SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 456
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३२ पुरुषार्थ परस्परविरोधी होगा तो कार्य सिद्धि प्रसंभव है । -क्षय असम्भव कर्मक्षय के पुरूषार्थ और पुण्य बधन के पुरूषार्थ में जमीन-आसमान का अन्तर है । पुण्य-बंधन हेतु आरम्भित पुरुषार्थं से कर्म - है । हालाँकि पुण्य - बंघन के विविध उपाय शास्त्रों में अवश्य बताये गये । लेकिन उन उपायों से कर्म-क्षय अथवा सिद्धि नहीं होगो, पुण्यबन्धन अवश्य होगा! कोई कहता है : "हिंसक यज्ञ में भी विविदिषा (ज्ञान) विद्यमान है ।" लेकिन यह सत्य नहीं है। हिंसक यज्ञ का उद्देश्य अभ्युदय है, निःश्रेयस् नहीं । साथ ही निःश्रेयस के लिए हिंसक यज्ञ नहीं किया जाता ! पुत्र - प्राप्ति के लिए सम्पन्न यज्ञ में विविदिषा नहीं होती, ठीक उसी तरह सिर्फ स्वर्गीय सुखों की कामना से सम्पन्न दानादि क्रियाएँ भी सुख -: -प्राप्ति हेतु नहीं होती । अलबत्त, दानादि क्रियाओं को यहाँ हेय नहीं बतायी गयी हैं, परंतु उससे पुण्य - बंधन होता है, यह बताया गया है । यदि तुम्हारा ध्येय कर्मक्षय ही है, तो ज्ञान-यज्ञ करो ! लेकिन ऐसी भूल कदापि न करना की पुण्य - बंधन की क्रियाओं का परित्याग कर पाप-बंधन की क्रियाओं में सुध-बुध खो बैठो और कर्म-क्षय का उद्देश्य ही भूल जाओ । ब्रह्मार्पणमपि ब्रह्मयज्ञान्तर्भावसाधनम् । ब्रह्माग्नौ कर्मणो युक्तं स्वकृतत्वस्मये हुते ||६|| २२२ ।। ज्ञानसार अर्थ : ब्रह्म यज्ञ में अन्तर्भाव का साधन, ब्रह्म को समर्पित करता, लेकिन ब्रह्मरूप अग्नि में कर्म का और स्व-कर्तृत्व के अभिमान का योग करते हुए भी युक्त है । विवेचन : गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं : कांक्षतः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः । क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मणा || - अध्याय ४ श्लोक १२ " मानव-लोक में जो लोग कर्मों की फलसिद्धि को चाहते हुए देवीदेवताओं का पूजन करते हैं, उन्हें कर्म-जन्य फलसिद्धि ही प्राप्त होती है ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy