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________________ १६६ विवेक कर्म जीवं च संश्लिष्टं सर्वदा क्षीरनीरवत् । विभिन्नीकुरुते योऽसौ मुनिहंसो विवेकवान् ॥१॥११३॥ अर्थ :- दूध और पानी की तरह ओत-प्रोत बने जीव और कर्म को जो मुनि रूपी राजहंस सदैव अलग करता है, वह विवेकवंत है । विवेचन : जीव और अजीव का जो भेद-ज्ञान, वह है विवेक । कर्म और जीव एक दूसरे में इस तरह प्रोत-प्रोत हैं, जिस तरह दूध और पानी ! प्राज ही नहीं बल्कि अनादिकाल से परस्पर प्रोतप्रोत हैं। उन्हें उनके लक्षण द्वारा भिन्न समझने का अर्थ ही विवेक है। क्योंकि अनादिकाल से आत्मा कर्म और जीव को अभिन्न मानती आयी है और उसी के फलस्वरूप अनंतकाल से संसार में भटकती रही है । उसका भव-भ्रमण तभी मिट सकता है जब वह जीव और अजीव का विवेक पाले । अहमिक्को खलु सुद्धो दंसरण-गारामइओ सदारूवी । गवि अस्थि मज्झ किञ्चि विअण्णं परमाणु मित्तवि ॥३८॥ -समयसार अविद्या से मुक्त आत्मा अपने आपको पुद्गल से भिन्न समझते हए : 'वास्तव में एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन-ज्ञानमय हूँ और निराकार हूँ ! दूसरा कोई परमाणु भी मेरा नहीं है ।' ऐसा सोचता है । जिस तरह किसी मनुष्य की मुद्री में सोने का सिक्का हो....लेकिन वह भूल गया हो कि उसकी मुट्ठी में सोने का सिक्का है और याद प्राते ही अचानक महसूस करता है कि उसकी मुट्ठी में सोने का सिक्का है। ठीक उसी तरह मनुष्य अनादिकालीन मोहरूपी अज्ञान की उन्मत्तता के वशीभूत हो कर अपने परमेश्वर स्वरूप आत्मा को भूल गया था ! लेकिन उसे भव-विरक्त सद्गुरु का समागम होते ही और उनके निरंतर उपदेश से सहसा अनुभव हुआ कि 'मैं तो चैतन्य-स्वरुप परम ज्योतिर्मय प्रात्मा हूँ...मेरे अपने अनुभव से मुझे लगता है कि मैं चिन्मात्र आकार की वजह से समस्त क्रम एवं अक्रम स्वरुप प्रवर्तमान व्यवहारिक भावों से भिन्न नहीं है ! अतः मैं एक हूँ-अकेला हूँ ! नर-नारकादि जीव के विशेष पर्याय अजीव, पुण्य, पाप, आस्व-संवर, निर्जरा बंध और मोक्ष, इन व्यवहारिक नौ तत्त्वों के ज्ञायक-स्वभावरुप भाव के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only wonal www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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