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________________ ૪૬ नहीं कर सकता । साथ हो उक्त साम्राज्य का ना हो कोई विपक्ष- शत्रु पक्ष है ! ऐसे ध्यानी नरपुंगव को भला, किस उपमा से अलंकृत किया जाए ? उस के लिए देवलोक में कोई उपमा नहीं है, ना ही मृत्युलोक में । ऐसी कोई पूर्णोपमा उपलब्ध नहीं त्रिभुवन में, जिस का उपयोग ध्यानीज्ञानी महापुरुष के लिए उपयुक्त हों । ज्ञानसार ध्याता, ध्यान, और ध्येय की एकता साधने वाला योगी चर्मचक्षुत्रों से दृष्टिगोचर नहीं होता, ना ही परखा जाता है। ऐसे महान् ध्याता महात्मा, अंतरंग आनन्द का अनुभव करते हैं । ऐसी उच्चतम श्रेणि प्राप्त करने के लिए जीवात्मा को ऊपर निर्दिष्ट विशेषताओं का संपादन करना आवश्यक है । ध्याता बनने के लिए यह एक प्रकार की आचार संहिता ही है । ऐसा ध्याता ही ध्येय प्राप्त करने का सुयोग्य अधिकारी बन सकता है । हे आत्मन् ! तू ऐसा सर्वोत्तम ध्याता बन जा ! प्रस्तुत पार्थिव जगत से सदा-सर्वदा के लिए अलिप्त हो जा । ध्येयरूप परमात्मस्वरूप का अनन्य पूजारी, पूजक बन जा ! इतना ही नहीं, बल्कि इसका हो प्रेमी बन जा । अपने जीवन की हर पल को तू इस में ही लगा दे ! ध्येय में ध्यान से निमग्न हो जा। और अनुभव कर ले इस अपूर्व आनन्द का ! ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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