेते हुए उस का यथेष्ट रसास्वादन करो। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ज्ञानसार ग्रंथकार ने यहाँ शास्त्रज्ञान एवं 'अनुभव' का पारस्परिक संबन्ध बताया है । खीर के बिना मनुष्य उसके रसास्वादन की मोज नहीं लूट सकता । जीभ कितनी भी अच्छी हो, लेकिन यदि खीर ही न हो तो ? ठीक उसी तरह शास्त्रज्ञान के अभाव में अनुभव की जीभ भला क्या कर सकती है ? प्रत: शास्त्रजान की खीर पकाना नितांत आवश्यक है । उसकी उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा । खीर की तरह कलछी का भी अपना महत्व है। खीर की हंडिया को चुल्हे पर रख देने से ही खीर तैयार नहीं होती । बल्कि वह जल जाती है और बेस्वाद भी हो जाती है । अतः उसे कलछी से निरंतर हिलाते रहना चाहिए। ठीक उसी तरह, बिना तार्किकता से शास्त्र - ज्ञान की खीर पका नहीं सकते । जब तक शास्त्रार्थ के ज्ञान की खीर नहीं पकती तब तक तार्किकता की कलछी से उसे लगातार हिलाते रहना चाहिए और खीर के पकते ही, कलछी को एक ओर रख दो ! तब जीभ को तैयार रखो... रसास्वादन और रसानुभूति के लिए ! घरेलु भाषा के माध्यम से उपाध्यायजी ने 'अनुभव की कैसी स्पष्ट परिभाषा हमारे सामने रख दी है ! उन्हों ने बुद्धिशाली पंडितों के लिए उनकी बुद्धि की मर्यादा स्पष्ट कर दी है और बुद्धि तथा तर्क की अवहेलना करने वालों के लिए उसकी अनिवार्यता समझा दी है । ठीक वैसे ही सिर्फ अनुभव के गीत गाने वालों को शास्त्र और उसके रहस्य प्राप्त करने की बात गले उतार दी ! जब कि आजीवन शास्त्रों के बोझ को सर पर ढोकर, विद्वत्ता और कुशाग्र बुद्धि में ही कृतकृत्यता समझने वालों को अनुभव की सही दिशा इंगित कर दी। इस तरह सब का सुन्दर और मोहक समन्वय साध कर न जाने कैसा अप्रतिम अव्वल दर्जे का आत्मविज्ञान प्रगट किया है ! चलिए, हम भी जीवन के पाकगृह में चलकर चूल्हे पर शास्त्रज्ञान की खीर पकाये.... तार्किक बुद्धि की कलछी से खीर पका कर अनुभवजिह्वा द्वारा उसका रसास्वादन कर, जीवन को सार्थक और सुन्दर बनायें | Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव पश्यतु ब्रह्म निर्द्वन्द्वं निर्द्वन्द्वानुभवं बिना ! कथं लिपिमयी दृष्टिर्वाङमयी वा मनोमयी ॥६॥२०६॥ अर्थ : कनेशरहित शुद्ध अनुभव के बिना पुस्तक रुप, वाणीरुप, अथ के __ ज्ञानरुप दृष्टि, राग-द्वेषादि से सर्वथा रहित विशुद्ध आत्म-स्वरुप को कैसे देख सकते हैं ? विवेचन : चर्म-दृष्टि, शास्त्र-दृष्टि और अनुभव-दृष्टि ! जिस पदार्थ का दर्शन अनुभव-दृष्टि से ही संभव है, उस पदार्थ को चर्म-दृष्टि अथवा शास्त्र-दृष्टि से देखने का प्रयत्न करना शतप्रतिशत व्यर्थ है । कर्म-कलंक से मुक्त विशुद्ध ब्रह्म का दर्शन चर्म-दृष्टि से सर्वथा असंभव है और शास्त्र-दृष्टि से भी। उसके लिए आवश्यक है अनुभव-दृष्टि ! लिपिमयी दृष्टि, वाङमयो दृष्टि, मनोमयी दृष्टि ! इन तीनों दृष्टि का समावेश शास्त्र-दृष्टि में होता है । साथ ही, ये तीनों दृष्टि विशुद्ध आत्म-स्वरुप को देखने में सर्वदा असमर्थ हैं। ___लिपि' संज्ञाक्षर रुप होती है। भले वह लिपि हिंदी हो, संस्कृत हो, गुजराती हो अथवा अंग्रेजी हो। केवल अक्षर-दृष्टि से परम ब्रह्म का दर्शन नहीं होता है। वाड़मयी-दृष्टि व्यंजनाक्षर स्वरूप है, अर्थात् अक्षरों का उच्चारण करने मात्र से परम ब्रह्म का दर्शन नहीं होता है। जबकि मनोमयी दृष्टि अर्थ के परिज्ञान रूप है,-मतलब, कितना ही उच्च श्रेणी का अर्थज्ञान हमें प्राप्त हो जाए, लेकिन उस के माध्यम से क्लेशरहित विशुद्ध आत्म-स्वरुप का प्रत्यक्ष में दर्शन असंभव ही है। यदि कोई यह कहता है : “पुस्तक-पठन से और ग्रन्थाध्ययन करने से परम ब्रह्म के दर्शन होते हैं !' तो यह निरा भ्रम है। कोई कहता है कि 'श्लोक, शब्द अथवा अक्षरों का उच्चारण करने से आत्मा का दर्शन होता है, तो यह भी यथार्थ नहीं। कोई कहता हो कि 'शास्त्रों के सूक्ष्माति सूक्ष्म अर्थ को समझने से आत्मा का साक्षात्कार होता है', तो यह भी सरासर मिथ्या है। आत्मा का....कर्मों से मुक्त विशुद्ध आत्मा के दर्शन हेतु आवश्यक है केवलज्ञान की दृष्टि । अनुभव की दृष्टि । जब तक अपनी दृष्टि Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० कर्मों के रोग से प्रभावित है तब तक कम - मुक्त आत्मा के दर्शन नहीं होंगे । लाल रंग की ऐनक लगाने से सिवाय लाल ही लाल रंग के, और कुछ दिखायी नहीं देगा | वैसे ही कर्मों के प्रभाव तले रही दृष्टि से सब कर्म - युक्त ही दिखायी देगा, कर्म - रहित कुछ नहीं । राग - युक्त और द्वेष-प्रचुर दृष्टि क्या वीतराग को देख सकेगी ? वीतराग के शरीर को भले देख ले, लेकिन वीतराग की आत्मा को देख न पाएगी । अपनी वीतराग-ग्रात्मा का साक्षात्कार करने के लिए तो दृष्टि राग-द्वेषरहित ही होनी चाहिए । कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही हैं की अपनी दृष्टि को निर्मल, विमल करो । दृष्टि निर्मल करने का अर्थ है मानसिक विचारों को विमल, विशुद्ध करना । हर पल और हर घडी राग-द्व ेष के द्वंद में उलझे विचार आत्मचिंतन नहीं कर सकते । जब तक वैचारिक प्रवाह राग-द्वेष की गिरि-कंदराओं से अबाध गति से प्रवाहित है तब तक कोलाहल होना स्वाभाविक है ! आंतरिक राग-द्वेष से मुक्ति पाने हेतु पाँच इन्द्रियों पर संयम, चार कषायों पर अंकुश, पाँच प्रास्रवों से विराम और तीन दंड़ से विरति कुल सत्तरह प्रकार के संयम का पालन करना ही पडेगा । केवल बाह्य संयम नहीं, अपितु प्रांतरिक संयम ! अपनी मनः स्थिति का ऐसा सर्जन करें कि विचार विषय कषाय, आस्रव और दंड की तरफ मुड़े ही नहीं । I ज्ञानसार विश्व में कदम-कदम पर उपस्थित समस्याएँ और घटनाएँ, जो अनुकूल-प्रतिकूल होती हैं, उसके प्रति हमारा मन - राग-द्वेष से भर न जाएँ, बल्कि तटस्थता धारण करें, तभी आत्म-स्वरुप को सन्निकटता संभव है । वर्ना निरंतर क्रोधादि कषाय में अंधे बने, शब्दादि विषय के प्रति आकर्षित और हिंसादि प्रस्रवों में लीन हम, विशुद्ध प्रात्मस्वरूप के दर्शन की बात करने भी क्या योग्य है वास्तव में चर्मदृष्टि में उलझे हुए अपन 'आत्म दर्शन' पर धुआँधार भाषण सुनते रहें फिर भी हम पर उसका कोई प्रभाव नहीं पडता है । अर्थ : न सुषुप्तिर मोहत्वान्नापि च स्वापजागरौ । कल्पनाशिल्प विश्रान्तेस्तुयें वानुभवो दशा ॥७॥२०७॥ मोहरहित होने से गाढ़ निद्रा रुपी सुषुप्ति-दशा नहीं है, ठीक वैसे Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव ४०१ ही स्वप्न और जागृत - दशा भी नहीं है । वह कल्पना रुपी कलाकौशल्य के प्रभाव के कारण, अनुभव रूपी चतुर्थ अवस्था है । विवेचन: अनुभवदशा !!! क्या वह सुषुप्ति-दशा है ? क्या वह स्वप्न-दशा है ? क्या वह जागृत-दशा है ? ईन तीन दशाओं में से क्या किसी में भी अनुभवदशा का समावेश हो, ऐसा नहीं है ? क्यों नहीं ? आइए, इस मसले पर विचार करें । (i) सुषुप्ति दशा निर्विकल्प है, अर्थात् सुषुप्तावस्था में मानसिक कोई विकार अथवा विचार नहीं होता । वह इन सब से निर्लिप्त होती है । लेकिन इस अवस्था में भी आत्मा मोह के बन्धनों से मुक्त नहीं होती । प्रनुभवदशा तो मोह के प्रभाव से सर्वथा मुक्त ही होती है । फलत: अनुभव का समावेश सुषुप्ति में नहीं हो सकता । (ii) स्वप्न के साथ अनुभव की तुलना कर सकते है ? स्वप्न भले कितना ही भव्य, सुन्दर, मनमोहक हो.... फिर भी सिवाय कल्पना के उस में वास्तविकता का अंश भी नहीं होता । जबकि अनुभवदशा में कल्पना का अंश भी नहीं होता ! प्रत: स्वप्नावस्था में भी अनुभव का समावेश असंभव है, ना ही स्वप्नदशा को अनुभवदशा कह सकते । (iii) जाग्रतावस्था भी कल्पना-शिल्प का ही सर्जन है । उसे अनुभव दशा नहीं कह सकते । अनुभवदशा इन तीनों अवस्थाओं से भिन्न चौथी दशा ही है । विश्व में एक वर्ग ऐसा भी है, जो 'सुषुप्ति' को प्रात्मानुभव के रूप में समझता है । उस का कहना है: “शून्य हो जानों, सभी इच्छा, आकांक्षा और अभिलाषाओं से मुक्त बन जाओ.... और ऐसी अवस्था में जिलनी अवधि तक रह सको तब तक रहो ! उस दौरान तुम्हें आत्मानुभव होगा !" सुषुप्तावस्था - गाढ निद्रा में कोई विचार नहीं होता, परंतु इस अवस्था में तुम्हारा मन मोहशून्य भी नहीं होता । अल्पावधि के लिए मोह-मायादि के विकल्पों से मुक्त हो जाने मात्र से मोहावस्था दूर नहीं हो जाती । घंटे, दो घंटे के लिए शून्यता के समुद्र में गोता लगा देने से, भीतर में घर कर गयी मोहावस्था धुल नहीं जाती । बल्कि शून्य में २६ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ज्ञानसार से वास्तविकता में पदार्पण करते ही पुनः नारी, धन-संपत्ति, भोजन, परिवारादि के प्रति मोहजन्य वृत्तियाँ दुगुने वेग से उमड़ आती हैं । लेकिन अनुभवदशा में ऐसी स्थिति कभी नहीं बनती। अनुभवदशा में तो दिन-रात...निर्जन जंगल या नगर-परिसर में हर कहीं सदा-सर्वदा एक ही अवस्था....! मोहशून्य अवस्था ! वहाँ होता है केवल वास्तविक प्रात्मदर्शन का अपूर्व प्रानन्द और एक-सी आत्मानुभूति ! शून्यावस्था में आत्म-साक्षात्कार की डिंगे हाँकनेवाले जब शून्यता के समुद्र में गोता लगा कर बाहर निकलते हैं, तब उन का मन संसार के शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श का भोगोपभोग करने के लिए, प्रानन्द लटने के लिए कितने आतुर, अधीर एवं प्राकुल-व्याकल होते हैं-इस का बीभत्स दृश्य तुम्हें 'माधुनिक भगवानों' के आश्रमों में दृष्टिगोचर होगा। तनिक वहाँ जाकर देखो? भोग-विलास और कामवासना-प्रचुर उस जघन्य विश्व में 'आत्मानुभूति' की खोज में निकल पडे उन बुद्धिशाली, दिग्गज पंडितों को धन्यवाद दें या उनका धिक्कार करें ? कभी-कभार उक्त प्राध्यापक (भगवान? ) महोदय प्राकृतिक...नैसर्गिक कल्पनासष्टि का सजन, अपनी अनूठी प्रभावशाली साहित्यिक भाषा में करते हैं और उक्त कल्पना के माध्यम से प्रात्मदर्शन....यात्मानुभूति कराने का आडम्बर रचाते हैं ! क्या विचार शून्यता प्रात्मानुभूति ? क्या नैसिर्गिक मानसिक कल्पनाचित्र मतलब आत्मानुभूति ? तब तो विचारशून्य एकेन्द्रिय जीवों को प्रात्म-साक्षात्कार हआ समझना चाहिए और सदा-सर्वदा निसर्ग की गोद में किल्लोल केलि करते पशु-पक्षियों को प्रात्मानुभूति के फिरस्ते समझने चाहिए ! तात्पर्य यह है कि आत्मानुभव सुषुप्तावस्था, स्वप्नावस्था और जागृतावस्था नहीं है, बल्कि इस से बिल्कुल भिन्न कोई चौथी दशा है । जिस की प्राप्ति हेतु हमें सही दिशा में पुरूषार्थ करना चाहिए। अधिगत्याखिलं शब्द-ब्रह्म शास्दशा मुनिः। स्वसंवेद्यं परं ब्रह्मानुभवेनाधिगच्छति ॥८॥२०८।। अर्थ : मुनि शास्त्र-दृष्टि से समस्त शब्दब्रह्म को अवगत कर, स्वानुभव से स्वयं प्रकाश ऐसे परब्रह्म....परमात्मा को जानता है । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव विवेचन : "यदि अनुभव-दृष्टि से ही विशुद्ध आत्म-स्वरुप का साक्षात्कार संभव है, तब फिर शास्त्रों का क्या प्रयोजन ? शास्त्राध्ययन, चिंतनमनन किसी काम का नहीं न ?” ४०३ इस प्रश्न का यहाँ निराकरण किया गया है। शास्त्र दृष्टि से समस्त शब्द - ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना है, और उस ज्ञान से परमात्म-स्वरूप का रहस्य समझना है ? विना शास्त्र दृष्टि के शब्द - ब्रह्म का ज्ञान असंभव है और अनुभव - दृष्टि विकसित नहीं होती । शास्त्रों का अध्ययन और चिंतन-मनन अनुभव दृष्टि के लिए आवश्यक है । हाँ, शास्त्राध्ययन का ध्येय 'अनुभव' होना चाहिए । शास्त्रों की जाल में अटकने से कोई लाभ नहीं । यश-कीर्ति की पताका सर्वत्र लहराने के लिए शास्त्राध्ययन कर विद्वत्ता अर्जित करने वाले जीव अनुभवदृष्टि से वंचित रह जाते हैं । शास्त्रों का ज्ञान इस दृष्टि से प्राप्त करना चाहिए कि 'शास्त्र' ही हमारी 'दृष्टि' बन जाएँ । 'चर्मदृष्टि' पर 'शास्त्रदृष्टि' की ऐनक ऐसी तो व्यवस्थित बैठ जानी चाहिए की जो कुछ देखें, सुनें- समझें और चिंतन-मनन करें उसका एकमेव आधार शास्त्र ही हो । लगातार चार-चार माह के उपवास करने वाले मुनियों ने कुरगडु मुनि के पात्र में थूक दिया, तब कुरगडु मुनि ने उसे 'शास्त्रदृष्टि' से देखा था ! तपस्वियों के तिरस्कार-युक्त वाणी-शरों को शास्त्रदृष्टि से शांत रह केले थे । घृणायुक्त नयन-बाणों का समता भाव से सामना किया था ! (i) 'चर्मदृष्टि' ने जिसे 'थ्रुक' बताया 'शास्त्र - दृष्टि' ने उसे 'घी' समझा ! 'यह तो रुखे - सुखे भोजन में मुनिश्री ने कृपा कर 'घी' डाल दिया है ! तपस्वियों के मुख का अमृत ! ' (ii) चर्मदृष्टि से जो वचन असह्य पीडा के कारण थे, शास्त्रदृष्टि ने उन्हें 'पवित्र प्रेरणा का प्रवाह' माना ! ' संवत्सरी के पवित्र दिन भी मैं पेट भरने वाला हूँ.... मुझे इन तपस्वियों ने अनाहारी पद की प्रेरणा दी है !' (iii) मुनियों के दुर्व्यवहार और अपमानास्पद प्रवृत्ति को चर्मदृष्टि Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ज्ञानसार जहां 'क्रोधी-मिथ्याभिमानी' समझती थी, वहाँ शास्त्र दृष्टि उन्हें मोक्षमार्ग के अनन्य यात्रिक निर्देशित कर रही थी ! मोक्षमार्ग के पथप्रदर्शक मान रही थी! शास्रदृष्टि के बल पर कुरगडु मुनि ने ज्यों ही अनुभव का अमृतलाभ प्राप्त किया, कि शिघ्र अनुभव-दृष्टि से उन्हेंने विशुद्ध परम ब्रह्म का दर्शन किया ! ऐसा अनुपम कार्य करती है शास्त्रदृष्टि ! - एक पाँव पर खड़े, दोनों हाथ आकाश की और उठाये तथा सूर्य की और निर्निमेष दृष्टि से स्थिर देखते प्रसन्नचंद्र राजर्षि के कान पर जब राज-मार्ग से गुजरते सैनिकों के ये शब्द पडे : “देखो तो, विधि की कैसी घोर विडम्बना ? बाल राजकुमार को छोड, यहाँ जंगल में प्रसन्नचंद्र राजर्षि कठोर तपस्या में लीन हैं और वहाँ राजकुमार के काका उसका राज्य हडपने के फिराक में है!" । बस, इतनी सी बात ! लेकिन प्रसन्नचंद्र राजर्षि ने उसे शास्त्रदृष्टि से नहीं देखा और ना ही सुना! तत्काल उन्होंने अपनी मनोभूमि पर शत्रु के साथ संघर्ष छेड दिया ! युद्धोन्माद से रौद्र रूप धारण कर दिया। घोर हिंसा का तांडव मच गया....और सातवी नर्क की ओर ले जाने वाले कर्म-बंधन का जाल गथने में प्रवृत्त बन गये ! उसी समय समवसरण में रहे भगवान महावीर प्रसन्नचंद्र राजर्षि की उक्त चर्महिष्ट की अपरम्पार लीला शांत भाव से देखते रहे ! उसी समवसरण में उपस्थित सम्राट श्रेणिक जब राजर्षि की घोर तपस्या की भूरी-भूरी प्रशंसा करने लगे तब भगवान ने केवल इतना ही कहाँ : "हे श्रेणिक ! यदि इसी क्षण राजर्षि का अंत हो जाएँ तो वह सातवीं नरक में जाएगा!" राजर्षि मुनिवेश में थे ! ध्यानस्थ मुद्रा में थे। कठोर तपश्चर्या के गजराज पर आरूढ थे....! लेकिन थे शास्त्र दृष्टि से रहित ! फलस्वरूप उनकी श्रमण-शक्ति अधोगमन का निमित्त बन गयी ! लेकिन जैसे Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव ४०५ ही उन्हें 'शास्त्र-दृष्टि' प्राप्त हुई कि घ्यान में परिवर्तन आया ! शत्रु को मारने हेतु मुकुट लेने मस्तक की ओर दोनों हाथ गये और अपने मुंडित मस्तक का आभास होते ही, अविलम्ब दृष्टि-परिवर्तन हुआ । शास्त्ररष्टि ने उन्हें अधोगति के नरक-कंड में गिरते हुए थाम लिया....। यकायक पूरे वेग से....और क्षणार्ध में ही उन्हें 'केवल ज्ञान' की रमणीय भूमि पर ला रखा ! वे केवलज्ञान के अधिकारी बन गये । अतः शास्त्रदृष्टि से शास्त्राध्ययन और चिंतन-मनन कर, उस के द्वारा विश्वदर्शन करने से ही परब्रह्म परमात्मावस्था को प्राप्त कर सकेंगे। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. योग deseseseseksiseobsksksksbshsentedeshsebblesedesiblesteoblentiseoesbdodegedeseseseseseksebedeseshsksksksbjestaske-lassessedtesteobstetiviteolediesentendeserjise deseseseseskies यदि तुमने कभी किसी मुनि, योगी, पहुंचे हुए सन्यासी अथवा विद्वान् प्राध्यापक के योगविषयक प्रवचन सुने होंगे, तो प्रस्तुत अष्टक निःसन्देह तुम्हारा वास्तविक मार्गदर्शन करेगा। अाधुनिक युग में योग के नाम पर कई प्रकार की भ्रामक बातें देश-विदेश में प्रचलित-प्रसारित हैं । योग-संबंधित विभिध प्रयोगों को परिलक्षित कर चित्र उतर रहे हैं । कामभोगी पाखंडी, योगी का स्वांग रच, योग-क्रियाये शिखा रहे हैं ! इसे अवश्य पढो, एकाग्र-चित्त से इस का चिन्तन-मनन करो । प्रस्तुत प्रकरण के आठ श्लोक, शताब्दियों पूर्व एक निष्काम महर्षि की लेखनी से प्रसृत है । योग-विषयक तुम्हारा यथार्थ पथ-प्रदर्शन करते हुए अनन्य मार्ग-दर्शक सिद्ध होंगे। ppedesseslesedesbdevedosekse.bobsedesedodosdesobsesedkibeestabesedeseseshobhsbdutodesksbsebedesheredesesesentsodedesertededbedeobdesibideobhsbedashisasterpisodesertedly Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग ४०७ मोक्षण योजनाद योगः सोऽप्याचार इष्यते । विशिष्य स्थानवालम्बनकार यगोचरः ॥१॥२०॥ अर्थ :- मोक्ष के साथ प्रात्मा को जोड देने से समस्त आचार योग कहलाता है, विशेष रूप से स्थान (आसनादि) वर्ण (अक्षर) अर्थज्ञान, बालंबन और एकाग्रता विषयक है । विवेचन :- भोग और योग ! भोग पर से दृष्टि हटे, तो योग पर दृष्टि जमे । जब तक भोग के भूत-पलित जीव के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं, उस पर अपना जबरदस्त वर्चस्व जमाये बैठे हैं, तब तक योग-मार्ग दृष्टिगत होगा ही नहीं। सामान्यतः विषयभोगी योगमार्ग को दुःखपूर्ण महसूस करता है । अलबत्त, वैषयिक सुखों से सर्वथा विरक्त बना, शास्त्रदृष्टियुक्त साधक, उसमें से भी ऐसा मार्ग खोज निकालता है कि जिस पर विचरण करते हुए सरलता से परम सुख प्राप्त कर सके । मार्ग में आने वाली मुश्किलियाँ और कठिनाईयाँ व भय उसके मन तुच्छ होते हैं । उसके मन में निरन्तर उमड़ रहा सत्वभाव विध्नों को कुचल कर प्रगति के पथ पर अग्रसर करता है । मोक्ष और संसार को जोड़ने वाला मार्ग है- योगमार्ग । 'मोक्षण योजनाद् योगः' मोक्ष के साथ आत्मा का जो सम्बन्ध कराता है, उसे योग कहते हैं । जिस मार्ग का अवलंबन कर आत्मा मोक्ष-मॅजिल पर पहुँच जाए, वह योग-मार्ग कहलाता है । 'योगविंशिका' ग्रंथ में आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने कहा है'मुक्खेण जोयणाओ 'जोगो सम्वो वि धम्मवावारो ।' 'मोक्ष के साथ जोड़ने वाला होने के कारण समस्त धर्म-व्यापार योग है।' मोक्ष के कारणभूत जीव का पुरूषार्थ यानी योग। लेकिन यहाँ विशेष रुप से पांच प्रकार के योग का वर्णन किया गया है : * (१)स्थान, (२) वर्ण, (३) अर्थ, (४) आलंबन, (५)एकाग्रता। (१) सकल शास्त्र-प्रसिद्ध कायोत्सर्ग, पर्यकबन्ध, पद्मासन आदि आसन, यह स्थान-योग है। * देखिए परिशिष्ट में 'समाधि' Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) धर्मक्रिया में प्रयुक्त शब्द, यह वर्णयोग है । (३) शब्दाभिषंय का व्यवसाय, यह अर्थयोग है । (४) बाह्य प्रतिमादि विषयक ध्यान, यह प्रालंबन योग है । (५) रूपी द्रव्य के आलंबन से रहित निर्विकल्प चिन्मात्र समाधि, यह एकाग्रता-योग है। ___ इन पांच योगों में पहले चार योग 'सविकल्प समाधि'-स्वरुप हैं जबकि पांचवां योग निर्विकल्प-समाधि'-स्वरूप है । इन पांचों प्रकार में पहला प्रकार 'पासन' है। प्रत्येक योगाचार्य ने योग का आरंभ आसन से ही निर्दिष्ट किया है। अष्टांग योग में भी प्रथम स्थान प्रासन को ही है । 'आसन' के माध्यम से शारीरिक चंचलता, अस्थिरता और उद्विग्नता दूर करनी होती है । जब तक शारीरिक स्थिरता नहीं आती. तब तक मानसिक स्थिरता भी प्राय: असंभव है। हमारी समस्त धार्मिक क्रियायें, उदाहरणार्थ : सामायिक, चैत्यवंदन प्रतिक्रमण आदि में 'प्रासन का महत्त्व है । सामायिक में सुखासन, पद्मासन अथवा सिद्धासन में बैठा जाय और स्वाध्याय, जाप व ध्यानादि क्रियायें संपन्न की जायें, तो उक्त क्रियायें निःसन्देह प्रभावोत्पादक सिद्ध होती हैं। प्रतिक्रमण में 'कायोत्सर्ग' किया जाता है,वह भी एक प्रकार का प्रासन ही है । अतः कायोत्सर्ग के दोष टालने का लक्ष्य होना चाहिये । ठीक उसी तरह मुद्राओं का भी लक्ष्य होना चाहिये । किस क्रिया में किस मुद्रा का प्रयोग किया जाए, उस का यथेष्ट ज्ञान होना आवश्यक है। वैसे ही सूत्रार्थ का पर्याप्त ज्ञान और उसका उपयोग चाहिए । उच्चारण भी शुद्ध होना चाहिए । हमारे सामने प्रतिमा स्थापनाजी आदि जो आलंबन हो, उसके प्रति दृष्टि स्थिर होना जरुरी है। इस प्रकार यदि धर्मक्रिया की जाये, तो क्रिया ही महान योग बन जाती है । यही योग आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ देता है। • बैठने का ढंग नहीं, सूत्रोच्चारण में शुद्धि नहीं, अर्थोपयोग के प्रति उपेक्षा भाव, मुद्राओं का ख्याल नहों और आलंबन के संबन्ध में पूरी लापरवाही ! ऐसा योग आत्मा को मोक्ष के साथ नहीं जोड़ पाता ! अरे, योग के बल पर भोग-प्राप्ति के नित्यप्रति जो स्वप्न देखते हैं, ऐसे रो-तमो गुरण से आच्छादित जीव योग की कदर्थना करते देखे जाते हैं । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग ४०३ कर्मयोग द्वयं तत्र, ज्ञानयोग त्रयं विदुः । विरतेष्वेव नियमाद, बीजमात्रं परेष्वपि ।।२।।२१०।। अर्थ :- उसमें से दो कर्मयोग और शेष तीन ज्ञानयोग, जानने वाले विरति वंतों में अवश्य होते है, जबकि अन्यों में भी बीजरुष हैं । विवेचन :- 'ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्ष: ज्ञान और क्रिया के संयोग से मोक्ष होता है । इन पाँच योगों में दो क्रियायोग हैं और तीन ज्ञानयोग । -स्थान और शब्द, क्रियायोग हैं । -अर्थ, प्रालंबन और एकाग्रता ज्ञानयोग हैं । कायोत्सर्ग, पद्मासनादि आसन, योग-मुद्रा, मुक्तासूक्ति-मुद्रा एवं जिनमुद्रा आदि मुद्राओं का समावेश क्रियायोग में है । यदि हम आसन और मुद्राओं की सावधानी बरते बिना प्रतिक्रमण, चैत्यवन्दनादि वार्मिक क्रियायें संपन्न करें, तो क्या वह क्रिया-योग कहलायेगा ? क्या हम क्रियायोग को भी सांगोपांग आराधना करते हैं ? प्रतिक्रमणादि में कायोत्सर्ग करते हैं, क्या वह नियमानुसार होता है ? कायोत्सर्ग कैसे किया जाय, इसका प्रशिक्षण लिये बिना कायोत्सर्ग करने वाले क्या 'स्थान योग' की उपेक्षा नहीं करते ? अरे, उन्हें यह भी ज्ञात नहीं कि कायोत्सर्ग भी एक तरह का योग है ! पद्मासनादि आसन भी योग ही हैं । योगमुद्रादि मुद्रायें भी योग का ही प्रकार है । किस समय किन मुद्राओं का उपपोग करना चाहिये, इसका ख्याल कितने जीवों को है ? 'वर्ण-योग' की आराधना भी क्रिया योग है । सामायिकादि के सूत्रो का उच्चारण किस पद्धति से करते हैं ? क्या उसमें शुद्धि का लक्ष्य है ? उनमें रही संपदाओं (अल्पविराम, अर्घविराम और पूर्णविराम ) का ख्याल है? क्या एक नवकारमंत्र का उच्चारण भी शुद्ध है ? यदि इसी तरह स्थानयोग एवं वर्णयोग का पालन न करें और क्रियायें करते रहें, तो क्या क्रियायोग के आराधक कहलायेंगे ? 'ज्ञान-योग' में प्रत्येक सूत्र का अर्थबोध होना नितान्त आवश्यक है । मानसिक स्थिरता और चित्त की प्रसन्नता क्रियायोग में तभी संभव है, यदि उसका सही-सही अर्थबोध होता हो । अर्थज्ञान इस तरह प्राप्त करना चाहिये कि, जिससे सूत्रों का आलंबन लिये बिना अर्थों का संकलन अबाध रूप से चलता रहे और उसके भाव-प्रवाह में जीव अपने आप प्रवाहित हो उठे । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ज्ञानसार आमतौर पर यह शिकायत सुनने में आती है कि 'धर्म-क्रियाओं में हमें प्रानन्द नहीं आता ।' लेकिन प्रश्न तो यह है कि प्रानन्दप्राप्ति के लिये भला कौन धार्मिक-क्रियायें करता है ? अलबत्त, धर्म-क्रियायें असीम आनन्द की केन्द्रबिन्दु बन सकती हैं, अगर उनमें से आनन्दप्राप्ति की आन्तरिक तमन्ना हमारे में हो । सिनेमा, नाटक, सर्कस आदि में खोकर आनन्द लटने की प्रवृति जब तक प्रबल है, तब तक धर्मक्रियायें निष्प्रयोजन ही प्रतीत होंगी । अरे भाई, भोगी भी क्या कभी योग को पसन्द करता है ? भोग में नीरसता पाए बिना योग में सरसता कहाँ से आयेगी ? योगक्रियाओं में जुड़े हुए भोगी का मन जब भोग की भूलभूलैया में उलझ जाता है, तब वह यौगिक क्रियाओं में दोष देखता है। 'आलम्बन' के माध्यम से योगी अपने मन को स्थिर रखता है । परमात्मा की प्रतिमा उसका सर्वश्रेष्ठ आलंबन है । पद्मासनस्थ मध्यस्थ भावधारक प्रतिमा, योगी के मन को स्थिर रखती है । योगी के लिए जिनप्रतिमा प्रेरणा-स्रोत बनी रहती है। उस की आँखें बन्द होने के उपरांत भी उसका मन निरन्तर उक्त प्रतिमा के दर्शन करता रहता है । उस की जिहवा शान्त होने पर भी मन ही मन वह परमात्मस्तुति में लीन रहता है । मतलब यह कि, परमात्मदशा के प्रेमी जीव के लिए प्रतिमा, स्नेहसंवनन करने का श्रेष्ठ साधन सिद्ध होती है। जिसके लिए मानव-मन में राग-अनुराग, स्नेह और प्रीति हो, उसके विरहकाल में उसकी प्रतिकृति/छबि, उसकी मूर्ति का क्या महत्त्व है- यह उसे पूछे बिना पता नहीं लगेगा । उक्त छबि/प्रतिकृति के माध्यम से परमात्मप्रेमी उसकी निकटता का एहसास करता है । फलतः उसकी स्मृति तरोताजा रखता है और उसके स्वरूप का यथेष्ट ख्याल रखता है। साथ ही जब उक्त आलंबन द्वारा उसके प्रेम की उत्कटता प्रकट होती है, तब वह (प्रेमी) पांचवें योग में पहुँच जाता 'रहित' योग में किसी विकल्प, विचार अथवा कल्पना के लिये स्थान नहीं । वह पूर्णरूप से एकाकार बन जाता है, तब भला, विचार किस बात का करना ? Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग ४११ इस तरह ज्ञानयोग एवं क्रियायोग में पूर्णतः समरस हो, मुनि उसकी आराधना करते हैं, जबकि अपुनर्बन्धक, श्रावक वगैरह में इसका प्रारंभ होने से उनमें सिर्फ योगबीज ही होता है । कृपानि वसंवेग-प्रशमोत्पत्तिकारिण : । भेदाः प्रत्येकमत्रेच्छा-प्रवृत्तिस्थिरसिद्वयः ॥३॥२११॥ अर्थ : प्रत्येक योग के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता एवं सिद्धि-चार भेद होते हैं। जो कपा, संसार का भय, मोक्ष की कामना और प्रशम की उत्पत्ति करने वाले हैं। विवेचन :- कुल पाँच योग हैं । प्रत्येक योग के चार-चार भेद अर्थात् सब मिलाकर बीस प्रकार होते हैं। हर एक योग के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता और सिद्धि- ये चार भेद हैं । प्रथम योग है-'स्थान' ।इससे आसन और मुद्राओं की इच्छा जागत होती है। तत्पश्चात् उसमें प्रवृत्ति होती है, अर्थात् जिस धर्मक्रिया में जो आसन और मुद्रा आवश्यक है, उसे करें। तब उसमें स्थिरता का प्रादुर्भाव होता है। मतलब आसन/मुद्रा के द्वारा चंचलता, अरुचि और उदासीनता दूर होती है । इस तरह आसन और मुद्रा सिद्ध होती है। द्वितीय योग है- 'उण' । जिस क्रिया में जिन सूत्रों का उच्चारण करना हो, उन सूत्रों का पर्याप्त अध्ययन करने की इच्छा प्रकट होती है। तत्पश्चात् संबंधित क्रियाओं में सूत्रों का उच्चारण करने की प्रवृत्ति करें। सूत्रों के उच्चारण में स्थिरता आती है, यानी कभी तेज गति तो कभी मंद गति, ऐसी अस्थिरता नहीं रहे। इस तरह सूत्रोच्चार की सिद्धि प्राप्त होती है। तृतीय योग है-'अर्थ'। संबंधित सूत्रों के अर्थ का ज्ञान आत्मसात् करने की भावना पैदा हो । अर्थज्ञान प्राप्त करने की प्रवृत्ति करे । अर्थ-ज्ञान स्थिर बने, यानो दुबारा वह विस्मरण न हो जाए, इस तरह अर्थज्ञान की ऐसी सिद्धि प्राप्त करें कि वह जो-जो धर्म क्रियायें करे, स्वाभाविक रुप से उसका अर्थोपयोग होता रहे। चतुर्थ योग है 'आलंबन' । आलंबन-स्वरुप जिन-प्रतिमादि के प्रति प्रीतिभाव पैदा हो, उस का पालंबन ग्रहण करने की प्रवृत्ति करें और मन निःशंक, निर्भय बन उस में स्थिर हो जाए। साथ ही ऐसी स्थिरता Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ज्ञानसार प्राप्त करें कि दूसरों को भी उसके प्रति आकर्षित करें। _ 'रहित' निर्विकल्प समाधि-स्वरुप है । अर्थात् उसमें इच्छादि का प्रश्न ही नहीं पैदा होता । परन्तु वैसे निर्विकल्प योगी-पुरुषों की सदैव प्रशंसा करे और खुद वैसा बनने के उपायों में प्रवृत्ति करे। इससे मन स्थिरता प्राप्त करता रहे और वह ऐसा निरालंबन योगी बन जाए कि अन्य जीवों को भी अपने योग की तरफ आकर्षित कर दे। ___इन योगों से आत्मा में अनुकंपा, निर्वेद, संवेग और प्रशम भाव पैदा होते हैं; अर्थात् आत्मा का संवेदन ही ऐसा बन जाता है । दीन-दुःखी जीवों को देखकर, मन ही मन उनका दुःख-दर्द दूर करने की उत्कट भावना पैदा हो। द्रव्य से दुःखी जीवों का दुःख दूर करने की इच्छा प्रकट हो जाए कि वह दीन-दुःखियों की कभी उपेक्षा न कर सके। सांसारिक सुखों से विरक्त बन जाए। उसे वह कारावास समझे। निर्जन श्मशान समझे। सदा कर्म-बन्धनों से मुक्त होने की ही पैरवी करे। संसार के सुख भले ही चक्रवर्ती या इन्द्र के हों, भूल कर भी उनकी तरफ आकर्षित नहीं होता। योगी का मन सदा-सर्वदा आत्मा की परिशुद्ध अवस्था प्राप्त करने के लिए तरसता है। 'मैं कब मोक्ष पाऊँगा ?' यह तमन्ना निरंतर बनी रहती है। सदैव वह मोक्ष-सुख की ओर ही आकर्षित होता है। उपशम का वह शान्त-प्रशान्त सागर होता है । कषायों का उन्माद उसके मन को स्पर्श तक नहीं कर सकता और ना ही उसे कभी अपने ध्येय से विचलित कर सकता है। उस का मुखमंडल अहर्निश शान्तनिश्चल भावों से देदीप्यमान होता है । इच्छादि योगों का यह फल है। अणुकंपा निवेओ, संवेगो होई तह य पसमु त्ति। एएसिं अणुभावा, इच्छाईणं जहा संखं ।। -योगविंशिका इच्छादि-योगों के अनुभाव हैं-अनुकंपा, निर्वेद, संवेग और प्रशम । इन अनुभावों के प्रकटीकरण हेतु योगी को निरन्तर पुरुषार्थ करना चाहिए । इनसे आत्मा अपूर्व आनन्द का अनुभव करती है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग ४१३ हमेशा ज्ञान और क्रिया द्वारा प्रात्म-भावों में परिवर्तन लाने का लक्ष्य होना चाहिये। न भूलो कि हमें लौकिक भाव से लोकोत्तर भावों की और जाना है । स्थूल में से सूक्ष्म की ओर जाना है । इच्छा तद्वत् कथाप्रीति : प्रवृत्तिः पालनं परम् । स्थैर्य बाधकभीहानिः, सिद्धिरन्यार्थसाधनम् ।।४॥२१२।। अर्थ : योगी की कथा में प्रीति होना, यह इच्छा-योग है। उपयोग का पालन करना प्रवृत्ति-योग है। अतिचार के भय से मुक्ति, स्थिरता योग है और दूसरों के अर्थ का साधन करना सिद्धि-योग है। विवेचन :-यहाँ इच्छादि चार योगों की स्वतंत्र परिभाषा दी गयी है: १ इच्छा योग योगी पुरुषों की कथाओं में रुचि पैदा करता है। अर्थात् योग और योगी की कथायें बहुत प्रिय लगतो हैं । निर्जन, उज्जड श्मशान में कायोत्सर्ग-ध्यान में निमग्न अवंती सुकुमाल मुनि की कहानी सुनाइए, वह तन्मय/तल्लीन हो जाएगा। कृष्ण-वासुदेव के भ्राता गजसुकुमालमुनि की कथा कहिए, वह सब कुछ भूलकर निमग्न हो जाएगा। उसे आप खंधक मुनि अथवा झांझरिया मुनि की वार्ता कहिए, वह खानापीना तक छोड़ देगा। ऐसा मनुष्य इच्छायोगी होता है। साथ ही यह मत मानना कि कथायें सबको पसन्द हैं । सब को ऐसो कथायें पसन्द नहीं होतीं, इच्छायोगी को ही पसन्द होती हैं । इच्छायोगी को आधुनिक युग की कपोल-कल्पित कहानियाँ, जासूसी कथायें, सामाजिक -श्रृगारिक कथायें एवं वैज्ञानिक अदभत कथायें नीरस लगती हैं। यह साहित्य न तो उन्हें रुचिकर लगता है और ना ही उन्हें पढ़ना पसन्द होता है। उन्हें देश-विदेश की कथायें, राजा और मंत्री की सत्तालोलुपता भरी कपट-कथायें पढ़ना कतई पसन्द नहीं । ठीक वैसे ही विभिन्न राष्ट्रों की नारी-कथायें, फैसन-परस्ती के किस्से-कहानियाँ और भूत-प्रेत की कथायें, मंत्र-तंत्र की कथायें तथा अपराध-जगत की अभिनव कथायें भो उन्हें पसन्द नहीं होती। भोजन को विविधता का वर्णन करती बातें भी अच्छी नहीं लगती। . २. जिसे जो पसन्द होता है, उसे प्राप्त करने अथवा उस जैसा बनने के लिए वह प्राय: प्रयत्नशील रहता है और इच्छायोगी ऐसे हर शुभ उपाय का पालन करने में सदैव तत्पर रहते हैं। ऐसा करते हुए Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार कोई 'योगी' उनका आदर्श बन जाता है, फिर भले ही वे आनन्दधनजी हों अथवा उपाध्याय यशोविजयजी हों। उन जैसा अपने आप को ढालने के लिए वह शुभ/पवित्र उपायों का पालन करता है । ३. संभव है, प्रारंभ के पुरुषार्थ में कुछ गलतियाँ/टियाँ रह जायें और अतिचार भी लग जायें। फिर भी सजग योगी के लक्ष्य से बाहर ये त्रुटियाँ अथवा अतिचार नहीं रहते। वह अतिचार टालने का हर संभव प्रयत्न करता है और अपनी भूलों को समय पर सुधार लेता है । वह ऐसा अप्रमत्त बन जाता है कि निरतिचार आचार-पालन करने लगता है । फलत: किसी अतिचार के लगने का उसे कोई भय नहीं रहता । ४. ऐसे महान् धुरंधर योगी को अहिंसादि विशिष्ट गुण सिद्ध हो जाते हैं कि उसके सान्निध्य में रहने वाले अन्य जीव भी इन गुणों को सहज में प्राप्त कर लेते हैं। मानव की वैर-वृत्ति शान्त हो जाती है, पशुओं की हिंसक-वृत्ति शान्त हो जाती है। सर्व प्रथम योग 'कथा-प्रीति' अनन्य महत्व रखता है। योगी की कथा-वार्ता का श्रवण करते हुए प्रीतिभाव पैदा होता है, वह प्रीति/ प्रेम स्वाभाविक होता है। ऐसे प्रीति-भावयुक्त मानव को स्थानादि योगों में प्रवृत्ति करना पसन्द होता है। अत: वह हमेशा योगी पुरुषों के सान्निध्य की खोज में रहता है और जब ऐसे योगीश्वर की भेट हो जाती है, तब उसके प्रानन्द की अवधि नहीं रहती। लेकिन वर्तमान समय में प्राय: मुनि-वर्ग में स्थानादि योग के प्रति प्रवत्ति दृष्टिगोचर नहीं होती और प्रामतौर पर सबकी धारणा बन गयी है कि जैसे वह अन्य लोगों के लिये ही हैं । अलबत्त, शास्त्र-स्वाध्याय एवं तपश्चर्या की परंपरा कायम है, लेकिन उस में स्थानादि योगों का समावेश नहीं दिखता । अतः शास्त्र-स्वाध्याय और तपश्चर्यायें सविकल्प से निर्विकल्प में जोव को नहीं ले जा सकती। . हालांकि मोक्ष के साथ जोड़ने की क्षमता रखने वाले धर्म-योगों की आराधना निर्विकल्प अवस्था तक ले जा सकती है। लेकिन जिन विधि-विधानों और पद्धतियों से धर्मक्रिया संपन्न होनी चाहिए, उस तरीके से ही होनी चाहिये। ठीक उसी तरह उक्त धर्मक्रियाओं को उत्तरोत्तर विशुद्ध एवं अतिचाररहित बनाने की सावधानी होनी चाहिये। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग प्रलंबनयोश्चत्यवन्दनादौ विभावनम् । श्रेयसे योगिन: स्थान वर्णयोर्यत्न एव च ॥५॥२१३।। अर्थ : चंत्यवन्दनादि क्रिया करते समय अर्थ एवं आलंबन का स्मरण करना तथा स्थान और वणं में उद्यम करना योगी के लिए कल्याण कारक है। विवेचन :- योगी ! ऊर्ध्वगामी गतिशीलता ! परम ज्योति में विलीन होने की गहन तत्परता ! तिमिराच्छन्न वातावरण में प्रकाश की तेजस्वी ज्योति को मुखरित करने वाले, असत्य को मिटाकर सत्य की प्रतिष्ठा करने वाले और मत्यु की जड़ता का उच्छेदन कर अमरता का वरण करने वाले अप्रतिम साहसो योगी ! योगी कल्याण की कामना रखता है ! सुख की चाह रखता है! लेकिन वह जिस कल्याण एवं सुख का ग्राहक है वह सुख विश्व के बाजार में कहीं भी प्राप्त नहीं होता । लेकिन बाजार में सुख-क्रय करने वालों की भीड़ अवश्य जुटी हुई है। योगी वहां जाता है, लेकिन वहाँ का कोलाहल, शोर गुल, भीड-भडक्का और आपाधापी निहार, मागे निकल जाता है। तब उसके आश्चर्य और निराशा की सीमा नहीं रहती। वह व्यथित....दुःखी हो उठता है, संसार के नजारे को देखकर । बाजार में सजाकर रखे गये सुखों की वास्तविकता को उसकी तीक्ष्ण नजर परख लेती है । फलस्वरुप उसका हृदय द्रवित हो उठता है....'अरे, यह तो हलाहल विष से भी ज्यादा दारूण है। उस पर सिर्फ सुख का मिथ्या श्रृंगार किया गया है, सुख का मुखौटा पहनाया गया है। खरीददार आन्तरिक विषैलेपन को समझ नहीं पाते, अनभिज्ञ जो है । जो कुछ भी चमक-दमक है, वह ऊपरी तौर पर है। लोग-बाग बड़े चाव से खरीदकर जाते हैं, उसका यथेष्ट उपभोग करते हैं और अन्त में मिट जाते हैं, मटियामेट हो जाते हैं। योगी सुख अवश्य चाहता है, लेकिन उसे पुद्गलों की आसक्ति नहीं। वह प्रानन्द चाहता है, लेकिन मन का उन्माद नहीं। वह सागर सा शान्त और उत्तुंग शिखरों की तरह स्वस्थ है । वह बाह्य विश्व से सुख.... Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार शान्ति और आनन्द-प्राप्ति की कामना का परित्याग कर, अपने प्रान्तर विश्व में झांकता है और तब उसे वहाँ अथाह सुख, परम शान्ति और असीम आनन्द के मुक्ता-मणि, हीरा-मोती अत्र-तत्र बिखरे दृष्टिगोचर होते हैं। वह प्रान्तर-सष्टि में प्रवेश करने का दृढ़ संकल्प करता है । उसके लिये वह सर्वज्ञ के शास्त्र-कोष से मार्गदर्शन खोजता है। मार्गदर्शन प्राप्त होते ही उसका दिल बाग-बाग हो उठता है, हृदय गद् गद् हो उठता है। उसके नयन से हर्षाश्रु उमड़ आते हैं । फलत: वह स्थान, वर्ण, अर्थ और प्रालंबन-इन चार योगों की अनन्य पाराधना प्रारंभ कर देता है। सर्व प्रथम प्रासन-मुद्राओं का अभ्यास करता है। सुखासन, पद्मासन, सिद्धासनादि प्रासन सिद्ध कर, प्रदीर्घ समय तक एक आसन पर ध्यानस्थ बैठ, अपने शरीर को नियंत्रित करता है। योग मुद्रा के सहयोग से मुद्रायें सिद्ध कर शरीर को स्वाधीन बनाता है। उस के लिये आवश्यक आहार-विहार और नीहार का चुस्ती के साथ पालन करता है। प्रमाद.... प्रशक्ति से अपने शरीर को सुरक्षित रख 'स्थानयोग' के लिये सुयोग बनाता है। तत्पश्चात अपनी दिनचर्या से जड़ी धार्मिक क्रियायें- चैत्यवन्दन, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन वगैरह क्रिया में बोले जाते सूत्रों का अध्ययन इस तरह करता है कि जिसका उच्चारण करने वाला और सुनने वाला, दोनों तन्मय हो जायें। उस के सशक्त और सूरीले गले से फूटी स्वरलहरियाँ बाह्य कोलाहल, शोर गुल को खदेड़ देती हैं। इस स्वरव्यंजना के नियमों का कठोर पालन करने वाला योगी 'वणंयोग' को भी सिद्ध कर देता है। उपर्युक्त पद्धति से तन-वचन पर असाधारण काबू पा मन को नियंत्रित करने की क्रिया (आराधना) में लग जाता है। उस के लिये वह आवश्यक क्रियाओं के सूत्रों का अर्थज्ञान प्राप्त करता है । अर्थज्ञान में से एकाध मनोहर कल्पना-सृष्टि का सर्जन करता है और सूत्रोच्चारण के साथ-साथ उक्त कल्पना-सृष्टि का 'रील' भी शुरू कर देता है। वह जो उच्चारण करता है, उस के प्रतिध्वनि का श्रवण Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग ४१७ करता है और इस तरह भावालोक का अवलोकन करता है । फलत: उसका मन उस में सघ जाता है, उसमें पूर्ण रुपेण श्रोत-प्रोत हो जाता है और उस में उसे प्रात्मानन्द की अनुभूति होती है । साथ ही साथ जिन - प्रतिमादि का प्रालंबन ग्रहण कर आनन्द में उत्तरोत्तर वृद्धि करता है । जिन - प्रतिमा में उसका मन प्रवेश करता है । फलत: वीतरागता एवं सर्वज्ञता के संग मुहब्बत हो जाती है । इस तरह योगी अपना कल्याण मार्ग प्रशस्त बनाता है । योगी का आभ्यन्तर सुख योगी खुद ही अनुभव करता है । भोगी उसे देख नहीं सकता, ना ही कह सकता है । और यदि कभी कह भी दे, तो भोगी को वह नीरस लगता है। योगी का सुख भोगी को आकर्षित नहीं कर सकता और ना ही भोगी का सुख योगी को कभी लनचा सकता है । आलंबनमिह ज्ञेयं, द्विविधं रुप्यरुपि च । अरूपगुणसायुज्य योगोऽनालम्बनः परः ||६।२१४।। अर्थ :- यहाँ प्रालंबन रुपी और अरुपी, दो प्रकार के हैं । अरुपी सि स्वरुप के साथ तन्मयतारूप योग, वह उत्कृष्ट निरालंबन योग हैं । विवेचन :- आलंबन के दो भेद हैं-रूपी श्रालंबन और अरूपी आलंबन | रुपी श्रालंबन में जिन - प्रतिमा का समावेश है, जबकि प्ररूपी ग्रालंबन का मतलब सिद्धस्वरुप का तादात्म्य । वह आलंबन होते हुए भी निरालंबन योग माना जाता है। श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने अपने ग्रंथ 'योगबिंशिका' में कहा है आलंबणं पि एवं हविमरुवि य इत्थ परमुति । तागुण परिणइरुवो सुमो प्रणालंबणो नाम ॥ यहाँ रुपी और रुपी, इस तरह प्रालंबन के दो भेद हैं । उस में भी श्ररुपी परमात्मा के केवलज्ञानादि गुणों के तन्मयता स्वरूप सूक्ष्म अनालंबन ( इन्द्रियों से अगोचर होने के कारण ) योग कहा है । पाँचवाँ एकाग्रता - योग ( रहित ) ही अनालंबन योग है । स्थान, वर्ण, अर्थ और आलंबन - ये चार योग सविकल्प - समाधि स्वरूप है, जब कि पाँचवाँ अनालम्बन योग निर्विकल्प समाधिस्वरूप है । प्रात्मा को २७ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ज्ञानसार क्रमशः इस निर्विकल्पदशा में पहुंचना है। . अशभ भावों से शुभ भाव में जाना पड़ता है और शुभ से शुद्ध भाव में प्रवेश संभव है। अशुभ भाव से सीधा शुद्ध भाव में जाना असंभव है। कंचन और कामिनी, मानव जीवन के ऐसे प्रालंबन हैं, जो आत्मा को सदैव राग-द्वेष और मोह में फंसाते हैं । दुर्गतियों में भटकाते हैं । अतः उन के स्थान पर अन्य शुभ आलंबनों को ग्रहण करने से ही उन प्रालंबनों से मुक्ति मिल सकती है। उदाहरणार्थ-एक बालक है। मिट्टी खाने को उसे पादत है। माता-पिता उस के हाथ से मिट्टी का ढेला. छिनने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन बालम उक्तः ढेला छोड़ने के बजाय जोर-जोर से रोने लगता है। जब माता उसके हाथ में खिलौना अथवा मिठाई का टुकड़ा देती है, तब वह मिट्टी का ढेला उठाकर फेंक देता है। ठीक उसी तरह अशुभ पापवर्धक प्रालंबनों से मुक्त होने के लिए शुभ पुण्यवर्धक प्रालंबनों को ग्रहण करना चाहिये । एक बात और है, जैसा आलंबन सामने होता है, वैसे ही विचार/ भाव हृदय में पैदा होते हैं । राग-द्वेष-प्ररक प्रालंबन हमेशा राग-द्वेष ही पैदा करेंगे, जबकि विराग-प्रशम के आलंबन आत्मा में विराग-प्रशम की ज्योति फैलाते हैं | अतः परमकपाल परमात्मा की वीतराग-मूर्ति का आलंबन लेने से चित्त में विराग की मस्ती जग पड़ेगी। श्री आनन्दधनजी महाराज ने गाया है: "अमोय भरी मतिं रची रे, उपमा न घटे कोय, शान्त सुधारस झीलती रे, निरखत तप्त न होय, विमल-जिन दीठां लोयरण आज जिनमर्ति का आलंबन मानव-मन में किस तरह के अदभत / अभिनव स्पन्दन प्रकट करते हैं -यह तो अनुभव करने से ही ज्ञात हो सकता है । इस तरह नित नियमानुसार प्रवृत्ति करते रहने से अन्त में परमात्मा में स्थिरता प्राप्त होगी। ध्यानावस्था में परमात्म-दर्शन होगा। हमारी आत्मा परमात्म स्वरूप के साथ ऐसा अपूर्व तादात्म्य साध लेगी कि आत्मा-परमात्मा का भेद ही मिट जाएगा! अभेद भाव से अनिर्वचनीय मिलन होगा । तब न कोई विकल्प शेष रहेगा और ना ही कोई अन्तर! भेद में विकल्प होता है जबकि अभेद में निर्विकल्पावस्था । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग ४१६ तत्पश्चात उसे रूपी-मूर्त प्रालंबन की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। सूक्ष्म में प्रवेश करने पर स्थूल की अपेक्षा नहीं रहती । सूक्ष्म आत्मगुणों का तादात्म्यसाधक योगी 'योग-निरोध' के सन्निकट पहुँच जाते हैं । 'योग निरोध' स्वरूप सर्वोत्तम योग का पूर्वभावी ऐसा यह अनालंबन योग है । अर्थात् तेरहवे गुणस्थान पर योग-निरोध होता है । उस का पूर्ववती अनालंबन योग १ से ७ गुणस्थानोंमें संभव नहीं है । अर्थात् अपने जैसे साधक (१ से ७ गुणस्थानों में) जीवों के लिये तो प्रारंभ के चार योग ही आराधनीय हैं। फिर भी अनालंबन योग का स्वरूप जानना और समझना आवश्यक है, जिससे हमारा आदर्श, ध्येय और उद्देश्य स्पष्ट हो जाए। यह अनालंबन योग 'धारावाही प्रशान्तवाहिता' भी कहलाता है । - प्रीति-भक्ति-वमोऽसंगैः स्थानाधपि चतुविधम् । तस्मादयोगयोगाप्तेर्मोक्षयोग: क्रमाद भवेत् ॥७॥२१५॥ अर्थ :- प्रीति, भक्ति, वनन एवं असंग अनुष्ठान द्वारा स्थानादि योग भी चार प्रकार के हैं । अतः योग के निरोध स्वरुप योग की प्राप्ति होने से क्रमशः मोक्षयोग प्राप्त होता है } विवेचन :- ५ योग (स्थान, वर्ण, अर्थ, पालंबन, प्रनालंबन) x ४ योग (इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरता, सिद्धि) - - २० x ४ (प्रीति, भक्ति, वचन, प्रसंग। यह है योग के भेद-प्रभेदों का गणित । इस प्रकार योग का आराधक योगी अयोगी बनता है, "शैलेशी" प्राप्त कर मोक्षगामी बनवा है। चैत्यवन्दनादि धर्मयोग के प्रति परम आदर होना चाहिये । भावशून्य हृदय से आराधित धर्मयोग प्रात्मा की प्रगति नहीं कर सकता, ना ही उसे प्रीति-अनुष्ठान में कोई स्थान मिलता है । अनुष्ठान में ऐसी प्रीति हो कि अनुष्ठान कर्ता के हित का उदय हो जाय । संसार के Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ज्ञान सार अन्य सभी प्रयोजनों का परित्याग कर निष्ठापूर्वक धर्मानुष्ठान आराधना करे । साथ ही सर्वत्र उसके मन में धर्मानुष्ठान के प्रति प्रीति भाव बना रहे । भक्ति अनुष्ठान में भी इसी प्रकार का आदर, उत्कट प्रीति और अन्य प्रयोजनों का परित्याग होता है । अलबत्त, यहां एक विशेषता होती है कि जिस धर्मयोग की वह आराधना करता हो, उस का महत्व सदेव उसके मन पर अंकित होता है। मन-वचन-काया के योग विशेष विशुद्ध होते हैं । प्रीति और भक्ति के पात्र भिन्न होते हैं । जैसे पत्नी और माता । जिस तरह किसी युवक को पत्नी प्रिय होती है, ठीक उसी तरह परम हितकारिणी माता भी अत्यन्त प्रिय होती है । पालन-पोषण का कार्य दोनों का भी एक-सा ही होता है । लेकिन पुरुष पत्नी का कार्य प्रीतिवश करता है, जबकि माता का भक्तिभाव से । __ तृतीय अनुष्ठान है-वचनानुष्ठान । सभी धर्मानुष्ठान शास्त्रानुसार करते हुए औचित्यपूर्वक करें। चारित्रवान मुनिवर वचनानुष्ठान की प्राराधनाअवश्य करें। वे शास्त्राज्ञा का भूलकर भी उल्लंघन न करें। साथ ही औचित्य का पालन भी न भूलें। यदि बिना औचित्य के शास्त्रादेश का पालन किया जाए, तो अन्य जीवों की दृष्टि में शास्त्र घरणा के पात्र बन जाते हैं । चतुर्थ अनुष्ठान है- असंगानुष्ठान । जिस धर्मानुष्ठान का अभ्यास अच्छी तरह हो गया हो, वह सहज भाव से होता है, जैसे चन्दन से सौरभ स्वाभाविक रूप से फैलती है । वचनानुष्ठान और असंगानुष्ठान में एक भेद है । कुम्हार अपना पहिया डंडे से घमाता है, बाद में बिना डंडे के प्रालंबन के भी पहिया निरंतर घुमता रहता है । ठीक वैसे ही वचनानुष्ठान भी शास्त्राज्ञा से ही संभव है । लेकिन शास्त्र की अपेक्षा के बिना सिर्फ संस्कार मात्र से सहज भाव से प्रवृत्ति करे, वह असंगानुष्ठान कहलाता है । गृहस्थवर्ग में प्रीति और भक्ति-अनुष्ठान का प्राधान्य होना चाहिए । भले ही वह शास्त्राज्ञा से अनभिज्ञ हो, लेकिन इतना अवश्य ज्ञात कर ले कि, 'उक्त धर्ममार्ग तीर्थंकरों द्वारा आचरित और प्रदर्शित है । इस Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग ४२१ के अनुसरण से ही सर्व सुखों की प्राप्ति होगी। पाप-क्रियाओं में रातदिन अठखेलियाँ करते अनन्त भव भटकते रहे, चार गति की नारकीय यातनाएँ और असह्य दुःख सहते रहे । अब मुझे पापक्रिया से कोसों दूर रहना है, उस के भंवर में फंसना नहीं है, बल्कि हितकारी क्रियायें करते हुए अपने जीवन को सफल बनाना है। प्रीति-भक्ति के भाव से प्राराधित धर्मानुष्ठान तो ऐसा अपूर्व पुण्यानुबन्धी पुण्य उपार्जन कराता है कि एक नौकर, राजा कुमारपाल बन सकता है । उसने पाँच कोडी के पुष्पों से जो अनन्य अद्भुत जिनपूजा का अनुष्ठान किया वही तो वास्तविक प्रीति-अनुष्ठान था ! उस अनुष्ठान से ही तो उसका अभ्युदय संभव हुआ । 'प्रभ्युदयफले चाद्य, निःश्रेयससाधने तथा चरमे ।' -षोडशके पहले दो अनुष्ठान अभ्युदयसाधक हैं, जबकि अन्त के दो निःश्रेयस के साधक हैं । स्थानाधयोगिनस्तीर्थोच्छेदाद्यालम्बनादपि । सत्रदाने महादोष इत्याचार्या: प्रचक्षते ॥८॥२१६॥ अर्थ :- आचार्यों का कहना है कि स्थानादि योगरहित को 'तीर्थ का - उच्छेद हो' आदि मालंबन से भी चैत्यवंदनादि सूत्र सिखाने/पढाने में महादोष है । विवेचन :- किसी भी वस्तु के आदान-प्रदान में योग्यता-अयोग्यता का विचार करना अत्यन्त आवश्यक है। लेने वाले और देने वाले की योग्यता पर ही लेन-देन के व्यवहार की शुद्धि रह सकती है । * दाता योग्य हो, लेकिन लेने वाला अयोग्य हो; * दाता अयोग्य हो, लेकिन ग्रहणकर्ता योग्य हो, * दाता और ग्राहक दोनों अयोग्य हों । उपरोक्त तीनों प्रकार अशुद्ध हैं और अनुपयुक्त भी। * दाता और ग्राहक दोनों योग्य हों-यह प्रकार शुद्ध है । . सामायिक सूत्र, चैत्यवन्दन सूत्र, प्रतिक्रमण सूत्रादि सिखाने की Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ज्ञानसार चर्चा यहाँ की गयी है । सूत्र किसे सिखाये जाए ? सूत्रों का अर्थ किसे समझाया जाए ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। पूज्य उपाध्यायजी महाराज अपने पूर्ववती प्रामाणिक-निष्ठावन्त आचार्यों की साक्षी के साथ उक्त प्रश्नों का निराकरण/समाधान करते हैं । जिस व्यक्ति को स्थान, इच्छा, प्रीति आदि विषयक कोई योग प्रिय नहीं और जो किसी योग की पाराधना नहीं करता, उसे सूत्रदान म किया जाए । प्रश्न :- आधुनिक काल में ऐसे योगप्रिय अथवा योगाराधक मनुष्य मिलले अत्यन्त कठिन हैं, यहां तक कि संघ/समाज में भी नहीं के बराबर ही हैं । सौ में से पांच मिल जाए तो बस । तब चत्यवन्दनादि सूत्र क्या उन इने-गिने लोगों को ही सिखाये जाएँ ? अन्यों को नहीं सिखाये जाएँ, तो क्या धर्मशासन का विच्छेद संभव नहीं है ? किसी भी तरह, भले ही प्रविधि से क्यों न हो कोई धर्माराधना करता हो, परन्तु धर्मक्रिया नहीं करने वालों में तो बेहतर ही है न ? समाधान :- सर्व प्रथम धर्म-शासन- तोर्थ को समझ लो ! तीर्थ किसे कहा जाए ? उसकी परिभाषा क्या है ? उसकी तह में पह चो, तभी तीर्थ की वास्तविक व्याख्या आत्मसात् कर सकोगे । जिनाज्ञारहित मनुष्यों का समुदाय तीर्थ नहीं कहलाता । जिनाज्ञा का पक्षपात और प्रीति तो हर एक मनुष्य में होनी ही चाहिये । शास्त्राज्ञा-जिनाज्ञा के प्रति आदर, प्रीति-भक्ति और निष्ठा रखने वाले साधु-साध्वी-श्रावक श्राविकाओं का समूह हो धर्मशासन है, तीर्थ है । ऐसों को सूत्रदान करने में कोई दोष नहीं । लेकिन भूलकर भी प्रविधि को प्रोत्साहन न दिया जाए । प्रविधि-पूर्वक घमंक्रियायें करने वालों की पीठ न थपथपायी जाए । उनकी अनुमोदना न की जाए । क्योंकि प्रविधि को उत्तेजन देने से शास्त्रोक्त क्रिया का हास होता है, और तीर्थ का विच्छेदन । 'धर्मक्रिया न करने वालों से तो अविधिपूर्वक धर्मक्रिया करने वाले बेहतर ।' यों कहकर प्रविधि का समर्थन करना सरासर गलत और अनुचित है । एक बार प्रविधि की परंपरा चल पड़ी, तो प्रविधि 'विधि' में परिणत होते विलंब नहीं लगता । तब यदि कोई शास्त्रोक्त Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग ४२३ विधि का प्रतिपादन करेगा, तो भी वह 'अविधि' ही प्रतीत होगी । तुम्हारी तसल्ली के लिये पूज्य उपाध्यायजी के ही शब्दों में पढ़ो : "शास्त्रविहित क्रिया का लोप करना यह कडवे फल देनेवाला है । स्वयं मत्यु को प्राप्त हुए और खुद के हाथों मारने में कोई विशेषता नहीं, ऐसो बात नहीं; लेकिन इतनी विशेषता है कि स्वयं मृत्यु पाता हैं, तब उसमें उसका दुष्टाशय निमित्त रूप नहीं, जबकि अपने (उसके) हाथों मारना-इस में दुष्टाशय निमित्त रूप है । ठीक उसी तरह क्रिया में प्रवत्ति नहीं करने वाले जीव की अपेक्षा से गुरु को कोई दोष नहीं । परन्तु प्रविधि के प्ररूपण का अवलंबन कर श्रोता अविधिपूर्वक प्रवृत्ति करे, तो उन्मार्ग में प्रवत्ति कराने के परिणामवश अवश्य महादोष है । इस बात पर (तीर्थ-उच्छेदन) धर्मभीरु जीव को अवश्य विचार करना चाहिए । [-'योगाष्टक' श्लोक ८ का टम्बा] तात्पर्य यह है कि स्थानादि ५ योग, इच्छादि ४ योग और प्रीति आदि ४ योग का मार्ग दिखाकर पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने मोक्षमार्ग के इच्छुक जीवों को सुन्दर सरस मार्गदर्शन दिया है। भोग की भूलभूलैया से बाहर निकल, योग के मार्ग पर प्रयारण करने के लिए प्रस्तुत योगाष्टक का गंभीर चिन्तन करना चाहिए । साथ ही साथ 'योगविशिका' ग्रंथ का भी गहरा अध्ययन करना चाहिए, जिससे विशेष अवबोध प्राप्त होगा । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. नियाग [यज्ञ] संभव है कि आधुनिक युग में तूमने यज्ञ का अनुष्ठान नहीं देखा होगा ! ! भूतकाल की तरह प्राज इतने बड़े पैमाने पर, व्यापक रूप में यज्ञ का श्रायोजन कहीं देखने में नहीं आता। फिर भी जो यज्ञनियाग होते है, क्या वह वास्तविक हैं ? सच्चा यज्ञ कैसे होता है, उनकी क्रियाएँ क्या है ? । 1. यहां तुम्हें यज्ञ में प्रयोग किये जाने वाले शब्द पठन हेतु मिलेंगे और तुम स्वयं स्वतंत्र रूप से यज्ञ कर सकोगे बिा किसी बात साधना और सहायता से ! ऐसी प्रक्रियाएं इस प्रष्टक मैं बतायी गयी हैं । ऐसा महकल्याणकारी यज्ञ हम नित्यनियम से करने का संकप करें तो...!!! Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियाग [ यज्ञ ] अर्थ यः कर्म हुतवान् दिप्ते ब्रह्माग्नौ ध्यानध्याय्याया ! सो निश्चितेन यागेन नियागप्रतिपत्तिमान् ॥ १ ॥२१७॥ : प्रदीप्त बह्य रूपी अग्नि में जिसने ध्यान रूपी वेद की ऋचा (मंत्र) द्वारा कर्मों का होम कर दिया है, ऐसा मुनि निर्धारित भावयज्ञ द्वारा नियाग को प्राप्त हुआ है । विवेचन : यज्ञ-याग ! जैन धर्म और यज्ञ-याग ? अरे भाई, चौंक न पडो ! यहाँ ऐसे दिव्य यज्ञ का वर्णन किया गया है कि जिसे आत्मसात् कर तुम मंत्रमुग्ध हो उठोगे ! यहाँ वेदों की विकृति में से उत्पन्न यज्ञ की बात नहीं है। ना हीं अश्वमेघ यज्ञ है, ना ही पितृमेघ यज्ञ की बात है ! ठीक वैसे ही जड़ हिंसात्मक क्रियाकाण्ड नहीं हैं, प्रज्ञान जीवों की बलि चढाने का कोई प्रपंच नहीं है । ४२५ कलिकालसर्वज्ञ आचार्य भगवंत श्री हेमचंद्राचार्य ने, अपने मूल्यवान् ग्रन्थ 'त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र' में, हिंसक यज्ञों की उत्पत्ति का रहस्य नारद मुनि के मुख से लंकेश रावण को बताया है । वैर का बदला लेने की तीव्र लालसा के कारण उत्पन्न कषायों द्वारा हिंसक यज्ञों के पैदा होने का मर्मभेदी इतिहास बताया है । जैनेतर संप्रदायों में यज्ञ को उत्पत्ति को लेकर विविध मंतव्य प्रचलित हैं ! उन में से एक मंतव्य यह भी है : प्रलय से पृथ्वी के बच जाने के बाद वैवस्वत मनु ने सर्वप्रथम यज्ञ किया था ! तब से आर्य प्रजा में, पृथ्वी पर सूर्य के प्रतिनिधि अग्निदेव को प्रसन्न करने हेतु आहुति देने की प्रथा चल पडी है ! सामान्यतः ब्राह्मण-ग्रंथ यज्ञ की सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्रियाओं का विधान करते हैं । जिस तरह उपनिषदों में यज्ञ को, जड क्रियाविधि के बजाय अध्यात्म का रूप प्रदान किया गया है, ठीक उसी तरह पूज्य उपाध्यायजी महाराज भी यज्ञ का एक अभिनव रूपक सबके समक्ष उपस्थित करते हैं ! • जाज्वल्यमान ब्रह्म साक्षात् अग्नि है ! ० ध्यान ( धर्मं - शुकुल) देद की ऋचाएँ हैं ! Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ज्ञानसार __० कर्म (ज्ञानावरणादि) समिध (लकडियाँ) हैं ! ब्रह्म रूपी प्रदीप्त अग्नि में ध्यान रूपी ऋचाओं के उच्चारण के साथ ज्ञानावरणादि कर्मों का होम करना ही नियाग है ! नियाग यानी भावयज्ञ ! केवल क्रिया-काण्ड द्रव्य-यज्ञ है ! नियाग (भावयज्ञ) के कर्ता मुनि कैसा हो....उसके समग्र व्यक्तित्व का वर्णन 'उत्तराध्ययन' सूत्र में किया गया है: सुसंधुडापंचहिं संवरेहिं इह जीविवं अणवकंखमाणा । वोसट्टकाया सुचइत्त देहा जहाजवं जयइ जन्नसेढें ॥ "पांच संवरों से सुसंवृत्त, जीवन के प्रति अनाकांक्षी/उदासीन, शरीर के प्रति ममत्वहीन, पवित्र और देहाध्यास के त्यागी, कर्म-विजेता मुनि सर्व श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं !" अग्नि को प्रदीप्त करना पडेगा ! योग-उपासना द्वारा निष्प्रभ ब्रह्मतेज को प्रज्वलित करना है ! धर्म-ध्यान....शुक्ल ध्यान के आलम्बन से अशुभ कर्मों को जलाना है। इस प्रकार भाव-यज्ञ कर श्रेय की सिद्धि प्राप्त करनी है। प्रस्तुत अष्टक में 'यज्ञ' के वास्तविक एवं मार्मिक स्वरुप का वर्णन किया गया है। पापध्वंसिनि निष्कामे ज्ञानयज्ञे रतो भव ! सावधैः कर्मयः किं भूतिकामनयाऽविलः ॥२॥२१८॥ अर्थ : पापों का नाश करनेवाले और कामनारहित ऐसे ज्ञान-यज्ञ में आसक्त हो ! सुखेच्छाओं से मलीन पापमय कर्म-यज्ञों का क्या प्रयोजन है ? विवेचन : तुम्हारे जीवन का लक्ष्य क्या है ? मन-वचन-काया के पुरूषार्थ की दिशा कौन सी है ? कौन सी तमन्ना मन में संजोये जीवन बसर कर रहे हो? क्या पाप-क्षय करना तुम्हारा उद्देश्य है ? अपनी आत्मा को निर्मल/ विमल बनाने की उत्कट महेच्छा है ? यदि यह सच है तो अविलम्ब ज्ञान-यज्ञ में जुड जाओ ! __ ऐसी परिस्थिति में पांच इन्द्रियों को क्षणिक तृप्ति देने वाले सुख की कामना हृदय के किसी कोने में भी नहीं होनी चाहिए । 'मुझे परलोक / स्वर्गलोक में दिव्य सुखों की प्राप्ति होगी !' ऐसी सुप्त Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियाग [यज्ञ ४२७ कल्पना तक कहीं छिपो नहीं होनी चाहिए ! यह कभी न भूलो कि समस्त सुखों के प्रति निःस्पृह-निरागी बन कर ही ज्ञानयज्ञ करना है | क्या तुम्हें यह कहना है कि 'पापों का नाश करना, क्षय करना यह भी एक प्रकार की कामना ही है न?' अवश्य है, लेकिन उसमें निष्काम भावना का तत्त्व प्रखंड रहा हुआ है। अतः उक्त कामना तुम्हें पापाचरण की दिशा में कभो अग्रसर नहीं करेगी! नि:शंक, निश्चल और निर्भय बन कर पाप-क्षय के लिये ज्ञान यज्ञ प्रारम्भ करो। इस धरती पर स्वर्ग, पुत्र-परिवार, धन-संपदा आदि क्षुद्र कामनाओं की पूर्ति हेतु किये जाने वाले यज्ञ की अग्नि में प्रात्मा उज्ज्वल नहीं बनती अपितु जल जाती है ? ऐहिक-पारलौकिक सुखेच्छाओं के वशीभूत मात्मा मलिन और पापी बनती है। भोगैश्वर्य की कुटिल कामना आत्मा को मूढ बनाने वाली है। ऐसी कामनाओं की पूर्तिहेतु यज्ञ मत करो। भोगैश्वर्य के तीव्र प्रवाह में प्रवाहित जीव घोर हिंसक यज्ञ करने के लिए तत्पर बनता है। धू-धू-जलती आग की प्रचंड ज्वालाओं में निरीह पशुओं की बलि देकर (देवी-देवताओं को प्रसन्न करने की मिथ्या कल्पना से) मानव स्वर्गीय सुख की कामना करता है। क्योंकि 'भूतिकाम: पशुमालभेत' सदृश मिथ्या श्रुतियों का प्राधार जो उसे उपलब्ध हो जाता है ! यज्ञ करने वाला और कराने वाला प्रायः मांसाहार का सेवन करता है ! शराब के जाम गले में उंडेलता है....और मिथ्या शास्त्रों का पालम्बन ले, अपना बचाव करता हैं । परनारी-गमन को भी वे धर्म के ही एक पाचरण की मिथ्या संज्ञा देते हैं ! इस तरह महाविनाशकारी रौरव नरक में ले जाने वाले पापों का, यज्ञ के नाम पर आचरण करते हैं ! हमें ऐसे घृणित हिंसक यज्ञ का सरेआम प्रतिपादन करनेवाले मिथ्या शास्त्रों से सदा दूर रहना चाहिए। ज्ञान-यज्ञ में ही सदैव लोन रहना चाहिए। अपना जीव यज्ञ कुंड है। तप अग्नि है। मन-वचनकाया का पुरुषार्थ घृत डेलनेवाली कलछी है ! शरीर अग्नि को प्रदीप्त/प्रज्वलित करने का साधन है, जब कि कर्म लकडियाँ हैं ! संयमसाधना शांति-स्तोत्र है...'श्री उत्तराध्ययन' सूत्र के 'यज्ञीय-अध्ययन' में ज्ञान-यज्ञ का इस तरह वर्णन किया गया है ! Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ज्ञानसा वेदोक्तत्वान् मन:शुद्धपा कर्मयज्ञोऽपि योगिनः! ब्रह्मयज्ञ इतिच्छन्तः श्येनयागं त्यजन्ति किम् ?॥३॥२१॥ अर्थ : "वेदों में कहा गया होने से मनः शुद्धि द्वारा किया गया कर्मयज्ञ भी ज्ञानयोगी के लिए ब्रह्म यज्ञ-स्वरुप है ।" ऐसी मान्यतावाले भला 'श्येनयज्ञ' का त्याग क्यों करते है ? दिवेचन : 'वेदोक्त है अतः सच्चा', यह मान्यता कैसे स्वीकार की जाए ? भले ही मनःशुद्धि हो और सत्त्वशुद्धि भी हो, फिर भी ऐसा कर्मयज्ञ कदापि उपादेय नहीं है, जिस में घोर हिंसा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ! और जिस में अज्ञानता की दृष्टि रही हुई है ! वेदोक्त यज्ञ के आयोजकों से कोई प्रश्न करें कि, 'यदि हम मानसिक-शुद्धि सह 'श्येन यज्ञ' का आयोजन करें तो ?' वे उस का निषेध करेंगे ! वास्तव में वेदोक्त यज्ञों के परमार्थ को आत्मसात किये बिना ही सिर्फ अपनी ही मति-कल्पना के वशीभूत हो, हिंसाचार-युक्त पापप्रचुर यज्ञ कदापि स्वीकार्य नहीं हो सकते, ना ही कर्मयज्ञ को ब्रह्मयज्ञ कह सकते हैं। सर्वप्रथम ध्येय की शुद्धि करो। कहाँ जाना है ? क्या पाना है ? इसका स्पष्टीकरण होना आवश्यक है ! क्या मोक्ष में जाना है ? मोक्ष का ध्येय स्पष्ट हो गया है ? विशुद्ध आत्म-स्वरूप प्राप्त करना है ? तब पाप-प्रचुर कर्मयज्ञ करने का क्या प्रयोजन ? अर्थात् ऐसे यज्ञ का कोई प्रयोजन नहीं है । अपने जीवन का हर पल, हर क्षण ज्ञानयज्ञ में लगा दो ? बस, दिन-रात अहर्निश ज्ञान-यज्ञ शुरू रहना चाहिए। ब्रह्मयज्ञः परं कर्म गृहस्थस्याधिकारिणः । पूजादि वीतरागस्य ज्ञानमेव तु योगिनः ॥४॥२२०॥ अर्थ :- अधिकारी गृहस्थ के लिए केवल वीतराग का पूजन-अर्चन आदि ब्रह्म यज्ञ है , जबकि योगी के लिए ज्ञान ही ब्रयह्मज्ञ है । विवेचन :- क्या ब्रह्मयज्ञ करने का अधिकार सिर्फ मुनिवरों को ही है ? क्या योगीजन ही ब्रह्मयज्ञ कर सकते हैं ? जो गृहस्थ हैं, उन्हें क्या करना चाहिए ? क्या गृहस्थ ब्रह्मयज्ञ नहीं कर सकते ? अवश्य कर सकते हैं , लेकिन इसके वे अधिकारी होने चाहिए , योग्यता प्राप्त Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियाग [ यश ] ४२६ करनी चाहिए ! योग्यता प्राप्त किये बिना वे ब्रह्मयज्ञ नहीं कर सकते । और वह योग्यता है मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों की । 'न्यायसंपन्न - वैभव' से लगाकर 'सौभ्यता' - पर्यंत मार्गानुसारी के पैंतीस गुरणों से मानव-जीवन सुरभित होना चाहिए। तभी वह ब्रह्मयज्ञ करने का अधिकारी है । गृहस्थ - जीवन में थोड़े-बहुत प्रमाण में हिंसादि पाप अनिवार्य होते हैं । फिर भी अगर जीवन मार्गानुसारी है तो वह ब्रह्मयज्ञ कर सकता है ! उसका ब्रह्मयज्ञ है वीतराग का पूजन-अर्चन, सुपात्रदान और श्रमण - सेवा | हालाँकि इस तरह का ब्रह्मयज्ञ करने से दो प्रश्न उपस्थित होते हैं ! लेकिन उसका सरल / सहज भाव से समाधान करने से और उसे मान्य करने से मन निःशंक बनता है ! प्रश्न :- परमात्म-पूजन या सुपात्र दान, साथ ही साधुसेवा और सार्घार्मिकभक्ति में राग अवश्यम्भावी है जबकि जिनेश्वरदेव ने राग को हेय कहा है, तब परमात्म पूजनादि स्वरुप ब्रह्मयज्ञ भला उपादेय कैसे सम्भव है ? समाधान :- राग दो प्रकार का होता है : प्रशस्त और अप्रशस्त । नारी, धनसम्पदा, यश-वैभव और शरीर जैसे पदार्थों के प्रति जो राग होता है वह अप्रशस्तराग कहा गया है ! जबकि परमात्मा, गुरू और घमं विषयक राग प्रशस्त - राग कहलाता है । अप्रशस्त राग से मुक्ति पाने हेतु प्रशस्त राग का अवलंबन ग्रहण करना ही पड़ता है । प्रशस्त राग के दृढ होने पर अप्रशस्त राग की शक्ति उत्तरोत्तर क्षीण होती जाती है। प्रशस्त - राग में पाप - बंघन नहीं होता ! अतः जिन जिनेश्वर देवने प्रशस्त राग को हेय बताया है, वे ही जिनेश्वर भगवंत ने प्रशस्त राग को उपादेय कहा है । यह सर्व सापेक्षदृष्टि की देन है ! प्रश्न :- माना कि प्रशस्त - राग उपादेय है, लेकिन परमात्म-पूजन में प्रयोजित जल, पुष्प, धूप, दीपादि पदार्थों के उपयोग से हिंसा जो होती है, तब ऐसी हिंसक - क्रिया का अर्थ क्या है ? साथ ही हिंसक क्रियाओं से युक्त अनुष्ठान को 'ब्रह्मयज्ञ' कैसे मान लें ? समाधान :- हालांकि परमात्मा की द्रव्य - पूजा में 'स्वरूपहिंसा' संभवित है । लेकिन अनेक प्रारम्भ - समारम्भ में रत गृहस्थ के लिए द्रव्य - पूजा Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ज्ञानसार आवश्यक है । स्वरूपहिंसा से सम्पन्न कर्म-बंधन नहीं के बराबर होते हैं । द्रव्य पूजा के कारण उत्पन्न शुभ भावों से वे पापकर्म नष्ट हो जाते हैं । गृहस्थ शुद्ध ज्ञानदशा में रमण नहीं कर सकता है, अत: उसके लिए द्रव्य-क्रिया करना अनिवार्य है । द्रव्य-पूजा के माध्यम से परमात्मा के प्रति जीव का प्रशस्त-राग का अनुबंधन होता है । साथ ही उक्त रागानुबन्धन से प्रेरित हो, परमात्मा की प्राज्ञा का पालन करने की भक्ति प्राप्त होती है और शक्ति बढने पर ; क्रमश: वृद्धि होने पर वह गृहस्थ-जीवन का परित्याग कर ' मुनि-जीवन का स्वीकार कर, सेता है । तब उसके लिए द्रव्य क्रिया : आवश्यक नहीं होती, जिसमे स्वरूपहिंसा सम्भव है। एक प्रवासी ! गर्मी का मोसम ! मध्याहन का समय ! सतत प्रवास से श्रमित । मारे प्यास के गला सूख रहा है । भीषण प्रातप से अंग-प्रत्यंगें झलस रहा है ! माकूल-व्याकल हो चारों ओर दृष्टिपात करता है । नजर पहुंचे वहां तक न कोई पेड़ है, ना ही प्याऊ अथवा कुआँ ! मन्थर गति से आगे बढ़ता है । यकायक नदी दिखायी देती है । प्रवासी राहत की सांस लेता है । लेकिन नजदीक जाने पर वह भी सूखी नजर आती है । वह मन ही मन विचार करता है : "थक गया हूँ ! पानी का कहीं ठोर-ठिकाना नहीं । प्यास को वेदना सही नहीं जाती ! यह नदी भी सूखी है । अगर गड्ढा खोदूं तो पानी मिल भी जाए , लेकिन थकावट के कारण इतनी शक्ति नहीं रही। साथ ही गड्ढा खोदते हुए वस्त्र भी गन्दे हो जाएंगे.... तब क्या करूँ ?" कुछ क्षरण वह शून्यमनस्क खड़ा रहा । विचार-तरंगे फिर उठने लगी। "भले थक गया हैं, वस्त्र मलिन हो जाएंगे, लेकिन गडढा खोदने के पश्चात जब पानी मिलेगा तब मेरी प्यास बुझ जाएगी, राहत की सांस ले सकू गा; शान्ति का अनुभव होगा और मलिन वस्त्र स्वच्छ भी कर सकुगा ।" सहसा उसमें अदम्य उत्साह का संचार हुआ ! उसने गड्ढा खोदा! थोड़ी-सी मेहनत से ठंडा पानी मिल गया ! जी भर कर पानी पिया , अंग-प्रत्यंगपर पानी छिड़क कर राहत की सांस ली , दिल खोल कर नहाया और कपड़े धोये ।.... ठीक वैसे ही जिनपूजा करते हुए स्वरूपहिंसा के कारण भले ही Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियाग यज्ञ] ४३१ आत्मा तनिक मैली हो जाएं । लेकिन जिनपूजा के कारण जब शुभ और शुद्ध अध्यवसाय का प्रगटीकरण होगा तब नि:सन्देह आत्मा का मर्व मल धुल जाएगा ! भव-भ्रमण का सारा श्रम क्षरणार्घ में शान्त हो जाएगा और परमानन्द की प्राप्ति होगी। गृहस्थ को यों ब्रह्मयज्ञ करना है , जबकि संसार-त्यागी अरणगार को तो ज्ञान का ही ब्रह्मयज्ञ करना है ! उसके लिए जिनपूजा का द्रव्य-अनुष्ठान अावश्यक, नहीं । * भिन्नोद्देशेन विहितं कर्म कर्मक्षयाक्षसम । : फ्लुप्त भिन्नाधिकार चपुत्रेण्टयादिवदिष्यताम:॥५॥२३१॥ अर्थ :- भिन्न उद्देश्य को लेकर शास्त्र में उल्लखित अनुष्ठान कर्म-अप करने में असमर्थ है । कल्पित है भिल अधिकार जिसका, ऐसा पुत्रप्राप्ति के लिये किया जाता यज्ञ वगैरह की तरह मानो । विवेचन :- तुम्हारा उद्देश्य क्या स्पष्ट है ? तुम्हारा ध्येय निश्चित है? तुम्हें क्या प्राप्त करना है ? क्या बनना है ? कहां जाना है ? जो तुम्हें प्राप्त करना है और जिसके लिए तुम पुरूपार्थ कर रहे हो क्या वह प्राप्त होगा ? जो तुम बनना चाहते हो , वैसे क्या तुम्हारी प्रवृत्ति से बन पायोगे ? जहां तुम्हे जाना है , वहां तुम पहुँच सकोगे क्या ? वास्तव में देखा जाएँ तो तुम्हारे सारे कार्य-कलाप इच्छित उद्देश्य ध्येय से शत-प्रतिशत विपरीत है । तुम्हें सिद्धि प्राप्त करनी है न ? परम आनन्द , परम सुख की प्राप्ति हेतु तुच्छ पानन्द और क्षणिक मुख से मुक्ति चाहते हो ? तुम्हें परमगति प्राप्त करनी है क्या ? तब चार गति के परिभ्रमण से मुक्त होना चाहते हो ? तुम्हे सिद्ध-स्वरूपी बनना है ? तब निरंतर परिवर्तनशील कर्म-जन्य अवस्था से छुटने का पुरूषार्थ करते हो ? तुम्हें शाश्वत्-शान्ति की मंजिल पर पहुंचना है न ? तब सांसारिक अशान्ति, सन्ताप और क्लेश से परिपूर्ण स्थानों का परित्याग करने की तत्परता रखते हो न ? तुम्हारा लक्ष्य है इन्द्रियजन्य विषय-भोगों का , और पुरुषार्थ करते हो धर्म का ! तुम्हें चार गति में सतत परिम्रमरण करना है और प्रयत्नशील हो धर्म-ध्यान के लिए ! तुम्हें आकंठ डूबे रहना है कर्मजन्य प्रयत्नशील अवस्था में और मेहनत करते हो धर्म की ! उफ् कैसो विडम्बना है कथनी और करनी में ? यदि हमारा ध्येय और Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ पुरुषार्थ परस्परविरोधी होगा तो कार्य सिद्धि प्रसंभव है । -क्षय असम्भव कर्मक्षय के पुरूषार्थ और पुण्य बधन के पुरूषार्थ में जमीन-आसमान का अन्तर है । पुण्य-बंधन हेतु आरम्भित पुरुषार्थं से कर्म - है । हालाँकि पुण्य - बंघन के विविध उपाय शास्त्रों में अवश्य बताये गये । लेकिन उन उपायों से कर्म-क्षय अथवा सिद्धि नहीं होगो, पुण्यबन्धन अवश्य होगा! कोई कहता है : "हिंसक यज्ञ में भी विविदिषा (ज्ञान) विद्यमान है ।" लेकिन यह सत्य नहीं है। हिंसक यज्ञ का उद्देश्य अभ्युदय है, निःश्रेयस् नहीं । साथ ही निःश्रेयस के लिए हिंसक यज्ञ नहीं किया जाता ! पुत्र - प्राप्ति के लिए सम्पन्न यज्ञ में विविदिषा नहीं होती, ठीक उसी तरह सिर्फ स्वर्गीय सुखों की कामना से सम्पन्न दानादि क्रियाएँ भी सुख -: -प्राप्ति हेतु नहीं होती । अलबत्त, दानादि क्रियाओं को यहाँ हेय नहीं बतायी गयी हैं, परंतु उससे पुण्य - बंधन होता है, यह बताया गया है । यदि तुम्हारा ध्येय कर्मक्षय ही है, तो ज्ञान-यज्ञ करो ! लेकिन ऐसी भूल कदापि न करना की पुण्य - बंधन की क्रियाओं का परित्याग कर पाप-बंधन की क्रियाओं में सुध-बुध खो बैठो और कर्म-क्षय का उद्देश्य ही भूल जाओ । ब्रह्मार्पणमपि ब्रह्मयज्ञान्तर्भावसाधनम् । ब्रह्माग्नौ कर्मणो युक्तं स्वकृतत्वस्मये हुते ||६|| २२२ ।। ज्ञानसार अर्थ : ब्रह्म यज्ञ में अन्तर्भाव का साधन, ब्रह्म को समर्पित करता, लेकिन ब्रह्मरूप अग्नि में कर्म का और स्व-कर्तृत्व के अभिमान का योग करते हुए भी युक्त है । विवेचन : गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं : कांक्षतः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः । क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मणा || - अध्याय ४ श्लोक १२ " मानव-लोक में जो लोग कर्मों की फलसिद्धि को चाहते हुए देवीदेवताओं का पूजन करते हैं, उन्हें कर्म-जन्य फलसिद्धि ही प्राप्त होती है ।" Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झानसार प्राकृत मनुष्य सदैव कर्म करता रहता है और फल की इच्छा संजोये निरंतर दुःखी रहता है । इस दुर्दशा में से जीवों को मुक्त करने उपदेश दिया जाता है कि कर्म के कर्तृत्व का मिथ्याभिमान हमेशा के लिए छोड दो! 'यह मैंने किया है, इसका कर्ता मैं हूँ !' आदि कर्तुत्व के अहंकार को ब्रह्मरूप अग्नि में स्वाहा कर दो, होम दो। और नित्य प्रति यह भावना जागत रखो कि 'मैं कुछ भी नहीं करता।' इसी भावना मे कर्मक्षय संभव है । यही कर्मयज्ञ ब्रह्मयज्ञ का मूल माधन है। गीता में कतत्व के अभिमान को तजने को कहा गया है : ब्रह्मर्पणं ब्रह्मविब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । ब्रह्मव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ।।। -अध्याय, ४, श्लोक २४. "अर्पण करने की क्रिया ब्रह्म है। होमने की वस्तु ब्रह्म है । ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरुप होमनेवाले ने जो होमा है वह भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्म-समाधि वाले का प्राप्ति-स्थान भी ब्रह्म है।" अर्थात् 'जो कुछ है, वह ब्रह्म है...ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। न मैं हूँ और ना ही कुछ मेरा है ! इस तरह 'अहं' को भूलने के लिए ही यन करना है । जो कुछ भी है, उसे ब्रह्म में ही होम देना है । 'अहं' को भी ब्रह्म में स्वाहा कर देना है। यही वास्तविक ब्रह्मयज्ञ है । 'अहं' रूपी पशु को ब्रह्म में स्वाहा कर यज्ञ करने का उपदेश दिया गया है। जो कुछ बुरा हुआ तब में क्या करू भगवान की यही मजी थी।' कह कर जीव उसे भगवान को अर्पण कर देता है, उनके नाम पर थोप देता है। लेकिन जो अच्छा होता है, इच्छानुसार होता है और मन-पसंद भी, 'वह मैंने किया है....मेरे पुण्योदय के कारण हुआ है।' कह कर मिथ्याभिमान का सरेग्राम ढिंढोरा पिटना निरी मूर्खता और मूढता है। जब कि भगवान के अस्तित्व के प्रति अटूट श्रद्धाधारक तो प्रायः यही कहता है कि 'जो कुछ होता है भगवान की मर्जी से होता है।' उसके हर विचार, हर चिंतन, और प्रत्येक व्यवहार का सूत्र भगवान के साथ जुड़ा हुआ है ! उसमें अपना कुछ भी नहीं होता, ना ही २८ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ नियाग [यज्ञ] अहंकार का नामोनिशान ! __ 'नाहं पुदगलभावानां कर्ता कारयितापि च ।' "मैं पुद्गलभावों का कर्ता नहीं हूँ, ना ही प्रेरक भी।' यह विचार ग्रन्थकार महर्षिने हमें पहले ही बहाल कर दिया है। अत: कर्तृत्व का मिथ्याभिमान ब्रह्म यज्ञ में नष्ट कर दो-यही इष्ट है, इच्छानीय भी। ब्रह्मण्यर्पितसर्वस्वो ब्रह्मग ब्रह्मसाधनः ! ब्रह्मणा जुहवदब्रह्म ब्रह्मणि ब्रह्मगुप्तिमान् ।।७।।२२३।। ब्रह्माध्ययननिष्ठावान् परब्रह्मसमाहितः ! ब्रह्मणो लिप्यते नाधैर्नियागप्रतिपत्तिमान् ॥८॥२२४॥ अर्थ : जिसने अपना सर्वस्व ब्रह्मार्पण किया है, ब्रह्म में ही जिसकी दृष्टि है और ब्रह्मरूप ज्ञान ही जिस का एकमात्र साधन है-ऐसा (ब्राह्मण) ब्रह्म में अज्ञान (असंयम) को नष्ट करता ब्रह्मचर्य का गुप्तिधारक, 'ब्रह्माध्ययन' का . मर्यादावान् और पर ब्रह्म में समाधिस्थ भावयज्ञ को स्वीकार करनेवाला निर्ग्रन्ध किसी भी पाप से लिप्त नहीं होता। विवेचन : खद का कुछ भी नहीं! जो कुछ है सब ब्रह्म-समर्पित ! धनघान्य, ऐश्वर्य-वैभवादि तो अपना नहीं हो, यहाँ तक कि शरीर भी अपना नहीं..... अरे, शरीर तो स्थूल है, लेकिन सूक्ष्म ऐसे मन के विचार भी अपने नहीं ....। किसी विचारविशेष के लिए हठाग्रह नहीं ! उस की दृष्टि सिर्फ ब्रह्म की ओर ही लगी रहती है। सिवाय ब्रह्म के कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता ! भले ही फिर उसकी अोर अनगिनत नजरें लगी हों....लेकिन उस की निनिमेष दृष्टि सिर्फ ब्रह्म की ओर ही लगी रहती है ! साथ ही उसके पास जो ज्ञान होता है वह भी ब्रह्मज्ञान ही होता है। ब्रह्मज्ञान अर्थात् प्रात्म-ज्ञान ! उपयोग सिर्फ आत्मज्ञान का हीं, अर्थात् सदैव मानसिक जागृति के माध्यम से ब्रह्म में सीनता ही अनुभव करें। और जबतक उस के पास अज्ञान के इंधन हो तबतक वह उसे ब्रह्म में ही स्वाहा करता रहे । जला कर भस्मीभूत कर दें। साथ ही * परिशिष्ट में देखिए 'ब्रह्माध्ययन' Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३५ ज्ञानसार ब्रह्म की लीनता में बाधक ऐसे हर तत्त्व को ब्रह्माग्नि में स्वाहा करते तनिक भी हिचकिचाहट अनुभव न करें । दृढ संकल्प के साथ प्रचरित ब्रह्मचर्य व्रत से योगी के आत्मबल में वृद्धि होती है । वह आत्मज्ञान की अग्नि में कर्मबलि देते जरा भी नहीं थकता ! कोई आचार-मर्यादा के पालन में उसे अपने मन को नियंत्रित नहीं करना पडता, बल्कि वह सहज ही उस का पालन करता रहता है । 'आचारांगसूत्र' के प्रथम श्रुतस्कंध के नौ अध्ययनों में उल्लिखित मुनि - जीवन की निष्ठाएँ वह अपने जीवन में सरलतापूर्वक कार्यान्वित करता है। क्योंकि परब्रह्म के साथ उस ने एकता की कड़ी पहले ही जोड़ ली होती है । - वास्तव में ऐसा है ब्रह्मयज्ञ और ऐसा है ब्रह्मयज्ञ का कर्ता / करनेवाला ब्राह्मण ! ब्राह्मण भला, क्या पाप-लिप्त होगा ? ऐसा ब्राह्मण भला कर्मबंधनों में जकड जाएगा क्या ? नहीं, हर्गिज नहीं । किसी ब्राह्मणी की कुक्षी से उत्पन्न हुआ वह ब्राह्मरण ? नहीं नहीं... जो ब्राह्मयज्ञ करे वह ब्राह्मण ! ब्राह्मण बनने के लिए निरे अज्ञानतापूर्ण यज्ञ कर्म करने से काम नहीं चलता ! पूज्यपाद उपाध्यायजी महाराज ने ब्राह्मण को ही श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ कहा है ! फिर भले ही वह श्रमण हो, भिक्षु हो या निर्ग्रन्थ हो वह सिर्फ ब्रह्मयज्ञ का कर्ता और करानेवाला होना श्रावश्यक है ! उस के जोवन में सिवाय ब्रह्म और कोई तत्त्व न हो, पदार्थ न हो और ना ही कोई वस्तु ! उस की तन्मयता, तल्लीनता, प्रसन्नता...... जो भी हो वह ब्रह्म हो । सारांश : - भाव-यज्ञ करो ! - निष्काम यज्ञ करो ! - हिंसक यज्ञ वर्ज्य हो । - गृहस्थ के लिए वीतराग की पूजा ब्रह्मयज्ञ है । - कर्म-क्षय के उद्देश्य से भिन्न आशय को लेकर किया गया पुरुषार्थ कर्म-क्षय नहीं करता । - स्व-कर्तृत्व के मिथ्याभिमान को ब्रह्मयज्ञ की अग्नि में स्वाहा कर दो ! - ब्रह्मार्पण का वास्तविक अर्थ समभो ! - ब्रह्म की परिणति वाला ब्राह्मण कहलाता है । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ भावपूजा मुनिराज ! आतमदेव की आपको पूजा करनी है । स्नान करना है और ललाट-प्रदेश पर तिलक भी लाना है ! देव के गले में पुष्पमाला आरोपित करनी है और धूप-दीप भी करना किसी प्रकार के बाह्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं, ना ही कोई बाह्य प्रवृत्ति ! यह है मानसिक भूमिका का पूजनअर्चना । वैसे, ऐसा पूजन-अर्चन करने का अधिकार सिर्फ साधु-श्रमणों को ही है, लेकिन गृहस्थ नहीं कर सकते, ऐसी बात नहीं है । गृहस्थ भो बेशक कर सकते हैं...। परन्तु वे साधना-आराधना की दृष्टिवाले हों। कभी-कभार तो कर लेना ऐसी अद्भूत भावपूजा ! अपूर्ण आहलाद की अनुभूति होगी। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ ज्ञानसार दयाम्भसा कृतस्नानः, संतोषशुभवस्त्राभूत् । विवेकतिलकभ्राजी, भावनापावनाशयः ।।१।।२२।। भक्तिश्रद्धानधुसणोन्मिश्रपाटीरजद्रवैः । नवब्रह्माड्.गतो देवं, शुद्धमात्मानमर्चय ।।२॥२२६॥ अर्थ : दया रूपी जल से स्नात, संतोष के उज्ज्वल वस्त्र का धारक, विवेक विलक से सुशोभित, भावना से पवित्र आशय वाला और भक्ति तथा श्रद्धा-स्वरूप केसरभिधित चन्दन से शुद्ध प्रात्मारूप देव की, नी प्राकर के ब्रह्मचर्य रुपी नौ अंगों का पूजन करें। विवेचन : पूजन ? तुम्हें किस का पूजन करना है ? पूजन कर क्या प्राप्त करना है ? इस का कभी विचार भी किया है ? नहीं किया है न? तुम पूजन करना चाहते हो; अरे, तुम किसी का पूजन कर भी रहे हो...! अगणित इच्छाएँ, कामनाएँ और अभिलाषाओं को झोली फैलाकर पूजन का फल माँग रहे हो....सच है न ? लेकिन यह तो सोचो, तुम स्वयं पूजक तो हो ना? पूजारी हो न? पूजक अथवा पूजारी बने बिना तुम्हारी पूजा कभी सफल नहीं होगी, ना ही तुम्हारी मनोकामनायें पूरी होंगी । तुम्हारी आकांक्षा और अभिलाषायें सफल नहीं हो सकेंगी। तभी तो कहता हूँ, सर्व प्रथम पूजक बनो, पूजारी बनो। ___ इस के लिये पहला काम स्नानादि से निवृत्त होना है, नहाना है। अरे भाई, स्नान से पाप नहीं लगेगा। मैं भली-भाँति जानता हूँ कि तुम मनि हो और सचित्त जल के प्रयोग से पाप के भागीदार बनोगे, यह भी मेरे ख्याल से बाहर की बात नहीं है। फिर भी कहता हूँ कि स्नान कर लो। हाँ, तुम्हें ऐसा जल बताऊँगा कि जिस के उपयोग से पाप नहीं लगेगा ! ___'दया' के जल से स्नान कर । इस से भी बेहतर है-दया के स्वच्छ, शीतल जलाशय में गोता लगा ले! याद रख, सरोवर में स्नान करने का निषेध करने वाले ज्ञानी पुरुष....भी तुम्हें दयासागर में गोता लगाने से रोकेंगे नहीं और ना ही तुम्हारा मार्ग अवरुद्ध करेंगे। हाँ, जब तुम स्नान कर दयासागर के किनारे पर आप्रोगे, तब तुम्हारी प्रसन्नता का ठिकाना न रहेगा । क्रूरता का मल पूरी तरह धुल Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावपूजा ४३८ गया होगा और उस के स्थान पर करुणा की कोमलता छा गयी होगी। तुम हर प्रकार से स्वच्छ-पवित्र बन गये होंगे। हे साधक ! स्नान के बाद तुम्हें नये वस्त्र धारण करने हैं-शुद्ध और श्वेत वस्त्र ! धारण करोगे न? उन वस्त्रों में तुम सुशोभित. आकर्षक लगोगे और तब तुम्हें स्वयं ही एहसास होगा कि, तुम पूजक हो। जानते हो, वस्त्रों का नाम क्या है ? वस्त्र का नाम है-'संतोष' । सचमुच, कितना प्यारा नाम है ! तुम्हें पसन्द आया ? पुद्गलभावों की तृष्णा के वस्त्र परिधान कर कोई पूजक नहीं बन सकता। क्योंकि तृष्णा में रति-अरति का द्वंद्व है और है आनन्द-उद्वेग की अगणित तरंगें । ऐसी तष्णा के रंग-बिरंगे वस्त्र धारण कर तुम पूजक नहीं बन सकते । अतः तुम्हें 'संतोष' के वस्त्र परिधान करने हैं। एक बार इन्हें धारण कर तू पूजक बन जा ! यदि पसन्द आ जाएँ, तो दुबारा पहनना। अर्थात् तुम्हें पौद्गलिक पदार्थों की तृष्णा का त्याग करना ही होगा, यदि तुम पूजक बनना चाहो तो। ___ अरे भाई, कहाँ चल दिये ? पूजन करने ? जरा रूक जाओ । देव मन्दिर में प्रवेश करने से पूर्व तुम्हें तिलक करना होगा। ललाट-प्रदेश पर तिलक अंकित किये बिना तुम देव-मन्दिर में प्रवेश नहीं पा सकते । तुम्हारी काया दयासागर में स्नान करने से कैसी सुन्दर और लुभावनी हो गयी है ! संतोष-वस्त्र परिधान करने से तुम कैसे मोहक, आकर्षक लग रहे हो? अब तुम 'विवेक' का तिलक लगाकर देखो । देवराज इन्द्र भी तुम्हारे सौन्दर्य की स्तुति करते नहीं थकेगा! । ___ 'विवेक' का तिलक ! विवेक यानी भेद-ज्ञान । जड़-चेतन का भेद समझ, चेतन आत्मा की ओर मुड़ना । जड-पदार्थ यानी शरीर में रही आत्मबुद्धि का परित्याग कर, 'शरीर से मैं (आत्मा) भिन्न है। इस तरह की श्रद्धा हढ़ करना शुद्धात्मद्रव्यमेवाहम्,' 'मैं ही शुद्ध-विशद्ध प्रात्म-द्रव्य हूँ।' ऐसे ज्ञान से आत्मा को भावित करने का नाम ही विवेक है। ऐसे विवेक का तिलक लगाना पूजक के लिये परमावश्यक है। सदा स्मरण रखना, इस विवेक-तिलक से तुम्हारी शोभा/सुन्दरता के साथ-साथ आत्मविश्वास भी बढ़ेगा और तुम्हें प्रतीत होगा कि तुम पूजक हो । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ज्ञानसार अब तुम्हें अपने विचारों को पवित्र बनाना है। जिस परम आत्मा का पूजन करने की तुम्हारी उत्कट इच्छा है, उनके (परमात्मा के) गुणों में तन्मयता साधने की भावनाओं के द्वारा अपने विचारों को पवित्र बनाना है। अर्थात, शेष सभी भौतिक कामनाओं की अपवित्रता तज कर केवल परमात्मगुणों की ही एक अभिलाषा लेकर तुम्हें परमात्ममन्दिर के द्वार पर पहुँचना है। जब तक परमात्म-गुणों का ही एक मात्र आकर्षण और ध्यान दृढ़ न हो जाए, तब तक आशय-पावित्र्य की अपेक्षा करना वृथा है...और देवपूजन के लिये आशय-पवित्रता के बिना चल नहीं सकता। चलो, अब केशर का सुवर्णपात्र भर लो। अरे भई, यह केशर लो और यह चन्दन । शिला पर घिसना शुरू कर दो। भक्ति का केशर श्रद्धा के चन्दन से खब घिसो, जी भरकर घिसो। भक्ति का लाल रंग और श्रद्धा की मोहक सौरभ । केशरमिश्रित चन्दन से पूरा सूवर्ण-पात्र भर दो। परमाराध्य परमात्मा की आराधना के अंग-प्रत्यंग में अदम्य उत्साह और अपूर्व प्रानन्द । साथ ही 'यह परमात्मा-प्राराधना ही परमार्थ है,' ऐसा दृढ़ विश्वास | अरे, उस प्रेम-दीवानी मीरा का तो तनिक स्मरण करो। कृष्ण के प्रति उसके हृदय में रही अपूर्व श्रद्धा और भक्ति के कारण वह प्रसिद्ध हो गयी। उसकी दुनिया ही कृष्णमय बन गयी थी। अब मन्दिर में चलो। मंदिर को बाहर कहीं खोजने की आवश्यकता नहीं, ना ही दूरसुदूर उसकी खोज में जाने की आवश्यकता है। तुम अपनी देह को ही स्थिर दृष्टि से, निनिमेष नजर से निरखो। यही तो वह मन्दिर है। जानते हो, देव इसी देह-मन्दिर में विराजमान हैं, प्रतिष्ठित हैं। लो, तुम तो आश्चर्यचकित हो गये ? वैसे, आश्चर्य करने जैसी ही बात है। देह के मन्दिर में ही शुद्ध आस्मदेव प्रतिष्ठित हैं। उनके दर्शनार्थ आँखें मूंदनी होगी....आन्तर दृष्टि खोलनी होगी....। दिव्य विचारों का आधार लेना होगा। शुद्ध प्रात्मा का तुम्हें नवांग-पूजन करना होगा । नवविध ब्रह्मचर्य ही शुद्धात्मा के नौ अंग हैं । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावपूजा ४४० हे पूजारी । तुम शुद्ध आत्म-स्वरूप की ओर अभिमुख हो गये; दया, संतोष, विवेक, भक्ति और श्रद्धा से तरबतर हो गये। अब तो ब्रह्मचर्यपालन तुम्हारे लिए सरल हो गया। प्रब्रह्म की असह्य दुर्गन्ध तुम सह नहीं सकोगे । तुम्हारी दृष्टि रूप-पर्याय में स्थिर होना संभव नहीं; ना ही शरोर-पर्याय में लुब्ध । बल्कि तुम्हारी दृष्टि सदा-सर्वदा विशुद्ध प्रात्म-द्रव्य पर ही स्थिर होगी । फिर भला, नारी-कथायें सुनना और सूनाना, उनके आसन पर बैठना और नर-नारी की काम-कहानियाँ, कान लगाकर सुनने का तुम्हारे जीवन में हो ही नहीं सकता। मेवा-मिठाई, छप्पन प्रकार के भोग और रसीले फलों का स्वाद लूटने की महफिलें जमाना अथवा मिष्ट भोजन पर अकाल-पीडितों की तरह टूट पड़ना, हाथ मारने का तुम्हारी कल्पना में हो ही नहीं सकता। शरीर का श्रृंगार कर या अन्य जीवों को अपनी ओर आकर्षित करने का ख्याल स्वप्न में भी कहाँ से हो ? हे प्रिय पूजक ! पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने न जाने हमें कैसा रोमांचकारी पूजन बताया है ? यह है भाव-पूजन । यदि हम दीर्घावधि तक सिर्फ द्रव्य-पूजन ही करते रहें और एकाध बार भी भाव-पूजन की ओर ध्यान न दिया, तो क्या हम पूर्णता के शिखर पर पहच सकेंगे ? अतः हमें यह दिव्य-पूजन नित्य प्रति करना है। किसी एकान्त, निर्जन भू-प्रदेश पर बैठ, पद्मासन लगा कर और आँखें मंद कर पूजन प्रारंभ करो। फिर भले ही इसमें कितना भी समय व्यतीत हो जाए, तुम इसकी तनिक भी चिन्ता न करो। शुद्ध आत्मद्रव्य का घंटों तक पूजन-अर्चन चलने दो। फलतः तुम्हें अध्यात्म के अपूर्व प्रानन्द का-पूर्णानन्द का अनुभव होगा। साथ ही तुम साधनापथ का महत्त्व और मूल्य समझ पाओगे। भाव-पूजा की यह क्रिया कपोलकल्पित नहीं है, बल्कि रस से भरपूर कल्पनालोक है । विषयविकारों का निराकरण करने का प्रशस्त पथ है।। स्नान से लगाकर नवांग-पूजन तक का क्रम ठीक से जमा लो। क्षमापुष्पलजं धर्मयुग्मक्षौमद्वयं तथा। ध्यानाभरणसार च, तदङने विनिगेशय ॥३॥२२७॥ अर्थ :- क्षमा रुपी फूलों की माला, निश्चय और व्यवहार-धर्म रुपी दो वस्त्र Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार और ध्यानरुष श्रेष्ठ अलकार आत्मा के अंग पर परिधान कर। विभेचन:- आतमदेव के गले में आरोपण करने की माला गूंथ ली है ? तैयार कर ली है? वह माला तुम्हें ही गंथनी है । क्षमा की मृदु सुरभि से युक्त प्रफुल्लित पुष्पों की माला गूंथकर तैयार रख ! क्षमा के एक-दो पुष्प नहीं, बल्कि पूरी माला! अर्थात एकाध बार क्षमा करने से काम नहीं चलेगा, अपितु बार-बार क्षमा की सौरभ फैलानी होगी। क्षमा को सदैव हृदय में बिठाये रखो....। क्षमा-पुष्प की मीठी महक ही तुम्हारे अंग-प्रत्यंग से प्रस्फुरित होती रहे ! जिस मनुष्य के गले में गुलाब के पुष्पों की माला हो, उस के पास यदि कोई जाए तो भला किस चीज की सुवास पाएगी? गुलाब की न? इसी तरह हे साधक ! यदि कोई तुम्हारे निकट पाए तो वह क्षमा की सौरभ से तरबतर हो जाना चाहिये। फिर भले ही वह साधु हो या कोई खूखार डकैत, ज्ञानी हो या अज्ञानी, निर्दोष हो या दोषी ! ध्यान रखना, कहीं क्षमा के पुष्प मुरझा न जाएँ। उन्हें सदैव-तरोताजा, पूर्ण विकसित रखना । क्षमा प्रदान करने का प्रसंग भला कब उपस्थित होता है ? जब कोई हमारे साथ वैर-वृत्तियुक्त व्यवहार करता है, हम पर क्रोध करता है और सरेआम हमारी निन्दा-अपमान करते नहीं अघाता । ऐसे समय हम किसी पर क्रोध न करें, पलट कर उस पर प्रहार न करें ... ना ही उसके प्रति जरा भी अरूचि व्यक्त करें ! इसी का नाम क्षमा है । जानते हो न तुम : 'क्षमा वीरस्य भषगम्' क्षमा वीर पुरूष का अनमोल आभूषण है । यही तो रहस्य है-प्रात्मा के गले में क्षमा के सुगंधित पुष्पों की माला प्रारोपित करने का । आत्मा की यह पुष्प-पूजा है....। इसी रहस्य के प्रतीक स्वरूप मनुष्य परमात्मा की मूर्ति को पुष्प अर्पित करता है...पुष्पमाला पहनाता है । निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म-ये दो सुन्दर वस्त्र हैं, जिन्हें हमें आतम देव को परिधान कराना है । कम से कम दो वस्त्र तो शरीर पर होने चाहिए न ?एक अधो वस्त्र और दूसरा उत्तरीय! और प्रातम-देव के दो वस्त्र है : निश्चय और व्यवहार । अकेले निश्चय से भी काम नहीं बनता, ना ही अकेले व्यवहार से । व्यवहार-धर्म पातम देव का अधोवस्त्र है,जबकि निश्चय धर्म उत्तरीय वस्त्र! दोनों का होना अत्यावश्क है । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावपूजा ४४२ माला और वस्त्रपरिधान कराने के पश्चात् अलंकार पहनाने जरूरी हैं । बिना इनके आतमदेव की शोभा में चार चाँद नहीं लग सकते । अलंकार का नाम है -'ध्यान' । धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान प्रातमदेव के अलंकार हैं । अलंकार कीमती होने से धारण करने पर चोर-डकैतों का डर प्रायः बना रहता है । फलस्वरूप हमारा धर्मध्यान कोई चोरडकैत लट न ले जाए, इस की सावधानी बरतना निहायत जरूरी है। कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा की श्री और शोभा ध्यान से है । धर्म-ध्यान के चार आलंबन :-वाचना, पृच्छना (पृच्छा), परावर्तन और धर्म-कथाओं में तन्मय रहना है । श्रुतज्ञान में रमणता पाना है। चार प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का अनुसरण करना है। अनित्य भावना भाते रहो और अशरण भावना से भावित बनो । एकत्व भावना और संसार भावना का चिन्तन-मनन करो। साथ ही आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय का निरंतर चिन्तन करो । ख्याल रहे, हमें आत्मा का पूजन निम्नानुसार करना है० क्षमा-पुष्पों की माला आरोपित करना है, ० निश्चय-धर्म और व्यवहार-धर्म रूपि दो वस्त्र परिधान कराना है, ० धर्म-ध्यान और शुक्लध्यान के अलंकारों से सजाना है ! आतमदेव कैसे तो सुशोभित दृष्टिगोचर होंगे ! उन के दर्शनमात्र से मन-मयूर नृत्य कर उठेगा, झूम उठेगा और तब अन्य किसी के दर्शन करने की इच्छा ही नहीं होगी! मदस्थानभिदात्यागैलिखाग्रे चाष्टमंगलम् । ज्ञानाग्नौ शुभसंकल्पकाकतुण्डं च धूपय ॥४॥२२८॥ पर्थ :- प्रात्मा के आगे मदस्थानक के भेदों का परित्याग करते हुए अष्टमंगल (स्वस्तिकादि) का आलेखन कर और ज्ञानरुपी अग्नि में शुभसंकल्प स्वरुप कृष्णागरु धूप कर ! विवेचन :- वर्तमान में प्रचलित पूजन-विधि में अष्टमंगल का आलेखन नहीं किया जाता । लेकिन अष्ट मंगल की पट्टी का पूजन किया जाता है। ___करना है आलेखन और उद्देश्य है-आठ मदों के त्याग का! एकएक मंगल का आलेखन करते हुए एक-एक मद का त्याग करने की Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४३ ज्ञानसार भावना प्रदर्शित करते रहना । कर्माधीन जीवों का एक गति से दूसरी गति में निरन्तर आवागमन होता रहता है, तब भला किसकी जाति शाश्वत् रहती है ? अतः मैं जाति का अभिमान नहीं करूंगा। यदि शील अशुद्ध है तो कुलाभिमान किस काम का? साथ ही अगर मेरे पास गुण-वैभव का भंडार है, तो भी कुलाभिमान किस काम का ? KA हड्डी-मांस और रूधिर जैसे गंदे पदार्थों के भंडारसदृश और व्याधि वृद्धावस्था से ग्रस्त इस शरीर के सौन्दर्य का भला गर्व किसलिये? बलशाली क्षणार्ध में निर्बल बन जाता है और निर्बल बलशाली ! बल अनियत है, शाश्वत् नहीं है... तब उस का गर्व किसलिये ? व भौतिक पदार्थों की प्राप्ति-अप्राप्ति कर्माधीन है तब लाभ में फलकर कुप्पा क्यों होना ? KO जब मैं पूर्वधर महान् आत्माओं के अनन्त विज्ञान की कल्पना करता हूँ, तब उन की तुलना में अपनी बुद्धि तुच्छ लगती है । अतः बुद्धि का अभिमान किसलिये ? और तप का घमंड ? अरे बाह्य-ग्राभ्यन्तर तपश्चर्या की घोर और उग्र माराधना करने वाले तपस्वी-महर्षियों का दर्शन करता हूँ,तब अनायास मैं नतमस्तक हो जाता हूँ। र ज्ञान का मद हो ही नहीं सकता । जिस का आधार ग्रहण कर पार उतरना है, भला उसका आलंबन लेकर बना कौन चाहेगा ? श्री स्थूलिभद्रजी का ज्वलन्त उदाहरण भूलकर भी ज्ञानमद नहीं करने देगा। यह है अष्टमंगल का आलेखन ! सुन्दर, सुगम और सरल! प्रातमदेव के पूजन में इस विधि का उपयोग सही अर्थ में होना चाहिए । अब हमें धूप-पूजा करनी है । इस के लिए ऐसा-वैसा धूप नहीं चाहिये । कृष्णागरु धूप ही चाहिए । * प्रष्ट मंगल में श्रीवत्स, स्वस्तिक, नन्दावर्त, मत्स्ययुगल, दर्पण, भद्रासन, सरावला और कुभ का समावेश है। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावपूजा ४४४ वह है-शुभ संकल्प । ज्ञानाग्नि में शुभ संकल्पस्वरूप धूप डालकर आत्ममन्दिर में सुगन्ध फैलानी है । आत्मा के शुभ स्वरूप का ज्ञान ! सिर्फ आत्म-रमणता ! अशुभ का वहाँ स्थान नहीं और शुभ संकल्प की भी आवश्यकता नहीं। परमात्म-पूजन में प्रशस्त अनुराग होता है । परमात्मा के प्रति रागअनुराग.... पूजन-क्रिया की अभिरूचि यही तो शुभ संकल्प है । इन शुभ संकल्पों का आत्म-रमणता में विलीनीकरण करने की कृष्णागरू धूप की मीठी महक आत्म-मन्दिर में फैल जाती है । - कैसी अद्भत, अनोखी और अभिनव धुप-पूजा बताई है ! परमात्मा के मन्दिर में जाकर धूप-पूजा करने वाले भाविकजन अगर प्रस्तुत दिव्य धूप-पूजा करने लगे तो ? अरे, मन्दिर की बात तो ठीक, लेकिन प्रात्ममन्दिर में स्थिर चित्त से धपपूजा में मग्न हो जाए तो उक्त साधक के इर्द-गिर्द, चारों ओर कैसी मनभावन सुगंध फैल जाए ? -आठ प्रकार के मदों के त्याग की भावना ही अष्टमंगल के आलेखन की पूजा है । -शुभ संकल्पों का आत्मज्ञान में विलीनीकरण ही धूपपूजा है । न जाने कब ऐसा अपूर्व अवसर पाएगा कि ऐसी पूजा कर परमानन्द का प्रास्वादन कर सकेंगे ? . प्राग्धर्मलवणोत्तारं, धर्मसन्यासवहिनना । कुर्वन् पूरय सामर्थ्यराजन्नीराजनाविधिम् ।।५।।२२६॥ अर्थ :- धर्मसन्यास रुषी अग्नि द्वारा पूर्ववती क्षायोपशमिक धर्मस्वरुप लवण उतारते (उसका परित्याग करते) सामर्थ्य-योगरूपी भारती की विधि पूरी करो। विवेचन :- धर्म-सन्यास अग्नि है । 0 प्रौदयिक धर्म और क्षायोपशमिक धर्म लवण है। ® सामर्थ्य योग सुन्दर, सुशोभित आरती है । पूजन-विधि में निम्नांकित दो विधियाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती हैं१. लवण उतारना और, २. आरती उतारना । उपर्युक्त दोनों क्रियाओं को यहाँ कैसा तात्त्विक स्वरूप प्रदान Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४५ ज्ञानसार किया गया है ! लेकिन इस तरह का पूजन क्षपकश्रेरिण पर चढ़ने वाला ही कर सकता है ! जब क्षपकश्रेणी में जीव दूसरा अपूर्वकरण करता है तब तात्त्विक दृष्टि से 'धर्मसन्यास' नामक सामर्थ्य योग होता है, अर्थात् ऐसे प्रसंग पर योगीजन क्षमा, आर्जव और मार्दवादि क्षायोपशमिक धर्म से पूर्णतया निवृत्त होते हैं । लेकिन जो क्षपकश्रेरिण पर आरूढ नहीं हो सकते, ऐसे जीवों के लिए भी 'धर्मसन्यास' बताया गया है और वह है- औदयिक धर्मों का संन्यास । संन्यास का अर्थ है-त्याग । अज्ञान, असंयम, कषाय और वासनाओं के त्याग को 'धर्म-सन्यास' कहा गया है । ऐसा त्याग करना यानी लवण उतारना । ऐसा धर्म-सन्यास पाँचवें-छठे गुणस्थान पर रहे श्रावक-श्रमणों को होता है, जबकि पहले प्रकार का धर्म-संन्यास केवल क्षपकश्रेणि में ही होता है । धर्म-सन्यास की अग्नि में क्षायोपशमिक धर्मों को स्वाहा कर नोन (लवण) उतारने के उपरान्त ही कवि का यह कथन सिद्ध होता है : 'जिम जिम तड़ तड़ लूण ज फूटे, तिम तिम अशुभ कर्म बन्ध ज टे' लूण उतारने की स्थूल क्रिया, तात्त्विक मार्ग का एक मात्र प्रतीक अब आरती कीजिए । सामर्थ्ययोग की आरती उतारिए । सामर्थ्ययोग क्षपकश्रेरिण में होता है। उसके दो भेद हैं-धर्म-सन्यास और योग-संन्यास । धर्म-संन्यास में लवण उतारने की क्रिया का समन्वय किया, जबकि प्रारती में 'योगसंन्यास' का समन्वय कीजिए। योग-संन्यास का अर्थ है-योग का त्याग । यानी कायादि के कार्यों का त्याग । कायोत्सर्गादि क्रियाओं का भी त्याग । अलबत्ता, ऐसा उच्च कोटि का त्याग केवलज्ञानी भगवंत ही करते हैं....। हम तो सिर्फ उनके कल्पनालोक में विचरण कर क्षणार्ध के लिये केवलज्ञानियों की अनोखी दुनिया के दर्शन का आस्वाद करते हैं । आतमदेव की आरती करने के लिए भले ही हम 'सामर्थ्ययोगी' न बन सकें लेकिन 'इच्छायोगी' बन धर्म-संन्यास और योग-संन्यास Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावपूबा ४४६ की मधुरता का लाभ तो अवश्य उठा सकते हैं । निःसन्देह यहां प्रात्मा की उच्चतम अवस्था का प्रतिपादन है । पूजा के माध्यम से उक्त अवस्था का यहाँ दर्शन कराया गया है । ज्ञानयोगी किस तरह पूजन करते हैं, इसकी झांकी बतायी गयी है । ठीक वैसे ही इस प्रकार का पूजन केवल ज्ञानयोगी ही कर सकते हैं, ना कि सामान्य योगी । विशेषत: प्रस्तुत पूजन-विधि ज्ञानपरायण मुनिश्रेष्ठों के लिए ही प्रदर्शित की गयी है । संयमशील और ज्ञानी महात्मा ही ऐसा अपूर्व पूजन कर अनहद और अद्भुत आनन्द का अनुभव करते स्फरन्मंगलदीपं च, स्थापयानुभवं पुरः । योगनृत्यपरस्तौर्यत्रिक-संयमवान् भव ॥६॥२३०॥ अर्थ :- अनुभव रुप स्फुरायमान मंगलदीप को समक्ष (प्रात्मा के सामने) प्रस्थापित कर। संयमयोग रुषी नृत्य-पूजा में तत्पर बन, गीत, नत्य और वाद्य-इन तीन के समुह जैसा संयमशील बन । (किसी एक विषय में धारणा, ध्यान और समाधि को सयम कहा जाता है) निवेचन:- अब दीपकपूजा करें। प्रातमदेव के समक्ष दीपक प्रस्थापित करना है। इस दीपक का नाम है-अनुभव । पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'अनुभव' की अनोखी परिभाषा दी है। 'सन्ध्येव दिनरात्रिभ्यां, केवल तयोः पृथक् । बुधरनुभवो दृष्ट: केवलार्कारुणोदयः ॥' जिस तरह दिन और रात्रि से सन्ध्या अलग है, ठीक उसी तरह 'अनुभव' केवलज्ञान और श्रुतज्ञान से सर्वथा भिन्न, सूर्य के अरुणोदय समान है। ज्ञानी भगवंतों ने 'अनुभव' की परिभाषा/व्याख्या इस तरह की है। केवलज्ञान के अत्यन्त समीप की अवस्था । इस 'अनुभव' को लेकर श्री आतमदेव की दीपपूजा करनी है। ___इस दीपक के दिव्य प्रकाश में ही प्रातमदेव का सत्य स्वरुप देखा जा सकता है। अतीन्द्रिय परमब्रह्म का दर्शन विशुद्ध अनुभव से ही संभव है। शास्त्रों के माध्यम से हमें सिर्फ 'अनुभव' की कल्पना ही Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ ज्ञानसार करनी रही ! केवलज्ञान के अरुणोदय की मन को मुग्ध करने वाली लालिमा की कल्पना कैसी तो मोहक और चित्ताकर्षक है ! और अब पूजन करता है - गीत, नृत्य एवं वाद्य से । आतमदेव के समक्ष अनूठी धून छेड़ दो । गीत की ऐसी लहरियाँ विस्फारित हो जाएँ कि जिसमें मन की समस्त वृत्तियाँ केन्द्रीभूत हो जाएँ । गाते-गाते नृत्यारंभ कर दो । हाथ में साज लेकर नृत्य करना और करना भावाभिनय । वाद्य वादन के मीठे सूर तुम्हारे कंठ स्वरों को बहका दें और नृत्यकला सोलह कलाओं से विकसित हो उठे । धारणा, ध्यान और समाधि, इन तीनों की एकता- स्वरूप संयम, यह आतमदेव का सर्वश्रेष्ठ पूजन है । एक ही विषय में इन तीनों की एकता होनी चाहिये । हमें अपनी आत्मा में धारणा, ध्यान और समाधि की पूर्व एकता साधनी है । संयम का यह उच्चतम, उत्तुंग शिखर है और योग की सर्वोत्कृष्ट भूमिका | इस तरह प्रात्मा के पूजन का यह अनोखा रहस्य प्रकट कर दिया गया है । जिस तरह मंदिर के रंग- मंडप में कोई स्वर सम्राट भूम-झूम कर अद्वितीय सूरावलियाँ बहा रहा हो, कोई नृत्यांगना अपनी अभिनय कला का प्रदर्शन कर रही हो और इस गीत नृत्य को साथ देने वाला कोई महान वाद्यवादक अद्भुत वीणावादन कर रहा हो; ऐसे प्रसंग पर जिस तरह सर्वत्र तन्मयता - तादात्म्य का वातावरण निर्मित होता है, ठीक उसी तरह धारणा, ध्यान और समाधि के ऐक्य में संयम का अपूर्व वातावरण जम जाता है । ऐसे समय आतमदेव का मन्दिर कैसा पवित्र, प्रसन्न और प्रफुल्लित बन जाता होगा, इस की स्थिर चित्त से कल्पना करें ।.... इस कल्पनालोक में खो जाने पर ही उसकी वास्तविक झांकी संभव है । स्वरुप में तन्मय होने का यह उपदेश है और स्वभाव अवस्था में गमन करने की प्रेरणा है । आत्ममस्ती और ब्रह्म- रमणता की ये अनोखी बातें हैं । यहाँ पर पूज्य उपाध्यायजी महाराज पूजन के स्थूल साधनों के आधार से मोक्षार्थी का सर्वोत्तम मार्गदर्शन कर रहे हैं । उल्लसम्मनसः सत्यघण्टां वादयतस्तव । भावपूजारतस्येत्थं, करक्रोडे महोदयः ||७|| २३१॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावपूजा ४४% अर्थ:- उल्लसित मन वाला सत्य की घंट बनाता और भावपूजा में तल्लीन, ऐसे तेरी हथेली में ही मोक्ष है। विगेचन :- भक्ति और श्रद्धा का केशर घोलकर प्रातम देव की नवांगी पूजा की, क्षमा की पुष्पमाला गूंथकर उनके अंग सुशोभित किये, निश्चय और व्यवहार के बहुमूल्य, सुन्दर वस्त्र परिधान करवा कर उन्हें सजाया, और ध्यान के अलंकारों से उस देव को देदीप्यमान बनाया । आठ मद के परित्याग रुप अष्ट मंगल का आलेखन किया । ज्ञानाग्नि में शुभ संकल्पों का कृष्णागरू धूप डाल कर पातमदेव के मन्दिर को मृदु सौरभ से सुगंधित कर दिया...। धर्म-सन्यास की अग्नि से लवण उतारा और सामर्थ्य योग की प्रारती की। उनके समक्ष अनुभव का मंगलदीप प्रस्थापित कर धारणा, ध्यान और समाधि स्वरुप गीत, नृत्य एवं वाद्य का अनोखा ठाठ जमाया। ___ मन के उल्लास की अवधि न रही...मानसिक मस्ती ने....मन्दिर में लटकते विराटकाय घंट को बजाया...और सारा मंदिर घंटनाद से गंज उठा....सारा नगर गूंज उठा। घंटनाद की ध्वनि ने विश्व को विस्मित कर दिया। देवलोक के देव और महेन्द्रों के पासन तक हिल उठे। 'यह क्या है ? कैसी ध्वनि है ? यह कैसा घंटनाद ?' प्रवधिज्ञान से देखा ! पोहो! यह तो सत्य की ध्वनि ! परम सत्य का गंजारव! अवश्य प्रातमदेव के मन्दिर में सत्य का साक्षात्कार हुपा है-उसकी यह प्रतिध्वनि है । आतमदेव आतम पर प्रसन्न हो उठे हैं। पूजन-अर्चन का सत्य फल प्राप्त हो गया है। उसकी खुशी का यह घटनाद है। चराचर विश्व में सत्य सिर्फ एक ही है और परमार्थ भी एक हो है। और वह है प्रात्मा। अनंत, असीम और अथाह । एक मात्र परम ब्रह्म । शेष सब मिथ्या है। परम सत्य का विश्व ही मोक्ष है । पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी मोक्ष हथेली में बताते हैं । भावपूजा में खो जाओ....मोक्ष तुम्हारे बस में है । द्रव्यपूजा के अनन्य प्रतोकों के माध्यम से मोक्षगति तक पहुंचाने के साधनस्वरुप यहां भावपूजा बतायी है। इस तात्त्विक पूजा हेतु शास्त्राध्ययन और शास्त्र Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ज्ञानसार परिशीलन अत्यावश्यक है । शास्त्र-ग्रंथों में उल्लेखित क्रमिक आत्मविकास के साथ कदम मिलाकर चलना जरूरी है। ___ ओह ! आतमदेव के भावपूजन की कैसी अनोखी दुनिया है ! स्थूल दुनिया से एकदम निराली। वहाँ न तो संसार के स्वार्थजन्य प्रलाप हैं और ना हो कषायजन्य कोलाहल । न राग-द्वेष के दवानल हैं, ना ही अज्ञान और मोह के आंधी-तुफान । न वहाँ स्थूल व्यवहार की गुत्थियाँ हैं और ना ही चंचलता-अस्थिरता के संकल्प-विकल्प । मोक्षगति की चाहना रखने वाला अोर साधना-पथ पर गतिशील जीव जब प्रस्तुत भावपूजा में प्रवृत्त होता है, तब उसे अपनी चाह पूर्ण होती प्रतीत होती है। वह अनायास हथेली में मोक्ष के दर्शन करता है । सारा दारमदार भावपूजा पर निर्भर है। तल्लीनता-तन्मयता के लिये लक्ष्य को शुद्धि आवश्यक है। यदि प्रात्मा की परम विशुद्ध अवस्था के लक्ष्य को लेकर भावपूजा में प्रवृत्ति हो, तो तन्मयता का प्राविर्भाव हुए बिना नहीं रहता। अत: साधक प्रात्मा का यही एकमेव लक्ष्य हो, और प्रवृत्ति भी। तभो साधना के स्वर्गीय ग्रानन्द का अनुभव संभव है, साथ ही प्रगतिपथ पर अग्रसर हो सकते हैं । द्रव्यपूजोचिता भेदोपासना गृहसेधिनाम् | भावपूजा तु साधूनां भेदोपासनामिका ! १८ १२:२।। अर्थ :- गृहस्थों के लिये भेदपूर्वक उपासा रप द्रव्य पूजा योगा मानी गयी है । अभेद उपासना स्वरुप भावपूजा साधु के लिये योग्य है । [अलबत्त, गृहस्थों के लिए 'भावनोनीत मानस' नानक भावपूजा होती है ] विवेचन :- पूजा के दो प्रकार हैं- द्रव्यपूजा और भावपूजा । जिसके मन में जैसा पाए, वैसे पूजा नहीं करनी है, अपितु योग्यतानुसार पूजा करती है । आत्मा के विकास के आधार पर पूजन-अर्चन करना है। क्योंकि योग्यता न होने पर भी अगर पूजा की जाए, तो वह हानिकारक है । __ घर में रहे हुए और पापस्थानकों का सेवन करने वाले गृहस्थों Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावपूजा ४५० के लिए द्रव्य - पूजा ही योग्य है । अतः उन्हें सदैव द्रव्यपूजा करनी चाहिये । द्रव्यपूजा भेदोपासनारूप है । परमात्मा सदा-सर्वदा पूज्य हैं, आराध्य हैं । वे अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, वीतरागता और अनंत वीर्य के एकमेव स्वामी हैं, साथ ही अजर, अमर एवं अक्षय गति को प्राप्त हैं । स्व. श्रात्मा से भिन्न ऐसे परमात्मा का आलंबन ग्रहण करना चहिए । वे उपास्य हैं और गृहस्थ उपासक है, वे सेव्य हैं और गृहस्थ सेवक है । वे आराध्य हैं और गृहस्थ आराधक है । वे ध्येय हैं और गृहस्थ ध्याता है । गृहस्थ उत्तम कोटि के द्रव्यों से परमात्मा की प्रतिमा का भक्तिभाव से पूजन करे । इस कार्य के लिए यदि उसे जयपायुक्त प्रारंभसमारंभ करने पड़े, तो भी अवश्य करे ! परमात्मा के गुणों की प्राप्ति हेतु उनकी अनन्य भक्ति और उत्कट उपासना करें । प्रश्न : सब क्या गृहस्थ के लिये भावपूजा निषिद्ध है ? उत्तर : नहीं, ऐसो कोई बात नहीं है । वह चाहे तो भावनोपनितमानस, नामक पूजा कर सकता है । अर्थात् परमात्मा का गुणानुवाद गुरण - स्मरण और परम तत्त्व का सम्मान, गृहस्थ कर सकता है । यह एक प्रकार की भावपूजा ही है, लेकिन 'सविकल्प' भावपूजा । वह गीत, संगीत और नृत्य के द्वारा भक्ति में लीन हो सकता है । अलबत्त, अभेद उपासना रूप भावपूजा तो साधु ही कर सकता है । आत्मा की उच्च विकास - भूमिका पर स्थित निर्ग्रन्थ परमात्मा के साथ भेदभाव से मिल सकता है | परमात्मा के संग स्व- आत्मा तादात्म्य, तन्मयता प्राप्त करे, यहो है वास्तविक भावपूजा ! का द्रव्यपूजा और भावपूज के भेद यहाँ भेदोपासना और अभेदोपासना की दृष्टि से बताये गये हैं। साथ ही प्रभेदोपासना रूपी भावपूजा के एकमात्र अधिकारी केवल निर्ग्रन्थ मुनिश्रेष्ठों को ही माना है । परमात्म-स्वरूप के साथ आत्मगुणों की एकता की अनुभूति करने बाला मुनि कैसा परमानन्द अनुभव करता है, उसका वर्णन करने में शब्द और लेखनी दोनों असमर्थ हैं । वस्तुतः प्रभेदभाव के मिलन की मधुरता तो सवेदन का ही विषय है, ना कि भाषा का ! Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार प्रस्तुत अष्टक में पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने भावपूजा के सम्बन्ध में उत्कृष्ट मार्गदर्शन किया है । साथ ही भावपूजा में प्रयुक्त होने का उपदेश मुनिश्रेष्ठों को दिया है । अभेदभाव से परमात्मस्वरुप को अनन्य उपासना का मार्ग बताया है । साथ ही साथ, गृहस्थ वर्ग के लिये भावपुजा का प्रकार बताकर गहस्थ मात्र को भी भेदोपासना की उच्च कक्षा वतायी है । ताकि वह परमात्मापासना में प्रवृत्त हो, आत्महित साव सके । अरे, प्रात्महितार्थ आत्म-कल्याणार्थ हो जो जावन व्यतीत कर रहा है-उसे यह विविध, उपासना का मार्ग काफी पसन्द आएगा और इस दिशा में निरंन्सर, गतिशील होगा । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. ध्यान मुनि-जीवन में ध्यान का स्थान कैसा महत्त्वपूर्ण है, यह बात प्रस्तुत अष्टक में अवश्य पढो ! ध्याता - ध्येय और ध्यान की एकता में दुःख नहीं होता ! मुनि को परन्तु ध्याता जितेन्द्रिय, धीर-गंभीर प्रशान्त और स्थिर होना आवश्यक है ! प्रासन सिद्ध और प्राणायाम-प्रवीण होना चाहिए ! ऐसा ध्याता मुनि, चिदानंद की मस्ती का अनुभव करता है और पाता है परम ब्रह्म प्रानन्द का असीम, अक्षय सुख ! कल्पना, विकल्प और विचारों के शिकंजे से मुक्त हो जाओ ! विचारों के बोझ से मन को नियंत्रित न करो ! पार्थिव जगत के झंझावात से अपने मन को बचा लो | निबंधन बन, ध्येय के साथ एकाकार हो जाओ । ध्यान-संबधित प्रस्तुत अध्याय का चिंतन-मनन करते हुए गहरायी से अभ्यास करो ! Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं त्रयं यस्यैकतां गतम् ! मुनिरनन्यचित्तस्य तस्य दुःखं न विद्यते ॥१॥२३३।। अर्थ :- जिसे ध्यान कान वाला, ध्यान धरन योग्य और ध्यान-जीनो की एकता प्राप्त हुई है (साथ ही) जिमका चित्त अन्यत्र नहीं है, ऐसे मुनिवर को दु:ख नहीं होता ! विनेचन : मुनिवर्य ! आप को भला दुःख कैसा? अाप दुःखी हो ही नहीं सकते | आप तो इस विश्व के श्रेष्ठ सुखी मानव हैं । पांच इन्द्रियों का कोई भी विषय आपको दुखी नहीं कर सकता। आप ने तो वैषयिक सुखों की प्राप्ति के बजाय उसके त्याग में ही सुख माना है न ? वैषयिक सुखों को अप्राप्ति के कारण ही सारी दुनिया दुःख के चित्कार कर रही है। जबकि आप ने तो, अपने जीवन का आदर्श ही सुख-त्याग को बना लिया है ! इन्द्रियों के आप स्वामी हो.. आपने पांचो इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है....! आप की आज्ञा के बिना उनकी कोई हरकत नहीं ! ठीक वैसे ही आपने अपने मन को भी वैषयिक सुखों से निवृत्त कर दिया है। सांसारिक भावों से निवत्त मन सदा-सर्वदा ध्यान में लीन रहता है ! ध्याता, ध्येय और ध्यान की अपूर्व एकता आपने सिद्ध कर ली है.... फिर भला, दु:ख कैसा और किस बात का ? । मुनिराज ! आपकी साधना, वैषयिक सुखों से निवृत्त होने की साधना है। जैसे जैसे आप इन सुखों से निस्पृह बनते जायँ वैसे वैसे कषायों से भी निवृत्ति ग्रहण करते जाय । आप यह भलीभाँति जानते हैं कि वैषयिक सुखों की स्पृहा ही कषायोत्पत्ति का प्रबल कारण है। शब्द, रूप, रस, गंध, और स्पर्श के सूखों की इच्छा को ही नामशेष करने के लिए आपकी आराधना है। अतः आप अपने मन को एक पवित्र तत्त्व से बांध लें! ध्येय के ध्यान में आप आकंठ डूब जाएँ ! साथ ही अपनी मानसिक सृष्टि में इस महान् ध्येय के अतिरिक्त किसी को घुस पैठ न करने दें। हाँ, यदि आप का मन अपने ध्येय से हट गया और किसी अन्य विषय पर स्थिर हो गया तो आप का सुख छिनते देर नहीं लगेगी ! Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ४५४ जानते हैं न विश्वामित्र ऋषि का चित्त अपने ध्येय से च्युत हो कर रुपयौवना मेनका पर स्थिर हो गया; होते ही क्या स्थिति हुई ? उन की सुख-शांति और परम ध्येय ही नष्ट हो गया ! नंदिषण मुनि और आषाढाभूति मुनि के उदाहरण कहां आपसे छिपे हुए हैं ? अतः आप सिर्फ एक ही काम कीजिए-भौतिक सुखों की स्पृहा को बहार खदेड़ दीजिए। और भूलकर भी वैषयिक सुखों का कभी विचार न करिए। वैषयिक सुखों की संहारकता का और असारता का भी चितन न करिए। अब आप अपने निर्धारित 'ध्येय' में स्थिर होने का प्रयत्न कीजिए । जिस गति से आपकी ध्येय-तल्लीनता बढती जाएगी, ठीक उसी अनुपात में आप के सुख में वृद्धि होती जाएगी! और तब आप अनुभव करेंगे कि, 'मैं सुखो हूँ, मेरे सुख में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। आपने जब मुनि-पद प्राप्त कर लिया है तब यह शिकायत नहीं होनी चाहिए कि, 'संकल्पित ध्येय में मन स्थिर नहीं रहता ।' जिस ध्येयपूर्ति के लिए आपने भरा-पूरा संसार छोड दिया, ऋद्धि-सिद्धियों का परित्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण की, उस ध्येय में आपका मन स्थिर न हो यह सरासर असंभव बात है। जिस ध्येय का अनुसरण करने हेतु प्रापने असंख्य वैषयिक सुखों का त्याग कर दिया, उस ध्येय के ध्यान में आप को आनन्द न मिले. यह असंभव बात है। हाँ, संभव है कि आप अपने ध्येय को हैं। विस्मरण कर गये हो और ध्येयहीन जोवन व्यतीत करते हो तो आ का मन ध्येय-ध्यान में स्थिर होना असंभव है। साथ ही, ऐसी स्थिति में आप सुखी भी नहीं रह सकते । श्राप को अपना मन ही खाता रहता है। फिर भले ही इसके लिए आप 'पापोदय' का बहाना करें अथवा अपनी भवितव्यता को दोष दें। ध्याता, ध्येर और ध्यान को एकता का समय ही परमानन्द-प्राप्ति की मंगल-बेला है, परम ब्रह्म-मस्ती का सुहाना समय है और है मुनिजोवन जीने का अपूर्व प्रहलाद । ध्याताऽन्तरात्मा ध्येयस्तु परमात्मा प्रकीर्तितः । ध्यानं चैकाग्रयसंवित्तिः समापत्तिस्तदेकता ॥२॥२३४॥ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ ज्ञा नसार अर्थ : ध्यान-कनी अंतरात्मा है, ध्यान करने योग्य परमात्मा हैं और ध्यान एकाग्रता की बुद्धि है। इन तीनों की एकता ही समापत्ति विगेचन: अन्तरात्मा बने बिना ध्यान असंभव है। बहिरात्मदशा का परित्याग कर अन्तरात्मा बन कर ध्यान करना चाहिए । यदि हम सम्यग दर्शन से युक्त हैं तो निःसंदिग्धरुप से अंतरात्मा हैं । जिस की दृष्टि सम्यग् हो, वहां ध्येयरूपी परमात्मा के दर्शन कर सकता है अर्थात् एकता साध सकता है। इसी दृष्टि से सम्यग दृष्टि जीव को ही ध्यान का अधिकार दिया गया है। ध्यान करने योग्य यदि कोई है तो सिद्ध परमात्मा । आठ कर्मों के क्षय से जिन अात्मानों का शद्ध-विशुद्ध स्वरुप प्रकट हया है, ऐसी शुद्धात्माएँ ध्येय हैं । अथवा वे अात्माएँ जो कि घाती कर्मों के क्षय से अरिहंत बने हैं वे ध्येय हैं। 'प्रवचनसार' ग्रन्थ में ठीक ही कहा है : जो जाण दि अरिहंते दव्वत-गुणत्त-पज्जवत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।। _ 'जो अरिहंत को द्रव्य-गुण एवं पर्याय रूप में जानता है, वह प्रात्मा को जानता है, और उसका मोह नष्ट होता है।' अरिहंत को लक्ष्य बना कर अंतरास्मा ध्यान में लीन होती है। ध्यान का अर्थ है एकाग्रता को बुद्धि, सजातीय ज्ञान को धारा । अंतरास्मा ध्येय रुपी अरिहंत में एकाग्र हो जाए । अरिहंत के द्रव्य, गुण और पर्याय सजातीय ज्ञान है....। तात्पर्य यह है कि द्रव्य, गुण और पर्याय से अरिहंत का ध्यान धरना चाहिए । 'ध्यान शतक' में ध्यान का स्वरूप दर्शाया है : जं थिरमझवसाणं तं झाणं चलं तयं चित्तं । तं होज्ज भावणा वा अणुप्पेहा वा अहव चिंता ।। 'अध्यवसाय यानी मन । और स्थिर मन यही ध्यान है। चंचल मन को चित्त कहा जाता है। ध्यान की वह क्रिया भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिंतन स्वरुप होती है।' Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ हे जीव, तू अंतरात्मा बन । विभावावस्था से सर्वथा [ निवृत्त हो जा । स्वभावावस्था की ओर गमन कर 1 आत्मा से परे .... आत्मा से भिन्न ऐद्रों की ओर दृष्टिपात भी न कर । अर्थात् जड़ द्रव्य एवं उस के विविध पर्यायों के आधार से राग-द्वेष करना बंद कर । जब तक तुम बहिरात्मदशा में भटकते रहोगे, निःसंदेह तब तक ध्येय रुपी परमात्मा के साथ एकाकार नहीं हो सकोगे । इसी लिए कहता हूँ कि अन्तरात्मा बन | अंतरात्मा ही एकाग्र बन सकती है । की एकाग्रता बहिरात्मा के भाग्य में नहीं है । हे प्रात्मन् । यदि तुम सम्यग्दृष्टि हो तो ध्यान में लीन - तल्लीन बन सकते हो । लेकिन अगर अंतरात्मा नहीं हो और केवल सम्यग्दृष्टि होने का ही दावा करते हो तो तुम एकाग्र नहीं बन सकते | ध्येय का ध्यान नहीं कर सकते सम्यग्दृष्टि के साथ-साथ अंतरात्मदशा होना निहायत आवश्यक है । परमात्मस्वरुप ध्यान रिहंत के विशुद्ध और परम प्रभावी प्रात्म- द्रव्य का ध्यान कर । उनके अनंत - ज्ञानादि गुणों का चिंतन कर । अष्ट प्रातिहार्य आदि पर्याय का निरंतर ध्यान धर । अरिहंत पुष्प के चारों और मधुर गुंजारव करता भ्रमर बन जा । सिवाय अरिहंत के, दुनिया की कोई चीज अच्छी न लगे । ना ही अरिहंत के सिवाय कोई ध्येय हो । भावार्थ यह कि तुम्हारी मानसिक - सृष्टि में अरिहंत के अतिरिक्त कुछ भी न हो । यहो है ध्याता, ध्यान, और समाधि की समापत्ति । अर्थ मणाविव प्रतिच्छाया समापत्तिः परमात्मनः । क्षीणवृत्तौ भवेद् ध्यानादन्तरात्मनि निर्मले ||३|| २३५ । वणि की भाँति क्षीणवृत्तिवाले शुद्ध अंतरात्मा में ध्यान से परमात्मा का प्रतिबिंब दमक उठे, उसे 'समापत्ति' कहा है । विवेचन : मणि कभी देखा है ? उत्तम स्फटिक में कभी प्रतिबिंब उभरते देखा है ? यदि यह न देखा हो तो भी निःसंदेह, तुमने दर्पण में अपना प्रतिबिंब उभरते तो अवश्य देखा होगा ? मणि हो, स्फटिक हो अथवा दर्पण हो - वह गन्दे या अस्वच्छ नहीं चाहिए, बल्कि निर्मल स्वच्छ होने चाहिये । तभी उसमें किसी का प्रतिबिंब - Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ ज्ञानसार उभर सकता है ! यदि आत्मा अस्वच्छ, गन्दी और मैली हो तो उस में परमात्मा का प्रतिबिंब क्या उभरेगा? नाहक हाथ-पाँव मारने से काम नहीं चलेगा। यह सही है कि मलोन आत्मा में कभी परमात्मा का प्रतिबिंब नहीं उभरेगा। तब प्रश्न यह उठता है कि हमारी प्रात्मा में परमात्मा का प्रतिबिंब उभरे-ऐसी क्या हमारी हार्दिक इच्छा है ? तब हमें अपनी आत्मा को उज्ज्वल/दीप्तिमान बनानी चाहिए ! हम क्षीणवृत्ति बन जाएँ। मतलब, वृत्तियों का क्षय कर दें ! समग्र इच्छाओं का क्षय ! क्योंकि इच्छाएँ ही एकाग्रता में सर्वाधिक अवरोधक हैं । ज्यों ज्यों हम मलीनता-धुमिलता दूर करते जाएँगे त्यों त्यों हमारी प्रात्मा मणि की भाँति अपूर्व कांतिमय और पारदर्शक होती चली जाएगी, और तब परमात्मा का प्रतिबिंब अवश्य उभर आएगा। अंतरात्मा निर्मल हो और एकाग्रता भी हो तो परमात्मा का प्रतिबिंब अवश्य उभरेगा। यही 'समापत्ति' है। इस के लिए एक महत्वपूर्ण बात है क्षीणवृत्ति बनने की । समस्त इच्छा-आकांक्षाओं से मुक्ति ! एकाग्रता में सबसे बड़ा विध्न है-ये इच्छाएँ । इच्छा ही परमात्मा-स्वरुप के साक्षात्कार में अवरोधक है। 'मणेरिवाभिजातस्य क्षीणवृत्तेरसंशयम । तात्स्थ्यात् तदञ्जनत्वाच्च समापत्ति: प्रकीर्तिता।' 'सर्वोत्तम मणि की तरह क्षीणवत्ति आत्मा में परमात्मा के संसर्गारोप से और परमात्मा के अभेद अारोप से निःसंशय 'समापत्ति' होती तास्थ्य : अंतरात्मा में परमात्मगुणों का संसर्गारोप। तदञ्जनत्व : अंतरात्मा में परमात्मा का अभेदारोप । 'संसर्गारोप, किसे कहते है ? यही जानना चाहते हो न? आरोप के दो प्रकार हैं । संसर्ग और अभेद । सिद्ध परमात्मा के अनंत गुणों में अंतरात्मा का आरोप यानी संसर्ग-पआरोप । परमात्मा के अनंत गुणों में एकाग्रता का प्रादुर्भाव होते ही समाधि प्राप्त होती है । समाधि ही ध्यान का फल है, यही अभेद-आरोप है। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान प्रश्न : इसे भला, 'आरोप' की संज्ञा क्यों देते हो? उत्तरः इस का यही कारण है कि यह तात्त्विक अभेद नहीं है। परमात्मा का यात्म-द्रव्य और अंतरात्मा का आत्म-द्रव्य, दोनों भिन्न हैं। इन दोनों के स्वतंत्र अस्तित्व का विलीनीकरण असंभव है । दो भिन्न द्रव्य एक नहीं बन सकते । अतः भावदृष्टि से जब दोनों आत्म-द्रव्यों का संगम होता है, समरस होकर परस्पर विलीन हो जाते हैं, तब अभेद का आरोप किया जाता है । हम अंतरात्मा बनें। समस्त इच्छाओं का क्षय करें। परमात्मा का ध्यान धरें! तब मणि सदृश हमारी विशुद्ध आत्मा में निःसंशय परमात्मा का प्रतिबिंब उभरेगा....! न जाने वह क्षण कैसी धन्य होगी। क्षणार्थ के लिए पात्मा अनुभव करती है, जैसे 'मैं परमात्मा हूँ।' 'अहं ब्रह्मास्मि!' यह बात इस भूमिका पर सही होती है। - आपत्तिश्च ततः पुण्यतीर्थ कृत्कर्मबन्धतः । तद्भागाभिमुखत्वेन संपत्तिश्च क्रमाद् भगेत ॥४॥२३६।। अर्थ : उक्त समापति से पुण्य-कृत्तिस्वरुप 'तीथं कर-नामकर्म' के उपार्जन रुप फल की प्राप्ति होती है। और तीर्थ करत्व के अभिमुख त्व से क्रमश: आत्मिक संपत्तिरुप फल की निष्पत्ति होती है। निवेचन : समापत्ति ! आपत्ति ! संपत्ति ! समापत्ति से आपत्ति और आपत्ति से संपत्ति । 'आपत्ति' का मतलब आफत नहीं, कोई दुःख या कष्ट नहीं! किसी प्रकार की वेदना अथवा व्याधि नहीं, बल्कि कभी भी नहीं सुना हो ऐसा अर्थ है ! यहाँ 'आपत्ति' शब्द का प्रयोग पारिभाषिक अर्थ में किया गया है ! 'तीर्थ कर-नामकर्म' उपार्जन करना यह आपत्ति है ! हाँ, समापत्ति से तीर्थ कर नामकर्म का बंधन होता है और वह 'आपत्ति' है। जो आत्मा यह नामकर्म का उपार्जन करती है, वही तीर्थ कर बनती है और धर्मतीर्थ की स्थापना कर विश्व में धर्म-प्रकाश फैलाती है। कर्म आठ प्रकार के होते हैं, जिनमें से एक 'नामकर्म' है। यह नामकर्म १०३ प्रकार का है, जिस में से एक प्रकार 'तीर्थ कर नामकर्म' Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ज्ञानसार है । जो आत्मा इस कर्म का बंधन करती है, वह तीसरे भव में तीर्थ कर बनती है। तीसरे भव में जब उस का जन्म होता है तब से ही संपत्ति ! गर्भावस्था में ही तीन ज्ञान से युक्त ! स्वाभाविक वैराग्य ! यही उन की आत्मिक संपत्ति है। जब कि भौतिक संपत्ति भी विपूल होती है.... यश, कीर्ति और प्रभाव भी अपूर्व होता है। इत्थं ध्यानफलाद् युक्तं निंशतिस्थानकाद्यपि ! कष्टमाशं स्वाभट्यानामपि नो दुर्लभं भो ॥५॥२३७।। अर्थ : म तरद ध्यान के परिणामस्वरुप 'वीस-स्थानक' आदि तप भी योग्य है, जबकि कष्टमात्ररुप [प] अभक्ष्यों को भी इस सांमार में दुर्लभ विवेचन : शास्त्रों में ऐसा उल्लेख है कि बीस स्थानक' तप तीर्थकरनामकर्म उपार्जन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। अर्थात् तोथंकर भगवान् अपने पूर्व के तीसरे भव में इस तप की आराधनासाधना कर तीर्थ कर नामकर्म उपार्जन करते हैं। 'समापत्ति' का फल यदि अप्राप्य हो तो कष्ट रूप तप की आराधना अभव्य भी करते हैं। लेकिन उन्हें समापत्ति का फल कहाँ उपलब्ध होता है ? अर्थात् तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन सिर्फ कष्टप्रद क्रियाएँ करने से संभव नहीं है। उसके लिए चाहिए समापत्ति ! जिस बीस स्थानक की आराधना करनी होती है, वे निम्नानुसार होते हैं: १. तीर्थ कर २. सिद्ध ३. प्रवचन ४. गुरू ५. स्थविर ६. बहुश्रुत ७. तपस्वी ६. दर्शन ६. विनय १०. आवश्यक ११. शील १२. व्रत १३. क्षणलव-समाधि १४. तप-समाधि १५. त्याग (द्रव्य से) १६. त्याग (भावपूर्वक) १७. वैयावच्च १८. अपूर्वज्ञान-ग्रहण १६. श्रुत-भक्ति २०. प्रवचन- प्रभावना चौबीस तीर्थ करों में से प्रथम ऋषभदेव एवं अंतिम महावीरदेव ने इन बीस स्थानकों की माराधना अपने पूर्वभवों में की थी, जब कि बोच के २२ तीर्थ कर-जिनेश्वरों में से किसी ने दो, किसी ने तीन इस Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान तरह अनियमित संख्या में आराधना की थी। अलबत्त, तमाम आराधनासाधना में ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकतास्वरुप 'समापत्ति' तो थी ही। इस के बिना 'तोर्थ कर नामकर्म' बांध नहीं सकते। सिर्फ तपाराधना कर संतोष करने वाले जीवों को अवश्य सोचना चाहिए कि भले ही वे मासक्षमण कर एक-एक स्थानक की आराधना करते हों और नवकारवाली का जाप जपते हों, लेकिन जब तक ध्येय में लीनता नहीं, तब तक तप कप्टक्रिया से अधिक कुछ भी नहीं। देवाधिदेव महावीर देव चार-चार महीने के उपवास जैसी घोर तपस्या कर दिन-रात ध्यानावस्था में लीन रहते थे । ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकता साधते थे....। धन्ना अणगार छठ तप के पारणे छठ तप की आराधना करते थे....और राजगह के वैभारगिरि पर ध्यानस्थ रह, 'समापत्ति' साधते थे। ऐसा भी देखा गया है कि जिन-जिनों को मोक्षपद प्राप्त करने की मनीषा नहीं है अथवा जो मोक्षगामी बनने वाले ही नहीं हैं ऐसे जीव भी बीस स्थानकादि तपों की आराधना तो करते रहते हैं....लेकिन उस से क्या होता है ? क्यों कि समापत्ति का फल जो तीर्थ कर नामकर्म है, उन्हें प्राप्त नहीं होता । यदि तपस्या को कोई फल-निष्पत्ति न होती हो तो अकारण ही तपश्चर्या का पुरुषार्थ करने से भला क्या लाभ....? तात्पर्य यही है कि तपश्चर्या के साथ-साथ ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकता सिद्ध करना नितान्त आवश्यक है। यदि ऐसी एकता का एकमेव लक्ष्य हो तो एक समय ऐसा आता है जब एकता सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार का लक्ष्य ही न हो तो एकता असंभव ही है। बीस स्थानक की तपश्चर्या के साथ-साथ उन-उन पदों का जाप और ध्यान धरना आवश्यक है ! अर्थात् उन पदो में लीनता प्राप्त करनी चाहिए। यह तभी संभव है जब इच्छा-याकांक्षानों से मुक्ति मिल गयी हो। जब तक हमारा मन भौतिक, सांसारिक पदार्थों की चाह से किलबिलाता रहेगा तब तक ध्येय-लीनता प्रायः असंभव ही है। अत: 'समापत्ति' अत्यंत महत्त्वपूर्ण आराधना है। जितेन्द्रियस्य धीरस्य प्रशांतस्य स्थिरात्मनः ! सुखासनस्थस्य नासाग्रन्यस्तनेत्रस्या योगिनः ॥६॥२३८ ।। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१ ज्ञानसार रुद्धबाह्यमनोवृत्तौर्धारणाधारयारयात् ! प्रसन्नस्याप्रमत्तस्य चिदानन्दसुधालिहः ।।७।।२३६।। सामाज्यामप्रतिद्वन्द्वमन्तरेन गितन्त्रात:। ध्यानिनो नोपमा लोके सदेवगमनुजेऽपि हि ।।८।।२४०।। अथ : जो जिनेन्द्रिय है, धैर्ययुक्त है और अत्यन्त शान्त है, जिस की प्रात्मा अस्थिरतारहित है, जो सुखासन पर बिराजमान् है, जिस ने नासिका के अग्रभाग पर लोचन स्थापित किये हैं और जो योगसहित हैं, ___ ध्येय में जिसने चित्त की स्थिर तारुप धारा से वेग-पूर्वक दाह्य इन्द्रियों का अनुसरण करने वाली मानसिक-वृत्ति रोक लिया है, जो प्रसन्नचित्त हैं, प्रमादरहित हैं और ज्ञानानन्द रुसी अमृतास्वादन करने-बाला है; जो अन्त:करण में ही विपक्षरहित चक्रवर्तित्व का विस्तार करता है, ऐसे ध्याता की, देवसहित मनुष्यलोक में भी सचमुच, उपमा नहीं है ! निवेचन : ये तीनों श्लोक, ध्याता-ध्यानी महापुरुष की लक्षण-संहिता की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। १. जितेन्द्रिय : ध्यान करने वाला पुरुष जितेन्द्रिय हो । इन्द्रियों का विजेता हो ! किसी इन्द्रिय का वह गुलाम न हो। कोई इन्द्रिय उसे हेरान-परेशान न करें। इन्द्रियाँ सदा महात्मा की आज्ञानुवर्ती बन कर रहें। इन्द्रिय-परवशता को दीनता कभी उसे स्पर्श न करे । इन्द्रियों की चंचलता से उत्पन्न राग-द्वेष का उन में अभाव हो। ऐसा जितेन्द्रिय महापुरुष ध्यान से ध्येय में तल्लोन हो सकता है। २. धोरः सात्त्विक महापुरुष ही ध्यान की तीक्ष्ण धार पर चल सकता है। सत्वशाली ही दीर्घावधि तक ध्यानावस्था में टिक सकता है। ठीक वैसे ही प्रांतर-बाह्य उपद्रवों का सामना भी सत्वशील ही कर सकता है। जानते हो न महर्षि बने रामचंद्रजी को सीतेन्द्र ने कैसे उपद्रव किये थे ? फिर भी रामचंद्रजो ध्यानावस्था से विचलित नहीं हुए ! कारण? उन के पास सत्व था और थी चित्त की दृढता ! इन्द्रिय-जन्य कोई मोहक विषय आकर्षित न कर सके, उसे सत्व कहा गया है ! कोई भय, Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान उपद्रव और उपसर्ग भयभीत न कर सके, उसे धीरता कहते हैं ! ध्येय के साथ एकाकार होने के लिए धीर बनना ही चाहिए। ३. प्रशान्तः समता का शीतल कुण्ड ! ध्याता की प्रात्मा अर्थात् उपशम के कलकल नाद करते झरनों का प्रदेश ! वहाँ सदैव शीतलता होती है । काम, क्रोध और लोभ-मोह का वहाँ नामोनिशान नहीं । भले ही कषायों की घधकतो अग्नि के शोलों की बारिश हो, उपशम के कुण्ड में गिरते ही शांत! वह दृढप्रहारी महात्मा....ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता साधते खड़े थे न ? क्या नागरिकों ने उन पर अंगार की वृष्टि नहीं की थो? लेकिन परम तपस्वी महात्मा को वे अंगारे जला न सके ! भला, ऐसा क्यों हआ ? कारण साफ है. वधकते अंगारे उपशम-रस के कुण्ड में बुझ जो जाते थे! जब हम ध्यानी ज्ञानी पुरुषों का पूर्व-इतिहास निहारते हैं, तब उपशम-रस की अद्वितीय महिमा के दर्शन होते हैं। लेकिन ध्यान के समय प्रशांत रहें और तत्पश्चात् कषायों को खेलने की स्वतंत्रता दे दो, यह अनुचित है। ऐसा मत करना । इस के बजाय जीवन की प्रत्येक पल उपशमरस की गागर बन जानी चाहिए। दिन हो या रात, जंगल हो या नगर. रोगो हो या निरोगी किसी भी काल, क्षेत्र और परिस्थिति में ध्यानी पुरुष शांत रस का सागर ही होता है । ४ स्थिर: ध्येय के उपासक में चंचलता न हो! जिस ध्येय के साथ ध्यान द्वारा एकत्व प्राप्त करना है, अाखिर वह ध्येय है क्या ? अनन्तकालीन स्थिरता और निश्चलता ! यहाँ मन-वचन-काया के कोई योग न हो....! फिर भला, ध्याता चंचल, अस्थिर कैसे हो सकता है ? अस्थिरता और चंचलता ध्यानमार्ग के अवरोधक तत्त्व हैं ! ध्यान में ऐसी सहज स्थिरता होनी चाहिए की कभी उसमें विक्षेप न पडे ! ५. सुखासनी: ध्यानी महापुरुष प्रायः सुखासन पर बैठे ! मतलब ध्यानावस्था में उसका आसन (बैठने को पद्धति) ऐसा होना चाहिए कि बार-बार ऊँचा-नोचा होने का प्रसंग न आये। एक हो अासन पर वह दीर्घावधि तक बैठ सके । ६. नासानन्यस्तदृष्टि: ध्यानी की दृष्टि इधर-उधर स्वच्छंद बन न भटके ! बल्कि नासिका के अग्रभाग पर उस को दृष्टि स्थिर रहनी Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार चाहिए! काया की स्थिरता के साथ-साथ इष्टि की स्थिरता भी होना आवश्यक है। ऐसा न होने पर दुनिया के अन्य तत्त्व मन में घुसपैठ करने से बाज नहीं आएगें और ध्यान-भंग होते विलम्ब नहीं लगेगा ! द्रोपदी का पूर्वभव इसका साक्षी है। जब वह साध्वी ध्यान-ध्येय को पूर्ति हेतु नगर बहार गयी थी, तब उस को दृष्टि सामने वाले भवन में स्थित वेश्या पर पडी ! पांच पुरुषों के साथ वह वेश्या रतिक्रीडा में रत थी । साध्वी की दृष्टि में यकायक वह दृश्य प्रतिबिंबित हुआ । वह उस में खो गयी और अपने उद्देश्य का विस्मरण कर गयी । क्षणार्ध के लिए वह मन में बुदबुदायी: "यह कितनी सुखी है ? एक नहीं, द। नहीं, पांच-पांच प्रेमियों को एक मात्र प्रेमिका !" ध्येय रूप परमात्मा के बजाय वह दृश्य उसे अत्यंत प्रिय लगा। फलस्वरूप वही उस का ध्येय बन गया ! आगे चल कर द्रौपदी के भव में वह पांच पांडवों की पत्नी बनी ! परमात्मा के साथ तादात्म्य साधने के लिए दृष्टि-संयम अनिवार्य है। दृष्टिसंयम न रखने वाला साधक परमात्म-स्वरूप की साधना नहीं कर सकता ! अत: उसे हमेशा अपनी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थिर करनी चाहिये। ७. मनोवृत्तिनिरोधकः मन के विचार इंद्रियों का अनुसरण करते हैं । निज चित्त को ध्येय में स्थिर करनेवाला साधक मनोवत्तियों का निरोध करता है ! तात्र वेग से प्रवाहित विचार-प्रवाह में अवरोध पैदा करता है ! लेकिन जहाँ ध्येय में चित्त लीन हो गया....इंद्रियों के पीछे दौडते मन पर प्रतिबंध या जाता है, वह भागना बंद करता है । आत्मा के साथ उस का सम्बंध जुडते ही अनायास इंद्रियों के साथ रहे उस के सम्बंध टूट जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में, 'मैं परमात्मा का ध्यान करु !' साचते हुए, राह देखने की जरूरत नहीं। स्वयं परमात्म-स्वरुप में आपको लीन कर दो। बस, इन्द्रियों के साथ सम्बंध-विच्छेद हुआ ही समझो ! ८. प्रसन्न : न जाने कैसो अद्वितीय प्रसन्नता ठूस ठूस कर भरी होती है ध्यानी पुरुष के मन में । परमात्म-स्वरुप में लीन होने का प्रादर्श, ध्येय रखने वाला ज्ञानी-ध्यानी महापुरुष जब अपनी मंजिल पर पहुँचता है और अपने आदर्श को सिद्ध होता अनुभव करता है, तब उसकी प्रसन्नता की अवधि नहीं रहती। वह एक तरह के दिव्य प्रानन्द में डूब Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान जाता है। उस का रोम-रोम विकस्वर हो उठता है। हृदय अकथ्य आनन्दोर्मियों से छलक उठता है और मुखमंडल अपूर्व सौम्यता से देदीप्यमान नजर आता है । तब उसे विषय-भोग की स्पृहा नहीं होती, ना ही काम-वासनाओं का संताप । अर्थात् अानन्द ही आनन्द का वातावरण छाया रहता है सर्वत्र ! 'भिक्षरेक: सुखी लोके ।' यह कैसा सत्य का सत्य और सनातन सत्य है। जो ध्यानी है, वह भिक्ष/मुनि ऐसा अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर सकता है ! ६. अप्रमत्तः प्रमाद ! आलस ! व्यसन ! इस भूतावलि को तो कोसों दूर रख, वह परमात्म-स्वरुप के सन्निकट पहँच जाता है। वह इस का कभी शिकार नहीं होता, बल्कि उस के अंग-प्रत्यंग से स्फूर्ति की किरणें प्रस्फुटित होती रहती हैं। निरंतर मन अपूर्व-असीम उत्साह से भरा-भरा रहता है। वह प्रासनस्थ हो या खड़ा....भव्य विभूति महा मानव ही प्रतीत होता है। साथ ही ऐसा भास होता है जैसे वह परमात्मा की प्रतिकृति न हो? अरे, वैभारगिरि पर ध्यानस्थ धन्ना अणगार के जब मगधाधिपति श्रेणिक ने दर्शन किये थे, तब वे ऐसी ही भव्य विभूति लगे थे, सहसा वे उनके समक्ष नतमस्तक हो गये ! उन के हृदय में सहसा भक्ति का प्रवाह प्रकट हो उठा! अप्रमत्त ध्यानी महात्मा के दर्शन से श्रेणिक गद्गद् हो उठे थे ! ओर उसो क्षण अप्रमाद का अपूर्व प्रताप, मगध-नरेश श्रेणिक के भव-ताप को दूर करने वाला साबित हुआ। ध्यानी के प्रागे अभिमानो का अभिमान पानी हो जाता है और उसको मोन वाणो प्राणो के प्राणों को नवपल्लबित कर देती है। १०. चिदानन्द-अमृत अनुभवी: ध्यानी महापुरुष को सर्वदा एक ही अभिरूचि होती है ज्ञानानन्द का जो भर रसास्वादन करने की। सिवाय इस के उसे इस संसार से कोई दिलचस्पी नहीं । ज्ञानानन्द का अमृत हो उसका पेय होता है। आत्मज्ञान का प्रास्वाद लेते वह जरा भी नहीं अघाता। ऐसे ध्यानी महात्मा अपने अंतरंग-साम्राज्य का विस्तार करते हुए न जाने कैसा प्रात्म-तत्त्व बनाते हैं ! उस के साम्राज्य का वही एक मात्र अधिकारी और स्वामी ! अन्य कोई भूल कर भी उनकी इल Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ नहीं कर सकता । साथ हो उक्त साम्राज्य का ना हो कोई विपक्ष- शत्रु पक्ष है ! ऐसे ध्यानी नरपुंगव को भला, किस उपमा से अलंकृत किया जाए ? उस के लिए देवलोक में कोई उपमा नहीं है, ना ही मृत्युलोक में । ऐसी कोई पूर्णोपमा उपलब्ध नहीं त्रिभुवन में, जिस का उपयोग ध्यानीज्ञानी महापुरुष के लिए उपयुक्त हों । ज्ञानसार ध्याता, ध्यान, और ध्येय की एकता साधने वाला योगी चर्मचक्षुत्रों से दृष्टिगोचर नहीं होता, ना ही परखा जाता है। ऐसे महान् ध्याता महात्मा, अंतरंग आनन्द का अनुभव करते हैं । ऐसी उच्चतम श्रेणि प्राप्त करने के लिए जीवात्मा को ऊपर निर्दिष्ट विशेषताओं का संपादन करना आवश्यक है । ध्याता बनने के लिए यह एक प्रकार की आचार संहिता ही है । ऐसा ध्याता ही ध्येय प्राप्त करने का सुयोग्य अधिकारी बन सकता है । हे आत्मन् ! तू ऐसा सर्वोत्तम ध्याता बन जा ! प्रस्तुत पार्थिव जगत से सदा-सर्वदा के लिए अलिप्त हो जा । ध्येयरूप परमात्मस्वरूप का अनन्य पूजारी, पूजक बन जा ! इतना ही नहीं, बल्कि इसका हो प्रेमी बन जा । अपने जीवन की हर पल को तू इस में ही लगा दे ! ध्येय में ध्यान से निमग्न हो जा। और अनुभव कर ले इस अपूर्व आनन्द का ! ३० Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. तप वासनाओं पर कुपित योगी, अपने शरीर पर क्रोध करता है, रोष करता है और तपश्चर्या के माध्यम से शरीर पर आक्रमण कर देता है, टूट पडता अरे, प्रात्मन् ! शरीर पर टूट पडने से क्या लाभ ? क्या तुम नहीं जानते कि शरीर तो धर्म-साधना का एकमेव साधक है ? काम-वासनाएं शैतान है, शरीर नहीं ! अतः तपश्चर्या का लक्ष्य शरीर नहीं, बल्कि कामवासनाएं होना चाहिए । प्रस्तुत प्रकरण में ग्रंथकार ने हमें यही विवेकदृष्टि प्रदान की है । इंद्रियों को नुकसान हो, ऐसी तपश्चर्या नहीं करने को है । बाह्य तप की उपयोगिता आभ्यंतर तप की दृष्टि से है और अभ्यंतर तप को आत्मविशुद्धि का अनन्य साधन बताया है । हे तपस्वीगण ! तुम्हें ईम अध्याय का ध्यान-पूर्वक पठन मनन करना होगा ! Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६७ श्रर्थ : ज्ञानमेव बुधा: प्राहुः कर्मणां तापनात् तपः । तदाभ्यन्तरमेवेष्टं बाह्यं तदुपबृंहकम् ॥ १॥२४१॥ पंडितों का कहना है कि कर्मो को तपाने वाला होने से तप, ज्ञान ही है | यूं अंतरंग तप ही इष्ट है, उसे वृद्धिंगत करने वाला बाह्य तप भी इष्ट ही है । ज्ञानसार विवेचन : भला ऐसा कौन भारतीय होगा, जो 'तप' शब्द से अनभिज्ञ अपरिचित हो ? तप करने वाला तो तप से परिचित है ही, लेकिन जो तप नहीं करता है वह भी इस से भलीभाँति परिचित है ! वेसे आम तौर पर समाज में 'तप' शब्द अमुक प्रकार के बाह्य तप के रूप में ही प्रसिद्ध है | तपश्चर्या क्यों की जाए ? तप कैसा किया जाय ? तपश्चर्या कब की जाए ? आदि कइ बातें हैं, जिन पर सोचना प्रायः बंद हो गया है । इस संसार में सुखी लोगों की तरह दुःखी लोग भी पाये जाते हैं ! उस में भी सुखी कम, दुःखो ज्यादा ! वास्तविकता यह भी है कि सुखी सदा के लिय सुखी नहीं, वैसे दुःखी सदा के लिए दुःखी नहीं....! यही तो यक्ष प्रश्न है । भला ऐसा क्यों ? तो क्या ग्रात्मा का स्वभाव ही ऐसा है ? नहीं, आत्मा का स्वभाव तो अनंत सुख है, शाश्वत् सुख है ! तब क्या है ? शास्त्रकारों का कहना है कि श्रात्मा पर 'कर्म' का आवररण छाया हुआ है, अतः जीव के जिस वाह्य रूप के हमें दर्शन होते हैं, वह कर्मजन्य रूप है ! आत्मा के इस रूप - स्वरूप का निर्णय केवलज्ञानी वीतराग ऐसे परमात्मा द्वारा बहुत पहले ही किया गया है । परम सुख और अक्षय शांति प्राप्त करने के लिए आत्मा को कर्मबंधन से मुक्त करना ही पड़ता है । यह कर्म-बंधन को तोड़ने का अपूर्व, एकमेव साधन तप है ! कर्म-क्षय के लिए तपश्चर्या करनी होती है । कहा गया है : 'कर्मरणां तापनात् तपः' अर्थात् कर्मों को जो तपाये, वह तप है । तपाने का अर्थ है नाश करना । तपस्वी का लक्ष्य हमेशा कर्म-क्षय ही होना चाहिए । तप के मुख्य दो भेद है : बाह्य और अभ्यन्तर । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैसे कर्मक्षय करनेवाला तप आभ्यन्तर ही होता है । 'प्रशमरति' में भगवान उमास्वातिजी ने कहा है : "प्रायश्चितध्याने वयावत्यविनयावथोत्सर्ग: । स्वाध्याय इति तपः षट्प्रकारमभ्यंतरं भवति ॥" प्रायश्चित, ध्यान, वैयावच्च, विनय, कायोत्सर्ग और स्वाध्यायमाभ्यन्तर तप के छह मुख्य भेद हैं । इन में भी स्वाध्याय' को श्रेष्ठ तप कहा गया है । 'सज्झायसमो तवो नत्थि ।' स्वाध्याय के समान अन्य कोई तप नहीं है । यह श्रेष्ठता कर्मक्षय की अपेक्षा से है । स्वाध्याय से विपुल प्रमाण में कर्मक्षय होता है, जो पन्य तयों से नहीं होता । 'तब क्या बाह्य तप महत्त्वपूण नहीं है ?' है, आभ्यन्तर-तप की प्रगति में सहायक हो-ऐसे बाह्य-तप की नितान्त आवश्यकता है । उपवास करने से यदि स्वाध्याय में प्रगति होती हो तो उपवास करना ही चाहिए । कम खाने से यदि स्वाध्यायादि क्रियाओं में स्फूर्ति का संचार होता हो तो अवश्य कम खाना चाहिए । भोजन में कम व्यंजनो-वस्तुओं के उपयोग से, स्वाद का त्याग करने से, काया को कष्ट देने से, और एक स्थान पर स्थिर बेठने से यदि आभ्यन्तर तप में वेग पाता हो और सहायता मिलती हो तो निःसंदेह ऐसा बाह्य-तप जरूर करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि बाह्यतप, आभ्यन्तर तप का पूरक बनना चाहिये। हे मानव, केवल तुम ही आभ्यन्तर तप की आराधना कर कर्मक्षय करने में सर्वदृष्टि से समर्थ हो । अत: कर्मक्षय कर आत्मा का स्वरूप प्रगट करने हेतु तप करने तत्पर बन जायो । जब तक कर्मक्षय कर आत्म-स्वरुप प्रगट नहीं करोगे, तब तक तुम्हारे दु:खों का अंत नहीं मायेगा। आनुश्रोतसिको वृतिर्बालानां सुखशीलता ! प्रातिश्रोतसिको वृति निनां परमं तपः ॥२॥२४२॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ शानसार अर्थ :- लोकप्रवाह का अनुसरण करने की अज्ञानी की वृत्ति, उसकी सुख शीलता है । जबकि ज्ञानी पुरुषों की, विरुद्ध प्रवाह में चलने रुप वृति उत्कृष्ट तप है । विवेचन : संसार के तीव्र गतिवाले महाप्रवाह ! — महाप्रवाह की प्रचंड बाढ में जो बह गये, उन का इतिहास निहायत रोंगटे खडा कर देनेवाला है । अरे, राव-रंक तो क्या, अपनी हँकार से धरती को एक छोर से दूसरे छोर तक कंपानेवाले, भयभीत करनेवाले रथी-महारथी, चक्रवर्ती, वासुदेव और प्रतिवासुदेव, राजा-महाराजा इस महाकाल की बाढ में बह गये....! इस के बावजूद भी प्रलयंकारी महाप्रवाह थमा कहां है ? आज भी पूर्ववत् बह रहा है....और वह भी एक प्रकार का नहीं, बल्कि अनेक प्रकार का हैं । 'खाना-पीना और मौज-मस्ती मारना ! ऐसा ही चलता है और चलता रहेगा ! हम तो संसारी जो ठहरे ! सब चलता है ! अरे भाई. अपना मन शुद्ध-साफ रखो, तप करने से और क्या होना है ?' संसार में ऐसे कई लोकप्रवाह हैं । और उस के बहाव में प्रबाहित होकर तप की उपेक्षा करनेवाले अज्ञानी जीवों की इस दुनिया में कमी नहीं है। मानव की सुखशीलता उसे ऐसे बहाव में खींच ले जाती है और वह हमेशा ऐसी ही प्रवृत्ति का अनुसरण करता हैं। जिसमें अधिक कष्ट न हो, दिमागपच्ची न हो और शरीर को किसी प्रकार की तकलीफ न पड़े। लेकिन जो विद्वान है, विचारक हैं और चितक हैं, वे प्रचलित लोकप्रवाह के विपरीत चलनेवाले होते हैं ! उन्होंने सुखशीलता का त्याग किया होता है। नानाविध प्रापत्ति, वेदना, यातनाएँ और कष्टों को हँसते-हँसते झेलने की उन की तैयारी होती है ! वे धर्म बुद्धि और धार्मिकवृत्ति से प्रेरित होकर उत्कृष्ट तपश्चर्या करते हैं । वे मन ही मन चिंतन करते हैं : "प्रव्रज्या ग्रहण कर तीर्थंकर स्वयं भी तप करते हैं....अलबत्ता, उन्हें भली-भाँति ज्ञान है कि वे केवलज्ञान के अधिकारी बनेंगे, फिर भी घोर तपश्चर्या का प्रालम्बन ग्रहण करते हैं ! तब हे जीव ! तुम्हें तो तप करना ही चाहिये ।" Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप .. ४७० यहां मूल श्लोक में 'वृत्ति' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिस आ अर्थ 'विचार' होता है, अर्थात् अज्ञानी जीवों की लोक प्रवाह का अनुसरण करने की वृत्ति (विचार) सुखशीलता है । लेकिन ग्रन्थकोर ने स्वयं ही 'वृत्ति' का अर्थ 'प्रवृत्ति' करते हुए मासक्षमण (एक महिने का उपवास) सदृश उग्र तपश्चर्या की प्रवृत्ति प्रदर्शित की है। मतलब, तपश्चर्या को मात्र विचार रुप नहीं, बल्कि आचाररुप निर्दिष्ट कर बाह्य तप पर भार दिया है ! 'बाह्यं तदुबहकम् ।' का प्रयोग कर बाह्य तप अंतरंग तप का सहायक है-ऐसा आभास पैदा किया था कि कर्मक्षय के लिए अंतरंग तप सर्वथा आवश्यक है ! अलबत्ता, बाह्य तप करना हो तो करें। लेकिन तुरंत ही दूसरे श्लोक में अपने कथन का स्पष्टीकरण किया है । लोकप्रवाह...लोकसंज्ञा के अधीन बन अगर तप की ही उपेक्षा करते हो तो यह तुम्हारी सुखशालता को आभारी है और तुम अज्ञानी हो। - अंतरंग तप सुदृढ़ बनने के लिए बाह्यतप नितान्त जरूरी है । अतः टीका में ग्रन्थकार ने तद्भवमोक्षगाम) तोथंकरों का उदाहरण दे कर कहा है कि, 'वे स्वयं बाह्य तप का आचरण करते हैं ।' तब हम भला, यह भी नहीं जानते हैं कि 'किस भव में हमारी मुक्ति है ! हम मोक्षपद के अधिकारो बननेवाले हैं या नहीं, तो तप क्यों न करें ? , करो, जितना भी संभव है, अवश्य बाह्य तप करो....! शरीर का मोह त्याग कर तपश्चयी करो । धोन, वीर और उग्र तपश्चर्या कर अपनी अनन्य आत्मशक्ति का इस संसार को परिचय कराम्रो । लोकप्रवाह के विपरीत प्रवाह में तैर कर अपनी धीरता और वीरता का प्रदर्शन कर, आगे बढते रहो । कर्मक्षय का आदर्श अपने सामने रख, तप करते ही रहो ।। धनाथिनां यथा नास्ति शीततापादि दुस्साहम् । तथा भवविरक्तानां तत्त्वज्ञानाथिनामपि ॥३॥२४३॥ अर्थ :- जिस तरह धनाथों को सदी -गरमी आदि कष्ट दुस्सह नहीं हैं, ठीक उसी तरह संसार से विरवत तत्वज्ञान के चाहक को भी शीत - तापादि कष्ट सहन करने रुपी तप दुस्सई नहीं हैं । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७१ शनसार विवेचन : धन-संपत्ति के लालची मनुष्य को, दांत किटकिटाने वाली तीव्र सर्दी और आग बरसानेवाली गरमी की भरी दोपहरी में भटकते देखा होगा ? उस से तनिक प्रश्न करना : "अरे भई, इतनी तीव्र सर्दी में भला तुम क्यों भटक रहे हो ? तन-बदन को ठिठुरन से भर दें ऐसी कडाके की सर्दी क्यों सहन कर लेते हो?अाग-उगलती तीव्र गरमी के थपेड़े क्यों सहते हो ?" . प्रत्युत्तर में वह कहेगा : “कष्ट झेले बिना, तकलीफ और यातनाओं को सहे बिना धन-संपत्ति नहीं मिलती ! जब ढेर सारा घन मिल जाता है तब सारे कष्ट भूल जाते हैं।" ना खाने का ठिकाना, ना पीने का ! कपड़ों का ठाठ-बाठ नहीं! एशो-नाराम का नाम निशान नहीं ? धन-संपदा के पीछे दीवाना बन, घूमने वाले को कष्ट कष्टरूप नहीं लगता, ना ही दुःख दुःखरूप लगता है ! तब भला, जिसे परम तत्त्व के बिना सब कुछ तुच्छ प्रतीत हो गया, ऐसे भवविरक्त परमत्यागी महात्मा को शीत-तापादि कष्टरूप लगेंगे क्या ? पादविहार और केशलुंचन आदि कष्टदायी प्रतीत होंगे क्या ? __ अरे, परमतत्त्व की प्राप्तिहेतु भवसुखों से विरक्त बन राजगृही की पहाड़ियों में प्रस्थान कर.... उत्तप्त चट्टान पर नंगे बदन सोने वाले धन्नाजी और शालिभद्र को वे कष्ट कष्टरूप नहीं लगे थे ! उन के मन वह सब स्वाभाविक था ! जो मनुष्य भव से विरक्त नहीं, सांसारिक-सूखों से विरक्त नहीं, ना ही परमतत्त्व-प्रात्मस्वरुप प्राप्त करने को हृदय में भावना जाग्रत हई, ऐसे मनुष्य के गले यह बात नहीं उतरेगी । जिसे भव-संसार के सूखों में ही दिन-रात खोये रहना है, भौतिक सुखों का परित्याग नहीं करना है और परम तत्त्व की अनोखी बातें सुन, उसे प्राप्त करने की चाह रखता है, वैसा मनुष्य प्रायः ऐसा मार्ग खोजता है कि कष्ट सहे बिना ही आसानी से परम तत्त्व की प्राप्ति हो जाय । भव-विरक्ति के बिना परम तत्त्व की प्राप्ति असंभव ही है । ठीक वैसे ही भव-विरक्ति और परम तत्त्व की प्राप्ति की तीव्र लालसा के बिना उपसर्ग और परिसह सहना भी असंभव है ! इतिहास साक्षी है कि जिन महापुरूषों ने उपसर्ग और परिसह सहन किये थे, वे सब भवविरक्त थे, एवं परम तत्त्व की प्राप्ति के चाहक थे ! Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप ४७२ गजसुकुमाल मुनि, खंधक मुनि आदि मुनिश्रेष्ठ एवं चंद्रावतंसक जैसे राजा-महाराजाओं को याद करो....! परिसह और उपसर्ग उन को उपद्रव रुप नहीं लगे थे । हाँ, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ध्येय का निर्णय हो जाना चाहिये ! धनसंपदा की भांति ही तुम्हारे मन में परम तत्त्व की प्राप्ति की भावना उजागर हो जानी जाहिये। जिस तरह धन के बिना धनार्थी को कोई प्रिय नहीं, ठीक उसी तरह मुमुक्ष को बिना परमतत्त्व के कोई प्रिय नहीं ! यह सोच कर वह परमतत्त्व की प्राप्ति के लिए तपश्चर्या करें ! परिणाम यह होगा कि एकाघ-दो उपवास क्या, महिने-दो महिने के उपवास भी उसे सरल लगेंगे ! घंटों तक ध्यानस्थ रहना उसके लिए कष्टप्रद नहीं होगा । जिस तरह इस विश्व में सब से प्रिय वस्तु पैसा है, उसी तरह विवेकशील मुमुच के लिए अत्यधिक प्रिय वस्तु परम तत्त्व ही हैं । उसे पाने के लिए जो कोई कष्ट सहे, एक तरह से वह तप ही है। ऐसा तप उसे सरल, सुगम और उपादेय प्रतीत होता है और वह अदम्य उत्साह के साथ उसकी अाराधना करता है ! सदुपायप्रवृत्तानानुपेयमधुरत्वतः । जानिनां नित्यमानन्दवृद्धिरेव तपस्विनाम् ॥४॥२४४ अर्थ :- अच्छे उपाय में प्रवृत्त शानी ऐसे तपस्वियों को मोक्ष रुपी साध्य की स्वादुता से उसके आनन्द में सदैव अभिवृद्धि होती है । विवेचन : जहाँ मीठापन वहाँ अानन्द ! जहाँ मिष्टान्न का भोजन वहाँ आनन्द ! जहाँ मीठे शब्दों की खैरात वहाँ आनन्द ! जहाँ मधुर-मिलन वहाँ आनन्द ! अरे, मीठेपन में हो मानन्द का अनुभव होता है। लेकिन ज्ञानियों को मिष्टान्न आनन्द नहीं देता ! मृदु शब्दों के श्रवण में उन्हें रस नहीं, और ना ही मधुर-मिलन की उन्हें उत्कंठा होती है । तब भला, उन का जीवन कसा नीरस, आनन्द विहिन उल्लासहीन होगा ? महीं, नहीं ! उन का जीवन आनन्द से भरपूर होता है ! रसभीना होता है ! उल्लास से परिपूर्ण होता है । जामते हो वे, यह आनन्द कहाँ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार से प्राप्त करते हैं ? साध्य की मधुरता में से ! और उनका एकमेव साध्य है मोक्ष ! मोक्ष-प्राप्ति ! शिवरमणी के मधुर मिलन की कल्पना मात्र से माधुर्य बरसता है ! यह माधुर्य तपस्वीगण को आनन्द से भर देता है ! शिवरमणी से मिलने का तपस्वीजनों ने एक अच्छा उपाय पकड लिया है तपश्चर्या का, देह-दमन का और वत्तियों के शमन का । तपस्वीजनों के पास ज्ञानदृष्टि जो होती हैं, वे इस उपाय से साध्य की निकटता खोज निकालते हैं | जैसे जैसे साध्य सन्निकट होगा, माधुर्य में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है और वे अपूर्व प्रानन्द का अनुभव करते हैं । क्रमश: वह आनन्द बढ़ता ही जाता है ।। 'मेराग्यरति' ग्रंथ में कहा गया है : रते: समाधावरतिः क्रियासु नात्यन्ततीवास्वपि योगिनां स्यात् । अनाकुला वहिनकणाशनेऽपि न कि सुधापानगुरणाच्चकोराः ॥" "योगीजनों को समाधि में रति-प्रीति होने से अत्यंत तीव्र क्रिया में भी परति-अप्रीति कभी नहीं होती ! चकोर पक्षीसुधारसपान करने का चाहक होने से अग्नि-कण भक्षण करते हुए भी क्या वह व्याकुलता-विरहित नहीं होता ?" मधुरता के बिना प्रानन्द नहीं और बिना आनन्द के कठोर धर्मक्रिया दीर्घावधि तक टिकती नहीं ! वैसे मधुरता और आनन्द, कठोर धर्माराधना में भी जीव को गतिशील बनाता है : प्रगति कराता है । यहां यह स्पष्ट किया गया है कि तपस्वी को ज्ञानी होना नितान्त आवश्यक है ! यदि तपस्वी प्रज्ञानी और गँवार होगा तो उसे कठोर धर्म-क्रिया के प्रति अप्रीति होगी, अरति होगी। भले ही वह धर्म-क्रिया करता होगा, लेकिन वह मधुरता का अनुभव नहीं करेगा । ज्ञान उसे साध्य-मोक्ष के सुख की कल्पना देता है । और वह कल्पना उसे मधुरता प्रदान करती है। उस से वह आनन्दभरपूर बन जाता है! यही आनन्द उस की कठोर तपश्चर्या को जीवन देता है । ज्ञानयुक्त तपस्वी की जीवनदशा का यहां कैसा अपूर्व दर्शन कराया है ! हम ऐसे तपस्वी Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप ४७४ बनने का आदर्श रखें । उस के लिए साध्य की कल्पना स्पष्ट करें । वह इतनी स्पष्ट होनी चाहिये कि जिस में से माधुर्य का स्फरण होता रहे ! इस के लिये तपश्चर्या के एकमेव उपाय का अवलम्बन करें ! बस, निरन्तर आनन्द-वृद्धि होती रहेगी और उस आनन्द में नित्यप्रति क्रिडा करते रहेंगे। इत्यं च दुःखरूपत्वात तपोव्यर्थमितीच्छताम् । बौद्धानां निहता बुद्धिबौद्धानन्दापरिक्षयात् ॥५॥२४५।। अर्थ :- इस मंतव्य के साथ कि 'इस तरह दु.खरुप होने के कारण तप निष्फल है, ऐसा कहने वाले बौद्धों की बुद्धि कुन्ठित हो गई है । क्यों कि बुद्धिजनित अन्तरंग आनन्द-धारा कभी खंडित नहीं होती! तात्पर्य यह कि तपश्चर्या में भी आत्मिक आनन्द की धारा सदैव अखंड रहती है) विवेचन : 'कर्म-क्षय हेतु, दुष्ट वासनाओं के निरोधार्थ तपश्चर्या एक आवश्यक क्रिया है । जो करनी ही चाहिए।' इस शाश्वत् , सनातन सिद्धान्त पर भारतीय धर्मों में से केवल बौद्ध धर्म ने पाक्रमरण किया है ! अलबत्त, चार्वाक-दर्शन भी इसी पथ का पथिक है ! परंतु वह आत्मा और परमात्मा के सिद्धान्त में ही विश्वास नहीं करता । अतः वह तपश्चर्या के सिद्धान्त को स्वीकार न करे-यह समझ में आने जैसी बात है । परंतु आत्मा एवं निर्वाण को मान्यता प्रदान करनेवाला बौद्धदर्शन भी तपश्चर्या की अवहेलना करें, अमान्य करे, तब सामान्य जनता में संदेह उत्पन्न होता है और तपश्चर्या के प्रति अश्रद्धा का प्रादुर्भाव होता है । फलतः सामान्य जनता के हितचिंतक और मार्गदर्शक महात्माओं को दुःख होना स्वाभाविक है ! तपश्चर्या को लेकर बौद्ध-दर्शन का अपलाप कैसा है, यह जानने जैसी बात है ! वह कहता है : 'दुःखात्मकं तपः केचिन्मन्यते तन्न युक्तिमत् । कर्मोदयस्वरूपत्वात् बलिवर्दादि-दुःखवत् ॥, 'कित्येक (जैनादि) बैल आदि पशु के दुःख की तरह अशाता वेदनीय के उदय-स्वरूप होने से तपश्चर्या को दुःखप्रद मानते हैं, जो Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७५ ज्ञानसार युक्तियुक्त नहीं है ! बौद्ध कहते हैं : "तप क्यों करना चाहिए ? पशुओं की तरह दुःख सहने से भला क्या लाभ ? वह तो अशाता वेदनीय कर्म के उदय-स्वरुप जो है ! हरिभद्रसूरीजी ने कहा हैं कि : विशिष्टज्ञान-संवेगशमसारमतस्तपः । क्षयोपशमिकं ज्ञेयमध्याबाधसुखात्मकम् ।। 'विशिष्टज्ञान-संवेग-उपशमगर्भित तप क्षायोपशमिक और अव्याबाध सुखरूप है !' अर्थात् चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से सम्पन्न परिणति-स्वरुप है, ना कि अशातावेदनीय के उदय-स्वरुप है। पूज्य उपाध्यायजी महाराज का कथन है कि तपश्चर्या में अंतरंग मानंद की धारा अखंडित रहती है, उसका नाश नहीं होता । अतः तपश्चर्या मात्र कष्टप्रद नहीं है । पशुपीडा के साथ मानव के तप की तुलना करना कहाँ तक उचित है ? पशु के हृदय में क्या कभी अंतरंग आनंद की धारा प्रवाहित होती है ? पशु क्या स्वेच्छया कष्ट सहन करता है ? क्योंकि तपा की आराधना में प्रायः स्वेच्छया कष्ट सहने का विधान है ! किसी के बन्धन, भय अथवा पराधीनावस्था के कारण नहीं! स्वेच्छया कष्ट सहन करने में अंतरंग पानंद छलकता है, उफनता है ! इस आनन्द के प्रवाह को दृष्टिगोचर नहीं करनेवाले मात्र वौद्ध ही तप को दु:खरुप मानते हैं! उन्होंने केवल तपस्वी का बाह्य स्वरुप देखने का प्रयत्न किया है। उस के कृश देह को निहार, सोचा कि 'बेचारा कितना दु:खी है ? ना खाना, ना पीना,....सचमुच शरीर कैसा सूखकर काँटा हो गया हैं !' इस तरह तपश्चर्या के कारण शरीर पर होने वाले प्रभाव को देखकर उसके प्रति घणा-भाव पैदा करना आत्मवादी के लिए कहाँ तक उचित हैं ? योग्य हैं ? धोर तपश्चर्या की, अनन्य एवं अद्भुत आत्म-बल से आराधना करनेवाले महापुरूष के.... प्रांतरिक आनन्द का यथोचित मूल्यांकन करने के लिए, उनका घनिष्ट परिचय होना अत्यावश्यक है। अरे, चंपा सदृश सुश्राविका के छह मास के उपवास के बदौलत परधर्मी और हिंसक बादशाह अकबर को आनन-फानन में अहिंसक बना दिया था ! लेकिन कब ? जब अकबर ने खुद होकर चंपा श्राविका का परिचय प्राप्त किया था । तपस्विनी चंपा के प्रांतरिक आनन्द को नजदीक से देखा और Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ज्ञ निसार समझा ! तपश्चर्या को कष्टप्रद नहीं बल्कि सुखप्रद मानने की चंपा श्राविका की महानता को परखा ! फलतः अकबर जैसा बादशाह तपश्चर्या की खिदमत में झुक पडा ! यत्र ब्रह्म जिनाएं च कषायाणां तथा हतिः । सानुबन्धा जिनाज्ञा च तत्तपः शुद्धमिष्यते ॥६॥२४६॥ अर्थ :- जहां ब्रह्मचर्य हो, जिनपूजा हो, वषायों का क्षय होता हो और अनुबंधसहित जिन-आज्ञा प्रवर्तित हो. ऐसा तप शुद्ध माना जाता विवेचन : - बिना सोचे-समझे तप करने से नहीं चलता, ना ही कोई लाभ होता है। यानी उसके परिणाम को जानना चाहिये ! यह परिरणाम इसी जीवन में आना चाहिए । सिर्फ परलोक के रमणीय सुखों को कल्पनालोक में गूंथकर तप करने से कोई लाभ नहीं ! तनिक ध्यान से सोचो। जैसे-जैसे तुम तपश्चर्या करते जाओ, वैसे-वैसे उसके निम्नांकित चार परिणाम प्राने चाहिये : (१) ब्रह्मचर्य में वृद्धि होती है ? । (२) जिन-पूजा में प्रगति होती है ? (३) कषायों में कटौती होती है ? (४) सानुबन्ध जिनाज्ञा का पालन होता है ? तपश्चर्या का प्रारम्भ करते समय इन चार आदर्श दृष्टि समक्ष रखना परमावश्यक है । जिस तरह तपश्चर्या करते चले उसी तरह इन चार बातों में प्रगति हो रही है या नहीं-इसका निरीक्षण करते रहें। इसी जीवन में इन चारों ही बातों में हमारी विशिष्ट प्रगति होनी चाहिए । यही तो तपश्चर्या का तेज है और अद्भुत प्रभाव ! ज्ञानमूलक तपश्चर्या ब्रह्मचर्य में दृढता प्रदान करती है ! उस से प्रब्रह्म.... मैथुन की वासनाएँ मंद हो जाती हैं और दिमाग में भूलकर भी कामभोग के विचार नहीं आते । मन-वचन-काया से ब्रह्मचर्य का पालन होता है ! तपस्वी के लिए ब्रह्मचर्य-महाव्रत के पालन में सुगमता आ जाती है । मैथुन-त्याग तपस्वी के लिए आसान हो जाता है ! तपस्वी का एक ही लक्ष्य होता है : "मुझे ब्रह्मचर्य-पालन में Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७७ निर्मलता, विमलता, पवित्रता और दृढता लाना है।" जिन-पूजा में निरन्तर प्रगति होती जाती है । जिनेश्वरदेव के प्रति उसके हृदय में श्रद्धाभाव और भक्ति की अनूठी वृद्धि होती रहती है ! शरणागति का भाव दृढतर होता रहता है। समर्पण-भाव में उत्कटता का आविर्भाव होता है । जिनेश्वरदेव की द्रव्य-पूजा और भाव-पूजा में उत्साह को तरंगें छलकती रहती हैं। कषायों का क्षयोपशम होता रहता है । क्रोध, मान, माया और लोभ में क्षोणता पाती है । कषायों को उदय में नहीं आने देता है । साथ ही उदित कषायों को सफल नहीं होने देता है । 'तपस्वी के लिए कषाय शोभाजनक नहीं,' यह उसका मुद्रालेख बन जाता है । क्योंकि कषाय में खोया तपस्वी, तपश्चर्या की निंदा में निमित्त होता है । उस से तपश्चर्या की कीमत कम होती है । अतः कषायों का क्षयोपशम, यह तपश्चर्या का मूल हेतु/उद्देश्य होना चाहिए ! सानुबन्ध जिनाज्ञा का पालन ! किसी प्रकार की प्रवृत्ति करने के पूर्व 'इसके लिय जिनाजा क्या है ? कहीं जिनाज्ञा का भंग तो नहीं हाता !' आदि विचारों को जागृति जरूरी है। "आज्ञा की आराधना कल्याणार्थ होती है, जबकि उसकी विराघना संसार के लिए होती है ।' जिनाज्ञा की सापेक्षता के लिए तपस्वी सदैव सजग-साबधान रहे । यदि इन चार बातों की सावधानी बरत कर तपश्चर्या की जाय तो तपश्चर्या का कितना उच्च मूल्यांकन हो? ध्येयविहीन... दिशाशून्य बनकर परलोक के भौतिक सुखों के लिए शरीर को खपाते रहने में कोई विशेष अर्थ निष्पन्न नहीं होगा। साथ हो, किसी जन्म में तो मोक्ष-प्राप्ति होगी ही,' आदि आशय से की गयी कम-ज्यादा तपश्चर्या से प्रात्मा का उद्धार असंभव है ! अतः चार बातों का होना अत्यंत आवश्यक है । ब्रह्मचर्य का पालन, जिनेश्वरदेव का पूजन, कषायो का क्षय और जिनाज्ञा का पारतंत्र्य ! वह भी ऐसा अलौकिक पारतंत्र्य चाहिए कि भवोभव जिनचरण का आश्रय/शरण प्राप्त हो और भवभ्रमण की शृखला टूट जाएँ, छिन्न-भिन्न हो जाएँ । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ तदेव हि तपः कार्यं दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च ॥७॥२४७॥ ज्ञानसार अर्थ : वास्तव में जहां दुर्ध्यान हो, जिस से मन-वचन काया के योगों को हानि न पहुंचे और इन्द्रियों का क्षय न हो ( क्रिया करने में अशक्त न बने) ऐसा तप ही करने योग्य है । विवेचन : ऐसी दृढ़ता कि, 'कुछ भी हो जाए, लेकिन यह तप तो करना ही है !' किसे हर्षित नहीं करेगी ? ऐसी दृढता प्रकट करने वाला मुमुक्षु सभी के आदर का पात्र और अभिनंदनीय होता है ! तपस्वी के लिए दृढता आवश्यक है ! नियोजित तप को पूर्ण करने की क्षमता चाहिए । लेकिन सिर्फ तपश्चर्या पूर्ण करने की दृढता से ही उसे वीरता प्राप्त नहीं होती ! उसके लिए निम्नांकित प्रकार की सावधानी भी जरूरी है : - दुर्ध्यान नही होना चाहिए । मनोयोग-वचनयोग- काययोग को किसी प्रकार की हानी नहीं पहुँचनी चाहिए, अथवा मुनि-जीवन के कर्तव्य-स्वरूप किसी योग को नुकसान न पहुँचे । - इन्द्रियों को किसी प्रकार को हानी नहीं पहुँचनी चाहिए । दुर्ध्यान के कई प्रकार हैं । कभी-कभी दुर्ध्यान करनेवाले को कल्पना तक नहीं होती कि वह दुर्ध्यान कर रहा है । दुर्ध्यान का मतलब है दुष्ट विचार, अनुपयुक्त विचार । तपस्वी को कैसे विचार नहीं करने चाहिए, यह भी कोई कहने की बात है ? 'यदि मैंने यह तप नहीं किया होता तो अच्छा रहता.... मेरी तपश्चर्या की कोई कदर नहीं करता.... कब पूर्णाहूति होगी ?' ऐसे विचार हैं, जो दुर्ध्यान कहलाते हैं । यदि तपश्चर्या करते हुए शारीरिक अशक्ति कमजोरी आ जाए तब कोई सेवा - भक्ति न करे तो दुर्ध्यान होते देर नहीं लगती । लेकिन यह नहीं होना चाहिए । हमेशा आर्तध्यान से बचना चाहिए। योगों की किसी प्रकार की हानी न हो । दुध्यान से मन की, कषाय से वचन की और प्रमाद से काया की हानि होती है । प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, स्वाध्याय, गुरुसेवा, ग्लानसेवा, शासनप्रभावनादि साधु-जीवन के योग हैं । इन में किसी प्रकार की शिथिलता Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप ४७९ पैदा नहीं होनी चाहिए ! ऐसी तपश्चर्या भूल कर भी नहीं करनी चाहिए कि जिस से योगों की आराधना में किसी प्रकार की बाधा पहँचे । प्रातःकालीन प्रतिक्रमण के समय साधू को जब तप-चितन का कार्योत्सर्ग करना होता है, तब भी निरंतर यह चिंतन-मनन करना चाहिए कि, 'आज के मेरे विशिष्ट कर्तव्यों में कहीं यह तप बाधक तो सिद्ध नहीं होगा ?' 'आज मेरा उपवास है....अट्ठम है, अतः मुझ से स्वाध्याय नहीं होगा, मैं ग्लानसेवा....गुरुसेवा आदि नहीं कर पाऊंगा!' ऐसा तप किसी काम का नहीं । इन्द्रियों की शक्ति का हनन नहीं होना चाहिए । जिन इन्द्रियों के माध्यम से संयम की आराधना करनी है, उनका हनन हो जाने पर संयम की आराधना खंडित हो जाएगी । आंख की ज्योति चली जाए तो ? कान से सुनना बंद हो जाए तो ? शरीर को लकवा मार जाए तो ? क्या होगा ? साधु-जीवन तो स्वाश्रयी जीवन है। खद के काम खुद ही करने होते हैं ! पादविहार करना, ठीक वैसे ही गोचरी से जीवन-निर्वाह करना होता है ! यदि इन्द्रियों को क्षति पहुँचेगी तो निःसंदेह साधु के आचारों को भी क्षति पहुँचे बिना नहीं रहेगी । __ कर्तव्यपालन और इन्द्रिय-सुरक्षा का लक्ष्य तपस्वी को चूकना नहीं चाहिए। दुान से मनको बचाना चाहिए। ऐसी सावधानी विशेष रूप से बाह्य तप की आराधना [अनशन, उणोदरी, वत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, काया-क्लेश और संलीनता] करने वाले को रखनी चाहिए । साथ ही, सावधानी के नाम पर कहीं प्रमाद का पोषण न हो जाए, इसके लिए सावधानी बरतना जरूरी है । मुलोत्तरगुणश्रेणि - प्राज्यसाम्राज्यसिद्धये ।। बाह्यमाभ्यन्तरं चेत्थं तपः कुर्यान्महामुनिः ॥८॥२४८॥ अर्थ : मूलगुण एवं उत्तरगुण की श्रेणिस्वरूप विशाल साम्राज्य की सिद्धि के लिए श्रेष्ठ मुनि बाह्य और अंतरंग तप करते हैं । विवेचन : मुनीश्वर भी साम्राज्य के चाहक होते हैं। राजेश्वर के साम्राज्य से विलक्षण, विशाल एवं व्यापक साम्राज्य ! यह साम्राज्य है. मूलगुण एवं उत्तरगुणों का ! Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० ज्ञानसार सम्यगज्ञान, सम्यग दर्शन और सम्यक चारित्र मूल गुण हैं । मूल गुण है पाँच प्रकार के महाव्रत । प्राणातिपात-विरमण-महाव्रत, मृषावाद विरमण महाव्रत, अदत्तादान-विरमण महाव्रत, मैथुन-विरमण महाव्रत और परिग्रह विरमण महाव्रत । और उत्तरगुण हैं : पांच समिति एवं तीन गुप्ति । दस प्रकार का श्रमण-धर्म और बारह प्रकार का तप ! संक्षेप में यह कहना उपयुक्त होगा कि 'चरण सित्तरी' और 'करण सित्तरी' मुनिराज का साम्राज्य है ।इसी की सिद्धि के लिये वह तपश्चर्या करता है । बाह्य तप और आभ्यंतर तप करता है । वह छठ्ठ-अठुम-अट्ठाई और मासक्षमण जैसा अनशन तप करता है। जब आहार-ग्रहण करे तब क्षुधा (भूख) से कम ग्रहण करे। जहाँ तक संभव हो कम से कम द्रव्यों का उपयोग करे। सरस व्यंजनों का परित्याग करें । काया को कष्ट दे अर्थात् उग्रविहार करे ! ग्रीष्मकाल में मध्याह्न के समय सूर्य की ओर निनिमेष दृष्टि लगा कर आतापना करे ! शरदऋतु में वस्त्रहीन हो कड़ाके की सर्दी में ध्यानस्थ रहे ! एक ही स्थानपर निश्चल बन घंटों तक बैठ कर ध्यानादि क्रिया करे ! किंचित भी हलन-चलन न हो, मानों साक्षात् पाषाणमूर्ति ! छोटी या बड़ी कोई भल हो जाए, संयम को किसी प्रकार का अतिचार लग जाए कि वह तुरंत प्रायश्चित करे ! परमेष्ठि भगवंतो का... ओंकार का ध्यान धरे । कोई गुरुजन हो, बालमुनि हो अथवा ग्लानमुनि हो, उन की सेवा-सुश्रूषा और भक्ति में सदा तत्पर बना रहे । ऐसा कोई सेवा का अवसर हाथ से न जाने दें ! लाख काम हों, विविध प्रकार की व्यस्तता से घिरा हो, फिर भी उसे एक ओर रख, सेवावैयावच्च के कार्य में अविलम्ब जड़ जाए । ग्लानमुनि की सेवा को वह परमात्मा की सेवा समझे ! विनय और विवेक तो उस के प्राण हो ! आचार्य-उपाध्यादि का मान-सन्मान करें, उनके प्रति विनीत-भाव अपने हृदय में संजोये रखे । अतिथि से अदब और विनय से पेश आए। उस का समस्त कार्यकलाप विनयभाव से सुशोभित हो । उस में मृदुता का ऐसा पुट हो कि जिस से मिथ्याभिमान स्पर्श तक न कर सके । रात्रि के समय....निद्रा का त्याग कर निरंतर कायोत्सर्ग में निमग्न रहे । ध्यानस्थ मुद्रा में षड्द्रव्यों का चिंतन करे और दिन-रात के आठ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप ४८१ प्रहर में पांच प्रहर (२४ घंटों में से १५ घंटे) स्वाध्याय में रत रहे ! गुरुदेव के सान्निध्य एवं मार्गदर्शन में शास्त्राभ्यास करे, उस पर चितन मनन करे और शंका-कुशंकाओं का समाधान प्राप्त करे । पठन किया हुआ विस्मरण न हो जाए, अतः नियमित रूप से उसकी आवृत्ति करे। साथ ही उस पर अनुप्रेक्षा [चिंतन-मनन] करता रहे । और चिंतन-मनन से स्पष्ट हुए पदार्थों का अन्य जीवों को उपदेश दे । सदैव उसका मन स्वाध्याय में खोया रहे ! इस तरह गुणों के विशाल साम्राज्य की प्राप्ति के लिये मुनीश्वर बाह्य-आभ्यन्तर १२ प्रकार के तप की आराधना में नित्यप्रति उद्यमशील बना रहे । कर्मों के अटूट बंधनों को तोड़ने के लिए कटिबद्ध बना महामुनि अपने जीवन को ही तपश्चर्या के अधीन कर दे । तप के व्यापक स्वरूप की आराधना ही उस का एकमेव जीवन-ध्येय बन जाए । __उन्मत्त वृत्तिओं के शमन हेतु और उत्कृष्ट वृत्तिओं को जागृत करने के लिए तप, त्याग एवं तितिक्षा का मार्ग ही जीवन का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है । आराधना-उपासना का श्रेष्ठतम मार्ग है । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. सर्वनयाश्रय जब एकाध विद्वान्, किसी एक नयवाद की डोर पकड़, उसे समझाने के लिए आम जनता के बीच में आता है, तब किस प्रकार का कोलाहल, शोर-गुल और वाद-विवाद का समाँ बँध जाता है ? विश्व के हर क्षेत्र में एकान्तवाद अभिशाप स्वरुप ही सिद्ध हुआ है । यहाँ पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने अनेकान्तवाद का प्रतिपादन किया है । लोगों को अनेकान्त दृष्टि प्रदान की है। किसी एक व्यक्ति, वस्तु अथवा प्रसंग को अनेकान्त दृष्टि से देखने-परखने की अद्भुत कला सिखायी है । इसे प्राप्त कर मन में उठती सभी शंका-कुशंकाओं का, प्रश्नों का समाधान ढूंढा जाय, तो कैसी अपूर्व शांति मिलेगी ! प्रस्तुत अन्तिम अध्याय अत्यंत महत्वपूर्ण है । गंभीरता के साथ उस का परिशीलन करना न चूकना । 3625250 2292 33 34 35 352429 36 35 28353625 828280995352 34353635 353 02525252525 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्वनयाश्रय ४८३ धावन्तोऽपि नयाः सर्वे, स्युर्भावे कृतविश्रमाः । चारित्रगुणलीनः स्यादिति सर्वनयाश्रितः ।।१।।२४९।।। अर्थ : अपने-अपने अभिप्रायानुसार गतिमान्, लेकिन वस्तुस्वभाव में जिसकी स्थिरता है, सभी नय ऐसे होते हैं। चारित्र-गुण में आसक्त साधु सर्व नयों का आश्चय करनेवाला होता है । विवेचन : नयवाद ! कोई भी वस्तु अनन्त धर्मात्मक होती है । उसमें से किसी एक धर्म को ही नय मानता है, स्वीकार करता है । वह अन्य धर्मों का स्वीकार नहीं करता । उनका अपलाप करता है । अतः नयवाद को मिथ्यावाद की संज्ञा दी गयी है । पूज्य उपाध्यायजी महाराज उसे 'नयाभास' कहते हैं । नय के कुल सात प्रकार हैं : नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । प्रत्येक नय का अपना-अपना अभिप्राय होता है । एक का अभिप्राय दूसरे से कदापि मेल नहीं खाता । प्रत्येक नय का हर एक पदार्थ के संबन्ध में अपना पूर्व-निर्धारित ठोस मत होता है। अतः सातों नयों का एक-सा अभिप्राय- निर्णय होना असंभव होता है। हाँ, एकाध समदृष्टि चिन्तक महापुरुष ही इनका समन्वय साध सकता है....। ऐसा महापुरुष प्रत्येक नय को उनकी भूमिका से ही न्याय देता है । ऐसे महामानव चारित्रगुणसंपन्न महामुनि ही हो सकते हैं । जब कभी एकाध नय के मन्तव्य का स्वीकार करते हैं, तब अन्य नय की उपेक्षा नहीं करते, बल्कि उन्हें वे कहते हैं कि, 'यथाअवसर तुम्हारा मन्तव्य भी स्वीकार करेंगे, फिलहाल प्रस्तुत नय का ही काम है, उसका ही प्रयोजन है ।' परिणाम स्वरुप वैचारिक टकराहट नहीं होती, पारस्परिक संघर्ष नहीं होता । महामूनि की चारित्र संपत्ति लूटे जाने की संभावना पैदा नहीं होती । वर्ना उत्तेजित आक्रामक नय, चारित्रसंपत्ति को धूल में मिलाते विलंब नहीं करते । पृथग्नयाः मिथः पक्षप्रतिपक्षकथिताः । समवत्तिसुखास्वादी, ज्ञानी सर्वनयाश्रितः ॥२॥२५०।। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ अर्थ : विविध नय पारस्परिक वाद- विवाद से विडंबित हैं । समभाव के सुख का अनुभव करनेवाले महामुनि ( ज्ञानी) सर्व नयों के आश्रित हैं । विवेचन : कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यजी ने परमात्मा की स्तुति करते हुए कहा है ज्ञानसार 'परस्पर और पक्ष-विपक्ष के भाव से अन्य प्रवाद द्वेष से युक्त हैं । लेकिन सभी नयों को समभाव से चाहने वाला आपका सिद्धान्त पक्षपाती नहीं है ।' वेदान्त में कहा है- 'आत्मा नित्य ही है ।' जब कि बौद्धदर्शन कहता है : 'आत्मा अनित्य है ।' यह बात हुई पक्ष-विपक्ष की ! लेकिन दोनों आपस में टकराते हैं, वाग्युद्ध खेलते हैं और निज की समय-शक्ति का सर्वनाश करते हैं । उसमें न तो शान्ति है, ना ही क्षमता ! न उसमें मित्रता है और ना ही प्रमोद ! जबकि महामुनि वेदान्त और बौद्ध की मान्यताओं का समन्वय करते हुए कहते हैं : 'आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी ! द्रव्य दृष्टि के अनुसार नित्य है, जबकि पर्याय दृष्टि से अनित्य है । अतः द्रव्य दृष्टि से वेदान्त दर्शन की मान्यता को बौद्ध दर्शन मान्य कर ले और पर्याय दृष्टि से बौद्ध दर्शन की मान्यता को वेदान्त दर्शन स्वीकार कर ले, तो पक्ष - प्रतिपक्ष का वाद खत्म हो जाए, संघर्ष टल जाए और आपस में मित्रता हो जाय । इसी तरह ज्ञानवंत व्यक्ति, सभी नयों का समुचित आदर कर और उनके प्रति समभाव प्रस्थापित कर सुखानुभव करता है । साथ ही कौन सा नय किस अपेक्षा से तत्त्व का निरुपण करता है, उस अपेक्षा को जानकर यदि सत्य का निर्णय किया जाय, तो समभाव सलामत रह सकता है । अतः आवश्यक है.... सर्व नयों के अभिप्रायों का यथार्थ ज्ञान होना । तभी तो कहा है : 'ज्ञानी सर्वनयाश्रितः ।' नाप्रमाणं प्रमाणं वा, सर्वमप्यविशेषितम् । विशेषितं प्रमाणं स्यादिति सर्वनयज्ञता ||३||२५१ ॥ अर्थ : यदि सर्व वचन विशेषरहित हों तो वे सर्वथा अप्रमाण नहीं हैं और प्रमाण भी नहीं हैं । विशेषसहित हों तो प्रमाण हैं । इस तरह सभी नयों का ज्ञान होता है । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनयाश्रय ४८५ विवेचन : विशेषरहित यानी निरपेक्ष । विशेषसहित यानी सापेक्ष । किसी भी शास्त्रवचन की वास्तविकता- प्रामाणिकता का निर्णय करने की यह सच्ची पद्धति है । तनिक सोचिये और समझने का प्रयत्न कीजिये । 'यह वचन अपेक्षायुक्त है, अन्य नयों के सापेक्ष कहा गया है, तब सच्चा ! और यदि अन्य नयों से निरपेक्ष कहा गया है, तो झूठ और अप्रामाणिक है ।' 'उपदेशमाला' में कहा गया है अपरिच्छियसुयनिहसस्स, केवलमभिन्नसुत्तचारिस्स । सव्वुज्जमेण वि कयं अन्नाणतवे बहुं पडई । "श्रत-सिद्धान्त के रहस्य को समझे बिना ही केवल सूत्र के अक्षरों का अनुसरण कर जो अपनी प्रवृत्ति रखता है, उस का तीव्र प्रयत्नों से किया गया बहुत भी क्रियानुष्ठान, अज्ञान तप माना गया है।" जो शास्त्रवचन अपने सामने आता है, वह वचन किस आशय एवं अपेक्षा से कहा गया है-यह अवगत करना निहायत जरूरी है । क्योंकि अपेक्षा और आशय को समझे बिना निरपेक्ष वृत्ति से उसका अनुसरण करना नितान्त अप्रमाण है, मिथ्या है । सर्व नयों का ज्ञान तभी कहा जाता है, जब वचन की अपेक्षा का ज्ञान हो, तभी साधक आत्मा को अपूर्व समता का अनुभव होता है । ज्ञानप्रकाश सोलह कलाओं से खिल उठता है । लोके सर्वनयज्ञानां, ताटस्थ्थं वाऽप्यनुग्रहः । स्यात् पृथग्नयमूढानां, स्मयातिर्वाऽतिविग्रहः ॥४॥२५२।। अर्थ : लोक में सर्व नयों के ज्ञाता को मध्यस्थता अथवा उपकारबुद्धि होती है, जबकि विभिन्न नयों में मोहग्रस्त बने व्यक्ति को अभिमान की पीड़ा अथवा अत्यन्त क्लेश होता है । विवेचन : मध्यस्थष्टि ! उपकारबुद्धि ! सभी नयों के ज्ञान के ये दो फल हैं । जैसे-जैसे नयों की अपेक्षा का ज्ञान होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी एकान्त दृष्टि मन्द होती चली जाती है । परिणामतः मध्यस्थ दृष्टि की किरणें ज्योतिर्मय हो उठती Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ज्ञानसार हैं । वह किसी पक्षविशेष की ओर झुकता नहीं, किसी के मत का दुराग्रही नहीं बनता । बल्कि उसकी दृष्टि समन्वय की हो जाती है । व्यवहार पक्ष में वह अपनी मध्यस्थता का परोपकार में उपयोग करता है । ठीक वैसे ही नयवाद को लेकर जहां वाद-विवादात्मक वागयुद्ध पूरे जोश से खेला जाता हो, वहां मध्यस्थदृष्टि महात्मा अपनी विवेकदृष्टि से संबन्धित पक्षों को समझाने का प्रयत्न करता है । विभिन्न नयों के आग्रही बने जीव, मिथ्याभिमान से पीडित होते हैं, अथवा आत्मिक-क्लेश से निरन्तर दग्ध होते हैं और उनके लिये यह स्वाभाविक भी होता है । इन्द्रभूति गौतम का जब भगवान महावीर के पास आगमन हुआ था, तब यही परिस्थति थी । वे मिथ्याभिमान के ज्वर से उफन रहे थे । मन में क्लेश कितना था ? क्योंकि वे एक ही नय के दृढ़ आग्रही थे । भगवंत ने उन्हें सर्व नयों की समन्वयदृष्टि प्रदान की । उन्हें सभी नयों का आश्रित होना सिखाया । किसी एक मत....एक ही वाद....एक ही मन्तव्य के प्रति मोहित न बन, सर्वनयों का आश्रित बनना ही जीवन का एकमेव शान्तिमार्ग है । श्रेयः सर्वनयज्ञानां विपूल धर्मवादतः । शुष्कवादात् विवादाच्च परेषां तु विपर्यायः ।।५।।२५३।। अर्थ : सर्व नया के ज्ञाताओं का धर्मवाद से बहुत कल्याण होता है, जबकि एकान्तदृष्टि वालों का तो शुष्कवाद एवं विवाद से विपरीत (अकल्याण) ही होता है । विवेचन : किसी प्रकार का वाद नहीं चाहिये, ना ही विवाद चाहिए । संवाद ही चाहिये । वाद-विवाद में अकल्याण है, संवाद में कल्याण है । ऐसे संवाद का समावेश सिर्फ धर्मवाद में है । तत्त्वज्ञान का अर्थी मनुष्य हमेशा धर्मवाद की खोज में रहता है। तत्त्वज्ञान-विषयक जिज्ञासा व्यक्त करता है। और तत्त्ववेत्ता का कर्तव्य है कि वह उसकी जिज्ञासा का निवारण करे, उसे संतुष्ट करे । यही तो धर्मवाद है । सिर्फ अपना ही मत- अभिप्राय दूसरे पर आरोपित Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाश्रय ४८७ करने के लिये शुष्क वाद विवाद वितंडवाद करना धर्मवाद नहीं कहलाता | निज की विद्वत्ता का मिथ्या प्रदर्शन करना और अन्यों को पराजित करने हेतु तत्त्वचर्चा करना धर्मवाद नहीं है । ऐसे महात्मा, जो सर्व नयों के ज्ञाता हैं, भूलकर भी कभी वितंडावाद करते ही नहीं । वे हमेशा मुमुक्षु ऐसे जिज्ञासु की शंका कुशंकाओं का निवारण करते हैं । इसी में कल्याण है और परम शान्ति का अनुभव होता है । जिन भट्टसूरिजी ने जिज्ञासु हरिभद्र पुरोहित के साथ धर्मवाद किया था, फलतः हरिभद्र पुरोहित हरिभद्र सूरि बन गये और जैन शासन को एक महान् विद्वान्, समर्थ आचार्य की प्राप्ति हुई.... । लेकिन वे ही हरिभद्रसूरिजी बौद्धों के साथ धर्मचर्चा में उतरे, तब ? उनमें कितना रोष और संताप व्याप्त था ? फलतः याकिनी महत्तरा को गुरुदेव के पास जाना पड़ा और गुरुदेव ने उन्हें वाद-विवाद से रोक दिया । धर्मवाद के संवाद में से ही कल्याण का पुनीत प्रवाह प्रवाहित होता है । अतः सर्व नयों का ज्ञान प्राप्त कर मध्यस्थ बन धर्मवाद में सदैव प्रवृत्त रहना चाहिए । प्रकाशितं जिनानां यैर्मतं सर्वनयाश्रितम् । चित्तं परिणतं चेदं येषां तेभ्यो नमोनमः || ६ || २५४ ॥ अर्थ : जिन महापुरुषों ने सर्व नयों के माध्यम से सामान्य जनों के लिए आश्रित प्रवचन प्रकाशित किया है और जिनके हृदय में परिणत हुआ हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार हो । विवेचन : पूज्य उपाध्यायजी महाराज उन महापुरुषों पर मुग्ध हो जाते हैं, निछावर होते हैं, जिन्होंने सामान्य जनों के लिये सर्व नयों से आश्रित ऐसा अद्वितीय प्रवचन प्रकाशित किया है, साथ ही जिन पुण्य पुरुषों ने उसे माना है, बड़े प्यार से उसे ( प्रवचन ) हृदय में धारण किया है, और मन ही मन प्यार किया है। ऐसे महात्माओं को बार-बार वन्दन करते हुए पूज्यश्री गद्गद् हो उठते हैं । त्रिभुवनपति श्रमण भगवान महावीर को बार-बार नमस्कार हो कि जिन्होंने ऐसा सर्वनयाश्रित प्रवचन प्रकाशित- अभिव्यक्त कर जीव Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ ज्ञानसार मात्र पर असंख्य उपकार किये हैं । वे सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्र गणि, मल्लवादी, हरिभद्रसूरिजी आदि महान् आचार्यप्रवरों को पुनः पुनः वन्दना हो कि जिन्होंने सर्वनयाश्रित धर्मशासन की सुन्दर प्रभावना की साथ ही अपने रोम-रोम में उसे परिणत कर अद्भुत दृष्टि प्राप्त की है। 'भवभावना' ग्रंथ में ऐसे महान् आचार्यों का इसी दृष्टि से गुणानुवाद किया गया है : भदं बहुसुयाणं बहुजणसंदेहपुच्छणिज्जाणं । उज्जोइअ भुवणाणं झिणमि वि केवलमयंके ।। "केवलज्ञान रुपी चन्द्र के अस्त होते ही जिन्होंने समस्त भूमंडल को प्रकाशित किया है और बहुत लोगों के संदेह जिनको पूछे जा सकें, ऐसे बहुश्रुतों का भद्र हो ।' इस प्रकार बहुश्रुत सर्वनयज्ञ महापुरुषों के प्रति भक्ति-बहुमान प्रदर्शित किया गया है....। उन्हें बार-बार वन्दन किया है । उनका सर्वोपरि महत्व बताया गया है । निश्चये व्यवहारे च, त्यक्त्वा ज्ञाने च कर्मणि । एकपाक्षिक विश्लेषमारुढा: शुद्धभूमिकाम् ।।७।।२५५।। अमूढलक्ष्याः सर्वत्र पक्षपातविजिताः । जयन्ति परमानन्दमयाः सर्वनयाश्रयाः ।।८॥२५६।। अर्थ : निश्चयनय में, व्यवहारनय में, ज्ञाननय में और क्रियानय में, एक पक्ष में रहे भ्रांन्ति के स्थान को छोडकर शुद्ध भूमिका पर आरुढ कभी लक्ष्य नहीं चूकते, ऐसी सभी पक्षपातरहित परमानंद-स्वरुप सर्व नयों के आश्रयभूत (ज्ञानीजन) सदा जयवंत हैं । विवेचन : उनका निश्चय नय के संबंध में पक्षपात न हो और ना ही व्यवहार नय के सम्बन्ध में ! वह ज्ञान नय का कभी मिथ्या आग्रह न करे और ना ही क्रियानय के विषय में । निश्चयनय प्रायः तात्त्विक अर्थ का स्वीकार करता है, जबकि व्यवहारनय आम जनता में प्रचलित अर्थ का स्वीकार करता है । निश्चय नय हमेशा सर्वनयों को अभिमत अर्थ का अनुसरण करता है, जबकि व्यवहार नय किसी एक नय के अभिप्राय का अनुसरण करता है। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८९ सर्वनयाश्रय अतः सर्वनयों के आश्रित ज्ञानी पुरुष को इसमें से किसी एक नय के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए, ना ही किसो भ्रम-जाल में फंस जाए। वह भूलकर भी कभी निश्चय नय की मान्यता को अपनी गाँठ में बाँध न रखे और व्यवहार की मान्यता का हठाग्रही न बने। वह प्रत्येक नय के तर्क अवश्य श्रवण करे, लेकिन किसी एक नय के तर्क को आत्मसात् न करे । __ मात्र ज्ञान को प्राधान्य देने वाले ज्ञाननय की भूलभुलैया में वह अटक न पड़े और ना ही क्रिया की महत्ता स्वीकार करने वाले क्रियानय का कट्टर समर्थक बन, ज्ञाननय का तिरस्कार करे । दोनों नयों की ओर देखने की उसकी दृष्टि मध्यस्थदृष्टि हो और हर नय की मान्यता का मूल्यांकन वह उनकी अपेक्षा से ही करे । नयों के एकान्त आग्रह से परे रहे....अलिप्त हुए महाज्ञानी, सर्वोच्च आत्मा की विशुद्ध भूमिका पर आरुढ़ हो, अपने अन्तिम लक्ष्य की ओर निरन्तर एकाग्र हो अग्रसर होते हैं । उनके मन में किसी के प्रति पक्षपात नहीं और ना ही कोई दुराग्रह । मानों साक्षात् परमानन्द की मूर्ति । उनके पावन दर्शन करते ही परम आनन्द की उत्कट अनुभूति होती है । सर्वनयों के आश्रित ऐसे सर्वोत्कृष्ट परमानन्दो आत्मा सदा जयवंत हैं । जिन सर्वोत्कृष्ट परमानन्दी आत्माओं की हम सोत्साह जयजयकार करते हैं, उनके पदचिह्नों पर चलने के लिये कृतनिश्चयी बनना चाहिये। एकान्तवाद के लोह-बन्धनों को तोड कर अनेकान्तवाद के सार्वभौम स्वतंत्र प्रदेश में विचरण करने का सौभाग्य प्राप्त करना चाहिए । वास्तव में पूर्णानन्दी ही परमानन्दी है। पूर्णानन्दी बनने के लिये जितने सोपान चढने की आवश्यकता है, उतने ही सोपान चढ़ने पर परमानन्दी बन जाते हैं । अतः जीवन का एकमात्र लक्ष्य पूर्णानन्दी बनने का बना, दिशा-परिवर्तन कर अपने लक्ष्य की ओर गतिमान होना चाहिए । विचारों में सर्वनयदृष्टि का आविर्भाव हो जाए, बस ! परमानन्द की शीतल धारा हमारे आत्म-प्रदेश को प्लावित कर देगी और रोग-शोक की बंजर भूमि हरियाली से लद जाएगी । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० 'ज्ञानसार' ग्रंथ के ३२ अष्टकों में से प्रस्तुत अन्तिम श्लोकों में एकान्तदृष्टि का परित्याग कर अनेकान्त दृष्टि अपनाने की सीख दी गयी है । किसी प्रकार के वाद-विवाद और वितंडावाद के झंझट में फँसे बिना, संवादी धर्मवाद का आश्रय ग्रहण करने का उपदेश दिया गया है । परमानन्द का यही परम पथ है । पूर्णानन्दी बनने का यही एकमेव अद्भुत उपाय है । आत्मा को परम शान्ति प्रदान करने का यही एक राजमार्ग है । परमानन्दी सदा-सर्वदा जयवन्त हो ! ज्ञानसार Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000000 विषयक्रम-निदेश Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ज्ञानसार ॥४॥ पूर्णो मग्नःस्थिरोऽमोहो ज्ञानी शान्तो जितेन्द्रियः । त्यागी क्रियापरस्तृप्तो निर्लेपो निःस्पृहो मुनिः ॥१॥ विद्याविवेकसंपन्नो मध्यस्थो भयवजितः । अनात्मशंसकस्तत्त्वदृष्टिः सर्वसमृद्धिमान् ॥२॥ ध्याता कर्मविपाकानामुद्विग्नो भववारिधः । लोकसंज्ञाविनिमुक्तः शास्त्रग् निष्प्ररिग्रहः ॥३॥ शुद्धानुभववान् योगी नियागप्रतिपत्तिमान् । भावार्चाध्यानतपसां भूमिः सर्वनयाश्रितः अर्थ : ज्ञानादि से परिपूर्ण, ज्ञान में निमग्न योगी की स्थिरता से युक्त, मोह विरहित, तत्त्ववेत्ता, उपशमवंत, जितेन्द्रिय, त्यागी, क्रिया-तत्पर, आत्मसंतुष्ट, निलेप और स्पृहारहित मुनि होता है । वह (मुनि) विद्यावान्, विवेकसंपन्न, पक्षपात से परे, निर्भय, स्वप्रशंसा नहीं करनेवाला, परमार्थ की दृष्टिवाला और आत्म-संपत्तिवाला होता है। वह कर्मफल का विचार करनेवाला, संसार-सागर से भयभीत, लोकसंज्ञा से रहित, शास्त्रदृष्टिवाला और अपरिग्रही होता है। शुद्ध अनुभव वाला, योगी, मोक्ष को प्राप्त करनेवाला, भाव-पूजा का आश्रय, ध्यान का आश्रय, तप का आश्रय और सर्व नयों का आश्रय करनेवाला होता है । विवेचन : आठ-आठ श्लोकों का एक अष्टक ! - कुल बत्तीस अष्टक और बत्तीस ही विषय ! - विषयों का क्रमशः संयोजन किया गया है। संयोजन में संकलन है ! संयोजन में साधना का मार्गदर्शन है। इन चार श्लोकों में बत्तीस विषयों की नामावली दी गयी है ! ग्रंथकार ने गुर्जर-टीका [टबा] में सोद्देश्य क्रम समझाने का प्रयत्न किया है । * पहला अष्टक है पूर्णता का ।। लक्ष्य बिना की प्रवृत्ति की कोई कीमत नहीं होती । अतः पहले अष्टक में ही पूर्णता का लक्ष्य प्रदर्शित किया है ! आत्म-गुणों की पूर्णता का लक्ष्य समझाया है। जो जीव इस लक्ष्य से 'मुझे आत्म-गुणों की Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयक्रम-निर्देश ४६३ पूर्णता हासिल करनी ही है । ऐसा दृढ संकल्प करे तो वह ज्ञान में निमग्न हो सकता है, अतः क दूसरा अष्टक है मग्नता का । ज्ञान में निमग्न ! परब्रह्म में लीन ! आत्मज्ञान में ही मग्नता ! ऐसी परिस्थिति पैदा होने पर ही जीव की चंचलता - अस्थिरता दूर होती है और वह स्थिर बनता है । अतः मग्नता के पश्चात् * तीसरा अष्टक है स्थिरता का । मन-वचन-काया की स्थिरता । सबसे पहले मानसिक स्थिरता प्राप्त करना आवश्यक है ! तभी क्रिया औषधि का उपयोग है ! स्थिरता का रत्न - दीया प्रज्वलित करते ही मोह-वासनाएँ क्षीण हो सकती है ! इसलिए * चौथा अष्टक है निर्मोह का ! मोहराजा का एकमेव मंत्र है 'अहं' और 'मम' ! मंत्र जाप से चढे मोह के विष को 'नाहं' ' न मम' के प्रतिपक्षी मंत्र जाप से उतारने का उपदेश दिया गया है । इस तरह मोह का जहर उतरने पर ही ज्ञानी बन सकते हैं, उसके लिए * पाँचवा अष्टक है ज्ञान का । ज्ञान की परिणति होना आवश्यक है | ज्ञान-प्रकाश प्राप्त होना चाहिए ! ज्ञान का अमृत ज्ञान का ही रसायन और ज्ञान - ऐश्वर्य प्राप्त होना चाहिये ! तभी जीव शांत होता है और कषायों का शमन होता है अतः * छठवाँ अष्टक है शम का । किसी प्रकार का विकल्प नहीं और निरंतर आत्मा के शुद्ध स्वभाव का आलम्बन ! ऐसी आत्मा इन्द्रियविजेता बन सकती है अतः * सातवाँ अष्टक है इन्द्रिय-विजय का । विषयों के बंधनों से आत्मा को सदैव कैद रखती इंद्रियों के उपर विजय प्राप्त करने वाले महामुनि ही सच्चे त्यागी बन सकते हैं, इसलिये * मठवाँ अष्टक है त्याग का । Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ज्ञानसार जब स्वजन, धन और इन्द्रियों के विषयों से मुक्त बना मुनि निर्भय और कलहरहित बनता है और अहंकार तथा ममत्व से नाता तोड देता है, तब उसमें शास्त्रवचन का अनुसरण करने की अदम्य शक्ति प्रस्फुटित होती है, अतः * नौवाँ अष्टक है क्रिया का ! प्रीतिपूर्वक क्रिया, जिनाज्ञानुसार एवं निःसंगता-पूर्वक क्रिया करनेवाला महात्मा परम तृप्ति का अनुभव करता है इसलिए * दसवाँ अष्टक है तृप्ति का ! स्व-गुणों में तृप्ति ! शान्तरस की तृप्ति ! ध्यानामृत की डकार ! 'भिक्षरेकः सुखी लोके ज्ञानतप्तो निरंजनः' भिक्षु...श्रमण....मुनि ही ज्ञानतृप्त बन, परम सुख का अनुभव करता है ! ऐसी ही आत्मा सदैव निर्लेप रह सकती है, अतः * ग्यारहवाँ अष्टक है निर्लेपता का ! सारा संसार भले ही पाप-पंक का शिकार बन जाए, उसमें लिप्त हो जाए, लेकिन ज्ञानसिद्ध महात्मा उस से सदा अलिप्त- निर्लेप रहता है ! ऐसी ही आत्मा निःस्पृह बन सकती है, अतः * बारहवाँ अष्टक है निःस्पृहता का । निःस्पृह महात्मा के लिए समस्त संसार तृणसमान होता है ! ना कोई भय, ना ही कोई इच्छा । फिर उसे क्या बोलने का होता है ? संकल्प-विकल्प भी कैसे हो सकता है ! ऐसी आत्मा ही मौन धारण कर सकती है, अतः * तेरहवाँ अष्टक है मौन का । नहीं बोलनेरुप मौन तो एकेन्द्रिय जीव भी पालता है ! लेकिन यह तो विचारों का मौन ! अशुभ-अपवित्र विचार सम्बंधित मौन पालन करना है ! जो आत्मा ऐसा मौन धारण कर सकती है, वही विद्यासंपन्न बन सकती है, इसलिए * चौदहवाँ अष्टक है विद्या का । अविद्या की त्यागी और विद्या की अर्थी आत्मा, आत्मा को ही सदैव अविनाशी रूप में निहारती है ! ऐसी आत्मा विवेकसंपन्न बनती है, अतः Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयक्रम-निर्देश ४९५ * पन्द्रहवाँ अष्टक है विवेक का ! दूध और पानी की तरह परस्पर ओत-प्रोत कर्म और जीव को मुनिरुपी राजहंस अलग करता है ! ऐसी भेदज्ञानी आत्मा ही मध्यस्थ बन सकती है ! अतः * सोलहवाँ अष्टक है मध्यस्थता का । कुतर्क और राग-द्वेष का त्याग हुआ और अंतरात्म-भाव में रमणता शुरू हुई कि आत्मा मध्यस्थ और निर्भय होती है, अतः * रात्रहवां अष्टक है निर्भयता का ! भय की भ्रान्ति नहीं ! जो आत्म-स्वभाव के अद्वैत में लीन हो गया, वह निर्भयता के वास्तविक आनन्द का मजा लूटता है ! उसे स्व-प्रशंसा करना पसंद नहीं, तभी तो । * अठारहवाँ अष्टक है अनात्मशंसा का । जो व्यक्ति स्व- गुणों से परिपूर्ण है उसे स्व-प्रशंसा पसंद ही नहीं ! अपना गुणानुवाद सुनने की इच्छा तक नहीं होती, अत: ज्ञानानन्द की मस्ती में परपर्याय का उत्कर्ष क्या साधना ? वह अलौकिक तत्त्वदृष्टि का स्वामी बनता है, अतः * उन्नीसवाँ अष्टक है तत्त्वदृष्टि का । तत्त्वदृष्टि प्रायः रुपी को नहीं, बल्कि अरुपी को परिलक्षित करती है । अरुपी को निहार, उस में ओत-प्रोत हो जाती है, समरस होती है ! ऐसी आत्मा सर्वसमृद्धि का स्वयं में ही अहसास करती है, अतः के बीसवाँ अष्टक है सर्व समृद्धि का । इन्द्र, चक्रवर्ती, वासुदेव, शेषनाग, महादेव, कृष्ण आदि सभी विभूतिओं की समृद्धि....वैभव....ऐश्वर्य का प्रतिबिब वह स्वयं की आत्मा में ही निहारता है । ऐसा आत्मदर्शन निरंतर टिक सके, अतः मुनि प्रायः कर्मविपाक का चितन करता है, इसलिए * इक्कीसवाँ अष्टक है कर्म-विपाक का । कर्मों के फल का विचार । शुभाशुभ कर्मों के उदय का विचार करनेवाली आत्मा अपनी ही आत्म-समृद्धि में संतुष्ट होती है, संसार महोदधि से नित्य भयभीत होती है, अतः Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ज्ञानसार १. बाईसवाँ अष्टक है भवोद्वेग का । संसार के वास्तविक स्वरुप से अनभिज्ञ आत्मा चारित्र-क्रिया में एकाग्रचित्त होती है। फलतः लोकसंज्ञा का उसे स्पर्श तक नहीं होता, अतः के तेईसवाँ अष्टक है लोकसंज्ञा-परित्याग का ।। लोकसंज्ञा की महानदी में मुनि बह न जाए, बल्कि वह तो प्रवाह की विपरीत दिशा में भी गतिशील महापराक्रमी होता है ! लोकोत्तर मार्ग पर चलता हुआ मुनि शास्त्रदृष्टि से युक्त होता है, अतः के चौबीसवाँ अष्टक है शास्त्र का ! उसकी दृष्टि ही शास्त्र है ! 'आगमचक्खु साह' श्रमण के नेत्र ही शास्त्र हैं ! ऐसा मुनि भी कहीं परिग्रही हो सकता है ? वह तो सदासर्वदा अपरिग्रही होता है, अतः * पच्चीसवाँ अष्टक है परिग्रहत्याग का । बाह्य अंतरंग परिग्रह के त्यागी महात्मा के चरण में देवी-देवता तक नतमस्तक हो उठते हैं । ऐसे मुनिवर ही शुद्ध अनुभव कर सकते हैं, अतः * छब्बीसवाँ अष्टक है अनुभव का । अतींद्रिय परम ब्रह्म का अनुभव करनेवाला महात्मा न जाने कैसा महान् योगी बन जाता है ! अतः * सत्ताइसवाँ अष्टक है योग का । मोक्ष के साथ गठबंधन करानेवाले योगों का आराधक योगी, और स्थान-वर्णादि योग एवं प्रीति-भक्ति आदि अनुष्ठानों में रत योगी, सदैव ज्ञानयज्ञ करने के लिए सुयोग्य होता है, अतः x. अठ्ठाइसवाँ अष्टक है नियाग का ! ज्ञानयज्ञ में आसक्ति ! समस्त आधि-व्याधि और उपाधि-रहित शूद्ध ज्ञान ही ब्रह्म-यज्ञ है । ब्रह्म में ही सर्वस्व समर्पण करनेवाला मुनि भाव-पूजा की सतह को स्पर्श कर सकता है, अतः उन्तीसवाँ अष्टक है भावपूजा का । आतमदेव के नौ अंगों को ब्रह्मचर्य की नौ बाडों द्वारा पूजन-अर्चन करनेवाला मुनि अभेद-उपासना रुप भावपूजा में लीन हो जाता है । ऐसी आत्मा ही ध्यानस्थ बनती है, अत: Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियषक्रम-निर्देश ४६७ 4 तीसवाँ अष्टक है ध्यान का ! ध्याता, ध्यान, और ध्येय की एकता प्रस्थापित करनेवाला मुनिश्रेष्ठ कभी दुःखी नहीं होता । निर्मल अंतरात्मा में परमात्मा का प्रतिबिंब पडता है । फलस्वरूप तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करता है.... और तपमागे का पथिक बनता है, अतः * इकतीसवाँ अष्टक है तप का । बाह्य और आभ्यन्तर तप की आराधना से वह सर्व-कर्मक्षय रूपी मोक्ष-पद की प्राप्ति की दिशा में गतिमान होता है ! उस की सभी दृष्टि से विशुद्धि होती है ! ऐसी आत्मा परम प्रशम-परम माध्यस्थ्य भाव को धारण करती है, अतः * बत्तीसवाँ अष्टक है सर्वनयाश्रय का ! सर्व नयों का स्वीकार करता है । कोई पक्षपात नहीं, ना ही भ्रान्ति ! परमानन्द से भरपुर ऐसी सर्वोष्कृष्ट आत्मभूमिका प्राप्त कर वह सदा के लिए कृतकृत्य बन जाता है । आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने के लिए यह कैसा अपूर्व मार्ग है ! अब तो लक्ष्य चाहिये ! हमारे दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है ! आत्मा की ऐसी सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करने का भगीरथ पुरुषार्थ चाहिये । ३२ विषयों को हृदयस्थ कर और उस पर सतत चिंतन-मनन कर, उस दिशा में प्रयाण का संकल्प करना है । 