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________________ २६८ परम त्यागी श्रमण का वेश तुमने धारण कर लिया, अर्थात् रागमहोदधि से पार उतरने के प्रतीक स्वरुप गणवेश धारण कर लिया है.... और प्रथाह महोदधि में तुमने छलांग लगा दी है ! त्यागी बनने मात्र से राग सागर से तुम तिर गये, पार उतर गये, यह समझने की गंभीर भूल न कर बैठना । वस्तुतः तैरना तुमने अब शुरू किया है ! लेकिन तभी तुम्हारी जीवन- नौका को तुम पार कर सकोगे जब राग -समुद्र में आने वाले अवरोधों को तत्त्वदृष्टि से देख कर अपनी नौका को बचा ले जाओगे ! उन के प्रति कतई ललचाओगे नहीं बल्कि उत्तरोत्तर वैराग्य - भावना को पुष्ट करते रहोगे । ज्ञानसान त्यागी भी उसी दुनिया में जीते हैं जिस दुनिया में रागी और भोगी जीते हैं । लेकिन रागी और भोगी लोग दुनिया को बहिर्दृष्टि से देखते हैं । उस के वर्तमान पर्यायों को ही देखते हैं; जबकि त्यागी, दुनिया के कालिक पर्यायों का निरीक्षण करता है ! पौद्गलिक पर्यायों के सम्बंध में चिंतन-मनन करता है : - "क्षण विपरिणामधर्मा मर्त्यानां ऋद्धिसमुदया: सर्वे !" , 'मनुष्य की ऋद्धि सिद्धि, संपत्ति-वैभव सब क्षणार्ध में ही परिवर्तित होने वाला है.... विपरित परिणाम में परिणत होनेवाला है ।' बाह्यष्टि आत्मा किसी वैभवशाली, समृद्ध नगर को देख, आनन्दविभोर हो उठता है । वहां प्रतर्हष्टि महात्मा सोचता है कि, 'एक दिन यह सब स्मशान में बदल जाएगा, ध्वस्त हो जाएगा । मनुष्यों की महती भीड से महकती गली और सड़कों पर एक दिन गीदड़ और, सियार के झुंड उतर आएंगे ! यह नियति का अटल नियम है। सदन स्मशान में और स्मशान सदन में बदल जाता है । किसी की आनन्द भरी किल्लोल में किसी का करुण क्रंदन और किसी के विलाप में किसी का आलाप । यह इस दुनिया की पुरानी रीत और परम्परा है, जिसे कोई बदल नहीं सकता । Jain Education International आज के वन कल के नंदनवन ! आज का नंदनवन कल का वन ! आज की रुपसुंदरी नवयौवना कल की दुर्बल असहाय वृद्धा ! प्राज की रुपहीन दूर्बलिका - कल की यौवनोन्मत्त षोडसी ! For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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