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विश्व में सुख के अनंत प्रकार हैं । लेकिन सिर्फ 'ज्ञानसुख' ऐसा एकमेव सुख है, जिसे भयाग्नि कभी स्पर्श नहीं कर सकती ! तब उसे जलाने का सवाल ही नहीं उठता है । ज्ञानसुख को भयाग्नि भस्मीभूत नहीं कर सकती ! भय के भूत उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते और ना ही भय की प्राँधी उसे अपने गिरफ्त में ले सकती है ।
ज्ञानसार
ज्ञान की विश्व - मंगला वृष्टि से आत्मप्रदेश पर सतत प्रज्वलित विषय-विषाद की भीषण अग्नि शांत हो जाती है । और सुख-प्रानंद के अमर पुष्प प्रस्फुटित हो उठते हैं ! अपने मनोहर रूप-रंग से प्राणी मात्र का मन मोह लेते हैं ! उन पुष्पों की दिव्य सौरभ से मन में ब्रह्मोन्मत्तता, कंठ में अलख का कूजन और यौवन में अलख की बहार आ जाती है । सारा वातावरण अद्भुत रम्य बन जाता है और अलख की धडकन से हृदय सराबोर हो उठता है ।
पामर जीव को परमोच्च और रंक को वैभवशाली बनाने की अभूतपूर्व शक्ति 'ज्ञानसुख' में है । आत्मा के प्रतल उदधि की प्रगाधता को स्पर्श करने की अनोखी कला 'ज्ञानसुख' में है। जब कि ऐसी अगम्य शक्ति और कला संसार - सुख में कतई नहीं है । अतः संसार - सुख की तुलना में ज्ञानसुख शत-प्रतिशत प्रभावशाली और अद्वितीय है । मतलब, ज्ञान से ही जब परम सुख और अवर्णनीय आनंद की प्राप्ति हो जाएगी, तब संसारसुख अपने श्राप ही भस्म - सा लगेगा ।
न गोप्यं क्वापि नारोप्यं हेयं देयं च न क्वचित् ।
क्व भयेन मुनेः स्थेयं ज्ञ ेयं ज्ञानेन पश्यतः ? ३ ।। १३१ ।।
अर्थ : जानने योग्य तत्त्व को स्वानुभव से समझते मुनि को कोई कही छिपाने जैसा अथवा रखने जैसा नहीं है । ना ही कहीं छोड़ने योग्य है ! तब फिर भय से कहां रहता है ? प्रर्थात मुनि के लिए कहां पर भी भय नहीं है
विवेचन : हे मुनिवर ! क्या आपने कुछ छिपा रखा है ? क्या आपने कोई वस्तु कहां रख छोडी है ? क्या आपने कोई चीज जमीन में दबा रखी है ? क्या आप को कुछ छोड़ना पड़े ऐसा है ? कुछ देना पडे ऐसा है ? फिर भला, भय किस बात का ?
क्या आपको
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