卐आत्म-तत्त्व की श्रद्धा, आत्म-तत्त्व की प्रीति और आत्म-तत्त्व के उत्थान की उत्कट भावना....क्या सिद्ध नहीं कर सकती ? कायरता अशक्ति और आलस्य को दूर कर अदम्य उत्साह के साथ अपूर्व स्फति से सिद्धि के मार्ग पर प्रस्थान कर दो । इसके बिना दुःख, दर्द क्लेश और संताप का अन्त आनेवाला नहीं है । ध्यान रखो, जन्ममृत्यु का चक्र रुकनेवाला नहीं है, वह तो निरंतर निर्बाध गति से चलनेवाला ही है और कर्मों की श्रृखलाएँ यों सहज में टूटने वाली नहीं हैं, अत: मानव-जीवन का आत्मतत्त्व के उत्थान के लिए ही उपयोग करें । प्रतमेवैकं जानिथ आत्मनमन्या वाची किमूचथामृतस्यैव सेतुः । - मुण्डकोपनिषद् Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000000000000 2 उपसंहार 6000000000000 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार स्पष्टं निष्टङ्कितं तत्वमष्टकैः प्रतिपन्नवान् । मुनिर्महौदयं ज्ञानसारं समधिगच्छति ॥१॥ अर्थ : अष्टकों से स्पष्ट और सुनिश्चित ऐसे तत्त्व को प्राप्त मुनि महान् अभ्युदय करनेवाला विशुद्ध चारित्र प्राप्त करता है । विवेचन : इस ग्रन्थ में बताये गये ३२ तत्त्वों से युक्त मुनि, ऐसा विशुद्ध एवं पवित्र चारित्र प्राप्त करते हैं कि जिस से उनका महान् अभ्युदय होता है । क्योंकि ज्ञान का सार ही चारित्र है ! ४६६ 'ज्ञानस्य फलं विरति : ' भगवान उमास्वातिजी का यह सारभूत वचन है । पूज्य उपाध्यायजी महाराज भी कुछ इसी तरह फरमाते हैं : 'ज्ञानस्य सार : चारित्रम्' ज्ञान का सार चारित्र है ! आगे चलकर वह ज्ञान का सार मुक्ति बताते हैं ! अर्थात् ज्ञान का सार चारित्र और चारित्र का सार मुक्ति है ! सामाइअमाइअं सुअनाणं जाव बिंदुसाराओ । तस्स वि सारो चरणं सारो चरणस्स निव्वाणं 11 'सामयिक से लेकर चौदहवे पूर्ण 'बिंदुसार' तक श्रुतज्ञान है । और उसका सार चारित्र है । जब कि चारित्र का सार परिनिर्वाण है ।' ३२ अष्टकों को प्राप्त करने का अर्थ केवल उन का सरसरी निगाह से पठन करना नहीं है, बल्कि इन अष्टकों में वर्णित विषयों को आत्मसात् करना है । मन वचन काया को उन के रंग में रंग देना और ज्ञान के सार स्वरूप चारित्र को पाना यानी चारित्रमय बन जाना है । यदि निर्वाण के लक्ष्य को लेकर ३२ विषयों का चिंतन-मनन किया जाय तो आत्मा की अपूर्व उन्नति हो सकती है । कर्म - बंधन से आत्मा मुक्ति पा सकता है । आत्म-सुख का अनुभव करने लगता है । और इसी लक्ष्य को निश्चित कर यशोविजयजी महाराज ने उपर्युक्त ३२ विषयों का अनूठा संकलन कर, तत्त्वनिर्णय किया है । निर्विकारं निराबाधं ज्ञानसारमुयेयुषाम् ! विनिवृत्तपराशानां मोक्षोऽत्रैव महात्मनाम् ||२|| अर्थ : विकाररहित और पीडारहित ज्ञानसार को प्राप्त करनेवाला और परायी आशा से निवृत्त हुए आत्माओं की मुक्ति इसी भव में है । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ज्ञानसार विवेचन : ज्ञानसार ! किसी प्रकार का कोई विकार नहीं, ना हो पीडा है....। ऐसे अद्भत ज्ञानसार की जिसे प्राप्ति हो गयी है, उसे भला, पर-पदार्थ की आशाअपेक्षा क्या संभव है ? विकारी और क्लेशयुक्त पर-पदार्थों की इच्छा होना क्या संभव है ? ज्ञान के सारभूत चारित्र में निविकार अवस्था है, साथ ही निराबाध भी । फलतः ऐसे महात्मा कर्म-बंधनों से परे होते हैं। क्योंकि कर्म-बंधन का मूल है विकार । पर-पदार्थों की चाह से विकारों का जन्म होता है । चारित्रवंत आत्मा को कर्म-बंधन नहीं होता है, और इसी का नाम मोक्ष है । पूर्वकर्म का उदय भले ही हो, लेकिन नये कर्म-बंधन नहीं होते । कर्मोदय के समय ज्ञानसार के कारण नये कर्म-बंधन की संभावना नहीं होती ! नये कर्म-बंधन न हो, यही मोक्ष है । पर-पदार्थों की स्पृहा के कारण उत्पन्न विकार और विकारों से पैदा होती पीडा, जिस महात्मा को स्पर्श तक न करें, उन्हें इसी भव में मोक्षसुख का अनुभव होता है, अर्थात् पराशाओं से निवृत्त यह मोक्षप्राप्ति के लिए महत्त्वपूर्ण शर्त बन जाती है । और शिवाय आत्मा, सभी पर है ! "अन्योऽहं स्वजनात परिजनाद् विभवात शरीरकाच्चेति ! यस्य नियता मतिरियं न बाधते तस्य शोककलिः ।।" इस अन्यत्व भावना को दृढ करनेवाला महात्मा सदैव निविकार, निराबाध चारित्र का पालन करता हुआ मोक्ष-गति पाता है। चित्तमाद्रीकृत ज्ञानसारसारस्वतोमिभिः ! __ नाप्नोत्ति तीव्रमोहाग्निप्लोषशोषकदर्थनाम् ॥३॥ अर्थ : ज्ञानसाररूप सरस्वती की तरंगावलि से कोमल बना मन, प्रखर मोह रूपी अग्नि के दाह से, शोष की पीड़ा से पीड़ित नहीं होता । विवेचन : ज्ञानसार की पवित्र-पावन सरयु सरस्वती ! सरस्वती को पवित्र धारा में निष्प्राण हड्डियाँ और राख विसर्जन करने से सद्गति नहीं मिलती है, स्वर्ग-प्राप्ति नहीं होती है ! उस के Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ५०१ निर्मल पवित्र प्रवाह में हमारे मन को विसर्जित करना होगा ! अतः 'ज्ञानसार' की पतीत पावनी सरस्वती में बार-बार अपने मन को डूबो कर उसे कोमल और कमनीय होने दो ! सरस्वती के पावन स्पर्श से उसे आर्द्र और स्निग्ध होने दो ! फिर भले ही मोह-दावानल संपूर्ण शक्ति से प्रज्वलित हो और उसकी लपटें मन को स्पर्श करें, उस को कोई पीडा नहीं, ना ही किसी प्रकार की वेदना । अरे, पानी से भीगे कपड़ों को कभी आग जला सकी है ? तब फिर सरस्वती की तरंगों से प्लावित मन को मोहदावानल भला कैसे दग्ध कर सकता है ? ___तभी तो कहा है 'ज्ञानसार' ग्रंथ पवित्र सरस्वती है । 'ज्ञानसार' की वाणी-तरंगों से मन को सदैव तर-बतर होने दो ! मोह-वासनाओं का जहालामुखी उस को जला नहीं सकेगा। मोह-दावानल से बचने के लिए पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने निरंतर 'ज्ञानसार' के रसामृत का आस्वाद लेने का उपदेश दिया है। क्यों कि समस्त दुःख, दर्द वेदना, और व्याधिओं का मूल मोह है। मोह के प्रभाव से मन मुक्त होते ही किसी प्रकार की अशांति, वेदना और यातनाएँ नहीं रहेंगी। अचिन्त्या काऽपि साधनां ज्ञानसारगरिष्ठता । गतिर्ययोर्ध्वमेव स्याद् अधःपातः कदाऽपि न ॥४॥ अर्थ : ज्ञानसार का भार मुनिराज के लिए कुछ समझ में नहीं आये वैसा है। उस से उसकी उर्ध्वगति ही संभव है, अधोगति नहीं । विवेचन : 'ज्ञानसार' अवश्य भार है ! जो समझ में न आ सके ऐसा कल्पनातीत भार है ! इसे वहन करनेवाला भारी बनता है ! साथ ही 'ज्ञानसार' के बोझ से बोभिल बना महामुनि जब अधोगति के बजाय उर्ध्वगति करता है तब हर किसी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता ! ___ 'भारी मनुष्य उर्ध्वगामी बन सकता है !!' ज्ञानसार का भार इस तरह अचिन्त्य है, समझ में न आए ऐसा है ! उपाध्यायजी महाराज ज्ञानसार के प्रभाव की व्याख्या इस तरह सरल भाषा में कैसी सुगमता से करते हैं ! Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ज्ञानसार 'ज्ञानसार से भारी बनो। ज्ञानसार का वजन बढाते रहो ! फलतः तुम्हारी उर्ध्वगति ही होगी ! अधःपतन कभी नहीं होगा !' ग्रन्थकार ने बड़ी ही लाक्षणिक शैली में यह उपदेश दिया है ! वे दृढता के साथ आश्वस्त करते हैं कि ज्ञानसारप्राप्त श्रमणश्रेष्ठ की उन्नति ही होती है । अधःपतन कभी संभव नहीं । अतः ज्ञानसार प्राप्त कर तुम निर्भय बन जाओ, दुर्गति का भय छोड दो, पतन का डर हमेशा के लिए अपने मन से निकाल दो ! ज्ञानसार के अचिन्त्य प्रभाव से तुम प्रगति के पथ पर निरंतर बढते ही चले जाओगे । हालाँकि यह सृष्टि का शाश्वत् नियम है कि भारी वस्तु सदैव नीचे ही जाती है, ऊँची कभी नहीं जाती ! लेकिन यहाँ उस का अद्भत विरोधाभास प्रदर्शित किया गया है : 'भारी होने के उपरांत भी आत्मा ऊपर उठती है, ऊँची जाती है !' अतः यह विधान करना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ज्ञानसार की गरिष्ठता से भारी बना मुनि सद्गतिमोक्षपद का अधिकारी बनता है । क्लेशक्षयो हि मण्डकचूर्णतुल्यः क्रियाकृतः। .. दग्धतच्चूर्णसदृशो ज्ञानसारकृतः पुनः ॥५॥ अर्थ : क्रिया द्वारा किया गया क्लेश का नाश मेंढक के शरीर के चूर्ण की तरह है। लेकिन 'ज्ञानसार' द्वारा किया गया क्लेश-नाश मेंढक के जले हुए चूर्ण की तरह है ।। विवेचन : जिस तरह मेंढक के शरीर का चूर्ण हो जाने के उपरांत भी वृष्टि होते ही उस में से नये मेंढकों का जन्म होता है, उत्पत्ति होती हैं, ठीक उसी तरह धार्मिक-क्रियाओं की वजह से जिस क्लेश का-अशुभ कर्मों का क्षय होता है, वे कर्म पुनः निमित्त मिलते ही पैदा हो जाते हैं ! ____ यदि मेंढक के शरीर के चूर्ण को जला दिया जाए तो फिर कितनी ही घनघोर बारिश उस पर क्यों न पड़े, दुबारा मेंढक पैदा होने का कभी सवाल ही नहीं उठता ! ठीक उसी तरह ज्ञानाग्नि से भस्मीभूत हुए कर्म कभी पैदा नहीं होते ! तात्पर्य यही है कि ज्ञान के माध्यम से सदा कर्म-क्षय करते रहो! शुद्ध क्षयोपशम-भाव से कर्म-क्षय करो । दुबारा कर्मबंधन का भय नहीं Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ५०३ रहेगा । ज्ञानसार की यही तो महत्ता है ! ज्ञानसार द्वारा किया गया कर्म-क्षय ही वास्तव में सार्थक है। हाँ, सिर्फ क्रिया-कांड के माध्यम से कर्म-क्षय करने में श्रद्धा रखनेवालों के लिए यह तथ्य अवश्य विचारणीय है ! भले ही वे अशुभ कर्मों का क्षय करते हों, लेकिन आश्रवों की वृष्टि होते ही पुनः अशुभ कर्म पनप उठेंगे ! अत: ज्ञान के माध्यम से कर्मक्षय करना सीखो । ___ अरे भई, तुम अपने ज्ञानानन्द में सदा-सर्वदा मग्न रहो ! ज्ञान की मौज-मस्ती में खोये रहो ! इधर कर्म-क्षय निरन्तर होता ही रहेगा । तुम नाहक चिंता न करो कि 'मेरा कर्म-क्षय हो रहा है अथवा नहीं ?' इस के बजाय निरन्तर निर्भय होकर ज्ञानानन्द के अथाह जलाशय मे सदा गोते लगाते रहो । ज्ञानपूतां परेऽप्याहुः क्रियां हेमघटोपमाम् । युक्त तदपि तद्भाव न यद् भग्नाऽपि सोज्झति ॥६॥ अर्थ : दूसरे दार्शनिक भी ज्ञान से पवित्र क्रिया को सुवर्ण-घट कहते हैं, वह भी योग्य है। क्योंकि खंडित क्रिया भी, क्रिया-भाव का त्याग नहीं करती ! (सुवर्ण-घट के खंडित हो जाने के भी सुवर्ण तो उस में __ रहता ही है।) विवेचन : एक सुवर्ण-घट है, मानो कि वह खंडित हो गया, तो भी उस में सोना तो रहता ही है ! सोना कहीं नहीं जाता । इस तरह सुवर्ण-घट की उपमा से विद्वान् ग्रन्थकार हमें ज्ञानयुक्त क्रिया का महत्व समझाते हैं । ज्ञानयुक्त क्रिया सुवर्ण-घट के समान है । समझ लो कि क्रिया खंडित हो गयी, उस में किसी प्रकार का विक्षेप आ गया, फिर भी सुवर्ण-समान ज्ञान तो शेष रहेगा ही। क्रिया का भाव तो बना रहेगा ही, ज्ञानयुक्त क्रिया के माध्यम से जिन कर्मों का क्षय किया, दुबारा उनके उदय होने का प्रश्न ही नहीं उठता । मतलब, कर्म-बंधन होना असंभव है । अतः कोडाकोडी सागरोपम से अधिक स्थितिवाले कर्मों का बंधन नहीं होगा । सुवर्ण-घट समान ज्ञानयुक्त क्रिया का महत्व बौखदर्शन आदि भी स्वीकार करते हैं। ज्ञानहीन क्रिया का विधान- समर्थन विश्व का Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ज्ञानसार कोई दर्शन नहीं करता। अरे भई, ज्ञानविहीन यानी भावशून्य क्रिया से क्या मतलब ? .. जो क्रिया की जाए उस के अनुरूप भाव होना नितान्त आवश्यक है । भाव से क्रिया सजीव और प्राणवान बनती है, अमूल्य बनती है । जबकि ज्ञानशून्य क्रिया मिट्टी के घडे जैसी है। एक बार घडा फूट जाए, फिर उसका कोई उपयोग नहीं, और ना ही उस की कोई कीमत होती है। अतः हे महानुभाव, तुम अपनी धर्म-क्रियाओं को ज्ञानयुक्त बनाओ, भावयुक्त बनाओ। कर्मक्षय का लक्ष्य रख कर प्रत्येक धर्म-क्रिया करते रहो ।। क्रियाशून्यं च यज्ज्ञानं ज्ञानशून्या च या क्रिया । अनयोरन्तरं ज्ञेयं भानुखद्योतयोरिव ॥७।। अर्थ : जो ज्ञान क्रियारहित है, और जो क्रिया ज्ञान रहित है, इन दोनों में अन्तर सूर्य और खद्योत (जूगनु) की तरह है । विवेचन : क्रियाशून्य ज्ञान सूर्य की तरह है ! ज्ञानविहीन क्रिया जगन की तरह है। कहाँ तो सूर्य का प्रकाश और कहाँ जूगनु का प्रकाश ? असंख्य जुगनुओं का समूह भी सूर्य-प्रकाश की तुलना में नहिवत ही है । इस तरह ज्ञानशून्य क्रियाएँ कितनी भी की जाएँ तो भी सूर्यसदृश तेजस्वी ज्ञान की तुलना में कोई महत्व नहीं रखती । ___जब कि, भले ही क्रियाशून्य ज्ञान हो, [ ज्ञानयुक्त क्रिया उसके जीवन में नहीं है । ] फिर भी ज्ञान का जो अनोखा प्रकाश है, वह तो सदैव बरकरार ही रहेगा । अरे, सूर्य भले ही बादलों से घिरा हो, लेकिन संसार की क्रियाएँ उस के प्रकाश में चलती ही रहती हैं। जब कि जूगनु के प्रकाश में तुम कोई भी कार्य नहीं कर सकते । - साथ ही क्रियारहित ज्ञान का अर्थ क्रिया-निरपेक्ष ज्ञान न लगाना। अर्थात् क्रिया के प्रति अरुचि अथवा उस की अवहेलना नहीं, परंतु क्रियाओं की उपायदेयता का स्वीकार करनेवाला ज्ञान ! ज्ञानयुक्त क्रिया करते हुए क्रिया छूट जाए, लेकिन उस का भाव अंत तक बरकरार रहे - ऐसा ज्ञान ! Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंवहार ५०५ . ज्ञानविहीन क्रिया के खद्योत बनकर ही संतुष्ट रहनेवाले और आजीवन ज्ञान की उपेक्षा करनेवालों को ग्रन्थकार के इन वचनों पर अवश्य गहरायी से चिंतन-मनन करना चाहिए और ज्ञानोपासक बन कर ज्ञान-सूर्य बनने का प्रयत्न करना चाहिये ।। चारित्रं विरतिः पूर्णा ज्ञानस्योत्कर्ष एव हि । ज्ञानाद्वतनये दृष्टिया तद्योगसिद्धये ॥८॥ अर्थ : संपूर्ण विरतिरुप चारित्र वास्तव में ज्ञान का अतिशय ही है ! अतः योग-सिद्धि के लिए केवल ज्ञान-नय में दृष्टिपात करने जैसा है । विवेचन : ज्ञान की सर्वोत्कृष्ट अवस्था यानी चारित्र ! . ज्ञान-निमग्नता यानी चारित्र ! .... पूर्ण विरतिरुप चारित्र क्या है ? वह ज्ञान का ही एक विशिष्ट अतिशय है । ज्ञानाद्वैत में दृष्टि प्रस्थापित करनी चाहिए । अर्थात् ज्ञानाद्वैत में ही लीन हो जाना चाहिए । यदि तुम्हें योग-सिद्धि करना है, आत्मा का परम विशुद्ध स्वरूप प्राप्त करना है तो ! . ज्ञान और क्रिया के द्वैत का त्याग करो। क्योंकि त में अशान्ति है ! जब कि अद्वैत में परम आनन्द है और है असीम शान्ति । ज्ञानात का मतलब ही आत्माद्वत । अतः आत्मा के अद्वत में अपनी दृष्टि केन्द्रित करो । सजग रहो कि दृष्टि कहीं अन्यत्र भटक न जाए । ज्ञानसार का उपसंहार करते हुए उपाध्याय श्री यशोविजयजी ज्ञानाद्वैत का शिखर बताते हैं ! ज्ञान-क्रिया के द्वैत में से बाहर निकलने का, मुक्त होने का भारपूर्वक विधान करते हैं ! ज्ञान की सर्वोत्कृष्ट परिणति यही पूर्ण चारित्र है। उक्त चारित्र के सुहाने सपनों का चाहक जीव ज्ञानात में तल्लीन हो जाए, तभी पूर्णता प्राप्त कर सकता है। निश्चयनय के दिव्य-प्रकाश को चारों दिशाओं में प्रसारित करनेवाले उपाध्यायजी महाराज ने ज्ञान में ही साध्य, साधन और सिद्धि निर्देशित कर ज्ञानमय बन जाने का आदेश दिया है ! साथ ही क्रियामार्ग की जडता को झटककर ज्ञानमार्ग का अनुसरण करने की प्रेरणा दी है। 'ज्ञान त में लीनता हो !' Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ सिद्धि सिद्धपुरे पुरन्दरपुरस्पर्धावहे लब्धवांचिद्दीपोऽयमुदारसार महसा दीपोत्सवे पर्वणि ! एतद् भावनभावपावनमनश्चञ्चच्चमत्कारिणां, तेस्तैर्दोषशतैः सुनिश्चयमतैनित्योऽस्तु दीपोत्सवः ! अर्थ : श्रेष्ठ एवं सारभूत परम ज्योतिर्मय प्रस्तुत ज्ञान - दीप, इन्द्र की राजधानी की स्पर्धा करनेवाले सिद्धपुर नगर में दीपावली पर्व के सुअवसर पर समाप्त हुआ ! यह ग्रंथ भावनाओं के रहस्य से परिपूर्ण एवं पवित्र हुए मन में उत्पन्न विविध चमत्कारयुक्त जीवों को, वह वह उत्तम निश्चयमतरुपी शत-शत दीपकों से निरंतर उनके लिए दीपावली का महोत्सव हो ! विवेचन : यह 'ज्ञानसार' का दीपक दीपावली के पुनित पर्व में पूर्णरूपेण प्राप्त हुआ । गुर्जर धरा पर स्थित प्राचीन संस्कृति के अनन्य घाम 'सिद्धपुर' नगर में चातुर्मासार्थ रहे ग्रन्थकार के शुभ हाथों इसकी पूर्णता हुई । वास्तव में ज्ञानदीप का प्रकाश श्रेष्ठ है । सर्व प्रकाशों में प्रस्तुत प्रकाश सारभूत है । जो कोई सज्जन इस ग्रंथ का अध्ययन, मनन एवं परिशीलन करेगा उसे निःसंदेह रहस्यभूत ज्ञान की प्राप्ति होगी । रहस्य से मन पवित्र होता है और आश्चर्य से चमत्कृत ! ऐसे जीवों के लिए ग्रन्थकार कहते हैं : ज्ञानसार " हे मानव ! तुम नित्य प्रति निश्चयनय के असंख्य दीपक प्रज्वलित करो और सदैव दीपावली महोत्सव मनाओ ! ” ग्रन्थकार महोदय की यही मनीषा है कि, इस के पठन-पाठन एवं चिंतन से सांसारिक जीव हमेंशा आत्मज्ञान के दीप प्रज्ज्वलित कर अपूर्व आनन्द का अनुभव करें । साथ साथ इस के अध्ययन - परिशीलन से मन पवित्र बनेगा और अनुपम प्रसन्नता का अनुभव होगा, इस का विश्वास दिलाते हैं । निश्चयनय के माध्यम से आत्मज्ञान पाने के लिए प्रयत्नशील बनने की प्रेरणा प्राप्त होती है । केषां चिद्विषय ज्वरातुरमहो चित्तं परेषां विषावेगोदर्क तर्कमूर्च्छितमथान्येषां कुवैराग्यतः । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार लग्नालर्कमबोधकुपपतितं चास्ते परेषामपि, स्तोकानां तु विकारभाररहितं तज्ज्ञानसाराश्रितम् ॥ अर्थ : उफ् ! कइयों का मन विषयज्वर से पीडित हैं, तो कइयों का मन विष वेग जिसका परिणाम है वैसे कुतर्क से मूर्च्छित हो गया है, अन्य का मन मिथ्या वैराग्य से हडकाया जैसा है, जब कि कुछ लोगों का मन अज्ञान के अंधेरे कुए में गिरे जैसा हैं । फिर कुछ थोडे लोगों का मन विकार के भार से रहित है, वह ज्ञानसार से आश्रित है । विवेचन : संसार में विभिन्न वृत्ति के जीव बसते हैं । उनका मन भिन्न भिन्न प्रकार की वासनाओं से लिप्त है ! यहां ऐसे जीवों का स्वरूप-दर्शन कराने का ग्रन्थकार ने है, साथ ही वे यह भी बताते हैं कि इनमें से मन ज्ञानसार के रंग से तर-बतर है : प्रयास किया कितनों का ५०७ कइयों का मन शब्दादि विषयों की स्पृहा एवं भोगोपभोग से पीडित है । कई जीव कुतर्क और कुमति के सर्पों से इसे हुए हैं । कुतर्क - सर्पों के तीव्र - विष के कारण मूच्छित हो गये हैं ! कई लोग अपने आप को वैरागी के रूप में बताते हैं । लेकिन यह एक प्रकार का हडकवा ही है ! वास्तव में एकाध पागल कुत्ते जैसी उन की अवस्था है । जब कि कित्येक मोह-अज्ञान के अंधेरे कूप में गिरे हुए हैं ! उन की दृष्टि कुए के बाहर भला, कहाँ से जा सकती है ? हाँ, कुछ लोग, जो संख्या में अल्प हैं, ऐसे अवश्य हैं, जिन के मन पर विकार का बोझ नहीं है ! ऐसी सर्वोत्तम आत्मा ही ज्ञानसार का आश्रय ग्रहण करती है ! जातोद्रेक विवेकतोरणततौ धावल्यमातन्वति, हृद्गृहे समयोचितः प्रसरति स्फीतश्च गीतध्वनिः । पूर्णानन्दघनस्य किं सहजया तद्भाग्यभंग्याऽभवन्नैतद् ग्रन्थमिषात् करग्रहमहश्चित्रं चरित्रश्रियः ॥ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ ज्ञानसार अर्थ : जहाँ अधिकाधिक प्रमाण में विवेकरुपी तोरणमाला बांधी गई है, और जहां उज्वलता को विस्तृत करते हृदयरूपी भवन में समयानुकूल मधुर गीत की उच्च ध्वनि प्रसरित है ! वहां पूर्णानन्द से ओतप्रोत आत्मा का, उसके स्वाभाविक सौभाग्य की रचना से प्रस्तुत ग्रंथ की रचना के बहाने क्या चारित्ररुप लक्ष्मी के आश्चर्यकारक पाणिग्रहण-महोत्सव का शुभारंभ नहीं हुआ ? विवेचन : क्या तुमने पूर्णानन्दी आत्मा का चारित्र-लक्ष्मी के साथ लग्नोत्सव कभी देखा है ? यहाँ ग्रन्थकार हमें वह लग्नोत्सव बताते हैं ! ध्यान से उसका निरीक्षण करो, देखो : हर जगह, हर गली और हाट-हवेली में सर्वत्र लगाये तोरणों को देखो । ये सब विवेक से तोरण हैं, और यह रहा लग्न-मंडप ! यह हृदय का विशाल मंडप है ! यह प्रकाश-पुंज सा देदीप्यमान हो जगमगा रहा है ! यहाँ मधुर कंठ और राग-रागिणी से युक्त लग्न-गीतों की चित्ताकर्षक लहरियाँ वातावरण में व्याप्त हैं ! उसमें ३२ मंगल गीत हैं, और आतमराम कैसा आनन्दातिरेक से डोल रहा है ! __ 'ज्ञानसार' ग्रन्थ-रचना का तो एक बहाना है । इस के माध्यम से पूर्णानन्दी आत्मा ने चारित्ररुपी लक्ष्मी के साथ लग्न....महोत्सव का सुंदर, सुखद आयोजन किया है । देवी-देवता तक इा करे ऐसा उसका अद्भुत सौभाग्य है ! इस प्रसंग पर ग्रन्थकार पूज्य उपाध्यायजी महाराज फरमाते हैं कि इस ग्रन्थ-रचना के महोत्सव में मैंने चारित्र स्वरुप साक्षात् लक्ष्मी के साथ पाणीग्रहण किया है !' सचमुच यह महोत्सव, हर किसी को विस्मित और आश्चर्य चकित कर दें, ऐसा अद्भुत है ! भावस्तोमपवित्रगोमयरसः लिप्तैव भूः सर्वतः, संसिक्ता समतोदकैरथ पथि न्यस्ता विवेकस्रजः । अध्यात्मामृतपूर्णकामकलशश्चक्नेऽत्र शास्त्रे पुरः पूर्णानन्दधने पुरे प्रविशति स्वीयं कृतं मंगलम् ।। अर्थ : प्रस्तुत शास्त्र में भाव के समूहस्वरुप गोबर से भूमि पोती हुई ही है और समभावरुपी शीतल जल के छिडकाव से युक्त है । अत्र-तत्र (मार्ग Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ५०४ में) विवेकरुपी पुष्पमालायें सुशोभित हैं । अग्रभाग में अध्यात्मरुप अमृत से छलकाता काम-कुभ रखा हुआ है । और इस तरह पूर्णानंद से भरपूर आत्मा नगर-प्रवेश करता है, तब अपना स्वयं का महा मंगल किया है। विवेचन : इस 'ज्ञानसार नगर' में जिस पूर्णानन्दी आत्मा ने प्रवेश किया, उसका कल्याण हो गया ! इस नगर की भूमि पवित्र भावों के गोबर से पोती हुई है ! सर्वत्र समभाव के शीतल जल का छिडकाव किया गया है ! नगर के विशाल राजमार्ग विवेकरूपी पुष्पमालाएँ, तोरणों से सुशोभित हैं ! और महत्वपूर्ण स्थानों पर अध्यात्मात से छलकते काम-कुंभ रखे गये हैं ! कैसा भव्य और रमणीय नगर है ! आँखें थकती नहीं उसका मनोहर और मांगलिक स्वरुप देख-देख कर ! ऐसे विलक्षण नगर में हर कोई (जीव) प्रवेश नहीं कर सकता, बल्कि बहुत थोड़े कुछ लोग ही प्रवेश कर सकते हैं ! यदि इन थोड़े लोगों में हमें प्रवेश मिल गया, तो समझ लिजीए कि हमारा तो 'सर्व मंगल मांगल्यम्' हो गया ! पूर्णानन्दी आत्मा ही 'ज्ञानसार' नगर में प्रवेश पा सकता है ! पूर्णता के आनन्द-हेतु छटपटाता उद्विग्न जीव ही हमेशा ऐसे नगर की खोज में रहता है । इस तरह ग्रन्थकार महर्षि हमें 'ज्ञानसार' नगर का अनूठा दर्शन कराते हैं....इस में प्रवेश कर हम भी कृतकृत्य बनें। गच्छे श्रीविजयादिदेवसुगुरोः स्वच्छे गुणानां गणैः प्रौढि प्रौढिमधाम्नि जीतविजयप्राज्ञाः परामैयरुः । तत्सातीर्थ्यभतां नयादिविजयप्राज्ञोत्तमानां शिशोः श्रीमन्यायविशारदस्य कृतिनामेषा कृतिः प्रीतये ।। श्रर्थ : सद्गुरु श्री विजयदेवसूरि के गुणसमूह से पवित्र एवं महान् गच्छ में जितविजय नामके अत्यंत विद्वान् और महिमाशाली पुरुष हुए। उन के गुरुभाई नयविजय पंडित के सुशिष्य श्रीमद् न्यायविशारद [यशोविजयजी उपाध्याय] द्वारा रचित यह कृति, महाभाग्यशाली पुरुषों की प्रीति के लिए सिद्ध हो । विवेचन : ग्रन्थकार अपनी गुरु-परंपरा का वर्णन करते हैं ! Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ज्ञानसार ___श्री विजयदेवसूरि के गुण-समूह से अलंकृत विशाल पवित्र गच्छ में प्रकांड पंडित जीतविजयजी नामक अत्यंत प्रतिभा के धनी महात्मा पुरुष हुए । उन के गुरु भाई श्री नयविजयजी नामक मुनिश्रेष्ठ थे । उन्हीं श्री नयविजयजी गुरुदेव के, ग्रन्थकार उपाध्याय श्री यशोविजयजी शिष्य थे। __ ग्रन्थकार ने अपनी कृति में स्वयं का नाम-निर्देश न करते हुए काशी में प्राप्त 'न्याय विशारद' उपाधि का उल्लेख किया है। अपनी इस कृति के लिए उन्होंने आशा व्यक्त करते हुए कहा है : 'प्रस्तुत कृति महाभाग्यशाली और पुण्यशाली पुरुषों के लिए प्रीति कारक सिद्ध हो ।' 'ज्ञानसार' के अध्ययन, मनन और चिंतन से असीम प्रीति और आनन्द प्राप्त करने वाली महा भाग्यवंत आत्माएँ हैं । ___'ज्ञानसार' में से ज्ञानानन्द और पूर्णानन्द प्राप्त करने का सौभाग्य समस्त जीवों को प्राप्त हो । -संपूर्ण Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार-परिशिष्ट ....KAHR Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार-परिशिष्ट १ कृष्णपक्ष-शुक्लपक्ष २ ग्रंथिभेद ३ अध्यात्मादि योग ४ चार प्रकार के सदनुष्ठान ५ ध्यान ६ धर्मसंन्यास-योगसंन्यास ७ समाधि ८ पंचाचार ह आयोजिका करण, समुद्घात, योगनिरोध १० चौदह गुणस्थानक ११ सात नय १२ ज्ञपरिज्ञा-प्रत्यारव्यानपरिज्ञा १३ पंचास्तिकाय १४ कर्मस्वरुप १५ जिनकल्प-स्थविर कल्प १६ उपसर्ग-परिमह १७ पांच शरीर १८ बीस स्थानक तप १६ उपशम श्रेणि २० चौदह पूर्व २१ पुद्गल परावर्तकाल २२ कारणवाद २३ चौदह राजलोक २४ यतिधर्म २५ समाचारी २६ गोचरी: ४२ दोष २७ चार निक्षेप २८ चार अनुयोग २६ ब्रह्म अध्ययन ३० ४५ आगम ३१ तेजो लेश्या Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] १. कृष्ण पक्ष - शुक्ल पक्ष 1 अनन्तकाल से अनन्त जीव चतुर्गतिमय संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं । वे जीव दो प्रकार के हैं : भव्य तथा अभव्य । जिस जीव में मोक्षावस्था प्राप्त करने की योग्यता होती है उसे 'भव्य' कहा जाता है तथा जिस जीव में वह योग्यता नहीं होती उसे 'अभव्य' कहते हैं । [ ज्ञानसार भव्य जीव का संसारपरिभ्रमणकाल जब एक 'पुद्गल परावर्त' बाकी रहता है, अर्थात् मोक्षदशा प्राप्त करने के लिए एक पुद्गल - परावर्त काल बाकी रहता है तब वह जीव 'चरमावर्त' में आया हुआ कहा जाता है । एक पुद्गल - परावर्त का आधे से अधिक काल व्यतीत होने पर, वह जीव 'शुक्लपाक्षिक' कहलाता है । किन्तु जो जीव कालमर्यादा में नहीं आया होता है वह 'कृष्णपाक्षिक' कहलाता है, अर्थात् वह जीव कृष्णपक्ष में अर्थात् मोह''''अज्ञानता के प्रगाढ़ अन्धकार में रहा हुआ होता है । श्री जीवाभिगम सूत्र के टीकाकार महर्षि ने भी उपरोक्त बात का समर्थन किया है : 'इह द्वये जीवाः तद्यथा - कृष्णपाक्षिकाः शुक्लपाक्षिकाश्च । तत्र येषां किञ्चद्नार्द्ध पुद्गल परावर्तः संसारस्ते शुक्लपाक्षिकाः इतरे दीर्घसंसारभाजिनः कृष्णपाक्षिकाः । इसी बात को पूज्य उपाध्यायजी ने 'ज्ञानसार' के 'टब्बे' में अन्य शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा पुष्ट किया है । जेसि अवढ्ढपुग्गलपरियट्टो सेसओ य संसारो । ते सुक्कपक्खिया खलु अवरे पुण कण्हपक्खिया ॥ उपरोक्त शास्त्रकारों की मान्यताओं की अपेक्षा श्री " दशाश्रुतस्कंध-सूत्र” के चूर्णीकार की मान्यता भिन्न है । उन्होंने इस प्रकार प्रतिपादन किया है: 'जो अकिरियावादी सो भवितो अभविउ व नियमा किण्हपक्खिओ, किरियावादी नियमा भव्वओ नियमा सुक्कपक्खिओ । अतोपुग्गल - परियट्टस्स नियमा सिज्ज्ञिहिति । सम्मद्दिट्ठी वा मिच्छादिट्ठी वा होज्ज ।' 'जो जीव अक्रियावादी है, भले ही वह भव्य अथवा अभव्य हो, वह अवश्य कृष्णपाक्षिक है । जबकि क्रियावादी भव्य आत्मा निश्चय ही Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णपक्ष-शुक्लपक्ष ] शुक्लपाक्षिक है और वह एक पुद्गल-परावर्तकाल में अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है । वर्तमान में वह जीव भले ही सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि हो।' चूर्णीकार की मान्यतानुसार चरमावर्त काल शुक्लपक्ष है; यह मान्यता तर्क-सम्मत भी लगती है। शुक्लपक्ष के प्रारम्भ में जिस प्रकार अल्पकालीन चन्द्रोदय होता है, उसी तरह चरमावर्तकाल में आने पर जीव के आत्म-आकाश में कतिपय गुणों का चन्द्रोदय होता है । पूजनीय आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने 'योगदृष्टिसमुच्चय' नामक ग्रंथ में चरमावर्तकालीन जीव को भद्रमूर्ति-महात्मा कहा है । उन्होंने इस भद्रमूर्ति महात्मा के तीन विशेष गुण बताए हैं । दुःखितेषु दयात्यन्त-मद्वषो गुणवत्सु च । औचित्यासेवनं चैव सर्वत्रैवाविशेषत: ॥३२॥ दुःखी जीवों के प्रति अत्यन्त करुणा, गुणीजीवों के प्रति राग, और सर्वत्र अविशेषरूप से औचित्य का पालन, इन तीन गुणों से सुशोभित भद्रमूर्ति महात्मा को 'शुक्लपाक्षिक' कहने में श्री दशाश्रतस्कंध के चर्णीकार महापुरुष की मान्यता योग्य लगती प्रतीत होती है । 'तत्त्वं तु केवलिनो विदन्ति ।' तत्त्व तो केवली भगवान जाने । 'श्री पंचाशक' ग्रंथ में याकिनी महत्तरासूनु हरिभद्राचार्य ने शुक्लपाक्षिक श्रावक का वर्णन किया है: परलोयहियं सम्मं जो जिणवयणं सुणेइ उवउत्तो।। अइतिव्वकम्मविगमा सुक्को सो सावगो एत्थ ॥२॥ -प्रथमपंचाशक 'सम्यक् प्रकार से उपयोगपूर्वक जो श्रावक परलोक हितकारी जिनवचन का श्रवण करता है और अति तीव्र पाप कर्म जिसके क्षीण हो गये हैं, वह शुक्लपाक्षिक श्रावक कहलाता है । २. ग्रन्थि भेद जिस किसी भी प्रकार से 'तथाभव्यत्व' के परिपाक से जीवात्मा 1 'यथाप्रवृत्तिकरण' द्वारा आयुष्य कर्म के अतिरिक्त ज्ञानावरणीयादि १ गुरुतरगिरिसरित्-प्रवाहवाह्यमानोपलघोलनाकल्पेन अध्यवसायविशेषरूपेण अनाभोगनिर्वतितेन यथाप्रवृत्तिकरणेन । - प्रवचनसारोद्धारे Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञानसार सातों कर्मों की 'पृथक पल्योपम' के संरव्याता भाग न्यून एक क्रोडाकोड़ सागरोपम प्रमाण स्थिति कर देता है । __जब कर्मों की इस प्रकार से मर्यादित कालस्थिति हो जाती है तब जीव के समक्ष एक अभिन्न ग्रंथि आती है । तीव्र राग-द्वेष के परिणामस्वरुप यह ग्रंथि होती है । उस ग्रंथि का सर्जन अनादि कर्मपरिणाम द्वारा हुआ होता है ।। __ अभव्यजीव यथाप्रवृत्तिकरण से ज्ञानावरणीयादि सात कर्मों की दीर्घस्थिति का क्षय करके अनंत बार इस 'ग्रंथि' के द्वार पर आते हैं, परन्तु ग्रंथि की भयंकरता देखकर ग्रंथि को भेदने की कल्पना भी नहीं कर सकते.."उसे भेदने का पुरुषार्थ करना तो दूर रहा ! वहीं से वापस लौटता है-पुनः वह संक्लेश में फंस जाता है ! संक्लेश द्वारा पुनः कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बांधती है । भवभ्रमण में चला जाता है । भव्य जीव भी अनन्तबार इस प्रकार से ग्रंथि प्रदेश के द्वार पर आकर ही घबड़ाते हुए वापिस लौट जाते हैं । परन्तु जब इस 'भव्य' महात्मा को 'अपूर्वकरण' की परमसिद्धि प्राप्त हो जाती है, कि जिस अपूर्वकरण की परमविशुद्धि को श्री 'प्रवचनसारोद्धार' ग्रंथ के टीकाकार ने 'निसिताकुण्ठकुठारधारा' की उपमा दी है । वह तीक्ष्ण कुल्हाडी की धारा के समान परम विशुद्धि द्वारा समुल्लसित दुर्निवार वीर्यवाला महात्मा ग्रंथि को भेद कर परमनिवृत्ति के सुख का रसास्वाद कर लेता है। अब यह महात्मा किस प्रकार से राग-द्वेष की निबिड ग्रंथि को भेद डालता है, उसे एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं । कुछ पथिक यात्रा के हेतु निकले । एक गहन वन मेंसे गुजरते हुए उन्होंने दूर से डाकुओं को देखा । डाकुओं के रौद्र स्वरूप को देख कर कुछ पथिक तो वहीं से पीछे भाग गये। कुछ पथिकों को डाकुओं ने पकड़ लिया । जब कि शेष शूरवीर पथिकों ने डाकुओं को भूशरण कर आगे प्रयाण किया । वन को पार कर तीर्थस्थान पर जा पहँचे। २ आयुर्वर्जानि ज्ञानावरणादिकर्माणि सर्वाण्यपि पृथक्पल्योपमसंख्येयभागन्यूनैकसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकानि करोति । -प्रवचनसारोद्धारे ३ 'सम्यक्त्वस्तव' प्रकरणे Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मादियोग ] __मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बांधने वाले वे भागने वाले पथिकों जैसे हैं । जो डाकुओं द्वारा पकड़े गये थे वे ग्रंथि देश में रहे हुए जीव हैं । जो डाकुओं को परास्त कर तीर्थस्थान पर पहुँचे वे ग्रंथि को भेद कर समकित को प्राप्त करने वाले हैं । __ 'सम्यक्त्वस्तव' प्रकरणकार इस प्रकार से ग्रंथिभेद की प्रक्रिया बताते हैं । अर्धपुद्गलपरावर्त काल जीव का संसारकाल बाकी है, जो जीव भव्य हैं, पर्याप्त-संजी-पंचेन्द्रिय है, वे जीव अपूर्वक रणरुपी मुद्गर के प्रहार से ग्रंथिभेद करके, अन्तमुहत में ही 'अनिवृत्तिकरण' करते हैं और वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं। ३. अध्यात्मादि योग जैनदर्शन का योगमार्ग कितना स्पष्ट, सचोट, तर्कसंगत तथा कार्यसाधक है, उसकी सूक्ष्म दृष्टि से तथा गंभीर हृदय से शोध करने की आवश्यकता है । यहाँ क्रम से अध्यात्मयोग, भावनायोग, ध्यानयोग, समतायोग और वृत्तिसंक्षययोग का विवेचन किया जाता है। १. अध्यात्मयोग 'योग' शब्द की परिभाषा 'माक्षेण योजनाद् योगः ।' इस प्रकार से करने में आई है । अर्थात् जिसके द्वारा जीवात्मा मोक्षदशा प्राप्त करे, वह योग है। इस योग की, साधना की दृष्टि से उत्तरोत्तर विकास की पांच भूमिकाएं अनंतज्ञानी परमपुरुषों ने देखी हैं । उनमें से प्रथम भूमिका अध्यात्मयोग की है । उपाध्यायजी ने 'अध्यात्मसार' ग्रन्थरत्न में 'अध्यात्म' की व्याख्या इस प्रकार की है: 1'गतमोहाधिकाराणामात्मानमधिकृत्य या । प्रवर्तते क्रिया शुद्धा तदध्यात्म जगुजिनाः ।। जिन आत्माओं के ऊपर से माह का अधिकार... वर्चस्व उठ गया है, वे आत्माएं स्व-पर की आत्मा को अनुलक्षित करके जो विशुद्ध क्रिया ४ मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० क्रोडाकोड़ी सागरोपम है । १ अध्यात्मसारे-अध्यात्मस्वरुपाधिकारे । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञानसार करती हैं (मन, वचन, काया से) उसे श्री जिनेश्वरदेव ने 'अध्यात्म' कहा है । जीवात्मा पर से मोह का वर्चस्व टूट जाने पर जीवात्मा का आंतरिक एवं बाह्य स्वरुप कैसा बन जाता है, उसका विशद वर्णन, भगवंत हरिभद्राचार्य ने 'योगबिन्दु' ग्रन्थ में किया है । उस जीव का आचरण सर्वत्र औचित्य से उज्ज्वल होता है । स्व-पर के उचित कर्तव्यों को समझकर तदनुसार अपने कर्तव्य का पालन करने वाला वह होता है । उसका एक-एक शब्द औचित्य की सुवास से मघमघायमान होता है । उसके जीवन में पांच अणुव्रत या पांच महाव्रत रम गये हुए होते हैं । व्रतों का प्रतिज्ञाबद्ध पालन करता हुआ, यह महामना योगी लोक प्रिय बनता है। श्री वीतराग सर्वज्ञ भगवंतों के द्वारा निर्देशित नवतत्त्वों की निरन्तर पर्यालोचना मैत्री-प्रमोद-करूणा-माध्यस्थ्यमूलक होती है, अर्थात् इसके चितन में जीवों के प्रति मैत्री की, प्रमोद की, कारूण्य की और माध्यस्थ्य की प्रधानता होती है। इस प्रकार औचित्य, व्रतपालन, और मैत्र्यादिप्रधान नवतत्त्वों का चितन यह वास्तविक 'अध्यात्म' है। ___ इस अध्यात्म से ज्ञानावरणीयादि क्लिष्ट पापों का नाश होता है । साधना में आंतरवीर्य उल्लसित होता है। चित्त की निर्मल समाधि प्राप्त होती है, सम्यग्ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है, जो कि जात्यरत्न के प्रकाश जैसा अप्रतिहत होता है । अध्यात्म का यह दिव्य अमृत अति दारूण मोह रुपी विष के विकारों का उन्मूलन कर डालता है । इस आध्यात्मिक पुरूष का मोह पर वर्चस्व जम जाता है। २. भावनायोग ___+उपर्युक्त औचित्यपालन, व्रतपालन और मैत्र्यादिप्रधान नव तत्त्वों २ औचित्याद् वृत्तयुक्तस्य वचनात्तत्वचिंतनम् । मैत्र्यादिसारमत्यन्तमध्यात्म तद्विदो बिदुः ।। ३५८ ।। योगबिन्दु। । ३ अतः पापक्षयः सत्त्वं शीलं ज्ञानं च शाश्वतम् । तथानुभवसंसिद्धममृतं पद एव तु ।। ३५९ ।। योगबिन्दुः । ४ अभ्यासोऽस्यैब विज्ञेयः प्रत्यहं वृद्धिसंगतः । मनः समाधिसंयुक्तः पौनःपुन्येन भावना ।। ३६० ।। योगबिन्दुः । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मादियोग ] का प्रतिदिन अनुवर्तन-अभ्यास करना, उसका नाम भावनायोग हैं। जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ता जाता है वैसे-वैसे उनमें समुत्कर्ष होता जाता है और मन की समाधि बढ़ती जाती है । ____ यह भावनायोग सिद्ध होने पर अशुभ अध्यवसायों (विचारों) से जीव निवृत्त होता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप वगैरह शुभ भावों के अभ्यास के लिये अनुकूल भावना की प्राप्ति होती है और चित्त का सम्यक् समुत्कर्ष होता है । भावनायोगी के आंतरिक क्रोधादिकषाय मंद पड़ जाते हैं। इन्द्रियों का उन्माद शान्त हो जाता है । मन-वचन-काया के योगों को वह संयमित रखता है । मोक्षदशा प्राप्त करने की अभिलाषावाला बनता है और विश्व के जीवों के प्रति वात्सल्य धारण करता है। ऐसी आत्मा निर्दभ हृदय से जो क्रिया करती है, उससे उसके अध्यात्म-गुणों की वृद्धि होती है । ३. ध्यानयोग : 'प्रशस्त किसी एक अर्थ पर चित्त की स्थिरता होना, उसका नाम 'ध्यान' है । वह ध्यान धर्मध्यान या शुक्लध्यान हो तो वह ध्यानयोग बनता है। भूमिगृह कि जहाँ वायु का प्रवेश नहीं हो सकता, वहाँ जलते हुए दीपक की ज्योति के समान ध्यान स्थिर हो अर्थात् स्थिर दीपक के जैसा हो। चित्त का उपयोग उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य वगैरह सूक्ष्म पदार्थों में होना चाहिए । इस प्रकार 'श्री योगबिंदु' ग्रंथ में प्रतिपादन किया हुआ है । इस ध्यानयोग से प्रत्येक कार्य में भावस्तमित्य आत्मस्वाधीन बनता है । पूर्व कर्मों के बंध की परम्परा का विच्छेद हो जाता है। ५ निवृत्तिरशुभाभ्यासाच्छुभाभ्यासानुकूलता । तथा सुचित्तवृद्धिश्च भावनायाः फलं मतम् ।। ३६१ ।। योगबिन्दुः । ६ शान्तो दान्तः सदा गुरूतो मोक्षार्थी विश्ववत्सलः । __निर्दम्भां यां क्रियां कुर्यात् साध्यात्मगुणवृद्धये ।। २२५ ।। अध्यात्मसारे ।.. ७ वशिता चैव सर्वत्र भावस्तमित्यमेव च ।। अनुबन्धव्यच्छेद उदर्कोऽस्योति तद्विदः ।। ३६३ ॥ योगबिन्दुः । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञानसार ४. समतायोग : अनादिकालीन तथ्यहीन वासनाओं के द्वारा होने वाले संकल्पों से जगत् के जड़-चेतन पदार्थों में जीव इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करता है। इष्ट में सुख मानता है, अनिष्ट में दुःख मानता है । समतायोगी महात्मा जगत के जड़-चेतन पदार्थों पर एक दिव्य दृष्टि डालता है ! न तो उसको कोई इष्ट लगता है और न अनिष्ट ! वह परामर्श करता है : 'तानेवार्थान् द्विषतः तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य निश्चयतोऽस्यानिष्टं न विद्यते किञ्चिदिष्टं वा ॥ -प्रशमरति "जिन पदार्थों के प्रति जीव एक बार द्वेष करता है, उन्हीं पदार्थों के प्रति वह राग करता है। 'निश्चयनय' से पदार्थ में कोई इष्टता नहीं है, कोई अनिष्टता नहीं है । वह तो वासनावासित जीव की भ्रमित कल्पना मात्र है । "प्रियाप्रियत्वयोर्याथै व्यवहारस्य कल्पना ।' -अध्यात्मसारे प्रियाप्रियत्व की कल्पना 'व्यवहार नय' की है। निश्चय से न तो कोई प्रिय है और न कोई अप्रिय ! विकल्पकल्पितं तस्माद् द्वयमेतन्न तात्विकम् ।' -अध्यात्मसारे विकल्पशिल्पी द्वारा बनाये गये ईष्ट-अनिष्टों के महल तात्त्विक नहीं, सत्य नहीं, हकीकत नहीं ।। इस विवेकज्ञान वाला समतायोगी जगत के सर्व पदार्थों में से इष्टानिष्ट की कल्पना को दूर कर समतारस में निमग्न बन जाता है। समता-शचि का स्वामीनाथ योगीन्द्र..."समता-शचि के उत्संग में रसलीन बनकर ब्रह्मानंद का अनुभव करता है। न ही वह अपनी दिव्य शक्ति का उपयोग करता है और न वह इस कारण से समता-रानी के साथ को छोड़ता है । इस परिस्थिति में उसका एक महान कार्य सिद्ध होता है । केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यात चारित्र... आदि को घेर Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्मादियोग ] [ ९ कर रहे हुए कुकर्मों का क्षय हो जाता है ! अपेक्षातन्तुविच्छेदः ! अपेक्षा तो कर्मबंध का मूल है, वह मूल उखड़ जाता है ।। इस समतायोगी के गले में कोई भक्त आकर पुष्पमाला या चंदन का लेप कर जाय... कोई शत्रु आकर कुल्हाड़े का घाव कर जायन तो उस भक्त पर राग और न उस शत्रु पर द्वेष ! दोनों पर समान दृष्टि ! दोनों के शुद्ध आत्मद्रव्य पर ही दृष्टि ! 8श्री उपाध्यायजी ने इस 'समता' के मुक्तकंठ से गीत गाये हैं ! ५. वृत्तिसंक्षय योग : निस्तरंग महोदधि समान आत्मा की वृत्तियाँ दो प्रकार से दृष्टिगोचर होती हैं; (१)विकल्परुप (२)परिस्पंदरुप। ये दोनों प्रकार की वृत्तियाँ आत्मा की स्वाभाविक नहीं हैं परंतु अन्य संयोगजन्य हैं । तथाविध मनोद्रव्य के संयोग से - विकल्परुप वृत्तियाँ जाग्रत होती हैं । x शरीर से परिस्पन्दरूप वृत्तियाँ होती हैं। जब केवलज्ञान की प्राप्ति होती है तब विकल्परुप वत्ति का संक्षय हो जाता है। ऐसा क्षय हो जाता है कि पुनः अनंतकाल के लिए आत्मा के साथ उसका संबंध ही न हो। 'अयोगी केवली' अवस्था में परिस्पंदरुप वृत्तियों का भी विनाश हो जाता है । इसका नाम है वृत्तिसंक्षययोग । इस योग का फल है-केवलज्ञान और मोक्षप्राप्ति ! अतोऽपि केवलज्ञानं शैलेशीसम्परिग्रहः । मोक्षप्राप्तिरनाबाधा सदानन्द विधायिनी ॥६६७ ।। -योगबिन्दुः ४. चतुर्विध सदनुष्ठान सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र के गुणों की वृद्धि जिस क्रिया द्वारा होती है उसे सदनुष्ठान कहा जाता है। सत्क्रिया कहें अथवा सदनुष्ठान कहें, दोनों समान हैं । ८. देखोः अध्यात्मसार-समताधिकारे । - मानसिक विचार Xशारीरिक क्रियाएँ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] [ ज्ञानसार इस सदनुष्ठान के चार प्रकार 'श्री षोडषक' ग्रन्थ में श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरजी ने बताये हैं । उसी प्रकार 'योगविशिका' ग्रन्थ की टीका में पूज्य उपाध्यायजी ने भी चार अनुष्ठानों का विशद वर्णन किया है । १. प्रीति अनुष्ठान : • आत्महितकर अनुष्ठान के प्रति, अनुष्ठान बतानेवाले सद्गुरु के प्रति और सर्वजन्तुवत्सल तारक जिनेश्वरभगवंत के प्रति परम प्रीति उत्पन्न होनी चाहिये । अनुष्ठान विशिष्ट प्रयत्नपूर्वक करने में आवे, अर्थात जिस समय करना हो उसी समय किया जाय । भले ही दूसरे सैकड़ों काम बिगडते हों । एक वस्तु के प्रति दृढ़ प्रीति जगने के बाद, फिर उसके लिए जीव क्या नहीं करता ? किसका त्याग नहीं करता ? उपर्युक्त हकीकत 'श्री योगविशिका' में दर्शायी गई है । 'यत्रानुष्ठाने १. प्रयत्नातिशयोऽस्ति, २. परमा च प्रीतिरूत्पद्यते, ३. शेषत्यागेन च यत्क्रियते तत्प्रीत्यनुष्ठानम् ।' २. भक्ति अनुष्ठान : भक्ति - अनुष्ठान में भी ऊपर की ही तीन वस्तुएँ होती हैं किन्तु अन्तर आलम्बनीय को लेकर पड़ता है । भक्ति-अनुष्ठान में आलम्बनीय में विशिष्ट पूज्यभाव की बुद्धि जाग्रत होती है, उससे प्रवृत्ति विशुद्धतर बनती है । पूज्य उपाध्यायजी ने प्रीति और भक्ति के भेद को बताते हुए पत्नी और माता का दृष्टान्त दिया है । मनुष्य में पत्नी के प्रति प्रीति होती है और माता के प्रति भक्ति होती है । दोनों के प्रति कर्तव्य समान होते हुए भी माता के प्रति पूज्यभाव की बुद्धि होने से उसके प्रति का कर्तव्य उच्च माना जाता है । अर्थात् 2 अनुष्ठान के प्रति विशेष गौरव जाग्रत हो, उसके प्रति • यत्रादरोऽस्ति परमः प्रीतिश्च हितोदया भवति कत्तुः । शेषत्यागेन करोति यच्च तत् प्रीत्यनुष्ठानम् ॥ १ अत्यन्तवल्लभा खलु पत्नी तद्वद्धिता च जननीति । तुल्यमपि कृत्यमनयोज्ञति स्यात् प्रीतिभक्तिगतम् ॥ २ गौरव विशेषयोगाद् बुद्धिमतो यद् विशुद्धतरयोगम् । क्रियेत तुल्यमपि ज्ञेयं तद्भक्त्यनुष्ठानम् ॥ - दशम- षोडष के -- योग विंशिका - दशम - षोड़षके Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विध सदनुष्ठान ] [ ११ महान् सद्भाव उल्लसित हो तब वह अनुष्ठान भक्तिअनुष्ठान कहा जाता है । महायोगी श्री आनंदघनजी ने प्रथम जिनेश्वर की स्तवना 'ऋषम जिनेश्वर प्रीतम माहरो _और न चाहुँ कंत.... इस प्रकार की है । उसे हम प्रीति अनुष्ठान में गिन सकते हैं । कारण कि उसमें योगीराज ने अपनी चेतना में पत्नीपन का आरोप किया है और परमात्मा में स्वामीपन की कल्पना की है । स्तवना में प्रीतिरस की प्रचुरता दृष्टिगोचर होती है । ३. वचनानुष्ठान : शास्त्रार्थप्रतिसंधानपूर्वा साधोः सर्वत्रोचितप्रवृत्तिः । - योगविशिका पंच महाव्रतधारी साधु इस अनुष्ठान की उपासना कर सकता है। प्रत्येक काल में और प्रत्येक क्षेत्र में साधु....मुनि.... श्रमण....शास्त्र की आज्ञाओं के मर्म को समझकर जो उचित प्रवृत्ति करे वह 'वचनानुष्ठान' कहलाता है। श्री 'षोडशक' में भी इसी प्रकार वचनानुष्ठान बतलाया है । 'वचनात्मिका प्रवृत्तिः सर्वत्रौचित्ययोगतो या तु । वचनानुष्ठानमिदं चारित्रवतो नियोगेन ॥ ४. असंगानुष्ठान : दीर्घकालपर्यन्त जिनवचन के लक्ष से अनुष्ठान करने वाले महात्मा के जीवन में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना ऐसी आत्मसात् हो जाती है, कि पीछे से उस महात्मा को यह विचारना नहीं पड़ता कि 'यह क्रिया जिनवचनानुसार है या नहीं?' जिस प्रकार चंदन में सुवास एकी भूत होती है उसी प्रकार ज्ञानादि की उपासना उस महात्मा में एकरस बन जाती है, तब वह 1'असंगानुष्ठान' कहलाता है। यह अनुष्ठान 'जिनकल्पी' आदि विशिष्ट महापुरूषों के जीवन में हो सकता है। १ यत्त्वभ्यासातिशयात् सास्मीभूतमिव चेष्टयते सद्भिः । तदसङ्गानुष्ठानं भवति त्वेतत्तदावेधात् ॥ --- दशम षोड़शके Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] ५. ध्यान 'ध्यान' के विषय में प्रथम सर्वसाधारण व्याख्या का निरूपण कर के उसके भेद-प्रभेद पर परामर्श करेंगे । 1 'ध्यानविचार' ग्रन्थ में ' चिन्ता - भावनापूर्वक स्थिर अध्यवसाय को 'ध्यान' कहा है । श्री आवश्यक सूत्र - प्रतिक्रमण अध्ययन में 'ध्यातिर्ध्यानम् कालतः अन्तर्मुहुर्तमात्रम्' । इस प्रकार ध्यान का सातत्य अन्तर्मुहुर्त बताया है । श्री आवश्यक सूत्र - प्रति अ० में ध्यान के चार भेद बताये गये हैं । ( १ ) आर्त (२) रौद्र ( ३ ) धर्म (४) शुक्ल 'श्री ध्यानविचार' में इन चारों प्रकारों में से तीन प्रकारों को दो भागों में विभाजित किया है, और शुक्लध्यान को 'परमध्यान' कहा है । 'द्रव्यतः आर्तरौद्रे, भावतस्तु आज्ञा-अपाय-विपाक संस्थानविचयभिदं धर्मध्यानम्' । १. आर्तध्यान : 2 शोक, आक्रन्द, विलापादि जिसमें हो वह आर्तध्यान कहलाता है । 3 श्री औपपातिक ( उपांग) सूत्र में आर्तध्यान के चार लक्षण बताए हैं : ( १ ) कंदणया : जोरों की आवाज करके रोना । ( २ ) साअणया : दीनता करनी । (३) तिप्पाणया: आंख में से अश्रु निकालना । ( ४ ) विलवणया: बार-बार कठोर शब्द बोलना । २. रौद्र ध्यान : श्री 'ओपपातिक सूत्र' में रौद्र ध्यान के चार लक्षण बताये गये हैं : १ चिन्ता - भावनापूर्वकः स्थिरोऽध्यवसायो ध्यानम् । २ शोकाक्रन्दनविलपनादिलक्षणमार्तम् । [ ज्ञानसार आवश्यक सूत्र प्रतिक्रमणाध्ययने ३ अट्टस्स झाणस्स चत्तारि लक्खणा- कंदणया - सोअणया-तिप्पणया विलवणया । - औपपातिकोपांगे । - ध्यानविचारे Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ] [ १३ ( १ ) ऊसष्ण्णदोसे : निरंतर हिंसा, असत्य, चोरी आदि करना । ( २ ) बहुदो से : हिंसादि सर्व पापों में प्रवृत्ति करनी । (३) अण्णाणदोसे : अज्ञान से कुशास्त्रों के संस्कार से हिंसादि पापों में धर्मबुद्धि से प्रवृत्त करनी । ( ४ ) आमरणंतदोसे : आमरणांत थोड़ा सा भी पश्चात्ताप किए बिना + कालसौकरादि की तरह हिंसादि में प्रवृत्ति करनी । इस आर्त- रौद्र ध्यान के फल का विचार 'श्री आवश्यक सूत्र' के प्रतिक्रमण - अध्ययन में किया गया है। आर्तध्यान का फल परलोक में तिर्यंचगति और रौद्रध्यान का फल नरकगति होता है । ३. धर्मध्यान ' श्री ' हरिभद्री अष्टक' ग्रन्थ में धर्मध्यान की यथार्थ एवं सुन्दर स्तुति की गई है । ६ सैकड़ों भवों में उपार्जित किये हुए अनंत कर्मों के गहन वन के लिये अग्नि समान है । * सर्वतप के भेदों में श्रेष्ठ है । * आंतर तपः क्रियारुप है । 