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ज्ञानसार
रूप-रंग ही बदल गया ! वे फ्ल, दो पल मन ही मन सोचते रहे : "क्या मेरी सुदरता, शोभा सिफ परपुद्गल ऐस वस्रालंकारो से हो है ?" और वे धर्म-ध्यान में खो गये । फलस्वरूप उसी दर्पण महल में वे शुक्लध्यान और केवलज्ञान के अधिकारी बन गये । गृहस्थ के रूप में ही केवलज्ञानो बन गये। इधर दर्पण-महल के बाहर राजकर्मचारी ओर दरबारी चक्रवर्ती भरत की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन दर्पण महल से बाहर निकले केवलज्ञानी भरत ! उन्हें आत्मसाक्षी ही केवलज्ञान प्राप्त हो गया था !
प्रसन्नचंद्र राजर्षि !
भयानक और वीरान स्मशान में वे ध्यानस्थ खडे थे। सिर्फ एक पाँव पर ध्यानस्थ । सूर्य की और स्थिर दृष्टि किये....अंग..प्रत्यंग को आत्म-नियंत्रित किये हुए। लेकिन राजमार्ग पर से गुजरते सैनिकों की वाणी सहसा उनके कानों पर आ टकरायी : "राजा प्रसन्नचंद्र के पुत्र का राज्य उसके चाचा हथियाने की ताक में है....।" बस, इतनो सो बात ! लेकिन प्रसन्नचंद्र राजर्षि का ध्यान भंग हो गया ! वे वैचारिक संघर्ष में उलझ गये । राजर्षि मानसिक युद्ध में कूद पडे । उनका युद्धोन्माद का ज्वर उतरने के बजाय निरंतर बढता ही गया । इधर श्रेणिक महाराज राजर्षि की घोर तपस्या और अभंग ध्यानावस्था पर मुग्ध हो उठे ! उन्हों ने उन्हें बार-बार वंदन किया लेकिन बाह्यदृष्टि से घोर तपश्चर्या में रत प्रसन्नचंद्र राजर्षि, यात्म-साक्षी से क्या तपस्वी थे ? नहीं, बिलकुल नहीं ! वास्तव में वे तपस्वी न थे, बल्कि सातवी नरक में जाने के कर्म इकट्ठा कर रहे थे !
ये दोनों उदाहरण कैसे हैं ? परस्पर विरोधी! चक्रवर्ति भरत बाह्य दृष्टि से प्रारम्भ-समारम्भ से युक्त संसार-रसिक दृष्टिगोचर होते थे! लेकिन आत्म-साक्षी से निर्लिप्त पूर्ण योगीश्वर थे। किसी ने ठीक ही कहा है : 'भरत जी मन में ही वैरागी.. !' जब कि प्रसन्नचंद्र राजर्षि बाह्यदृष्टि से घोर तपस्वी, प्रारम्भ-समारम्भ रहित, मोक्षमार्ग के पथिक थे.... लेकिन आत्म-साक्षी से युद्धप्रिय..बाह्य भावों में लिप्त थे। श्री 'महानिशीथ सुत्र' में कहा गया है :
-धम्मो अप्पस क्खियो।
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