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क्रिया
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"जरा ध्यान से देखो; यहाँ एक भी कर्म रूपी बादल नहीं है । तुम्हारे सामने शुद्ध स्फटिकमय सिद्ध शिला का अनन्त आकाश फैला हुआ है ! 'शुक्लपक्ष' की अनुपम, धवल रजनी सर्वत्र व्याप्त है । अनंत गुणों से युक्त आत्मा का चन्द्र पूर्ण कलाओंों से विकसित है । पल दो पलनिरन्तर - निर्निमेष नेत्रों से बस, देखते ही रहो उस का अलौकिक सौन्दर्य, रूप और रंग ।"
आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का अनंत गुणमय स्वरूप का ध्यान, कठोर कर्मों के मर्म का छेदन कर देता है । वह तीव्र से तीव्र कर्मबन्धनों को तोड़ने में, उसे जड़मूल से उखाड़ फेंकने में समर्थ हैं । जब तक हमें वास्तविक अनंत गुणमय ग्रात्मस्वरुप की प्राप्ति न हो जाए, तब तक एकाग्र चित्त से उस का ध्यान और उसे प्राप्त करने का पुरुषार्थ निरन्तर करना चाहिये । और एक बार इसकी प्राप्ति होते. ही 'सच्चिदानन्द' की प्राप्ति होते देर नहीं लगेगी । फलत: समस्त सृष्टि, निखिल भूमण्डल पूर्ण रूप से दिखायी देगा | पूर्णता की लौकिक सचेतन सृष्टि का दर्शन होगा । इसी पूर्णता का परम दर्शन कराने हेतु पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने ग्रावश्यक पुरुषार्थ का वर्णन अपने आठ अष्टकों में क्रमश: इस प्रकार किया है : पूर्णतामय दृष्टि, ज्ञानानन्द में लीनता, स्वसंपत्ति में चित्त की स्थिरता, मोहत्याग, तत्त्वज्ञता, कषायों का उपशम इन्द्रिय-जय और सर्वस्व त्याग |
इस तरह जीवात्मा क्रमश: सर्वोच्च पद प्राप्त करती है ।
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