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ज्ञानसार
जानकारी बारहवें देवलोक के इन्द्र सीतेन्द्र को प्राप्त हुई, तब वह विह्वल हो उठा। क्योंकि पूर्वभव का अद्भुत स्नेहभाव उसके रोम-रोम में अब भी व्याप्त था । फलस्वरुप उसने श्री रामचन्द्रजी की समाधि को भंग करने के लिये नानाविध उपसर्ग आरंभ कर उन्हें ध्यानयोग से विचलित करने का मन ही मन संकल्प किया । रामचन्द्रजी का मोक्षगमन सीतेन्द्र को तनिक भी न भाया । उसे तो उनके सहवास की भूख थी और थी तीब्र चाह । आनन-फानन में वह देवलोक से नीचे उतर आया ।
__उसने अपनी दैवी शक्ति से रमणीय उद्यान, कलकल नाद करते स्त्रोत, हरियाली से युक्त प्रदेश... यहाँ तक कि साक्षात् वसंत ऋतु को धरती पर उतार दिया । कोयल की मनभावन कूक, मलयाचल की मंथर गति से बहती हवा, क्रीडारसिक भ्रमरराज का मृदु गुंजन आदि मनोहारी दृश्यों की बाढ़ आ गयी । सर्वत्र कामोत्तेजक वातावरण का समाँ बंध गया और तब इन्द्र स्वयं नवोढा सीता बन गया । साथ ही असंख्य सखियों के साथ गीत-संगीत की धुनें जगा दी। वह विनीत भाव से रामचन्द्रजी के सामने खड़ा हो गया । नतमस्तक हो सौन्दर्य का अनन्य प्रतीक बन, उसने गद्गद् कंठ से कहा - "नाथ ! हमारा स्वीकार कर दिव्य सुख का उपभोग कीजिये और परम तृप्ति पाईये । मेरे साथ रही मेरी इन असंख्य विद्याधर युवतियों के उन्मत्त यौवन का रसास्वादन कर हमें कृतकृत्य कीजिये ।" नपुर के मंजुल स्वर के साथ स्मरदेव केलि-क्रीडा में खो गये।
लेकिन सीतेन्द्र के मृदु वचन. दिव्य सौन्दर्य की प्रतीक असंख्य विद्याधर युवती. अद्भुत गीत-संगीत और कामोत्तेजक वातावरण से महामुनि रामचन्द्रजी तनिक भी विचलित न हुए, ना ही चचल बने । क्योंकि वे तो पहले से ही परम ब्रह्म के रसास्वादन में परम तृप्ति का अनुभव कर रहे थे। फिर तो क्या, अल्पावधि में ही उन्हें केवलज्ञान हमा । फलत: विवश हो, सीतेन्द्र ने अपने माया-जाल को समेट लिया। उसने भक्तिभाव से श्री रामचन्द्रजी को वन्दना, उनकी स्तुति को और केवलज्ञान का महोत्सव प्रारंभ कर भक्तिभाव में लीन हो गया।
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