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ज्ञानसार
अत्यंत भिन्न हूँ । इसीलिए मैं पूर्णतया विशुद्ध हूँ। मैं चिन्मात्र हूँ! सामान्य-विशेषात्मकता का अतिक्रमण नहीं करता । अतः दर्शन-ज्ञानमय हूँ ! स्पर्श, रस, गंध और वर्ण से मैं भिन्न होने की वजह से परमार्थ से सदा अरुपी हूँ।
प्रात्मा के असाधारण लक्षणों से सर्वथा अज्ञात/अपरिचित अत्यंत विमूढ मनुष्य तात्त्विक आत्मा को समझ नहीं पाता और पर को ही आत्मा मान बैठता है ! कर्म को आत्मा मानता है ! कर्म-संयोग को आत्मा मान लेता है ! कर्म-जन्य अध्यवसायों को आत्मा मानता है । तब कर्मविपाक को ही आत्मा मान लेता है ! लेकिन यह सत्य भूल जाता है कि प्रस्तुत सभी भाव पुदगल-द्रव्य के परिणाम से निष्पन्न हैं, अतः उसे जीव कैसे कहा जाए ? श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है कि उक्त आठ प्रकार के कर्म पुद्गलमय हैं ! प्रविहं पि य कम्म सव्वं पुग्गलमयं जिरणा विति'।
-समयसारे कर्म और कर्मजनित प्रभावों से प्रात्मा की भिन्नता जानने के लिए मुनि को हंसवत्ति का अनुसरण करना चाहिए। जिस तरह हंस दूध-पानी के मिश्रण में से सिर्फ दूध को ग्रहण कर पानी को छोड़ देता है, ठीक उसी तरह मुनि को भी कर्म-जीव के मिश्रण में से जीव को ग्रहण कर कर्म को छोड़ देना चाहिए । उसके लिए यह आवश्यक है कि, जीव के असाधारण लक्षणों को वह भली-भांति जान लें, अवगत कर लें, और तदनुसार जीव का श्रद्धान करें।
इस तरह का विवेक जब मुनि में पनपता है, जागृत होता है, तब वह अपने आप में पूर्णानन्द का अनुभव करता है ! उसके रागादि दोषों का उपशम हो जाता है और चित्त प्रसन्न/प्रफुल्लित हो जाता है।
देहात्माधविवेकोऽयं सर्वदा सुलभो भवे ।
भवकोट्यापि तभेद-विवेकस्त्वति दुर्लभः ॥२॥११४ अर्थ :- संसार में प्राय: शरीर और आत्मा वगैरह का अविवेक आसानी से
प्राप्त हो सके वैसा है । लेकिन करोड़ों जन्मों के उपरांत भी उसका भेदज्ञान अत्यंत दुर्लभ है ।
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