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________________ ३६ अशेष विशेष का अपलाप करते हुए सामान्यरूप से ही समस्त विश्व को यह नय मानता है । 1 एकान्त से सत्ता अद्वैत को स्वीकार कर, सकल विशेष का निरसन करने वाला संग्रहाभास है, इस प्रकार महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज कहते हैं । सभी अद्वैतवादी दर्शन और सांख्य दर्शन सत्ताअद्वैत को ही मानते हैं । व्यवहार ज्ञानसार विशेषप्रतिपादनपरो व्यवहारनयः । - श्रीमद् मलयगिरि सामान्य का निरास करते हुए विशेष को ही यह नय मानता है । 'सामान्य' अर्थक्रिया के सामर्थ्य से रहित होने के कारण सकल लोकव्यवहार के मार्ग में नहीं आ सकता । व्यवहार नय कहता है कि 'यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् । वही परमार्थ- दृष्टि से सत् है कि जो अर्थक्रियाकारी है । सामान्य अर्थक्रियाकारी नहीं है अतएव वह सत् नहीं है । यह नय लोकव्यवहार का अनुसरण करता है । जो लोग मानते हैं उसे यह नय मानता है । जैसे लोग भ्रमर को काला कहते हैं । वास्तव में भ्रमर पांच रंगों वाला होता है । फिर भी काला वर्ण स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है, इससे लोग भ्रमर को काला कहते हैं । व्यवहार नय भी भ्रमर को काला कहता है । स्थूल लोकव्यवहार का अनुसरण करनेवाला यह नय द्रव्य - पर्याय के विभाग को अपरमार्थिक मानता है, तब यह व्यवहाराभास कहलाता है । चार्वाक दर्शन इस व्यवहाराभास में से ही उत्पन्न हुआ है । ऋजुसूत्र प्रत्युत्पन्नग्राही ऋजुसूत्रो नयविधिः । -आचार्य श्री मलयगिरिः जो अतीत है वह विनष्ट होने से तथा जो अनागत है वह अनुत्पन्न होने से न तो वे दोनों अर्थक्रिया समर्थ हैं और न प्रमाण के विषय हैं । जो कुछ है वह वर्तमानकालीन वस्तु ही है । भले ही उस वर्तमानकालीन वस्तु के लिंग और वचन भिन्न हों । सत्ताद्वैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेषान् निरराचक्षाण: संग्रहाभासः । Jain Education International For Private & Personal Use Only जैन तर्कभाषा www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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