2 धर्मध्यान के चार लक्षण हैं: ( १ ) आज्ञारुचि ( २ ) निसर्गरुचि (३) उपदेशरूचि ( ४ ) सूत्ररूचि । ( १ ) आज्ञारुचि : श्री जिनेश्वरदेव के वचन की अनुपमता, कल्याणकारिता, सर्व सत्तत्वों की प्रतिपादकता वगैरह को देखकर उस पर श्रद्धा करना । (२) निसर्गरुचि : ज्ञान-दर्शन- चारित्रमय आत्मपरिणाम । (३) उपदेशरुचि : जिनवचन के उपदेश को श्रवण की भावना । ४ कालसौकरिक नाम का वसाई रोज ५०० पाड़ों का वध करता था । १ भवशतसमुपचितकर्म वनगहनज्वलन कल्पम् । अखिलतपः प्रकारप्रवरम् । आन्तरतपः क्रियारुपम् । २ धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारी लक्खणा - आज्ञारूई - णिसग्गरूई उबएस रुई -सुत्तरुई । - श्री औपपातिक सूत्रे । Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] [ ज्ञानसार (४) सूत्ररुचि : द्वादशांगी का अध्ययन एवं अध्यापन की भावना। 1धर्मध्यान के चार आलंबन हैं । (१) वाचना (२) पृच्छना (३) परावर्तना (४) धर्मकथा अर्थात् सद्गुरु के पास विनयपूर्वक सूत्र का अध्ययन करना । उसमें अगर शंका हो तो विधिपूर्वक गुरूमहाराज के पास जाकर पृच्छा करना। निःशंक बने हुए सूत्रार्थ भूल न जायं इसलिए बार.बार उसका परावर्तन करना और इस प्रकार आत्मसात् हुए सूत्रार्थ का सुपात्र के सामने उपदेश देना । ऐसा करने से धर्मध्यान में स्थिरता प्राप्त होती है । धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षा है : (१) अनित्य भावना (२) अशरण भावना (३) एकत्व भावना और (४) संसार भावना । इन चार भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करने से धर्मध्यान उज्जवल बनता है और आत्मसात् हो जाता है । श्री उमास्वाती भगवंत ने 'प्रशमरति' प्रकरण में धर्मध्यान की क्रमशः चार चितन धाराएं बताई हैं : आज्ञाविचयमपायविचयं च सद्धचानयोगमुपसत्य । तस्माद्विपाकविचयमुपयाति संस्थानविचयं च ।। २४७ ।। १ आज्ञाविचय 1'आप्तपुरूष' का वचन ही प्रवचन है । यह है आज्ञा । उस आज्ञा के अर्थ का निर्णय करना विचय है । २ अपायविचय __ मिथ्यात्वादि आश्रवों में, स्त्रीकथादि विकथाओं में, रस-ऋद्धि-शाता गारवों में, क्रोधादि कषायों में, परीषहादि नहीं सहने में आत्मा की १ धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा-वायणा, पुच्छणा, परियट्टणा घम्मकहा । २ धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ-अनित्यत्वाशरणत्वकत्वसंसारानुप्रेक्षाः । __-श्री औपपातिक सूत्रे । १ आप्तवचनं प्रवचनं चाज्ञा, विचयस्तदर्थनिर्णयनम् । २ आस्रवविकथागौरवपरीषहाद्येष्वपायस्तु । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ ध्यान ] दुर्दशा है, नुकसान है । उसका चिंतन करके वैसा ही दृढ़ निर्णय हृदय में स्थापित करना । । ३ विपाकविचय अशुभ और शुभ कर्मों के विपाक (परिणाम) का चिंतन करके 'पापकर्म से दुःख तथा पुण्यकर्म से सुख' ऐसा निर्णय हृदयस्थ करना । ४. संस्थानविचय षद्रव्य, ऊर्ध्व-अधो-मध्यलोक के क्षेत्र, चौदह राजलोक की आकृति वगैरह का चिंतन करके, विश्व की व्यवस्था का निर्णय करना, उसे संस्थान विचय कहते हैं। धर्मध्यानी श्री आवश्यक सूत्र में धर्मध्यान करने की इच्छुक आत्मा की योग्यता का प्रतिपादन इस प्रकार किया है : 'जिणसाहूगुणकित्तणपसंसणाविणयदाणसंपण्णो । सुअसीलसंजमरओ धम्मज्झाणी मुणयन्वो' । (१) श्री जिनेश्वरदेव के गुणों का कीर्तन और प्रशंसा करने वाला। (२) श्री निर्ग्रन्थ मुनिजनों के गुणों का कीर्तन-प्रशंसा करने वाला। उनका विनय करने वाला । उनको वस्त्र-आहारादि का दान देने वाला। (३) श्रुतज्ञान की प्राप्ति करने में निरत । प्राप्त श्रतज्ञान से आत्मा को भावित करने के लक्षवाला। (४) शील-सदाचार के पालन में तत्पर । (५) इन्द्रियसंयम, मनःसंयम करने में लीन । ऐसी आत्मा धर्मध्यानी बन सकती है। श्री प्रशमरति ग्रंथ में बताया गया है कि वास्तविक धर्मध्यान प्राप्त हए बाद ही आत्मा वैरागी बनती है अर्थात् उस आत्मा में वैराग्य की ज्योत प्रज्वलित होती है । 'धर्मध्यानमुपगतो वैराग्यमाप्नुयाद् योग्यम् । ३ अशुभशुभकर्मविपाकानु चिन्तनार्थो विपाकविचयःस्यात् ।। ४ द्रव्यक्षेत्राकृत्यनुगमनं संस्थानविचयस्तु । २४८-२४९ प्रशमरति प्रकरणे । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] वाचिक ध्यान सामान्यत: आम विचार ऐसा है कि 'ध्यान' मानसिक ही होता है । परन्तु श्री आवश्यक सूत्र में 'वाचिक ध्यान' भी बताया गया है । एवंविहा गिरा मे वत्तव्या एरिसी न बत्तव्वा । इय वेयालियवक्कस्स भासओ वाइगं झाणं ॥ 'मुझे इस प्रकार की वाणी बोलनी चाहिये, ऐसी नहीं बोलनी चाहिये ।' इस प्रकार विचारपूर्वक बोलनेवाला वक्ता 'वाचिक ध्यानी' है । [ ज्ञानसार ध्यान- काल ध्यान के लिए उचित काल भी वह है कि जिस समय मन-वचनकाया के योग स्वस्थ हों । ध्यान के लिए दिवस-रात के समय का नियमन नहीं है । 'कालोऽपि स एव ध्यानोचितः यत्र काले मनोयोगादिस्वास्थ्य प्रधान प्राप्नोति नैव च दिवसनिशावेलादिनियमनं ध्यायिनो भणितम् ।' श्री हरिभद्रसूरि । आवश्यक सूत्रे । ४. शुक्लध्यान शुक्लध्यान के चार प्रकार हैं । वे 'शुक्लध्यान के चार पाया' के रूप में प्रसिद्ध हैं । १. पृथक्त्व - वितर्क - सविचार * पृथक्त्वसहित, वितर्कसहित और विचारसहित प्रथम सुनिर्मल शुक्लध्यान है । यह ध्यान मन-वचन-काया के योग वाले साधु को हो सकता है । + पृथक्त्व = अनेकत्वम् । ध्यान को फिरने की विविधता । वितर्क = श्रुतचिंता | चौदपूर्वगत श्रुतज्ञान का चिंतन । * सवितर्क सविचारं सपृथक्त्वमुदाहृतं । त्रियोगयोगिनः साधोराद्यं शुक्लं सुनिर्मलम् ।। ६० ।। + श्रुतचिन्ता वितर्कः स्यात् विचारः संक्रमो मतः । पृथक्त्वं स्यादनेकत्व भवत्येतत्त्रयात्मकम् ॥ ६१ ॥ - गुणस्थान-क्रमारोहे Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान ] विचार = संक्रम । 1परमाण, आत्मा आदि पदार्थ, इनके 'वाचक शब्द और कायिकादियोग, इन तीन में विचरण, संच रण, संक्रमण । २. एकत्व-वितर्क-अविचार शुक्ल ध्यान के दूसरे प्रकार में है एकत्व अविचारता के सवितर्कता होती है । अर्थात् यहाँ स्वयं के एक आत्मद्रव्य का अथवा पर्याय का या गुण का निश्चल ध्यान होता है । अर्थ, शब्द और योगों में विचरण नहीं होता है और भावश्रुत के आलंबन में शुद्ध-आत्मस्वरुप में चितन होता रहता है । शुक्लध्यान के ये दो भेद आत्मा को उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी में चढ़ाने वाले हैं अर्थात मुख्य रुप से श्रेणी में होते हैं । दूसरे प्रकार के ध्यान के अंत में आत्मा वीतरागी बनती है। क्षपकश्रेणीवाली ध्यानी आत्मा ज्ञानावरणीयादि कर्मों को खपाकर केवलज्ञान प्राप्त करके सर्वज्ञ बनती है। ३. सूक्ष्म क्रिया-अप्रतिपाति __ यह ध्यान चिन्तनरुप नहीं है। सर्वज्ञ आत्मा को सब आत्म-प्रत्यक्ष होने से, उसे चिन्तनात्मक ध्यान की आवश्यकता रहती ही नहीं । इस तीसरे प्रकार में मन-वचन-काया के बादर योगों का अवरोध होता है । सूक्ष्म मन-वचन-काया के योगों को अवरुद्ध करने वाला एक मात्र सूक्ष्म काय इस ध्यान में तीन विशिष्टता रही हुई है :१ स्वशुद्ध आत्मानु भूत भावना के आलम्बन से अन्तर्जल्प चलता है । २ श्रुतोपयोग एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर तथा एक योग से दूसरे योग पर विचार करता है । ३ ध्यान एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य पर, एक गुण से दूसरे गुण पर, और एक पर्याय से दूसरे पर्याय पर संक्रमण करता है । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] [ ज्ञानसार योग बाकी रहता है । यह ध्यान आत्मा की एक विशिष्ट प्रकार की अवस्था है, और वह अप्रतिपाती तथा अविनाशी है अर्थात् यह अवस्था अवश्य चौथे प्रकार के व्यानरूप बन जाती है । ४. व्युच्छिन्न क्रिया - अनिवृत्ति यहाँ समग्र योग हमेशा के लिए विराम प्राप्त कर गए होते हैं । विच्छेद प्राप्त कर गये होते हैं । इस अवस्था में अब कभी भी परिवर्तन नहीं होता । यह अवस्थाविशेष ही ध्यान है । 'शैलेशी अवस्था' इस ध्यानरूप है । छद्मस्थ आत्मा का ध्यान मन की स्थिरता छद्मस्थ का ध्यान है । अन्तर्मुहूर्तकालं यच्चित्तावस्थानमेकस्मिन् वस्तुनि तच्छास्थानां ध्यानम् । श्री हरिभद्रसूरि आवश्यक सूत्रे । 'अन्तर्मुहूर्त' काल के लिए एक वस्तु में जो चित्त की एकावस्था, वह छद्मस्थ जीव का ध्यान है । जिन का ध्यान 1 'योग निरोध, यह जिन का ध्यान है । दूसरे का नहीं । 2 काया की स्थिरता, केवली का ध्यान है । ६. धर्मसंन्यास - योगसंन्यास 'सामर्थ्य योग के ये दो भेद हैं । सामर्थ्ययोग क्षपकश्रेणी में होता है । यह योग प्रधान फल मोक्ष का निकटतम कारण है । ? 'छद्यस्थस्य... ध्यानं मनसः सर्वमुच्यते' ।। १०१ ।। १ योगनिरोधो जिनानामेव ध्यानं नान्येषाम् । २ वपुषः स्थैर्यं ध्यानं केवलिनो भवेत् ।। १०१ ।। - गुणस्थानक क्रमारोहे | Yerful - श्री हरिभद्रसूरिः, आवश्यक सूत्रे - गुणस्थानक क्रमारोहे Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम संन्यान-योगसंन्यास ] [ १९ १. धर्मसंन्यास क्षपकश्रेणि में जब जीव द्वितीय अपूर्वकरण करता है, तब तात्त्विक रुप में यह 'धर्मसंन्यास' नाम का सामर्थ्य योग होता है । यहाँ क्षायोपशामिक क्षमा-आर्जव-मार्दवादि धर्मों से योगी निवृत्त हो जाता है। ★अतात्त्विक 'धर्मसंन्यास' प्रव्रज्याकाल में (देशविरति सर्वविरति ग्रहण करते हुए) भी होता है । वहाँ 'धर्म' औदयिक भाव समझने के हैं । उसका त्याग (संन्यास) करने में आता है अर्थात् अज्ञान, असंयम, कषाय, वेद, मिथ्यात्वादि धर्मों का त्याग किया जाता है ।। तात्त्विक 'धर्मसंन्यास' में तो क्षायोपश मिक धर्मो का भी संन्यास (त्याग) कर दिया जाता है अर्थात् वहाँ जीव को क्षायिक गुणों की प्राप्ति होती है । तात्पर्य यह है कि क्षायोपशामिक धर्म हो क्षायिक रुप बन जाते हैं । २. योगसंन्यास 'योग' का अर्थ कायादि के कार्य (कायोत्सर्गादि) हैं, इनका भी त्याग (संन्यास) सयोगी केवली भगवंत — आयोजिकाकरण' के बाद करते हैं । + सयोगी केवली (१३ वे गुणस्थान पर) समुद्घात करने से पहले 'आयोजिकाकरण' करते हैं। यह आयोजिका सभी केवली भगवंत करते हैं। ७. समाधि 'वेदान्त दर्शन' के अनुसार समाधि दो प्रकार की है : (१) सविकल्प समाधि (२) निर्विकल्प समाधि । निविकल्प समाधि के आठ अंग बताने में आये हैं और इन आठ अगों को ही सविकल्प समाधि कहा गया है । निर्विकल्प समाधि के चार विघ्न 'वेदान्तसार' ग्रंथ में बताये गये हैं । ; द्वितीयेऽपूर्वकरणे प्रमो धर्मसंन्याससंज्ञितः सामर्थ्ययोगः तात्त्विकः भवेत् । अपकथंणियोगिनः आयोपशमिकक्षान्त्यादिधर्मनिवृत्तेः । - योगदृष्टिसमुच्चये *अतात्त्विकम्तु प्रवज्याकालेऽपि भवति ।' -योगदृष्टिसमुच्चये + पंच-संग्रहे-क्षपकश्रेणि-प्रकरणे । Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] [ जानसार श्री जैनदर्शन दोनों प्रकार की समाधि का सुचारू पद्धति से पांच योग द्वारा समन्वय करता है। श्री योगविशिका' में आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने यह समन्वय किया है और उपाध्यायजी ने उसे विशेष स्पष्ट किया है । यहाँ पाँच योगों द्वारा सविकल्प, निर्विकल्प समाधि बताई गई है। + (१) स्थान : सकलशास्त्रप्रसिद्ध कायोत्सर्ग-पर्यक बंध - पद्मासनादि आसन । (२) ऊर्णः शब्द । क्रियादि में बोले जानेवाले वर्णस्वरुप । (३) अर्थः शब्दाभिधेय का व्यवसाय । (४) आलंबनः बाह्य पतिमादि विषयक ध्यान । उपरोक्त चार योग 'सविकल्प समाधि' कहे जा सकते हैं । (५) रहितः रुपी द्रव्य के आलंबन से रहित निविकल्प चिन्मात्र समाधिरुप । यह योग निर्विकल्प समाधि स्वरूप है। पांच योग के अधिकारी स्थानादियोग निश्चयनय से देशचारित्री एवं सर्वचारित्री को ही हो सकते हैं । क्रियारुप (स्थान---ऊर्ण) और ज्ञानरुप (अर्थ, आलंबन समाधिः सविकल्पकः निर्विकल्पकश्च । निवि कल्पस्य अङ्गानि(१) यमाः अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः । (२) नियमाः शौच-संतोष-तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि । (३) आसनानि करचरणादिसंस्थानविशेषलक्षणानि पडास्वस्तिकादीनि । (४) प्राणायामाः रेचकपूरक कुम्भकलक्षणाः प्राण निग्रहोपायाः । (५) प्रत्याहारः इन्द्रियाणां स्व-स्व विषयेभ्यः प्रत्याहरणम् । (६) धारणा अद्वितीयवस्तुन्यन्तरिन्द्रियधारणम् । (७) ध्यानं अद्वितीयवस्तुनि विच्छिद्य विच्छिद्य अन्तरिन्द्रियवृत्तिप्रवाहः । (८) समाधिस्तु उक्त सविकल्पक एव । - वेदान्तसार-ग्रन्थे लय-विक्षेप-कषाय-रसास्वादलक्षणाश्चत्वारो विघ्नाः । -वे० सारे + (१) स्थानम्-आसनविशेषरुपं कायोत्सर्गपर्यकबन्धपद्मासनादि सकलशास्त्रप्रसिद्धम् । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ समाधि ] और रहित) ये योग चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम बिना संभव नहीं हो सकते । 'जो जीव देशचारित्री या सर्वचारित्री नहीं है, उन जीवों में योग का मात्र बीज हो सकता है ।' किन्तु यह कथन निश्चय नय का है । व्यवहार नय तो योगबोज में भी योग का उपचार करता है । इससे व्यवहार नय से अपुनबंधकादि जीव भी योग के अधिकारी हो सकते हैं । ८. पांच आचार भेाक्षमार्ग की आराधना के मुख्य पांच मार्गों को 'पंचाचार' कहा जाता है । यहाँ 'श्री प्रवचनसारोद्धार' ग्रन्थ के आधार पर उसका संक्षिप्त विवरण दिया जाता है । १. ज्ञानाचार १. काल :, आगमग्रन्थों के अध्ययन के लिए शास्त्रकारों ने कालनिर्णय किया है, उस समय में ही अध्ययन करना । २. विनय : ज्ञानी, ज्ञान के साधन और ज्ञान का विनय करते हुए ज्ञानार्जन करना । ३. बहुमान : ज्ञान-ज्ञानी के प्रति चित्त में प्रीति धारण करना। ४. उपधान : जिन जिन सूत्रों के अध्ययन हेतु शास्त्रकारों ने जो तप करने का विधान बताया है, वह तप करके ही शास्त्र का अध्ययन करना । उससे यथार्थ रुप में सूत्र की शीघ्र धारणा हो जाती है । ५. अनिलवन : अभिमानादिवश या स्वयं की शंका से श्रुतगुरू का या श्रुत का अपलाप नहीं करना । ६. व्यंजन : अक्षर-शब्द-वाक्य का शुद्ध उच्चारण करना । (२) उर्णः-शब्दः स च क्रियादी उच्चार्यमाणसूत्रवर्णलक्षणः । (३) अर्थ - शब्दाभिधेयव्यवसायः । (४) आलंबनम् - बाह्यप्रतिमादिविषयध्यानम् । (५) रहितः- रूपिद्रव्यालम्बनरहितो निर्विकल्पचिन्मात्रसमाधिरूपः । - योगविशिकायाम् Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] [ ज्ञानसार ७. अर्थ : अक्षरादि से अभिधय का विचार करना । ८. ऊभय : व्यंजन-अर्थ में फेरफार किये बिना तथा सम्यक उपयोग रखकर पढ़ना । २. दर्शनाचार १. निःशंकित : जिनवचन में संदेह न रखना । २. निःकांक्षित : अन्य मिथ्यादर्शनों की आकांक्षा नहीं करना। ३. निविचिकित्सा : 'साधु मलीन हैं।' ऐसी जुगुप्सा नहीं करना। ४. अमूढ़ता : तपस्वी विद्यावंत कुतीथिक की ऋद्धि देखकर चलित नहीं होना । ५. उपबृहणा : सामिक जीवों के दान-शीलादि सद्गुणों की प्रशंसा करके, उनके सद्गुणों की वृद्धि करना । ६. स्थिरीकरण : धर्म से चलचित्त जीवों को हित -मित-पथ्य वचनों के द्वारा पुनः स्थिर करना । ७. वात्सल्य : साधर्मिकों की भोजनवस्त्रादि द्वारा भक्ति व सन्मान करना । ८. प्रभावना : धर्मकथा, वादीविजय, दुष्कर तपादि द्वारा जिनप्रवचन का उद्योत करना । (यद्यपि जिनप्रवचन स्वयं शाश्वत् जिनभाषित और सुरासुरों से नमस्कृत होने से उद्योतीत ही है, फिर भी स्वयं के दर्शन की निर्मलता हेतु, खुद के किसी विशेष गुण द्वारा लोगों को प्रवचन की ओर आकर्षित करना ।) ३. चारित्राचार पाँच समिति [ ईर्यासमिति, भाषासमिति, ऐषणासमिति, आदानभंडमत्तनिक्षेपणासमिति और पारिष्ठापनिका समिति] तथा तीन गुप्ति [ मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति ] द्वारा मन-वचन-काया को भावित रखना । ४. तपाचार अनशन, उणोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और संलीनता, इन छ: बाह्य तपों द्वारा आत्मा को तपाना। [यह छः प्रकार का तप Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच आचार ] [ २३ बाह्य इसलिए कहा जाता है कि [१] बाह्य शरीर को तपाने वाला है। [२] बाह्य लोक में तपरुप प्रसिद्ध है। [३] कुतीथिकों ने स्वमत से सेवन किया है । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यान, इन छः प्रकार के आभ्यंतर तप से आत्मा को विशुद्ध करना । ५. वीर्याचार उपरोक्त चार आचारों में मन-वचन-काया का वीर्य [शक्ति] स्फुरित करके सुन्दर धर्मपुरूषार्थ करना । इस प्रकार पंचाचार का निर्मल रुप से पालन करने वाली आत्मा, मोक्षमार्ग की तरफ प्रगति करती है और अन्त में मोक्ष प्राप्त करती है। ६. आयोजिका-करण समुद्घात योगनिरोध 'श्री पंचसंग्रह' ग्रंथ के आधार पर आयोजिका-करण, समुद्घात तथा योगनिरोध का स्पष्टीकरण किया जाता है । १. आयोजिका-करण सयोगी केवली गुणस्थान पर यह करण किया जाता है । केवली की दृष्टिरुप मर्यादा से अत्यन्त प्रशस्त मन-वचन-काया के व्यापार को 'आयोजिका करण' कहा जाता है । यह ऐसा विशिष्ट व्यापार होता है कि जिसके बाद में समुद्घात तथा योगनिरोध की क्रियाएं होती हैं। कुछ आचार्य इस करण को 'आवजितकरण' भी कहते हैं । अर्थात तथाभव्यत्वरुप परिणाम द्वारा मोक्षगमन की ओर सन्मुख हुई आत्मा का अत्यन्त प्रशस्त योगव्यापार । कुछ दूसरे आचार्य इसे 'आवश्यककरण' कहते हैं । अर्थात् सब केवलियों को यह 'करण' करना आवश्यक होता है । समुद्घात की क्रिया सभी केवलियों के लिए आवश्यक नहीं होती। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] [ ज्ञानसार २. समुद्घात केवली को वेदनीयादि अघाती कर्म विशेष हों और आयुष्य कम हो तब उन दोनों को बराबर करने के लिए वेदनीयादि कर्म आयुष्य के साथ ही भोगकर पूर्ण हो जावें उसके लिये | यह समुद्घात की क्रिया की जाती है । प्रश्न : बहुत काल तक भोगने में आ सके ऐसे वेदनीयादि कर्मों का एकदम नाश करने से 'कृतनाश' दोष नहीं आता ? समाधानः बहुत समय तक फल देने के हेतु निश्चित हुए वेदनीयादि कर्म तथाप्रकार के विशुद्ध अध्यवसायरूप उपक्रम (कर्मक्षय के हेतु) द्वारा जल्दी से भोग लिये जाते हैं । उसमें 'कृतनाश' दोष नहीं आता । हां, कर्मों को भोगे बिना ही नाश कर दें तब तो दोष लगें, यहां ये कर्म जल्दी से भोग लिये जाते हैं । कर्मों का भोग [ अनुभव ] दो प्रकार से होता है । [१] प्रदेशोदय द्वारा, [२] रसोदय द्वारा । प्रदेशोदय द्वारा सब कर्म भोगे जाते हैं । रसोदय द्वारा कोई भोगा जाता है और कोई नहीं भी भोगा जाता है। रसोदय द्वारा भोगने पर ही सब कर्मों का क्षय होता है, अगर ऐसा माना जाय, तो असंख्य भवों में, तथाप्रकार के विचित्र अध्यवसाय द्वारा नरकादि गतियों में जो कर्म उपाजित किए हैं, उन सब का मनुष्यादि एक भव में ही अनुभव [भोग नहीं हो सकता । क्योंकि जिस-जिस गति योग्य कर्म बाँधे हों, उनका विपाकोदय उस गति में जाने पर ही होता है, तो फिर आत्मा का मोक्ष किस प्रकार हो? जब आयुष्य अन्तर्मुहूर्त बाकी हो, तब समुद्घात किया जाता है। * पहले समय में अपने शरीर प्रमाण और उर्ध्व-अधोलोक प्रमाण अपने आत्मप्रदेशों का दंड करे । दूसरे समय में आत्मप्रदेशों को पूर्व-पश्चिम अथवा उत्तर-दक्षिण में कपाट रुप बनायें । -गुणस्थान क्रमारोहे * चेदायुषः स्थितियूं ना सकाशाद्वैद्यकर्मणः । तदा तत्तुल्यतां कर्तुं समुद्घातं करोत्यसौ ।। * दण्डं प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु ॥ २७४ ।। - प्रशमरति प्रकरणे Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग निरोध । [ २५ तीसरे समय में रवैया [मन्थान] रुप बनायें । चौथे समय में आंतराओं को पूरित करके सम्पूर्ण १४ राजलोक व्यापी बन जाय । * पाँचवें समय में आँतराओं का संहरण कर ले । छ समय में मन्थान का संहरण कर ले । सातवें समय में कपाट का संहरण कर ले । आठवें समय में दंड को भी समेट कर आत्मा शरीरस्थ बन जाय। ३. योगनिरोध समुद्घात से निवृत्त केवली भगवान् 'योगनिरोध' के मार्ग पर चलते हैं। योग [मन-वचन-काया] के निमित्त होने वाले बंध का नाश करने हेतु योगनिरोध करने में आता है। यह क्रिया अन्तर्मुहूर्त काल में करने में आती है। सबसे पहले बादर काययोग के बल से बादर वचनयोग को रोघे, फिर बादर काययोग के आलम्बन से बादर मनोयोग को रोघे । उसके बाद उच्छ्वास-निश्वास को रोघ, तत्पश्चात् सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग को रोघे । [कारण कि जहाँ तक बादर योग हो वहाँ तक सूक्ष्म योग रोधे नहीं जा सकते ।] उसके बाद सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वचनयोग को रोधे और पीछे के समय में सूक्ष्म मनोयोग को रोघे । उसके बाद के समय में काययोग को रोधे । सूक्ष्म काययोग के अवरोघ की क्रिया करती हुई आत्मा 'सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती' नाम के शुक्ल ध्यान के तीसरे भेद पर आरुढ हो जाय और १३ वें गुणस्थानक के चरम समयपर्यंत जाय । ___ सयोगी केवली गुणस्थानक के चरम समय में [१] सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती ध्यान [२] सर्व किट्टियाँ, [३] शाता का बंध | ४] नाम गोत्र की उदीरणा [५] शुक्ल लेश्या, [६] स्थिति-रस का घात और [७] योग । इन सातों पदार्थों का एक साथ विनाश हो जाता है, और आत्मा अयोगी केवली बन जाती है । * संहरति पंचमे त्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः पष्ठे । सप्तमके तु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥ ----प्रशमरति प्रकरणे Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञानसार १०. चौदह गुणस्थानक आत्मगुणों की उत्तरोत्तर विकास-अवस्थाओं को 'गुणस्थानक' कहा जाता है । ये अवस्थाएं चौदह हैं । चौदह अवस्थाओं के अन्त में आत्मा गुणों से परिपूर्ण बनती है, अर्थात् अनंतगुणमय आत्मस्वरुप प्रगट हो जाता है । गुण विकास की इन अवस्थाओं के नाम भी उस-उस अवस्था के अनुरूप रखे गए हैं । [१] मिथ्यात्व [२] सास्वादन [३] मिश्र [४] सम्यग्दर्शन [५[ देशविरति [६] प्रमत्त श्रमण [७] अप्रमत्त श्रमण [८] अपूर्वक रण [६] अनिवृत्ति [१०] सूक्ष्मलोभ [११] शान्तमोह [१२] क्षीणमोह [१३] सयोगी [१४] अयोगी। अब यहां एक-एक गुणस्थानक के स्वरूप का संक्षेप में विचार करते हैं। १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक __तात्त्विक दृष्टि से जो परमात्मा नहीं; जो गुरू नहीं; जो धर्म नहीं, उसे परमात्मा-गुरु और धर्म मानना, वह मिथ्यात्व कहलाता है। परन्तु यह व्यक्त मिथ्यात्व कहलाता है। मोहरूप अनादि अव्यक्त मिथ्यात्व तो जीव में हमेशा रहता है । वास्तव में मिथ्यात्व यह गुण नहीं है, फिर भी 'गुणस्थानक' व्यक्त मिथ्यात्व की बुद्धि को अनुलक्षित करके कहा गया है। 1'व्यक्तमिथ्यात्वधीप्राप्तिगुणस्थानतयोच्यते ।' मिथ्यात्व का प्रभाव मदिरा के नशे में चकचूर मनुष्य जिस प्रकार हिताहित को नहीं जानता, उसी प्रकार मिथ्यात्व से मोहित जीव धर्म या अधर्म को नहीं समझता । विवेक नहीं कर सकता । धर्म को अधर्म तथा अधर्म को धर्म मान लेता है । २. सास्वादन-गुणस्थानक पहले औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद, अनंतानुबंधी कषायों में से कीसो एक से जीव फिसलता है परन्तु मिथ्यात्व दशा को प्राप्त करने * 'गुणस्थानक्रमारोह' प्रकरणे श्लोक : २-३-४-५ 1व्यक्त मिथ्यात्व की प्राप्ति को गुणस्थान कहा जाता है । Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानक ] में उसे कुछ देर लगती है । [एक समय से लेकर छ आवलिका तक] वहाँ तक वह सास्वादन कहा जाता है । 'सास्वादन' का प्रभाव यहां अति अल्पकाल में जीव औपशमिक सम्यक्त्व का रहा सहा आस्वादन करता है । जिस प्रकार खीर का भोजन करने पर उल्टी हो जाय, किन्तु उसके बाद भी उसकी डकारें आती हैं, उसी तरह यहां औपशमिक समकित से भ्रष्ट होने पर भी, जहां तक मिथ्यात्व दशा को प्राप्त न करे वहाँ तक औपशमिक सम्यक्त्व का आस्वादन रहता है । ३. मिश्र-गुणस्थानक मिथ्यात्वदशा के बाद ऊपर चढ़ते हुए दूसरी दशा मिश्रगुणस्थानक की होती है । 'सास्वादन-गुणस्थानक' तो नीचे गिरते हुए जीव की एक अवस्था है । 'मिश्र' का अर्थ है सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों का मिश्रण, यह मिश्र-अवस्था मात्र एक अन्तमुहर्त काल तक रहती है। आत्मा की यह एक विलक्षण अवस्था है । यहां जीव में धर्म-अधर्म दोनों पर समबुद्धि से श्रद्धा होती है । 'गुणस्थानक-क्रमारोह' प्रकरण में कहा है - तथा धर्मद्वये श्रद्धा जायते समबद्धितः । मिश्रोऽसौ भण्यते तस्माद् भावो जात्यन्तरात्मकः ॥१५।। मिश्रदृष्टि का प्रभाव यहां आत्मा अतत्त्व का या तत्त्व का पक्षपाती नहीं होता । इस अवस्था में जीव परभव का आयुष्य नहीं बांधता है और मरता भी नहीं है । ४. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक स्वाभाविकता से या उपदेश से यथोक्त तत्त्वों में जीव को रूचि हो, वह सम्यक्त्व कहलाता है । यथोक्तेषु च तत्त्वेषु रुचिर्जीवस्य जायते । निसर्गादुपदेशाद्वा सम्यक्त्वं हि तदुच्यते ॥ - श्री रत्नशेखरसूरि Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] [ ज्ञानसार 'सम्यक्त्व' की महत्ता बताते हुए उपाध्यायजी यशोविजयजी ने 'अध्यात्मसार' प्रकरण में कहा है : 'कनीनिकेव नेत्रस्य कुसुमस्येव सौरभम् । सम्यक्त्वमुच्यते सारः सर्वेषां धर्मकर्मणाम् ।। 'आँख में जैसे पुतली, पुष्प में जैसे सुगंध, उसी प्रकार सब धर्मकार्यों में 'सम्यक्त्व' सारभूत है ।' आत्मा की इस अवस्था में अनन्तानुबंधी कषायों का उदय नहीं होता है परन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होता है । उसके प्रभाव से आत्मा कोई व्रत-नियम नहीं ले सकती । हालांकि यथोक्त तत्त्वों की रुचि जरुर होती है । सम्यक्त्व का प्रभाव सम्यक्त्व का गुण आत्मा में प्रगट होने के बाद प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य, ये पांच गुण आत्मा में प्रगट हो जाते हैं । कृपा-प्रशम-संवेग-निर्वदास्तिक्य-लक्षणाः । गुणा भवन्ति यच्चित्ते, सःस्यात्सम्यक्त्वभूषितः ।। श्री रत्नशेखरसूरि यह समकिती आत्मा परमात्मा, सद्गुरू और संघ की सद्भक्ति करता है तथा परमात्मशासन की उन्नति करता है । भले ही उसमें कोई व्रत-नियम न हो । कहा है : देवे गुरौ च संघे च सद्भक्ति शासनोन्नतिम् । अवतोऽपि करोत्येव स्थितस्तुर्ये गुणालये ॥ ५. देशविरति-गुणस्थानक 'सर्वविरति' गुण का आवारक प्रत्याख्यानावरण कषायों के उदय से यहां आत्मा, सर्व सावधयोग से कुछ अंश तक विराम पाती है। (देशअंश में, विरति-विराम प्राप्त करना ।) अर्थात् पापव्यापारों का सर्वथा त्याग नहीं करती है परन्तु कुछ अंश तक त्याग करती है । १४सर्व विरतिरूपं हि प्रत्याख्यानमावृण्वन्ति इति प्रत्याख्यानावरणाः । -प्रवचनसारोद्धार Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानक ] [ २१ देशविरति का प्रभाव यहां आत्मा अनेक गुणों से युक्त हो जाती है । जिनेन्द्र-भक्ति, गुरू-उपासना, जीवों पर अनुकम्पा, सुपात्रदान, सत्शास्त्र-श्रवण, बारह व्रतों का पालन, + प्रतिमाधारण ............. वगैरह बाह्य तथा अभ्यंतर धर्म-आराधना से आत्मा का जीवन शोभायमान होता है । ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थानक यहां अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय नहीं होता । यहाँ 'संज्वलन' कषायों का उदय होतो है । उससे निद्रा-विकथादि प्रमाद का प्रभाव आत्मा पर पड़ता है । इसलिये इस भूमिका में रही हुई आत्मा को 'प्रमत्त संयत' कहा जाता है ।। _ 'श्री प्रवचन सारोद्धार' ग्रन्थ में 'प्रमत्त संयत' शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है : 'संयच्छति स्म-सर्वसावधयोगेभ्यः सम्यगुपरमति स्मेति संयतः । प्रमाद्यति स्म-मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतः संज्वलनकषानिद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदति स्मेति प्रमत्तः, स चासो संयतश्च प्रमत्तसंयतः ।' सर्व सावद्ययोगों से जो विराम पाता है, उसे 'संयत' कहते हैं । मोहनीयादि कर्मों के उदय से तथा निद्रादि प्रमाद के योग से संयमयोगों में अतिचार लगाता है, इसलिये उसे प्रमत्त कहते हैं । सर्वविरति का प्रभाव आत्मगुणों के विकास की यह एक उच्च भूमिका है । यहाँ आत्मा क्षमा-आर्जव-मार्दव-शौच-संयम-त्याग-सत्य-तप-ब्रह्मचर्य - आकिंचन्य, इन दस यतिधर्मों का पालन करती है । अनित्यादि भावनाओं से भावित होकर विषयकषायों को वश में रखती है। सर्व पापों के त्यागरुप पवित्र जीवन जीती है। किसी भी जीव को वह दुःख नहीं देती है । ७. अप्रमत्त संयत-गुणस्थानक यहां संज्वलन कषायों का उदय मंद हो जाने से निद्रादि प्रमाद + श्रावक की ११ प्रतिमाओं का वर्णन देखो ‘पंचाशक' प्रकरण में । Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] [ ज्ञानसार का प्रभाव रहता नहीं, इससे आत्मा अप्रमादी-अप्रमत्त, महाव्रती बन जाती है । प्रमाद का नाश हो जाने से आत्मा व्रत-शील........आदि गुणों से अलंकृत और ज्ञान-ध्यान की संपत्ति से शोभायमान बनती है । ८. अपूर्वकरण गुणस्थानक अभिनव पाँच पदार्थों के निर्वर्तन को 'अपूर्वकरण' कहा जाता है। ये पाँच पदार्थ इस प्रकार हैं - (१) स्थितिघात (२) रसघात (३) गुणश्रेणि (४) गुणसंक्रम और (५) अपूर्व स्थितिबंध । ' १. स्तितिघात : ज्ञानावरणीयादि कर्मों की दीर्घ स्थिति का अपवर्तनाकरण से अल्पीकरण । २. रसघात : कर्म.परमाणओं में रही हई स्निग्धता की प्रचरता को अपवर्तना-करण से अल्प करना । यह स्थितिघात और रसघात पहले के गुणस्थानों में रहा जीव भी करता है। परन्तु उन गुणस्थानों में विशुद्धि अल्प होने से स्थितिघात तथा रस घात अल्प करता है । यहां विशुद्धि का प्रकर्ष होने से अति विशाल-अपूर्व करता है । ३. गुणश्रेणि : ऐसे कर्मदलिकों को कि जिनका क्षय दीर्घकाल में होना है, उन कर्मदलिकों को अपवर्तनाकरण से विशुद्धि के प्रकर्ष द्वारा नीचे लाए, अर्थात् एक अंतर्मुहूर्त में उदयावलिका के ऊपर, जल्दी क्षय करने के लिये, प्रतिक्षण असंख्य गुणवद्धि से वह दलिकों की रचना करे । ४. गुणसंक्रम : बंधती हई शुभ-अशुभ कर्मप्रकृति में अबध्यमान शुभाशुभ कमंदलिकों को, प्रतिक्षण असंख्य गुणवृद्धि से डालना । ५. अपूर्व स्थितिबंध : अशुद्धिवश जीव पहले कर्मों की दीर्घ स्थिति बाँचता था, अब विशद्धि दारा कर्मों को स्थिति न्योपम के असंख्यातने भाग में हीन-हीनतर-हीनतम बाधता है । + अपर्व-अभिनवं करणं-स्थितिघात-गुणश्रेणि-गुणसंक्रमथितिबंधानां पञ्चानां पदार्थानां निर्वर्तनं यस्यासौ अपर्वकरणः । प्रवचनसारोद्धारे Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थानक ] ९. अनिवृत्ति बादरसंपराय-गुणस्थानक एक समय में अर्थात् समान समय में इस गुणस्थानक पर आये हए सभी जीवों के अध्यवसाय-स्थान समान होते हैं । अर्थात् आत्मा की यह एक ऐसी अनुपम गुण-अवस्था है कि इस अवस्था में रहे हुए सभी जीवों के चित्त की एक-समान स्थिति होती है। अध्यवसायों की समानता होती है । परन्तु इस अवस्था का काल मात्र एक अन्तर्मुहूर्त होता है । शब्द व्युत्पत्ति इस प्रकार है: बादर का मतलब स्थूल, संपराय का अर्थ कषायोदय । स्थल कषायोदय निवत्त नहीं हुआ हो, ऐसी आत्मावस्था का नाम अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानक है । इस गुणस्थान पर प्रथम समय से आरंभ करके प्रति समय अनंतगुण विशुद्ध अध्यवसायस्थान होते हैं, एक अन्तर्मुहर्त में जितना समय हो उतने अध्यवसाय के स्थान इस गुणस्थानप्राप्त जीवों के होते हैं । इस गुणस्थान पर दो प्रकार के जीव होते हैं (१) क्षपक और (२) उपशमक । १०. सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक सूक्ष्म लोभकषायोदय का यह गुणस्थानक है । अर्थात् यहां लोभ का उपशम हो जाता है अथवा क्षय कर दिया जाता है । ११. उपशान्तकषाय-वीतराग-छग्रस्थ गुणस्थानक संक्रमण-उद्वर्तना-अपवर्तना वगैरह करणों द्वारा कषायों को विपाकोदय-प्रदेशोदय दोनों के लिए अयोग्य बना दिया जाता है। अर्थात् कषायों का ऐसा उपशम कर दिया जाता है कि यहां न तो उनका विपाकोदय आता है और न प्रदेशोदय । इस गुणस्थान पर जीव के राग और द्वेष ऐसे शान्त हो गए होते हैं कि वह वीतरागी कहलाता है । उपशान्तकषायी वीतराग होता है । १२. क्षीणकषाय-वीतराग-छमस्थ-गुणस्थानक 'क्षीणा:कषाया यस्य सः क्षीणकषायः' आत्मा में अनादिकाल से रहे हुए कषायों का यहां सर्वथा क्षय हो जाता है। : Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] [ जानमार १३. सयोगी केवली-गुणस्थानक 'केवलं ज्ञानं दर्शनं च विद्यते यस्य सः केवली ।' जिसे केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन हों वह केवली होता है । 'सह योगेन वर्तन्ते ते सयोगा-मनोवाक्कायाः ते यस्य विद्यन्ते सः सयोगी।' मन-वचन-काया के योगों से सहित हो वह सयोगी कहलाता है। केवलज्ञानी को गमनागमन, निमेष-उन्मेषादि काययोग होते हैं, देशनादि वचनयोग होता है । मनःपर्यायज्ञानी और अनुत्तर-देवलोकवासी देवों द्वारा मन से पूछे गये प्रश्नों का जवाब मन से देनेरुप मनोयोग होता है । इस सयोगी-केवली अवस्था का जधन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोनपूर्वकोटि वर्ष होता है । जब एक अन्तर्मुहुर्त आयुष्य शेप रहता है तब वे 'योगनिरोध' करते हैं । योगनिरोध करने के बाद सूक्ष्म क्रिया-अनिवत्ति नामका शुक्ल ध्यान ध्याते हुए शैलेशी में प्रवेश करते हैं । १४. अयोगी केवलो-गुणस्थानक शैलेशीकरण का काल (समय) पाँच हस्व स्वर के उच्चारण काल जितना होता है और यही अयोगी-केवली गुणस्थानक का काल है । शैलेशीकरण के चरम समय के पश्चात् भगवंत उर्ध्वगति प्राप्त करते हैं । अर्थात् ऋज श्रेणि से एक समय में ही लोकान्त में चले जाते हैं । आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने का यह गुणस्थानकों का यथावस्थित विकासक्रम है। अनंत आत्माओं ने इस विकासक्रम से पूर्णता प्राप्त की है और अन्य जीव भो इसो विकासक्रम से पूर्णता प्राप्त करेंगे । ११. नयविचार + प्रमाण से परिच्छिन्न अनंतधर्मात्मक वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाले (दूसरे अंशों का प्रतिक्षेप किए बिना) अध्यवसाय विशेष को 'नय' कहा जाता है । + प्रमाणपरिच्छिन्नस्यानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः एकदेशग्राहिणस्तदितरांशाप्रतिक्षेपिणोऽध्यवसायविशेषा नयाः । ---- जैन तर्कभाषायाम् Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयविचार प्रत्येक पदार्थ अनंत धर्मात्मक होता है । 'प्रमाण' एक पदार्थ को अनन्त धर्मात्मक सिद्ध करता है । जब कि 'नय' उसी पदार्थ के अनंत धर्मों में से किसी एक धर्म को ग्रहण करता है और सिद्ध करता है । परन्तु एक धर्म का ग्रहण करते हुए अर्थात् प्रतिपादन करते हुए दूसरे धर्मों का खण्डन नहीं करता । 'प्रमाण' और 'नय' में यह भेद है। नय प्रमाण का एक देश (अंश)1 है। जिस तरह से समुद्र का एक देश [अंश] समुद्र नहीं कहलाता उसी तरह असमुद्र भी नहीं कहलाता। इसी तरह नयों को प्रमाण नहीं कहा जा सकता तथा अप्रमाण भी नहीं कहा जा सकता । . __श्री 'आवश्यक सूत्र' की टीका में श्रीयुत मलयगिरिजी ने प्रतिपादन किया है कि 'जो नय नयान्तर सापेक्षता से 'स्यात्' पदयुक्त वस्तु का स्वीकार करता है, वह परमार्थ से परिपूर्ण वस्तु का स्वीकार करता है, इसलिये उसका 'प्रमाण' में ही अन्तर्भाव हो जाता है । जो नयान्तर निरपेक्षता से स्वाभिप्रेत धर्म के आग्रह से वस्तु को ग्रहण करने का अभिप्राय धारण करता है वह 'नय' कहलाता है । क्योंकि वह वस्तु के एक अंश का ग्रहण करता है। 'नय' की यह परिभाषा नयवाद को मिथ्यावाद सिद्ध करती है। 'सव्वे नया मिच्छावाईणो' इस आगम की उक्ति से सभी नयों का वाद मिथ्यावाद है । नयान्तर निरपेक्ष नय को महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने 'नयाभास' कहा है । 'श्रीसम्मतितर्क' में सिद्धसेन दिवाकरसूरिजी नयों के मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व का माध्यम इस प्रकार बताते हैं : यथा हि समुद्रैकदेशो न समुद्रो नाप्यसमुद्रस्तथा नया अपि न प्रमाणं चाऽप्रमाणमिति । - जैन तर्कभाषायाम् इह यो नयो नयान्तरसापेक्षतया स्यात्पदलाञ्छितं वस्तु प्रतिपद्यते स परमार्थतः परिपूर्ण वस्तु गृहणाति इति प्रमाण एवान्तर्भवति, यस्तु नयवादान्तरनिरपेक्षतया स्वाभिप्रेतेनैव धर्मेण अवधारणपूर्वक वस्तु परिच्छेत्तुमभिप्रेति स नयः । ---- आवश्यकसूत्र-टीकायाम् Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ तम्हा सव्वे पि मिच्छादिट्ठी सपक्खपड़िबद्धा । अण्णोष्णणिस्सिया उण हवन्ति सम्मत्तसम्भावा ।। २१ ।। 'स्वपक्षप्रतिबद्ध सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं । अन्योन्य सापेक्ष सभी नय समकित दृष्टि हैं ।' * दृष्टान्त द्वारा उपरोक्त कथन को समझाते हुए उन्होंने कहा है ज्ञानसार जहणे लक्खणगुणा वेरुलियाईमणी विसंजुत्ता । रयणाबलिववएस न लहंति महग्घमुल्ला वि ।। २२ ।। तह णिययवायसुविणिच्छिया वि अण्णोष्णपक्ख निरवेक्खा | सम्म सणसद्द सव्वे वि णया ण पार्वति ।। २३ ॥ 'जिस प्रकार विविध लक्षणों से युक्त वैडूर्यादि मणि महान् कीमती होने पर भी, अलग-अलग हो वहाँ तक 'रत्नावलि' नाम प्राप्त नहीं कर सकते, उसी तरह नय भी स्वविषय का प्रतिपादन करने में सुनिश्चित होने पर भी, जब तक अन्योन्यनिरपेक्ष प्रतिपादन करे वहां तक 'सम्यग् - दर्शन' नाम प्राप्त नहीं कर सकते, अर्थात् सुनय नहीं कहलाते । द्रव्याथिक नय पर्यायार्थिक नय प्रत्येक वस्तु के मुख्यरूप से दो अंश होते हैं ( १ ) द्रव्य और ( २ ) पर्याय । वस्तु को जो द्रव्यरुप से ही जाने वह द्रव्यार्थिक नय और जो वस्तु को पर्यायरूप से ही जाने वह पर्यायार्थिक नय कहलाता है । मुख्य तो ये दो ही नय हैं । नैगमादि नय इन दोनों के विकल्प हैं । भगवंत तीर्थंकरदेव के वचनों के मुख्य प्रवक्ता रुप में ये दो नय प्रसिद्ध हैं । 'सम्मति तर्क' में कहा है । तित्थयरवयणसंगह विसेसपत्थारमूलवागरणी । दवट्ठिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्पासि || ३ || तीर्थंकर वचन के विषयभूत ( अभिधेयभूत) द्रव्य - पर्याय है । उनका संग्रहादि नयों द्वारा जो विस्तार किया जाता है, उनके मूल वक्ता द्रव्याfre और पर्यायार्थिक नय हैं । नैगमादि नय उनके विकल्प हैं; भेद हैं । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयविचार द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक नयों के मन्तव्यों का स्पष्ट प्रतिपादन करते हुए 'सम्मति - तर्क' में कहा है : उप्पज्जेति वियंति य भावा नियमेण पज्जवणयस्स । दव्वयिस्स सव्वं सया अणुप्पन्नमविण ॥२१॥ पर्यायार्थिक नय का मंतव्य है कि सर्व भाव उत्पन्न होते हैं और नाश होते हैं अर्थात् प्रतिक्षण भाव उत्पाद - विनाश के स्वभाव वाले हैं । द्रव्यार्थिक नय कहता है कि सब वस्तुएं अनुत्पन्न - अविनिष्ट हैं अर्थात् प्रत्येक भाव स्थिर स्वभाव वाला है । द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद हैं- ( १ ) नैगम ( २ ) संग्रह और ( ३ ) व्यवहार । पर्यायार्थिक नय के चार भेद हैं (१) ऋजुसूत्र ( २ ) शब्द ( ३ ) समभिरूढ़ ( ४ ) एवंभूत | ३५ श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ऋजुसूत्र नय को द्रव्यार्थिक नय का भेद कहते हैं । नैगम सामान्य विशेषादि अनेक धर्मों को यह नय मान्यता देता है अर्थात् 'सत्ता' लक्षण महासामान्य, अवान्तर सामान्य - द्रव्यत्व - गुणत्व- कर्मत्व वगैरह तथा समस्त विशेषों को यह नय मानता है । 'सामान्य विशेषाद्यनेकधर्मोपनयनपरोऽध्यवसाय नैगमः' - जैन तर्कभाषा यह नय अपने मन्तव्य को पुष्ट करते हुए कहता है :'यद्यथाऽवभासते तत्तथाऽभ्युपगन्तव्यम् यथा नीलं नीलतया ।' जो जैसा दिखाई दे उसे वैसा मानना चाहिये । नीले को नीला तथा पीले को पीला । धर्मी और धर्म को एकान्त रुप से भिन्न मानने पर यह नय मिथ्यादृष्टि है अर्थात् नैगमाभास है । न्याय दर्शन तथा वैशेषिक दर्शन धर्मीधर्म को एकान्त भिन्न मानते हैं । संग्रह 'सामान्यप्रतिपादनपर: संग्रह नयः' यह नय कहता है समान्य ही एक तात्त्विक है, विशेष नहीं । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ अशेष विशेष का अपलाप करते हुए सामान्यरूप से ही समस्त विश्व को यह नय मानता है । 1 एकान्त से सत्ता अद्वैत को स्वीकार कर, सकल विशेष का निरसन करने वाला संग्रहाभास है, इस प्रकार महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज कहते हैं । सभी अद्वैतवादी दर्शन और सांख्य दर्शन सत्ताअद्वैत को ही मानते हैं । व्यवहार ज्ञानसार विशेषप्रतिपादनपरो व्यवहारनयः । - श्रीमद् मलयगिरि सामान्य का निरास करते हुए विशेष को ही यह नय मानता है । 'सामान्य' अर्थक्रिया के सामर्थ्य से रहित होने के कारण सकल लोकव्यवहार के मार्ग में नहीं आ सकता । व्यवहार नय कहता है कि 'यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् । वही परमार्थ- दृष्टि से सत् है कि जो अर्थक्रियाकारी है । सामान्य अर्थक्रियाकारी नहीं है अतएव वह सत् नहीं है । यह नय लोकव्यवहार का अनुसरण करता है । जो लोग मानते हैं उसे यह नय मानता है । जैसे लोग भ्रमर को काला कहते हैं । वास्तव में भ्रमर पांच रंगों वाला होता है । फिर भी काला वर्ण स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है, इससे लोग भ्रमर को काला कहते हैं । व्यवहार नय भी भ्रमर को काला कहता है । स्थूल लोकव्यवहार का अनुसरण करनेवाला यह नय द्रव्य - पर्याय के विभाग को अपरमार्थिक मानता है, तब यह व्यवहाराभास कहलाता है । चार्वाक दर्शन इस व्यवहाराभास में से ही उत्पन्न हुआ है । ऋजुसूत्र प्रत्युत्पन्नग्राही ऋजुसूत्रो नयविधिः । -आचार्य श्री मलयगिरिः जो अतीत है वह विनष्ट होने से तथा जो अनागत है वह अनुत्पन्न होने से न तो वे दोनों अर्थक्रिया समर्थ हैं और न प्रमाण के विषय हैं । जो कुछ है वह वर्तमानकालीन वस्तु ही है । भले ही उस वर्तमानकालीन वस्तु के लिंग और वचन भिन्न हों । सत्ताद्वैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेषान् निरराचक्षाण: संग्रहाभासः । जैन तर्कभाषा Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयविचार जैसे अतीत-अनागत वस्तु नहीं है, उसी तरह जो परकीय वस्तु है वह भी परमार्थ से असत् है, क्योंकि वह अपने किसी प्रयोजन की नहीं । ऋजुसूत्र नय निक्षेपों में नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव चारों निक्षेप मानता है । मात्र वर्तमान पर्याय को माननेवाला और सर्वथा द्रव्य का अपलाप करने वाला 'ऋजुसूत्राभास' नय है । बौद्ध दर्शन ऋजुसूत्राभास में से प्रकट हुआ दर्शन है । शब्द इस नय का दूसरा नाम 'साम्प्रत' नय है। यह नय भी ऋजुसूत्र की तरह वर्तमानकालीन वस्तु को ही मानता है। अतीत-अनागत वस्तु को नहीं मानता । वर्तमानकालीन परकीय वस्तु को भी नहीं मानता । निक्षेप में केवल भावनिक्षेप को ही मानता है। नाम-स्थापना और द्रव्य-इन तीनों निक्षेपों को नहीं मानता । इसी तरह लिंग और वचन के भेद से वस्तु का भेद मानता है, . अर्थात् एकवचन वाच्य 'गुरु' का अर्थ अलग और बहुवचन वाच्य 'गुरवः' का अर्थ अलग ! इसी तरह पुल्लिग अर्थ नपुंसकलिंग से वाच्य नहीं और स्त्रीलिंग से भी वाच्य नहीं । नपुंसकलिंग-अर्थ पुल्लिग-वाच्य नहीं और स्त्रीलिंगवाच्य भी नहीं । ऐसा स्त्रीलिंग के लिए भी समझना । यह नय अभिन्न लिंग-वचनवाले पर्याय शब्दों को एकार्थता मानता है । अर्थात् इन्द्र-शक्र-पुरन्दर वगैरह शब्द जिनका कि लिंग-वचन समान है, उन शब्दों की एकार्थता मानता है । उनका अर्थ भिन्न-भिन्न नहीं मानता। 'शब्दाभिधार्थप्रतिक्षेपी शब्दनयाभासः ।' शब्दाभिधेय अर्थ का प्रतिक्षेप (अपलाप) करने वाला नय शब्दनयाभास कहलाता है। समभिरूढ़ - शब्दमय तथा समभिरूढ़ नय में एक भेद है । शब्छ नय अभिन्न लिंग वचनवाले पर्याय शब्दों की एकार्थता मानता है, जबकि समभिरूढ़ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ज्ञानसार नय पर्याय शब्दों की भिन्नार्थता मानता है। शब्द के व्युत्पत्ति-अर्थ को ही मानता है । 'पर्यायशब्देषु निरूक्तिभेदेन भिन्नमर्थं समभिरोहन समभिरूढः ।' ___-जैन तर्कभाषा यह नय पर्यायभेद से अर्थभेद मानता है । पर्याय शब्दों के अर्थ में रहे हुए अभेद की उपेक्षा करता है । इन्द्र, शक्र, पुरन्दर वगैरह शब्दों का अर्थ भिन्न-भिन्न करता है। उदाहरण : इन्दनादिन्द्रः, शकनाच्छनः, पूर्दारणात् पुरन्दरः । 1 एकान्ततः पर्याय-शब्दों के अर्थ में रहे हुए अभेद की उपेक्षा करने वाला नय मिथ्यानय, नयाभास कहलाता है । एवंभूत ____ शब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तभूतक्रियाविष्टमर्थं वाच्यत्वेनाभ्युपगच्छन्नेवम्भतः।' -जैन तर्कभाषा किसी भी शब्द के जिस व्युत्पत्ति-अर्थ के अनुसार क्रिया में परिणत पदार्थ हो वही उस शब्द से वाच्य बनता है । - उदाहरण : गौः [गाय] शब्द का प्रयोग उस समय ही सत्य कहा जा सकता है जब कि वह गमनक्रिया में प्रवृत्त हो, क्योंकि गौः शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ है-'गच्छतीति गौः ।' गाय खड़ी हो कि बैठी हो, तब उसके लिये गौः | गाय] शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता, ऐसा यह नय मानता है। इस प्रकार यह नय क्रिया में अप्रवृत्त वस्तु को शब्द से अवाच्य मानता होने से मिथ्यादृष्टि है । 'क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपन्नेवंभूताभासः ।' __-जैन तर्कभाषा 'क्रिया में अप्रवृत्त वस्तु शब्दवाच्य नहीं है, ऐसा कहने वाला यह नय ‘एवंभूताभास' है ।' इस प्रकार सात नयों का स्वरूप संक्षेप से प्रस्तुत किया गया है। विशेष जिज्ञासावाले मनुष्य को गुरुगम से जिज्ञासा पूर्ण करनी चाहिये । 1पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कक्षीकुर्वाणः समभिरुढ़ाभासः । —जैन तर्कभाषा Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयविचार निश्चयनय-व्यवहारनय 'तात्त्विकार्थाभ्युपगमपरस्तु निश्चय ।' -जैन तर्कभाषा निश्चय नय तात्त्विक अर्थ का स्वीकार करता है। 'भ्रमर' को यह नय पंचवर्ण का मानता है । पाँच वर्ण के पुद्गलों से उसका शरीर बना हुआ होने से भ्रमर तात्विक दृष्टि से पांच वर्ण वाला है । अथवा तो निश्चय नय की परिभाषा इस प्रकार से भी की जाती है : 'सर्वनयमतार्थग्राही निश्चयः' सर्व नयों के अभिमत अर्थ को ग्रहण करने वाला निश्चय नय है । प्रश्न:-सर्वनय-अभिमत अर्थ को ग्रहण करते हुए वह प्रमाण कहलायेगा तो फिर नयत्व का व्याघात नहीं होगा ? उत्तर:-निश्चय नय सर्वनय-अभिमत अर्थ को ग्रहण करता है, फिर भी, उन-उन नयों के अभिमत स्व-अर्थ की प्रधानता को स्वीकार करता है, इसलिये उसका अन्तर्भाव 'प्रमाण' में नहीं होता । ____ 'लोकप्रसिद्धार्थानुवादपरो व्यवहार नयः' ___ लोगों में प्रसिद्ध अर्थ का अनुसरण करने वाला व्यवहार नय ही है। जिस प्रकार लोगों में 'भ्रमर' काला कहा जाता है, तो व्यवहार नय भी भ्रमर को काला मानता है । अथवा 'एकनयमतार्थ ग्राही व्यवहारः' किसी एक नय के अभिप्राय का अनुसरण करने वाला व्यवहार नय कहा जाता है। ज्ञाननय-क्रियानय 'ज्ञानमात्रप्राधान्याभ्युपगमपरा ज्ञान नयाः ।' मात्र ज्ञान की प्रधानता मानने वाला ज्ञाननय कहलाता है । ___ 'क्रियामात्र-प्राधान्याभ्युपगमपराश्च क्रियानयाः ।' मात्र क्रिया की प्रधानता को स्वीकार करने वाला क्रियानय कहलाता है। ऋजुसत्रादि चार नय चारित्ररूप क्रिया की ही प्रधानता मानते हैं, क्योंकि क्रिया ही मोक्ष के प्रति अव्यवहित कारण है । 