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नियाग यज्ञ]
४३१ आत्मा तनिक मैली हो जाएं । लेकिन जिनपूजा के कारण जब शुभ और शुद्ध अध्यवसाय का प्रगटीकरण होगा तब नि:सन्देह आत्मा का मर्व मल धुल जाएगा ! भव-भ्रमण का सारा श्रम क्षरणार्घ में शान्त हो जाएगा और परमानन्द की प्राप्ति होगी। गृहस्थ को यों ब्रह्मयज्ञ करना है , जबकि संसार-त्यागी अरणगार को तो ज्ञान का ही ब्रह्मयज्ञ करना है ! उसके लिए जिनपूजा का द्रव्य-अनुष्ठान अावश्यक, नहीं ।
* भिन्नोद्देशेन विहितं कर्म कर्मक्षयाक्षसम । : फ्लुप्त भिन्नाधिकार चपुत्रेण्टयादिवदिष्यताम:॥५॥२३१॥ अर्थ :- भिन्न उद्देश्य को लेकर शास्त्र में उल्लखित अनुष्ठान कर्म-अप करने
में असमर्थ है । कल्पित है भिल अधिकार जिसका, ऐसा पुत्रप्राप्ति
के लिये किया जाता यज्ञ वगैरह की तरह मानो । विवेचन :- तुम्हारा उद्देश्य क्या स्पष्ट है ? तुम्हारा ध्येय निश्चित है? तुम्हें क्या प्राप्त करना है ? क्या बनना है ? कहां जाना है ? जो तुम्हें प्राप्त करना है और जिसके लिए तुम पुरूपार्थ कर रहे हो क्या वह प्राप्त होगा ? जो तुम बनना चाहते हो , वैसे क्या तुम्हारी प्रवृत्ति से बन पायोगे ? जहां तुम्हे जाना है , वहां तुम पहुँच सकोगे क्या ?
वास्तव में देखा जाएँ तो तुम्हारे सारे कार्य-कलाप इच्छित उद्देश्य ध्येय से शत-प्रतिशत विपरीत है । तुम्हें सिद्धि प्राप्त करनी है न ? परम आनन्द , परम सुख की प्राप्ति हेतु तुच्छ पानन्द और क्षणिक मुख से मुक्ति चाहते हो ? तुम्हें परमगति प्राप्त करनी है क्या ? तब चार गति के परिभ्रमण से मुक्त होना चाहते हो ? तुम्हे सिद्ध-स्वरूपी बनना है ? तब निरंतर परिवर्तनशील कर्म-जन्य अवस्था से छुटने का पुरूषार्थ करते हो ? तुम्हें शाश्वत्-शान्ति की मंजिल पर पहुंचना है न ? तब सांसारिक अशान्ति, सन्ताप और क्लेश से परिपूर्ण स्थानों का परित्याग करने की तत्परता रखते हो न ?
तुम्हारा लक्ष्य है इन्द्रियजन्य विषय-भोगों का , और पुरुषार्थ करते हो धर्म का ! तुम्हें चार गति में सतत परिम्रमरण करना है और प्रयत्नशील हो धर्म-ध्यान के लिए ! तुम्हें आकंठ डूबे रहना है कर्मजन्य प्रयत्नशील अवस्था में और मेहनत करते हो धर्म की ! उफ् कैसो विडम्बना है कथनी और करनी में ? यदि हमारा ध्येय और
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