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तत्वदृष्टि
२६६ अब तुम हो कहो, तत्त्वदृष्टि जीव इस परिवर्तनशील दुनिया के प्रति क्या अनुरक्त बनेगा ? उसे मोह होगा या वैराग्य ? वस्तुतः तत्त्वदृष्टि धारक मनुष्य के मन में संसार के पदार्थों के प्रति मोह होगा ही नहीं ! क्योंकि तत्त्वष्टि अपने आप में मोह-जनक नहीं, बल्कि मोहमारक जो है। तत्त्वदृष्टि का चिंतन नित्यप्रति वैराग्यप्रेरक होता है। यही पूज्य उपाध्यायजी महाराज संसार के मोहोत्तेजक पदार्थों का, तत्त्वदृष्टि से चिंतन कराते हैं । आइए, हम भी उस चिंतन में प्रवेश करें !
बाह्मयष्टेः सुधासारटिता भाति सुन्दरी ।
तत्त्वष्टेस्तु साक्षात् सा विषमुत्रपिठरोदरी।। ४।। १४८।। अर्थ : वाद्यदृष्टि का नारी अमन के सार से बनी लगती है, जर कि तत्त्व
दृष्टि को बह की मलमूत्रकी हंडिया जैसी उदरवाली प्रतीत
होती है। विवेचन : सुदरी !
जगत-निर्माता ब्रह्मा ने अमृत के सार से सुदर नारी को बनाया है ! 'नैषधीय चरित' के रचयिता कवि हर्ष कहते हैं : "द्रौपदी ऐसी असीम सुन्दरी थी कि जिस की काया का गठन ब्रह्मा ने चंद्र के गर्भभाग से किया था । अतः चन्द्र का मध्य भाग काला दिखायी देता है !" सभी विख्यात कवियों ने नारी - देह का वर्णन करने में अपनी लेखनो
और कल्पना की कसौटी कर दो है...! 'असार संसार में यदि कोई सारभूत है तो सिर्फ सारंगलोचना ! मृगनयना सुन्दरी ही है !' _ 'नारी' का यह मनोहारी दर्शन, बाह्यदृष्टि वाले मनुष्यों का दर्शन है ! उसी नारी का अवलोकन अन्तष्टि महात्मा किस रूप में करते हैं, जानते हो ?
- विष्टा और मूत्र की सिर्फ एक हंडिया ! -- नरक का दिया ! -- कपट की काल-कोठरी !
क्योंकि वे नारी-देह की सुकोमल धवल त्वचा के भीतर झांकते हैं और उन्हें वहाँ विष्टा, मूत्र, रूधिर, मांस एवं हड्डियों के अलावा कुछ दिखायी नहीं देता ! उसको देखने मात्र से उन्हें राग नहीं बल्कि वैराग्य पैदा होता है !
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