SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 488
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यान जाता है। उस का रोम-रोम विकस्वर हो उठता है। हृदय अकथ्य आनन्दोर्मियों से छलक उठता है और मुखमंडल अपूर्व सौम्यता से देदीप्यमान नजर आता है । तब उसे विषय-भोग की स्पृहा नहीं होती, ना ही काम-वासनाओं का संताप । अर्थात् अानन्द ही आनन्द का वातावरण छाया रहता है सर्वत्र ! 'भिक्षरेक: सुखी लोके ।' यह कैसा सत्य का सत्य और सनातन सत्य है। जो ध्यानी है, वह भिक्ष/मुनि ऐसा अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर सकता है ! ६. अप्रमत्तः प्रमाद ! आलस ! व्यसन ! इस भूतावलि को तो कोसों दूर रख, वह परमात्म-स्वरुप के सन्निकट पहँच जाता है। वह इस का कभी शिकार नहीं होता, बल्कि उस के अंग-प्रत्यंग से स्फूर्ति की किरणें प्रस्फुटित होती रहती हैं। निरंतर मन अपूर्व-असीम उत्साह से भरा-भरा रहता है। वह प्रासनस्थ हो या खड़ा....भव्य विभूति महा मानव ही प्रतीत होता है। साथ ही ऐसा भास होता है जैसे वह परमात्मा की प्रतिकृति न हो? अरे, वैभारगिरि पर ध्यानस्थ धन्ना अणगार के जब मगधाधिपति श्रेणिक ने दर्शन किये थे, तब वे ऐसी ही भव्य विभूति लगे थे, सहसा वे उनके समक्ष नतमस्तक हो गये ! उन के हृदय में सहसा भक्ति का प्रवाह प्रकट हो उठा! अप्रमत्त ध्यानी महात्मा के दर्शन से श्रेणिक गद्गद् हो उठे थे ! ओर उसो क्षण अप्रमाद का अपूर्व प्रताप, मगध-नरेश श्रेणिक के भव-ताप को दूर करने वाला साबित हुआ। ध्यानी के प्रागे अभिमानो का अभिमान पानी हो जाता है और उसको मोन वाणो प्राणो के प्राणों को नवपल्लबित कर देती है। १०. चिदानन्द-अमृत अनुभवी: ध्यानी महापुरुष को सर्वदा एक ही अभिरूचि होती है ज्ञानानन्द का जो भर रसास्वादन करने की। सिवाय इस के उसे इस संसार से कोई दिलचस्पी नहीं । ज्ञानानन्द का अमृत हो उसका पेय होता है। आत्मज्ञान का प्रास्वाद लेते वह जरा भी नहीं अघाता। ऐसे ध्यानी महात्मा अपने अंतरंग-साम्राज्य का विस्तार करते हुए न जाने कैसा प्रात्म-तत्त्व बनाते हैं ! उस के साम्राज्य का वही एक मात्र अधिकारी और स्वामी ! अन्य कोई भूल कर भी उनकी इल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy