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________________ लोकसंज्ञा-त्याग ३४५ धर्म आत्म-साक्षिक है। यदि हम आत्मसाक्षी से धार्मिक वृत्ति के हैं तो फिर लोक व्यवहार से क्या मतलब ? खुद ही अपने मुंह से 'मैं धार्मिक हूँ, मैं आध्यात्मिक हूँ....।" घोषणा करने की क्या आवश्यकता है ? अपितु प्रात्म-साक्षी से चिंतन-मनन करना चाहिए : "मैं धार्मिक हूँ ? अर्थात् शीलवान हूँ ? सदाचारी हूँ ? न्यायी हूँ ? नि:स्पृह हूँ ? निर्विकार हैं ?' इस का न्याय आत्मा से लेना चाहिए । भुल कर भी कभी लोगों के प्रमाण पत्र' पर निर्णय मत करो। महाराजा श्रेणिक ने प्रसन्नचंद्र राजर्षि को कैसा 'प्रमाण पत्र' दिया था! "उन तपस्वी ....महान योगी..सच्चे महात्मा' आदि। लेकिन उक्त प्रमाण पत्र के आधार पर प्रसन्नचंद्र राजर्षि को क्या केवलज्ञान प्राप्त हुआ ? नहीं, कतइ नहीं ! हाँ, मन ही अपने भाई के साथ युद्धरत प्रसन्नचंद्र के पास जब उसके हनन हेतु कोई शस्त्रास्त्र न रहा, तब मस्तक पर रहे मुगुट का उपयोग शस्त्ररूप में करने के लिए उन्होंने अपने हाथ ऊपर उठाये....लेकिन मस्तक पर मुगुट कहाँ था ? मस्तक पर एक बाल भी न था....! अतः ऊपर उठे दोनों हाथ के साथ-साथ वे खुद भी मानसिकयुद्ध भूमि से स्वस्थान लौट आये ! आनन-फानन में उन्हें अपनी भूल समझ में आ गयी । पश्चात्ताप की भावना उग्र होती गयी । इस तरह वे धर्म-ध्यान और शुक्लध्यान में दुबारा स्थिर हो गये और केवलज्ञानी बने ! धर्मोपासना के कार्य में लोकसाक्षी को प्रमाणभूत न मानो! प्रात्म-साक्षी को प्रमाण-भूत मानो! यदि लोक साक्षी को प्रमाणभूत मानने की भूल करोगे तो जाहिर में अपनी धर्म-भावना प्रदर्शित करने की कुबुद्धि सुझेगी....! फलस्वरूप तुम्हारा सारा दार-मदार संसार और संसारी- जीवों पर रहेगा ! आत्मा को विस्मृत कर जाओगे ! उसकी उपेक्षा करने लगोगे । तब आत्मोन्नति के लिए धर्मध्यान करने की भावना विलुप्त हो, लोक-प्रसन्नत्ता के लिए ही धर्माराधना होगी....। इस तरह अात्म--कल्याण का महान् कार्य बीच में स्थगित हो जाएगा, और तुम जन्म-मृत्यु के फेरों में भटक जाओगे। मोक्ष का सुहाना सपना छिन्न-भिन्न हो जाएगा.... । शिवपुरी का कल्पनामहल ध्वस्त होते देर नहीं लगेगी। पुनः चौरासी लाख जीव-योनि का परिभ्रमण अनिवार्य हो जाएगा। तब भला, लोक-साक्षी से धर्म-ध्यान करने से क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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