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नयविचार
जैसे अतीत-अनागत वस्तु नहीं है, उसी तरह जो परकीय वस्तु है वह भी परमार्थ से असत् है, क्योंकि वह अपने किसी प्रयोजन की नहीं ।
ऋजुसूत्र नय निक्षेपों में नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव चारों निक्षेप मानता है ।
मात्र वर्तमान पर्याय को माननेवाला और सर्वथा द्रव्य का अपलाप करने वाला 'ऋजुसूत्राभास' नय है । बौद्ध दर्शन ऋजुसूत्राभास में से प्रकट हुआ दर्शन है । शब्द
इस नय का दूसरा नाम 'साम्प्रत' नय है। यह नय भी ऋजुसूत्र की तरह वर्तमानकालीन वस्तु को ही मानता है। अतीत-अनागत वस्तु को नहीं मानता । वर्तमानकालीन परकीय वस्तु को भी नहीं मानता ।
निक्षेप में केवल भावनिक्षेप को ही मानता है। नाम-स्थापना और द्रव्य-इन तीनों निक्षेपों को नहीं मानता ।
इसी तरह लिंग और वचन के भेद से वस्तु का भेद मानता है, . अर्थात् एकवचन वाच्य 'गुरु' का अर्थ अलग और बहुवचन वाच्य 'गुरवः'
का अर्थ अलग ! इसी तरह पुल्लिग अर्थ नपुंसकलिंग से वाच्य नहीं और स्त्रीलिंग से भी वाच्य नहीं । नपुंसकलिंग-अर्थ पुल्लिग-वाच्य नहीं और स्त्रीलिंगवाच्य भी नहीं । ऐसा स्त्रीलिंग के लिए भी समझना ।
यह नय अभिन्न लिंग-वचनवाले पर्याय शब्दों को एकार्थता मानता है । अर्थात् इन्द्र-शक्र-पुरन्दर वगैरह शब्द जिनका कि लिंग-वचन समान है, उन शब्दों की एकार्थता मानता है । उनका अर्थ भिन्न-भिन्न नहीं मानता।
'शब्दाभिधार्थप्रतिक्षेपी शब्दनयाभासः ।' शब्दाभिधेय अर्थ का प्रतिक्षेप (अपलाप) करने वाला नय शब्दनयाभास कहलाता है। समभिरूढ़
- शब्दमय तथा समभिरूढ़ नय में एक भेद है । शब्छ नय अभिन्न लिंग वचनवाले पर्याय शब्दों की एकार्थता मानता है, जबकि समभिरूढ़
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