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________________ २७० तत्त्वदृष्टि महात्मा, नारीसमागम में नरक के दर्शन करते हैं ! नरक की भयंकर यातनाओं के दर्शन मात्र से मोह का नाश होता है ! नारी के अंगविक्षेप और प्रेमालाप के भीतर कपट-लीला का दर्शन होता है और वैराग्य जग जाता है ! ज्ञानसार बर्हिष्टि मनुष्य, नारी को मात्र शारीरिक उपभोग का साधन मान, उसके साथ बीभत्स व्यवहार करता है, जब कि तत्त्वदृष्टि जीव नारी की आत्मा भी मोक्षमार्ग की आराधना कर सकें इतनी पवित्र और उत्तम है !' ऐसी पवित्र दृष्टि रखते हुए उसके शारीरिक कमनीय अवयवों का ममत्व छोडने के आशय से, उसे ( नारी को) विष्टा, मूत्र की इंडिया, नरक का दिया और कपट की काल कोठरी के रूप में देखता है । और यह प्रयोग्य भी नहीं है ! स्त्री के सौंदर्य का और उसकी भाव-भंगिमा की अलौकिकता का वर्णन उन लोगों ने किया है, कि जो सर्वथा कामी, विकारी और शारीरिक वासना के भूखे भेडिये थे ! आज भी बहिर्दृष्टि मनुष्य नारी के बाह्य सौन्दर्य के रुप और रंग तथा फेशनपरस्ती की प्रशंसा करते नहीं प्रघाता ! इसमें नारीजाति का मान-सम्मान नहीं बल्कि घोर अपमान है । नारी-दर्शन से उत्पन्न सहज वासनावृत्ति को जडमूल से उखाड़ फेंकने के लिए उसकी शारीरिक बीभत्सता का विचार करना अत्यंत श्रावश्यक और महत्वपूर्ण माना गया है ! लेकिन साथ ही यह न भूलो कि नारी देह में भी अनंत गुणमय आत्मा वास करती है । नारी को 'कुक्षी' भी कही गयी है । यह कोई गलत बात नहीं है । अतः उसका समुचित आदर करना भी उतना ही जरुरी है । इसीलिए नारीदर्शन के बावजूद उसके प्रति मन में मोह आसक्ति पैदा न हो, ऐसा दर्शन करने को कहा गया है । और यह अन्तर्दृष्टि के बिना असंभव है । संसार में 'नारी' - तत्त्व महामोह का निमित्त है । लेकिन यह वैराग्य का निमित्त भी बन सकता है । इसके लिए परमावश्यक है अन्तर्दृष्टि.... तत्त्वदृष्टि.... ! लावण्यलहरीपुण्यं वपुः पश्यति बाह्यहम् । तत्त्वष्टिः श्वकाकानां भक्ष्यं कृमिकुलाकुलम् ||५||१४६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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