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- विवेक
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विवेचन : इस संसार में रहे जीव, शरीर और आत्मा के अभेद की - वासना से वासित हैं और अभेद-वासना का अविवेक दुर्लभ नहीं, बल्कि सुलभ है । यदि कोई दुर्लभ है तो सिर्फ भेद-परिज्ञान ! लाखों-करोड़ों जन्मों के बावजूद भी भेद-ज्ञानरूपी विवेक सर्वथा दुर्लभ है !
सांसारिक जीव इस शाश्वत् सत्य से पूर्णतया अनभिज्ञ है कि शरीर से भिन्न ऐसा 'आत्मतत्त्व' नामक कोई तत्त्व भी है । वे तो आत्मा के - स्वतंत्र अस्तित्व तक को नहीं जानते, तब आत्मा का शुद्ध ज्ञानमय - स्वरुप जानने का प्रश्न ही कहां उठता है ? हर एक के लिए ग्रात्मा का स्वतंत्र अस्तित्व समझना और उसके प्रति पूरी श्रद्धा रखना कि 'मन से भिन्न, वचन से भिन्न और काया से भिन्न ऐसी चैतन्य स्वरूप • आत्मा है !' सुलभ नहीं है! कोई महात्मा ही ऐसे भेद - ज्ञान के जाता हो सकते हैं ।
सुपरिचिताणुभूता, सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा । एगत्तस्सुवलंभो वरिण सुलभो विभत्तस्स ||४||
—समयसार
“काम भोग की कथा किसने नहीं सुनी ? कौन उससे परिचित • नहीं है ? किसके अनुभव में वह नहीं ग्रायी ? मतलब, काम-भोग की कथा सबने सुनी है, सब उससे परिचित हैं और सबने उस का अनु"भव किया है ! क्यों कि वह सर्वथा सुलभ है । जबकि शरीरादि से भिन्न आत्मा को एकता सुनने में नहीं आयी, उससे कोई परिचित नहीं है और ना ही उसका किसी ने अनुभव किया है, क्योंकि वह दुर्लभ है । असलियत यह है कि काम भोग की कथा तो असंख्य बार सुनी है,
: हृदय में संजोकर जीवन में उसका जी भर कर अनुभव किया है । विश्वविजेता सम्राट मोह के राज्य में यही सुलभ और संभव था, जबकि दुर्लभ था सिर्फ भेद-ज्ञान ! विशुद्ध आत्मा के एकत्व का संगीत वहाँ कहीं सुनायी नहीं पड़ रहा था !
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भेद-ज्ञान के रहस्यों को जानने के लिए अंतरात्मदशा प्राप्त करना जरुरी है । उसके लिए पंचेन्द्रिय के विषयों के प्रति विरक्ति, उपेक्षाभाव और तत्संबंधित विषयों का त्याग करते रहना चाहिए | उसके
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