'शैलेशी' क्रिया के बाद तुरन्त ही आत्मा सिद्धिगति को प्राप्त करती है । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ज्ञानसार नैगम, संग्रह और व्यवहार, ये तीनों नय यद्यपि ज्ञानादि तीनों को मोक्ष का कारण मानते हैं, परन्तु तीनों के समुदाय को नहीं, ज्ञानादि को भिन्न-भिन्न रूप से मोक्ष के कारण रूप स्वीकार करते हैं । ज्ञानादि तीनों से ही मोक्ष होता है, ऐसा नियम ये नय नहीं मानते । अगर ऐसा माने तो वे नय, नय ही न रहें । नयत्व का व्याघात हो जाय । यह ज्ञाननय - क्रियानय का संक्षिप्त स्वरूप है । १२. ज्ञपरिज्ञा - प्रत्याख्यानपरिज्ञा सम्यग् आचार की पूर्व भूमिका में सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता निश्चित रूप से मानी गई है । सम्यग्ज्ञान के बिना आचार में पवित्रता, विशुद्धि और मार्गानुसारिता नहीं आ सकती । 'पापों को जानना और परिहरना, मनुष्य का साधक मनुष्य का यह आदर्श, साधक को पापमुक्त बनाता है । इस आदर्श को श्री 'आचारांग - सूत्र' में 'ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा' की परिभाषा में प्रस्तुत किया गया है । आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में ही चार प्रकार की 'परिज्ञा' बताई गई है । ( १ ) नाम परिज्ञा ( २ ) स्थापना परिज्ञा ( ३ ) ' द्रव्य परिज्ञा ( ४ ) भाव परिज्ञा । उसमें द्रव्य तथा भाव परिज्ञा के दो दो भेद बताए गये हैं: ज्ञपरिज्ञा तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा । - पृथ्वीकायादि षट्काय के आरंभ-समारंभ को कर्मबंध के हेतुरूप में जानना यह ज्ञपरिज्ञा और उन आरम्भ-समारंभ का त्याग करना, उसका नाम प्रत्याख्यानपरिज्ञा है । मुनि इन दोनों परिज्ञाओं से सर्व पाप - आचारों को जाने और उनका त्याग करे । 1 दव्वं जाणण पच्चक्खाणे दविए उवगरणे । भावपरिण्णा जाणण पच्चक्खाण च भावेण ||३७|| 2 — आचारांग० प्र० अध्य० नियुक्तिगाथा पृथिवीविषयाः कर्मसमारम्भाः खननकृष्याद्यात्मकाः कर्मबन्धहेतुत्वेन परिज्ञाता भवन्ति ज्ञपरिज्ञया तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहृता भवन्ति । —-आचारांग, प्र० अध्य० द्वि० उद्दे० सूत्र १८ शीलाङ्काचार्यटीकायाम् Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचास्तिकाय भावपरिज्ञा का विशेष स्पष्टीकरण करते हुए श्री शीलांकाचार्यजी ने कहा है भावपरिज्ञा :-'आगम' से ज्ञपरिज्ञा का ज्ञाता और उसमें उपयोग वाला आत्मा स्वयम् । 'नो आगम' से ज्ञानक्रिया रूप इस अध्ययन अथवा ज्ञपरिज्ञा का ज्ञाता और अनुपयुक्त । प्रत्याख्यानपरिज्ञा भी इसी प्रकार समझना । विशेष में, 'नो आगम' से प्राणातिपातनिवृत्ति त्रिविध-विविध समझने की है । १३. पंचास्तिकाय .. पाँच द्रव्यों का विश्व है। विश्व का ज्ञान करने के लिए पाँच द्रव्यों का ज्ञान करना पड़ता है । विश्व = पाँच द्रव्य 12 3'द्रव्य' परिभाषा १. 'सत्तालक्षणम् द्रव्यम्'-सत्ता जिसका लक्षण है, उसे द्रव्य कहते हैं । यह परिभाषा द्रव्यार्थिक नय से करने में आई है। २. 'उत्पादव्ययध्रौव्यसंयुक्तं द्रव्यम्'-जो उत्पत्ति, विनाश तथा ध्रुवता से संयुक्त हो वह द्रव्य कहलाता है । यह व्याख्या पर्यायाथिक नय से करने में आई है । ३. 'गुणपर्यायवद द्रव्यम्' गुण-पर्याय का जो आधार है वह द्रव्य है। श्री तत्त्वार्थ सूत्र में भी यह व्याख्या की गई है। (अध्याय ५, सूत्र ३७) प्रथम व्याख्या के आधार पर बौद्धदर्शन की मान्यता का खंडन हो जाता है । दूसरी व तीसरी व्याख्या के आधार पर सांख्य व नैयायिक दर्शन का निरसन हो जाता है । 1'जगच्छब्देन सकलधर्माधर्माकाशपुद्गलास्तिकायपरिग्रहः ।' -श्री नन्दीसूत्रटीकायाम् 2 एते धर्मादयश्चत्वारो जीवाश्च पञ्चद्रव्याणि च भवन्ति । -तत्त्वार्थ-भाष्ये, अ० ५ दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्ययधुवत्तसंजुत्तं । गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णं ति सव्वण्हू ॥१०॥ —पचास्तिकपि Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ज्ञानसार अनादिनिधन त्रिकालावस्थायी द्रव्य की उत्पत्ति या विनाश नहीं होता । उत्पत्ति और विनाश द्रव्य के पर्याय हैं । जैसे सोने के कड़े को तोड़कर उसका हार बनाया जाता है, उसमें सोने का नाश नहीं होता, परंतु सोने का जो कड़े के रूप में पर्याय (अवस्था) है, उसका नाश हो जाता है । उसी तरह सोने की उत्पत्ति नहीं होती परन्तु हाररूप पर्याय उत्पन्न हो जाता है । सोना (द्रव्य) तो कायम रहता है। ___1 पर्याय से भिन्न द्रव्य नहीं और द्रव्य से भिन्न पर्याय नहीं । दोनों अनन्यभूत हैं। अर्थात् पर्याय की उत्पत्ति-विनाश, द्रव्य की उत्पत्ति और द्रव्य का नाश कहा जाता है । पंचास्तिकाय धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशातिकाय जीवास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय 3 'अस्ति' अर्थात् प्रदेश और 'काय' यानी समूह-अस्तिकाय है। धर्मास्तिकाय स्वरूप : धर्मास्तिकाय रस, वर्ण, गंध, शब्द और स्पर्श से रहित है । अतः वह अमूर्त है । अवस्थित है, अरूपी है, निष्क्रिय है। असंख्य प्रदेशात्मक है। लोकाकाशव्यापी है, अनादि-अनंत रुप से विस्तीर्ण है। धर्मास्तिकाय के प्रदेश सांतर नहीं परन्तु निरन्तर हैं । 1 दव्वं पज्जवविउयं दव्वविउत्ता य पज्जवा णथि । उप्पायटिइभंगा हदि दवियलक्खणं एयं ।।१२।।। -सम्मति-तर्क तुलना-पज्जयविजुदं दव्वं दव्व विजुत्ता य पज्जवा पत्थि । दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा परुविति ॥ ---पंचास्तिकाय-प्रकरणे 2 पंचास्तिकाया धर्माऽधर्माऽऽकाश-पुद्गलजीवाख्याः । -तत्वार्थ-टीकायां, सिद्धसेनगणि । 3 अस्तयः प्रदेशाः तेषां कायः संघातः अस्तिकायः --अनुयोगद्वारसूत्रे, हेमचन्द्रसूरि Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचास्तिकाय ४३ धम्मस्थिकायमरसं अवण्णगंधं असहमफासं ।। लोगागाढं पुट्ट पिहुलमसंखादियपदेसं ॥८३।। –पंचास्तिकाये कार्य : गतिपरिणत जीव और पुद्गलों की गति में सहकारी कारण है । जिस प्रकार सरोवर, सरिता, समुद्र में रहे हए मत्स्यादि जलचर जंतुओं के चलने में जल निमित्त-कारण बनता है । जलद्रव्य गति में सहायक है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि मत्स्य को वह बलपूर्वक गति कराता है । सिद्ध भगवंत उदासीन होने पर भी सिद्धगुण के अनुराग में परिणत भव्य जीवों की सिद्धि में सहकारी कारण बनते हैं, उसी तरह धर्मास्तिकाय भी स्वयं उदासीन होने पर भी गतिपरिणत जीव-पुद्गल की गति में सहकारी कारण बनता है। जिस प्रकार पानी स्वयं गति किये बिना, मत्स्यों की गति में सहकारी कारण बनता है, उसी तरह धर्मास्तिकाय स्वयं गति किए बिना जीव-पुद्गलों की गति में सहकारी कारण बनता है । अधर्मास्तिकाय जैसा स्वरुप धर्मास्तिकाय का है वैसा ही स्वरुप अधर्मास्तिकाय का है। कार्य में भेद है। जीव-पुद्गलों की स्थिति में अधर्मास्तिकाय सहायक है। जिस प्रकार छाया पथिकों की स्थिरता में सहायक बनती है। अथवा जिस प्रकार पृथ्वी स्वयं स्थिर रही हुई अश्वमनुष्यादि की स्थिरता में बाह्य सहकारी हेतु बनती है। जीव-पुद्गलों की स्थिति का उपादान कारण तो स्वकीय स्वरुप ही है। अधर्मास्तिकाय व्यवहार से निमित्त कारण है । आकाशास्तिकाय लोकालोकव्यापी अनन्त प्रदेशात्मक अमूर्त द्रव्य है । “आकाशा1उदयं जह मच्छाणं गमणाणुगहयरं हवदि लोए । तह जीव पुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणेहि ॥८५।। -पञ्चास्तिकाये जह हवदि धम्मदव्व तह तं जाणेह दव्वमधम्मक्खं । ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ।। --पञ्चास्तिकाये लोकालोकव्याप्यनन्तप्रदेशात्मकोऽमूर्तद्रव्यविशेषः । -अनुयोगद्वारटीका 4जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्णा । तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्तं ॥९१।। -पंचास्तिकाये Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ज्ञानसार स्तिकाय से व्यतिरिक्त द्रव्य मात्र लोकाकाशव्यापी ही है, जब कि आकाशास्तिकाय लोक-अलोक दोनों में व्याप्त है । धर्मास्तिकायादि चार अस्तिकायों को आकाश अवकाश देता है। अर्थात् धर्मास्तिकायादि चार अस्तिकाय लोकाकाश को अवगाहित करते ___'अवगाहिनां धर्मपुद्गलजीवानामवगाह आकाशस्योपकार : ।' -तत्त्वार्थभाष्य, अ. ५ सू. १८ जीवास्तिकाय जो जीता है, जियेगा और जिया है, वह जीव कहलाता है । 'जीवंति जीविष्यन्ति, जीवितवन्त इति जीवाः' संसारी जीव दस प्राणों से जीता है, जिएगा और जिया है। पांच इन्द्रिय, मन-वचन और काया, आयूष्य और उच्छवास, ये दस प्राण हैं । प्रत्येक जीव असंख्यप्रदेशात्मक होता है । स्वदेहव्यापी होता है । अरुपी और अमूर्त होता है । अनुत्पन्न तथा अविनाशी होता है। _ 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' (तत्वार्थ, अ. ५, सू. २१)-अन्योन्य उपकार करना यह जीवों का कार्य है । हित के प्रतिपादन द्वारा और अहित के निषेध द्वारा जीव एक दूसरे पर उपकार कर सकते हैं। पुद्गल नहीं कर सकते । जीव का अंतरंग लक्षण है:-उपयोग । 'उपयोगलक्षणो जीवः' । पुद्गलास्तिकाय जिसका पूरण-गलन स्वभाव हो वह पुद्गल है । अर्थात् जिसमें हानि-वृद्धि हो, उसे पुद्गल कहा जाता है । पुद्गल परमाणु से लगाकर अनन्ताणुक स्कंध तक होते हैं । 'पुद्गल के चार भेद हैं । स्कंध, देश, प्रदेश और परमाणु । पुद्गल रुपी हैं । जिसमें स्पर्श-रस-गंध और वर्ण हो वह पुद्गल कहलाता है । 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः' (तत्त्वार्थ, अ. ५. सू. २३) पंचास्तिकाय में श्री कुन्दकुन्दाचार्यजी ने पुद्गल को पहचानने की रीति बताते हुए कहा है1 खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणु । इति ते चदुवियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा ॥७४।। -पंचास्तिकाय-प्रकरणे Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचास्तिकाय ४५ उवभोज्जमिदिए हि य इंदिया काया मणो य कम्माणि । जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पुग्गलं जाणे ॥८२।। 'इन्द्रियों के उपभोग्य विषय, पाँच इन्द्रियां, औदारिकादि पाँच शरीर, मन और आठ प्रकार के ज्ञानावरणीयादि कर्म, जो कुछ भी मूर्त हैं, वह सब पुद्गल समझना' । श्रो 'तत्त्वार्थ सूत्र' में कहा है : पञ्चविधानि शरीराण्यौदारिकादीनि वाड़ मनः प्राणापानाविति पुद्गलानामुपकारः । -स्वोपज्ञ-भाष्ये, अ० ५, सू० १६ औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण-ये पांच शरीर, वाणी, मन और श्वासोच्छवास, पुद्गलों का उपकार है, अर्थात् ये पुद्गलनिर्मित हैं। __ इस प्रकार पंचास्तिकाय का स्वरुप और उसका कार्य संक्षेप में बताकर अब पंचास्तिकाय की सिद्धि की जाती है। • धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय के बिना जीव और पुद्गलों की गति तथा स्थिति नहीं हो सकती । अगर धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय के बिना भी जीव-पुद्गल की गति-स्थिति हो सकती हो तो लोक की तरह अलोक में भी जीव-पुद्गल जाने चाहिये । अलोक अनंत है । इस लोक में से निकलकर जीव-पुद्गल अलोक में चले जायें और इस प्रकार लोक जीव-शून्य तथा पुद्गलशून्य वन जाय ! न तो ऐसा कभी देखा गया है और न ऐसा ईष्ट है। इसलिये जीव और पुद्गल की गति-स्थिति की उपपत्ति हेतु धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय का अस्तित्त्व सिद्ध होता है । . जीवादि पदार्थों का आधार कौन ? अगर आकाशास्तिकाय को नहीं मानते हैं तो जीवादि पदार्थ निराधार बन जायेंगे । धर्मास्तिकायअधर्मास्तिकाय जीवादि के आधार नहीं बन सकते । वे दोनों तो जीवपुद्गल की गति-स्थिति के नियामक हैं और दूसरे से साध्य कार्य तीसरा नहीं कर सकता । अतः जीवादिकों के आधार रुप से आकाशास्तिकाय की सिद्धि होती है। - प्रत्येक प्राणी में ज्ञानगुण स्वसंवेदनसिद्ध है । गुणी के बगैर गुण का अस्तित्व कैसे हो सकता है ? Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार प्र० स्वसंवेदनसिद्ध ज्ञानगुण का गुणी शरीर को मानो तो ? उ० गुण के अनुरुप गुणी होना चाहिये । ज्ञान गुण अमूर्त और चिद्रुप है। सदैव इन्द्रियविषयातीत है ! गुणी भी उसके अनुरूप होना चाहिये । वह जीव है, देह नहीं । जो अनुरूप न हो, अगर उसे भी गुणी माना जाय तो अनवस्था दोष आता है। तो फिर रुप-रसादि गुणों के गुणी के रुप में आकाश को भी मान लेना चहिये ! - घट....पटादि कार्यों से पुद्गला स्तिकाय का अस्तित्व तो प्रत्यक्ष ही है । १४. कर्मस्वरुप अनादि अनंत काल से जीव कर्मों से बंधा हुआ है । जीव और कर्म का संबंध अनादि है। इससे जीव में अज्ञान, मोह, इन्द्रिय विकलता, कृपणता, दुर्बलता, चार गतियों में परिभ्रमण, उच्च-नीचता, शरीरधारिता वगैरह अनंत प्रकार की विचित्रता दृष्टिगोचर होती है। प्रत्येक जीव के कर्म अलग अलग होते हैं । अपने कर्म के अनुसार जीव सुख-दुःख और दूसरी विचित्रताओं का अनुभव करते हैं। जीवों के बीच ज्ञान, शरोर, बुद्धि, आयुष्य, वैभव, यश-कीति वगैरह सैंकड़ों बातों की विषमता का कारण कर्म है। कर्म कोई काल्पनिक वस्तु नहीं, परन्तु यथार्थ पदार्थ है और उसका पुद्गलास्तिकाय में एक द्रव्यरूप में समावेश है। _ 'कर्म के मुख्य आठ भेद हैं । श्री प्रशमरतिप्रकरण में कहा है : स ज्ञानदर्शनावरणवेद्य-मोहायुषां तथा नाम्नः । गोत्रान्तराययोश्चेति कर्मबन्धोऽष्टधा मौल: ॥३४॥ नाम अवांतर-भेद १-ज्ञानावरणीय २-दर्शनावरणीय 1आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रान्त रायाः । तत्वार्थ अ० ८, सूत्र५ पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिकश्चतु पटकसप्तगुणभेदाः । द्विपञ्चभेद इति सप्तनवति भेदास्तथोत्तरतः ।।३५।।। __ ----प्रशमरतिप्रकरणे पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिद्विचत्वारिंशद द्विपञ्च भेदा यथाक्रमम् । -तत्वार्थ अ०५, सूत्र ६ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्वरुप ४७ ३-वेदनीय ४-मोहनीय ५-आयुष्य ६-नाम ७-गोत्र ८-अंतराय ६७ प्रत्येक कर्म का आत्मा पर भिन्न-भिन्न प्रभाव होता है । आत्मगुण आवरण प्रभाव अनन्त केवलज्ञान अनन्त दर्शन अनन्त सुख क्षायिक चारित्र ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय अज्ञानता अंधापन, निद्रा....आदि सुख-दुःख क्रोधादि, हास्यादि पुरुषवेदादि, मिथ्यात्व चारगति में भ्रमण शरीर, यश-अपयशादि तीर्थकरत्वादि उच्च-नीचता कृपणता, दुर्बलता वगैरह अक्षय स्थिति अमूर्तता आयुष्य नाम अगुरुलघुता अनन्तवीर्य गोत्र अंतराय कर्मबन्धः ___ ज्ञानावरणीयादि कर्म पुद्गलों से आत्मा का बंधना अर्थात् परतंत्रता प्राप्त करना उसे 'बंध' कहते हैं । कर्मबंध पुद्गल-परिणाम है। आत्मा का एक-एक प्रदेश अनंत-अनंत पुद्गलों से बंधा हुआ है । अर्थात् आत्मप्रदेश और कर्मपुद्गल अन्योन्य ऐसे मिल गये हैं कि दोनों का एकत्व हो गया है । जिस प्रकार से क्षीर और नीर का एकत्व हो जाता है। 1 'बध्यते वा येनात्मा-अस्वातन्त्र्यमापाद्यते ज्ञानावरणादिना स बन्धः पुद्गलपरिणामः ।' -तत्त्वार्थ-टीकायां, श्री सिद्धसेनगणि Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ यह 'कर्मबंध चार प्रकार से होता है बंध ( ३ ) अनुभागबंध ( ४ ) प्रदेशबंध । -- - ( १ ) प्रकृतिबंध ( २ ) स्थिति (१) कर्मपुद्गलों को ग्रहण कहना, कर्म और आत्मा की एकता 'प्रकृति बंध' कहलाता है । 'पुद्गलादानं प्रकृतिबंध ः कर्मात्मनोरैक्यलक्षणः ।' (तत्त्वार्थटीकायाम् ) ज्ञानसार (२) कर्मपुद्गलों का आत्मप्रदेशों में अवस्थान वह स्थिति अर्थात् कर्मों का आत्मा में अवस्थानकाल का निर्णय होना वह स्थिति - बंध' कहलाता है। 'कर्मपुद्गलराशेः कर्त्रा परिगृहीतस्यात्मप्रदेशेष्ववस्थानं स्थितिः ।' (तत्त्वार्थ- टीकायाम् ) ( ३ ) शुभाशुभ वेदनीयकर्म के बंध के समय ही रसविशेष बंधता है, जिसका विपाक नामकर्म के गत्यादि स्थानों में रहा हुआ जीव अनुभव करता है । (४) कर्मस्कंधों को आत्मा के सर्व प्रदेशों से योगविशेष से ( मनवचन काया के ) ग्रहण करना, वह प्रदेशबंध होता है । अर्थात् कर्मपुद्गलों का द्रव्यपरिणाम प्रदेशबंध में होता है । 'तस्य कर्तुं : स्वप्रदेशेषु कर्मपुद् गलद्रव्यपरिमाणनिरुपणं प्रदेशबंध: ' ( तत्त्वार्थ- टीकायाम् ) इस प्रकार संक्षेप में कर्म का स्वरुप और कर्मबंध का स्वरूप बताया गया है । विशेष जिज्ञासु को 'कर्मग्रंथ' 'कर्म प्रकृति' 'तत्त्वार्थ सूत्र' आदि ग्रंथों का अवलोकन करना चाहिए । १५. जिनकल्प स्थविरकल्प श्री 'बृहत्कल्पसूत्र' आदि ग्रंथों में विस्तार से जिनकल्प तथा स्थविरकल्प का वर्णन देखने में आता है । ये दोनों कल्प ( आचार) साधु-पुरुषों के लिये हैं । गृहस्थों के लिये नहीं । दोनों कल्पों का प्रतिपादन श्री तीर्थंकर परमात्मा ने किया है । अर्थात् जिनकल्प का साधुजीवन और स्थविरकल्प का साधुजीवन तत्त्वार्थ, अ. ८, सूत्र ४ 2 ' प्रकृतिस्थित्यनुभाव प्रदेशास्तद्विधय: ।' 3 इति कर्मणः प्रकृतयो मूलाश्च तथोत्तराश्च निर्दिष्टाः । तासां यः स्थितिकालनिबन्धः स्थितिबन्ध उक्तः सः ॥ — तत्त्वार्थ- टीकायाम् Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प-स्थविरकल्प 1 [ ४९ दोनों प्रकार के जीवन परमात्मा महावीरदेव ने बताए हैं। दोनों प्रकार के जीवन से मोक्षमार्ग की आराधना हो सकती है । दोनों जीवों के बीच का अन्तर मुख्यतया एक है । जिनकल्प का साधुजीवन मात्र उत्सर्गमार्ग का अवलंबन लेता है । स्थविरकल्प का साधुजोवन उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग-दोनों का अवलंबन लेता है । अर्थात् जिनकल्पी मुनि अपवाद मार्ग का अनुसरण नहीं करते । स्थविरकल्पी मुनि अनुसरण करते हैं । अपवादमार्ग का अनुसरण करनेवाले मुनि भी आराधक हैं । तात्पर्य यह कि मोक्षमार्ग की आराधना के लिए मुख्य रूप से ये दो प्रकार के ही जीवन हैं । प्रस्तुत में जिनकल्प का स्वरूप श्री बृहत्कल्पसूत्र ग्रंथ के आधार पर दिया जाता है : जिनकल्प-स्वीकार की पूर्व तैयारी जिनकल्प स्वीकार करने वाला मुनि अपनी आत्मा को इस प्रकार तैयार करे । तैयारी में पांच प्रकार की भावनाओं से आत्मा को भावित करे । (१) तपो भावना (२) सत्त्व भावना (३) सूत्र भाबना (४) एकत्व भावना (५) बल भावना तप भावना धारण किया हुआ तप जहाँ तक स्वभावभूत न हो जाय वहाँ तक उसका अभ्यास न छोड़े । , एक-एक तप वहाँ तक करे कि जिससे विहित अनुष्ठान की हानि न हो । शुद्ध प्रासुक आहार नहीं मिले तो छः महिने तक भूखा रहे, परन्तु दोषित आहार न ले । Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] [ ज्ञानसार * इस प्रकार तप से वह अल्पाहारी बने, इन्द्रियों को स्पर्शादि विषयों से दूर रखे, मधुर आहार में निःसंग बने, इन्द्रियविजेता बने । सत्त्व भावना इस भावना में मुनि ‘पाँच प्रतिमाओं' का पालन करें । के जनशून्य....मलिन....तथा अन्धकारपूर्ण उपाश्रय में निद्रा का त्याग कर कायोत्सर्ग-ध्यान में खड़ा रहकर भय को जीतकर निर्भय बने । उपाश्रय में फिरनेवाले चूहे, बिल्ली आदि द्वारा होने वाले उपसर्गों से भय प्राप्त न करे, भाग न जाए । उपाश्रय के बाहर रात्रि के समय कायोत्सर्गध्यान में खड़ा रह कर चूहे, बिल्ली, कुत्ते तथा चोरादि के भय को जीते । * जहाँ चार मार्ग मिलते हों, वहाँ जाकर रात्रि के समय ध्यान में रहे । पशु, चोरादि के भय को जीते ।। * खण्डहर........शून्यघर में जाकर रात्रि के समय ध्यान में स्थिर रहकर उपद्रवों से डरे नहीं और निर्भय रहे । * श्मशान में जाकर कायोत्सर्ग ध्यान में खड़ा रहे और सविशेष भयों को जीते । इस प्रकार सत्त्व भावना से अभ्यस्त होने से दिन में या रात में, देव-दानव से भी नहीं डरे और जिनकल्प का निर्भयता से वहन करे । सूत्र भावना काल का प्रमाण जानने के लिये वह ऐसा श्रुताभ्यास करे कि खुद के नाम जैसा अभ्यास हो जाय । सूत्रार्थ के परिशीलन द्वारा, वह अन्य संयमानुष्ठानों के प्रारंभकाल तथा समाप्तिकाल को जान ले । दिन और रात के समय को जान ले । कब कौन सा प्रहर और घड़ी चल रही है, वह जान ले । आवश्यक, भिक्षा, विहार........आदि का समय छाया नापे बिना जान ले । सूत्र भावना से चित्त की एकाग्रता, महान् निर्जरा वगैरह अनेक गुणों को वह सिद्ध करता है । 'सुयभावणाए नाणं दसणं तवसंजमं च परिणमइ' -बृहत्कल्प० गाथा १३४४ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प-स्थविरकल्प ] [ ५१ एकत्व भावना ___ संसारवास का ममत्व तो मुनि पहले ही छोड़ देता है, परन्तु साधुजीवन में आचार्यादि का ममत्व हो जाता है । अतः जिनकल्प की तैयारी करने वाला महात्मा आचार्यादि के साथ भी सस्निग्ध अवलोकन, आलाप, परस्पर गोचरीपानी का आदान-प्रदान, सूत्रार्थ के लिए प्रतिपृच्छा, हास्य, वार्तालाप वगैरह त्याग दे । आहार, उपधि और शरीर का ममत्व भी न करे । इस प्रकार एकत्व भावना द्वारा ऐसा निर्मोही बन जाय कि जिनकल्प स्वीकार करने के बाद स्वजनों का वध होता हुआ देखकर भी क्षोभ प्राप्त न करे । बल भावना ०मनोबल से स्नेहजनित राग और गुणबहुमानजनित राग, दोनों को त्याग दे । ०धृतिबल से आत्मा को सम्यग्भावित करे । इस प्रकार महान् सात्विक, धैर्यसंपन्न, औत्सुक्यरहित, निष्प्रकंपित बनकर परिषह-उपसर्ग को जीतकर वह अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करता है । 'सर्वं सत्वे प्रतिष्ठितम्'-सब सिद्धि सत्व से मिलती है । इस प्रकार पांच भावनाओं से आत्मा को भावित करके जिनकल्पिक के समान बनकर गच्छ में ही रहते हुए द्विविध परिकर्म करे । १. आहार परिकर्म २. उपधि परिकर्म सात पिण्डैषणा में से पहली दो को छोड़कर बाकी की पांच पिण्डैषणा में भिक्षा ग्रहण करे । उसमें भी विविध प्रकार के अभिग्रह धारण करे । अलेपकृत आहार ग्रहण करे, अन्तप्रान्त और रूक्ष आहार ग्रहण करे । उपधिपरिकर्म में वस्त्र और पात्र की चार प्रतिमाओं में से प्रथम दो त्याग दे और अंतिम दो ग्रहण करे । 1सात पिण्डैषणाः 'असंसट्ठा संसट्ठा उद्धड़ा, अप्पलेवा, उग्गमहिआ, पग्गहिया उज्झियधम्मेति । --आचारांगसूत्रे २ श्रुतस्कंधे Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] [ ज्ञानसार 'उत्कुटक' आसन का अभ्यास करे, क्योंकि जिनकल्प में 'औपग्रहिक' उपधि नहीं रखी जाती, इसलिये बैठने का आसन नहीं होता और साधु आसन बिछाये बिना सीधा भूमि-परिभोग नहीं कर सकता, इससे उत्कुटुक (उभड़क) आसन से ही जिनकल्पिक रहता है । अतः इसका अभ्यास पहले कर लेना चाहिए । जिनकल्प-स्वीकार के प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव देखकर, संघ को इकठ्ठा कर ( अगर वहाँ संघ न हो तो स्व-गण के साधुओं को इकठ्ठा कर) क्षमापना करे । परमात्मा तीर्थकर देव के सान्निध्य में अथवा तीर्थंकर न हो तो गणधर के सान्निध्य में क्षमापना करे ।। जइ कि चि पमाएणं न सुट्ठ मे वट्टियं मइ पुट्वि । तं भे खामेमि अहं निस्सल्लो निक्कसाओ अ ।। 'निशल्य और निष्कषाय वनकर मैं, पूर्व के प्रमाद से जो कोई तुम्हारे प्रति दुष्ट कार्य किया हो, उसकी क्षमा माँगता हूँ ।' __ अन्य साधुओं से आनन्दाश्रु बहाते हुए भूमि पर मस्तक लगाकर क्षमापना करे । * साधु को दस प्रकार की समाचारी में से जिनकल्पी को (१) आवश्यिकी (२) नैषेधिकी (३) मिथ्याकार (४) आपृच्छा और (५) गृहस्थविषयक उपसंपत्, ये पाँच प्रकार की समाचारी ही होती है । के जिनकल्प स्वीकार करने वाले साधु को नववें पूर्व की तीसरी वस्तु तक का ज्ञान तो अवश्य होना ही चाहिए । उत्कृष्ट कुछ न्यून दस पूर्व । पहला संघयण (वज्रऋषभनाराच) होना चाहिये । बिना दीनता के उपसर्ग सहन करे अगर रोग-आतंक पैदा हों तो उसको सहन करे । औषधादि चिकित्सा न करावे । लोच, आतापना, तपश्चर्या वगैरह की वेदना सहन करे । *जिनकल्पी अकेले ही रहे और विचरे । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प-स्थविरकल्प ] [ ५३ 'अनापात-असंलोक' स्थंडिल भूमि पर मलोत्सर्ग करे । जल से शुद्धि न करे । जलशुद्धि की जरूरत ही नहीं पड़ती है । मल से बाह्य भाग लिप्त ही नहीं होता । * जिस स्थान में रहे वहाँ चूहे वगैरह का बिल हो तो बंद न करे। वसति-स्थान को खाते हुए पशुओं को न रोके । द्वार के किंवाड़ बंद न करे । सांकल नहीं लगावे । स्थान (उपाश्रयादि) का मालिक अगर किसी प्रकार की शर्त करके उतरने के लिये स्थान देता हो तो उस स्थान में नहीं रहे। किसी को सूक्ष्म भी अप्रीति हो जाय तो उस स्थान का त्याग कर दे। जिस स्थान पर बलि चढ़ती हो, दीपक जलाने में आते हों, अंगार-ज्वालादि का प्रकाश पड़ता हो अथवा उस स्थान का मालिक कोई काम बताता हो, उस स्थान में जिनकल्पिक न रहे । तीसरी पोरसी में भिक्षाचर्या करे । अभिग्रह धारण करे । . भिक्षा अलेपकृत ले : मूंग-चने....वगैरह । जिस क्षेत्र (गांव) में रहे, उसके छः विभाग करे । प्रतिदिन एक-एक विभाग में भिक्षा के लिए जावे। उससे आधाकर्मी दोष वगैरह नहीं लगते । * एक बस्ती में अधिक से अधिक सात जिनकल्पिक रहें । परन्तु परस्पर संभाषण न करें । एक दूसरे की भिक्षा की गली का त्याग करें। जिनकल्प स्वीकार करने वाले का जन्म कर्मभूमि में होना चाहिये। देवादि द्वारा संहरण होने पर अकर्मभूमि में भी हो सकता है। * अवसर्पिणी में तीसरे-चौथे आरे में जन्मा हो । * सामायिक-छेदोपस्थानीय चारित्र में रहा हुआ मुनि जिनकल्प स्वीकार कर सकता है । महाविदेह क्षेत्र में सामायिक-चारित्र में रहा हुआ स्वीकार करता है। परमात्मा धर्मतीर्थ की स्थापना करे, उसके बाद ही जिनकल्प स्वीकार करे । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] [ ज्ञानसार है जिनकल्प स्वीकार करते समय कम से कम उम्र २६ वर्ष की होनी चाहिये । साधुता का पर्याय कम से कम २० वर्ष का होना चाहिये । उत्कृष्टकाल देशोनपूर्वकोटी । * नया श्रुताभ्यास नहीं करे । पूर्वोपार्जित श्रुतज्ञान का एकाग्र मन से स्मरण करे । * जिनकल्प पुरुष ही स्वीकार कर सकता है । अथवा कृत्रिम नपुंसक लिंगी भी स्वीकार कर सकता है । * जिनकल्पी का वेश जिनकल्प स्वीकार करते समय साधु का हो । भाव भी साधु के हों । पीछे से बाह्यवेश चोरादि द्वारा ले लिया जाय तो नग्न रहे । जिनकल्प स्वीकारते समय तेजो - पद्म - शुक्ल तीन शुभ लेश्या हों । पीछे से छःओं लेश्याएं हो सकती हैं । परन्तु कृष्ण-नील- कापोत लेश्या अति संक्लिष्ट नहीं होती और अधिक समय नहीं रहती । * जिनकल्प स्वीकारते हुए प्रवर्द्ध मान धर्मध्यान नहीं होता । पीछे से आर्त्तध्यान- रौद्रध्यान भी हो सकता है कर्म की विचित्रता से ! परन्तु शुभ भावों की प्रबलता होने से आर्त- रौद्रध्यान के अनुबंध प्रायः नहीं पड़ते । * एक समय में जिनकल्प स्वीकारने वाले अधिक से अधिक दो सौ से नौ सौ हो सकते हैं । * जिन कल्पियों की उत्कृष्ट संख्या दो हजार से नौ हजार तक हो सकती है । अल्पकालिक अभिग्रह जिनकल्पी को नहीं होते । 'जिनकल्प' स्वयं ही जिन्दगी का महान् अभिग्रह है । * जिनकल्पी किसी को दीक्षा नहीं देता है । अगर उन्हें ज्ञान द्वारा दिखाई पड़े कि 'यह दीक्षा लेने वाला है', तो उपदेश दे और संविग्न गीतार्थ साधुओं के पास भेज देवे । * मन से भी अगर सूक्ष्म अतिचार लग जाय तो प्रायश्चित १२० उपवास आता है । ऐसा कोई कारण नहीं जिससे अपवादपद का सेवन करना पड़ता हो । आँख का मल भी दूर नहीं करे । चिकित्सादि नहीं करावे । Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्ग-परिसह ] [ ५५ तीसरी पोरसी में आहार-विहार करे । शेषकाल में कायोत्सर्ग ध्यान में रहे । जंघाबल क्षीण हो जाय, विहार न कर सके तो भी एक क्षेत्र में रहते हुए दोष न लगने देवें और अपने कल्प का अनुपालन करें । स्थविरकल्पी मुनि पुष्टालंबन से अपवाद-मार्ग का भी आसेवन करे । स्थविरकल्पी मुनि गुरुकुलवास में रहें और गच्छवास की मर्यादाओं का पालन करे । १६. उपसर्ग-परिसह . उपसर्ग का अर्थ है कष्ट, आपत्ति । जब श्रमण भगवान महावीर देव ने संसारत्याग किया था तब इन्द्र ने प्रभु से प्रार्थना की थी : "प्रभो ! तवोपसर्गाः भूयांसः सन्ति ततो द्वादशवर्षों यावत् वैयावत्यनिमित्तं तवान्तिके तिष्ठामि !" हे प्रभो ! आपको अनेक उपसर्ग हैं इसलिए बारह वर्ष तक मैं वैयावच्च (सेवा) के लिए आपके पास रहता हूं।' भगवान को उपसर्ग आये अर्थात् कष्ट हुए। ये उपसर्ग तीन वर्गों से आते हैं। १. देव २. मनुष्य ३. तिर्यंच। इन तीन की तरफ से दो प्रकार के उपसर्ग होते हैं: १. अनुकूल २. प्रतिकूल (१) भोग-संभोग की प्रार्थना आदि अनुकूल उपसर्ग हैं ।। (२) मारना, लूटना, तंग करना आदि प्रतिकूल उपसर्ग हैं। शास्त्रीय भाषा में अनुकूल उपसर्ग को 'अनुलोम उपसर्ग' कहते हैं और प्रतिकूल उपसर्ग को 'पडिलोम उपसर्ग' कहते हैं ।। जिनको अंतरंग शत्रु काम-क्रोध-लोभ आदि पर विजय प्राप्त करने की साधना करनी हो उन्हें ये उपसर्ग समता भाव से सहन करने चाहिए। भगवान महावीर ऐसे उपसर्ग सहकर हो वीतराग-सर्वज्ञ बने थे । 1. जे केई उपसग्गा उप्पज्जति तं जहा दिव्वा वा माणुसा वा, तिरिक्ख-जोणिया वा, अणुलोमा वा, पडिलोमा वा, ते उप्पन्ने सम्मं सहइ, खमइ, तितिक्खइ, अहियासेइ । -कल्पसूत्रः सूत्र ११८ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ज्ञानसार परिसह : __ मोक्ष मार्ग में स्थिर होना और कर्मनिर्जरा के लिए सम्यक सहन करने को परिसह कहते हैं । परन्तु यह परिसह जीवन की स्वाभाविक परिस्थितियों में से उत्पन्न हुए कष्ट होते हैं। परिसह में कोई देव, मनुष्य या तिर्यंच के अनुकूल-प्रतिकूल हमले नहीं होते हैं। परिसह का उद्भवस्थान मनुष्यों का स्वयं का मन होता है । बाह्य निमित्तों को प्राप्त कर मन में उठता हुआ क्षोभ है । ये परिसह २२ प्रकार के हैं। 'नवतत्व प्रकरण' आदि ग्रन्थों में इनका स्पष्ट वर्णन मिलता है। (१) क्षुधा : भूख लगना । (२) पिपासा : प्यास लगना । (३) शीत : सर्दी लगना । (४) ऊष्ण : गर्मी लगना । (५) दंश : मच्छरों आदि से तकलीफ । (६) अचेल : जीर्ण वस्त्र पहनना । (७) अरति : संयम में अरुचि । (८) स्त्री : स्त्री को देखकर विकार होना । (8) चर्या : उन विहार ।। (१०) नैषधिकी : एकान्त स्थान में रहना । (११) शय्या : ऊंची नीची खड्ड वाली जमीन पर रहना । (१२) आक्रोश : दूसरों का क्रोध या तिरस्कार होना । (१३) वध : प्रहार होना । (१४) याचना : भिक्षा मांगना । (१५) अलाभ : इच्छित वस्तु नहीं मिलना । (१६) रोग : रोग की पीड़ा होना । (१७) तृणस्पर्श : संथारे पर बिछाये हुए घास का स्पर्श । (१८) मल : शरीर पर मैल (कचरा) जमना । (१६) सत्कार : मान-सम्मान मिलना । (२०) प्रज्ञा : बुद्धि का गर्व । (२१) अज्ञान : ज्ञान प्राप्त नहीं होना । (२२) सम्बकत्व : जिनोक्त तत्त्व में संदेह करना । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांच शरीर ] _1 इन परिसहों में विचलित नहीं होना । सम्यक् भाव से सहन करना । साधुजीवन में आनेवाले इन विघ्नों को समताभाव से सहन करना चाहिए । इससे मोक्षमार्ग में स्थिरता प्राप्त होती है और कर्मों की निर्जरा होती है । १७. पांच शरीर इस विश्व में जीवों का शरीर सिर्फ एक तरह का ही नहीं है । चार गतिमय इस विश्व में पांच प्रकार के शरीर होते हैं। ये पांच भेद शरीर के आकार के माध्यम से नहीं हैं परन्तु शरीर जिन पुद्गलों से बनता है, इन पुद्गलों के वर्ण के माध्यम से है । यहाँ शरीर के अंगों का विवेचन 'विचारपंचाशिका' नामक ग्रंथ के आधार से किया गया है । शरीर के नाम (१) औदारिक (२) वैक्रिय (३) आहारक (४) तैजस (५) कार्मण शरीर की बनावट : पाँच प्रकार के द्रव्यों में एक द्रव्य है पुद्गलास्तिकाय । ये पुद्गल चौदह राजलोक में व्याप्त हैं । इनकी २६ वर्गणायें (विभाग) हैं । इसमें जीवनोपयोगी केवल ८ वर्गणायें हैं। इसमें जो 'औदारिक वर्गणा' है, उससे औदारिक शरीर बनता है । 'वैक्रिय वर्गणा' के पुद्गलों से वैक्रिय शरीर बनता है । 'आहारक वर्गणा' के पुद्गलों से 'आहारक शरीर' बनता है। तैजस वर्गणा के पुदगलों से तैजस शरीर बनता है और कार्मण वर्गणा के पुद्गलों से कार्मण शरीर बनता है। जैसे मिट्टी के पुद्गलों से 1. मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परिसहाः ।। ८ ॥ क्षुत्पिपासाशीतोष्णशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याऽऽक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि । ___ तत्वार्थसूत्र : अध्याय ९ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] [ ज्ञानसार मिट्टी के घड़े बनते हैं, सोने के पुद्गलों से सोने का घड़ा और चांदी के पुद्गलों से चांदी का घड़ा बनता है, उसी तरह इन पुदगलों से उनके अनुरुप शरीर बनता हैं । किसका कौन सा शरीर होता है : - तिर्यंच एवं मनुष्य का औदारिक शरीर होता है । - देव और नारकीय जीव का वैक्रिय शरीर होता है। (वक्रिय लब्धिवाले तिर्यंच और मनुष्य को भी वैक्रिय शरीर होता है ।) - चौदह पूर्व के ज्ञानी मनुष्यों का आहारक शरीर होता है । - सर्व गति के सर्व जीवों का तैजस और कार्मण शरीर होता है । शरीरों का प्रयोजन : - औदारिक शरीर से सुख-दुःख का अनुभव करना, चारित्र धर्म का पालन करना और निर्वाण प्राप्त करने का कार्य होता है ।। . वैक्रिय शरीर वाले जीव अपना स्थूल एवं सूक्ष्म अनेक रुप कर सकते हैं । शरीर लम्बा या छोटा बना सकते हैं । - आहारक शरीर, चौदह पूर्वधर ज्ञानी पुरुष आवश्यकता होती है तब ही बनाते हैं । आहारक वर्गणा के पुद्गलों को ज्ञानबल से खींचकर यह शरीर बनाते हैं । वे इस शरीर के माध्यम से महाविदेह क्षेत्र में जाते हैं, वहां तीर्थंकर भगवंतों से अपने संशयों का निराकरण करते हैं, फिर शरीर का विसर्जन कर देते हैं । - तैजस शरीर खाये हुए आहार का परिपाक करता है । इस शरीर के माध्यम से शाप दे सकते हैं और आशीर्वाद भी दे सकते हैं। - कार्मण शरीर द्वारा जीव एक भव से दूसरे भव में जाता है । इन पांचों शरीर से आत्मा की मुक्ति हो तब ही आत्मा सिद्ध हुआ, ऐसा कह सकते हैं। मुक्त होने का पुरुषार्थ औदारिक शरीर से होता है। १८. बीस स्थानक तप 'कर्मणां तापनात् तपः' कर्मों को तपावे नष्ट करे उसे तप कहते हैं । ऐसे तरह तरह के तप शास्त्रों में बताये गये हैं। तीर्थंकर नामकम बंधाने वाला मुख्य तप बीस स्थानक की आराधना का तप है । Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीस स्थानक तप ] [ ५९ नीचे के सात स्थानों में अनुराग, गुण-स्तुति और भक्ति-सेवा, ये आराधना करनी होती है । (१) तीर्थंकर : अष्ट प्रातिहार्य की शोभा के योग्य । (२) सिद्ध : सर्व कर्मरहित, परम सुखी और कृत-कृत्य । (३) प्रवचन : द्वादशांगी और चतुर्विध संघ । (४) गुरु : यथावस्थित शास्त्रार्थ कहने वाले । धर्म-उपदेश आदि देने वाले । (५) स्थविर : वयस्थविर (६० वर्ष से ज्यादा) श्रुत स्थविर (समवायांग तक के ज्ञाता) पर्याय स्थविर (२० वर्ष का दीक्षित) (६) बहुश्रुत : जो महान ज्ञानी हो । (७) तपस्वी : अनेक प्रकार के तप करने वाले तपस्वी मुनि । (८) निरंतर ज्ञानोपयोग : हर समय ज्ञान का उपयोग । (6) दर्शन : सम्यग दर्शन । (१०) विनय : ज्ञान आदि का विनय । (११) आवश्यक : प्रतिक्रमणादि दैनिक धर्म क्रिया । (१२-१३) शील-व्रत : शील यानी उत्तर गुण, व्रत यानी मूलगुण । (१४) क्षण-लव-समाधि : क्षण, लव आदि काल के नाम हैं । अमुक समय निरंतर संवेगभावित होकर ध्यान करना । (१५) त्याग समाधि : त्याग दो प्रकार के हैं; द्रव्य त्याग और भाव त्याग । ___ अयोग्य आहार, उपधि आदि का त्याग और सुयोग्य आहार-उपधि आदि साधुजनों को वितरण । यह द्रव्य त्याग है । क्रोध आदि अशुभ भावों का त्याग और ज्ञान आदि शुभ भावों का साधुजनों को वितरणयह भावत्याग है । इन दोनों तरह के त्याग में शक्ति अनुसार निरंतर प्रवृत्ति करनी चाहिए। (१६) तप समाधि : बाह्य-आभ्यंतर बारह प्रकार के तप में शक्ति अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] [ ज्ञानसार (१७) दसविध वैयावच्च : आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्षक, कुल, गुण, संघ और साधर्मिक आदि की १३ प्रकार से वैयावच्च करनी चाहिए । (१) भोजन (२) पानी (३) आसन (४) उपकरण-पडिलेहण (५) पाद-प्रमार्जन (६) वस्त्र-प्रदान (७) औषध प्रदान (८) मार्ग में सहायता (६) दुष्टों से रक्षण (१०) दंड (डंडा) ग्रहण (११) मात्रक-अर्पण (१२) संज्ञामात्रक अर्पण, और (१३) श्लेष्ममात्रक अर्पण । (१८) अपूर्व ज्ञानग्रहण : नया नया ज्ञान प्राप्त करना । (१६) श्रुतभक्ति : ज्ञानभक्ति । (२०) प्रवचनप्रभावना : जिनोक्त तत्त्वों का उपदेश आदि देना । पहले और अंतिम तीर्थंकर ने (ऋषभदेव और महावीर स्वामी) इन बीस स्थानकों की आराधना की थी। मध्य के २२ तीर्थंकरों में से किसी ने दो, किसी ने तीन....किसी ने सब स्थानकों की आराधना की थी। (- प्रवचनसारोद्धार : द्वार : १० के अनुसार ) बीस स्थानक तप की आराधना की प्रचलित विधि निम्न प्रकार है। • एक एक स्थानक की एक एक ओली की जाती है । एक ओली २० अट्टम की होती है । अट्टम (३ उपवास) करने की शक्ति न हो तो २० छठु (दो उपवास) करके ओली हो सकती है । अगर यह भी शक्ति न हो तो २० उपवास, २० आयंबिल या २० एकासणा करके भी ओली हो सकती है । - एक ओली ६ महिनों में पूर्ण करनी चाहिए। . . ओली की आराधना के दिन पौषधव्रत करना चाहिए । सब पदों की आराधना में पौषधव्रत नहीं कर सकते हैं तो पहले सात पद की ओली में तो पौषधव्रत करना ही चाहिए । पौषध की अनुकूलता न हो तो देशावगासिक व्रत (८ सामायिक और प्रतिक्रमण) करें । - ओली के दिनों में प्रतिक्रमण, देव वंदन, ब्रह्मचर्य पालन, भूमिशयन आदि नियमों का पालन करना चाहिए । हिंसामय व्यापार का त्याग, असत्य और चोरी का त्याग....प्रमाद का त्याग करना चाहिए । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीस स्थानक तप ] [ ६१ - २० स्थानक की २० ओली पूर्ण करने पर महोत्सव करें; प्रभावना करें, उजमणा करके इस महान तप की आराधना पूर्ण होने का आनंद व्यक्त करें । - अगर ६ महिनों में एक ओली न हो तो वापिस ओली चालू करनी पड़ती है। - हर एक ओली के दिन जिनेश्वर भगवान के समक्ष स्वस्तिक, खमासमण और काउसग्ग करना चाहिए। हर एक पद को २० नवकारवाली गिननी चाहिए । - ये सब क्रिया करके उन पद के गुणों का स्मरण-चिंतन करके आनंदित होना चाहिए । जाप का पद | स्वस्तिक | खमासमण काउ.लो. नवकार - ل ل ل ل ل ل ل ل ل ل ॐ नमो अरिहंताणं ॐ नमो सिद्धाणं ॐ नमो पवयणस्स ॐ नमो आयरियाणं ॐ नमो थेराणं ॐ नमो उवज्झायाणं ॐ नमो लोए सव्वसाहणं ॐ नमो नाणस्स ॐ नमो दंसणस्स ॐ नमो विणयसंपन्नस्स ॐ नमो चारित्तस्स ॐ नमो बंभवयधारिणं ॐ नमो किरियाणं ॐ नमो तवस्स ॐ नमो गोयमस्स ॐ नमो जिणाणं ॐ नमो संयमस्स ॐ नमो अभिनवनाणस्स ॐ नमो सुयस्स ॐ नमो तित्थस्स arrrrrrrr-9 miraramrorrorm Mero1990sro9० arm YmrowNNXr9 Mrwomrarm 1006 moCOWGNGK00GmW -rrrorNNxxxn Marnar nagwomg9OVOOOWON ०००००००००००००००००००० ا ل ل ل ل ل ل ل ل ل 'बीस स्थानक पद पूजा' तथा 'विधिप्रपा' आदि ग्रंथों से यह विधिसंकलित की गई है। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] ज्ञानसार १९. उपशम श्रेणी 'अप्रमत्तसंयत' गुणस्थानक में रही हई आत्मा उपशम श्रेणी का प्रारंभ करती है । इस श्रेणी में 'मोहनीय कर्म' की उत्तर प्रकृतियों का क्रमश: उपशम होता है, इसलिए इसको 'उपशम श्रेणी' कहा जाता है। दूसरा मत यह है कि अनंतानुबंधी कषाय का उपशमन अप्रमत्तसंयत ही नहीं परंतु अविरत, देश-विरत, प्रमत्त-संयत, अप्रमत्त-संयत भी कर सकते हैं। परंतु दर्शन त्रिक (सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय) का उपशमन तो संयत ही कर सकता है, यह सर्वसम्मत नियम है । अनंतानुबंधी कषाय का उपशमन : - ४-५-६-७ गुणस्थानकों में से किसी एक गुणस्थानक में रहता है। - तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ल लेश्या में से किसी एक लेश्यावाला। - मन, वचन, काया के योगों में से किसी योग में वर्तमान । - साकार उपयोग वाला । - अन्त: कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थितिवाला । - श्रेणी के करण-काल पूर्व भी अन्तर्मुहूर्त काल तक विशुद्ध चित्तवाला । - परावर्तमान प्रकृतियां (शुभ) बांधनेवाला । प्रति समय शुभ प्रकृति में अनुभाग की वृद्धि और अशुभ प्रकृति में अनुभाग की हानि करता है। पहले कर्मों की जितनी स्थिति बांधता था अब उन कर्मों की पहले के स्थितिबंध की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून स्थिति बांधता है। __ इस तरह अन्तमुहर्त पूर्ण होने के बाद यथाप्रवृत्ति-करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करता है । हर एक करण का समय अन्तमुहूर्त होता है । फिर आत्मा उपशमकाल में प्रवेश करती है । यथाप्रवृत्तिकरण में व्यवहार करती आत्मा (प्रति समय उत्तरोत्तर अनंतगुण विशुद्ध होने से ) शुभ प्रकृतियों के रस में अनंत गुनी वृद्धि Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशम श्रेणी ] [ ६३ करते हैं । अशुभ प्रकृति के रस में हानि करते हैं, पूर्व स्थितिबंध की अपेक्षा से पल्योपम के असंख्यात भाग न्यून.... न्यून.... स्थितिबंध करता है | परंतु यहां स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि या गुणसंक्रम नहीं होता है, क्योंकि उसके लिए आवश्यक विशुद्धि का अभाव होता है । अन्तर्मुहूर्त के बाद अपूर्वकरण करता है । यहाँ स्थितिघात आदि पांचों होते हैं । अपूर्वकरणकाल समाप्त होने के बाद अनिवृत्तिकरण होता है, इसमें भी स्थितिघातादि पांचों होते हैं । इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त का ही होता है । इस अनिवृत्तिकरण का संख्यात भाग बीतने पर जब एक भाग बाकी रहता है तब अन्तरकरण करता है । अनन्तानुबंधी कषाय के एक आवलिका प्रमाण निषेकों को छोड़कर ऊपर के निषेकों का अन्तरकरण करता है । अन्तरकरण के दलिकों को वहाँ से उठा उठा कर बध्यमान अन्य प्रकृतियों में डालता है; और नीचे की स्थिति जो एक आवलिका प्रमाण होती है उसके दलिक को भोगी जा रही अन्य प्रकृति में 'स्तिबुक संक्रम' द्वारा डालकर भोगकर क्षय करता है । अन्तरकरण के दूसरे समय में अन्तरकरण की ऊपर की स्थिति वाले दलिकों का उपशम करते हैं । पहले समय में कुछ दलिकों का उपशम करते हैं, दूसरे समय में असंख्यात गुना, तीसरे समय में उससे असंख्यातगुना । इस प्रकार प्रति समय असंख्यातगुना - असंख्यातगुना दलिकों का उपशम करते हैं । अन्तर्मुहूर्त पूर्ण होते ही संपूर्ण अनंतानुबंधी कषायों का उपशम होता है । उपशम की व्याख्या : धूल के ऊपर पानी डालकर घन के द्वारा कूटने से जैसे धूल जम जाती है इसी तरह कर्मों पर विशुद्धिरूप जल छींटकर अनिवृत्तिकरणरूपी घन द्वारा कूटने से जम जाती है ! यही उपशम कहलाता है । उपशम होने के बाद उदय, उदीरणा, निधत्ति, निकाचना आदि करण नहीं लग सकते हैं अर्थात् उपशम हुए कर्मों का उदय.... उदीरणा आदि नहीं होते हैं । अन्य मत : कुछ आचार्य अनंतानुबंधी कषाय का उपशमन नहीं मानते हैं, परंतु विसंयोजना या क्षपण ही मानते हैं । Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] [ ज्ञानसार दर्शनत्रिक का उपशमन : क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि आत्मा (संयम में रहते हुए) एक अन्तमुहर्त काल में दर्शनत्रिक, (समकित मोहनीय, मिश्र मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय) का उपशमन करते हैं । उपशमन करते हुए-पूर्वोक्त तीन करण करते हुए बढ़ती विशुद्धि वाला अनिवत्तिकरण काल के असंख्य भाग के बाद अन्तरकरण करता है। अन्तरकरण में सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण करता है और मिथ्यात्व-मिश्र की आवलिका प्रमाण स्थिति करता है । इसके बाद तीनों प्रकृति के अन्तमुहर्त प्रमाण अंतरकरण के दलिक को वहाँ से उठा उठा कर सम्यक्त्व की अन्तमुहर्त प्रमाण प्रथम स्थिति में डालता है । मिथ्यात्व और मिश्र का एक आवलिका प्रमाण जो प्रथम स्थितिगत दलिक है उसे स्तिबुक संक्रम द्वारा सम्यक्त्व की प्रथम स्थिति में संक्रमण कराता है। सम्यक्त्व के प्रथम स्थितिगत दलिकों को भोगकर क्षय करता है। इस तरह क्रमशः दर्शन त्रिक का क्षय होने के उपरान्त उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है । दर्शनत्रिक की उपर्युक्त स्थिति में रहे हुए दलिकों का उपशमन करता है । इस प्रकार दर्शनत्रिक का उपशमन करते हुए प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानक में सैकड़ों बार आवागमन करता हुआ वापिस चारित्र मोहनीय का उपशमन करने के लिए प्रवृत्त होता है । चारित्र मोहनीय का उपशमन : चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन करने के लिए पुनः तीन करण करने पड़ते हैं। उसमें यह विशेष है कि यथाप्रवृत्तिकरण अप्रमत्त गुणस्थानक में होता है । अपूर्वकरण अपूर्वकरण गुणस्थानक में होता है । अपूर्वकरण में स्थितिघातादि पांचों कार्य होने के बाद अनिवत्तिकरण गुणस्थानक में अनिवत्तिकरण करता है । यहाँ भी पूर्वोक्त पांचों कार्य होते हैं। ___अनिवत्तिकरण- काल के संख्यात भाग बीत जाने के बाद मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों का अंतरकरण करता है । (दर्शन सप्तक के अलावा २१ प्रकृति) वहाँ जो वेद और संज्वलन कषाय का उदय हो उसके उदयकाल प्रमाण प्रथम स्थिति करता है । शेष ११ कषाय और ८ नोकषाय की आवलिका-प्रमाण प्रथम स्थिति करता है । Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशम श्रेणी ] [ ६५ अन्तरकरण करके अंतमुहर्त काल में नपुंसकवेद का उपशमन करता है । उसके बाद अन्तमुहूर्त काल में स्त्रीवेद का उपशमन करता है । उसके बाद अन्तमुहूर्त में हास्यादि षट्क का शमन करता है और उसी समय पुरुषवेद के बंध-उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है । इसके उपरान्त दो आवलिका काल में (एक समय कम ) सम्पूर्ण पुरुषवेद का विच्छेद करता है । __फिर अन्तर्मुहूर्त काल में एक साथ ही अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकषाय का उपशमन करता है । ये उपशांत होते हो उसी समय संज्वलन क्रोध के बन्ध-उदय-उदीरणा का विच्छेद होता है । इसके बाद आवलिका (एक समय कम) में संज्वलन क्रोध का उपशमन करता है। काल के इस क्रम से ही अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानावरण मान का एक साथ ही उपशमन करता है । फिर संज्वलन मान का उपशमन करता है । (बंध-उदय-उदीरणा का विच्छेद करता है ।) इसके उपरांत वह लोभ का वेदक बनता है। लोभवेदनकाल के तीन विभाग हैं : (१) अश्वकर्ण-करण काल (२) किट्टिकरण-काल (३) किट्टिवेदन-काल (१) प्रथम विभाग में संज्वलन लोभ की दूसरी स्थिति से दलिकों को ग्रहण कर प्रथम स्थिति बनाता है और वेदन करता है । अश्वकर्ण-करणकाल में रहा हुआ जीव प्रथम समय में ही अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन- इन तीनों लोभ का एक साथ उपशमन प्रारम्भ करता है । विशुद्धि में चढता हुआ जीव अपूर्व स्पर्धक करता है । इसके बाद संज्वलन माया का समयन्यून दो आवलिका काल में उपशमन करता है । इस तरह अश्वकणे करण समाप्त होता है । (२) किट्रिकरण-काल में पूर्व स्पर्धक और अपूर्व स्पर्धकों में से द्वितीय स्थिति में रहे हुए दलिकों को लेकर प्रति समय अनंत किट्टियाँ करता है । किट्रोकरण काल के चरम-समय में एक साथ अप्रत्याख्याना Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार वरण-प्रत्याख्यानावरण लोभ का उपशमन करता है । यह उपशमन होते ही संज्वलन लोभ के बंध का विच्छेद होता है और बादर संज्वलन लोभ के उदय-उदीरणा का विच्छेद होता है । इसके उपरान्त जीव सूक्ष्म संपरायवाला बनता है । (३) किट्टिवेदन-काल दसवें गुणस्थानक का काल है। (अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल है ।) यहाँ दूसरी स्थिति से कुछ किट्टियां ग्रहण करके सूक्ष्म संपराय के काल जितनी प्रथम स्थिति बनाता है और वेदन करता है । समयन्यून दो आवलिका में बंधे हुए दलिक का उपशमन करता है । सूक्ष्म संपराय के अन्तिम समय में संपूर्ण संज्वलन लोभ उपशान्त होता है । आत्मा उपशान्तमोही बनती है । उपशान्तमोह-गुणस्थानक का जघन्यकाल एक समय का है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त का है, इसके बाद वे अवश्य गिरते हैं । पतन : उपशान्तमोही आत्मा का पतन दो तरह से होता है । (१) आयुष्य पूर्ण होने से मृत्यु होती है और अनुत्तर देवलोक में अवश्य जाते हैं । देवलोक में उन्हें प्रथम समय में ही चौथा गुणस्थानक प्राप्त होता है। (२) उपशान्तमोह-गुणस्थानक का काल पूर्ण होने से जो जीव गिरे-वह नीचे किसी भी गुणस्थानक में पहुँच जाता है । दूसरे सास्वादन गुणस्थानक में होकर पहले मिथ्यात्व गुणस्थानक में भी जाता है । उपशम श्रेणी कितनी बार ? - एक जीव को समस्त संसारचक्र में पांच बार उपशम श्रेणी की प्राप्ति होती है । - एक जीव एक भव में ज्यादा से ज्यादा दो बार उपशम श्रेणी प्राप्त कर सकता है । परन्तु जो दो बार उपशम श्रेणी पर चढ़ता है वह इसी भव में क्षपक श्रेणी प्राप्त नहीं कर सकता है। यह मंतव्य कर्मग्रन्थ के रचयिता आचार्यों का है । आगमग्रन्थों का मत है कि एक भव में एक ही श्रेणी प्राप्त कर सकता है । उपशम श्रेणी प्राप्त करनेवाला क्षपक श्रेणी उसी भव में प्राप्त नहीं कर सकता है । Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह पूर्व ] [ ६७ 'मोहोपशमो एकस्मिन् भवे द्विः स्यादसन्ततः । यस्मिन् भवे तूपशम क्षयो मोहस्य तत्र न ।” वेदोदय और श्रेणी . ऊपर जो उपशम श्रेणी का वर्णन किया गया है वह पुरुषवेद के उदय होने पर श्रेणी प्राप्त करने वाली आत्मा को लेकर किया गया है। जो आत्मा नपुंसक वेद के उदय में श्रेणी मांडता है वह सर्वप्रथम अनंतानबंधी और दर्शनत्रिक का तो उपशमन करता ही है। परंतु स्त्रीवेद या पुरुषवेद के उदय में श्रेणी माँडने वाला आत्मा जहां नपुंसक वेद का उपशमन करता है, वहाँ नपुंसक वेद में श्रेणी मांडने वाला आत्मा भी नपुंसक वेद का ही उपशमन करता है। इसके बाद स्त्रीवेद और नपुंसकवेद-दोनों का उपशमन करता है। यह उपशमन नपुंसकवेद के उदयकाल के उपान्त्य समय तक होता है। वहां स्त्रीवेद का पूर्णरूपेण उपशमन होता है। आगे सिर्फ नपुंसकवेद की एक समय की उदय स्थिति शेष रहती है, वह भी भोगने पर आत्मा अवेदक बनती है। इसके बाद पुरुषवेद वगैरह ७ प्रकृति का एक साथ उपशमन करना चालू करता है । - जो आत्मा स्त्रीवेद के उदय में श्रेणी मांडता है वह दर्शन त्रिक के बाद नपुंसक वेद का उपशमन करता है, इसके बाद चरम समय जितनी उदय स्थिति को छोड़कर स्त्रीवेद के शेष दलिकों का उपशमन करता है । चरम समय का दलिक भोगकर क्षय होने के बाद अवेदी बनता है । अवेदक बनने के बाद पुरुषवेद आदि ७ प्रकृति का उपशमन करता है। २०. चौदह पूर्व पूर्वप : दसंख्या विवरण १. उत्पाद जिसमें 'उत्पाद' के आधार पर सर्व द्रव्य और ११ क्रोड पद सर्व पर्यायों की प्ररूपणा की गई है । २. आग्रायणीय जिसमें सर्व द्रव्य, सर्व पर्याय और जीवों के ६६ लाख पद परिमाण का वर्णन किया गया है । ३. वीर्य प्रवाद जिसमें जीव और अजीवों के वीर्य का वर्णन ७० लाख पद किया गया है । [अग्र-परिमाण, अयनम्-परिच्छेद अर्थात् ज्ञान] Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] [ ज्ञानसार ४. अस्ति नास्ति प्रवाद | जो ख रशृंगादि पदार्थ विश्व में नहीं हैं और जो ६० लाख पद धर्मास्तिकायादि पदार्थ हैं, उनका वर्णन इस पूर्व में है । अथवा हर एक पदार्थ का स्व-रुपेण अस्तित्व और पर-रुपेण नास्तित्व प्रतिपादन किया है। ५. ज्ञान प्रवाद इस पूर्व में पांच ज्ञान के भेद-प्रभेद, उनका १ क्रोड पद स्वरुप आदि का वर्णन किया गया है । [एक कम] ६. सत्य प्रवाद सत्य यानी संयम, उसका विस्तृत वर्णन इस १ क्रोड ६ पद पूर्व में किया गया है । ७. आत्म प्रवाद अनेक नयों द्वारा आत्मा के अस्तित्व का और २६ क्रोड पद आत्मा के स्वरुप का इस पूर्व में वर्णन है । ८. कर्म प्रवाद ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों के बन्ध, उदय, १ क्रोड ८० लाख पद | सत्ता आदि का इसमें भेद-प्रभेद के साथ वर्णन है। ९. प्रत्याख्यान प्रवाद प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण) का भेद-प्रभेद के ८४ लाख पद साथ इस पूर्व में वर्णन किया है । १०. विद्या प्रवाद विद्याओं की साधना की प्रक्रियायें और उससे ११ क्रोड १५ हजार होने वाली सिद्धियों का वर्णन इस पूर्व में है। पद ज्ञान, तप आदि शुभ योगों की सफलता और ११. कल्याण प्रवाद २६ कोड पद प्रमाद, निद्रा आदि अशुभ योगों के अशुभ फल का वर्णन । १२. प्राणायु इस पूर्व में जीव के दस प्राणों का वर्णन और १ क्रोड ५६ लाख पद | जीवों के आयुष्य का वर्णन किया गया है। १३, क्रिया विशाल इस पूर्व में कायिकी आदि क्रियाओं का उनके ९ क्रोड पद भेद-प्रभेद के साथ वर्णन किया गया है। १४. लोक बिन्दुसार | जैसे श्रुतलोक में अक्षर के ऊपर रहा हुआ बिन्दु १२॥ क्रोड पद श्रेष्ठ है उसी तरह 'सर्वाक्षर सन्निपात लब्धि' प्राप्त करने के इच्छुक साधक के लिए यह | पूर्व सर्वोत्तम है। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल परावर्तकाल ] पूर्व का अर्थ क्या ? यह पूर्व शब्द शास्त्र, नथ जैसे अर्थ में उपयोग किया गया शब्द है । तीर्थकर जब धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं तब पूर्व का उपदेश देते हैं । फिर गणधर इन उपदेशों के आधार पर 'आचारांग' आदि सूत्रों की रचना करते हैं । २१. पुग़लपरावर्त काल जहां गणित का प्रवेश असंभव है, ऐसे काल को जानने के लिए 'पल्योपम' 'सागरोपम' 'उत्सपिणी' 'अवसपिणी' 'काल चक्र' 'पुद्गल परावर्त' जैसे शब्दों का सर्जन किया गया है । ऐसे शब्दों की स्पष्ट परिभाषा ग्रन्थों में दी गई है । यहां अपन 'प्रवचन सारोद्धार' ग्रंथ के आधार पर 'पुद्गल परावर्त' काल को समझेंगे । १० कोडा कोडी [१० कोड x १० क्रोड] सागरोपम - १ उत्सर्पिणी - १ अवसर्पिणी ऐसे अनंत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का समूह हो तब एक पुद्गल परावर्त कहा जाता है । अतीत काल अनन्त पुद्गलपरावर्त का होता है। अतीत काल से अनंत गुना ज्यादा भविष्य काल है । अर्थात् अनागत काल में जो पुद्गल परावर्त हैं वे अतीत काल से अनन्त गुना ज्यादा हैं । यह 'पुद्गल परावर्त' चार तरह का है : (१) द्रव्य पुद्गल परावर्त (२) क्षेत्र पुद्गल परावर्त (३) काल पुद्गल परावर्त (४) भाव पुद्गल परावर्त ये चारों पुद्गल परावर्त २-२ तरह के हैं : (१) बादर (२) सूक्ष्म 1. 'ओसप्पिणी अणता पोग्गल परियट्टओ मुणेयन्बो । तेऽणंता तीयद्धा अणागयद्धा अणंतगुणा ।।' 2. पोग्गलपरियट्टो इह दव्वाइ चउव्विहो मुणेयव्वो ।' --प्रवचनसारोद्धार Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] [ ज्ञानसार (१) बादर द्रव्य पुद्गलपरावत : ___एक जीव संसारअटवी में भ्रमण करता हआ, अनंत भवों में औदारिक-वैक्रिय-तैजस-कार्मण-भाषा-श्वासोच्छवास और मन रुप सर्व पुद्गलों को ( १४ राजलोक में रहे हुए ) ग्रहण कर, भोगकर रख दे........इसमें जितना समय लगे उतना काल बादर द्रव्य पुद्गल परावर्त काल कहलाता है। (आहारक शरीर को तो एक जीव मात्र चार बार ही बनाता है । अर्थात् पुद्गलपरावर्त काल में वह उपयोगी नहीं होने से उसे नहीं लिया है ।) (२) सूक्ष्म द्रव्य पुद्गलपरावर्त : ___औदारिक आदि शरीरों में से किसी एक शरीर से एक जीव संसार में परिभ्रमण करता हुआ सब पुद्गलों को पकड कर, भोगकर छोड़ दे, उस काल को सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल परावर्त कहते हैं। विवक्षित शरोर के अलावा दूसरे शरीर से जो पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं और भोगे जाते हैं वे नहीं गिने जाते हैं। (३) बादर क्षेत्र पुद्गलपरावर्त : क्रम से या उत्क्रम से एक जीव लोकाकाश के सब प्रदेशों को मृत्यु से स्पर्श करने में जितना समय लगाता है उस कालविशेष को बादर क्षेत्र पुद्गलपरावर्त कहते हैं । अर्थात् चौदह राजलोक के असंख्य आकाश प्रदेश (आकाश का एक ऐसा भाग कि जिसका और भाग न हो सके) हैं । इन एक एक आकाशप्रदेश में उस जीव की मृत्यु होती है। इसमें जो समय लगता है उसे 'बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्त' कहते हैं। (४) सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गलपरावर्त : ___ जीव की कम से कम अवगाहना भी असंख्य प्रदेशात्मक है। फिर भी कल्पना करें कि जीव की किसी एक आकाशप्रदेश में मृत्यु हई है। इसके बाद इसके पास के आकाशप्रदेश में मृत्यु होती है। फिर इसके पास के तीसरे आकाशप्रदेश में मृत्यु होती है । इस तरह क्रमशः एक के बाद एक आकाशप्रदेश को मृत्यु से स्पर्श करता है और इस तरह समस्त लोकाकाश को मृत्यु द्वारा स्पर्श किया जाय, तब सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल. परावर्त काल कहा जाता है । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल परावर्त काल ] [ ७१ परन्तु मान लो कि जीव की पहले आकाश प्रदेश में मरने के बाद तीसरे या चौथे आकाश प्रदेश में मृत्यु होती है तो उसकी गणना नहीं होगी । अगर पहले के बाद दूसरे आकाशप्रदेश में मृत्यु हो तब ही गणना हो सकती है । (५) बादर काल पुद्गलपरावर्त : उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के जितने समय (परम सूक्ष्म काल विभाग) हैं, उन समयों को एक जीव स्वयं की मृत्यु द्वारा क्रम से या उत्क्रम से स्पर्श करे तब बादर काल पुद्गलपरावर्त कहा जाता है । (६) सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्त : उत्सपिणी और अवसर्पिणी के समयों को एक जीव अपनी मृत्य द्वारा क्रम से ही स्पर्श करे उसे सूक्ष्म काल पुद्गलपरावर्त कहते हैं । जैसे कि अवसर्पिणी के प्रथम समय में किसी जीव की मृत्यु हुई, उसके बाद अवसर्पिणी और उत्सर्पिणो बीत गई और वापिस अवसर्पिणी के दूसरे समय में मृत्यु प्राप्त की हो तो वह दूसरे समय का मृत्यु द्वारा स्पर्श गिना जाएगा। . (७) बादर भाव पुद्गलपरावर्त असंख्य लोकाकाश प्रदेशों के जितने अनुभाग बंध के अध्यवसाय स्थान हैं, उन अध्यवसायस्थानों को एक जीव मृत्यु द्वारा क्रम से या उत्क्रम से स्पर्श करने में जितना समय लगाता है उस काल को बादर भाव पुद्गलपरावर्त कहते हैं । (८) सूक्ष्म भाव पुद्गलपरावर्त 1क्रमशः सब अनुभागबंध के अध्यवसाय स्थानों को जितने समय में मृत्य द्वारा स्पर्श किया जाता है, उस कालविशेष को सूक्ष्म भाव पुद्गलपरावर्त कहते हैं । __1. अनुभागबंध स्थान का वर्णन 'प्रवचनसारोद्धार' ग्रंथ में इस प्रकार है : तिष्ठति अस्मिन् जीव इति स्थान; एकेन काषायिकेणध्यवसायेन गृहीतानां कर्मपुद्गलानां विवक्षितैकसमयबद्धरससमुदायपरिमाणम् । अनुभाग बंध स्थानानां निष्पादका ये कषायोदयरूपा अध्यवसायविशेषा तेऽप्यनुभागबन्धस्थानानि । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] [ ज्ञानसार हालांकि ऊपर के बादर पुद्गल परावर्त कहीं भी सिद्धांत में उपयोगी नहीं है परन्तु बादर समझाने से सूक्ष्म का ज्ञान सरलता से हो सकता है, इसलिए बादर का वर्णन किया गया है । ग्रन्थों में जहाँ जहाँ 'पुद्गल परावर्त' आता है, वहाँ अधिकतर 'सूक्ष्म - क्षेत्र - पुद्गल परावर्त' समझना चाहिए । २२. कारणवाद कारण के बिना कार्य नहीं होता है । जितने कार्य दिखते हैं उनके कारण होते ही हैं । ज्ञानियों ने विश्व में ऐसे पांच कारण खोजे हैं, जो संसार के किसी भी कार्य के पीछे होते ही हैं । (१) काल ( २ ) स्वभाव (३) भवितव्यता (४) कर्म (५) पुरुषार्थं कोई भी कार्य इन पांच कारणों के बिना नहीं होता है | अब अपन एक एक कारण को देखते हैं । काल : विश्व में ऐसे भी कई कार्य दिखते हैं जिसमें काल (समय) ही कार्य करता हुआ दिखता है । परन्तु वहाँ काल को मुख्य कारण समझना चाहिए और शेष ४ कारणों को गौण समझना चाहिए । (१) स्त्री गर्भवती होती है वह निश्चित समय में ही बच्चे को जन्म देती है । (२) दूध से अमुक समय में ही दही जमता है । ( ३ ) तीर्थंकर भी अपना आयुष्य बढ़ा नहीं सकते हैं और निश्चित समय में उनका भी निर्वाण होता है ( ४ ) छ: ऋतु अपने अपने समय से आती हैं और बदलती हैं । इन सब में काल प्रमुख कारण है । स्वभाव : स्त्री के मूछ क्यों नहीं आती है ? यह स्वभाव है । हथेली में बाल क्यों नहीं उगते ? नीम के वृक्ष पर आम क्यों नहीं आते ? मोर के पंख ऐसे रंगबिरंगे और कलायुक्त क्यों होते हैं ? बेर के काँटे ऐसे Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारणवाद ] नुकीले क्यों होते हैं ? फल फूलों के ऐसे विविध रंग क्यों ? पर्वत स्थिर और वायु चंचल क्यों ? इन सब प्रश्नों का समाधान एक ही शब्द है: स्वभाव । भवितव्यता: आम के पेड़ पर फूल आते हैं और कितने ही झड़ जाते हैं....... कई आम मीठे और कई खट्टे....ऐसा क्यों ? जिन्हें स्वप्न में भी आशा न हो वह वस्तु उन्हें मिल जाती है........ऐसा क्यों ? एक मनुष्य यद्ध से जीवित आता है और घर में मर जाता है........ऐसा क्यों ? इन सब कार्यों में मुख्य भाग भवितव्यता का है । कर्म : जीव चार गति में परिभ्रमण करता है । यह कर्म के कारण से ही है । राम को वनवास में रहना पड़ा और सती सीता पर कलंक लगा-यह कर्म के कारण ही हुआ। भगवान महावीर के कानों में कीलें ठोकी गई....ऐसा सब कर्म के कारण ही हुआ । भूखा चूहा टोकरी को देखकर काटता है....उसमें घुसता है....अन्दर बैठा हुआ भूखा सांप उस चूहे को निगल जाता है....यह कर्म के कारण ही । इन सब कार्यों का मुख्य कारण कर्म है । पुरुषार्थ : राम ने पुरुषार्थ से लंका विजय की....तिल से तैल कैसे निकलता है ? लता मकान पर कैसे चढ़ जाती है ? पुरुषार्थ से ! कहावत है कि, 'बून्द बून्द सरोवर भर जाता है....' पुरुषार्थ के बिना विद्या, ज्ञान, धन, वैभव प्राप्त नहीं होता है । यहां एक बात महत्वपूर्ण है, इन पांच कारणों में से कोई एक कारण कार्य को पैदा नहीं कर सकता है। हां, एक कारण मुख्य होता है और दूसरे चार गौण होते हैं। उपाध्याय श्री विनयविजयजी ने कहा है 'ये पांचों समुदाय मिले बिना कोई भी कार्य पूर्ण नहीं होता है ।' उदाहरणार्थ- तंतुओं से कपड़ा बनता है, यह स्वभाव है । कालक्रम से तंतु बनते हैं । भवितव्यता हो तो कपड़ा तैयार हो जाता है Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] [ ज्ञानसार नहीं तो विघ्न आते हैं और काम अधूरा रह जाता है । कातने वाले का पुरुषार्थ और भोगने वाले का कर्म चाहिए । इसी तरह जीव के विकास में पांचों कारण काम करते हैं । भवितव्यता के योग से ही जीव निगोद से बाहर निकलता है । पुण्यकर्म के उदय से मनुष्यभव प्राप्त करता है । भवस्थिति (काल) परिपक्व होने से उसका वीर्य (पुरुषार्थ) उल्लसित होता है । और भव्य स्वभाव हो तो वह मोक्ष प्राप्त करता है। श्री विनयविजयजी उपाध्याय सज्झाय में कहते हैं : 'नियतिवशे हलु करमी थईने निगोद थकी निकलीयो, पुण्ये मनुष्य भवादि पामी सद्गुरु ने जई मलियो; भवस्थितिनो परिपाक थयो तव पंडित वीर्य उल्लसीयो । भव्य स्वभावे शिवगति पामी शिवपुर जइने वसीयो । प्राणी ! समकित-मति मन आणो, __ नय एकांत न ताणो रे........' 'किसी एक कारण से ही कार्य होता है'-ऐसा मानने वालों में से अलग अलग मत-अलग अलग दर्शन पैदा हुए हैं। २३. चौदह राजलोक कोई कहता है, 'यह मैदान ४० मीटर लम्बा है। कोई कहता है 'वह घर ५० फुट ऊंचा है'- अपन को तुरंत कल्पना हो जाती है। क्योंकि 'मीटर', 'फुट' आदि नापों से अपन परिचित हैं । 'राजलोक' यह भी एक नाप है। सबसे नीचे 'तमःतमःप्रभा' नरक से शुरू होकर सबसे ऊपर सिद्धशिला तक विश्व १४ राजलोक ऊंचा है। 1यह १४ राजलोक प्रमाण विश्व का आकार कैसा होगा, यह जिज्ञासा स्वाभाविक है । एक मनुष्य अपने दोनों पैर चौड़े करके और दोनों हाथ कमर पर रखकर खड़ा हो और जो आकार बनता है, ऐसा आकार इस १४ राजलोक प्रमाण विश्व का है। विश्व के विषय में कुछ मूलभूत बातें स्पष्ट करनी चाहिए । (१) इस लोक (विश्व) की उत्पत्ति किसी ने नहीं की थी । __ 1. वैशाखस्थानस्यः पुरुष इव कटिस्थकरयुग्मः । - प्रशमरतिः Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७५ चौदह राजलोक ] (२) इस लोक को किसी ने उठाया हुआ नहीं है । अर्थात् यह किसी के सहारे पर ठहरा हुआ नहीं है । (३) यह लोक अनादि काल से है। और अनंत काल तक रहेगा। (४) यह विश्व धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय से परिपूर्ण है । लोक के तीन भाग हैं : (१) ऊर्ध्वलोक । (२) अधोलोक । (३) मध्यलोक । उर्ध्वलोक : उर्ध्वलोक में वैमानिक देव और सिद्ध आत्मायें रहती हैं । बारह देवलोक : (१) सौधर्म (२) ईशान (३) सनत्कुमार (४) माहेन्द्र (५) ब्रह्मलोक (६) लान्तक (७) महाशुक्र (८) सहस्रार (६) आनत (१०) प्राणत (११) आरण (१२) अच्युत बारह देवलोक पूरे होने के बाद उनके उपर नौ ग्रैवेयक देवलोक हैं । उनके ऊपर अनुत्तर देवलोक हैं । पांच अनुत्तर-देवलोक : (१) विजय (२) विजयंत Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] (३) जयंत ( ४ ) अपराजित (५) सर्वार्थसिद्ध अधोलोक : अधोलोक में नारकी, भवनपति देव, व्यंतर आदि देव रहते हैं । सात नरक (१) रत्नप्रभा (२) शर्कराप्रभा (३) वालुकाप्रभा ( ४ ) पंकप्रभा (५) धूमप्रभा (६) तमः प्रभा ( ७ ) तमः तमः प्रभा क्रमश: होती है । ऊंचाई में सात नरक सात राजलोक प्रमाण है । सातवीं नरक की चौड़ाई सात राजलोक जितनी है । [ ज्ञानसार एक के बाद एक नरक में ज्यादा ज्यादा दु:ख वेदना मध्यलोक : मध्यलोक में मनुष्य, ज्योतिषदेव, तिर्यंच जीव रहते हैं । मध्यलोक में असंख्य द्वीप और समुद्र हैं । अपन मध्यलोक में हैं । २४. यतिधर्म यति यानी मुनि साधु श्रमण । और इनका जो धर्म है वह यतिधर्म कहलाता है । साधुजीवन की भूमिका में मनुष्य को इन दस प्रकार के धर्म की आराधना करनी पड़ती है । ( १ ) क्षान्ति : क्षमाधर्म का पालन करना । ( २ ) मार्दव : मद का त्याग कर नम्र बनना । (३) आर्जव: माया का त्याग कर सरल बनना । (४) मुक्ति : निर्लोभता । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी ] । ७७ (५) तप : इच्छाओं का निरोध । (६) संयम : इन्द्रियों का निग्रह । (७) सत्य : सत्य का पालन करना । (८) शौच : पवित्रता । व्रत में दोष नहीं लगने देना ! (६) आकिंचन्य : वाह्य-आभ्यंतर परिग्रह का त्याग । (१०) ब्रह्म : ब्रह्मचर्य का पालन । इन दस प्रकार के धर्म की आराधना में साधुता है । साधुजीवन के ये दसविध धर्म प्राण हैं। इनका वर्णन 'नवतत्व प्रकरण', 'प्रशमरति', 'प्रवचन सारोद्धार', 'बृहत्कल्पसूत्र' इत्यादि अनेक प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध होता है । २५. सामाचारी __ साधुजीवन के परस्पर व्यवहार की आचारसंहिता 'दशविध सामाचारी' नाम से प्रसिद्ध है । 1(१) इच्छाकार : साधु को अपना काम दूसरों से कराना हो तो अगर दूसरे की इच्छा हो तो कराना चाहिए, जबरदस्ती नहीं । इसी तरह दूसरों का काम करने की इच्छा हो तो भी उन्हें पूछकर करना चाहिए। हालांकि निष्प्रयोजन तो दूसरों से अपना काम कराना ही नहीं चाहिए। परंतु अशक्ति, बीमारी, अपंगता आदि कारण से दूसरों से (जो दीक्षा पर्याय में अपने से छोटे हों उनसे) पूछे : 'मेरा यह काम करोगे ?" . इसी तरह सेवाभाव से कर्मनिर्जरा के हेतु से दूसरों का काम स्वयं को करना हो तो भी पूछे 'आपका यह काम मैं कर सकता हूँ ?' (२) मिथ्याकार : साधुजीवन के व्रतनियमों का पालन करने में जाग्रत होते हुए भी अगर कोई गलती हो जाये तो उसकी शुद्धि के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' कहना चाहिए। उदाहरण के लिए, छींक आई और वस्त्र मुह के आगे नहीं रहा, बाद में ध्यान आने पर तुरंत 1. सेव्यः क्षान्तिर्दिवमार्जव-शौचे च संयमत्यागौ । सत्यतपो-ब्रह्माकिञ्चन्यानीत्येष धर्मविधिः ।। --प्रशमरतिः Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] [ ज्ञानसार 'मिच्छामि दुक्कड' कहना चाहिए । परंतु जान बूझकर जो दोष करता है और बार बार करता है तो उन दोषों की शुद्धि 'मिच्छामि दुक्कडं ' से नहीं होगी । ( ३ ) तथाकार : स्वयं के स्वीकार किये हुए सुगुरू का वचन बिना किसी विकल्प के 'तहत्ति' कहकर स्वीकार कर लेना चाहिए । ( ४ ) आवश्यकी ( आवस्सही ) : ज्ञान- दर्शन - चारित्र की आराधना के लिये मकान के बाहर निकलते ही 'आवस्सही' बोलकर निकलना चाहिए। आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाना उसे आवश्यकी कहते हैं । (५) नैषेधिकी ( निस्सीही ) : आवश्यक कार्य पूर्ण करके साधु मकान में आये तब प्रवेश करते ही 'निस्सीही' बोलकर प्रवेश करे । (६) पृच्छा : कोई काम करना हो तो गुरुदेव को पूछे - 'भगवन् ! यह काम मैं करूं ?' (७) प्रतिपृच्छा : पहले किसी काम के लिए गुरुदेव ने मना कर दिया हो परंतु वर्तमान में वह काम उपस्थित हो गया हो तो गुरुमहाराज को पूछे कि : 'भगवन् ! पहले आपने यह काम करने के लिए मना किया था परंतु अब इसका प्रयोजन है, अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं यह कार्य करूं ?' गुरु महाराज जैसा कहे वैसा करे । 'प्रतिपृच्छा' का दूसरा अर्थ यह है कि किसी काम के लिए गुरुमहाराज ने अनुमति दे दी हो तो भी वह कार्य शुरू करते समय पुनः गुरुमहाराज को पूछना चाहिए । ( ८ ) छंदणा : साधु गोचरी लाकर सहवर्ती साधुओं को कहे, 'मैं गोचरी ( भिक्षा) लेकर आया हूँ, जिन्हें जो उपयुक्त हो वह इच्छानुसार ग्रहण करें ।' ( ६ ) निमंत्रण : गोचरी जाने के समय सहवर्ती साधुओं को पूछे ( निमंत्रण दे ) कि 'मैं आपके लिए योग्य गोचरी लाऊँगा ।' (१०) उपसंपत् : विशिष्ट ज्ञान दर्शन - चारित्र की आराधना के लिए एक गुरुकुल से दूसरे गुरुकुल में जाना । इन दस प्रकार के व्यवहार को सामाचारी कहते हैं । साधु-जीवन में इस व्यवहार का पालन मुख्य कर्तव्य है । Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोचरी के ४२ दोष ] २६. गोचरी के ४२ दोष साधु जीवन का निर्वाह भिक्षावृत्ति पर होता है । साधु-साध्वी गृहस्थों के घर से भिक्षा लाते हैं । परंतु गोचरी लाने में सतर्कता के कुछ नियम हैं । इन नियमों का अनुसरण करके भिक्षा लानी चाहिए । अगर इन नियमों का पालन न करे तो साधु को दोष लगता है, उसका उन्हें प्रायश्चित करना पड़ता है । महाव्रतों को सुरक्षित रखने के लिए इन दोषों से बचना पड़ता है । ४२ दोषों को टालने के लिए इन दोषों का ज्ञान आवश्यक है । यहाँ इन दोषों के नाम और उनकी संक्षिप्त जानकारी दी गई है । विस्तृत ज्ञान के जिज्ञासुओं को 'प्रवचन सारोद्धार' 'ओघनियुक्ति' 'पिंडनियुक्ति' आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए । ( १ ) आधाकर्म : साधु के लिए बनाया हुआ अन्न पानी । ( २ ) औद्देशिक : विचरण करते हुए साधु संन्यासियों के लिए बनाया हुआ । ( ३ ) पूतिकर्म : आधा कर्म से मिश्र । ( ४ ) मिश्रजात : ज्यादा बनाये । (५) स्थापना : अलग निकाल कर रखे । [ ७९ ( ६ ) प्राभृतिक : लग्न आदि प्रसंगों में साधु के निमित्त देर से या पहले करे । इसी तरह सुबह या शाम को साधु के निमित्त देर से या जल्दी भोजन बनावे | 1 (७) प्रादुष्करण: खिड़की खोले; बत्ती करे । ( ८ ) क्रीत : साधु के लिए खरीद कर लाये । ( 2 ) प्रामित्य : साधु के लिए उधार लाये । (१०) परावर्तित : अदल बदल करे । ( ११ ) अभ्याहृत : साधु के स्थान पर लाकर देना । (१२) उद्भिन्न: सील तोड़कर या ढक्कन खोलकर दे । (१३) मालापहृत : छींके में रखा हुआ उतार कर दे । (१४) आच्छेद्य : पुत्र आदि की इच्छा न हो तो भी उनके पास से लेकर दे । Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] [ ज्ञानसार (१५) अनुत्सृष्ट : अनुमति बिना (पति पत्नी की, पत्नी पति की ) देंवे । (१६) अध्वपूरक : भोजन पकाने की शुरूआत अपने लिए करे फिर इसमें साधु के लिए और बढ़ा देंवे । (१७) धात्रीदोष : साधु धाय मां का काम करे । (१८) दूतिदोष : संदेश ले जाना और लाना । (१६) निमित्त कर्म : ज्योतिष शास्त्र से निमित्त कहे । (२०) आजीवक पिंड : अपने आचार्य का कुल बताना । (२१) वनीपक पिंड : ब्राह्मण, अतिथि, भिखारी के समान बन कर भिक्षा माँगे । (२२) चिकित्सा पिड : दवा बताये या करे । (२३) क्रोध पिड : क्रोध से भिक्षा मांगे । (२४) मान पिंड : अभिमान से भिक्षा लाये । (२५) माया पिंड : नये नये वेश करके लाये । (२६) लोभ पिंड : कोई खास बस्तु लाने की इच्छा से फिरे । (२७) संस्तवदोष : माता, पिता और ससुराल का परिचय दें । (२८) विद्या पिंड : विद्या से भिक्षा लाये ।। (२९) मंत्र पिंड : मंत्र से भिक्षा लाये । (३०) चर्ण पिंड : चर्ण से भिक्षा लाये । (३१) योग पिड : योगशक्ति से भिक्षा प्राप्त करे । . (३२) मूल कर्म : गर्भपात करने के उपाय बताये । (३३) शंकित : दोष की शंका हो तो भी शिक्षा लें । (३४) भ्रक्षित : काम में लिया हुआ जूठा द्रव्य लें । (३५) पोहित : सचित्त या अचित्त से ढकी हुई वस्तु लें । (३६) दायक : नीचे लिखे लोगों से भिक्षा लेने से यह दोष लगता है। (१) बेडी से जकड़ा हुआ (२) जूते पहने हुए (३) बुखारवाला (४) बालक (५) कुबड़ा (६) वृद्ध (७) अंधा (८) नपुंसक Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निक्षेप ] [ ८१ (९) उन्मत्त (१०) लंगड़ा (११) खांडने वाला (१२) पीसने वाला (१३) धुनकने वाला (१४) कातने वाला (१५) दही बिलोने वाला (१६) गर्भवती स्त्री (१७) दूध पीते बच्चे की माँ (१८) मालिक की अनुपस्थिति में नोकर (३७) उन्मिश्र : सचित्त-अचित्त मिला कर देवे वह लेना । (३८) अपरिणत : पूर्ण अचित्त न हुआ हो वह लेना अथवा दो साधु में एक को निर्दोष लगे और दूसरे को सदोष लगे वह लेना । (३६) लिप्त : शहद, दही से लिपा हुआ लेना । (४०) छर्दित : भूमि पर गिरा हुआ लेना । (४१) निक्षिप्त : सचित्त के साथ संघट्टा वाला लेना। (४२) संहृत : एक बर्तन से दूसरे बर्तन में खाली करके, खाली बर्तन से बोहराना । साधु साध्वी को इन ४२ दोषों की जानकारी होमी ही चाहिए। तभी वे भिक्षा लाने के योग्य बन सकते हैं । २७. चार निक्षेप किसी भी शब्द का अर्थ निरुपण करना हो तो वह निक्षेप' पूर्वक किया जाये तो स्पष्ट रुप से समझ में आ सकता है। 'निक्षेपणं निक्षेपः' निरुपण करने को निक्षेप कहते हैं । यह निक्षेप जघन्य से चार प्रकार का है और उत्कृष्ट से अनेक प्रकार का है । यहां हम चार प्रकार के निक्षेप का विवेचन करेंगे । (१) नाम । (२) स्थापना । (३) द्रव्य । (४) भाव । नाम निक्षेप : यद् वस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थ निरपेक्षम् । पर्यायानभिधेयं च नाम यादृच्छिकं च तथा । 1. अनुयोग द्वार-सूत्र Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ ] [ ज्ञानसार . (१) यथार्थ में एक नाम सर्वत्र बहत प्रसिद्ध होता है और वही नाम दूसरे लोग भी रखते हैं। उदाहरणार्थ 'इन्द्र' यह नाम देवों के अधिपति के रुप में प्रसिद्ध है और यह नाम ग्वाले के लड़के का भी रख देते हैं। (२) 'इन्द्र' शब्द का जो ‘परम ऐश्वर्यवान्' अर्थ है वह ग्वाले के लड़के के लिए प्रयुक्त नहीं होगा । (३) 'इन्द्र' शब्द के जो पर्याय 'शक' 'पुरन्दर' 'शचि-पति' आदि हैं वे पर्याय ग्वाले के पुत्र इन्द्र के लिये प्रयुक्त नहीं होंगे । _ 'यादृच्छिक' प्रकार में ऐसे नाम आते हैं कि जिनका व्युत्पत्ति अर्थ नहीं होता है । इसमें तो स्वेच्छा से ही नाम दिये जाते हैं । ये नाम जीव और अजीव के हो सकते हैं । स्थापना निक्षेप : 'यत्त तदर्थ वियूक्तं तदभिप्रायेण यच्च तत्करणि । लेप्यादिकर्म तत्स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च ।। - भाव इन्द्र आदि का अर्थ रहित (परन्तु अर्थ के अभिप्राय से) साकार या निराकार जो किया जाता है उसे स्थापना कहते हैं। - भाव-इन्द्रादि के साथ समानता हो उसे साकार स्थापना कहते हैं। . भाव-इन्द्रादि के साथ असमानता हो उसे निराकार स्थापना कहते हैं । काष्ठ, पत्थर, हाथीदांत की मूर्तियाँ, प्रतिमायें आदि को साकार स्थापना कहते हैं । ये दो तरह की होती हैं । (१) शाश्वत् (२) अशाश्वत् । देवलोक आदि में शाश्वत् जिन प्रतिमाएं होती हैं, जबकि दूसरी प्रतिमायें शाश्वत् नहीं भी होती हैं । - शंख आदि में जो स्थापना की जावे उसे निराकार स्थापना कहते हैं । शाश्वत जिन प्रतिमाओं में 'स्थापना' शब्द की व्यत्पत्ति 'स्थाप्यते इति स्थापना' चरितार्थ नहीं होती है। क्योंकि वे शाश्वत् हैं । शाश्वत् 2. अनुयोग द्वार-सूत्र Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार निक्षेप ] [ ८३ को कोई स्थापित नहीं कर सकता है । इसलिए वहां 'अहंदा दिरुपेण तिष्ठतीति स्थापना, यानी कि 'अरिहंत आदि रुप से रहते हैं वह स्थापना' ऐसा व्युत्पत्ति-अर्थ करना चाहिए । नाम निक्षेप और स्थापना निक्षेप में इस तरह बहुत अंतर हैं। परमात्मा की स्थापना (मति), देवों की स्थापना, गुरुवरों की स्थापना के दर्शन-पूजन से इच्छित लाभों की प्राप्ति प्रत्यक्ष दिखती है। इसके अलावा प्रतिमा के दर्शन से विशिष्ट कोटि के भाव भी जाग्रत होते हैं । द्रव्य निक्षेपः 1'भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद्रव्यं तत्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥' जो चेतन-अचेतन द्रव्य भूतकालीन भाव का कारण हो या भविष्य काल के भाव का कारण हो उसे द्रव्य निक्षेप कहते हैं । उदाहरणार्थ भूतकाल में वकील या डाक्टर हों परन्तु वर्तमान में वकालत न करते हो या दवाई नहीं करते हो तो भी जनता उन्हें वकील या डॉक्टर कहती है । यह द्रव्य निक्षेप से वकील या डाक्टर कहे जाते हैं । इसी तरह अभी तक वकालात पढ़ रहे हों या मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहे हों तो भी लोग उन्हें वकील या डॉक्टर कहते हैं क्योंकि वे भविष्य में वकील या डॉक्टर होने वाले हैं । इसी तरह भूतकालीन पर्याय का एवं भविष्यकालीन पर्याय का जो कारण वर्तमान में हो उसे द्रव्य-निक्षेप कहते हैं। द्रव्य निक्षेप की दूसरी परिभाषा इस तरह की जाती है-'अणुवओगो दव्वं' अनुपयोग अर्थात भावशून्यता, बोध-शून्यता........उपयोग शून्यता। जिस क्रिया में भाव, बोध, उपयोग न हो उस क्रिया को द्रव्य क्रिया कहते हैं। लोकोत्तर द्रव्य-आवश्यक की चर्चा करते हए अनुयोग द्वार सूत्र में कहा है कि यदि कोई श्रमण गुणरहित और जिनाज्ञारहित बनकर, स्वच्छंदता से विचरण कर, उभयकाल प्रतिक्रमण के लिए खड़ा हो उस साधु वेशधारी का प्रतिक्रमण वह लोकोत्तर द्रव्य आवश्यक है।' द्रव्य निक्षेप की विस्तृत चर्चा के लिए 'अनुयोग द्वार सूत्र' का अध्ययन करना आवश्यक है । 1. अनुयोग द्वार-सूत्र Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] [ ज्ञानसार भावनिक्षेपः तीर्थंकर भगवन्त को लेकर जहाँ भाव-निक्षेप का विचार किया गया है, वहां कहा है-'समवसरणठ्ठा भाव जिणिदा' समवसरण में बैठे हुए........धर्मदेशना देते हुए तीर्थंकर भगवन्त भाव तीर्थकर हैं। ___ 'श्री अनुयोग द्वार सूत्र' में कहा है : 'वक्तृविवक्षित परिणामस्य भवनं भावः ।' वक्ता के कहे हुए परिणाम जाग्रत होने को भाव कहते हैं । भाव से प्रतिक्रमण आदि क्रियायें दो प्रकार से होती हैं : (१) आगम से (२) नो आगम से ।। . प्रतिक्रमण के सूत्रों के अर्थ के उपयोग को भाव प्रतिक्रमण कहते हैं । इसी तरह जो क्रिया की जाती है उस क्रिया के अर्थ के उपयोग हो तो वह क्रिया भाव क्रिया कही जाती है । - नो आगम से भाव क्रिया तीन प्रकार की है : (१) लौकिक (२) कुप्रावनिक (३) लोकोत्तर (१) लौकिक : लौकिक शास्त्रों के श्रवण में उपयोग । (२) कुप्रावचनिक : होम, जप........योगादि क्रियाओं में उपयोग । (३) लोकोत्तरिक : तच्चित्त आदि आठ विशेषताओं से युक्त धर्मक्रिया (प्रतिक्रमण आदि) सारांश यह है कि प्रस्तुत क्रिया छोड़कर दूसरी तरफ मन-वचनकाया का उपयोग न करते हुए जो क्रिया की जाती है उसे भाव क्रिया कहते हैं । २८. चार अनुयोग 1राग, द्वेष और मोह से अभिभूत संसारी जीव शारीरिक और मानसिक अनेक दुःखों से पीड़ित हैं। इन समस्त दुःखों को दूर करने के लिए हेय और उपादेय पदार्थ के परिज्ञान में यत्न करना चाहिए । यह प्रयत्न विशिष्ट विवेक के बिना नहीं हो सकता है । विशिष्ट विवेक अनन्त अतिशय युक्त आप्त पुरुष के उपदेश के बिना नहीं हो सकता है । राग, द्वेष और मोह आदि दोषों का सर्वथा क्षय करने वाले को 'आप्त' कहते हैं । ऐसे आप्त पुरुष 'अरिहंत' ही हैं । 1. आचारांग सूत्र टीका ; श्री शीलांकाचार्यजी । Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८५ चार अनुयोग ] अरिहंत भगवंत का उपदेश ही राग-द्वेष के बन्ध को तोड़ने में समर्थ है । इसलिए इस अर्हद्वचन की व्याख्या करनी चाहिए। पूर्वाचार्यों ने चार अनुयोगों में अर्हद्वचन को विभाजित किया है। (१) धर्मकथा-अनुयोग (२) गणित-अनुयोग (३) द्रव्य-अनुयोग (४) चरण-करण-अनुयोग अनयोग अर्थात व्याख्या । धर्मकथाओं का वर्णन श्री उत्तराध्ययन आदि में है । गणित का विषय सूर्यप्रज्ञप्ति आदि में वर्णित है । द्रव्यों की चर्चा-विचारणा चौदह पूर्व में और सन्मतितर्क आदि ग्रन्थों में है। चरण-करण का विवेचन आचारांग सूत्र आदि में किया गया है । इस तरह वर्तमान में उपलब्ध ४५ आगमों को इन चार अनुयोगों में विभक्त किया गया है । २६ ब्रह्म-अध्ययन 'नियाग-अष्टक' में कहा है : ब्रह्माध्ययन निष्ठावान् परब्रह्म समाहितः । ब्राह्मणो लिप्यते नापैः नियागप्रतिपत्तिमान् ।। इस श्लोक के विवेचन में 'ब्रह्म-अध्ययन' में निष्ठा, श्रद्धा, आस्था रखने के लिए कहा है । श्री आचारांग सूत्र का प्रथम भाग यही ब्रह्म अध्ययन है । हालांकि यह श्रुतस्कंध है, परन्तु श्री यशोविजयजी महाराज ने अध्ययन के रुप में निर्देश किया है। इस प्रथम श्रुतस्कंध के नौ अध्ययन थे परन्तु इनका 'महापरिज्ञा' नामक सातवां अध्ययन करीब हजार वर्षों से लुप्त है । 'सत्थपरिण्णा लोगविजओ य सीओसणिज्ज सम्मत्तं । तह लोगसारनामं धुयं तह महापरिण्णा य ।। अट्ठएम य विमोक्खो उवहाणसुयं च नवमगं भणियं ।' -आचारांग-नियुक्ति, ३१-३२ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानसार (१) शस्त्र परिज्ञा (६) धूताध्ययन (२) लोक विजय (७) महा परिज्ञा (३) शीतोष्णीय (८) विमोक्ष (४) सम्यक्त्व (६) उपद्यानश्रुत (५) लोकसार श्री शीलांकाचार्यजी कहते हैं " ये नौ अध्ययन संयमी आत्मा को मूल गुण और उत्तर गुणों में स्थिर करते हैं, इसलिए कर्म निर्जरा के लिए इन अध्ययनों का परिशीलन करना चाहिए।' ३०. पैंतालीस आगम __आज से २५०० वर्ष पहले श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने सर्वज्ञता प्राप्त करके धर्मतीर्थ की स्थापना की थी। उन्होंने ग्यारह विद्वान् ब्राह्मणों को दीक्षा देकर उन्हें 'गणधर' की पदवी दी । भगवंत ने ११ गणधरों को 'त्रिपदी' दी । 'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा।' इस त्रिपदी के आधार पर गणधरों ने 'द्वादशांगो' (बारह शास्त्रों) की रचना की। पांचवें गणधर सुधर्मा स्वामी ने जो द्वादशांगी की रचना की, उनमें से बारहवां अंग 'दृष्टिवाद' लुप्त हो गया है । जो ग्यारह अंग रहे हैं उनमें से भी बहुत सा भाग नष्ट हो गया है, फिर भी जो रहा उसको आधार मानकर कालांतर में अन्य आगमों की रचना की गई है। ___ इस तरह पिछले सैंकड़ों वर्षों से '४५ आगम' प्रसिद्ध हैं । इन आगमों के ६ विभाग हैं : ११ अंग १२ उपांग ४ मूल सूत्र ६ छेद सूत्र १० प्रकीर्णक २ चूलिका सूत्र इन ४५ आगमों पर जो विवरण लिखे गये हैं, वे चार प्रकार के हैं-(१) नियुक्ति (२) भाष्य (३) चूर्णी (४) टीका । ये विवरण संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं । Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ अंग १२ उपांग ४ मूल सूत्र | ६ छेद सूत्र | १० प्रकीर्णक |२ चूलिका सूत्र आवश्यक उत्तराध्ययन • स्थान निशीथ दशाश्रुत दशवैकालिक | बृहत्कल्प ओघ नियुक्ति | व्यवहार जीतकल्प महानिशीथ | देवेन्द्र स्तव | नन्दी | तंदुल वैचारिक | अनुयोगद्वार | गणि विद्या आतुरप्रत्याख्यान महाप्रत्याख्यान गच्छाचार आचार औपपातिक सूत्रकृत राज प्रश्नीय जीवाभिगम समवाय प्रज्ञापना व्याख्या प्रज्ञप्ति सूर्य प्रज्ञप्ति ज्ञाता धर्म कथा चंद्र प्रज्ञप्ति उपासक दशा जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति अंतकृत् दशा । निरयावलिका अनुत्तरोपपातिकदशा कल्पावतंसिका प्रश्न व्याकरण पुष्पिता विपाक श्रुत पुष्प चूलिका वृष्णि दशा भक्त परिज्ञा मरण समाधि संस्तारक चतुः शरण 1. आगम साहित्य की विशेष जानकारी के लिए देखिये "आर्हत् आगमो नु अवलोकन" और "पंतालीस आगम" (लेखक प्रो० हीरालाल र० कापड़िया) ज्ञानसार Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] ३१. तेजोलेश्या 'तेजोलेश्या' शब्द का उपयोग जैन आगम साहित्य में तीन अर्थों में किया गया है । १. जीव का परिणाम । २. तपोलब्धि से प्रकटित शक्ति । ३. आन्तर आनन्द; आन्तर सुख । 'ज्ञानसार' में ग्रन्थकार ने कहा है : "तेजोलेश्याविवृद्धिर्या साधोः पर्यायवृद्धितः । भाषिता भगवत्यादौ सेत्थंभूतस्य युज्यते ॥" [ ज्ञानसार तेजोलेश्या को आन्तर सुखरूप समझनी चाहिए। श्री भगवती सूत्र के चौदहवें शतक में देवों की तेजोलेश्या ( सुखानुभव) के साथ श्रमण की तेजोलेश्या की तुलना की गयी है । टीकाकार महर्षि ने तेजोलेश्या का उर्थ 'सुखासिकाम' किया है । अर्थात् सुखानुभव | एक माह के दीक्षा - पर्यायवाला श्रमण वाणव्यंतर देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर जाता है । दो माह के दीक्षा-पर्यायवाला श्रमण भवनपति देवों को तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर देता है । तीन माह के दीक्षा - पर्यायवाला असुरकुमार देवों की, चार माह के दीक्षा-पर्यायवाला ज्योतिष देवों की, पाँच माह के दीक्षा - पर्यायवाला सूर्य-चंद्र की, छह माह के दीक्षा - पर्यायवाला सौधर्म इशान देवों की, सात माह के दीक्षापर्यायवाला सनत्कुमार- माहेन्द्र की, आठ माह के दीक्षा - पर्यायवाला ब्रह्म और लांतकदेवों की, नौ माह के दीक्षा - पर्यायवाला महाशुक्र और सहस्वार की, दस माह के दीक्षा - पर्यायवाला आनत, प्राणत, आरण और अच्युत की, ग्यारह माह के दीक्षा - पर्यायवाला ग्रैवेयक - देवों की और बारह माह के दीक्षा - पर्यायवाला अनुत्तरवासी देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर जाता है । 1. द्वितीय अष्टक 'मग्नता' : श्लोक ५ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलापुर श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट : मेहसाना के * स्थायी सहयोगी * १ श्री संपतराज एस. मेहता भिवंडी , लालचंद, मनोहरमल, हुकमीचद वैद लक्ष्मीलाल संपतलाल लुकड मोहनलाल भेरुलाल कोठारी समीरमल विजयचंद निमाणी केशवजीभाई (फॅशन कॉर्नर) मूलचंद वेलाजी चनीलाल मूलचंद संघवी वाडीलाल जीवन देसाई , मोतीलाल गुलाबचन्द शाह विजयकुमार हरखचन्द एन्ड कंपनी १२ , जनता रेडिमेड कलॉथ स्टोर्स १३ , विजय ऑईल मील । ,, बेबी डॉल ड्रेस मेन्यु. कंपनी १५ सौ. पद्माबेन रमणिकलाल शाह १६ श्री एल. शंकरलाल एन्ड सन्स १७ , कोठारी ब्रदर्स १८ , एस. कटारिया १९ , फूटरमल जेठमल शाह भोजराज फकीरचन्द वैद शांतिलालजी संघवी मीठालालजी चौधरी चान्दमलजी लूणिया पूसालालजी कोचर कैलास होजियरी मार्ट पूनमचन्द शिवलाल शाह केशवलाल दामोदरदास पटणी , अशोककुमार कांतिलाल २९ , चांदमल जवानमल मुणोत * m m * * * * * * * * * * * * * * " * * * * * Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलापुर س س س س س س سه س ३० श्री सिरेमल, खेमचन्द ३१ , महावीर टी सेन्टर ३२ , रिखबचन्दजी लखमाजी ३३ , मूलशंकर जयशंकर वोरा ३४ , बाफणा ब्रदर्स ३५ , लालचन्द अम्बालाल ३६ डॉ. वासंतीबेन एन. मुनोत ३७ श्री जगदीश हीरजी रांभिया ३८ ।, बेबी वेअर (छगनलालजी कवाड़) ३९ , भीमराज रतनचन्द ४० , जैन श्राविका संघ ४१ , गिरिधर गोपाल सोनी , गुमानमलजी दोशी ४३ श्रीमती विमलादेवी एन. जौटा ४४ श्री पी. सी. बरडीया ४५ , बाबुलालजी चंदनमलजी ४६ , हीराचन्दजी वैद्य ४७ , मानमलजी लुणिया ४८ श्रीमती कमलाबाई हीराचन्दजी गुलेच्छा ४९ श्री नागोतरा टेक्सटाईल्स ५० , नाकोड़ा टेक्सटाईल्स ५१ , भीखमचन्दजी वैद्य ५२ , जैन श्राविका संघ ५३ श्रीमती मूलीबाई आर. जैन ५४ श्रीमती मंछीबाई पूनमचन्दजी ५५ श्रीमती मोहिनीबाई जुगराजजी मुथा ५६ श्री निहालचन्दजी रूपराजजी भंडारी ५७ रांका मेटल कोर्पोरेशन ५८ श्रीमती कुसुमबहन माणकचन्दजी बेताला ५९ श्री एस. देवराजजी जैन ६० श्री कोचर टेक्सटाईल्स ६१ सुश्री जसकुंवर रमणिकलालजी ६२ श्री वच्छराजजी कवराहावाले विलेपारले, बम्बई बम्बई बम्बई थाणा [बम्बई] जयपुर डोड़बालापुर मद्रास Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्रास " ६३ श्री सी. बिजयराज जैन मद्रास ६४ , बॉम्बे स्टील हाउस ६५ , मनोहरमल शांतिमलजी नाहर ६६ , जे. दीपचन्दजी संचेती , रिखबदासजी चिमनाजी (पालड़ी-सिरोहीवाले) मद्रास ६८ श्रीमती शकुन्तलाबाई शेषमलजी पंड्या ६६ श्री अभयकरणजी तेजराजजी कोठारी मद्रास ७० , रविलालभाई दोशी ७१ लक्ष्मी हॉल ऊटी ७२ श्री चंदनमलजी बालचन्दजी बोथरा ७३ , फत्तेहमल मोहनलाल सियाल ७४ पारस मुथा एन्ड कंपनी बेंगलोर ७५ श्रीमती पवनबेन छगनलालजी [पोमावावाला] ७६ श्री के. एम. गादिया ७७ , एस. कपूरचन्द एन्ड कंपनी ,, मिश्रीमलजी प्रतापमलजी श्रीश्रीमाल , जैन श्राविका संघ , धनराजजी जुगराजजी मेहता , मांगीलाल धनराज बिदामिया गदग ८२ , घेवरचन्दजी बंट ब्यावर ८३ श्रीमती लणीबाई शंकरलालजी वैद फलोदी ८४ स्वदेशी ग्लास हाऊस कोयम्बतूर ८५ श्री सुखराज चंपालाल ८६ तारा हेन्डलूम हाऊस ८७ श्री पन्नालालजी करबावाले (सादड़ी) ८८ श्रीमती सुन्दरीबाई विजयचन्दजी वैद ८९ मे. पेक्वेल प्लायवुड्स ९० श्री रानमलजी बाफना ९१ श्री सोहनलालजी श्रीश्रीमाल ९२ कु. वंदना-आरती-पूजा C/प्रकाश फाईनान्स ९३ श्री लक्ष्मी हॉल ९४ , मेहता फेब्रिक्स ९५ श्री एस. बाबूलालजी मेहता मद्रास Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मशन कल्याण श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट कम्बोई नगर के पास, मेहसाना-३८४ ००२ * ट्रस्टी गण के भीवंडी बम्बई अहमदाबाद श्री संपतराज एस. मेहता , चेतनभाई एम. झवेरी मुगटभाई सी. शाह ,, अशोकभाई आर. कापडीया अमितभाई एस. मेहता अम्बालाल सी. शाह . , सुरेन्द्रभाई बी. परीख हीराचन्द बी. वैद . हुक्मीचन्द एल. वैद " मेहसाना जयपुर सोलापुर मेनेजिंग-ट्रस्टी श्री जयकुमार बी. परीख [मेहसाना] कार्यालय-प्रबंधक किरीट जे. शाह [मेहसाना] Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OMR.MSCAMPARAMERCORMALARAMPARAMSARMERO श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट : मेहसाना द्वारा प्रस्तुत आजीवन सदस्य योजना क्या आप ऐसा साहित्य खोज रहे हैं, • जो आपके व्यक्तिगत जीवन को पवित्रता से भर दे ! जो आपके पारिवारिक जीवन को प्रसन्नता से भर दे ! ● जो आपके आसपास को आनन्द एवं उल्लास से भर दे ! तो आप एक काम कीजिये ! १००१/-रु. भरकर आजीवन सदस्य बन जाईये ! OTSMAV NIGAMEV ITSMARY TOPSMED "TPSMED TSMRPOSMEN OPMEV TIMEP "TSMAV OPMEN TPSMED TOPSMAY" हम आपको हमारे उपलब्ध हिन्दी-अंग्रेजी तमाम प्रकाशन भेज देंगे, सदस्य बनते ही ५००/रु. की किताबें आप को प्राप्त हो जायेगी। उपरान्त प्रतिवर्ष ४-५ नयी पुस्तकें नियमित भेजते रहेंगे । OTPSMEVTPSMENTSMEVOTISMENTSMAVTISMENTSMEVOTIMEPTEMEV TIMEV TIMEVIGEMENTIREVO आध्यात्मिक विकास के लिये तत्वचिंतन, स्वस्थ जीवन के लिए मौलिक चिंतन, भीतरी समस्याओं को सुलझानेवाला पत्र-साहित्य, जीवन के शाश्वत मूल्यों को उजागर करनेवाला कथा-साहित्य, बच्चों के लिये प्रेरणाप्रद सचित्र रंगीन साहित्य, यह सब प्राप्त करने के लिए सदस्यता फार्म मँगवाकर भरें। अथवा 'श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट, मेहसाना' इस नाम का ड्राफ्ट निम्न पते पर भेजें। पत्र व्यवहार :श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट कम्बोईनगर के पास, मेहसाना-३८४ ००२. (GUJARAT) @TIMEPOSMET COMEV PSMPO TIMEV TIMRP SMTV CSMPO Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट : मेहसाना द्वारा प्रकाशित हिन्दी साहित्य ● धम्मं सरणं पवज्जामि भाग १/२/३/४ · ज्ञानसार (संपूर्ण) ■ प्रशमरति भा. १/२ ■ प्रीत किये दुःख होय २०-०० ■ जिन्दगी इम्तिहान लेती है २०-०० न म्रियते I १०-०० ■ नैन बहे दिन रैन १०-०० ■ सबसे ऊंची प्रेम सगाई १०-०० ■ तीन पुरुषार्थ ७-०० ■ जैन धर्म ७-०० ६-०० ३-०० ३-०० ३-०० ■ राग-विराग ■ पथ के प्रदीप ■ मांगलिक ■ चैत्यवंदन सूत्र ■ प्रार्थना ■ संस्कार गोत ■ बच्चों को सुवास ■ बच्चों का जीवन ■ बच्चों का चिंतन ■ बच्चों का धर्मविज्ञान ☐ निकट भविष्य में : ■ यही है जिंदगी मारग साचा कौन बतावे ? ८०-०० ३०-०० ४०-०० १-०० १-०० २-०० २-०० २०० ४-०० Chaityavandan sutras in English ■ बच्चों का कर्मविज्ञान ४-०० ■ बच्चों का आत्म विज्ञान ४–०० ■ जिन दर्शन * कथा संपुट * [१२-५०] ■ कथा दीप ■ सूरज की पहली किरण कमल कोमल ■ श्रद्धा के प्रतीक ■ वीणा की झंकार मंगल मंदिर फूल पत्ती ■ गुलमोहर ■ समर्पण ■ धूप सुगंध * मिनी पुस्तिका सेट ■ मनोगंथन ■ प्रेरणा पियूष . स्वस्थ जीवन ■ सहज जीवन ■ स्वच्छ जीवन ■ विचार कण B मनः प्रसन्नता विचार दीप चिंतन दीप गुण हृष्टि ■ ■ ■ परमात्म श्रद्धा ■ हंसा तो मोती चुगे जीवन धर्म [१-५० ] ■ पाथेय ■ [ प्रत्येक ३२ पेज, जेबी साईज कीमत १ -०० अंग्रेजी साहित्य : ०० ] ■ Way of life 120-00 6-00 (part-1-2-3-4) ■A code of conduct Treasure of mind Guidelines of Jainism 10-00 Science of Children 5-00 ■ [3] Books] 12-00 3Books for children ■ 13 Mini Book set 6-00 19-50 Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन कल्याण. विश्व ट्रस्ट ६ मेहसाणा. Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयुत संपतराज श्री विश्वकल्याण महे thema Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचंद महेता निर्मित काशन ट्रस्ट UIT समयाना क माणस्टाग • प्रशमरति भा. १-२ .धम्म सरणं पवज्जामि भा. १।२।३।४ न म्रियते सबसे ऊँची प्रेम सगाई नैन बहे दिन रैन राग विराग जैन धर्म • तीन पुरुषार्थ • अंतरनाद • मांगलिक • पथ के प्रदीप • मोती की खेती • प्रार्थना • संस्कारगीत .बच्चों की सवास • बच्चों का जीवन • बच्चों का चितन • बच्चों का आत्मविज्ञान • बच्चों का कर्मविज्ञान । बच्चों का धर्मविज्ञान • कथादीप धूपसुंगध • फूलपत्ती • मंगलमंदिर • सूरज की पहली किरण . समर्पण .वीणा की झंकार . श्रद्धा के प्रतीक • गुलमोहर • कमल कोमल • मनोमंथन • मनःप्रसन्नता • प्रेरणापीयूष • पाथेय • सहजजीवन • गुणदृष्टि स्वच्छजीवन . स्वस्थजीवन • हंसा तो मोती चगे . विचार कण •चितनदीप . विचारदीप • परमात्म श्रद्धा . जीवन धर्म प्रतिमाह 'अरिहंत' के द्वारा ताजा चिंतन, प्रवचन, एवं साहित्य सर्जन । বাল त्याणपक •श्री www.jainelibrary.ore Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश Qlode .llola Jain Educ International www.jainen saryog